राजपथ - जनपथ
सीएम की दो टूक, सबके लिए एक कानून
रेत परिवहन को लेकर उपजे विवाद में खुज्जी विधायक छन्नी साहू अपने पति पर एक्ट्रोसिटी एक्ट के तहत कार्रवाई किए जाने के मसले पर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के सामने नांदगांव के पुलिस अफसरों और कांग्रेस नेताओं की खुलकर शिकायत की। सीएम ने शिकवा-शिकायत को सुनने के बाद विधायक को दो टूक जवाब में कहा कि कानून सबके लिए एक होना चाहिए। उनका इशारा छन्नी साहू की कार्यप्रणाली को लेकर था कि सत्तारूढ़ दल के जनप्रतिनिधि अपनी सुविधा के तहत कानून का इस्तेमाल नहीं कर सकते।
बताते है कि सीएम ने विधायक को आम जनता के बीच सरकार की छवि पर पड़ रहे प्रतिकूल असर को लेकर भी सजग किया। वैसे विधायक यह मानकर चल रही थी कि सूबे के मुखिया उनकी परेशानियों को को सुनकर मामले में दखल देंगे। चर्चा है कि सीएम ने पुलिस की कार्रवाई को न्यायसंगत ठहराते एक तरह से राजनांदगांव पुलिस को क्लीन चिट दे दी। विधायक की रखी बातों से परे सीएम का यह कहना कि कानून समान है, इससे साफ हो गया कि विधायक को अब पति के विरूद्ध दर्ज जुर्म के लिए अब अदालत का रुख करना पड़ेगा। नांदगांव की सियासत में रेत परिवहन को लेकर भिड़े विधायक और कांग्रेस नेता तरूण सिन्हा की लड़ाई व्यक्तिगत द्वंद्व का रूप भी ले सकती है।
खेल मैदान या नशे का अड्डा !
यह तस्वीर सुबह-सुबह की है जब लोग ताजी आब्बो-हवा के लिए मैदान या गार्डन के आसपास सैर के लिए निकलते हैं। स्थान है- छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर लाखेनगर के हिन्द स्पोर्टिंग मैदान के एक कोने की। एक कोना इसलिए कह रहे हैं कि चारों कोनों में लगभग यही स्थिति है, जहां पर शराब की खाली बोतलों का ढेर लगा रहता है। शायद खरीदी-बेची जाती है। यह मैदान कभी फुटबॉल के बड़े-बड़े टूर्नामेंट का गवाह हुआ करता था। अब नशाखोरी के अड्डे के साथ-साथ तमाम तरह के अवैध काम-धंधों का पोषक बन गया है। तस्वीर में दिख रहे बोरियों में भी शराब की खाली बोतलें भरी है। यह कोई एकाध दिन की बात नहीं है, बल्कि रोजाना इसी तरह शराब की खाली बोतलों का अंबार लगा रहता है। हालत यह है कि छोटे-छोटे बच्चे मैदान में खेलने नहीं बल्कि शराबियों द्वारा छोड़ी गई खाली बोतलों को इक_ा करने ही जाते हैं। उन्हें इससे पैसा मिल जाता है और वे इन पैसों से चॉकलेट-बिस्किट नहीं खरीदते, बल्कि वे भी खतरनाक नशे की दवाइयां या सिलोसन खरीदते हैं। जिससे वे पूरे दिन नशे में चूर रहते हैं। सुबह-सुबह खाली बोतलों के ढेर इस बात के प्रमाण है कि शाम होते ही यहां शराबियों की महफिल सजती है और देर रात तक दौर चलता है।
लोग बताते हैं कि मैदान के आसपास तंबूओं में नशे के सामान बिक्री और सट्टे का गोरख धंधा सातों दिन चौबीसो घंटे चलता है। साहस देखिए कि अवैध काम खुलेआम चलता है। बिल्कुल वैध जैसा। संभव है कि शासन-प्रशासन का संरक्षण होगा। असल सवाल यह है कि क्या चंद सिक्कों की खनक के एवज में खेल मैदान का ऐसा दुरुपयोग ? बच्चों-युवाओं को नशे के दलदल में धकेलने का काम कैसे जायज हो सकता है ? सवाल यह भी है कि समाज और शासन-प्रशासन के जिम्मेदारों को यह कितना खेल कितना फलता, जिसकी वजह से वो इसका मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं। वो भी तब जब सत्ता में आने से पहले कांग्रेस ने लाखों बहन-बेटियों और माताओं से वादा किया था कि प्रदेश में पूर्ण शराबबंदी लागू करेंगे। इस वादे के कारण बंपर बहुमत के साथ सत्ता में आई सरकार का कार्यकाल दो दिन बाद तीन साल पूरा हो रहा है, लेकिन वादा पूरा करना तो दूर नौनिहालों तक को नशेड़ी बनाने का काम चल रहा है। वोट के लिए माताओं-बहनों को देवी-महतारी का दर्जा देने वाले सत्ताधीशों को विचार करना चाहिए कि उनसे धोखा कितना भारी पड़ सकता है ?
अपनी खबरों और इस कॉलम के जरिए हम पहले भी खेल मैदानों की दुर्दशा पर शासन-प्रशासन का ध्यान आकृष्ट करते रहे हैं, लेकिन यहां जिस तरह नशाखोरी को बढ़ावा दिया जा रहा है, उससे हम सभी की जिम्मेदारी और चिंता कई गुना ज्यादा बढ़ जाती है। संभव है कि इस दलदल में हमारा कोई अपना भी फंस सकता है। कम से कम अपने चहेते को बचाने के कड़े कदम उठाने की जरूरत है। अगर हम भी नहीं जागे तो पैसे और शोहरत की अंधाधुंध दौड़ में बर्बाद होते देर नहीं लगेगी।
मेवे को पूरी छूट
छत्तीसगढ़ में इन दिनों नगरीय निकाय के चुनाव चल रहे हैं। चुनावी फिजूलखर्ची पर लगाम लगाने चुनाव आयोग ने प्रत्याशियों के खर्च की सीमा तय की है। प्रत्याशियों को बकायदा खर्च का ब्यौरा भी देना पड़ता है। इसके लिए प्रचार सामग्री, वाहन किराया से लेकर खाने-पीने के सामानों की रेट तय किए जाते हैं, ताकि उसके आधार पर खर्च का ब्यौरा दिया जा सके। नगरीय निकाय के चुनावों में स्थानीय स्तर पर बाजार रेट के आधार पर रेट लिस्ट तय किए जाते हैं। छत्तीसगढ़ के दुर्ग और कांकेर में स्थानीय निकाय के चुनाव के लिए जारी रेट लिस्ट काफी रोचक है। कांकेर में तो अंग्रेजी और हिन्दी नाम के कारण ही भोजन की कीमत अलग-अलग हो गई है, जबकि खाना एक ही है। अगर कोई प्रत्याशी अंग्रेजी नाम वाली थाली कार्यकर्ताओं को खिला रहा हो, तो उसकी जेब कुछ ज्यादा ही ढीली हो सकती है। वहां सादी थाली की कीमत केवल 40 रुपए है, लेकिन नार्मल थाली की कीमत 140 रुपए है। नाम के आधार पर रेट सुनकर तो आप भी चौंक ही गए होंगे। हमको भी हैरानी हुई थी। इसी तरह दुर्ग में एक समोसे की कीमत 10 रुपए आंकी गई है, जबकि कांकेर में एक समोसे के लिए 20 रुपए का रेट फिक्स है। कांकेर में केसर लस्सी मात्र 5 रुपए की होगी तो दुर्ग में 30 रुपए प्रति गिलास के हिसाब से खर्च जोड़ा जाएगा। कांकेर में फुल चाय 7 रुपए का है तो दुर्ग में 20 रुपए का माना जाएगा। संभव है कि अलग-अलग इलाके में रेट कुछ कम ज्यादा हो सकता है, लेकिन इतना ज्यादा अंतर और अंग्रेजी-हिन्दी नाम के आधार पर रेट को देखकर तो यही लगता है कि दाम तय करने वाले अधिकारी घर के बाहर या तो कुछ खाते-पीते नहीं होंगे या भुगतान नहीं करते होंगे। इसके अलावा एक और बात गौर करने लायक है कि सूची से मेवा नदारद है। इसका यह अर्थ लगाया जा रहा है कि मेवा खाने-खिलाने पर खर्च के ब्यौरे में शामिल नहीं होगा। तभी तो बड़े नेताओं की मेज पर सिर्फ काजू-किशमिश सजी रहती है।
हमें तो अंडा खाना ही है..
छत्तीसगढ़ सरकार ने जब मध्यान्ह भोजन में स्कूली बच्चों को अंडा देने का निर्णय लिया तो पवित्रता का हवाला देते हुए अनेक लोगों ने इसका विरोध शुरू कर दिया। सरकार को अपना फैसला बदलना पड़ा और अंडे की जगह सोयाबड़ी देने का निर्णय लिया गया। छत्तीसगढ़ में बच्चों की ओर से कोई विरोध नहीं हुआ था, नेताओं ने मोर्चा संभाला था। अब कर्नाटक में भी ऐसा ही हो रहा है। वहां के लिंगायत साधुओं ने अंडा देने का विरोध किया तो छात्राओं का एक वर्ग उनके खिलाफ सामने आ गया। उन्होंने कहा- हम आपके मठ में जाकर अंडे खायेंगे। हम क्या खायेंगे, पीयेंगे यह तय करने वाले आप कौन होते हैं। क्या हम नहा-धोकर मंदिरों, मठों में नहीं जाते? हमारा अंडा खाना इतना ही गलत लगता है तो आप वो सब पैसे हमें लौटा दीजिये जो हमने दान में दिये। हम उससे पौष्टिक अंडा खरीदेंगे। हम इतने लोग मठों में पहुंचेंगे कि वहां आप लोगों के खड़े होने की जगह ही नहीं बचेगी।
जरा छत्तीसगढ़ में भी फैसला बदलने से पहले बच्चों से पूछा जाना चाहिये कि वे अंडा खाने के खिलाफ हैं या नहीं।
यह है आवारा कुत्तों की दशा..
सडक़ों पर घूमने वाले कुत्तों को अपनी उदरपूर्ति के लिये क्या नहीं करना पड़ता? कुछ दयालु किस्म के लोग अपने आसपास दिखने वाले कुत्तों को बचा खाना खिला देते हैं, बाकी इधर-उधर भटकते रहते हैं। ऐसे ही एक कुत्ते को लगा होगा कि इस प्लास्टिक के डिब्बे में कुछ दाना बचा है। उसने सिर घुसाया और फंस गया। भूख मिटी या नहीं पता नहीं लेकिन सिर फंस जाने के कारण वह घंटों बदहवास था। यह तस्वीर भिलाई की है।