राजपथ - जनपथ
जमीन पर गिरे महुआ नहीं खरीदेंगे
महुआ का सबसे प्रचलित इस्तेमाल कच्ची शराब बनाने के नाम पर जाना जाता है। पर पिछले एक दो वर्षों से विदेशी कंपनियों ने इसकी खरीदी में दिलचस्पी दिखाई है। कटघोरा क्षेत्र में संग्रहित महुए की खरीदी लघु वनोपज समितियों के माध्यम से कुछ अमेरिकी कंपनियां खरीदने लगी हैं। इस कंपनी की शर्त यह है कि वे जमीन पर गिरे हुए महुए नहीं खरीदेंगे और संग्रहित महुए को तुरंत प्रोसेसिंग के लिए लेंगे ताकि अमेरिका की फैक्ट्रियों में पहुंचने तक खराब न हों। ग्रामीणों ने एक रास्ता निकाला और महुए के पेड़ के नीचे जाल बिछाकर रखना शुरू कर दिया। दूसरे दिन सैकड़ों महुए जाल के ऊपर गिरे मिलते हैं। इसे एक साथ बटोर लिया जाता है। घंटों महुए को बीनने से छुटकारा मिला है और कंपनी को उनकी मांग के अनुसार साफ-सुथरा फल भी मिलने लगा है। अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों में महुए से चाक, बिस्कुट और सुंगधित दूसरे खाद्य पदार्थ बनाये जा रहे हैं, जिनकी खासी मांग है। जटगा, लेमरू, बड़मार आदि गावों में महुआ संग्रहण की यह तकनीक चलन में आ गई है। आदिवासियों के बीच महुए को किस तरह से एकत्र किया जाए, यह तकनीक अमेरिका की कंपनी से बताई जिससे उसकी गुणवत्ता और शुद्धता बढ़े। हमारे कृषि और वन विभाग के अधिकारियों के ध्यान में यह बात कभी आई नहीं।
रेलवे के फैसले संतुष्ट हैं?
रेलवे ने 26 अप्रैल से करीब एक माह के लिए रद्द की 22 में से 6 ट्रेनों का परिचालन यथावत रखने का फैसला लेकर बताने की कोशिश की है कि वह पूरी तरह असंवेदनशील नहीं हैं। इस फैसले की सबसे ज्यादा खुशी भाजपा सांसद महसूस कर रहे हैं, क्योंकि वे मजबूरी और अनुशासन के चलते रेलवे का विरोध नहीं कर पा रहे थे। दूसरी ओर कांग्रेस के मंत्री, विधायकों को भी सुकून है कि उन्होंने आंदोलन की चेतावनी दी, जो काम कर गया। आम आदमी पार्टी ने खुद को श्रेय दिया है कि हमने तीन दिन का अल्टीमेटम दिया और उसके पहले रेलवे बैकफुट पर आ गई। पर देखा जाए तो इसमें संतुष्ट होने जैसी कोई बात नहीं है। रेलवे ने केवल एक पैसेंजर को बहाल करने की घोषणा की है, बिलासपुर-कोरबा। वह भी इसलिए क्योंकि अमृतसर से आने के बाद बिलासपुर से छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस को कोरबा तक खाली न दौडऩा पड़े। अभी भी रेलवे ने रद्द किसी पैसेंजर को बहाल नहीं किया है। रायपुर डीआरएम ऑफिस के सामने कांग्रेस अध्यक्ष के नेतृत्व में किए गए प्रदर्शन और मंत्री जयसिंह अग्रवाल की आंदोलन करने की वजह अभी भी बनी हुई है। देखना है कि वे रेलवे की ओर से दी गई इस राहत से कांग्रेस संतुष्ट हैं या उनकी चेतावनी अब भी कायम है।
बामडा जैसी कामयाबी क्यों नहीं?
देश के कुछ राज्यों में बिजली संकट और उसके कारण कोयले की आपूर्ति के लिए ट्रेनों को रद्द करने के मामले ने इतना उलझा दिया है कि लोग रेलवे से मिली स्थायी होती जा रही तकलीफ की चर्चा ही नहीं छेड़ रहे हैं। कोरोना के नाम पर छोटे स्टेशनों को वीरान कर दिया गया है। इनमें छत्तीसगढ़ की दर्जनों स्टेशन भी शामिल हैं। कटनी रूट का एक महत्वपूर्ण स्टेशन करगीरोड भी इसी झटके से अब तक नहीं उबर पाया है। इसके कारण सैकड़ों लोगों के रोजगार पर असर पड़ा है। जो लोग प्लेटफार्म पर आश्रित थे, उन पर और जो लोग काम धंधे नौकरी के लिए सफर करते थे उन पर भी। पिछले माह यहां के नागरिकों ने स्टेशन के भीतर घुसकर प्रदर्शन किया। उस वक्त रेलवे के अधिकारियों ने शीघ्र ट्रेनों का स्टॉपेज शुरू करने का आश्वासन दिया और प्रदर्शन खत्म कराया। अब तक मांग मानी नहीं गई है और वे धरने पर हैं। इस बीच रेलवे ने यह जरूर किया कि दो दर्जन लोगों के नाम पर नोटिस जारी कर दी, लाखों रुपयों की वसूली का। रेलवे का कहना है कि आंदोलन के दौरान उसकी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया। अब आंदोलन कर रहे लोगों को समझ नहीं आ रहा है कि उन्होंने किस संपत्ति को हाथ लगाया। आंदोलन के दौरान कोई तोडफ़ोड़ तो की ही नहीं गई। उनका कहना है कि ये नोटिस दबाव है, आंदोलन से पीछे हटने के लिए। पर कहीं कहीं दबाव काम आ जाता है। मनेंद्रगढ़ में स्टॉपेज शुरू करने के लिए दो बार मालगाड़ी रोकी जा चुकी है। रेलवे पर इसका भी असर नहीं हुआ।
दूसरी तरफ, ओडिशा में पिछले महीने बामड़ा स्टेशन पर स्टॉपेज फिर शुरू करने की मांग पर लोगों ने बाजार बंद कर दिए। सब सडक़ों और पटरी पर उतर गए। इसके बाद रेलवे ने यहां स्टॉपेज देना शुरू कर दिया। फर्क यह था कि वहां वहां नागरिक एकजुट थे। अपने यहां कांग्रेस, भाजपा एक दूसरे की पहल को सवालों में घेर देते हैं। सर्वदलीय मंच भी बन जाए तो देखते हैं कि इसके पीछे कौन सा दल है।