राजपथ - जनपथ
सिलगेर से कैका तक..
बीते छह-आठ महीनों के भीतर हुए नक्सली मुठभेड़ में बस्तर के ग्रामीणों की मौत ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। ताजा मामला बीजापुर जिले के कैका का है। जिस रितेश पूनेम को 3 लाख रुपए का इनामी नक्सली बताकर पुलिस ने मार गिराया, उसके बारे में गांव के लोग दावा कर रहे हैं कि पिछले 18 महीनों से संगठन छोड़ कर गांव आ चुका था। मुठभेड़ जैसी कोई बात ही नहीं थी। वह खेती बाड़ी करने लगा था उसके पास कोई हथियार नहीं था। उसे गिरफ्तार किया जा सकता था। पुलिस से ही डर कर वह अपने मामा के गांव में रहता था। सवाल उठता है कि क्या पुलिस के सामने सरेंडर करने से ही किसी की घर वापसी मानी जाएगी? अपनी मर्जी से किसी ने नक्सलियों का साथ छोड़ दिया तो उसे सताया जाएगा?
इसके पहले बीते जनवरी महीने में 24 तारीख को नारायणपुर जिले के मानूराम मुरेठी की कथित मुठभेड़ में हुई मौत पर आखिरकार पुलिस को मानना पड़ा कि वह नक्सली नहीं था।
सिलगेर में भी अजूबा हुआ था। वहां सीआरपीएफ कैंप का ग्रामीणों ने विरोध किया। सुरक्षाबलों ने फायरिंग की और तीन लोगों की मौत हो गई। दावा किया गया कि जिनकी मौत हुई है वे सब नक्सली थे। भीड़ में की गई फायरिंग का निशाना ठीक कथित नक्सलियों पर ही कैसे लगा, यह सवाल खड़ा हो गया। इसके विरोध में महीनों आंदोलन चला। विरोध प्रदर्शन करने वालों की संख्या 10 हजार से अधिक पहुंच गई थी।
नारायणपुर को छोडक़र बाकी दोनों मामलों में पुलिस और सुरक्षा बल अपनी बात पर क्राइम हैं। वह यह कि जो आंदोलन और विरोध किया जा रहा है, नक्सलियों के बहकावे की वजह से है।
नक्सली नेतृत्व की बात छोड़ दें तो उनके नीचे काम करने वाले लड़ाकू आसानी से पहचाने भी नहीं जाते हैं। ग्रामीण और नक्सलियों के बीच फर्क दिखता नहीं। इसलिए सुरक्षा बलों की बातें कुछ हद तक सही भी हो सकती है।
नक्सल उन्मूलन का दावा पिछले 22 सालों में जितनी भी सरकारें बनी करती आ रही हैं। मगर एक ट्रेंड दिखाई दे रहा है कि सब कुछ अफसरों के भरोसे छोड़ दिया गया है। वे अफसर जिन पर आम आदिवासियों का भरोसा जीतने की जिम्मेदारी है।
रितेश पुनेम का अंतिम संस्कार पुलिस जल्दबाजी में करने जा रही थी। सैकड़ों ग्रामीणों के दबाव में रुकना पड़ा। बहुत तनातनी के बीच रविवार को अंत्येष्टि हो पाई।
पूरे बस्तर संभाग में सब के सब विधायक सत्तारूढ़ कांग्रेस से हैं। मान लेते हैं कि सत्ता में हिस्सेदारी होने के कारण भी कम बोल रहे हो पर, भाजपा ने, खास कर उनकी प्रभारी महासचिव ने बस्तर पर जबरदस्त फोकस किया हुआ है। एक विपक्ष की भूमिका निभाते हुए क्या उन्हें सिर्फ बैठकों और संगठन विस्तार की चर्चा करनी चाहिए? जिस तरह सत्तारूढ़ होने के दौर में भाजपा इन मसलों की हकीकत और गहराई तक पहुंचने के लिए तैयार नहीं थी आज विपक्ष में भी रहते हुए ऐसा ही कर रही है।
झूला घर जो हर जिले में हो
बिलासपुर में पुलिस ने एक अनूठा काम किया जिसके बारे में पहले कभी विचार नहीं किया गया। पुलिस लाइन में बिलासा गुड़ी सभागार के ऊपर की जगह खाली थी जहां एक झूला घर शुरू किया गया है। यहां नन्हे बच्चों की रुचि के तमाम सामान उपलब्ध करा दिए गए हैं। ऐसी महिला पुलिस और पुरुष भी जो अपने बच्चों को कहीं भी छोड़ नहीं पाते थे उनके लिए यह सुकून भरा तोहफा है। एसएसपी पारुल माथुर ने पाया कि महिला पुलिस कई बार बच्चों को लेकर ड्यूटी पर आती हैं। वे जेल तथा कोर्ट भी जाती हैं। ड्यूटी की तन्मयता और क्षमता पर क्या असर पड़ता है यह तो दूसरी बात है लेकिन बच्चों के कोमल मन पर जेल, थाना, कोर्ट देखने का असर क्या होता होगा, इस पर गौर किया गया।
यहां एक आया और चार पुलिसकर्मियों की 24 घंटे ड्यूटी रहेगी। बच्चों के लिए खाना वे घर से लाएंगे, जो आया और यहां तैनात पुलिसकर्मी उन्हें खिलाएंगे। खेल और लिखने पढऩे में भी मदद करेंगे। यह व्यवस्था सरकारी फंड के बिना ही की गई है। लोग कह रहे हैं क्योंकि जिले की कप्तान महिला है, इसलिए उनके मन में संवेदना से भरा हुआ यह विचार आया।
गूगल की लैंगिक नासमझी
गूगल जैसा अमरीका से उपजा हुआ ऑनलाईन कारोबार भी अमरीकी पैमानों को पूरा नहीं कर पा रहा है। उस देश में महिलाओं को बराबरी का दर्जा देना एक कानूनी बंदिश का मामला है। लेकिन गूगल में भाषा को सुधारने का जो औजार हैं, वे बताते हैं कि अगर किसी ने जनसंहार लिखा है, तो गूगल उसकी जगह नरसंहार सुझाता है। यानी गूगल यह भी मानने को तैयार नहीं है जंग में मारे गए नागरिकों में महिलाएं भी होती हैं, वह सिर्फ नरसंहार की बात करता है।