राजपथ - जनपथ
छत्तीसगढ़ के नींबू के भी दिन फिरे
नींबू के दाम ने महंगे अनार, सेब जैसे फलों को भी पीछे छोड़ दिया है। छत्तीसगढ़ में खपत का केवल दस फीसदी उत्पादन होता है। ज्यादातर सप्लाई आंध्र प्रदेश से होती है। बारिश और चक्रवात के चलते हुए नुकसान ने देशभर में आपूर्ति कम कर दी। पर यह अब कुछ दिनों की बात है। आंध्र में नई फसल तैयार हो रही है, जो डेढ़ से दो माह बाद बाजार में आ जाएगी। पर तब तक गर्मी भी कम हो चुकी रहेगी। अभी तो डिमांड भरपूर है और उपलब्धता बहुत कम। छत्तीसगढ़ में महासमुंद और एक दो जिलों में नींबू की व्यवसायिक खेती की जाती है। ग्रामीण इलाकों में छोटे छोटे बगीचों से निकल रहे नींबू भी अच्छे दाम पर बिक रहे हैं। गावों से निकलने वाला नींबू भी अब नग के हिसाब बिक रहा है, जो 50 से 60 रुपए किलो में मिलता था। शहरों में बिक्री पर इन्हें 30 से 40 फीसदी मुनाफा हो रहा है। नींबू की मांग और कीमत ने एक बार फिर यह सोचे जाने की वजह है कि छत्तीसगढ़ में धान के अलावा विविध दूसरी फसलों को बढ़ावा देने की कारगर कोशिश हो।
जुर्म का फायदा किसे मिल रहा
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में नए साल के पहले ही दिन नेकी की एक दीवार को जलाकर राख कर दिया गया था जिसे कि गरीबों के लिए कपड़े छोडऩे की जगह की तरह बनाया गया था। यहां पर फाइबर से बनाई गई रंग-बिरंगी मूर्तियां थीं, जहां बच्चे खेलते भी थे, और लोग अपने बेकार कपड़े छोड़ जाते थे। इस जगह के पीछे दो महंगे ब्रांड के रेस्त्रां शुरू हुए थे, और फिर मानो उन्हेें सडक़ से दिखाने के लिए इस दीवार को जलाकर राख कर दिया गया था। नेकी गई भाड़ में, और किसी के जुर्म का फायदा दीवार के पीछे छुपे इस कारोबार को हो रहा था। भाजपा ने इस दीवार को फिर से बनाने के लिए आंदोलन किया तो म्युनिसिपल ने एक महीने का वायदा किया था। वह महीना कब का निकल गया, और उसके काफी अरसा बाद म्युनिसिपल का एक बैनर इस जगह पर टांग दिया गया था। अब उस बैनर को भी फाडक़र फेंक दिया गया है, और एक बार फिर पीछे दब रहे धंधों की नुमाइश शुरू हो गई है। अब इन सबका मुजरिम कौन है यह पता लगाना तो पुलिस और अफसरों का काम है लेकिन इस जुर्म का फायदा किसे मिल रहा है, यह तो सामने खड़े होकर ही देखा जा सकता है।
मछली के बच्चे
चुनाव में कई किस्म की जालसाजी और धोखाधड़ी होती है। अभी छत्तीसगढ़ के खैरागढ़ में विधानसभा उपचुनाव हुआ, तो एक अखबार की एक कतरन गढ़ी गई, और इस जालसाजी को लोगों के बीच फैलाया गया। इसी तरह भाजपा विधायक बृजमोहन अग्रवाल की रिकॉर्डिंग बताते हुए एक ऑडियो क्लिप चारों तरफ फैली जिसे बृजमोहन की आवाज बताया गया। अब जानकारों ने तो तुरंत इस जालसाजी को पकड़ लिया लेकिन ऐसी जालसाजी की किसने होगी? राजनीति में जरूरी नहीं है कि जो जाहिर तौर पर दिखे, वही सच हो। और चुनाव तो राजनीति का सबसे घटिया दर्जे का काम होता है। पहली नजर में जिन लोगों को नुकसान पहुंचाने के लिए कोई चीज गढ़ी हुई दिखती है, वह हो सकता है कि उनके हिमायती ही गढ़ें, और विरोधियों को बदनाम करने के लिए इसका इस्तेमाल करें। अखबारों का भी ऐसे माहौल में जमकर इस्तेमाल होता है, कुछ को धोखा देकर इस्तेमाल होता है, और कुछ इस्तेमाल होने के लिए पेश भी रहते हैं। खैरागढ़ उपचुनाव में बहुत अधिक तो नहीं हुआ, लेकिन थोड़ा-बहुत जरूर हुआ जिससे और किसी को न सही, कम से कम मीडिया को सबक लेने की जरूरत है। राजनीति के लोग तो मछली के बच्चे हैं, उन्हें तैरना कोई क्या सिखा सकते हैं।
फिर मुनाफे वाले जोन में खराब सेवा क्यों?
रेलवे ने पंजाब और हिमाचल प्रदेश के अंतर्गत फिरोजपुर मंडल के 13 रेलवे स्टेशनों को बंद करने का फैसला लिया है। इनमें से कई स्टेशन बहुत पुराने हैं। कुछ दिन पहले एक आंकड़ा सामने आया था कि कोविड-19 महामारी के नाम पर बंद किए गए स्टेशनों में करीब 1600 ऐसे हैं, जहां स्थानीय लोगों के विरोध के बावजूद रेलवे ने स्टापेज देना बंद कर दिया है। इनमें छत्तीसगढ़ के भी कई स्टेशन शामिल हैं। फिरोजपुर मंडल के यात्रियों में भारी नाराजगी है, जिसके जवाब में रेलवे ने तर्क दिया है कि इन स्टेशनों में बहुत कम राजस्व मिलता है।
यह बात किसी के गले नहीं उतर रही है। पहली बात तो यह है कि स्टेशन-स्टेशन की अलग-अलग आमदनी का हिसाब लगाना शुरू किया जाएगा तब तो छोटे स्टेशनों के यात्रियों की सहूलियत छिनती ही चली जाएगी। रेल सेवाओं में भारी असंतुलन पैदा हो जाएगा। यदि यही तर्क सही है तो बिलासपुर रेलवे जोन से गुजरने, चलने वाली पैसेंजर ट्रेनों को अचानक एक माह के लिए बंद करने के पीछे रेलवे क्या सफाई देगा? यह जगजाहिर है कि बिलासपुर, रेलवे को सबसे ज्यादा आमदनी देने वाला जोन है। बीते वित्तीय वर्ष के समाप्त होने पर एक प्रेस नोट जारी कर रेलवे ने यहां से हुई 23 हजार करोड़ रुपये की आमदनी को लेकर अपनी पीठ थपथपाई थी। ऐसा है, तो फिर पैसेंजर ट्रेनों को बंद क्यों किया गया। मुख्यमंत्री की नाराजगी पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं है।
प्रदेश के 11 में से 9 भाजपा सांसद हैं। इनमें से कुछ ने औपचारिक पत्र लिखकर रेलवे से इन ट्रेनों को शुरू करने की मांग रखी है, पर सिर्फ रस्म निभाने की तरह। राज्य सरकार के अधिकारिक पत्र का भी असर नहीं हुआ है। लंबे समय से रायपुर-बिलासपुर के बीच सुपर फास्ट मेट्रो ट्रेन चलाने की मांग हो रही है, पर रेलवे ने उसे पूरा नहीं किया। जगदलपुर में रेल लाइन को रायपुर से जोडऩे के लिए तो पदयात्रा भी इसी समय चल रही है। ममता बेनर्जी के कार्यकाल में बिलासपुर के लिए रेलवे ने एक मेडिकल कॉलेज और मल्टीस्पेशियलिटी हॉस्पिटल खोलने की घोषणा की थी, पर संसद में की गई यह घोषणा कब की फाइलों में दब चुकी।
रेलवे से प्रतिदिन लाखों यात्रियों को सस्ती सुलभ यात्रा सेवा मिलती है। पेट्रोल डीजल के बढ़ते दामों के बीच रेलवे ने अब तक पैसेंजर ट्रेनों में एमएसटी शुरू नहीं की है। नि:शक्तों को छोडक़र बाकी सब के लिए रियायती टिकट बंद है। ऊपर से पैसेंजर ट्रेनों सफर करने वाले सीमित कमाई वाले यात्रियों से भेदभाव किया जा रहा है। राज्य की लोक कल्याणकारी नीति होती है, जिसमें जरूरतमंदों पर राजस्व का हिस्सा खर्च किया जाता है। पर अब रेलवे अब शुद्ध व्यापारी की तरह बर्ताव कर रहा है। यही हाल रहा तो निजीकरण की भी जरूरत नहीं रह जाएगी।
मंडावी से समाज के युवा नाराज..
कांकेर लोकसभा सीट से भाजपा के सांसद मोहन मंडावी ने 2019 से पहले कोई चुनाव नहीं लड़ा था। पिछली बार सभी सीटों पर भाजपा ने नए उम्मीदवारों को मौका दिया था। उनकी पहचान एक रामकथा वाचक और मानस गायक की रही है। आरएसएस से उनका लंबे समय से जुड़ाव है। जब टिकट मिली तब लोकसेवा आयोग के सदस्य थे। इन सब खूबियों के बीच उनके समाज का एक वर्ग उन्हें आदिवासी नहीं मान रहा है। वे कांकेर में ही आयोजित आदिवासी समाज के एक पारंपरिक पर्व मरका पंडुम में शामिल होने पहुंचे थे। पर जैसे ही गाड़ी से उतरे, उनके खिलाफ नारेबाजी शुरू हो गई। भीड़ ने उन्हें घेर लिया। किसी तरह पुलिस और अपने सुरक्षा कर्मियों की मदद से वे वापस गाड़ी में बैठे और सुरक्षित लौट पाए। जैसी की खबर है कि प्रदर्शन करने वालों में ज्यादातर आदिवासी युवा ही थे। उनका कहना था कि सांसद मंडावी असली आदिवासी नहीं है। ये युवा कुछ दिन पहले किसी सभा में मंडावी के दिए गए एक बयान को लेकर विरोध जता रहे थे। उनका कहना था कि उनका कथन सामाजिक मान्यता के खिलाफ था।
बहरहाल, दस्तावेजों में तो मंडावी के आदिवासी होने को कोई चुनौती नही दी जा रही है। उन्हें अपने समाज के बीच पैदा हुई नाराजगी को ही दूर करना होगा।