राजपथ - जनपथ
जोगी की आत्मकथा जल्द अंग्रेजी में
पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के जीवनकाल से जुड़ी हिन्दी में पूर्व में प्रकाशित हो चुकी आत्मकथा का जल्द ही अंग्रेजी में प्रकाशन होगा। चर्चा है कि स्व. जोगी के राजनीतिक और प्रशासनिक संघर्षों से जुड़ी कहानियां आत्मकथा में शामिल की गई हैं। उनके बेटे अमित जोगी और कुछ सहयोगी अंग्रेजी में अनुवाद कर पुस्तक लगभग तैयार कर चुके हैं। चूंकि जोगी से जुड़ा विषय है, तो राजनीतिक कयास भी लगने ही हैं. पिछले दिनों दिल्ली में प्रदेश कांग्रेस सरकार के नेतृत्व परिवर्तन के अटकलों के बीच छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस पार्टी के विलय की भी चर्चाएं जोरों पर थी। बताते हैं कि जोगी कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीमती रेणु जोगी की दिली ख्वाहिश है कि आत्मकथा के अंग्रेजी अनुवाद का विमोचन कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी के हाथों हो। पार्टी के विलय की चर्चा की असली वजह यह रही कि विमोचन के लिए श्रीमती जोगी ने दस जनपथ से समय लिया। वैसे भी रेणु जोगी के साथ श्रीमती गांधी के रिश्ते व्यक्तिगत रूप से आज भी मजबूत हैं। जोगी की आत्मकथा के अंग्रेजी में अनुवाद होने के बाद प्रकाशित होने से एक बड़े वर्ग को उनके सत्ता संघर्ष से लेकर प्रशासनिक अफसर के तौर पर किए गए कामों को समझने का मौका मिलेगा। सुनते हैं कि अंग्रेजी की पुस्तक लगभग तैयार हो चुकी है। जोगी ने अपने जीवनकाल में और भी पुस्तकें लिखी है, पर उनकी निजी जिंदगी से जुड़ी बातें आत्मकथा में खुलकर लिखीं हैं ।
भीड़भाड़ में नहीं मिलेंगे...
कांग्रेस के दिग्गज दिवंगत शुक्ल बंधुओं के इकलौते राजनीतिक वारिस पूर्व मंत्री अमितेश शुक्ल को भूपेश बघेल कैबिनेट में जगह मिलने की उम्मीद थी। लेकिन उन्हें मंत्री नहीं बनाया गया। अमितेश को निगम-मंडल की पेशकश की गई थी, इसके लिए वो तैयार नहीं हुए। शुक्ल बंधुओं की विरासत वजह से अमितेश की दस जनपथ में पहुंच है।
कई बार वे सोनिया, और राहुल से अकेले में मिल चुके हैं। और जब पिछले दिनों राज्य में नेतृत्व परिवर्तन की चर्चाओं के बीच एक प्रमुख नेता ने भी साथ दिल्ली चलने के लिए अप्रोच किया, तो उन्होंने साफ तौर पर कहा कि वो सीएम के साथ हैं, लेकिन वे राष्ट्रीय नेताओं से भीड़भाड़ में नहीं मिलेंगे। उनके लिए अलग से टाइम लिया जाए, तभी वो दिल्ली आएंगे। स्वाभाविक है कि अमितेश मंत्री भले ही नहीं है, लेकिन रूतबा कम नहीं है।
उम्मीद थी कि...
कांग्रेस में चल रही उठापटक पर भाजपा की पैनी निगाह है। नेतृत्व परिवर्तन का हल्ला उड़ा, तो राज्यसभा सदस्य रामविचार नेताम पुराने प्रकरण को लेकर अपने धुर विरोधी बृहस्पत सिंह के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने थाने पहुंच गए।
रामविचार से जुड़े लोगों को उम्मीद थी कि नेतृत्व में बदलाव होता है तो बृहस्पत सिंह के खिलाफ कार्रवाई तुरंत होगी। इसकी एक वजह यह है कि बृहस्पत सिंह, टीएस सिंहदेव के खिलाफ आग उगलते रहे हैं। मगर परिवर्तन जैसा कुछ नहीं हुआ। अब बृहस्पत सिंह को रामविचार पर हमला बोलने का मौका मिल गया, और वे यहां-वहां रामविचार के खिलाफ काफी कुछ बोल रहे हैं।
सूखे की फसल पर नजर रखने की जरूरत..
चार साल पहले राजनांदगांव जिले को सूखाग्रस्त घोषित किया गया था तो वहां भाजपा नेताओं ने पटाखे फोडक़र खुशियां मनाई थीं। कोई इलाका सूखाग्रस्त घोषित होता है तो वहां के राजनेता और अधिकारी-कर्मचारी खुश क्यों हो जाते हैं यह वरिष्ठ पत्रकार पी. साईंनाथ की किताब तीसरी फसल पढक़र समझा जा सकता है। सूखाग्रस्त इलाकों में राहत पहुंचाने के लिये करोड़ों रुपये रिलीज़ किये जाते हैं और जाहिर है जो लोग इस फंड का इस्तेमाल करते हैं उन्हें अपनी फसल काटने का मौका मिलता है।
छत्तीसगढ़ में इस बार फिर सूखे के आसार दिखाई दे रहे हैं। अब तक 30 तहसील इसकी चपेट में आ चुके हैं और आगे बारिश नहीं हुई तो प्रभावित क्षेत्रों की संख्या बढ़ सकती है। पहले देखा जा चुका है कि बीमा कंपनियों ने फसल बीमा के नाम पर तो खूब मुनाफा कमाया पर सूखा पीडि़त किसान छले गये। कुछ को तो 10-20 रुपये का चेक थमा दिया गया।
इस बार छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से खुद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने घोषणा की है कि अकाल प्रभावित किसानों को प्रति एकड़ 9 हजार रुपये की मदद दी जायेगी। अभी साफ पता नहीं है कि यह राशि नगद के रूप में खाते में जायेगी या फिर किसी योजना में सहायता के रूप में दी जायेगी। जनप्रतिनिधियों को अब सक्रिय हो जाना चाहिये। प्रशासन के भरोसे रहे तो उनके इलाके के सूखा पीडि़त किसान आसमान की ओर ताकते रह जायेंगे। सवाल फंड का ही नहीं, वोटों का भी है।
फिर ताबड़तोड़ नसबंदी..
कोरोना संकट के बाद एक स्थिति सुधरी कि अनेक राष्ट्रीय कार्यक्रमों के तहत होने वाले रुके ऑपरेशन फिर शुरू किये गये हैं। नसबंदी का तो खैर अपने छत्तीसगढ़ में मामला ही अलग है। 8 नवंबर 2014 को तखतपुर के एक बंद पड़े अस्पताल में शिविर लगाकर बड़ी संख्या में महिलाओं की लापरवाही के साथ नसबंदी कर दी गई। इसके बाद 13 महिलाओं की मौत हो गई। इस मामले में दवा सप्लायरों, डॉक्टरों व स्टाफ के विरुद्ध कार्रवाई हुई पर वह नाकाफी थी। कई लोगों को बचा लिया गया। पर इसके बाद एक सबक लिया गया कि लोगों को प्रोत्साहन राशि के लालच में जबरदस्ती पकडक़र नहीं लाया जायेगा, ना ही नसबंदी का कोई लक्ष्य दिया जायेगा। एक डॉक्टर अधिकतम कितने लोगों की नसबंदी एक शिविर में करेंगे यह भी तय कर दिया गया। पर सरगुजा जिले के मैनपाट में हाल ही में जो हुआ उससे लग रहा है कि सब कुछ फिर पुराने ढर्रे पर लौट रहा है। यहां शिविर में 30 महिलाओं का ऑपरेशन निर्धारित किया गया था लेकिन 100 से ज्यादा कर दिये गये। पता चला कि मितानिन और स्वास्थ्य कार्यकर्ता बड़ी संख्या में महिलाओं को नसबंदी के लिये लेकर आ गये। शायद मिलने वाली प्रोत्साहन राशि इसकी वजह थी। पर डॉक्टर ने भी तय से ज्यादा ऑपरेशन करने से मना नहीं किया। अब इस मामले की जांच शुरू हो गई है, डॉक्टर को भी शो-काज नोटिस थमा दिया गया है।
एक कोना पक्षियों के नाम...
सरकारी तौर पर बर्ड फेस्टिवल मनाये जाते हैं, पक्षी विहार बनाने के लिये बजट जारी होता है पर उसके नतीजे दिखाई नहीं देते। पर यही काम यदि समाज के जागरूक लोग करें तो खर्च भी कम होता है और असर भी ज्यादा होता है। महासमुंद जिले के तुमगांव के युवाओं ने विलुप्त हो रही गौरेया और अन्य पक्षियों के लिये बसेरा बनाने का बीड़ा उठाया है। शुरुआत 30 बसेरे बनाकर की गई है। इस युवा शक्ति टीम का नेतृत्व पार्षद धर्मेन्द्र यादव कर रहे हैं। उनका कहना है कि भटकते पक्षियों को इस मुहिम के माध्यम से आशियाना देने की कोशिश की जा रही है। पक्षियों के ये मजबूत घोंसले नगर की कुलदेवी कही जाने वाली शीतला माता के मंदिर परिसर में तैयार करके रखा जा रहा है। बाद में घरों में ये बनाकर दिये जायेंगे। युवाओं का कहना है कि इन दिनों चिडिय़ों की चहक कम सुनाई दे रही है। हो सकता है उनकी कोशिश से यह कमी दूर हो। ([email protected])
इसे कहते हैं गई भैंस पानी में
प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री स्वर्गीय अजीत जोगी ने वन भैंसा को छत्तीसगढ़ का राजकीय पशु घोषित किया था। तब से लेकर अब तक उसके संरक्षण के लिए फूंके गए करोड़ों रुपयों के बजट की परिणीति यह हुई है कि आखिरी संदिग्ध वन भैंसे की भी मौत हो गई।
वन भैंसा को बचाने के नाम पर बम्हनी झूला गांव के चेतन से जनवरी सन 2007 में आशा नाम की एक मादा भैंस को जप्त कर लिया। चेतन ने वन विभाग के अधिकारियों के साथ खूब झगड़ा किया। कहा कि यह मेरी पालतू भैंस है, वन भैंसा नहीं है। मगर वन विभाग ने दावा किया कि यह माता, मादा वन भैंस ही है। कुछ वन्यजीव प्रेमियों ने मांग कि कि इसका डीएनए टेस्ट कराया जाए। इधर वन विभाग ने वन भैंसा प्रजनन केंद्र उदंती में रखकर इस मादा भैंस की ब्रीडिंग कराई, जिससे 5 नर और एक मादा भैंस पैदा हुई।
डीएनए टेस्ट प्रजनन के बाद हुआ। इन छह में से सिर्फ एक के बारे में दावा किया गया कि यह मादा वन भैंस है।
वन्य प्राणी विशेषज्ञ इस बात पर भी संतुष्ट थे कि राजकीय पशु वन भैंस का अस्तित्व बना रहेगा। वन विभाग के अधिकारियों ने इसका नाम भी खुशी रख दिया था। मगर दुर्भाग्य की खुशी नाम ने वन विभाग के अधिकारियों की पोल खोल कर वन्यजीव प्रेमियों को दुखी कर दिया। मालूम यह हुआ है कि वह मुर्रा भैंस है। आमतौर पर पालतू।
जंगल में अधिकारी किस तरह से करोड़ों रुपए के परियोजना को किस तरह से बिना जाने समझे बहा रहे हैं और न केवल जंगल का विनाश बल्कि वन्य जीवों को खत्म कर रहे हैं, यह मामला इसका बड़ा उदाहरण है।
ऑनलाइन पढ़ाई की लत लग चुकी ...
केरल से जरूर कोरोना महामारी के भयावह आंकड़े हैं पर दक्षिण छोडक़र बाकी राज्यों में गतिविधियों को सामान्य करने की कोशिश की जा रही है। इसीलिये छत्तीसगढ़ में भी 50-50 फीसदी उपस्थिति के साथ स्कूल खोले जा चुके हैं। एक शिक्षक से पूछा गया कि क्या हाल है स्कूलों का? वह बता रहे हैं कि बच्चे 15-20 प्रतिशत ही पहुंच रहे हैं। जब बच्चों और उनके अभिभावकों से पूछा जाता है कि अनुपस्थिति क्यों? कहते हैं कोरोना फैलने का डर है। बच्चों को गाइडलाइन ठीक तरह से पता नहीं। वे एक साथ बैठेंगे। दो गज की दूरी नहीं रहेगी। मास्क निकालकर टिफिन बांटकर खायेंगे। खेल-कूद के बिना रह नहीं पायेंगे फिर एक दूसरे को मरोड़ेंगे। न- ना, स्कूल नहीं भेजेंगे।
शिक्षक कहते हैं कि यह चिंता बेकार की है। 50 फीसदी उपस्थिति पहले ही तय की जा चुकी है। खेलकूद बंद है। जो कोरोना के डर से स्कूल नहीं भेज रहे हैं वही अपने पूरे परिवार के साथ मॉल में फिल्म देखते हुए मिल गये। बच्चों को लेकर वे बाजार जा रहे और त्यौहार मना रहे हैं।
फिर वजह क्या है? दरअसल बच्चों को बीते दो साल में ऑनलाइन पढ़ाई का चस्का लग चुका है। स्कूल जाने के नाम पर कतरा रहे हैं। उन्हें मोबाइल फोन की ऑनलाइन पढ़ाई भा रही है। पालक भी स्कूल ड्रेस, टिफिन, ऑटो रिक्शा के झंझट से बचने के लिये दबाव नहीं डाल रहे हैं।
शिक्षकों ने चेतावनी दी है कि स्कूल नहीं आ रहे हो, पर सोच लो। इस बार इग्ज़ाम ऑनलाइन नहीं, ऑफलाइऩ ही होगा और आनाकानी करने पर नतीजे के लिये तैयार रहें।
स्काई वाक और मल्टी लेवल पार्किंग..
भाठागांव नया बस स्टैंड और शहर के मुख्य मार्ग को तहस-नहस कर बनाये गये स्काई वाक के बाद अब इस कहीं मल्टीलेवल पार्किंग के अनुपयोगी की बारी तो नहीं? यहां 700 कारों को पार्क करने की जगह है। क्या इतनी कारों को यहां पार्क करने की जरूरत पडऩे वाली है? पार्क करने से बेहतर क्या यह ठीक नहीं लगेगा कि कार वे घर पर ही छोडक़र निकलें और टैक्सी से कलेक्टोरेट और बाजार पहुंच जायें?
शिक्षक रहना ही ठीक था
सूबे के प्रशासनिक तंत्र के साथ तालमेल बिठाने में नाकाम अफसरों की गिनती में इजाफा हो रहा है। पुलिस महकमे में हालत कुछ ऐसी है कि सिस्टम के साथ नहीं जुडऩे के चलते कई पुलिस अधिकारी बटालियन और पीएचक्यू में समय काट रहे हैं। ऐसे अफसरों में 1997 बैच के राज्य पुलिस सेवा के दर्शन सिंह मरावी अपने बैच के इकलौते अफसर हैं जो प्रमोशन नहीं होने का दर्द सहते 21 वीं बटालियन में कमाडेंट के तौर पर समय काट रहे हैं। गाहे-बगाहे वह यह भी कह जाते हैं कि शिक्षक रहने में ज्यादा भलाई थी। अविभाजित राजनांदगांव के रेंगाखार से सटे रोल गांव (अब कवर्धा )से शिक्षक रहते डीएसपी चुने गए मरावी अच्छी पोस्टिंग के लिए तरस रहे हैं। सुकमा एसपी के लिए उन्हें दो माह के लिए भेजा गया। उसके बाद से वह जंगल वारफेयर कॉलेज कांकेर में दो बार और बटालियन में तैनाती का दंश झेल रहे हैं। बताते हैं कि इस आदिवासी अफसर का सिस्टम से मेल नहीं हो पाया। एक मामले में विभागीय जांच आईपीएस अवार्ड में उनकी अड़चनें दूर नहीं हुई हैं। मरावी के बैच के दीगर अफसरों को आईपीएस अवार्ड मिले काफी समय हो गया है। मरावी दर्द में खुलकर कहते हैं कि डीएसपी की नौकरी से शिक्षक रहने में ही भलाई थी।
आरटीई में दाखिले के लिये इतनी कम अर्जी क्यों?
शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत निजी स्कूलों के नये प्रवेश में 25 प्रतिशत सीट गरीब वर्ग के लिये आरक्षित होती है। हर बार पालकों की शिकायत रहती है कि उनके बच्चों को आवेदन के बाद भी दाखिला नहीं मिल रहा है। पर इस बार स्थिति उलटी है। राज्य के 6533 निजी स्कूलों में आरटीई के तहत उपलब्ध सीटों की संख्या 82 हजार 220 है। पर इनमें दाखिले के लिये आये कुल आवेदन 71 हजार 882 ही हैं। हालांकि यह स्थिति जांच के बाद आवेदन निरस्त होने के बाद की है। रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग, कोरबा और जांजगीर ही ऐसे जिले हैं जहां सीटों से अधिक आवेदन हैं। पर बाकी जिलों में स्थिति यह है कि जो भी आवेदन हैं, दाखिला मिल जायेगा। इनमें दंतेवाड़ा, कांकेर, बस्तर, सुकमा, बालोद, बलरामपुर, गरियाबंद और नारायणपुर जिले हैं।
इस आंकड़े का थोड़ा विश्लेषण करें तो यह समझ में आता है कि मैदानी इलाके जहां आवागमन, संचार की सुविधा है, कुछ विकसित कहे जा सकते हैं उनमें आये आवेदन सीटों से ज्यादा हैं जैसे रायपुर, बिलासपुर या कोरबा। पर जहां से कम आवेदन आये हैं वे आदिवासी बाहुल्य जिले हैं। ये आधारभूत सुविधाओं के मामले में कुछ पीछे हैं। यह स्थिति शायद इसलिये भी हो कि आरटीई के बारे में लोग जागरूक नहीं हुए हों। आरटीई की भर्ती के बाद सरकार ट्यूशन फीस, यूनिफॉर्म और किताबों का खर्च तो उठाती है पर स्कूल से घर तक आने-जाने का नहीं। हो सकता है गरीब परिवारों को वहां यह खर्च भी भारी पड़ रहा हो। जो भी हो, निर्धन परिवारों के लिये मुफ्त शिक्षा की एक अच्छी योजना के प्रति रूचि में कमी चिंताजनक है। सरकार और समाज दोनों के लिये।
सोशल मीडिया पर समर्थकों की बेताबी
वाट्सअप, फेसबुक और ट्विटर नहीं होता तो पता नहीं चलता कि कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के मन में क्या चल रहा है। शीर्ष नेता लगातार यह दिखाने की कोशिश कर रहे थे कि सब ठीक चल रहा है पर सीएम भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव के समर्थन और विरोध में दनादन पोस्ट किये जा रहे थे। कोई कह रहा था हमें राजा नहीं चाहिये, किसानों के राज में किसान नेता ही चलेंगे। कोई कह रहा था, बाबा आप अभी जिम्मेदारी मत संभालिये वरना जब पांच साल पूरा होगा तो पूरा ठीकरा आपके सिर फूटेगा। फेहरिस्त लम्बी है आप इसके लिये कांग्रेस भाजपा नेताओं के पेज पर जाकर उनके समर्थकों, विरोधियों की प्रतिक्रिया कमेंट बॉक्स और उनकी पर्सनल पोस्ट में पढ़ सकते हैं।
जो जागत है सो पावत है..
चाणक्य कह गये हैं स्वयं की सफलता से बड़ा कोई भी लक्ष्य नहीं होता है। स्व. अजीत जोगी ने एक किस्सा एक वरिष्ठ पत्रकार को सुनाया था। संयुक्त मध्यप्रदेश के जमाने में पर्यवेक्षक गुलाम नबी आजाद की मौजूदगी में कांग्रेस सीएम के लिये नाम तय नहीं कर पा रही थी। बुंदेलखंड, मालवा, विंध्य..., अलग-अलग क्षेत्र से मांग उठ रही थी। प्रक्रिया में इतनी देर होने लगी कि बैठक में मौजूद एक दावेदार स्व. राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल कहीं विश्राम करने चले गये। इस बीच तय हुआ कि मुख्यमंत्री छत्तीसगढ़ का हो। स्व. शुक्ल के नाम पर सहमति बन गई। उस वक्त मोबाइल फोन तो था नहीं कि जहां हैं वहीं से उठाकर बुला लिया जाये। खोजबीन कराने पर वे नहीं मिले। फिर छत्तीसगढ़ से दूसरा नाम? वहां स्व. मोतीलाल वोरा मौजूद थे। विधायकों से सहमति ली गई और वोरा जी का नाम फाइनल हो गया, मिठाईयां बंट गई। अब बैठक में पहुंचे स्व. शुक्ल। उन्होंने कहा कि मैं तो आ गया हूं, जब पहले मेरा नाम तय हुआ तो मुझे ही मौका मिलना चाहिये। पर उन्हें बताया गया कि अब तो सब घोषणा हो गई है, कुछ नहीं हो सकता। स्व. शुक्ल ने एक बड़ा मौका गंवा दिया। आज के संदर्भ में इस किस्से का कौन सा सिरा मायने रखता है?
तीसरी लहर की आहट के बीच कामयाबी...
रायगढ़ जिले ने वैक्सीनेशन का जो कीर्तिमान बनाया वह राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में है। इस जिले में 100 फीसदी लोगों को सिंगल डोज लग चुके हैं और 30 प्रतिशत ऐसे हैं जिनको दोनों डोज लग चुकी है। जब 45 वर्ष तक के लोगों को टीका लगाने का लक्ष्य रखा गया था तब भी प्रदेश में सबसे पहले कीर्तिमान इसी जिले का बना।
रायगढ़ शहर में 100 फीसदी टीकाकरण का लक्ष्य सबसे पहले हासिल किया गया। उसके बाद घरघोड़ा, बरमकेला, पुसौर और तमनार में भी 100 प्रतिशत लोगों को कम से कम एक डोज दे दी गई।
काम इतना आसान भी नहीं था। खरसिया ब्लॉक के करीब डेढ़ दर्जन गांव थे जहां लोगों को टीका लगवाने में रुचि नहीं थी। सारंगढ़ के नगरीय निकाय और करीब 15 पंचायतों में यही स्थिति थी। लोगों को समझाने के लिये अधिकारियों की ड्यूटी लगाई गई और आखिर लक्ष्य का एक चरण पूरा हुआ। वैक्सीन की बार-बार आपूर्ति रुकने के बावजूद यह उपलब्धि हासिल कर ली गई। पर अभी वैक्सीनेशन का अभियान चलेगा, क्योंकि दूसरा डोज तो 70 फीसदी लोगों को लगाया जाना बाकी है। केरल से जब तीसरी लहर का अंदेशा देशभर में फैलने का खतरा मंडरा रहा हो, रायगढ़ जैसी खबर बाकी जिलों से भी जल्दी आने की उम्मीद रखनी चाहिये।
सीएम की दौड़ में भी शामिल नहीं...।
पता नहीं कितने ही खिलाड़ी कप्तान बनना चाहते होंगे, पर रायपुर से लेकर दिल्ली तक किसी तीसरे-चौथे नेता से उनके मन की बात पूछी ही नहीं जा रही है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम को ही देखिये। पूछा तब उन्होंने राज खोला। उन्होंने 26 और 27 अगस्त का अपना तय दौरा रद्द कर दिल्ली जाने का फैसला नहीं लिया। वे पहले से तय जीपीएम और बिलासपुर जिले के दौरे पर हैं। मरवाही में वे फुरसत में, बड़े इत्मीनान से पत्रकारों से मिले। तमाम राजनीतिक सवालों के बीच सीएम की उनकी अपनी दावेदारी को लेकर भी पूछ लिया गया। मरकाम ने भी कह दिया- मैं दौड़ में नहीं हूं। हमारे यहां हाईकमान तय करता है, कौन मुख्यमंत्री होगा, कौन नहीं...। चलिये...एक दावेदारी तो खत्म हुई, मरकाम के बयान से चिंता घटी होगी हाईकमान की...।
संस्कृति विभाग तुम्हारे बाप का नहीं..
रंगमंदिर में एक नाट्य समारोह 1 और 2 सितम्बर को होने जा रहा है। समारोह का नाम है- ‘संस्कृति विभाग तुम्हारे बाप का नहीं’। समारोह के इस अजीबोगरीब शीर्षक की वजह भी जान लीजिये। लॉकडाउन के दौरान मंचीय प्रस्तुतियां लगभग ठप पड़ गई थीं। कुछ नाट्य कलाकारों ने इस अवधि का इस्तेमाल करते हुए कुछ नाटक तैयार किये। अब वे इनकी प्रस्तुति हबीब तनवीर की स्मृति में करना चाहते थे। वे संस्कृति विभाग के एक अधिकारी से सहयोग मांगने गये। जैसा कि कलाकार बताते हैं कि अधिकारी ने उनसे कहा कि अभी मंचीय प्रस्तुति के लिये हमारे पास कोई गाइडलाइन नहीं आई है, आप लोग यह आयोजन ऑनलाइन कर लो। कलाकारों ने कहा- ठीक है, फिर भी साउन्ड लाइट, मंच आदि पर खर्च तो होगा। उनकी बात अधिकारी को पसंद नहीं आई और उन्होंने जवाब में यह कहा- कुछ भी प्रोजेक्ट बनाकर ले आते हो और हमारे कंधे पर रखकर बंदूक चलाते हो। संस्कृति विभाग तुम्हारे बाप का नहीं है। कलाकारों के लिये यह बात चुभने लायक थी। बस, उन्होंने तय कर लिया कि अब समारोह का नाम क्या रखा जाये।
आखिर इतनी बड़ी रकम जाती कहां है?
दंतेवाड़ा में बस्तर विकास प्राधिकरण की बैठक के दौरान मौजूद एनएमडीसी के अधिकारियों के सामने जगदलपुर के विधायक ने प्रस्ताव रखा कि वे विश्वप्रसिद्ध दशहरा के लिये 10-20 लाख रुपये की मदद कर दिया करें। हर साल कर्ज लेकर काम निपटाना पड़ता है। एनएमडीसी के अफसरों ने जो जवाब दिया उससे सब चौंक गये। उन्होंने कहा कि हम तो हर साल 50 लाख और चित्रकोट महोत्सव के लिये 10 लाख रुपये देते हैं। बैठक में प्रभारी मंत्री कवासी लखमा, प्राधिकरण के अध्यक्ष लखेश्वर बघेल, दो तीन सांसद, विधायक, कलेक्टर चंदन कुमार सभी बैठे थे, यानि एनएमडीसी के अधिकारियों ने पूरी जवाबदारी के साथ बयान दिया होगा। पर ये पैसा जाता किसके पास है और खर्च कौन करता है? मंत्री, विधायक को ही इस बारे में पता नहीं है फिर किसे पता होगा? बैठक में दूसरे मुद्दे उछल गये और बात अधूरी रह गई
उद्योगों का मजदूरों से बदला...
उद्योगों में स्थानीय लोगों को तकनीकी पदों पर बिठाने या स्थायी रोजगार देने के बारे में तो अब सोचा भी नहीं जाता। पर इतनी उम्मीद तो होती है कि कम से कम उन्हें मजदूर की हैसियत से ही काम पर दे दिया जाये। खासकर, जब किसी फैक्ट्री को मजदूर की जरूरत पड़ रही हो। दुर्ग जिले के रसमड़ा में करीब दर्जन भर उद्योग स्थापित हैं। यहां के ग्रामीणों से एक अजीबोगरीब और गंभीर किस्म का बर्ताव हो रहा है। ये बताते हैं कि यहां स्थापित उद्योगों में रखने के लिये पहले आधार कार्ड दिखाने के लिये कहा जाता है और जब पता चलता है कि वे रसमड़ा के रहने वाले हैं तो उन्हें काम देने से मना कर दिया जाता है। इनमें से अधिकांश वे ग्रामीण हैं जो पहले किसान थे और इन्हीं उद्योगों के लिये अपनी जमीनें दी हैं। इन्हें रोजगार में प्राथमिकता देने की बात कही गई थी पर उद्योगों के गार्ड इनका पहचान-पत्र देखते ही गेट से दूर भगा देते हैं। ग्रामीणों के मुताबिक यह बदले की कार्रवाई लगती है क्योंकि वे नियमों के उल्लंघन के कारण पर्यावरण प्रदूषण से त्रस्त हैं। उनकी सेहत पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। घरों और खेतों में कालिख पुत रही है। इसकी शिकायत वे अधिकारियों से करते आ रहे हैं।
ग्रामीणों ने डिप्टी कलेक्टर के माध्यम से सीएम को चि_ी लिखी है और इस पक्षपात को बंद कर भुखमरी, बेरोजगारी से बचाने के लिये काम मांगा है।
सूखे की आहट और पलायन की शुरुआत
स्थिति तब और साफ होगी कि जब आने वाले एक पखवाड़े के भीतर बारिश नहीं होगी। अभी आंकड़ा है कि प्रदेश के 178 में से 100 तहसीलों में औसत से कम बारिश हुई है। 30 तहसील ऐसी हैं जहां 70 फीसदी से कम पानी गिरा है। बस्तर के कई तहसील सूखे की चपेट में हैं। सभी कलेक्टरों से आपदा प्रबंधन विभाग ने सितम्बर के पहले सप्ताह तक फसल की स्थिति पर रिपोर्ट मांगी है। उसके बाद योजना बनेगी रोजगार, अनुदान, बीमा भुगतान, मोटर पम्पों और उसके लिये बिजली की मंजूरी। मैदानी इलाकों से तो लोग फसल की बोनी का काम खत्म होने के बाद ही प्रवास पर निकल जाते हैं और फसल कटाई के वक्त लौटते हैं। पर बस्तर से जो खबरें आ रही हैं वह साधारण नहीं है। कोंडागांव जिले के फरसगांव इलाके की रपट है कि इस धुर नक्सल इलाके में लोगों के पास कोई काम नहीं है। न वनोपज का और न ही मनरेगा का। मनरेगा के काम का भुगतान पाने के लिये ये बार-बार बैंकों का चक्कर भी नहीं लगा पा रहे हैं, क्योंकि इसमें भी आने वाला खर्च नहीं उठा पा रहे। ये लोग बड़ी संख्या में तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना यहां तक कि बिहार, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश का रुख कर रहे हैं। इनमें नाबालिग और युवतियां भी हैं। बस लेकर दलाल किसी अंदरूनी गांव में खड़े होते हैं और ठूंसकर ले जाते हैं। सूखे का जब तक आकलन होगा और प्रशासन इनकी सुध लेने के लिये कदम उठायेगा, तब तक अधिकांश उनके घर खाली हो चुके होंगे।
दूबर बर दू असाढ़....
वैसे तो कई प्रतियोगी परीक्षाएं ऑफलाइन आयोजित की जा चुकी है पर 10वीं-12वीं बोर्ड परीक्षा ऑनलाइन रखी गई थी। अब जब कोरोना संक्रमण कम से कम छत्तीसगढ़ में काफी हद तक नियंत्रण में है, माध्यमिक शिक्षा मंडल 12वीं बोर्ड की पूरक परीक्षाओं को ऑफलाइन आयोजित करने पर विचार कर रहा है। इसके लिए फॉर्म भरे जा रहे हैं। यानि पूरक परीक्षा में वह छूट नहीं मिलेगी जो ऑनलाइन में मिल गई। ऑनलाइन परीक्षा में सुविधा रही कि किताबों को देखकर उत्तरपुस्तिकायें भरी गई और इत्मीनान से जमा करने का वक्त भी मिला। ऑफलाइन परीक्षा तो असल परीक्षा जैसी ही होगी, जिनमें यह छूट नहीं दी जायेगी। इस बार ऑनलाइन परीक्षा के कारण ही नतीजे शानदार आये। ऐसी सुविधाजनक स्थिति में भी बहुत से छात्रों का रिजल्ट पूरक में रहा। अब इन्हें असल परीक्षा की असल तैयारी करनी होगी। बहुत से छात्र सोच रहे होंगे, काश, ऑनलाइन परीक्षा को कुछ अधिक गंभीरता से लेते तो यह नौबत नहीं आती।
एक और राजीव भवन का रास्ता साफ
भाजपा पार्षदों के कड़े विरोध के बीच बिलासपुर नगर निगम की सामान्य सभा में कांग्रेस भवन (राजीव भवन) के लिये जमीन के आवंटन का प्रस्ताव पास हो गया। दरअसल इस जमीन को कांग्रेस को देने का विरोध इस आधार पर था कि यह शहर के बीचों-बीच पुराने बस स्टैंड की खाली जगह है, जो बेशकीमती है। यहां पहले मल्टीलेवल पार्किंग का प्रस्ताव भी था। भाजपा ने सवाल किया कि विकास के दूसरे कामों में इतनी ही तेजी से काम क्यों नहीं होते? बात ठीक भी है। शहर की तमाम परियोजना अंडरग्राउंड सीवरेज, अमृत मिशन, स्मार्ट सडक़, तिफरा ओवरब्रिज आदि अधूरी पड़ी हैं। अधिकांश योजनाएं भाजपा शासन काल की हैं। ये सब चुनावी मुद्दे भी रहे, जिससे कांग्रेस को शहर में बढ़त मिली। पर अब उनके पास जवाब नहीं है। कांग्रेस भवन के लिये जमीन हासिल करना कांग्रेस के लिये प्रतिष्ठा का प्रश्न था। सत्ता में होने का इतना लाभ ले लेना तो बनता है। पर अगले चुनाव में हिसाब तो शहर के विकास का ही लिया जायेगा।
यूरोप की सबसे ऊंची चोटी पर तिरंगा
छत्तीसगढ़ गृह निर्माण मंडल के सहायक अभियंता चित्रसेन साहू ने अपने कृत्रिम पैरों के सहारे अविश्वसनीय उपलब्धि हासिल की।
रूस के माउन्ट एलब्रुस पर्वत की 18 हजार 510 मीटर ऊंची चोटी उन्होंने अपने कृत्रिम पैरों के सहारे फतह की। देश में अब तक कोई इतनी ऊंचाई पर कृत्रिम पैरों के सहारे नहीं पहुंचा है। उनका यह अभियान मास्को के समय के अनुसार सुबह 23 अगस्त को सुबह 10.54 बजे पूरा हुआ। इसे मिशन इंक्लूजन-अपने पैरों पर खड़े हैं- नाम दिया गया था।
अपना अनुभव सोशल मीडिया पर साझा करते हुए चित्रसेन लिखते हैं- पर्वतारोहण के लिये मौसम अच्छा नहीं था। चढ़ाई के दौरान माइनस 25 डिग्री सेल्सियस तापमान, उस पर 50 से 70 किलोमीटर क रफ्तार में बर्फीला तूफान चल रहा था। पर लाखों की उम्मीद और आशीर्वाद से वे यूरोपीय महाद्वीप की सबसे ऊंची चोटी पर तिरंगा फहरा सके। चित्रसेन बताते हैं कि कि वे 7 में से 3 महाद्वीपों का सफर पूरा कर चुके हैं। अब चौथे की तैयारी कर रहे हैं। चित्रसेन को इस मिशन में नाचा (नार्थ अमेरिका छत्तीसगढ़ एसोसिएशन) के साथ ही छत्तीसगढ़ गृह निर्माण मंडल, राजेन्द्र किशन लाल फाउन्डेशन, जीवन दीप, एगटेक नेक्स्ट वेल्थ आदि का साथ मिला।
शौक बड़ी चीज है...
ये लखन लाल हैं, ड्राइवर हैं लोरमी के। अपनी मोटरसाइकिल में 15 आईने लगा के रखते हैं और उसके ऊपर जगमगाती हुई लाइट। ‘‘कहते हैं शौक बड़ी चीज है, अलग शौक होना चाहिए’’ (तस्वीर और जानकारी अखबारनवीस रितेश मिश्रा की)
सीन 1
सुबह सब्जी मंडी का दृश्य
काका आलू कैसे दिए ।
15 के किलो बाऊजी
सही लगाओ
सही है बाऊजी
बड़ी लूट मचा रखी है 10 के लगाओ।
नही बाऊजी, नही बैठेगा ।
अरे देदो... दो किलो लूंगा
ठीक है बाउजी।
सीन 2
शाम का वक़्त घर का दृश्य:
Hello pizza hut: Yes sir.
Please book order,
one large capsicum paneer pizza
with e&tra cheez and one garlic bread.
Ans: Okay sir.
सीन 3
Knock knock.... Ting tong
कौन है ?
Pizza delivery boy: Pizza, sir.
Ohh coming...
Thanks.... कितना हुआ ?
Ans: 570 Rs. Sir.
ये लो 600 and keep the change;
बहुत मेहनत करते हो.
Ans: Thanks Sir.
सीन 4
कमरे का दृश्य - TV में समाचार
दो किसानों ने और आत्महत्या की।
(Pizza खाते हुए) - साला, ये govt
किसानों के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोच रही...
बड़े शर्म की बात है !
नाटक समाप्त
विदेशी मेहमानों की खिदमत तो करें वन अफसर..
उत्तरी अमेरिका के ध्रुवीय इलाके से लगभग 12 हजार किलोमीटर की उड़ान भरकर गोल्डन पेसिफिक प्लोवर पक्षी ने इन दिनों छत्तीसगढ़ में डेरा डाल रखा है। देश के दो तीन और स्थानों पर ये रुके हुए हैं। यह दुर्लभ दृश्य करगी रोड कोटा के मोहनभाठा में देखा जा सकता है। 22 से 25 सेंटीमीटर के आकार वाले ये पक्षी खुराक लेने या खराब मौसम के कारण कुछ दिन के लिये रुक जाते हैं फिर अगले ठिकाने के लिये उड़ जाते हैं। लम्बी यात्रा होने के बाद भी वे अपना रास्ता नहीं भूलते। काले रंग के इन पक्षियों के शरीर में पीले धब्बे होते हैं। मोहनभाठा ऐसी जगह है जहां लुप्तप्राय पक्षियों की आमद प्राय: दर्ज होती रहती है। पक्षी प्रेमी और वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर आतुरता से उसकी प्रतीक्षा करते रहते हैं, पर उनकी सुरक्षा के प्रति वन विभाग की उदासीनता सदैव की तरह बनी हुई है। पिछली बार पक्षी महोत्सव जोर-शोर से मनाया गया था कुछ जगहों को चिन्हांकित कर उन्हें पक्षी विहार के रूप में विकसित करने का निर्णय लिया गया था। पर पक्षियों को अनुकूल माहौल मिले इसके लिये कोई प्रयास नहीं किये गये हैं। भारी वाहनों की आवाजाही, पक्षियों का शिकार करने वालों का मंडराना, तालाबों और अन्य जल स्रोतों के प्रदूषित होते जाने के कारण प्रवासियों की संख्या लगातार घट रही है। वन्यजीव प्रेमी पत्रकार प्राण चड्ढा, जो राज्य वन्यजीव सलाहकार बोर्ड के सदस्य भी रह चुके हैं- समय-समय पर सोशल मीडिया के माध्यम से इस पर चिंता जताते हैं। गोल्डन पेसिफिक फ्लोवर की तस्वीर भी उन्होंने ही खींची है।
चुनाव यूपी में है और ठोक यहां देंगे?
छत्तीसगढ़ में राम के मुद्दे को कांग्रेस ने पहले भी झटक रखा है। राम वन गमन पथ, सरकार बनने के बाद की पहली घोषणाओं में शामिल था। राम-रथ यात्रा निकाली जा चुकी है। अब तो हर गांव में रामायण मंडलियों को बाजा-गाजा खरीदने के लिये अनुदान दिया जा रहा है। दबी जुबान से भाजपा ने सरकार के इस फैसले का विरोध किया था। चंदखुरी को माता कौशल्या का जन्म स्थान मानने से भी इंकार किया, पर आस्थावान वोट बिदक सकते थे इसलिये तूल नहीं दिया गया।
अब सुकमा एसपी द्वारा थानेदारों को लिखी गई चि_ी को आधार बनाकर भारतीय जनता पार्टी ने धर्मांतरण पर सरकार को घेरा है। जिस तेवर से कल राजधानी में प्रदर्शन हुआ और बयान दिये गये, लगता है विधानसभा चुनाव में इसे एक मुद्दा बनाया जा सकता है। बीते कई चुनावों में देखा जा चुका है कि लोकसभा चुनाव में तो यह हुआ पर विधानसभा में राज्य सरकार के कामकाज पर ही नतीजे आये। धर्मांतरण को मुद्दा बनाना है तो लोगों का खून खौलने तक उकसाना पड़ेगा। दो चार विधानसभा क्षेत्र नहीं बल्कि पूरे राज्य में। इसके लिये समय भी करीब दो साल का है। शायद इसीलिए कल युवा मोर्चा के नेता ने कहा- ‘पहले रोकेंगे, नहीं माने तो ठोकेंगे।’ हिंसक कार्रवाई की चेतावनी दी जाने वाली यह भाषा छत्तीसगढ़ की प्रकृति को सूट नहीं करती। पार्टी वालों को चाहिये कि इन्हें वे यूपी बुला लें, क्योंकि फिलहाल चुनाव वहीं होने वाले हैं। वहां उनके ऐसे तेवर का ज्यादा ठीक तरह से इस्तेमाल हो सकेगा।
पेड़ पौधों के प्रति तृतीय लिंग की कृतज्ञता
रक्षाबंधन पर रायपुर में यह सबसे हटकर अलग दृश्य था। तृतीय लिंग समुदाय ने पेड़-पौधों को तिलक लगाकर प्रणाम किया और रक्षा सूत्र बांधा। रानी शेट्टी, विशाखा, मीठी सहित अन्य ने मितवा संकल्प समिति के बैनर पर यह कार्यक्रम रखा। इनका कहना था कि पेड़-पौधे ऑक्सीजन के स्त्रोत हैं। ये नहीं होते तो हम जीवन की कल्पना नहीं कर सकते थे। हमने कोरोना की दूसरी लहर में भी इसे देख लिया। इस कार्यक्रम में अलग-अलग सामाजिक संगठनों के लोग भी शामिल हुए, दूरी घटी, भ्रांतियों को दूर करने में मदद मिली।
आईटीबीपी कमांडो सुधाकर शिंदे का मारा जाना
नारायणपुर जिले में जिस जगह पर आईटीबीपी के असिस्टेंट कमांडर सुधाकर शिंदे ने साथी एएसआई गुरुमुख सिंह के साथ नक्सली मुठभेड़ में जान गंवाई, वह उसी जगह की घटना है जहां 15 अगस्त को ग्रामीणों के साथ मिलकर उन्होंने तिरंगा फहराया था। ग्रामीणों को मिठाई, राशन व दवाएं भी उन्होंने उपहार में दी थी। घोर नक्सल इलाके में तैनाती देकर राष्ट्र ध्वज फहराना ड्यूटी के प्रति उनके जुनून को रेखांकित करता है। ग्रामीण उस दिन उनके साथ थे, पर शायद नक्सलियों ने भी उन्हें पहचान लिया था। सर्चिंग के लिये वे निकले थे और घात लगाकर बैठे नक्सलियों ने अंधाधुंध फायरिंग कर उन्हें अपने निशाने पर ले लिया। संवेदना संदेश की औपचारिकताओं के साथ उनका नाम भी शहीदों की सूची में दर्ज हो गया। पर, अफसोस ही जता सकते हैं कि ऐसी घटनाएं अब न ब्यूरोक्रेसी को झकझोरती है न राजनीति को। क्या अगले स्वतंत्रता दिवस पर ऐसा नहीं होगा?
पारदर्शिता का तरीका
राजनांदगांव कलेक्टर तारणप्रकाश सिन्हा ने कलेक्टोरेट के अपने चेम्बर के दरवाजे बदलवाकर कांच लगवा दिया है। अब कलेक्टर अंदर क्या कर रहे हैं, यह बाहर से ही दिख जाता है। सर्वविदित है कि ज्यादातर अफसर समस्याओं के निराकरण के लिए आए आम लोगों से मेल मुलाकात से कतराते हैं, और मीटिंग में व्यस्त होने का बहाना बना देते हैं। इस तरह की शिकायतों के चलते जीएडी को समय-समय पर दिशा निर्देश भी जारी करना पड़ता है।
बड़े अफसर तो मंत्री तक को गच्चा देने से बाज नहीं आते हैं। रमन सरकार के पहले कार्यकाल में स्कूल शिक्षा मंत्री रहे विक्रम उसेंडी, विभागीय सचिव आरसी सिन्हा से जरूरी सबजेक्ट पर चर्चा करना चाह रहे थे। उन्होंने सिन्हा को फोन लगवाया, तो जवाब मिला कि साब मीटिंग ले रहे हैं। करीब दो घंटे बाद फिर फोन मिलाया, तो वही जवाब मिला। इसके बाद उसेंडी सीधे सिन्हा के कमरे में चले गए।
सिन्हा अपने कमरे में अकेले थे, और चाय की चुस्कियां ले रहे थे। मंत्रीजी को एकाएक कक्ष में पाकर हड़बड़ा गए, और सफाई देने लगे। मंत्रीजी ने उन्हें जमकर फटकार लगाई, और फिर बाद में उन्हें विभाग से हटा दिया गया। एक सीएस, तो फाइलें निपटाकर अक्सर सरिता मैग्जीन पढ़ते थे। मगर चेम्बर के बाहर लाल लाइट जलती रहती थी इसका आशय यह था कि साब व्यस्त हैं। ऐसे चालबाज अफसरों से परे राजनांदगांव कलेक्टर ने पारदर्शी चेम्बर बनवाकर प्रशासन में पारदर्शिता लाने की कोशिश की है।
कैमरा भीतर, स्क्रीन बाहर !
भारतीय वन सेवा के वरिष्ठ अफसर आलोक कटियार जिस दफ्तर में रहते हैं, उसमें अपने चेम्बर के भीतर कैमरा लगवाकर उसे बाहर लगी स्क्रीन से जोड़ देते हैं। बाहर बैठे लोगों को दिखते रहता है कि साहब क्या कर रहे हैं, किससे मिल रहे हैं, कौन उनके साथ कितनी देर तक बैठे हैं। जो लोग किसी गलत अनुरोध के साथ आते हैं, वे कमरे में लगे कैमरे से नजारा बाहर से देखकर ही भीतर आते हैं। ऐसे में कोई गलत बात करने की हसरत जाती रहती है।
महिला एसपी के साथ सेल्फी..
गरियाबंद में पदस्थ होने के बाद पुलिस अधीक्षक पारूल माथुर ग्रामीण इलाके के दौरे पर निकलीं। मैनपुर में महिलायें उन्हें अपने बीच पाकर खुश हो गई। एसपी ने भी एक बच्ची को गोद में उठाकर दुलारा। गांव की महिलाओं ने उनके साथ सेल्फी लेकर इस दौरे की याद को सहेज लिया।
अपनी कोठी तैयार होने की खुशी
अंबिकापुर में नवनिर्मित कांग्रेस भवन का फीता मंत्री टी एस सिंहदेव ने काटा। पर मंत्री अमरजीत भगत के समर्थकों को यह रास नहीं आया और उन्होंने दूसरा फीता फिर बांधा, जिसे काटते हुए मंत्री भगत ने कहा कि कोई गुटबाजी वाली बात नहीं है, उनके समर्थक कार्यकर्ताओं में कुछ अधिक उत्साह था। उनकी इच्छा रखने के लिए ऐसा किया। पर लोगों का कहना है कि मंत्री भगत की खुशी इसलिए दोगुनी थी क्योंकि अब वे कांग्रेस की बैठकों में शामिल हो सकेंगे। दरअसल अब तक कांग्रेस कार्यालय महल के एक हिस्से, जिसे कोठीघर कहा जाता है, से संचालित होता रहा है। भगत वहां जाते ही नहीं थे।
श्रेय लेने की हड़बड़ी
प्रदेश में अब तक अनेक राजीव भवन यानी कांग्रेस भवनों का या तो निर्माण शुरू हो चुका या उनका लोकार्पण हो चुका है। यह हर जिले में बनाया जाना है। पर प्रदेश के दूसरे सबसे बड़े जिले बिलासपुर में इसकी नींव रखना तो दूर, अब तक जमीन का आवंटन भी नहीं कराया जा सका है। बौखलाए जिला कांग्रेस अध्यक्ष ने बयान दे दिया है कि नगर निगम आयुक्त बीजेपी के लिए काम कर रहे हैं। भूमि आवंटन के आवेदन पर एनओसी नहीं दे रहे हैं।
हकीकत यह है कि आयुक्त को किसी जमीन आवंटन का एनओसी सामान्य सभा की मंजूरी देने का अधिकार नहीं है। सारी फाइलें तैयार है और सामान्य सभा के एजेंडे में यह शामिल कर लिया गया है। बैठक 24 को होने वाली है। मंजूरी मिलने में बस कुछ दिनों की देरी है। पर अध्यक्ष को डर था कि वे यह बयान नहीं देते हैं तो इस मंजूरी का श्रेय मेयर या किसी दूसरे नेता को मिल जाएगा।
डीएमएफ में कलेक्टर को अध्यक्ष बनाने की बात
छत्तीसगढ में कांग्रेस की सरकार बनी तो डीएमएफ के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी प्रभारी मंत्रियों को दे दी गई थी। खनिज न्यास ट्रस्ट का फंड छत्तीसगढ़ में 1000 करोड़ से अधिक का है। अधिकारी, नेता सब के लिए यह बड़े काम का है जिसमें ज्यादा औपचारिकताएं पूरी किए बगैर करोड़ों रुपए खर्च करने की मंजूरी दी जा सकती है।
अब केंद्र सरकार ने वापस कलेक्टरों को अध्यक्ष बनाने कहा है। राज्य सरकार के ऐसा न करने के आग्रह को ठुकरा भी दिया गया है। केंद्र की ओर से आरोप लगाया गया है कि इसका दुरुपयोग किया जा रहा है। वैसे जब बीजेपी सत्ता में थी तब भी फंड का मनमाना इस्तेमाल किया जाता था। खान प्रभावित क्षेत्र की जगह दूसरे शहरों में ऐसे कार्यों में राशि खर्च की गई जिसका प्रावधान ही नहीं। विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस इस दुरुपयोग के खिलाफ खूब आवाज उठाती रही, पर सरकार बनने के बाद वह भूल गई। शायद दो चार जिलों की जांच बिठा दी जाती तो केंद्र के सामने बदलाव रोकने के लिए दलील के काम आती। अब तो यही रह जाएगा कि कलेक्टर जिलों में नेताओ और डीएमएफ सदस्यों की बात सुन लिया करें। ([email protected])
कांग्रेस में वीडियो बवाल
पीएल पुनिया के करीबी सन्नी अग्रवाल का एक महिला के साथ आपत्तिजनक वीडियो वायरल होने के बाद राजनीतिक गलियारों में गदर मचा है। इस पर पूर्व मंत्री अजय चंद्राकर ने तो ट्वीट कर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम से जवाब मांग लिया है। सन्नी को माहभर पहले ही भवन-एवं सन्निर्माण कर्मकार कल्याण मंडल का चेयरमैन बनाया गया था। बताते हैं कि भाजपा नेता गौरीशंकर श्रीवास ने वीडियो सार्वजनिक प्लेटफार्म से उठाया, और फेसबुक पर अपलोड कर दिया।
वीडियो में शामिल लड़की, मधुवन में जो कन्हैया किसी गोपी से मिले, राधा कैसे न जले.. गीत पर हावभाव इंगित करती दिख रही है। गौरीशंकर ने किसी का नाम नहीं लिखा, और कमेंट भी गंदा नहीं था, फिर भी सन्नी थाने पहुंच गए। सन्नी ने गौरीशंकर पर बदनाम करने का आरोप मढ़ दिया। सन्नी ने टीआई से कहा बताते हैं कि साब, मेरा और वीडियो में दिख रहे व्यक्ति का टैटू मिलान कर लीजिए, मेरा टैटू छोटा है। मेरी छबि खराब करने की कोशिश की जा रही है।
बताते हैं कि यह वीडियो जून के महीने से टिक टॉक पर तैर रहा था। तब किसी ने ध्यान नहीं दिया। और जब गौरीशंकर ने फेसबुक पर वीडियो अपलोड किया, तो मामले ने राजनीतिक रंग ले लिया। सुनते हैं कि एक तिकड़मी नेता ने विवाद से बचने के लिए सन्नी को फौरन थाने में शिकायत करने की सलाह दी। सन्नी ने इसका अनुसरण किया। वैसे भी कभी-कभी अपने बचाव के लिए पहले हमला करना उपयुक्त नीति होती है।
मगर यह मामला अब सन्नी को उल्टा पड़ता दिख रहा है। सन्नी की शिकायत के बाद गौरीशंकर थाने पहुंच गए, और पूरे वीडियो की सत्यता की जांच की मांग कर दी है। हल्ला यह है कि सन्नी की तरफ से महिला को आगे लाकर उनसे शिकायत कराने की कोशिश भी हो रही है, लेकिन चर्चा यह भी है कि महिला ने ऐसा करने से मना कर दिया है। इससे परे पार्टी में जूनियर सन्नी अग्रवाल को मलाईदार निगम मिलने से कई कांग्रेस नेता नाखुश भी चल रहे हैं। उन्होंने भी वीडियो को मौके के रूप में देखा, और सन्नी की शिकायत पार्टी हाईकमान से कर दी है। देखना है अब आगे होता है क्या?
दुर्ग रेंज के लिए कौन?
प्रदेश के दूसरे पॉवरफुल रेंज माने जाने वाले दुर्ग के लिए नए आईजी की तलाश प्रशासनिक हल्के में जोरशोर से चल रही है। मौजूदा आईजी विवेकानंद सिन्हा एडीजी प्रमोट होने के बाद पीएचक्यू का रूख करने की तैयारी में है। उनकी जगह पुलिस महकमे में राजनीतिक और प्रशासनिक तालमेल में दक्ष अफसर को ही पदस्थ किए जाने की संभावना है। दुर्ग रेंज में करीब पौने दो साल का कार्यकाल पूरा कर चुके एडीजी सिन्हा का प्रमोशन करीब 6 माह देरी से हुआ है। अब वह पीएचक्यू में नए जिम्मेदारी सम्हालने का दिमाग लेकर दुर्ग रेंज में काम कर रहे हैं। दुर्ग में प्रदेश सरकार के ताकतवर मंत्रियों की तादाद भी है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का गृह जिला होने के साथ-साथ गृहमंत्री रविन्द्र चौबे और पीएचई मंत्री रूद्रगुरू भी इसी रेंज के विधानसभाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसे में पुलिस महकमे के रेंज स्तर पर मुखिया के तौर पर कुछ अफसरों का नाम चर्चा में है। बताया जा रहा है कि 2003 बैच के ओपी पाल के अलावा डॉ. संजीव शुक्ला का नाम भी रेंज आईजी के नाम चर्चा में है। 2003 बैच के ही बीएन मीणा भी केंद्रीय प्रतिनियुक्त से लौटकर नई जिम्मेदारी के लिए इंतजार में है। पीएचक्यू में आईजी स्तर के अफसरों की कमी के चलते प्रभारी आईजी के तौर पर डीआईजी अफसरों को मौका मिल सकता है।
इतने पैसों को आखिर सहदेव संभालेगा कैसे?
सोशल मीडिया की खबरों के मुताबिक 'बसपन का प्यार...' गाकर मशहूर हुए बस्तर के सहदेव को बादशाह से एक करोड़, नेहा कक्कड़ से 50 लाख, एक कार कम्पनी की ओर से महंगी कार और राज्य सरकार से 10 एकड़ जमीन मिली है। सोशल मीडिया पर यह पढ़कर सुनकर लोग चिंतित हैं कि बालक इतने रुपये, उपहारों को संभालेगा कैसे?
पर हकीकत कुछ अलग है। एक पत्रकार ने सहदेव से सम्पर्क कर जो जानकारी सोशल मीडिया पर डाली है उसके अनुसार उसे अब तक कुल जमा 5 लाख रुपये मिले हैं।सबसे बड़ी रकम बादशाह से मिली। नेहा कक्कड़, बादशाह का एक-डेढ़ करोड़ देना केवल किस्सा है। कार नहीं मिली, बल्कि एक कार कंपनी ने 21 हजार रुपये दिये हैं। जिले के मंत्री कवासी लखमा ने एक टीवी उसे दिया है। राज्य सरकार ने प्रधानमंत्री आवास योजना में मकान देने का आश्वासन दिया है। बादशाह ने पढ़ाई का खर्च भी उठाने की बात कही है। यानि, जीने का स्तर तो सुधरा है-पर अभी सहदेव और उसका परिवार एक साधारण जीवन ही जी रहा है।
किसान सम्मान निधि लौटाने का फरमान
प्रदेश में प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि की अब तक सात किश्त बंट चुकी है। हर किश्त के बाद अगले में किसानों की संख्या कम होती गई। हजारों ऐसे मामले सामने सामने आये जिसमें फर्जी किसानों को सम्मान निधि बांट दिये जाने की जानकारी बाहर आ गई। इनकी अगली किश्त तो रोक दी गई पर अब केन्द्र सरकार ने उनसे वसूली करने का आदेश जारी किया है। इसका जिम्मा कृषि विभाग को दिया गया है, क्योंकि सूची भी उनकी ही थी। अब अकेले कोरबा जिले की बात करें तो अब तक 25 हजार अपात्र किसानों का पता चल चुका है जिन्होंने पीएम किसान सम्मान निधि अंदर कर ली। इनसे कैसे वसूली की जाये यह विभाग के लिये सिरदर्द बन गया है। इसके पीछे वजह है कि वसूली भी उन्हीं अपात्रों से की जानी है जिनको पात्र बनाने के लिये एक हिस्सा एडवांस में ले लिया गया था। जिन लोगों ने फर्जी किसान बना दिये वे चिंता में हैं कि कहीं उनसे रिकव्हरी न हो जाये।
डॉक्टर ने ली रिश्वत, लोगों ने भीख मांगकर लौटाये
सरगुजा में दो माह पहले एक महिला के पति की सांप काटने से मौत हो गई। यहां के मेडिकल कॉलेज में संविदा डॉक्टर नारायण गोले ने उसकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख करने के एवज में 12 हजार रुपये रिश्वत ले लिये। महिला ने अपनी गरीबी का हवाला दिया तब इतने में बात तय हुई वरना मांग 50 हजार रुपये की थी। इस घटना का वीडियो वायरल हो गया। सब अखबारों में घटना कवर हुई। लोगों का गुस्सा फूटा। वे डॉक्टर को बर्खास्त करने, लाइसेंस रद्द करने और रिश्वत की रकम लौटाने की मांग पर अस्पताल में ही धरने पर बैठ गये। जिला प्रशासन के आश्वासन पर आंदोलन खत्म किया गया। पर डॉक्टर को बख्श दिया गया। उसकी संविदा नियुक्ति तो समाप्त कर दी गई लेकिन कारण, सामान्य प्रशासनिक प्रक्रिया बता दिया गया। रिश्वत का कहीं जिक्र नहीं। पीडि़त महिला को रुपये भी नहीं लौटाये गये।
कई बार ऐसा हुआ है कि अधिकारियों ने रिश्वत लेने वालों को फटकार लगाते हुए रुपये वापस दिलाये हैं पर इस मामले में ऐसा कुछ नहीं हुआ। दो माह इंतजार किया गया। फिर कल कई संगठन उस गरीब महिला के रुपये लौटाने के लिये आगे आये। उन्होंने अनोखा तरीका अपनाया। भिक्षा पात्र लेकर नगर भ्रमण किया और लोगों से सहयोग मांगा। इसके जरिये 11 हजार 170 रुपये मिल गये। डॉक्टर और स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों के सिर से महिला को पैसे लौटाने का बोझ तो उतरा पर चर्चा शहर भर में हो गई। ऐसा उस शहर में हुआ जहां से स्वास्थ्य मंत्री प्रतिनिधित्व करते हैं।
लालटेन का टोटा पड़ गया
बिजली की दरों में वृद्धि के खिलाफ प्रदर्शन में भाजपा नेताओं के पसीने छूट गए। पार्टी नेताओं ने कंडील (लालटेन) मार्च निकालने का फैसला तो ले लिया था, लेकिन जब कंडील लेकर मोहल्लों में घूमने की बारी आई, तो पता चला कि किसी के पास कंडील ही नहीं है। तब कई नेताओं ने कार्यकर्ताओं को गोलबाजार दौड़ाया, और खरीदकर कंडील का इंतजाम किया। इसके बाद कंडील जलाने की समस्या आ गर्ई। जलाने के लिए मिट्टी तेल नहीं था। कार्यकर्ताओं को तेल का इंतजाम करने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ी।
कुछ को तो गरीब बस्तियों में भेजा गया, लेकिन अब तो ज्यादातर लोग उज्जवला स्कीम में आ चुके हैं, और मिट्टी तेल के बजाए गैस का उपयोग शुरू कर दिया है। फिर भी किसी तरह तेल का इंतजाम किया गया। इसके बाद कुछ कंडील जल पाए, तब कहीं जाकर प्रतीकात्मक प्रदर्शन किया गया। पार्टी नेताओं के मुताबिक यह अब तक का सबसे कठिन प्रदर्शन था। कुछ कार्यकर्ता तो नेताओं को कोसने लगे, जो कि बिना सोचे समझे कंडील रैली का कार्यक्रम बना लिया था।
कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को लेकर मिथक
छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री के ढाई-ढाई साल के फार्मूले पर काफी चर्चा और बयानबाजी हो चुकी है। इसके बीच छत्तीसगढ़ और अविभाजित मध्यप्रदेश के दौर में छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधित्व करने वाले कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को लेकर एक रोचक मिथक चर्चा में सामने आया है। कहा जाता है कि छत्तीसगढ़ बनने के बाद और उससे पहले अविभाजित राज्य में छत्तीसगढ़ से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाले किसी भी कांग्रेसी नेता ने पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं किया है। कोई भी तीन साल से ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री नहीं रह पाया। यह अलग बात है कि वे एक से अधिक बार मुख्यमंत्री पद पर रहकर पांच साल से ज्यादा समय तक कुर्सी पर रहे। अलग राज्य बनने से पहले श्यामाचरण शुक्ल मध्यप्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री बने, लेकिन वे कभी भी तीन साल से ज्यादा समय तक सीएम नहीं रहे। पहली बार वे मार्च 1969 में मुख्यमंत्री बने और जनवरी 1972 तक पद रहे। तीन साल से करीब दो महीने पहले उन्हें कुर्सी छोडऩी पड़ी। इसके बाद वे दिसंबर 1975 से अप्रैल 1977 तक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। इस बार भी तीन साल से कम समय के लिए मुख्यमंत्री रहे। तीसरी बार श्यामाचरण दिसंबर 1989 में सीएम बने और मार्च 1990 तक पद पर रहे और इस बार भी वे 3 साल से कम समय़ के लिए सीएम रहे। इसी तरह छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधित्व करने वाले मोतीलाल वोरा अविभाजित मध्यप्रदेश में दो बार मुख्यमंत्री रहे। पहली बार वे मार्च 1985 से फरवरी 1988 तक मुख्यमंत्री रहे। मतलब तीन साल से एक महीना कम समय के लिए वे सीएम रहे। इसके बाद दूसरी बार वे जनवरी 1989 से दिसंबर 1989 तक राज्य के मुखिया रहे। छत्तीसगढ़ बनने के बाद कांग्रेस के मुख्यमंत्री के रूप में अजीत जोगी ने शपथ ली। वे 1 नवंबर 2000 से 7 दिसंबर 2003 तक मुख्यमंत्री रहे। इस तरह वे 3 साल 34 दिन तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे। उनका कार्यकाल भी एक तरह से तीन साल का ही माना जा सकता है, क्योंकि इस दौरान चुनावों की घोषणा और नई सरकार के गठन तक पद पर रहना संवैधानिक बाध्यता भी है। साल 2003 से 15 साल तक राज्य में बीजेपी की सरकार थी। वर्ष 2018 के चुनाव में कांग्रेस को बहुमत हासिल हुआ। तब 17 दिसंबर 2018 को भूपेश बघेल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। उनके तीन साल का कार्यकाल इस साल दिसंबर में पूरा होगा।
आगे बढक़र स्ट्रोक लगाते महंत !
विधानसभा अध्यक्ष का पद संवैधानिक माना जाता है। इस पद पर बैठे सियासतदार आमतौर प्रोटोकॉल मेंटेंन करते हैं और राजनीतिक बयानबाजियों से परहेज करते हैं, लेकिन राज्य के मौजूदा विधानसभा अध्यक्ष डॉ चरणदास महंत पिछले कुछ दिनों से मीडिया से खूब सियासी और रोचक अंदाज में बातें कर रहे हैं। सियासत को खेल-खेल में समझाने की भी कोशिश कर रहे हैं और संदेश भी दे रहे हैं। मनेन्द्रगढ़वासियों को अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि उनके बयान के दूसरे दिन इलाके के लोग जिले के वासी हो जाएंगे, जबकि उन्होंने काफी स्पष्टता के साथ कह दिया था कि आने वाला कल मनेन्द्रगढ़ के लिए ऐतिहासिक होगा। राज्य के मुखिया ने मनेन्द्रगढ़ को जिला बनाने का ऐलान कर दिया। इतना ही सीएम ने महंत के विधानसभा क्षेत्र के सक्ती को भी जिला बना दिया। वे सबसे ज्यादा जिला बनवाने वाले जनप्रतिनिधि हो गए हैं। यह बात भी उन्होंने खुद स्वीकारी की कि वे सीएम से ज्यादा जिले बनवा चुके हैं। उन्होंने यह भी समझाया कि जिला बनाना था तभी तो सक्ती में पहले से ही आईएएस अधिकारी की पोस्टिंग कर दी गई थी। डॉ महंत इतने में नहीं रूके और उन्होंने कह दिया कि आने वाले चुनाव से पहले छत्तीसगढ़ में 36 जिले होंगे। मतलब तय माना जा रहा है कि सरकार आने वाले में 4 और जिला बनाने की घोषणा कर सकती है। महंत पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं तो कांग्रेस संगठन ने भी उनकी हां में हां मिलाया और कहा कि महंत कह रहे हैं, तो सोच-समझकर कह रहे होंगे और ऐसा जरूर होगा। खैर, महंत के इस नए रूप को देखकर कांग्रेसी और उनको करीब से जानने वाले भी आश्चर्यचकित हैं, क्योंकि लोगों ने महंत को कभी ऐसे आगे बढक़र सियासी स्ट्रोक लगाते नहीं देखा। कुल मिलाकर वे सियासी या प्रशासनिक हर तरह की गेंद को हवा में उछालकर बाउंड्री के बाहर पहुंचा रहे हैं। लिहाजा लोगों का आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक है। खैर, खिलाड़ी और खेल से जुड़े लोग तो इस बात को जानते हैं कि मैदान पर कोच का निर्देश मिलने पर खिलाड़ी अक्सर आगे बढक़र स्ट्रोक लगाने उतावला रहते हैं, परन्तु सियासत में ऐसा कोई नियम है नहीं, इसलिए लोग अटकलें ही लगा सकते हैं कि कहीं सियासी मैदान में महंत को कोच से आगे बढक़र स्ट्रोक लगाने का निर्देश तो नहीं मिला है ?
परिंदों का रहवास उजड़ रहा, अफसर एसी कमरों में
बिलासपुर जिले के मोहनभाटा में सेना की जमीन है, जहां द्वितीय विश्व युद्ध के दौर में विमान उतरने के लिए हवाई पट्टियां बनी थीं। इस महंगी जमीन पर बड़े किसानों ने कब्जा कर फल के बगीचे, फॉर्म हाउस बना लिए और छोटे किसान हर साल अपने खेत का बढ़ाते और नया कब्जा करते जा रहे हैं। खेतों में कीटनाशक छिडक़ाव और कृषि गतिविधियों के कारण जीव और वनस्पति जगत पर यहां खतरा बना है।
इसका नुकसान विलुप्त प्राय: हो रहे परिंदों को अपनी अस्तित्व खोने की कीमत देकर चुकाना पड़ है। दस साल पहले मोहन भाटा में 8-10 इंडियन कर्सर बचे थे। फिर 7 और बाद में इनकी संख्या 5 रह गई। वे यहीं प्रजनन करते रहे हैं। इस बार एक माह से ज्यादा वक्त हो गया है मात्र एक ही परिंदा दिखाई दे रहा है, बाकी कहां चले गए या शिकारियों के हाथों जान गंवा चुके पता नहीं।
दरअसल मोहनभाटा की भूमि में बारिश की पहली बौछार के साथ अर्थवर्म तेजी से पनपते हैं जो कई प्रवासी परिंदों की पसन्दीदा खुराक है। वे गीली भूमि पर इनको पकडक़र नूडल्स की तरह सुडक़ते हैं। करीबी गांव वालों की गाय चराई यहां होती है और गोबर में होने वाले कीड़े भी परिन्दों का भोजन है। मरे मवेशियों की सफाई यहां सफेद गिद्ध करते हैं।
राजस्थान में अब मिलने वाले ग्रेट इंडियन बस्टर्ड को काफी पहले अकलतरा में देखा जाता था, पर वहां क्रशर प्लांट और सीमेन्ट कारखाना लगने के बाद वे विलुप्त हो गये। स्थानीय लोग इस पक्षी को ‘खड़बाग’ कहते थे।
वन विभाग को सब पता है, पर कुर्सी पर जमे ऐसी रूम से निकल कर कभी इधर नहीं पधारे औऱ ना ही इस रहवास को बचाने उनके अमले ने कोई कदम उठाया। छतीसगढ़ में जैव विविधता को बचाने सरकारी अमला है पर वह कोई कार्रवाई करते दिखता नहीं। यहां शिकार से इन पक्षियों का बचाने कुछ पक्षी प्रेमी ऐसे तत्वों को अपनी हिम्मत और जोखिम उठा कर रोकते हैं. जो नाकाफी है।
(प्राण चड्ढा/फेसबुक)
तब तक सरकारी मंच पर नहीं...
मानपुर-मोहला को जिला बनाने को अम्बागढ़ चौकी की उपेक्षा मानते हुए वहां के लोगों ने आंदोलन कर दिया। कांग्रेस विधायक छन्नी साहू ने भी प्रदर्शन में भाग लिया। अब मांग में परिवर्तन लाते हुए कहा जा रहा है कि नाम चाहे मानपुर ही रहे पर जिला मुख्यालय अम्बागढ़-चौकी में स्थापित हो। दूसरी ओर कोरिया की विधायक अंबिका सिंहदेव ने घोषणा कर दी है कि जब तक जिले का सही विभाजन नहीं होगा वे किसी सरकारी कार्यक्रम के मंच पर नहीं चढ़ेंगीं। यहां कहा जा रहा है कि नया जिला तो मनेन्द्रगढ़ बन गया है, पर खडग़वां और सोनहत ब्लॉक को कोरिया जिले में रहने दिया जाये। मनेन्द्रगढ़ में मुख्यमंत्री की घोषणा के बाद जश्न मनाया गया तो चिरमिरी वालों ने इस मांग को लेकर आंदोलन शुरू कर दिया कि जिला मुख्यालय चिरमिरी हो। अपने विधानसभा की जनता के साथ खड़े रहना, या कम से कम खड़े होते दिखाई देना विधायकों की जरूरत भी है और विवशता भी। क्या यह विरोध नये जिलों को लेकर लिये गये फैसलों पर कोई बदलाव लायेगा, यह देखना होगा।
बात निकलेगी तो फिर दूर तलक..
लोगों को उनके अधिकारों की जानकारी देना तो आसान रहता है लेकिन जब लोग उन अधिकारों का इस्तेमाल करने पर उतारू हो जाते हैं तो फिर अधिकार देने वालों को भी कुछ परेशानी होने लगती है। अब अभी छत्तीसगढ़ में पाठ्य पुस्तक निगम ने भारत के संविधान की बुनियादी जानकारी देते हुए किताबें छापी हैं और उन्हें प्रदेश के छात्र-छात्राओं को दिया जा रहा है। इनमें मुख्यमंत्री, राज्यपाल, शिक्षा मंत्री के साथ-साथ पाठ्य पुस्तक निगम के अध्यक्ष शैलेश नितिन त्रिवेदी का भी एक संदेश छपा। संदेश क्योंकि आमतौर पर किसी के लेटर पैड पर टाइप करके उसे ही छाप दिया जाता है, तो इस नाते शैलेश नितिन त्रिवेदी का मोबाइल नंबर भी लाखों बच्चों तक पहुंच गया। उनमें से कुछ लोगों ने तो उस मोबाइल पर फोन करके अच्छी जानकारी देने के लिए धन्यवाद दिया, लेकिन दुर्ग जिले के उतई के एक चाय वाले ने फोन करके शैलेश नितिन त्रिवेदी से पूछा कि क्या पानी भारतीय नागरिक का बुनियादी अधिकार है? हां में जवाब मिलने पर उस आदमी ने कहा कि वह एक चाय ठेला चलाता है, उसे पहले नल कनेक्शन मिला हुआ था लेकिन क्योंकि वह चाय ठेला भी चलाता है इसलिए कनेक्शन घरेलू बतलाकर उसे काट दिया गया। तो अब बतलाया जाए कि पानी पाना उसका बुनियादी अधिकार है या नहीं? शैलेश नितिन त्रिवेदी ने उसे सलाह दी कि वे अपने स्थानीय विधायक से अपनी दिक्कत बताएं। लेकिन वह चायवाला पीछे लग गया कि संविधान की किताब तो आपने छाप कर बच्चों को भेजी है इसलिए आप ही बताएं कि पानी का बुनियादी अधिकार उसे क्यों नहीं दिया जा रहा है?
संविधान की जानकारी दे देना आसान है इस जानकारी का इस्तेमाल करने पर लोग आमादा हो जाएं तो सत्ता पर बैठे लोगों को दिक्कत होने लगेगी।
साथ रहते हुए भी भनक नहीं
कांग्रेस में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सुष्मिता देव ने पार्टी छोड़ दी है, और तृणमूल कांग्रेस का हिस्सा बन गईं। एक दिन पहले ही वो राहुल गांधी से मिली थीं। उनके साथ संसदीय सचिव विकास उपाध्याय भी थे। विकास, असम प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी सचिव हैं।
सुष्मिता ने विकास को भी भनक नहीं लगने दी, और राहुल से मुलाकात से पहले कांग्रेस संगठन को मजबूत करने के लिए सुझाव देती रहीं। और जब पार्टी छोडऩे की खबर आई, तो कांग्रेस नेताओं को झटका लगा। पार्टी हाईकमान द्वारा सुष्मिता के पार्टी छोडऩे के मामले पर विकास से पूछताछ की भी खबर है। कांग्रेस के कुछ और बड़े नेताओं के भी पार्टी छोडऩे का हल्ला है।
सुष्मिता के बाद यूपी के बड़े नेता, और पूर्व केन्द्रीय मंत्री आरपीएन सिंह के भी पार्टी छोडऩे की चर्चा है। कहा जा रहा है कि आरपीएन सिंह भी पिछले कुछ दिनों से पार्टी दफ्तर नहीं जा रहे हैं। खास बात यह है कि छत्तीसगढ़ के ही नेता राजेश तिवारी, यूपी कांग्रेस के प्रभारी सचिव हैं। मगर विकास की तरह राजेश तिवारी को भी झटका लग जाए, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
कर्ज से उबरने के लिए
आरडीए ने कर्ज से उबरने के लिए दो बड़ी योजना प्रस्तावित की है। इसमें रेलवे स्टेशन के समीप मार्कफेड की नूतन राइस मिल की खाली 11 एकड़ जमीन पर आवासीय कॉलोनी बनाने की योजना है। इसी तरह आकाशवाणी के समीप काली मंदिर के पीछे सरकारी जमीन पर सी-मार्ट बनाने का प्रस्ताव है। ये योजनाएं अभी कागज पर ही है, लेकिन इसका विरोध शुरू हो गया है।
समता कॉलोनी, और आसपास के लोग नूतन राइस मिल की खाली जमीन पर कॉलोनी बनाने के बजाए ऑक्सीजोन बनाने पर जोर दे रहे हैं। वजह यह है कि रेल्वे स्टेशन के नजदीक होने के कारण वहां भीड़ भाड़ काफी रहता है, और कॉलोनी बनने से प्रदूषण बढ़ेगा। यही हाल, काली मंदिर के पीछे सरकारी जमीन पर सी-मार्ट जैसा व्यावसायिक परिसर बनाने से भी कुछ इसी तरह की समस्याएं खड़ी हो सकती है। लिहाजा, इस योजना के विरोध स्वरूप जन आंदोलन की तैयारी है। ऐसे हाल में आरडीए की योजना मूर्त रूप लेना कठिन होगा।
जब गणेश शंकर पूर्व सांसद प्रदीप के पहुंचने की खबर से लौटे
छत्तीसगढ़ के पूर्व भारतीय प्रशासनिक अधिकारी जीएस मिश्रा की भाजपा का दामन थामने की इन दिनों राज्य की सियासी गलियारे में जमकर चर्चा हो रही है। पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के पहले कार्यकाल में राजनांदगांव कलेक्टर रहे जीएस मिश्रा की नई राजनीतिक भूमिका की बात जब चल रही हो तो उनके नांदगांव कलेक्टरी करते पूर्व सांसद प्रदीप गांधी से बढ़ी तल्खी को अब चटकारे लेकर छेड़ा जा रहा है।
बताते हैं कि भले ही पूर्व सांसद गांधी खुद को रमन का हनुमान बताते थे, लेकिन प्रशासनिक रूप से उनकी जीएस मिश्रा के सामने दाल नहीं गल रही थी। उनके बीच इस कदर दूरी बढ़ी कि जब पूर्व महापौर विजय पांडे के अगुवाई में होने वाले शहर के मशहूर राष्ट्रीय दशहरा उत्सव समिति के रावण दहन कार्यक्रम में मौजूद जीएस मिश्रा प्रदीप गांधी के आने की खबर मात्र से ही कुर्सी छोडक़र चले गए। दोनों के मध्य आपसी तनातनी हमेशा बनी रही। अब जीएस मिश्रा की बात हो रही है तो एक दूसरा सकारात्मक पहलू यह भी है कि बतौर जिलाधीश डोंगरगढ़ दर्शनार्थियों के पदयात्रा को सुनियोजित और व्यवस्थित रूप देकर उन्हें काफी वाहवाही बटोरी। मिश्रा की दखल से नौ दिन की पदयात्रा पर निकलने वाले श्रद्धालुओं को रास्तों में रेस्टोरेंट और होटल जैसी आरामदायक सुविधाएं मिली। जिससे यात्रियों की संख्या भी बेतहाशा बढ़ी और मां बम्लेश्वरी की भव्यता भी काफी विस्तृत हुई।
महुआ फ्रांस और ब्रिटेन पहुंच गई
महुआ छत्तीसगढ़ ही नहीं अन्य राज्यों में भी आदिवासी समाज के रहन-सहन, जीवन-यापन का अभिन्न हिस्सा है। उनकी संस्कृति से भी जुड़ा है। गांवों में उपलब्ध संसाधनों के जरिये ही महुआ से शराब बना ली जाती है जो दो चार दिनों तक ही पीने लायक होती है। शराब पश्चिम के जिन देशों में चाय, कॉफी या वेलकम ड्रिंक के रूप में प्रचलित है वहां महुआ की खूबियों पर वैज्ञानिक शोध चल रहे हैं। ऐसे में पहली बार समुद्री रास्ते से कटघोरा से महुआ की खेप फ्रांस और ब्रिटेन भेजी गई है। वैसे तो यह जानकारी केन्द्र सरकार की एपीडा (कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद विकास प्राधिकरण) ने ट्विटर पर अपनी उपलब्धि के तौर पर दी है पर जैसी जानकारी हमने जुटाई पता चला कि एक वर्ष से कटघोरा के एक युवा व्यापारी निखिल धनौंदिया अपने संपर्कों के जरिये ही सरकार के बिना किसी सहयोग से आगे बढ़े।
निखिल बताते हैं कि यह उनका एक स्टार्टअप है जिसकी एपीडा ने सराहना की। जिन देशों ने मंगाया है वो संभवत: ज्यादा टिकाऊ और बेहतर शराब बनायेंगे। सिरप और सॉफ्ट पेय में इसका इस्तेमाल हो सकता है। 11 अगस्त को पहली खेप जब भेजी गई तो एपीडा के अध्यक्ष डॉ. एम अंगमुथु ने हरी झंडी दिखाकर उसे रवाना भी किया। एकत्रित महुआ फूल को चार-पांच दिन तक धूप में सुखाकर 10 प्रतिशत नमी की स्थिति में आने तक निर्जलित (डिहाईड्रेटेड) किया जाता है फिर एक खास तरह के बैग में पैक कर दिया जाता है। ये फूल कोरबा, कटघोरा, सरगुजा, पसान, पाली, छुरी आदि के जंगलों से एकत्र किये गये थे। निखिल कहते हैं कि एपीडा का स्टार्ट अप को प्रोत्साहित करना तो अच्छा है पर किसी भी स्टार्टअप के लिये बड़ी फंडिंग, फाइनेंस की भी जरूरत पड़ती है। उन्होंने खुद तो अपने संसाधनों से एक शुरुआत कर ली है पर अनेक दूसरे युवा भी कुछ अलग हटकर काम करना चाहते हैं, उन्हें वित्तीय समर्थन मिलना चाहिये।
जितेन्द्र आईपीएस बिरादरी से हॉट स्प्रींग के लिए पहले अफसर
नारायणपुर में 16वीं बटालियन के कमंाडेंट जितेन्द्र शुक्ला की प्रदेश में काबिल अफसरों में गिनती होती है। 2013 बैच के शुक्ला को नक्सल लड़ाई में जोश भरने के लिए भी जाना जाता है, अब वह देश का सिरमौर कहे जाने वाले लेह-लद्दाख में शहीदों की याद में सालाना होने वाले हॉट स्प्रींग के आयोजन में छत्तीसगढ़ पुलिस का प्रतिनिधित्व करेंगे। जितेन्द्र शुक्ल हॉट स्प्रींग के लिए राज्य सरकार से चुने जाने वाले पहले आईपीएस अफसर हैं। हालांकि कुछ साल पहले सुकमा से एक उपनिरीक्षक को इस समारोह में भाग लेने का अवसर जरूर मिला, लेकिन आईपीएस लेवल पर जितेन्द्र पहले अधिकारी होंगे।
21 अक्टूबर 1959 को माइनस डिग्री में बर्फीले चट्टानों की आड़ में चीनी सेना ने धोखे से पैरामिलिट्री सीआरपीएफ पर हमला कर दिया। इस घातक हमले में 10 जवान शहीद हुए थे। उस जमाने में इस हमले को आजाद भारत के सबसे बड़े हमले के रूप में जाना जाता है। शहादत की इस घटना को याद करने के लिए हर साल देशभर के सुरक्षाबलों से चुंनिदा अफसरों को सलामी देने के लिए चुना जाता है।
बताते हैं कि केंद्र सरकार की निगरानी में प्रतिनिध् िामंडल का गठन होता है। राज्य सरकार से केंद्र ने कार्यक्रम में शामिल होने के लिए नाम मांगे थे। शुक्ला के नाम की सरकार के अफसरों ने सिफारिश की थी। 24 अगस्त से 9 सितंबर के बीच शहादत समारोह शुक्ला सलामी देकर राज्य का गौरव बढ़ाएंगे।
छत्तीसगढ़ी सिनेमा के इतिहास पर किताब
भले ही अब तक देश की दूसरी भाषाओं की तरह छत्तीसगढ़ी फिल्मों को मुकाम हासिल न हुआ हो, पर, इस लिहाज से खास हैं कि हर साल बड़ी संख्या में प्रोडक्शन होता है। और यह इतिहास कुछ बरसों का नहीं, बल्कि 50 सालों का है। इसके इतिहास को सहेजने का काम किया है रायपुर के अखिलेश कुमार शर्मा ने। उन्होंने छत्तीसगढ़ी सिनेमा पर पहली किताब ‘हमर छालीवुड’ लिखी है। किताब में छत्तीसगढ़ी फिल्मों के 50 सालों के इतिहास पर रोशनी डाली गई है। पहली फिल्म और उसका पहला सीन, पहली पोस्टर इसमें दर्ज है। बहुत सी फिल्में 100 दिन से लेकर 25 सप्ताह और उससे अधिक सिनेमाघरों में चलीं, उनका भी विवरण मिलेगा। अमेरिका सहित दूसरे देशों में छत्तीसगढ़ी फिल्मों का क्या रिस्पॉन्स रहा, कब कौन से अवार्ड मिले, राजनीति में इसका क्या असर था, कलाकार कौन थे और उनकी कहानी क्या थी, इस किताब में विस्तार से है। दरअसल, यह एक पोस्टर्स का संकलन है जिसमें विवरण भी साथ-साथ दर्ज है। किताब की खूबियों को देखते हुए इसे ‘गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स’ में दर्ज भी किया गया है। संस्था के प्रतिनिधियों ने स्पीकर डॉ. चरण दास महन्त के हाथों लेखक को यह रिकॉर्ड सौंपा।
देवसेनापति भी प्रतिनियुक्ति पर
भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसर केसी देवसेनापति भी केन्द्र सरकार में प्रतिनियुक्ति पर जा रहे हैं, उनकी जनगणना निदेशालय में संचालक के पद पर पोस्टिंग हो गई है। विशेष सचिव स्तर के अफसर देवसेनापति, अतिरिक्त मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी के पद पर हैं। इससे पहले रजत कुमार की पोस्टिंग हुई थी। जो कि दिल्ली चले गए। उनके जाने के बाद राज्य सरकार ने देवसेनापति का नाम पैनल में भेजा था। देवसेनापति अब छत्तीसगढ़ में जनगणना का काम देखेंगे।
छात्र नेतृत्व के लिये इंटरव्यू
बीजेपी की तरह कांग्रेस कैडर बेस्ड पार्टी नहीं है इसलिये संगठन के पद नेताओं की सिफारिश और उनकी पहुंच के आधार पर दे दिये जाते हैं। पर छात्र इकाई में पदाधिकारियों के चयन के लिये इस बार कांग्रेस ने लगभग वह तरीका अपनाया है जो कैडर वाले किसी संगठन में पाया जाता है। प्रदेश एनएसयूआई का नया अध्यक्ष चुना जाना है। इसके लिये राज्य के बड़े नेताओं से नाम नहीं मंगाये गये, बल्कि जो एनएसयूआई में पहले से काम कर रहे हैं उनसे आवेदन मांगे गये। दिल्ली में इनका इंटरव्यू हुआ। उन्हें अब तक के छात्रों व समाज के लिये गये कार्यों के बारे में पूछा गया। भविष्य में किन योजनाओं को वे लाना चाहते हैं, उस पर सवाल हुए। कोरोना महामारी और छात्रों की पढ़ाई को इस अवधि में पहुंची क्षति की भरपाई कैसे होगी, यह भी पूछा गया। प्रदेश से 14 उम्मीदवारों को साक्षात्कार के लिये चुना गया था। इनमें भावेश शुक्ला, पूर्णानंद साहू, अमित शर्मा, चमन साहू, नीरज पांडे, आदित्य सिंह, निखिल कांत साहू आदि छात्र शामिल थे। हालांकि बताया जाता है कि इन 14 नामों में अधिकांश का किसी न किसी सीनियर नेता से सम्पर्क है। बहुत पहले कॉलेजों के स्टूडेंट यूनियन के चुनाव होते थे, लोकप्रिय छात्र नेताओं का आसानी से पता चल जाता था और उन्हें एबीवीपी, एनएसयूआई में अपनी जगह अपने-आप मिल जाती थी। अब यह नये मापदंड से चुने जाने वाले छात्र नेता अपने संगठन को कितना मजबूत कर सकेंगे, समय बतायेगा।
जितने जिले, उनसे दुगने नाम
छत्तीसगढ़ में पहले सिर्फ 11 जिले थे, फिर 18 फिर 23 और 28 हो गये। अब 15 अगस्त को चार नये जिले घोषित कर दिये जाने के बाद इनकी संख्या बढक़र 32 हो जायेगी। मध्यप्रदेश से अलग राज्य बनने के बाद अवसर मिला और प्रशासनिक कसावट के लिये कई दूरदराज के इलाकों को जिला मुख्यालय घोषित किया गया। मध्यप्रदेश के समय जब जांजगीर और कोरबा को जिला घोषित किया गया तो चाम्पा में लोग आंदोलन पर उतर गये। समझौता ऐसे किया गया कि जिले का नाम ही जांजगीर-चाम्पा कर दिया गया। हालांकि अधिकांश मुख्यालय अब भी जांजगीर और नवागढ़ में ही स्थापित हैं।
बलौदाबाजार-भाटापारा, बलरामपुर-रामानुजगंज जिलों का नाम भी सबको संतुष्ट करने के हिसाब से रखा गया। अन्य नये जिलों में भी पहचान और प्राथमिकता का सवाल आया। सन् 2018 में दुबारा कांग्रेस सरकार बनी तो फिर एक नया जिला बना। नाम रखने पर विवाद न हो इसके लिये लम्बा सा नाम गौरेला-मरवाही-पेन्ड्रा रख दिया गया। इसका नाम तो इतना लम्बा हो गया कि सीजीपीएससी के कॉलम में अतिरिक्त जगह बनानी पड़ी। अब संक्षेप में लोगों ने इसे जीपीएम कहना शुरू कर दिया है।
बीते 15 अगस्त को मानपुर-मोहला जिले की भी घोषणा हुई है। इसके समीप के अम्बागढ़-चौकी के लोगों की भी जिला बनाने की मांग थी। वहां लोग मानपुर-मोहला को जिला बनाने और अम्बागढ़-चौकी को नहीं बनाये जाने के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। खास बात है कि उनके आंदोलन को अपनी ही सरकार के खिलाफ वहां की कांग्रेस विधायक छन्नी साहू भी साथ दे रही हैं। वे कहती हैं कि इसे जिला बनाने की मांग पुरानी थी। जनता अगर आंदोलन पर उतर गई है तो मुझे तो प्रतिनिधि होने के नाते उनका साथ तो देना पड़ेगा। सीएम से मिलने के लिये उन्होंने समय मांगा है। तब शायद एक जिले का नया नाम आकार लेगा, जो लंबाई में जीपीएम का भी रिकॉर्ड तोड़ देगा। वैसे विधायक एक बार पहले भी डेढ़ साल पहले भी नगर पंचायत चुनाव में हुए विवाद को लेकर राजीव भवन में जिला कांग्रेस अध्यक्ष को हटाने के लिये धरना दे चुकी हैं।
वैक्सीनेशन विहीन ट्रेन, हवाई-जहाज यात्री
कोविड वैक्सीनेशन को लेकर जागरूकता की बात की जाती है तो अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों व आदिवासी बाहुल्य जिलों का आंकड़ा सामने होता है। पर शिक्षित व समझदार समझे जाने वाले लोगों में भी इसकी कमी दिखाई दे रही है। ट्रेन और हवाई जहाज से यात्रा करने वालों को कोविड का वैक्सीन लगवाना या फिर 72 घंटे के भीतर का आरटी पीसीआर टेस्ट होना जरूरी है, पर यात्री यह जरूरी टेस्ट नहीं करा रहे हैं। रायपुर और बिलासपुर जैसे स्टेशनों में हर दिन पांच सात सौ ऐसे यात्री मिल रहे हैं जिन्होंने कोविड टीका नहीं लगवाया न ही उनके पास कोई ताजा टेस्ट रिपोर्ट है। कई यात्री तो लम्बे-चौड़े फ्लेटफार्म में गली तलाशने लगते हैं कि बिना तलाशी के वे बाहर कैसे निकल सकें।
ऐसा मान भी लिया जाये कि ट्रेनों में अमीर-गरीब हर तबके का व्यक्ति सफर करता है, कुछ लोग कम पढ़े लिखे भी होते हों, पर हवाई जहाज का सफर ऐसा नहीं है। पर रायपुर-बिलासपुर के हवाईअड्डों में भी बड़ी संख्या में ऐसे यात्री रोजाना मिल रहे हैं, जिन्होंने न तो कोविड टेस्ट निगेटिव रिपोर्ट रखी है न ही एक भी डोज वैक्सीन का लगवाया। ऐसे लोगों को आप क्या कहेंगे? शायद वे लैब जाने की जगह सीधे स्टेशन या एयरपोर्ट का रुख, समय बचाने के लिये कर रहे हैं। भले ही उन्हें इसके लिये अतिरिक्त राशि और समय उन्हें गंवाना पड़ रहा है।
नागों ने अब अपना चेहरा बदल लिया...
कभी नागपंचमी पर दंगल होते थे, पर अब अखाड़ा-कुश्ती का नहीं, जिम का दौर है। फूड सप्लीमेंट पर अधिक ध्यान दिया जाता है। खेतों में कीटनाशकों ने नाग और सर्पों का बड़ा विनाश किया है। नाग अब गांव-देहात में नहीं शहरों में, रूप बदल कर रहते हैं। लेकिन आस्तीन के सांप सर्वत्र मिल जाते हैं।
कहते हैं नाग खजाने की रक्षा करता है। पर अब ये नाग जमाखोरी, कालाबाजारी, रिश्वतखोरी या फिर काले-पीले धंधे से सात पीढिय़ों के लिए धन अर्जित करते हैं और उस पर कुंडली मार कर बेहद कंजूसी से जीते हैं। उनका धन समाज या उनके लिए नहीं, दीमक के काम आएगा।
दहेज का नाग बहुत जहरीला है। जाने कितने घरों में इसके दंश से हर साल महिलाएं शिकार बन रही हैं या फिर बेटियां घर में सहमी हैं।
इच्छाधारी नागों ने अब बहुतेरे रूप ले लिए हैं। कई सर्प नफरत का जहर मीडिया के माध्यम बांट रहे हैं। कुछ नाग बाबा अपनी की काली करतूतों की वजह जेल में हैं या विदेश भाग गए। वापस बिल में आने को तैयार नहीं। (प्राण चड्ढा/फेसबुक से)
हाथियों ने बदल दी दिनचर्या
कोरबा व कटघोरा वन मंडल हाथियों से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्रों में शामिल है। यहां अब से 21 वर्ष पहले 20 हाथियों का झुंड आया था। तीन चार गांवों में ही इसका असर था। अब इनकी संख्या कई गुना बढ़ चुकी है जो कोरबा, कटघोरा, गौरेला-पेंड्रा-मरवाही क्षेत्र में विचरण करते हैं। जिन 50-60 गांवों में हाथी आये दिन हमला करते हैं वहां के निवासियों को अपनी दिनचर्या में बदलाव लाना पड़ा है। वे मिट्टी के घरों में रहने के आदी रहे हैं, जिसमें वे अपने को प्रकृति के ज्यादा करीब पाते हैं, पर अब शाम होते ही उन्हें पक्के घरों में जाना होता है। यह स्कूल, पंचायत भवन या किसी का निजी मकान होता है। महुआ आदिवासियों के खान-पान का एक अंग है, उनका रोजगार भी इससे जुड़ा है पर अब घरों में वे महुआ बीज एकत्र करके नहीं रखते। या तो इसे वे पक्के घरों में रखते हैं या फिर एकत्र लेने के तुरंत बाद बाजार ले जाते हैं। ग्रामीणों ने अपनी बस्तियों में लगे कटहल के पेड़ भी काट डाले हैं क्योंकि हाथी इन्हें खाने के लिये भी पहुंचते रहते हैं। फसल की रखवाली के लिए खेतों के पास तेज बल्ब जलाये जाते हैं। रोशनी के चलते हाथी पास नहीं फटकते। कई गांवों में मचान बना लिये गये हैं, जहां से हाथियों के मूवमेंट का पता चल जाता है। यह वही इलाका है जहां लेमरू एलीफेंट रिजर्व बनाये जाने की बात कही जा रही है पर सरकारी योजना जमीन पर अभी उतरी नहीं है। जीने के तरीके में बदलाव लाने के बाद ग्रामीण अपने घरों और फसलों को बचाने में काफी हद तक सफल हो रहे हैं।
रेलवे किराया और सांसदों की खामोशी
कोरोना की दूसरी लहर के बाद अब प्राय: हालात सामान्य हो चुके हैं और सभी व्यावसायिक गतिविधियां रफ्तार पकड़ रही है। पर रेलवे के लिये ऐसा नहीं है। अब भी जिन बंद की गई ट्रेनों को दोबारा चलाने का निर्णय लिया जा रहा है उनको स्पेशल का नाम दिया जा रहा है। स्पेशल होने के कारण इनमें बढ़ा हुआ किराया वसूल किया जा रहा है। नौकरी और रोजगार के लिये रोजाना हजारों यात्री रायपुर, दुर्ग, कोरबा, रायगढ़ आदि से सफर करते हैं पर इन्हें किराये में बड़ी रकम खर्च करनी पड़ रही है क्योंकि एमएसटी शुरू नहीं की गई है। जबकि महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में लोकल ट्रेन शुरू हो चुकी है और मासिक सीजन टिकट भी जारी किया जा रहे हैं। केन्द्र में छत्तीसगढ़ से 9 लोकसभा सदस्य भाजपा से हैं पर यहां हो रहे भेदभाव की ओर उनका ध्यान नहीं जा रहा है।
खेल मैदान बदनामी के स्मारक न बन जाएं ?
छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल सरकार के बारे में कहा जाता है कि सरकार विलासितापूर्ण और चकाचौंध भरी गैरजरूरी निर्माण के पक्ष में नहीं है, बल्कि सरकार परंपराओं और संस्कृति के सम्मान वाले विकास को प्राथमिकता देती है। ऐसे में जब राजधानी के खेल मैदानों के ओर देखते हैं, तो ये बातें धरातल में दिखाई नहीं देती। शहर के सबसे पुराने और ऐतिहासिक सप्रे शाला मैदान का उदाहरण हमारे सामने है। यह मैदान केवल खेल गतिविधियों के कारण नहीं, बल्कि आजादी की लड़ाई से लेकर परंपराओं-सांस्कृतिक और एतिहासिक गतिविधियों का साक्षी है। लेकिन जिस तरह से खेल मैदानों की बरबादी और व्यावसायिक उपयोग की खुली छूट दी जा रही है, उसके बाद ऐसा नहीं लगता कि सरकार में बैठे लोगों को संस्कृति और परंपराओं के मान-सम्मान की फिक्र है। वाकई ऐसा होता तो मैदान धीरे-धीरे सिकुडक़र खत्म होने की कगार पर नहीं होते। सप्रे और दानी स्कूल के मैदान की जमीन पर पिकनिक स्पॉट और अप्पू घर जैसा हो गया है। मैदान के चारों ओर ठेले-गुमटियों की भीड़ हो गई है। सकरी सडक़ को शायद बड़ी-बड़ी गाडिय़ों की पार्किंग के लिए चौड़ा किय़ा गया हो, ऐसा लगता है। थोड़ी बहुत जगह जो बची है, उस पर कब भी कांक्रीट का जाल खड़ा हो सकता है, क्योंकि यहां शॉपिंग मॉल बनाने की प्लानिंग की चर्चा सुनाई देती रहती है। इसी तरह गॉस मेमोरियल और बीटीआई मैदान साल भर मेले-ठेले और सार्वजनिक आयोजन के उपयोग भर के लायक रहे गए हैं। राजधानी का हिंद स्पोर्टिंग मैदान जहां राष्ट्रीय स्तर की फुटबॉल प्रतियोगिताएं होती थी, वहां अब गंदगी के साथ रेती-गिट्टी का ढेर दिखाई पड़ता है। साइंस कॉलेज का मैदान भी अब खेलने के लायक नहीं बचा है। यहां भी ऑडिटोरियम तन गया और बाकी स्थान दूसरे आयोजन के उपयोग में आता है। कुल मिलाकर परंपराओं और संस्कृति के सम्मान की बात करने वालों को इस बारे में सोचना होगा, वरना ये भी सरकारों की बदनामी के स्मारक के रूप में जाने जाएंगे।
तंबू से कोठियों तक पहुंचा अवैध कारोबार
गांजा, सट्टा के अवैध धंधे पर रोक लगाने की अक्सर बात होती है, लेकिन यह चर्चाओं से आगे नहीं बढ़ पाता। खानापूर्ति के लिए कभी-कभार कार्रवाई हो जाती है। छत्तीसगढ़ में कुछ दिनों पहले तो सूबे के पुलिस मुखिया ने सभी पुलिस अधीक्षकों को गांजा-सट्टा पर कार्रवाई करने के कड़े निर्देश दिए थे। उन्होंने पुलिस अफसरों को यहां तक कह दिया था कि तंबू लगाकर अवैध कारोबार चलता रहेगा और ऐसा हो नहीं सकता कि डीजीपी को इसके बारे में पता नहीं चलेगा। उन्होंने कुछ पुलिस अधीक्षकों के बकायदा नाम लेकर कहा था कि अगर आप लोग ऐसा सोचते हैं, तो बच्चे हैं, क्योंकि उन्हे यानी डीजीपी को सब पता है। इसके बाद भी किसी जिले से सट्टा और गांजा का अवैध कारोबार करने वालों पर कोई बड़ी कार्रवाई की गई होगी, ऐसा सुनाई में तो नहीं आया, उलटे लगता है कि अवैध काम ने और जोर पकड़ लिय़ा है। अब एक जिले में गांजा तस्करों को पैसा लेकर छोड़ दिया गया। इसमें पुलिस के अधिकारियों के साथ कई और लोगों के नाम सामने आए हैं। इस मामले में एक मीडिय़ाकर्मी का नाम भी लिया जा रहा है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अवैध धंधा बकायदा रैकेट बनाकर किया जा रहा है। अब डीजीपी साहब को कौन बताए कि तंबू वाले आलीशान कोठियों में पहुंच गए हैं।
गणेश शंकर के आने से बीजेपी पर डबल फॉलोऑन !
छत्तीसगढ़ कैडर के एक और रिटायर्ड आईएएस गणेश शंकर मिश्रा ने बीजेपी में शामिल होकर सियासी पारी की शुरूआत की है। गणेश शंकर मिश्रा वही अफसर हैं, जो विधानसभा परिसर में तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल से भिड़ गए थे। मिश्रा उस समय जलसंसाधन विभाग के सचिव थे और उन्होंने भूपेश बघेल पर गलत बयानी का आरोप लगाया था, जिसके बाद मीडिया के सामने दोनों के बीच जमकर बहस हुई थी। कांग्रेस अध्यक्ष ने मिश्रा को कटघरे में खड़ा करते हुए कहा था कि वे कागज दिखा दें, तो वे माफी भी मांग लेंगे। बीजेपी के शासनकाल में मिश्रा को रिटायरमेंट के बाद सहकारिता आयोग का अध्यक्ष बनाया गया था, लेकिन सत्ता परिवर्तन के बाद उन्हें हटा दिया गया। मिश्रा पर रेडियस वॉटर मामले में गड़बड़ी के आरोप लगे थे। विधानसभा की लोकलेखा कमेटी में गणेश शंकर मिश्रा के ससुराल पक्ष के रिश्तेदार रविंद्र चौबे ने ही उन पर सबसे अधिक चढ़ाई की थी।
तमाम मामलों पर वे कांग्रेस के निशाने पर रहे हैं। अब वे विपक्षी दल में शामिल हो गए हैं। ऐसे में कांग्रेस को उनके खिलाफ मुखर होने का मौका मिल गया है। देखना यह है कि मिश्रा सियासी पारी में कांग्रेस के लगाए गए आरोपों से किस तरह से बचते हैं, लेकिन लोग क्रिकेट की भाषा में चुटकी ले रहे हैं कि छत्तीसगढ़ में बीजेपी पहले से ही फॉलोऑन बचाने के लिए संघर्ष कर रही है। ऐसे में कोई ऐसा खिलाड़ी आ जाए जिस पर पहले से फॉलोऑन चढ़ा हुआ है, तो टीम का संघर्ष और बढऩा स्वाभाविक है।
मंडल के बजाए कमंडल का खतरा
छत्तीसगढ़ सरकार ने समाज के पिछड़े वर्ग के लोगों की तरक्की के लिए चर्मकार, रजककार, लौहशिल्प, तेलघानी जैसे बोर्ड और मंडल का गठन किया है। इससे समाज के लोगों को प्रतिनिधित्व भी मिलेगा और उनके लिए योजनाएं भी शुरू की जा सकेगी। इस तरह लगभग हर समाज के लिए बोर्ड और मंडल का गठन किया जा चुका है। ऐसे में ब्राम्हण समाज के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों की तरक्की के लिए मंडल के गठन का सुझाव आया, ताकि पूजा-पाठ या धार्मिक अनुष्ठान का कार्य करने वाले इस वर्ग के पंडित-पुरोहितों का भला हो सके। समाज के कई लोगों को सुझाव पसंद भी आया, लेकिन पदाधिकारी ने आशंका जाहिर की कि मंडल की जगह अगर कमंडल पकड़ा दिया गया, तो बड़ी दिक्कत हो जाएगी। इसके बाद समाज के लोगों ने मंडल के लिए दबाव बनाने के विचार को त्याग दिया।
गणेश शंकर मिश्रा की अगली मुहिम
केन्द्रीय भाजपा दफ्तर में छत्तीसगढ़ प्रभारी डी पुरंदेश्वरी से मिलने पहुंचे पार्टी नेता उस वक्त चकित रह गए, जब वेटिंग रूम में रिटायर्ड आईएएस गणेश शंकर मिश्रा प्रभारी से मिलने अपनी बारी का इंतजार करते दिखे। बताते हैं कि मिश्रा, पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं से मेल मुलाकात के लिए दिल्ली में डटे हैं। उनकी कई और अन्य नेताओं से मुलाकात भी हुई है।
चर्चा है कि मिश्राजी, तामझाम के साथ भाजपा जाइन करना चाहते हैं। वैसे तो कुछ माह पहले ही पार्टी ने उन्हें प्रदेश की पर्यावरण समिति के संयोजक की जिम्मेदारी सौंप दी थी। मगर हमेशा सुर्खियों में रहने वाले गणेश शंकर मिश्रा की सक्रिय राजनीति में प्रवेश की चर्चा मीडिया में नहीं हो पाई। राजनीति में सफल होने के लिए सुर्खियों में रहना जरूरी है। और मिश्राजी इसी कोशिश में लगे हैं।
बदले-बदले से नजर आते हैं सरकार
एनडीए-टू में भाजपा सांसदों का हाल काफी बुरा है। हाईकमान ने सांसदों को पद के लिए लिखित में अनुशंसा करने तक से रोक रखा है। दो साल की सांसद निधि तो कोरोना के चक्कर में नहीं मिल पाई। प्रदेश के भाजपा सांसदों का हाल इससे अलग नहीं है। गुहा राम अजगल्ले को छोडक़र बाकी सभी नए हैं।
प्रदेश के सांसदों के लिए सुविधाजनक बात यह है कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा व्यक्तिगत रूप से सभी को जानते हैं। नड्डा छत्तीसगढ़ भाजपा के प्रभारी रहे हैं। मगर उनसे भी मुलाकात हो पाना आसान नहीं है। एक सांसद कुछ महीना पहले उनसे मिलने के लिए घर चले गए थे। नड्डाजी फुर्सत में भी थे, लेकिन उन्होंने पीए के जरिए कहलवा भेजा कि अभी मुलाकात नहीं हो पाएगी। जब कभी मिलना हो, तो पहले समय लेकर आएं।
नए नवेले मंत्री अश्विनी वैष्णव तो घर में किसी से मुलाकात ही नहीं करते हैं। प्रदेश के सांसदों ने उनसे मिलने की कोशिश की, तो कहलवा भेजा कि ऑफिस में ही मिल सकेंगे। इसके लिए पहले से ही समय लेना होगा। पहली बार के मंत्री के तेवर देखकर सांसद भी चकित हैं।
हिन्दू-मुस्लिम मुद्दे पर कांग्रेसियों की चिंता
आजकल चुनावों में हिन्दू-मुस्लिम का मुद्दा खूब उछलता है। माना जाता है कि बीजेपी के लिए यह ऑल टाइम फेवरेट और हॉट इश्यू रहता है। इस मुद्दे से बीजेपी को चुनावों में सफलता भी मिलती है। बीजेपी बड़ी आसानी से कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाकर हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण अपने पक्ष में करने में सफल हो जाती है। छत्तीसगढ़ की सियासत में भी अब हिन्दू-मुस्लिम का एंगल दिखाई देने लगा है और कांग्रेस के विधायक इस मुद्दे को लेकर अभी से चिंतित नजर आ रहे हैं। दरअसल, कांग्रेस के नेताजी निकाय में बड़े पदाधिकारी हैं और उनकी नजर रायपुर की विधानसभा सीट पर भी है। ऐसे में वे अपने लिए माहौल बना रहे हैं, साथ ही अपने समाज के लोगों को रायपुर की चारों सीटों के अलग-अलग इलाकों में स्थापित कर रहे हैं, ताकि उनकी दावेदारी मजबूत हो सके और चुनावी लाभ मिल सके। उनके इस सियासी जोड़-तोड़ से मौजूदा विधायकों पर टिकट कटने और वोटों का समीकरण गड़बड़ाने का खतरा मंडरा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस बीजेपी के इस मुद्दे पर अपने ही लोगों के कारण घिरती नजर आ रही है।
कलेक्टर साहब की बैलेसिंग इमेज
छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल के सीएम बनने के बाद छत्तीसगढिय़ा वाद की खूब हवा चली है। स्थानीय तीज-त्यौहार धूमधाम से मनाए जाने के सरकारी निर्देश हैं। हरेली, तीजा-पोला जैसे त्यौहार और गेड़ी-भौंरा जैसे खेल पापुलर हो रहे हैं। पिछले दिनों सरकारी निर्देशानुसार राजधानी सहित जिलों में हरेली की धूम देखने को मिली। हरेली के दिन खेती-किसानी के औजारों की पूजा के साथ गेड़ी चढऩे का चलन हैं। भूपेश बघेल गेड़ी चढऩे और पारंपरिक खेलों में काफी सहज है और वे गेड़ी का खूब आनंद लेते हैं, लेकिन नए और शहरी वातावरण में पले-बढ़े लोगों के लिए गेड़ी चढऩा किसी करतब से कम नहीं है। बिना प्रैक्टिस के गेड़ी पर बैलेंस बनाना मुश्किल के साथ रिस्की भी है। पिछले दो-ढाई बरस से इन पारंपरिक खेलों को देख रहे अफसर और जनप्रतिनिधि थोड़े तो फ्रेंडली हुए हैं और वे गेड़ी चढऩे की कोशिश करते हैं। रायपुर के कलेक्टर सौरभ कुमार की भी गेड़ी चढऩे की तस्वीर सामने आई। हालांकि वे अभी पूरी तरह से पारंगत नहीं हुए हैं, लेकिन लोगों को भरोसा है कि जिस तरह वे रायपुर नगर निगम के कमिश्नर के रुप में बैलेंस बनाकर राजधानी रायपुर की कलेक्टरी तक पहुंचे हैं, उसी तरह वे गेड़ी में भी बैलेंस बनाकर चलने में पारंगत हो जाएंगे।
ऊपरवाले का सैटेलाईट
किसी शहर की असली संस्कृति देखनी हो तो वह वहां के संग्रहालय में, किसी कला दीर्घा में, या किसी मॉल में देखने नहीं मिल सकती। असली संस्कृति शहर के आम फुटपाथों पर, बाजारों में देखने मिलती है, जहां यह समझ पड़ता है कि लोग कितने साफ-सुथरे हैं, कितने सलीकेदार हैं। सरकारी खर्च से कंक्रीट की सडक़ें तो बन जाती हैं, लेकिन उन सडक़ों के किनारे कचरा डालने की जगह रहने पर भी खाए हुए केले के छिलके जिस तरह सडक़ के बीच उछाले जाते हैं, उससे शहर की संस्कृति दिखती है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में हर रोज दर्जनों लोगों के हाथ-पांव टूटते हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे रहते हैं जो इस तरह फेंके गए केले के छिलकों पर पिछड़ फिसल कर अपनी हड्डियां तुड़वा बैठते हैं, लेकिन बहुत से ऐसे रहते हैं जिन्होंने पिछले कुछ दिनों में ही इसी तरह कहीं केले का छिलका फेंका था, और उसके एवज में कुदरत ने उन्हें कहीं दूसरी जगह पटक मारा। सब कुछ हिसाब इसी धरती पर चुकता करना रहता है, केले का छिलका लापरवाही से सडक़ के बीच फेंक कर दूसरों को खतरे में डालने वाले लोग जरूरी नहीं है कि खुद केले के छिलके से ही अपनी हड्डियां तुड़वाएं, किसी और तरह के हादसे में किसी और तरह से फिसलकर भी उनकी कमर टूटती है, लेकिन यह मान कर चलिए कि जैसे कर्म किए जाते हैं वैसे फल इसी धरती पर इसी जीवन में और कुछ हफ्तों के भीतर ही नसीब हो जाते हैं. ऊपर वाले का सेटेलाइट सडक़ के बीच में फेंके गए ऐसे केले के छिलके तुरंत पकड़ लेता है और फेंकने वाले लोगों को तुरंत निशाने पर रख लेता है बस इसके बाद पहला मौका मिलते ही...
अनुसूइया उइके उम्मीदवार ?
छत्तीसगढ़ की राज्यपाल सुश्री अनुसूइया उइके ने अपने दिल्ली प्रवास के दौरान उपराष्ट्रपति वैकेंया नायडू से मुलाकात की। इसके कुछ दिनों पहले उनकी प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से भी मुलाकात हुई थी। स्वाभाविक है कि देश के प्रमुख लोगों से राज्यपाल की मेल-मुलाकात की तस्वीरें मीडिया के लिए जारी की गई। सौजन्य मुलाकात की ऐसे तस्वीरें आती रहती है, लेकिन छत्तीसगढ़ की राज्यपाल सुश्री उइके की इन मेल-मुलाकातों को दूसरे नजरिए से भी देखा जा रहा है। कहा जा रहा है कि छत्तीसगढ़ की राज्यपाल अगले साल होने वाले राष्ट्रपति चुनाव की उम्मीदवार हो सकती हैं। अगर ऐसा हुआ तो वे संभवत: देश की पहली महिला आदिवासी राष्ट्रपति होंगीं।
चर्चा में कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री, गृहमंत्री सहित तमाम बड़े लोगों के साथ जिस निरंतरता के साथ उनकी मुलाकात हो रही है, उससे उनकी उम्मीदवारी को बल मिल रहा है। मौजूदा राष्ट्रपति का कार्यकाल जुलाई 2022 में खत्म हो रहा है। उसके पहले मार्च-अप्रैल में राष्ट्रपति उम्मीदवार का नाम तय होने की संभावना है। हालांकि इसके पहले उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्य में विधानसभा के चुनाव हैं। उसके बाद ही राष्ट्रपति के चुनाव पर चर्चा शुरू होगी। हालांकि चर्चाओं में उपराष्ट्रपति वैकेंया नायडू का नाम भी राष्टपति पद के लिए लिया जा रहा है, लेकिन लोगों की दलील है कि नायडू अगले साल जुलाई तक 74 साल के हो जाएंगे। बीजेपी में 75 साल या उसके आसपास की उम्र के नेताओं को पद देने का चलन नहीं है। 74-75 साल की उम्र में पांच साल के लिए नियुक्ति होने से रिटायरमेंट आते तक आयु 80 तक पहुंच जाती है। इसलिए नायडू के नाम पर आम राय़ की संभावना कम दिखाई दे रही है। लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसे कई नेताओं के उदाहरण हमारे सामने हैं।
ऐसे में अनुसूइया उइके के नाम को लेकर चर्चाओं में गंभीरता की संभावना जताई जा रही है। उम्र, अनुभव और सामाजिक संतुलन की दृष्टि से भी उनकी उम्मीदवारी की संभावना प्रबल दिखाई दे रही हैं। वे 63-64 साल की हैं और पांच साल यानी रिटायरमेंट के समय तक भी वे 70 के अंदर ही रहेंगी। देश में अभी तक किसी आदिवासी महिला को राष्ट्रपति नहीं बनाया गया है। पिछली बार द्रौपदी मुर्मू का नाम जरूर चर्चा में आया था, लेकिन ऐनवक्त पर रामनाथ कोविंद के नाम ने सभी को चौंका दिया था। राजनीतिक समीकरण में जाति का काफी महत्व दिया जाता है। यही वजह है कि अनुसूइया उइके का नाम चर्चा में है, मध्यप्रदेश की रहने वाली हैं और छत्तीसगढ़ में राज्यपाल के रूप उनका कार्यकाल विवादों से दूर रहा है। मध्यप्रदेश सरकार में काम करने का अनुभव है। छत्तीसगढ़ के सियासी समीकरण में आदिवासियों की भूमिका के कारण भी यहां उनकी उम्मीदवारी को लेकर चर्चा ज्यादा हो रही है। छत्तीसगढ़ आदिवासी बाहुल राज्य माना जाता है और अगर वे राष्ट्रपति भवन तक पहुंचती हैं, तो छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश सहित दूसरे राज्यों में भी इसका सियासी संदेश जाएगा।
छत्तीसगढ़ में सत्ताधारी दल कांग्रेस स्वयं साल 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए आदिवासी कार्ड खेलने की तैयारी में है। राज्य सरकार द्वारा आदिवासियों के लिए जो फैसले लिए हैं, उनको प्रदेश और बाहर भी खूब प्रचारित किया जा रहा है। छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के लिए आरक्षित 29 सीटें हैं और फिलहाल सभी सीटों पर कांग्रेस का कब्जा है। कांग्रेस की कोशिश है कि उसका यह कब्जा बरकरार रहे। वहीं बीजेपी इन 29 आदिवासी सीटों पर सेंधमारी की कोशिश में है। इसकी तैयारी भी शुरू कर दी गई है। आदिवासियों को रिझाने और सत्ता में वापसी के लिए बीजेपी चिंतन शिविर का आयोजन बस्तर में करने जा रही है। ऐसे में राष्ट्रपति पद पर आदिवासी की नियुक्ति के पीछे सियासी गुणा-भाग भी खूब हो रहे हैं।
सियासत के केन्द्र में आदिवासी
कहा जाता रहा है कि छत्तीसगढ़ में सत्ता की चाबी बस्तर से निकलती है, लेकिन साल 2013 के चुनाव में यह मिथक टूट गया था। साल 2013 के चुनाव में कांग्रेस को यहां की 12 में से 8 सीटों पर जीत मिली थी, फिर भी सत्ता बीजेपी को मिली। साल 2018 के चुनाव में तो कांग्रेस को बस्तर सहित पूरे प्रदेश में एकतरफा जीत मिली। ऐसे में केवल बस्तर से जीतकर सरकार बनाने को प्रमाणिक नहीं माना जा सकता। साल 2013 से पहले के दोनों चुनाव में जरूर यह बात सच साबित हुई थी, क्योंकि बीजेपी साल 2003 और साल 2008 में बस्तर के भरोसे ही सत्ता में आ पाई थी। इस मिथक के टूटने के बाद भी सियासतदार बस्तर को ही सत्ता की कुंजी मानकर चल रहे हैं। वजह जो भी हो, लेकिन साल 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए अभी से बस्तर को केन्द्र में रखा जा रहा है। बात चाहे सत्ताधारी दल कांग्रेस की हो या फिर बीजेपी की। दोनों आदिवासियों को रिझाने में लग गए हैं। सरकार बस्तर में विकास और शांति के भरोसे माओवाद से निपटने की कोशिश कर रही है। जबकि बीजेपी का आरोप है कि राज्य में नक्सलवाद पैर पसार रहा है और राज्य के मैदानी इलाकों में प्रवेश कर चुका है। ऐसे में सत्ता की चाबी के लिए आदिवासी एक बार फिर सियासत के केन्द्र में रहने वाला है।
चिटफंड कंपनियों ने सरकारी मुहर लगवाई
पिछली सरकार के कार्यकाल में लाखों रुपए लुटा चुके चिटफंड कंपनियों एजेंट और इनमें निवेश करने वालों को कब राहत मिलेगी इसका ठिकाना नहीं है। हालांकि बताया गया है कि पीडि़तों को राशि वापस करनी है, इसीलिये आवेदन ले रहे हैं। पर जो बात सुनाई दे रही है वह यह भी है कि हाईकोर्ट में सरकार को अपना पक्ष मजबूती से रखना है इसके लिये सारी कसरत हो रही है।
एक जानकारी और निकल कर आई है कि प्रदेश के फर्जी चिटफंड कंपनियों ने एजेंटों की भर्ती के लिए सरकारी रोजगार दफ्तरों का भी इस्तेमाल किया । निजी कंपनियों से संपर्क कर रोजगार कार्यालय के अधिकारी भर्ती मेला आयोजित करते रहे हैं। पिछले 2 सालों से ये शिविर कोरोनावायरस के चलते नहीं लग रहे हैं लेकिन इसके पहले प्रदेशभर के रोजगार कार्यालय में यह मेले लगे। इन मेलों में कंपनियों के प्रतिनिधि आकर युवाओं का चयन करते थे और शिविर की सफलता पर रोजगार कार्यालय के अधिकारी अपनी पीठ थपथपाते थे। भर्ती के बाद इन्हें एजेंट बनाया गया और करीबियों तथा रिश्तेदारों से राशि वसूल करने या निवेश करने के लिए बाध्य किया गया था। निवेशकों की ओर से हाईकोर्ट में दायर की गई याचिका में यह बात कही भी गई है। यानि चिटफंड कम्पनियों ने सरकारी दफ्तर का इस्तेमाल अपनी फर्जी कम्पनियों को विश्वसनीय बताने के लिये किया। अब जब फिर से प्रदेश में रोजगार मेलों का सिलसिला शुरू किया गया है कम से कम उनके बारे में अधिकारियों को ठोक बजाकर तसल्ली कर लेनी चाहिये कि कहीं युवाओं के साथ धोखाधड़ी का कोई गिरोह तो इसमें नहीं घुस आया है।
सहदेव का एल्बम रिलीज हुआ...
बस्तर, छत्तीसगढ़ के नन्हें गायक सहदेव दीरदो का पॉप सिंगर बादशाह के साथ म्यूजिक एल्बम आज रिलीज हो रहा है। इसका ट्रेलर तीन दिन पहले ही बादशाह ने अपने इंस्टाग्राम पेज पर अपलोड कर दिया था। इसके बाद से यूट्यूब, ट्विटर और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर लाखों लोग इसे देख चुके हैं।
कुछ लोगों को यह देखकर अफसोस हो सकता है कि सहदेव की सिर्फ वही दो लाइनें रखी गई हैं, जो पहले से वायरल उसके स्कूल के मूल वीडियो में थी। इतने कम समय में शायद उससे कुछ नया अभ्यास कराया जाना भी संभव नहीं था। शायद, एल्बम रिलीज करने में देर होती तो लोगों में सहदेव का जुनून कमजोर पड़ जाता। पर, अभी सहदेव सिर्फ दस साल का है। उसके सामने खुला आसमान है। यकीन करना चाहिए कि भविष्य में सहदेव एक तराशे गए गायक के रूप में अपनी एक बड़ी जगह बना लेंगे।
धर्मान्तरण के आंकड़े अब मिलेंगे?
सन् 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जिन मुद्दों पर कठघरे में खड़ा किया जा सकता है, भाजपा को लगता है कि धर्मान्तरण भी उनमें से एक है। खासकर, जब मौजूदा विधानसभा में उनके पास कुल दो ही आदिवासी वर्ग के विधायक हों। दबाव, प्रलोभन व स्वास्थ्य सेवा के माध्यम से धर्म परिवर्तन कराने की बात बस्तर और सरगुजा जैसे आदिवासी बाहुल्य इलाकों से ही ज्यादा आ रही है, जहां से भाजपा को पिछले विधानसभा चुनाव में बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। सुकमा एसपी ने अपने मातहतों को इस बारे में पत्र लिखा जिससे भाजपा को बल मिला, फिर केन्द्रीय मंत्री अमित शाह को राज्यसभा सदस्य रामविचार नेताम ने पत्र लिखकर हस्तक्षेप की मांग भी कर दी। रैलियां निकाली गई, तमाम नेताओं के बयान आ रहे हैं। पर, अब यह मामला एक दिलचस्प मोड़ पर है। कांग्रेस की ओर से संसदीय कार्य मंत्री रविन्द्र चौबे ने कहा कि हम आंकड़े जारी करने जा रहे हैं कि भाजपा जब शासन में थी तब धर्म परिवर्तन के कितने मामले आये थे और अब कितने हैं। भाजपा की ओर से एक टीवी चैनल में विधायक डॉ. कृष्णमूर्ति बांधी ने मान लिया कि पार्टी के पास धर्मान्तरित लोगों की संख्या नहीं हैं। साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ दिया कि लोग प्रलोभन में धर्म परिवर्तन करते हैं जिसे वे स्वेच्छा से किया हुआ कहते हैं, शिकायत करते नहीं।
निष्कर्ष यही है कि धर्मान्तरण से कोई भी दल इंकार नहीं कर रहा है। कम हो या ज्यादा, हो तो रहा है। दबाव या प्रलोभन से हो रहा है, स्वेच्छा से- सवाल यहां पर टिका है। सरकार की ओर से आई आंकड़ा जारी करने की बात ने भाजपा को भी चुनौती दे दी है कि वे भी कोई संख्या लेकर सामने आने की तैयारी करे। तब यह मुद्दा दो साल जिंदा रह सकेगा।
नाम में क्या रखा है? बहुत कुछ
शेक्सपियर की प्रसिद्ध उक्ति है-नाम में क्या रखा है, गर...।
मगर सच कहें, तो नाम में बहुत कुछ रखा है। एक ही नाम की वजह से कई बार गलतफहमी हो जाती है। और जिन्हें पद मिलना चाहिए, वह दूसरे को मिल गया। बात कांग्रेस की हो रही है। कुछ अरसा पहले प्रदेश कांग्रेस के पदाधिकारियों की सूची जारी हुई, जिसमें कन्हैया अग्रवाल को महामंत्री बनाया गया। सूची जारी होने के बाद इस नाम को लेकर झंझट चलता रहा। कन्हैया अग्रवाल नाम के दो नेता हैं, और दोनों ही इस पद के दावेदार थे।
एक कन्हैया अग्रवाल रायपुर के हैं, जो कि रायपुर दक्षिण से पार्टी प्रत्याशी थे। दूसरे कन्हैया अग्रवाल कवर्धा के हैं, जो कि पार्टी के जिलाध्यक्ष रह चुके हैं। सरकार के मंत्री मोहम्मद अकबर, और अन्य प्रमुख नेताओं ने कवर्धा के कन्हैया अग्रवाल को महामंत्री बनाने की अनुशंसा की थी। उनका नाम फाइनल हो गया। सूची जारी हुई, तो एड्रेस नहीं था। इसके बाद पूर्व प्रत्याशी सक्रिय हो गए, और उन्होंने नाम के बाद रायपुर जुड़वा दिया। ऐसा कर वो महामंत्री के पद पर काबिज होने में सफल रहे।
कुछ इसी तरह की गलती निगम-मंडल की सूची जारी करते समय हो रही थी। कन्हैया अग्रवाल को क्रेडा का सदस्य नियुक्त करने का आदेश जारी होना था। इस बार पहले जैसी गलती न हो जाए, इसके लिए अकबर को कोशिश करनी पड़ी, और उन्होंने नाम के बाद जिला कवर्धा, और पूर्व जिलाध्यक्ष जुड़वाया।
कुछ इसी तरह दीपक दुबे के नाम को लेकर कांग्रेस में गलतफहमी होती रही है। दुर्ग वाले दीपक दुबे दिवंगत पूर्व केन्द्रीय मंत्री माधवराव सिंधिया के समर्थक माने जाते हैं, तो रायपुर वाले दिवंगत श्यामाचरण शुक्ल से जुड़े रहे हैं। एक बार सिंधिया खेमे ने दुर्ग के दीपक दुबे को प्रदेश पदाधिकारी बनाने की अनुशंसा की थी। उनका नाम जुड़ गया था। फिर वैसी ही गलतफहमी पैदा हो गई। कुछ दिन तक यह साफ नहीं हो पाया कि रायपुर वाले को पदाधिकारी बनाया गया है, या फिर दुर्ग के दीपक दुबे को। आखिरकार दुर्ग वाले के विरोधी सक्रिय हो गए, और नाम के बाद रायपुर जुड़ गया। वैसे रायपुर वाले भी अनुभवी, और सीनियर रहे हैं इसलिए ज्यादा कुछ हल्ला नहीं मचा। मगर दुर्ग वाले पद पाते रह गए।
'छत्तीसगढ़ ' के नाम पर.. '
मिलते-जुलते नामों और नामों में जोड़-तोड़ का शिकार यह अखबार 'छत्तीसगढ़ ' भी रहा है। इस अखबार ने बड़ी मेहनत करके केंद्र सरकार के एक सार्वजनिक उपक्रम से अपने लिए कुछ विज्ञापन मंजूर करवाए। विज्ञापन मंजूर हो गए और नीचे जिस टेबल से विज्ञापन जारी होने थे, वहां तक फाइल पहुंच गई। कुछ दिन इंतजार के बाद संपर्क करने पर पता लगा कि विज्ञापन तो जारी हो चुके हैं। जब फाइलों को देखा गया तो पता लगा कि इस अखबार के नाम छत्तीसगढ़ के साथ कोई और शब्द आगे-पीछे जोड़कर जो दूसरे बहुत से अखबारों के नाम बनते हैं, उनमें से कुछ अखबारों ने 'छत्तीसगढ़ ' के लिए मंजूर विज्ञापन अपने नाम पर जारी करवा लिए हैं। अब जब अखबारों के साथ ऐसा हो सकता तो राजनीति में तो ऐसा हो ही सकता है। इसी के लिए कहा जाता है कि नकली नोट बाजार से असली नोटों को बाहर कर देते हैं।
जैक्स राव खबरों के बाहर नहीं
पूर्व हेड ऑफ फॉरेस्ट फोर्स मुदित कुमार सिंह, और पीसीसीएफ के पद से रिटायर होने वाले जेएसीएस राव ने संविदा पर पोस्टिंग के लिए जोर लगाया है। चर्चा हैं कि मुदित सिंह के लिए उच्च शिक्षा मंत्री उमेश पटेल ने अनुशंसा भी की है, लेकिन अब खबर छनकर आ रही है उसके मुताबिक मुदित सिंह को संविदा नियुक्ति देने की फाइल नस्तीबद्ध हो चुकी है।
जेएसीएस राव की बात करे, तो वन मंत्री मोहम्मद अकबर ने उन्हें संविदा पर नियुक्त करने की अनुशंसा की थी। पहले नियम-कायदे को नजर अंदाज कर उन्हें बोर्ड में सलाहकार नियुक्त कर दिया गया था, लेकिन बाद में मंत्री की नाराजगी के बाद उनकी सलाहकार पद पर नियुक्ति का प्रस्ताव निरस्त कर दिया गया, मगर संविदा नियुक्ति की फाइल चल रही है।
चर्चा है कि जेएसीएस राव ने बोर्ड के चेयरमैन बालकृष्ण पाठक के जरिए दबाव भी बनाया है। पाठक इस सिलसिले में सीएम से मिल आए हैं। बावजूद इसके उन्हें नियुक्ति मिल पाएगी, इसकी संभावना कम ही दिख रही है। समय-समय पर उनकी कार्यशैली को लेकर शिकायत होते रही है। यही वजह है कि उनकी संविदा नियुक्ति की फाइल नहीं बढ़ पा रही है।
मूक प्राणियों के बीच प्रेम की अभिव्यक्ति
जो जीव बोल नहीं सकते और तुच्छ समझे जाते हैं उनमें भी अपनत्व और प्रेम की अनुभूति छलक जाती है।
शवभक्षी सफेद गिद्ध अब लुफ्त होने की कगार पर हैं, लेकिन वन्यजीवों से लगाव रखने वाले लोग इनको खोज लेते हैं। शनिवार को मोहनभाटा में भैंस का शव एक किनारे दिखा। यह तय था कि कुत्ते और चील के बाद सफेद गिद्ध यहां पहुंचे।
वहां एक नहीं अलबत्ता चार सफेद गिद्धों का परिवार दिखा जो पेट भरकर करीब के तालाब में पानी पीने मस्तानी चाल चला जा रहा था। इसमें एक किशोर था, जिसके पंख अभी काले थे, जबकि तीन पूर्ण वयस्क। ये सफेद पीले पंखों से सुसज्जित थे।
पानी पीने के बाद तृप्त भाव लिये बड़े दो सफेद गिद्ध एक दूसरे की करीब गये और चोंच से दूसरे को कुछ लम्हे तक प्यार करते रहे।
इस तस्वीर को कैद करने वाले वाइल्डलाइफ फोटोग्रॉफर और सीनियर जर्नलिस्ट प्राण चड्ढा कहते हैं कि छोटी चिडिय़ा मुनिया, तोते, घुग्घू में ऐसा आम है। पर शवभक्षी सफेद गिद्ध में यह उन्होंने पहली बार देखा। वो गिद्ध जो मृत मवेशी की हड्डी से लगा सड़ा मांस नोच कर पेट भरता है।
इसी मौके पर एक और अनुभव हुआ। भैस के शव के पास आ रहे कुछ कुत्तों पर युवा होता सांड हमला कर रहा था। यह किशोर सांड शायद उस मृत मवेशी के साथ इस मैदान में चरने के लिए आता रहा होगा। मरने के बाद उसके साथी को कुत्ते खा रहे थे, इसलिए वह दु:खी था और कुत्तों को तेजी से दौड़ाकर भगा रहा था। वहां मौजूद लोगों ने सांड की भावना को दिल की गहराई से महसूस किया।
पहले खुद की सजा तय कर लीजिए
कबीरधाम के जिला शिक्षा अधिकारी स्कूलों में पढ़ाई की गुणवत्ता का निरीक्षण करने के लिये इन दिनों दौरा कर रहे हैं। लोहारा विकासखंड के एक स्कूल में चौथी कक्षा की छात्रा से उन्होंने उसकी एक किताब के पाठ एक की पहली लाइन पढऩे के लिये कहा गया, लेकिन वह नहीं पढ़ पाई। उसे पहली कक्षा के हिंदी का पाठ पढऩे कहा गया तो वह भी नहीं हो सका। अब अधिकारी ने शिक्षक से एक शब्द अंत्येष्टि लिखने के लिये कहा। शिक्षक ने गलत लिखा- अंत्येष्ठि। दफ्तर लौटते ही जिला शिक्षा अधिकारी ने शिक्षक पर कार्रवाई कर दी। उनकी एक वेतन वृद्धि रोक दी गई। पर, इस कार्रवाई का पत्र जारी करते समय डीईओ ने खुद गलत हिंदी लिख डाली। असमर्थता शब्द का उन्होंने दो बार प्रयोग किया, पर सही नहीं लिखा। मतलब, जो हाल बच्चों का, वही हाल शिक्षक का, और उन पर कार्रवाई करने वाले अधिकारी का भी। अब जिला शिक्षा अधिकारी के हिंदी ज्ञान पर उनसे ऊपर का कोई अधिकारी नोटिस जारी न कर दें, वरना उनकी भी पोल खुलने का खतरा है।
टापर्स को भी देनी होगी प्रवेश परीक्षा
12वीं बोर्ड परीक्षा में 80-90 प्रतिशत अंक लेकर उत्तीर्ण होने पर भी छात्रों को वह खुशी नहीं हो रही है जो परीक्षा देने के पारम्परिक तरीके के जरिये पास होने पर मिला करती थी। आंतरिक मूल्यांकन का पैमाना किसी छात्र की क्षमता को परखने का एक सर्वाधिक उपयुक्त तरीका माना गया। इससे लगभग सभी अच्छे नंबर हासिल करते हुए पास हुए। इन 80-90 प्रतिशत अंकों का कितना वजन है यह यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में दाखिले के लिये भारी संख्या में आ रहे आवेदनों से पता चलता है। प्रदेश की एकमात्र सेंट्रल यूनिवर्सिटी में तय किया गया है कि 12वीं में मिले प्राप्तांको के आधार पर कोई मेरिट लिस्ट नहीं बनाई जायेगी। अभ्यर्थियों को एक अलग से प्रवेश परीक्षा देनी पड़ेगी। चाहे उसका कितना भी ऊपर नंबर क्यों न हो। जो विद्यार्थी सेंट्रल यूनिवर्सिटी या इसी तरह के अन्य भारी डिमांड वाले कॉलेजों में प्रवेश लेना चाहते हैं उन्हें इस परीक्षा की तैयारी शुरू कर देनी चाहिये। यह जरूर है कि हर बार की तरह ये परीक्षा ऑफलाइन नहीं बल्कि ऑनलाइन ली जायेगी। ऐसे में उन छात्रों के लिये भी उम्मीद है जिन्हें मेरिट लिस्ट के आधार पर किसी कॉलेज में एडमिशन मिलने का मौका नहीं मिलने वाला था।
एयरपोर्ट पर तस्वीर और राजनीति
माना एयरपोर्ट के वीआईपी लाउंज के एक कमरे की मरम्मत, और साज सज्जा के बाद दोबारा खोला गया, तो काफी कुछ बदल गया। हुआ यूं कि दो महीना पहले मध्य प्रदेश के सीएम शिवराज सिंह चौहान यहां आए थे। और वापसी में एयरपोर्ट के इसी कमरे में पार्टी के लोगों के साथ बैठे थे। उनकी नजर दीवार पर लगी तस्वीरों की तरफ गई। एक तरफ राज्यपाल सुश्री अनुसुईया उइके की तस्वीर थी, तो दूसरी तरफ सीएम भूपेश बघेल की तस्वीर लगी थी।
शिवराज सिंह यह कह गए कि वो देश के अन्य एयरपोर्ट में गए हैं, लेकिन वहां राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की तस्वीर जरूर होती है। मगर यहां नहीं लगी है। शिवराज सिंह की बात एयरपोर्ट के अफसरों तक पहुंची। एक-दो दिन बाद मरम्मत, और साज सज्जा के नाम पर कमरे को बंद कर दिया गया। कुछ दिन पहले ही फिर से वीआईपी अतिथियों के बैठने के लिए कमरा खोला गया, तो कुछ बदलाव नजर आया।
कमरे में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की तस्वीर लग गई है। इन दोनों के अलावा सीएम भूपेश बघेल की भी तस्वीर लगी है, लेकिन राज्यपाल की तस्वीर गायब है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि एयरपोर्ट अफसरों और कांग्रेसियों के बीच अंदर प्रवेश को लेकर तनातनी चलती रहती है। ऐसे में एयरपोर्ट अफसर, सीएम के तस्वीर को हटाकर कोई विवाद नहीं खड़ा करना चाहते थे। लिहाजा, सीएम की तस्वीर को यथावत रहने दिया गया।
इस प्रदेश में बस जनता ही बेईमान है
पिछली सरकार ने जिन दो अफसरों एसएसडी बडगैय्या, और राजेश चंदेले को जबरिया रिटायरमेंट देने का फैसला किया था, वे अब प्रमोट होने वाले हैं। हुआ यूं कि केन्द्र सरकार ने दोनों को रिटायरमेंट देने के प्रस्ताव के कुछ बिन्दुओं पर आपत्ति की थी। बाद में जिन प्रकरणों की वजह से दोनों को रिटायरमेंट देने की अनुशंसा की गई थी वो निराकृत हो चुके हैं।
बडगैय्या के खिलाफ चारा घोटाले, और आय से अधिक संपत्ति का प्रकरण था। चारा घोटाले में क्लीन चिट पहले ही मिल चुकी है, और अब आय से अधिक संपत्ति का प्रकरण को ईओडब्ल्यू ने खात्मा के लिए भेज दिया है। दूसरी तरफ, राजेश चंदेले के खिलाफ डीएफओ पद पर रहते सरकारी बंगले में सरकारी खर्च पर स्वीमिंग पूल बनवाने का प्रकरण था।
विभाग की जांच समिति ने यह पाया कि डीएफओ बंगले में स्वीमिंग पूल जरूर बना है, लेकिन इसके लिए विभागीय राशि खर्च नहीं की गई। स्वीमिंग पूल के लिए डीएमएफ से राशि खर्च की गई थी। डीएमएफ की राशि स्वीकृति कलेक्टर देते हैं। इसमें चंदेले के खिलाफ कोई प्रकरण नहीं बनता है। सीएस की कमेटी ने अनुशंसा कर दी है कि जिन प्रकरणों की वजह से दोनों के रिटायरमेंट की अनुशंसा की गई थी वह खत्म हो चुका है। ऐसे में उन्हें पदोन्नति दी जा सकती है। अगले कुछ दिनों में बडगैय्या एपीसीसीएफ, और चंदेले सीसीएफ के पद पर प्रमोट हो सकते हैं।
मीराबाई चानू की संवेदनशीलता...
ओलम्पिक 2021 में भारत के लिये पहला मेडल जीतने वाली असम की मीराबाई चानू अपने गांव जब लौटीं तो सबसे पहले वह ट्रक ड्राइवरों का आभार जताने पहुंची। दरअसल, ये रेत परिवहन करने वाले ट्रक ड्राइवर मीराबाई को लिफ्ट देते थे। उससे कोई किराया नहीं लिया जाता था, ताकि वह 25 किलोमीटर दूर ट्रेनिंग लेने की जगह पर पहुंच सके।
मीराबाई को हजारों लोगों ने सोशल मीडिया पर बधाई दी। ट्रक ड्राइवर्स के योगदान की भी सराहना की। बहुत लोगों की पोस्ट पर मीराबाई ने जवाब भी दिया है। इनमें एक है असम से ही आने वाले आईएएस सोनमणि बोरा। मीराबाई ने जवाब में उन्हें कहा है कि इस मुकाम तक पहुंचने में जिन लोगों ने किसी भी स्तर पर मेरा सहयोग किया है, उन सबको मैं सपोर्ट करती रहूंगी।
लेमरू में देरी के लिये कौन जिम्मेदार
हाल के दिनों में हाथियों ने सरगुजा संभाग में काफी उत्पात मचाया है और यह अब भी जारी है। मैनपाट में दो लोगों को हाथियों के झुंड ने पटककर मार डाला था। बीते पांच महीने के भीतर 9 लोगों की जान हाथियों ने ली है। भाजपा ने सरगुजा के नेताओं की एक टीम बनाकर प्रभावित ग्रामीणों से मिलकर रिपोर्ट तैयार की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भाजपा शासनकाल में लेमरू प्रोजेक्ट का काम गति पकड़ रहा था लेकिन कांग्रेस की सरकार बनने के बाद उसकी गति सियासी दांवपेंच के चलते थम गई है। इसमें लेमरू पोजेक्ट को जल्दी शुरू करने की मांग की गई है। वैसे तथ्य यह भी है कि मैनपाट के इलाके के बादलखोल हाथी रिजर्व का नोटिफिकेशन भी करीब 16 साल पहले हो चुका है। सीआईआई की चि_ी के बाद दूसरे हाथी रिजर्व लेमरू के लिये तो नोटिफिकेशन ही जारी नहीं हुआ। लेमरू के प्रस्तावित इलाके में पहले से ही कई कोयला खदानों को मंजूरी दी जा चुकी है। और खदानों के लिये आवेदन आये हुए हैं। मौजूदा सरकार इन्हें भी मंजूरी दे दी थी लेकिन उनकी पार्टी के विधायकों का ही विरोध सामने आ चुका है। एक दूसरे पर आरोप लगाये जाने से लोग उलझन में पड़ जाते हैं। यह समझना मुश्किल हो रहा है कि आखिर किसकी नीयत साफ है, किसकी नहीं।
आपकी अपेक्षा क्या है?
फर्जी चिटफंड कम्पनियों की धोखाधड़ी में अपना सब-कुछ गंवा चुके लोगों की उम्मीद अभी टूटी नहीं है, बल्कि जो अनुमान लगाया गया था उससे कहीं ज्यादा लोग उम्मीद लगाये हुए हैं। शासन ने आवेदन लेने की तारीख 1 से 6 अगस्त तक ही पहले तय की, लेकिन जब आवेदनों का अम्बार लगा और काउन्टर छोटे पडऩे लगे तो अंतिम तिथि अब 20 अगस्त कर दी गई है। कलेक्ट्रेट में सैकड़ों की भीड़ पर काबू पाना मुश्किल हो गया तो अब तहसील, उप-तहसीलों में आवेदन लेने की व्यवस्था की गई है। लूट भी आखिर बहुत बड़ी है। एक अनुमान के मुताबिक प्रदेशभर में 188 चिटफंड कम्पनियां गांव-गांव में करीब 1.5 लाख एजेंटों के जरिये 60 हजार करोड़ रुपये से अधिक लूट चुकी हैं। पीडि़तों की संख्या 30 लाख से अधिक है। चिटफंड कम्पनियां करीब पांच साल से फरार हैं। अपने चुनावी वादे के मुताबिक कांग्रेस सरकार ने सरकार बनने के बाद एक बार पहले भी आवेदन लिया था। जिन लोगों ने पहले आवेदन दिया उन्हें दुबारा देने की जरूरत नहीं है, यह कहा गया है फिर भी कहीं पुराने आवेदन बाबुओँ से खो न गये हों, इसलिये लोग दुबारा आवेदन देने के लिये कतार में हैं। यहां तक तो ठीक है कि आवेदन के साथ पॉलिसी की फोटो कॉपी, कम्पनी और एजेंट का विवरण और अपनी पूरी जानकारी भरकर देना है पर इस आवेदन पत्र का आखिरी प्रश्न कठिन है, जिसमें पूछा गया है कि आपकी अपेक्षा क्या है? लूट, चोरी, डकैती के शिकार आदमी की अपेक्षा आखिर क्या हो सकती है? निवेश की राशि वापस मिलेगी ऐसा आश्वासन देकर तो आवेदन मांगे ही गये हैं, वही मिल जाये बड़ी बात है। ब्याज न सही मूलधन ही मिले। अब, यदि कोई इस कॉलम में लिखकर देता है कि हमें बर्बाद करने वालों को फांसी दो, चौराहे पर लटकाओ तो इस तरह की अपेक्षा को जानकर सरकार क्या कर लेगी?
क्या आप भी बैंक कर्मचारियों से ऐसे ही त्रस्त नहीं ?
किसी भी बैंक में ग्राहक के साथ बैंक के अधिकारी, कर्मचारियों को उचित व्यवहार करने की हिदायत दी जाती है। इसके लिए सभी बैंकों को स्पष्ट दिशा निर्देश होते हैं। पर जब बैंक कर्मचारी ठीक व्यवहार न करे तो? एक ग्राहक ने अपनी व्यथा इस प्रकार बताई है- वे पत्थलगांव में अम्बिकापुर रोड में बैंक ऑफ बड़ौदा पहुंचे। कर्मचारी समय पर नहीं पहुंचे। ग्राहक ने कहा कि समय पर आकर काम शुरू करें। कर्मचारी ने वजह बताई कि लिंक फेल है। ग्राहक प्रतीक्षा करते रह गये। बाद में कर्मचारी से उन्होंने फिर पूछा, क्या लिंक आ गया? कर्मचारी ने कोई जवाब नहीं दिया। कई बार पूछने पर जवाब नहीं मिला तो ग्राहक ने फिर पूछा- क्या बैंक में कोई जिम्मेदार अधिकारी या कर्मचारी है जो बताये कि लिंक आया या नहीं? तब जाकर कर्मचारी ने बताया कि लिंक आ गया है, आपका काम करते हैं, थोड़ी देर बैठें। बैठने कहा गया तो उन्होंने हॉल में नजर दौड़ाई। बैंक में कुल जमा चार सीटर एक टूटी चेयर है, जिसमें पहले से महिलायें बैठी हुई थीं। महिलाओं के बगल में एक लाचार बुजुर्ग को तो जमीन पर ही बैठ जाना पड़ा। किसी कर्मचारी, अधिकारी ने उसे कुर्सी लाकर नहीं दी, न बैठने कहा। बैंक मैनेजर का चेम्बर हमेशा की तरह खाली मिला। कर्मचारियों से नंबर पूछा गया तो ना-नुकुर के बाद जो मोबाइल नंबर दिया गया वह बंद मिला। जब दूसरा नंबर मांगा गया तो कर्मचारी ने नहीं दिया, बल्कि कहा कि ब्रांच मैनेजर आयें तो बात कर लीजियेगा, आप तो अभी बैठिये। पर ग्राहक बैठे कहां, जमीन पर? या फिर खड़े-खड़े अपनी बारी की घंटों प्रतीक्षा करे। कोरोना संक्रमण का समय चल रहा है पर बैंक में सामाजिक दूरी का जरा भी पालन नहीं हो रहा है। उस पर ग्राहकों के साथ अधिकारी, कर्मचारी लापरवाही से पेश आ रहे हैं। आये दिन निजीकरण के विरोध में आवाज उठाने वाले, हड़ताल करने वाले बैंक कर्मचारियों के प्रति इस तरह से परेशान होने वाले ग्राहकों की कोई सहानुभूति रहेगी क्या? ऐसा रवैया लोगों को खुद ही निजी बैंकों की ओर जाने के लिये मजबूर करता है।
अमेजन, फ्लिप कार्ट पर वर्मी कम्पोस्ट
गौठानों में तैयार गोबर और केंचुए से बने खाद की बिक्री ऑनलाइन प्लेटफॉर्म अमेजन और फ्लिपकार्ट के जरिये भी की जा रही है। इसका लाभ यह हुआ है कि यहां से मुम्बई, बेंगलुरु, रांची, कोलकाता, मध्यप्रदेश के कई शहरों सहित अन्य महानगरों में खाद की डिलिवरी की जा रही है। यह प्रयोग अभी राजनांदगांव जिले में हो रहा है। इसे सुनकर आश्चर्य हो सकता है कि यहां की स्व-सहायता समूहों ने अब तक 1.50 करोड़ रुपये की वर्मी कम्पोस्ट की बिक्री कर ली है। अमेजन पर ही वे आर्गेनिक राखी भी बेच रही हैं जो विदेशी राखियों को टक्कर दे रही हैं। छत्तीसगढ़ में इस समय कई जगह रासायनिक खाद की कमी को लेकर आंदोलन हो रहे हैं। कांग्रेस केन्द्र सरकार पर तो भाजपास राज्य पर इसे लेकर आरोप जड़ रही है। आंदोलन के दौरान इस बात का विरोध भी किया जा रहा है कि सोसायटियों से रासायनिक खाद उठाने के दौरान उन पर वर्मी खाद खरीदने के लिये दबाव डाला जा रहा है। किसानों के विरोध की वजह यह है कि वर्मी खाद बीज बोने के वक्त खेतों में डालना होता है, अभी तो यूरिया या उसके विकल्प वाले खाद ही चाहिये। किसानों को दूसरे राज्यों से आ रही वर्मी कम्पोस्ट की मांग को सामने रखकर प्रेरित भी किया जा सकता है। गौठानों के अधिकारी इसे तब उपलब्ध करायें जब सीजन की शुरुआत में उन्हें इसकी जरूरत पड़ती है। दबावपूर्वक बेचने से किसानों को लग सकता है कि ये खाद किसी काम के नहीं।
मनचाहा लीजिये आरटीपीसीआर टेस्ट रिपोर्ट
कुछ दिन से फिर कोरोना के मामले देश में बढ़े हैं। इसे देखते हुए हवाई यात्रा के लिये 72 घंटे पहले की कोविड निगेटिव टेस्ट रिपोर्ट छत्तीसगढ़ में अनिवार्य कर दी गई है। प्रदेश के बाहर से आने वाले विशेषकर केरल व दक्षिण के राज्यों से आने वाले रेल यात्रियों को भी निगेटिव रिपोर्ट जरूरी की गई है। अन्य राज्यों में भी पहुंचने पर कुछ इसी तरह के नियम बना दिये गये हैं। लगभग सभी ने आरटीपीसीआर टेस्ट की अनिवार्यता रखी है, जिसकी रिपोर्ट आने में वक्त लगता है। सरकारी अस्पतालों के अलावा निजी लैब भी यह टेस्ट रिपोर्ट जारी कर रहे हैं। इससे टेस्ट हासिल करना तो आसान हो ही गया है, कुछ लैब संचालकों की मेहरबानी से मनचाही रिपोर्ट लेना भी मुश्किल काम नहीं रह गया है। बस यह है कि टेस्ट के लिये निर्धारित की गई राशि से दो गुनी या उससे कुछ अधिक खर्च करने के लिये लोग तैयार हो जायें। अनेक यात्री बताते हैं कि उन्होंने टेस्ट कराते समय कहा कि रिपोर्ट निगेटिव ही मिलनी चाहिये। बस कुछ ऊपर का खर्च लिया गया, रिपोर्ट निगेटिव ही मिली। पर ये सहूलियत उनको ही है जिनमें लक्षण कम दिखाई दे रहे हैं। सर्दी बुखार से पीडि़त यात्रियों को तो हवाईअड्डे और स्टेशन के गेट से लौटना पड़ सकता है।
आपदा में अवसर का सटीक नमूना
कोविड संक्रमण की आक्रामकता के दौरान जब राज्य के लोग एक-एक सांस बचाने की जद्दोजहद में जूझ रहे थे तब जशपुर जिले में स्वास्थ्य विभाग के कई अधिकारी-कर्मचारी सामूहिक रूप से सरकारी धन को फूंक कर अपना घर भरने में लगे हुए थे। बिना टेंडर, बिना मांग के उन्होंने करीब 12 करोड़ रुपये की खरीदी का घोटाला कर दिया। सर्जिकल सामान, उपकरण, किट, दवाइयां, सब ऐसी फर्मों से खरीद ली गईं, जिनका पंजीयन ही विभाग या शासन ने नहीं किया। सिविल सर्जन को दवा और उपकरण के लिये एक लाख रुपये और अन्य जरूरी सामग्री के लिये 50 हजार रुपये तक की खरीदी का ही अधिकार है। इससे अधिक के लिये उच्चाधिकारियों से मंजूरी की जरूरत है, जो नहीं ली गई। करोड़ों की खरीदी दो साल से होती रही पर किसी ने पकड़ा नहीं। साल में एक बार ऑडिट तो होती ही है, उन्होंने इस गड़बड़ी को कैसे नजरअंदाज कर दिया। जशपुर जिला छोटा है, जहां प्रशासनिक नियंत्रण ठीक हो तो इस तरह के फर्जीवाड़े पर प्रशासन लगातार निगरानी रख सकता है, पर वह भी नहीं हो सका। राज्य स्तर पर लगातार कोविड संकट के कारण स्वास्थ्य विभाग में हो रहे खर्चों पर निगरानी रखी जा रही थी, बजट दिये जा रहे थे, पर जिला स्तर पर इसकी मॉनिटरिंग नहीं हो रही थी। स्वास्थ्य महकमे में खरीदी में घोटाले का हल्ला मचा तब कहीं जाकर इसकी जांच शुरू हुई। जांच रिपोर्ट के आधार पर आधा दर्जन कर्मचारी निलम्बित किये हैं। सिविल सर्जन पहले ही सस्पेंड की जा चुकी हैं। पर ऐसा नहीं लगता कि ऊपर से शह मिले बगैर इतनी बड़ी गड़बड़ी हुई हो। स्वास्थ्य सेवा बेहतर कर लोगों की जान बचाई जा सके इसके लिये राज्य सरकार, सीएसआर और डीएमएफ जैसे फंड तो लुटाये ही गये, समाजसेवी और सक्षम लोगों ने भी लाखों रुपये की व्यक्तिगत मदद की है। घोटाले का यह कृत्य उनका भरोसा तोडऩे के जैसा है।
उद्यान विभाग का अनुदान घोटाला...
लोग स्वास्थ्य, शिक्षा, रेवेन्यू, माइनिंग, पीडब्ल्यूडी जैसे सामने दिखाई देने वाले विभागों में होने वाली गड़बड़ी को तो पकड़ लेते हैं, पर शासन के दर्जनों विभाग हैं जहां फंड के दुरुपयोग व भ्रष्टाचार लोगों को नजर नहीं आ आता। ऐसा ही उद्यान विभाग है। कृषि, उद्यानिकी को बढ़ावा देने के लिये केन्द्र और राज्य सरकार की ओर से कई प्रयोगों के लिये अनुदान दिये जाते हैं। कई योजनाओं में ये 75 प्रतिशत तक भी होते हैं। ऑफ सीजन फसलों, फूलों, फलों का उत्पादन लेना हो तो उसके लिये ग्रीन हाउस और उससे भी एडवांस पॉली हाउस का निर्माण खेतों में करना होता है। सरकार ग्रीन हाउस के निर्माण पर एक किसान को अधिकतम ढाई लाख का अनुदान देती है लेकिन पॉली हाउस के लिये यह 14 लाख रुपये तक मिल जाता है। महासमुंद में शिकायत आई है कि उद्यान विभाग के अधिकारियों और सप्लायरों की मिलीभगत से खेतों में निर्माण तो ग्रीन हाउस का किया गया लेकिन बिल पॉली हाउस के निकाल लिये गये। सरकार से अनुदान हासिल करने की पात्रता दो ढाई लाख की थी लेकिन लिये गये 14 लाख रुपये। इसकी शिकायत हुई, पर जांच चार माह से दबी हुई है। उद्यान विभाग के डायरेक्टर भी मान रहे हैं कि गड़बड़ी हुई है पर जांच क्या हुई, कार्रवाई किन लोगों पर हुई, इसका पता नहीं है। पता चला है कि फर्जी बिल लगाकर अनुदान हासिल करने को लेकर किसी अधिकारी कर्मचारी को अब तक नोटिस भी जारी नहीं की गई है। एक तो यह विभाग ऐसा है जहां क्या गड़बड़ हो रही है वह पता नहीं चलता। दूसरा गड़बड़ी पर कार्रवाई क्या हुई यह पता करने में अधिकारियों को भी दिलचस्पी नहीं है। उद्यानिकी विभाग की हरियाली ऐसी ही बनी रहेगी?
बाबा का इस्तीफा और खंडन...
न्यूज चैनल रिपब्लिक टीवी में स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव के इस्तीफे की पेशकश की खबर जैसे ही चली, छत्तीसगढ़ में राजनैतिक माहौल गरमा गया था। खबर में बताया गया कि वे दिल्ली में बीते चार दिन से हैं और राहुल गांधी या सोनिया गांधी से मिलना चाहते हैं पर उन्हें वक्त नहीं दिया जा रहा है। दिल्ली में राहुल गांधी के प्रदर्शन के दौरान सिंहदेव के पक्ष में नारे लगे। यहां से गये उनके समर्थकों ने लगाये थे। पिछले दिनों विधायक बृहस्पत सिंह के आरोपों के बाद राजधानी और विधानसभा में जो मची, उसके बाद इस्तीफे की खबर पर एकबारगी लोगों ने भरोसा ही कर लिया। ढाई साल के फार्मूले पर चल रही चर्चाओं पर विराम भी भी अब तक नहीं लग सका है। अब सिंहदेव के दफ्तर की ओर से बयान आ गया है कि इस्तीफे की खबर झूठी है, मेरे खिलाफ अफवाह फैलाई जा रही है।
पर, सवाल यह है कि यह बात निकली कैसे? यह बाबा के समर्थकों की ओर से बार-बार बाहर निकलती है कि सचमुच उनके विरोधियों की चाल है?
यात्रियों को रेलवे से नई चुनौती..
रेलवे ने यात्रियों को अब ट्रेनों को जल्दी पकडऩे की विधा में पारंगत होने की चुनौती दी है। अब ट्रेनों का ठहराव स्टेशनों पर घटाया जा रहा है। रायपुर जैसे स्टेशन पर जहां एक्सप्रेस ट्रेनों को 10-12 से 20 मिनट तक स्टापेज मिलता था, अब यह सिर्फ 5 मिनट मिलेगा। छोटे- मंझोले स्टेशनों में यदि पांच मिनट का समय पहले तय था तो उसे दो मिनट कर दिया जायेगा। इसके पीछे तर्क यह है कि इससे यात्रियों को गंतव्य तक कम समय में पहुंचाया जा सके। रेलवे ने स्पेशल ट्रेन नाम पर किराया वैसे भी बढ़ा दिया है। छोटे स्टेशनों से जो महिलायें ट्रेनों पर बच्चे लेकर सामान के साथ चढऩा चाहती हैं उनके लिये भी अब दो मिनट का टास्क दिया गया है। बुजुर्गों की भी रियायती टिकट कोविड के नाम पर बंद कर दी गई है, उनको अब दौड़ लगाने के लिये भी कहा जा रहा है। रात के समय अक्सर अपनी बोगी ढूंढने के लिये यात्री परेशान होते हैं। छोटे-मध्यम स्तर के स्टेशनों में तो लाइट भी ठीक तरह से नहीं जलती, लोग भीतर से दरवाजा बंद भी रखते हैं। ऐसे में दो मिनट की बंदिश बड़ी परेशानी का कारण बनेगा।
विरोधियों की मदद
वैसे तो पूर्व विधानसभा अध्यक्ष गौरीशंकर अग्रवाल, और कांग्रेस के पूर्व विधायक राजकमल सिंघानिया एक-दूसरे के धुर विरोधी माने जाते हैं। कसडोल में दोनों एक-दूसरे को एक-एक बार पराजित भी कर चुके हैं। पिछले चुनाव में राजकमल सिंघानिया को टिकट नहीं मिली। उनकी जगह कांग्रेस ने शकुंतला साहू को टिकट दी, जिसने गौरीशंकर को रिकॉर्ड वोटों से हराया।
हार के बाद भी गौरीशंकर भाजपा संगठन में प्रभावशाली हैं। जबकि राजकमल की सक्रियता डॉ. चरणदास महंत के बंगले तक ही सीमित रह गई है। राजनीतिक रूप से विरोधी होने के बावजूद गौरीशंकर, और राजकमल में निजी संबंध बहुत अच्छे हैं। पिछले दिनों राजकमल कोरोना से जुझ रहे थे, तो उनकी मदद के लिए गौरीशंकर आगे आए।
गौरीशंकर ने ही राजकमल के बेटे को फोन कर हैदराबाद ले जाने की सलाह दी, और वहां अस्पताल में चिकित्सकीय व्यवस्था का इंतजाम भी गौरीशंकर ने किया। आखिरकार महीनेभर अस्पताल में रहने के बाद राजकमल कोरोना से उबर गए। राजकमल की तरह कई नेता कोरोना की चपेट में आ गए थे, तब कुछ की मदद तो उनके राजनीतिक विरोधियों ने की।
आईएएस आनंदिता की वह बेमिसाल कामयाबी...
सन् 2004-05 में बिलासपुर नगर-निगम के कमिश्नर के रूप में एक आईएएस करूणा राजू की पोस्टिंग हुई। तब वे प्रशिक्षु ही थे। शहर की प्रतिष्ठित स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. शिखा मित्रा की पुत्री आनंदिता से उनका परिचय हुआ। उनके मिलने-जुलने की शहर में चर्चा होने लगी। और एक दिन दोनों ने एक सूत्र में बंधने का निर्णय ले लिया। बिलासपुर में ही विवाह सूत्र में बंधने के बाद उनकी एक संतान भी हुई। तब तक प्रशासनिक सेवाओं में उन्होंने प्रशासनिक सेवा में जाने का मन बना लिया था। निश्चित रूप से पति डॉ. राजू ने उनका हौसला बढ़ाया। अपनी नन्हीं सी बिटिया की देखभाल करते हुए उन्होंने तैयारी शुरू की। जब नतीजा आया तो सब हैरान रह गये। आनंदिता का परिश्रम चमत्कृत करने वाला था। उन्होंने पहली ही बार में न केवल यूपीएससी में सफलता हासिल कर ली बल्कि पूरे देश में आठवें रैंक पर आई। महिलाओं की सूची में उनका सबसे ऊपर नाम था। बीते दो दिनों से आनंदिता मीडिया की सुर्खियों में हैं क्योंकि उन्हें देश के सबसे खूबसूरत शहर चंडीगढ़ में नगर-निगम का कमिश्नर बनाया गया है।
दागी पुलिस कर्मियों पर शामत..
विधानसभा में सवाल किया गया ऐसे पुलिस अधिकारी, कर्मचारी जिनके खिलाफ एफआईआर दर्ज है, की जानकारी मांगी गई। इसके बाद से जिलों में कप्तान सक्रिय हो गये हैं। किसी जिले में एक दर्जन तो किसी में दो दर्जन सिपाही से लेकर निरीक्षक हैं जिनके खिलाफ कोई न कोई जांच लम्बित हैं या फिर उनके विरुद्ध एफआईआर दर्ज है। थानों में यातायात और स्पेशल टास्क की टीम में उन्हें महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिली हुई थी। पर कई जिलों से ऐसे पुलिस अधिकारी, कर्मचारी एक के बाद एक वापस लाइन अटैच कर दिये गये हैं। ऐसा नहीं है कि सभी जवान उच्चाधिकारियों के कृपा पात्र रहे हों इसलिये महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा रहे थे। उनकी काबिलियत की वजह से उनके खिलाफ हुई शिकायतों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। लाइन अटैच किये गये जवानों को मालूम है कि चूंकि विधानसभा में सवाल उठा है, उन्हें हटा दिया गया, कुछ दिन बाद वे फिर लौट जायेंगे। पुलिस विभाग में जितनी जल्दी लाइन पर भेजा जाता है उतनी ही जल्दी फील्ड में वापस बुला लिया जाता है। शिकायत ज्यादा गंभीर नहीं हो तो निलम्बन के बाद जल्दी ही बहाली भी हो जाती है। स्टाफ की कमी का हवाला देकर। और फिर कुछ एक मामले तो बताते हैं कि राजधानी में बड़े पदों पर कोई बैठा हो तो शिकायतों को ठंडे बस्ते में भी डाल दिया जाता है।
चिटफंड में डूबे कितने रुपये वापस मिलेंगे?
फर्जी चिटफंड कंपनियों में करोड़ों रुपए डूबा चुके निवेशकों को एक बार फिर लग रहा है कि उनके पैसे वापस मिल जाएंगे। एजेंटों की भी गर्दन इसमें फंसी हुई है। मौजूदा कांग्रेस सरकार के प्रमुख चुनावी वादों में एक यह भी था कि कंपनियों की प्रॉपर्टी बेचकर और बैंकों में जमा रकम सीज करके निवेशकों को पैसे लौटाए जाएंगे।
सभी जिलों में इन दिनों निवेशकों से आवेदन लिए जा रहे हैं। उन्हें पूरा विवरण भरकर दस्तावेजों के साथ कलेक्टोरेट में फॉर्म जमा करना है। दूसरी ओर तथ्य यह है कि अब तक केवल 322 निवेशकों के पैसे लौटाये जा सके हैं। वह भी जमा की गई रकम का सिर्फ 30 प्रतिशत। यानि मूल धन भी पूरा नहीं मिल पाया है। पिछले महीने गृह विभाग की समीक्षा में यह बात सामने आई कि राज्य में 187 अनियमित चिटफंड कंपनियों के खिलाफ 427 प्रकरण पंजीबद्ध हैं। इनमें से 265 प्रकरण अदालतों में विचाराधीन हैं। अब तक संपत्ति कुर्क करके इनसे 9 करोड़ 32 लाख रुपए वसूल किए जा सके हैं। एजेंटों की मानें तो पूरे प्रदेश में पैसे लगाने वालों की संख्या एक लाख 6 हजार के करीब है। कहां 322 और कहां एक लाख! ढाई साल में बस इतनी ही कामयाबी मिली। कोई चमत्कार ही होगा यदि सरकार अपना वादा सौ फीसदी पूरा कर पाये। दरअसल, कई व्यावहारिक कठिनाईयों का हवाला अधिकारी दे रहे हैं। ज्यादातर कम्पनियों के संचालक फरार हैं। उनकी प्रापर्टी दूसरे प्रदेशों में हैं। कई कम्पनियों के मालिकों का तो पता ही नहीं चल रहा है।
मतलब यह है कि लूटे गये हर धन को स्विस बैंक भेजना जरूरी नहीं है और न ही विदेश भागना। अपने देश के भीतर रहकर भी लूट और ठगी के पैसों से ऐश की जा सकती है।
क्या फिर रद्द होंगे फर्जी राशन कार्ड?
राशन कार्ड का ज्यादा होना किसी भी प्रदेश की गरीबी का इंडिकेटर है। यह हमेशा वोट बटोरने का जरिया भी रहा है। अपने छत्तीसगढ़ में ही ऐसा हो चुका है कि चुनाव से पहले बड़ी उदारता से लाखों की संख्या में राशन कार्ड बनाए गए और चुनाव खत्म होने के बाद जांच के नाम पर आधे निरस्त कर दिये गये। कांग्रेस सरकार बनने के बाद राशन कार्ड नए सिरे से तैयार किए गए। उसे ऑनलाइन एंट्री और आधार कार्ड से जोडक़र ज्यादा फुलप्रूफ बनाने की कोशिश की गई। पर चकमा देने से लोग बाज नहीं आ रहे हैं। वोटों की ही मजबूरी रहती है राशन कार्ड बनवाने में निकायों के प्रत्याशी और निर्वाचित प्रतिनिधि भी मदद करते हैं। इसके चलते खंगाला जाये तो सैकड़ों सरकारी कर्मचारी, आयकर दाता, पक्की मकानों और चारपहिया मालिक भी बीपीएल कार्डधारक मिल जायेंगे। हाल ही में फर्जी राशन कार्ड को पकडऩे के लिए राजधानी में जो तरीका अपनाया गया है उससे 50,000 राशन कार्ड निरस्त हो सकते हैं। राशन देने के लिए दुकानों में बायोमेट्रिक मशीन से अंगूठे का निशान लिया जा रहा है और इसे आधार कार्ड से जोड़ा भी गया है। यानी आधार कार्ड में जो दर्ज है वह राशन कार्ड लेते समय देने वाले निशान से मैच करना चाहिए। बीते महीने जुलाई का आंकड़ा बताता है कि जिले के 2.38 लाख राशन कार्ड धारियों में से 57 हजार लोग राशन लेने के लिए नहीं पहुंचे। ऐसा नहीं कह सकते कि सब के सब फर्जी होने की वजह नहीं आये। फिर भी राशन दुकान नहीं पहुंचने वालों की संख्या इतनी अधिक थी कि 24 फीसदी स्टाक दुकानों में बच गया है। फूड अफसरों का कहना है कि यदि दो-तीन माह तक यह लोग लगातार राशन लेने नहीं आए तो उनके कार्ड की जांच की जाएगी और निरस्त कर दिये जाएंगे। अभी चुनाव का कोई मौसम नहीं है। इसलिये फर्जी राशन कार्डों को बचाने की सिफारिश कोई पार्षद या नेता शायद ही करे।
बिना मेहनत के मिला भोजन हाथियों को पसंद नहीं?
गांव में हाथियों के हमले रोकने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार के वन विभाग ने मार्कफेड से धान खरीदना शुरू कर दिया है। प्रयोग के तौर पर उनके विचरण वाले रास्तों में रखा भी गया। सूरजपुर वन मंडल के पांच अलग-अलग बीट में 20 क्विंटल धान रखे गये। इनमें से 3 गांवों में हाथियों ने 14 क्विंटल धान खा लिया। मगर धर्मजयगढ़, बालोद आदि स्थानों पर धान पड़ा रह गया, उसे हाथियों ने खाना पसंद नहीं किया।
लगता है कि ज्यादातर इलाकों में हाथियों को धान की कटी हुई पकी-पकाई फसल यानि सहज-सुलभ भोजन पसंद नहीं है और वे सीधे खेतों और घरों में दस्तक देना चाहते हैं। धान खराब होने से बचाने के लिए एक विभाग ने दूसरे विभाग की मदद के लिये हाथ तो बढ़ाया पर यह प्रयोग कितना सफल होता है, कहना मुश्किल है।
हकीकत और हसरतें
आईपीएस के 96 बैच के अफसर विवेकानंद के एडीजी पद पर प्रमोट होने के बाद पीएचक्यू में कुछ बदलाव की तैयारी है। बताते हैं कि एडीजी स्तर के एक अफसर ने अहम पद के लिए अपनी ताकत झोंक दी है। अफसर की पिछले दिनों सरकार के ताकतवर मंत्री के साथ लंबी बैठक भी हुई है। जिसमें उन्होंने ईओडब्ल्यू-एसीबी, अथवा इंटेलिजेंस में काम करने की इच्छा जताई है।
जाहिर है कि दोनों ही शाखा सीधे सीएम के अधीन होती हैं, ऐसे में इन पदों के लिए सीएम का विश्वास जरूरी है, और वहां पदस्थ अफसरों को सीएम का भरोसा हासिल है। अफसर ने मंत्रीजी को ईओडब्ल्यू-एसीबी में जीपी सिंह, मुकेश गुप्ता, और अन्य प्रभावशाली लोगों के खिलाफ चल रहे प्रकरणों को किस तरह हैंडल किया जाना चाहिए, इस पर सुझाव भी दिए हैं। ताकि इसका बेहतर नतीजा आ सके। मंत्रीजी ने अफसर की भावनाएं ऊपर तक पहुंचाने का भरोसा दिलाया है।
सिंहदेव समर्थकों को अब राहत?
रामानुजगंज के विधायक बृहस्पत सिंह ने तोप की दिशा घुमा दी है। विधानसभा में ‘खेद’ जताने के बाद भी कांग्रेस की भीतरी राजनीति, खासकर सरगुजा में सुलग ही रही थी। सिंहदेव समर्थकों के तेवर उनके खिलाफ गरम थे। ऐसे में बीच में एंट्री मार दी राज्यसभा सांसद राम विचार नेताम ने। उनके पुराने घाव हरे हो गये। छह माह पहले बृहस्पत सिंह ने उन पर अपनी हत्या की साजिश रचने का आरोप लगाया था। नेताम ने कहा कि जैसे सिंहदेव से माफी मांगी, मुझसे भी मांगें, वरना मानहानि का केस करेंगे। पर इसकी प्रतिक्रिया में बृहस्पत सिंह बैकफुट पर नहीं आये बल्कि नेताम के खिलाफ एक नहीं करीब आधा दर्जन नये पुराने गंभीर आरोप लगा दिये। नेताम को उनके मंत्रित्व काल की याद दिलाते हुए। यहां तक सुझाव दे दिया है कि दिल्ली से लौटें तो एम्स में मानसिक इलाज कराकर आयें। बृहस्पत सिंह के ताजा बयान पर अभी नेताम की प्रतिक्रिया आनी बाकी है। वे आरोपों का खंडन करते हुए आक्रामक होंगे, या शांत रह जायेंगे यह देखना होगा। पर, नेताम पर हमला बोलकर बृहस्पत सिंह ने बता दिया है कि अभी उनके एजेंडे में सिंहदेव नहीं है।
मंत्री-विधायक विवाद पर गाना
छत्तीसगढ़ के पूर्व मुखिया रमन सिंह पेशे से डॉक्टर हैं, तो स्वाभाविक है कि वे दर्द और दवा के बारे में बेहतर समझते होंगे। पिछले दिनों जब छत्तीसगढ़ में मंत्री और सत्तापक्ष के विधायक के बीच विवाद का पटाक्षेप हुआ तो रमन सिंह ने डॉक्टरी अंदाज में जवाब दिया था और कहा था कि तुम्ही ने दर्द दिया है तुम्ही दवा देना। लेकिन इस गीत की पहली लाइन कुछ ऐसी है- गरीब जानकर हमको ना मिटा देना... तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम ही दवा देना। ऐसे में सियासी हलको में इस पूरे गाने को इस घटनाक्रम से जोडक़र देखा जा रहा है और इसके मायने निकाले जा रहे हैं। कुछ लोगों का यहां तक दावा है कि भले ही यह गाना दो प्रेमियों की बात हो, लेकिन छत्तीसगढ़ के इस सियासी घटनाक्रम पर पूरी तरह से फिट है।
मतदाताओं को आईना दिखाता आंदोलन
खराब सडक़-नालियों को लेकर अक्सर निष्क्रिय, भ्रष्ट जनप्रतिनिधियों पर ही लोगों का गुस्सा फूटता है, पर उन वोटरों पर नहीं जो उन्हें जिताते हैं। मतदाता कई कारणों से किसी प्रत्याशी को वोट देता है, जैसे- विचारधारा मिलने की वजह से, पिछले प्रतिनिधि से त्रस्त होने की वजह से, आश्वासनों पर भरोसा कर लेने की वजह से। पर, उन मतदाताओं को कोई नहीं कोसता, जिनका वोट बिक जाता है और जीत हार में उनके बोट का निर्णायक रोल होता है। विपक्ष भी मतदाताओं को कोस कर नाराजगी नहीं मोल लेना चाहता क्योंकि मौका सबका आने वाला होता है। पर, कोरबा में आम आदमी पार्टी ने खराब सडक़ों के लिये जिस तरह दारू, बकरे और मुर्गे में बिक जाने वालों की खबर ली है, वह इन दिनों चर्चा में है। वे गाजे-बाजे के साथ सडक़ों के गड्ढे पर नाच रहे हैं। वे तख्तियां लिये गाना गा रहे हैं- दस (लोगों) का मुर्गा खाओगे, तो मुर्गा ही बन जाओगे। दारु में बिक जाओगे तो, ऐसी ही रोड पाओगे। ...मुस्कुराइये, आपने कोरबा को बर्बाद कर दिया है। 'आप' के नेताओं का कहना है कि मतदाताओं को सचेत करने के लिये प्रदर्शन का यह तरीका अपनाया गया है। नागरिक अपने वोटों की कीमत समझें किसी प्रलोभन में नहीं बिकें, बिक गये तो फिर काम करने के लिये नेता पर दबाव कैसे डालेंगे?
मिलावटी मिठाई की जब्ती में पुलिस
आटा, चायपत्ती, हल्दी, मसाले सभी खाद्य पदार्थों में मिलावट होती है पर त्यौहारी सीजन आते ही मिलावटी मिठाईयों की बाढ़ आ जाती है। भिंड-मुरैना से आयात किये हुए कच्चे माल की तो प्रदेश में हर साल बड़ी खपत होती है। खाद्य एवं औषधि प्रशासन विभाग के अधिकारियों, कर्मचारियों के लिये भी यह त्यौहार ही होता है क्योंकि वे दूध, खोवा-मावा से बनी मिठाईयों का सैम्पल लेने का विशेष अभियान चलाते हैं।
सैम्पल लेने का खौफ ही काफी है। वरना सैम्पल लेने के बाद रायपुर की लैब से रिपोर्ट देने में इतनी देर होती है कि लोग भूल भी जाते हैं कि किस दुकान में छापा मारकर क्या जब्त किया गया था। बहुत दिन बाद जब रिपोर्ट आती है तो दो-चार पर जुर्माना लगता है पर अधिकांश सैम्पल पास हो जाते हैं। इसलिये दुकानदारों की पहले तो कोशिश यही होती है कि सैम्पल ही लेने से रोक लें, क्योंकि इसकी चर्चा होने पर ग्राहकी पर असर पड़ेगा। इसी के चलते वाद-विवाद की स्थिति बनती है, अधिकारियों की भाषा में- शासकीय कार्य में बाधा डालते हैं। लैब से रिपोर्ट मिलने में देर के कारण कुछ मोबाइल लैब भी विभाग ने खरीदे थे, जिसकी रिपोर्ट थोड़ी ही देर में मिल जाती है पर अधिकांश दफ्तरों में ये चलित लैब खड़े हुए हैं। पुलिस को साथ में लगाने से अब तीन विभाग छापेमारी में साथ होंगे, राजस्व, खाद्य और पुलिस। नाहक खर्च बढ़ेगा, दुकानदारों का।
अफसर की मौलिक पहल का नतीजा
गांवों में सरकारी योजनाओं के लिए कई बार जमीन की समस्या आड़े आ जाती है। मगर पिछले वर्षों में सरकारी जमीन को सुरक्षित रखने के लिए कुछ जगहों पर बेहतर काम भी हुआ था, जिसकी वजह से वृक्षारोपण, और गौठानों के लिए सरकारी जमीन ढूंढने ज्यादा दिक्कत नहीं हुई। सीएम के विशेष सचिव एस भारतीदासन ने तो जांजगीर-चांपा कलेक्टर रहते लाल झंडा अभियान चलाया था, और करीब 10 हजार एकड़ सरकारी जमीन को चिन्हित कर कब्जा मुक्त कराने में सफल रहे।
लो-प्रोफाइल में रहने वाले भारतीदासन ने गांव वालों के सहयोग से पामगढ़ के दरदरी गांव में करीब 120 हेक्टेयर सरकारी जमीन दबंगों से छुड़ाया, और जमीन वृक्षारोपण के लिए वन विभाग के सुपुर्द कर दिया। उस समय सतोविशा समजदार डीएफओ थीं। सतोविशा की गिनती भी मेहनती अफसरों में होती है। उन्होंने जिला प्रशासन के सहयोग से वहां सघन वृक्षारोपण कराया। और आज हाल यह है कि दरदरी गांव का यह इलाका जंगल के रूप में तब्दील हो गया है। जिस जमीन पर कब्जे को लेकर गांव में हमेशा तनाव का माहौल रहता था, वहां हरे भरे वृक्ष लहलहा रहे हैं। गांव वाले जिला प्रशासन के प्रयासों की सराहना करते नहीं थकते हैं।
पत्रकार सुरक्षा कानून...
सब कुछ ठीक ठाक रहा, तो छत्तीसगढ़ में पत्रकारों की सुरक्षा के लिए विधेयक शीतकालीन सत्र में पेश हो सकता है। भूपेश बघेल ने सीएम पद की शपथ लेने के बाद पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कानून बनाने के प्रस्ताव को हरी झंडी दी थी, और सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस आफताब आलम की अध्यक्षता में इसका प्रारूप तैयार करने के लिए कमेटी बना दी थी। जस्टिस आलम की साख बहुत अच्छी रही है।
जस्टिस आफताब आलम ने बस्तर से लेकर सरगुजा तक पत्रकार-संगठनों से चर्चा कर प्रारूप तैयार कर लिया है, और विधि विभाग से सहमति मिलने के बाद सीनियर सचिवों की कमेटी में विधेयक के प्रारूप पर मंथन होगा, और इस बात की पूरी संभावना है कि कैबिनेट की मंजूरी के बाद पत्रकार सुरक्षा कानून विधानसभा के शीतकालीन सत्र में पेश हो जाएगा।
पत्रकार सुरक्षा कानून जस्टिस आफताब आलम ने अपनी तरफ से कोई कसर बाकी नहीं रखी। उन्होंने इसके लिए मानदेय लेने से भी मना कर दिया। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि जब भी रिटायर्ड जजों की अध्यक्षता में कोई कमेटी या आयोग का गठन होता है, तो सरकार को उनके सुख सुविधाओं के लिए काफी कुछ वहन करना होता है। मगर जस्टिस आलम अपवाद रहे हैं, और उनकी मेहनत कानून के प्रारूप में झलकती भी है। अब इस बात की संभावना है कि अगले साल पत्रकारों को सुरक्षा देने वाला कानून अस्तित्व में आ जाएगा।
हाईकोर्ट में वूमेन पावर
छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने के साथ-साथ हाई कोर्ट का भी गठन 2 दिन के अंतराल पर हो गया था। पर यहां महिला जज की पहली नियुक्ति मार्च 2018 में हो सकी। अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में तब की रायपुर फैमिली कोर्ट की जज विमला सिंह कपूर और रजिस्ट्रार विजिलेंस रजनी दुबे की एक साथ पदस्थापना हुई।
18 साल के बाद एक साथ दो महिला जज हाई कोर्ट को मिले। अब एक्टिंग चीफ जस्टिस ने उन्हें एक साथ जो नई जिम्मेदारी दी है, वह भी चर्चा में है। हाई कोर्ट में रोस्टर बदलने के बाद दो डबल बेंच बनाई गई हैं। दोनों में एक-एक प्रतिनिधित्व इन दोनों महिला न्यायाधीशों का है।
प्रसंगवश, समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताई है कि न्यायपालिका में महिला प्रतिनिधित्व कम है। हाईकोर्ट के 661 जजों में सिर्फ 70 महिलाएं हैं। इस कमी को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी लगाई जा चुकी है। एटर्नी जनरल के जी वेणुगोपाल ने पिछले दिनों कहा था कि महिलाओं का प्रतिशत बढऩे से न्यायपालिका का दृष्टिकोण अधिक संतुलित और सशक्त होगा।
काजू, बादाम वाले दुबई में टाऊ की मांग
ज्यादातर लोग यह समझते हैं कि ड्राई फ्रूट्स सेहत के लिए जरूरी तो है लेकिन आम आदमी की पहुंच से बाहर है। इसके विकल्प हमारे आसपास मौजूद है। छत्तीसगढ़ की विविधतापूर्ण पैदावार में प्रोटीन, विटामिन और शरीर के लिए जरूरी वे मिनरल्स, आयरन आदि प्राप्त किये जा सकते हैं जो बाजार में काफी महंगे मिलते हैं। गनियारी के चिकित्सक डॉ. योगेश जैन ने तो छत्तीसगढ़ में उपलब्ध पोष्टिक, गुणकारी साग-भाजी और पत्तियों पर एक पूरी किताब भी लिखी है। अब ड्राई फ्रूट्स के लिए मशहूर अरब देशों के सबसे नामी शहर दुबई से मैनपाट के टाऊ आटे की मांग आई है। शुरुआत अच्छी हुई है, भले ही ऑर्डर अभी 120 किलो का ही है। यहां महिलाओं की एक स्व-रोजगार संस्था ने बकायदा प्रोडक्शन कंपनी बनाई है और मार्केटिंग के लिए एमओयू भी किया है। इसी के जरिए दुबई से उन्हें टाऊ के आटे की आपूर्ति का ऑर्डर मिला है। टाऊ में हार्ट, शुगर और कैंसर के रोगियों के लिए फायदेमंद जिंक, मैगजीन और कॉपर मिनरल्स मिलता है। शोध में मालूम हुआ है कि इसमें फेगोपायरीटोल नाम का एक खास कार्बोहाइड्रेट होता है जो कोलेस्ट्रोल कम कर आंत का कैंसर दूर रखता है। इसमें ब्लड प्रेशर को भी नियंत्रित रखने के गुण हैं। मैनपाट में काजू, मशरूम, हल्दी, चाय जैसे अनेक विविधता पूर्ण उत्पादों का रकबा पिछले कुछ सालों में बढ़ा है। आलू तो मशहूर ही है। इन सबकी राज्य और राज्य के बाहर सप्लाई होती है।
छत्तीसगढ़ के ज्यादातर इलाकों में खेती साथ प्रयोग करने में झिझक दिखाई देती है। धान की बंपर पैदावार अब एक समस्या भी बनती जा रही है। जिस दिन शासन ने हाथ खड़े कर प्रोत्साहन राशि देना बंद कर दिया, धान का बाजार मिलना मुश्किल हो जाएगा। ऐसे में जशपुर की इस खबर पर गौर करना चाहिये।
स्कूल में मजदूर की समस्या दूर
2 अगस्त को पहले दिन जगह-जगह स्कूल खुलने पर उत्सव मनाया गया। चॉकलेट और मिठाइयां भी बांटी गई। पर यह सिर्फ तस्वीरों में और बड़े शहरों कस्बों की बात है। दूरस्थ गौरेला पेंड्रा मरवाही जिले के कंचनडीह ग्राम पंचायत के प्राथमिक शाला की एक अलग तस्वीर के सामने आई है। यहां स्कूल ड्रेस में बच्चे बर्तन मांगते हुए दिखे। तीसरी कक्षा के बच्चों को लगा होगा, पहले दिन हो सकता है इसी काम में लगाया जाता होगा। या फिर शिक्षक को लगा होगा कि डेढ़ साल से स्कूल से दूर बच्चे पढऩा लिखना तो भूल ही गए होंगे और उन्हें बर्तन मांजने के काम में लगा देना ही ठीक रहेगा। नौ 10 साल की बच्चों ने बताया क्यों नहीं प्रधान पाठक में बर्तन साफ करने के लिए कहा है। और हम उनकी आज्ञा का पालन कर रहे हैं। गांवों में मातायें छोटे बच्चों को डराती हैं, स्कूल नहीं जोओगे तो बर्तन मांजने के काम में लगा दूंगी। पर बच्चों को तो स्कूल में भी वही करना पड़ रहा है।
बसपन के प्यार में बिजी
सोशल मीडिया पल भर में सुर्खियां बटोरने का बड़ा प्लेटफॉर्म बनता जा रहा है। स्थिति ये है कि कम पढ़े-लिखे या दूरस्थ इलाके के लोग भी इसके जरिए देश-दुनिया में पॉपुलर हो रहे हैं। समाज के आदर्श और सेलिब्रेटी भी ऐसे लोगों को खूब प्रमोट कर रहे हैं। कई बार जरूरतमंद और प्रतिभावान लोगों को सोशल मीडिया मुकाम तक पहुंचाने में मददगार साबित हो रहा है, लेकिन अधिकांश बार यह देखने में भी आता है कि हंसी-ठिठौली में ऐसे लोग भी प्रसिद्धि पा रहे हैं, जिससे उन पर अपेक्षाओं का बोझ बढ़ रहा है। अब छत्तीसगढ़ के दूरस्थ नक्सल इलाके के सहदेव को ही लीजिए, जिसका करीब दो साल पुराना वीडियो इस कदर वायरल हुआ कि तमाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर उसी की चर्चा शुरू हो गई और राजनेताओं से लेकर फिल्मी सितारों के साथ उनका वीडियो आना शुरू हो गया। जैसा सोशल मीडिया का स्वभाव है कि जितनी जल्दी प्रसिद्धि मिलती है, उससे भी तेजी से आलोचना भी शुरू हो जाती है। इससे उस मासूम की कोई गलती नहीं है, फिर भी परिणाम उसको और पूरे समाज को भोगना पड़ेगा। बसपन का प्यार गाना गाकर पॉपुलर होने वाले सहदेव के बाल मस्तिष्क में यह बात तो जरूर आई होगी कि वह अब बड़ा स्टार बन गया है, जबकि पढऩे-लिखने और खेलने-कूदने के इस उम्र में सोशल मीडिया ने से उसे ऐसे काम के लिए हीरो बना दिया, जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की होगी। आज जब दूसरे देशों के 10-12 साल के बच्चे ओलंपिक में जाकर पदक जीत रहे हैं और हमारा पूरा देश बसपन के प्यार में बिजी है। इसकी लोकप्रियता को देखकर दूसरे बच्चे भी मोबाइल लेकर बसपन का प्यार गा रहे हैं। इतना ही नहीं, कई माता-पिता खुद बच्चों को इसके लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं और वे सेलिब्रटीज से अपेक्षा कर रहे हैं कि उनके बच्चे के साथ भी सहदेव की तरह अपना वीडियो शेयर करें।