राजपथ - जनपथ
चूड़ी उतारने और पहनाने का यहां रिवाज
महाराष्ट्र सरकार ने कोल्हापुर जिले के हेरवाड ग्राम पंचायत के फैसले को नजीर मानते हुए पूरे प्रदेश में विधवा के साथ जुड़ी उस प्रथा को समाप्त करने का निर्णय लिया है, जिसमें उन्हें चूड़ी तोडऩे, सिंदूर पोंछने, मंगल सूत्र निकालने और सफेद साड़ी पहनने की बाध्यता रही है। अभी इसके लिए कोई सजा तय नहीं की गई है, लेकिन लोगों में जागरूकता लाई जाएगी।
छत्तीसगढ़ के कई हिस्सों में खासकर गैर आदिवासी समुदायों में यह रिवाज बना हुआ है। पति की मौत के बाद विधवा महिलाओं को सबके सामने यह रस्म निभानी पड़ती है। दस दिन तक उसे लंबी कतार में लगकर तालाब जाना होता है। बहुत से गावों में अब तालाब नहीं हैं। हैं भी तो प्रदूषित। पर उन्हें प्रथा का पालन करना पड़ता है। कांक्रीट की सडक़ से गुजरते महिला-पुरुषों के कारण कई बार यातायात भी बाधित होता है।
इधर समाज की कमान युवाओं के हाथ में आने के बाद कई प्रथाओं के खिलाफ उनकी आवाज बुलंद हो रही है। छत्तीसगढ़ के बहुत से सामाजिक बैठकों में मृत्यु भोज की प्रथा को बंद करने का निर्णय लिया जा चुका है। कुछ ने तय कर लिया है कि किसी तरह का शाही पकवान मृत्यु भोज में नहीं बनेगा, सिर्फ सादा खाना दिया जा सकेगा। किसी समाज ने मेहमानों की संख्या सीमित कर दी है। इस खर्चीले कार्यक्रम को कई परिवार परिस्थितियां विषम होने के बावजूद कर्ज लेकर रखते हैं।
करीब तीन साल पहले रायपुर में सोनकर समाज ने फैसला लिया था, कि विधवा की चूड़ी तोडऩे, सिंदूर मिटाने जैसी प्रथा अब तालाब में या किसी सार्वजनिक जगह पर नहीं पूरी की जाएगी। वह तालाब में नहाने के लिए भी नहीं जाएगी। पति की मौत से दुखी महिला के साथ इस तरह का व्यवहार गलत माना गया। हालांकि प्रथाओं को खत्म नहीं किया गया, बल्कि घर पर ही पूरा करने का निर्णय लिया गया। अभी यह ठीक पता नहीं कि समाज के इस फैसले का पालन तीन साल बाद कितना पालन हो रहा है।
छत्तीसगढ़ में कई समाज ऐसे हैं, जो युवा विवाहित सदस्य की मौत के बाद महिला को वापस मायके नहीं भेजते, बल्कि अविवाहित मृतक का भाई है तो उसके साथ विवाह करा देते हैं। कई ऐसे भी उदाहरण आते हैं, जब घर का कोई सदस्य विवाह योग्य नहीं मिलता तो करीबी रिश्तेदारों से संपर्क करते हैं। ऐसी दुबारा होने वाली शादी सादगी से होती है, जिसे चूड़ी पहनाने का रिवाज भी कहते हैं।
छत्तीसगढ़ ही देश के कई आदिवासी अंचलों में लडक़ा-लडक़ी एक दूसरे से मिल जुलकर, नाच गाकर खुद ही अपनी पसंद परिवार वालों को बता देते हैं। कई बार परिवार वाले नहीं मानते तो भाग जाते हैं और फिर लौटकर दंड देकर बिरादरी में शामिल हो जाते हैं।
सामाजिक प्रथाओं में सुधार की कई गुंजाइश हैं, कुछ को बंद करने की तो कुछ को प्रोत्साहित करने की- जैसे विधवा विवाह की। अपने यहां प्राय: सरकारों ने इस दिशा में नहीं सोचा। सामाजिक बैठकों के फैसलों और प्रथाओं पर कोई हस्तक्षेप किया नहीं जाता। पर महाराष्ट्र सरकार के प्रगतिशील फैसले के बाद शायद छत्तीसगढ़ में भी आगे कोई पहल हो।
बैलाडीला कान फेस्टिवल में
छत्तीसगढ़ी में बड़ी संख्या में फिल्म बनने के बावजूद समीक्षकों का मानना है कि ज्यादातर स्तरीय नहीं होती। बॉलीवुड की खराब नकल होती हैं। पर धीरे ही सही, नये प्रयोग हो रहे हैं। पिछले साल संजीव बख्शी की कहानी पर आधारित मनोज वर्मा की फिल्म भूलन द मेज को क्षेत्रीय श्रेणी में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था। अब एक और उपलब्धि से बेहतर क्रियेटिविटी जारी रहने की उम्मीद जागी है। छत्तीसगढ़ी-हिंदी में बनी डेढ़ घंटे की फिल्म- बैलाडीला को कान फेस्टिवल के लिए चुना गया है। पूरे भारत से इस फेस्टिवल में केवल पांच फिल्मों को इंट्री मिली है, इनमें एक छत्तीसगढ़ में बनी फिल्म का होना मायने रखता है। फिल्म के निर्माता निर्देशक बिलासपुर जिले के एक छोटे से स्टेशन टेंगनमाड़ा के युवा शैलेंद्र साहू हैं। बड़ी बात यह भी है कि उन्होंने फिल्म के लिए बजट का इंतजाम क्राउड फंडिंग से किया है।
प्रीतिभोज में रक्तदान
विवाह समारोह के बाद प्रीतिभोज वैसे तो खाने-पीने और नाचने-गाने के लिए रखे जाते हैं, पर इससे अलग हटकर कुछ किया जाए तो बात अलग हो जाती है। बसना इलाके के एक गांव जोगीपाली में गणेश नायक ने अपने विवाह के प्रीतिभोज में रक्तदान के लिए भी काउंटर लगा दिया। किसी पर दबाव नहीं था कि वे प्रीतिभोज में आए हैं तो रक्तदान भी करें, स्वैच्छिक था। फिर भी 50 से अधिक मेहमान ऐसे थे जिन्होंने रक्तदान किया। गणेश पहले से ही रक्तदान के कैंपेन से जुड़े हुए हैं, मगर अपनी शादी के समारोह में किए गए उसके इस अनूठे प्रयोग के चलते लोगों में जागरूकता आई।