राजपथ - जनपथ
जंगल के बाहर बहुत कम बचे...
सरकार बदलने के बाद ज्यादातर वन अफसरों को मूल विभाग में भेज दिया गया था। दो-तीन अफसर रह गए हैं, जिनकी पोस्टिंग पिछली सरकार ने की थी और मौजूदा सरकार ने उन्हें यथावत रहने दिया। अलबत्ता, वे पहले से ज्यादा पॉवरफुल हो गए हैं। इनमें सीएसआईडीसी के एमडी अरूण प्रसाद भी हैं, जो कि डीएफओ स्तर के अफसर हैं लेकिन उनके पास सीएसआईडीसी के साथ-साथ मंडी बोर्ड के एमडी का भी अतिरिक्त प्रभार है। डीएफओ स्तर के अफसर को इतना अहम दायित्व पहले कभी नहीं मिला था।
हालांकि वन अफसर आलोक कटियार की भी पोस्टिंग पिछली सरकार में हुई थी। मगर वे एडिशनल पीसीसीएफ स्तर के अफसर हैं। वे प्रधानमंत्री सडक़ योजना के साथ-साथ क्रेडा के सीईओ की भी जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। आलोक कटियार जब हॉर्टिकल्चर मिशन में थे, तब उसके काम की राष्ट्रीय स्तर पर तारीफ हुई थी. जब वे प्रधानमंत्री सडक़ योजना में थे, वहां बहुत अच्छा काम हुआ था. इस बार भी उन्होंने इस दुबारा पोस्टिंग में सडक़-निर्माण तेज कर दिया है, और केंद्र सरकार में उसकी तारीफ हुई है।
सुनते हैं कि सीनियर लेवल पर अफसरों की कमी को देखते हुए कुछेक वन अफसरों की पदस्थापना का सुझाव दिया गया था, लेकिन सीएम ने साफ तौर पर मना कर दिया। उनका मानना था कि प्रदेश में 43 फीसदी वन क्षेत्र हैं, ऐसे में वन अफसरों की ज्यादा जरूरत वन विभाग को है।
कुंभ में बिछुड़े भाई, सोच एक...
हिन्दुस्तान में सदियों से कई ऐसी बातें चली आ रही हैं जिनके बारे में बुजुर्गों का सम्मान करने वाले लोग उन्हें समझदारी की और तजुर्बे की बात कहते हैं। अब ऐसी बातों का चलन यह कहकर भी बढ़ रहा है कि पुराने लोगों को विज्ञान की बहुत समझ थी, और जब उन्होंने ऐसा कहा था, तो जरूर उसके पीछे कोई न कोई वैज्ञानिक तर्क रहा होगा।
सच तो यह है कि वैज्ञानिक तर्क को एक बार छोड़ दिया जाए, तो अंधविश्वास और उसे बढ़ावा देने वाले कहावत-मुहावरे लोगों को वैसे ही बहाकर ले जाते हैं, जिस तरह बाढ़ की तूफानी नदी लकड़ी के मुर्दा टुकड़े को बहाकर ले जाती है।
अभी सोशल मीडिया पर पाकिस्तान से किसी ने वहां के लोगों के बीच मौजूद अंधविश्वास के बारे में लिखा तो लगा कि अरे पाकिस्तान तो हिन्दुस्तान का ही कुंभ के मेले में बिछुड़ा हुआ भाई है, और दोनों की रगों में खून तो एक ही है। उसने पाकिस्तान के अंधविश्वासों के बारे में लिखा- यहां के लोग यह तो नहीं मानेंगे कि कोरोना एक हकीकत है, लेकिन यह जरूर मानेंगे कि खून मीठा होता है, इसलिए मच्छर ज्यादा काटते हैं, यह मानेंगे कि दरख्त के नीचे बैठने से जिन्न और चुड़ैल चिमट जाते हैं, खाली कैंची चलाने से घर में लड़ाईयां होती हैं, हिचक आ रही हो तो उसका मतलब है कि कोई याद कर रहे होंगे।
अब अभी 70-75 बरस ही हुए हैं अलग हुए, दोनों के अंधविश्वास तो एक ही किस्म के होंगे। हिन्दुस्तान में भी सुबह और रात में पैदल घूमने निकले लोगों को देखें तो यही लगता है कि वे कोरोना को एक कल्पना की बात मानकर चल रहे हैं, और अपने आपको गोदरेज कंपनी की बनाई गई तिजोरी मान रहे हैं कि जिसे कोरोना तोड़ नहीं सकेगा। लेकिन अंधविश्वास के मामले में हिन्दुस्तानी पाकिस्तानियों से कहीं पीछे नहीं हैं। अब और किसी वैज्ञानिक वजह से न सही, कम से कम इसलिए हिन्दुस्तानियों को अंधविश्वास छोड़ देना चाहिए कि इस वजह से लोग पाकिस्तानियों से उनकी तुलना करते हैं।
कौशल्या मंदिर तालाब एक नहीं छह
आज जब अयोध्या में राम मंदिर का भूमिपूजन हुआ है, तब लोगों को छत्तीसगढ़ में भी राम से जुड़ी कई बातें याद आईं। रायपुर के एक फोटोग्राफर नरेन्द्र बंगाले ने शहर से लगे हुए आरंग विधानसभा क्षेत्र के चंदखुरी गांव के कौशल्या मंदिर की यह फोटो भेजी है जो उन्होंने 2013 में शायद किसी हेलीकाप्टर से ली थी। इन सात बरसों में वहां आसपास कुछ निर्माण चाहे हो गए हों, लेकिन मोटेतौर पर कौशल्या मंदिर का यह तालाब आज भी चारों तरफ से खुला हुआ है। तालाब के बीच एक टापू पर मंदिर है, और वहां तक जाने के लिए एक पुल बना हुआ है। लेकिन ध्यान से देखें तो एक दिलचस्प बात यह है कि एक बड़े तालाब के इर्द-गिर्द पांच और तालाब बिल्कुल लगे हुए हैं, और खूब हरियाली है, चारों तरफ पेड़ हैं। इस जगह पर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अभी कुछ दिन पहले ही पूजा की है, और इस पूरे मंदिर-तालाब के विकास की एक बड़ी योजना घोषित की है। ऐसी कोई भी योजना इन आधा दर्जन तालाबों की खूबसूरती को बरकरार रखने वाली होनी चाहिए।
एमएमआई दिग्गज सेठों का अखाड़ा...
रायपुर के बड़े अस्पतालों में से एक एमएमआई अस्पताल ट्रस्ट में वर्चस्व की लड़ाई चल रही है। शहर के बड़े धन्ना सेठों के दबदबे वाले इस ट्रस्ट में सरकारी-अदालती आदेश के बाद किसी तरह चुनाव हुए और लूनकरण जैन-महेन्द्र धाड़ीवाल के गुट ने ट्रस्ट पर कब्जा कर लिया। हालांकि चुनाव प्रक्रिया के खिलाफ सुरेश गोयल का धड़ा हाईकोर्ट गया है।
एमएमआई अस्पताल की स्थापना और ऊंचाईयों तक पहुंचाने के योगदान को लेकर दोनों धड़ों के अपने-अपने दावे हैं। यह भी प्रचारित हो रहा है कि ट्रस्ट के संस्थापक सदस्यों ने शहर में बेहतरीन स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने अपना काफी कुछ न्यौछावर किया था। इस अस्पताल का नाम एमएमआई रखने के पीछे जाहिर तौर पर वजह थी इसके प्रमुख संस्थापक महेंद्र धाडीवाल की कपडा-फर्म का नाम एम एम धाडीवाल होना. कपड़ा बाजार में इस फर्म को एमएम नाम से ही बुलाया जाता था।
ट्रस्ट के 11 संस्थापक सदस्यों ने अस्पताल की स्थापना वर्ष-1991-92 में कुल पौने दो लाख रूपए की पूंजी लगाई। बाद में अस्पताल के निर्माण के लिए 6 करोड़ रूपए ऋण लिए गए। यही नहीं, शहर के अनेक दानदाताओं ने उदारतापूर्वक सहयोग किया। तब कहीं जाकर अस्पताल अस्तित्व में आया।
शुरूआत में तो सबकुछ ठीक ठाक चलते रहा और फिर धीरे-धीरे आर्थिक स्थिति चरमराने लगी। लोन नहीं अदा किया जा सका और फिर एनपीए हो गया। बाद में वन टाइम सेटलमेंट के बाद तीन करोड़ रूपए भुगतान कर अस्पताल को कर्ज मुक्त कराया गया। कुछ लोगों का दावा है कि अस्पताल का ऋण चुकाने में सुरेश गोयल की अहम भूमिका रही है। मगर महेन्द्र धाड़ीवाल से जुड़े लोग इसको नकारते हैं। गोयल वर्ष-2007 से अध्यक्ष रहे। अस्पताल चलाना काफी खर्चीला हो रहा था, तब पूरा नियंत्रण बैंग्लोर के एक बड़े अस्पताल ग्रुप को दे दिया गया। तब से अब तक यह ग्रुप अस्पताल संचालन कर रहा है। ट्रस्ट का हस्तक्षेप सिर्फ इतना ही रहता है कि कुछ रोगियों को इलाज में छूट दिला सकता है। साथ ही ट्रस्ट के संचालन के लिए मुनाफे में से कुल ढाई फीसदी की राशि मिलती है।
अस्पताल का संचालन बैंग्लोर के ग्रुप को देने के बाद ट्रस्ट में वर्चस्व की लड़ाई शुरू हो गई और सुरेश गोयल विरोधी खेमा उन्हें हटाने की कोशिश में जुट गया । पहले 11 सदस्यों के अलावा कई नए सदस्य बनाए गए थे। सुरेश गोयल का खेमा चाहता था कि नए सदस्यों को भी मतदान का अधिकार दिया जाए। मगर विरोधी खेमा इसके पक्ष में नहीं था। बाद में रजिस्ट्रार फर्म एण्ड सोसायटी के नियमों के अनुसार हाईकोर्ट के आदेश के बाद प्रमुख सचिव मनोज पिंगुआ ने सुनवाई की और संस्थापक सदस्यों को ही वोट के अधिकार दिए गए। अब संस्थापक सदस्यों में से ज्यादातर महेन्द्र धाड़ीवाल के साथ थे, लिहाजा उनके खेमे की जीत हो गई। अब सुरेश गोयल के खेमे ने चुनाव प्रक्रिया के खिलाफ हाईकोर्ट याचिका दायर की है। कोर्ट का आदेश चाहे कुछ भी हो, लेकिन धन्ना सेठों के आपसी झगड़े से अस्पताल की प्रतिष्ठा पर आंच आई है, धन्ना सेठों की साख पर आंच आयी या नहीं पता नहीं।
चारों तरफ राम-नाम!
छत्तीसगढ़ सरकार पिछले एक हफ्ते में जिस रफ्तार से राम के रास्ते चल रही है, उससे अयोध्या में मोदी और योगी सरकारें भी पिछड़ती हुई दिख रही हैं। मोदी-योगी को रामजन्म पर मंदिर का भूमिपूजन करने जा रहे हैं, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सपत्नीक चंदखुरी में माता कौशल्या के मंदिर का भव्य कायाकल्प करने की पूजा की। अब बाकी देश रामजन्म तक पहुंचा है, छत्तीसगढ़ सरकार कौशल्या की स्मृति को स्थापित कर रही है। आज भी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने छत्तीसगढ़ में रामकथा की जगहों की शिनाख्त पोस्ट की है कि कहां-कहां राम वनपथ गमन विकसित होने जा रहा है।
ऐसे में राजभवन के सचिव, राज्य के प्रमुख सचिव सोनमणि बोरा पर दोहरी जिम्मेदारी आ जाती है। वे केन्द्र सरकार द्वारा मनोनीत और भाजपा से आई हुई राज्यपाल सुश्री अनुसुईया उइके के सचिव भी हैं, और राज्य सरकार के भी। ऐसे में आज दोपहर उन्होंने अपनी कई तस्वीरें पोस्ट की हैं जिनमें वे पत्तियों पर शायद केसर-चंदन से राम-राम लिखकर, समारोह के लायक कपड़ों में सजकर बैठे हैं। जब केन्द्र सरकार और राज्य सरकार दोनों ही अलग-अलग राम और राम की मां की पूजा में जुटी हुई हैं, तो इन दोनों सरकारों की मिलीजुली सेवा कर रहे सोनमणि बोरा भी राम-नाम लिखने में लगे हैं।
फेसबुक पर परसेप्शन मैनेजमेंट
सोशल मीडिया बड़ा दिलचस्प मेला रहता है। कोई वहां डमरू बजाते रहता है, तो कोई कांटों पर सोया हुआ कुछ सिक्कों की उम्मीद करता हुआ। कुंभ के मेले में जितनी वेरायटी रहती है, कुछ वैसी ही फेसबुक पर देखने मिलती है। यहां पर तकरीबन सब कुछ सामने रहता है, लेकिन फिर भी लोग यहां परसेप्शन मैनेजमेंट का मौका निकाल ही लेते हैं।
अभी एक औसत दर्जे का कार्टूनिस्ट फेसबुक पर दिखा, लेकिन उसके कार्टून पर होने वाले कमेंट दो-दो मीटर लंबे चल रहे थे। सैकड़ों कमेंट देखकर हैरानी हुई कि ऐसे कार्टून पर इतने कमेंट! फिर ध्यान से देखना शुरू किया तो समझ आया कि एक कमेंट के नीचे उस कमेंट पर तरह-तरह के हॅंसने, लोटपोट होने के दर्जनों इमोजी खुद कार्टूनिस्ट ने पोस्ट किए थे। खुद ही का कार्टून, और खुद ही उस पर लोटपोट हो रहा! फिर यह लोटपोट होने के लिए अलग-अलग कई किस्म के हिलने-डुलने वाले, फर्श पर गिरकर लोटपोट होने वाले इमोजी! तरकीब अच्छी है, पहली नजर में लोगों को यह झांसा हो सकता है कि कार्टून पर सैकड़ों लोग लोटपोट हो रहे हैं, बाद में बारीकी से कोई देखे तो समझ आएगा कि दो-चार लोग मुस्कुराए भर हैं, और उस पर लोटपोट कार्टूनिस्ट खुद ही हो रहा है। लोगों का हौसला भी गजब का है!
कोरोना को दुहने वाले
खबर है कि सरकार निजी अस्पतालों को कोरोना के इलाज के लिए फीस निर्धारित कर पाने में विफल रही है। स्वास्थ्य विभाग चाहता था कि कोरोना के इलाज के लिए ज्यादा फीस न हो, इसके लिए अस्पताल प्रबंधनों से चर्चा भी हुई थी, लेकिन बात नहीं बन पाई। हाल यह है कि निजी अस्पताल एक दिन के इलाज के नाम पर प्रति मरीज 25 हजार रूपए तक वसूल रहे हैं।
दूसरी तरफ, एम्स जैसे संस्थान में बिना कोई शुल्क लिए कोरोना मरीजों का बेहतर इलाज हो रहा है। बाकी सरकारी अस्पतालों में भी मुफ्त इलाज हो रहा है। एम्स में भर्ती एक मरीज ने नर्सिंग स्टॉफ की तारीफ करते हुए बताया कि सेवाभावी छोटे कर्मचारियों को वे अपनी तरफ से कुछ राशि देना चाह रहे थे, लेकिन उन्होंने लेने से साफ तौर पर मना कर दिया। हाल यह है कि एम्स के कोरोना वार्ड भर चुके हैं। बावजूद मरीजों को और भर्ती करने के लिए प्रबंधन पर काफी दबाव रहता है। प्रदेश और देश के बड़े नेताओं के फोन घनघनाते रहते हैं। इससे प्रबंधन के लोग काफी परेशान देखे जा सकते हैं।
बैस की हसरत बाकी ही है
भाजपाध्यक्ष पद से हटाए जाने के बाद विक्रम उसेंडी की नाराजगी दूर करने की कोशिश हो रही है। उसेंडी की पसंद पर उनके गृह जिले कांकेर में सतीश लाठिया को अध्यक्ष बनाया गया। दिलचस्प बात यह है कि उसेंडी खुद प्रदेश अध्यक्ष रहते अपनी पसंद का अध्यक्ष नहीं बनवा पा रहे थे। उनके करीबी सतीश लाठिया का विरोध इतना ज्यादा था कि जिलाध्यक्ष के चुनाव को ही टालना पड़ा। लाठिया की नियुक्ति को उसेंडी को खुश करने की कोशिशों के रूप में देखा जा रहा है।
भाजपा के संगठन में हावी बड़े नेता अपने जिलेों में अपनी पसंद का अध्यक्ष बनवाने में कामयाब रहे हैं। जशपुर जिले में प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदेव साय की अनुशंसा पर रोहित साय की नियुक्ति की गई। गौरीशंकर अग्रवाल की पसंद पर बलौदाबाजार जिले में सनम जांगड़े की नियुक्ति की गई थी। ऐसे में अब दुर्ग और भिलाई जिलाध्यक्ष पद पर सुश्री सरोज पाण्डेय की पसंद को महत्व मिलने के आसार हैं।
रायपुर शहर और ग्रामीण अध्यक्ष पद के लिए सबसे ज्यादा किचकिच हो रही है। यहां सांसद सुनील सोनी, बृजमोहन अग्रवाल और राजेश मूणत की अपनी-अपनी पसंद है। यही नहीं, त्रिपुरा के राज्यपाल रमेश बैस भी दिलचस्पी ले रहे हैं। बैसजी चाहते हैं कि कम से कम ग्रामीण अध्यक्ष पद पर उनकी पसंद को महत्व मिले। संगठन के कर्ता-धर्ता उनकी राय को नजरअंदाज करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। भाजपा के एक नेता ने कहा, बैसजी की हसरत का कोई अंत नहीं है. और सारी हसरतें कुनबे के लिए हैं।
यह पुलिस की समझदारी नहीं है...
राखी के मौके पर छत्तीसगढ़ के कम से कम एक जिले राजनांदगांव की सडक़ों पर महिला पुलिस अधिकारी या कर्मचारी उन लोगों को राखी बांधते नजर आईं जो मास्क लगाए बिना सडक़ों पर थे। यह मामला कुछ गड़बड़ था। राखी का रिवाज तो बांधने वाली की अपनी हिफाजत के लिए रहता है कि बंधवाने वाला उसकी रक्षा करेगा। अब यहां जिसने खुद ही मास्क नहीं पहना है, वो खुद लापरवाह है, खतरे में है, वह भला राखी बांधने वाली की क्या हिफाजत करेगा?
यह बात एक दूसरे पैमाने पर भी गलत है कि कोई सामाजिक संदेश देने के लिए सरकारी कर्मचारियों का ऐसा इस्तेमाल किया जाए जो उन्हें खतरे में डाले। डब्ल्यूएचओ और भारत सरकार सहित दर्जनों संस्थाएं ऐसे चार्ट ट्वीट कर रही हैं कि एक व्यक्ति मास्क लगाए, और एक न लगाए, तो उन दोनों के बीच संक्रमण का खतरा कितना है। पुलिस कर्मचारियों को ऐसे संक्रमण के खतरे में डालना किसी तरह ठीक नहीं है। पुलिस छत्तीसगढ़ में अतिउत्साह में ऐसे बहुत से काम कर रही है। कुछ हफ्ते पहले हमने बस्तर में नक्सल मोर्चे पर 7 महीने के गर्भ वाली सुरक्षा कर्मचारी के बंदूक लिए जंगलों में ड्यूटी करने की ‘बहादुरी की कहानियों’ के खिलाफ लिखा था कि यह पुलिस के बड़े अफसरों की गलती है। अब राजनांदगांव, या कुछ और जिलों में भी अगर पुलिस ने ऐसा किया है, तो यह निहायत गलत बात है कि गैर जिम्मेदार लोगों को दो फीट की दूरी से राखी बांधना, और अपने को खतरे में डालना पुलिस का समझदारी का काम नहीं है। पुलिस की नीयत अच्छी हो सकती है, उसकी पहल तारीफ के लायक है, लेकिन यह काम नासमझी और गैरजिम्मेदारी का है।
एक पॉजिटिव, तो सोच नेगेटिव...
उद्योग विभाग के एक अफसर परिवार समेत कोरोना के चपेट में आ गए हैं। अफसर का दफ्तर तो शहर में ही है। जिस कॉम्पलेक्स में अफसर का दफ्तर है, वहां कई और सरकारी निगमों के दफ्तर भी हैं। लॉकडाउन के चलते बाकी दफ्तर तो बंद है, लेकिन कॉम्पलेक्स में निगमों के एक-दो दफ्तरों में काम चल रहा था। यहां एसीएस और प्रमुख सचिव स्तर के अफसरों का आना-जाना लगा रहता है। शहर के भीतर सरकारी कामकाज के लिए यहां का दफ्तर उपयुक्त है।
एक प्रमुख सचिव ने तो अस्थाई तौर पर एमडी के कक्ष में बैठकर फाइलें निपटाना भी शुरू कर दिया था। अब उद्योग अफसर और परिवार के कोरोनाग्रस्त होने की खबर आई, तो पूरे कॉम्पलेक्स में हडक़ंप मचा हुआ है। उद्योग अफसर भी काफी सक्रिय रहे हैं और लगातार बैठकों में उपस्थित रहते थे। अब जब उनके कोरोनाग्रस्त होने की खबर आई है, तो कुछ चिंतित अफसर अपना कोरोना टेस्ट कराने की सोच रहे हैं। फिलहाल तो दफ्तर आना छोड़ घर से काम निपटा रहे हैं।
इन्हें भजिये की तरह तला जा सके
चार दिन पहले छत्तीसगढ़ में वॉट्सऐप पर एक वीडियो तेजी से फैला जिसमें किसी एक अस्पताल-वार्ड में लेटे, खड़े, और घूमते हुए लोग दिख रहे थे जिनके पास शिकायतें ही शिकायतें थीं। जाहिर तौर पर वे कोरोना पॉजिटिव लोग दिख रहे थे, लेकिन उनमें कोई गंभीर मरीज नहीं थे, सारे पुरूष थे। इस वीडियो को यह लिखकर चारों तरफ फैलाया गया कि यह एम्स रायपुर का वीडियो है और वहां की यह बदहाली है। दो दिन के भीतर ही एम्स ने इस वायरल किए गए वीडियो को अपने अस्पताल का न होना बताया, और इससे एम्स का नाम जोडऩा एक फर्जी काम कहा। वैसे भी समझदार लोग इस वार्ड की हालत देखकर समझ सकते थे कि यह एम्स का नहीं हो सकता। दिक्कत यह है कि वॉट्सऐप कारोबार में समझदारी का चलन थोड़ा कम है, और लोग घटिया से घटिया अफवाह को तेजी से फैलाने का काम करते हैं। ऐसे में एम्स को बदनाम करना छत्तीसगढ़ के लोगों के लिए एक किस्म से नमकहरामी भी है। इसके इंतजाम से इस राज्य में कोरोना की मौतें होना शुरू नहीं हुआ, और जिसने राज्य सरकार का इंतजाम हो जाने तक जांच से लेकर इलाज तक का, और राज्य के स्वास्थ्य अधिकारियों, कर्मचारियों, और डॉक्टरों के प्रशिक्षण तक का जिम्मा अकेले उठाया, उसे गैरजिम्मेदारी से बदनाम तो कोई नमकहराम ही कर सकते हैं। एम्स ने ट्वीट करके इस वीडियो के साथ अपना नाम जोडऩा फर्जीवाड़ा कहा, लेकिन एम्स के ट्वीट की बहुत छोटी सी पहुंच है, उसके नाम पर फैलाए गए फर्जी वीडियो की पहुंच उससे लाखों गुना हो चुकी होगी, लेकिन यह अकेले एम्स का मामला नहीं है, यह तो वॉट्सऐप पर फैलने वाली हर अफवाह का मामला है कि सच जब तक जूते के फीते बांध पाता है, तब तक झूठ पूरे शहर का फेरा लगा आता है। खैर, सुना है कि नर्क और दोजख में एक कढ़ाही में गर्म तेल ऐसे ही नमकहराम लोगों के लिए खौलाते हुए रखा जाता है ताकि इनके वहां पहुंचते ही इन्हें भजिये की तरह तला जा सके।
मास्क न पहनना भारी पड़ा
प्रदेश में कोरोना तेजी से पांव पसार रहा है। पुलिस मास्क नहीं पहनने पर सख्ती दिखा रही है, लेकिन कई पढ़े-लिखे लोग भी कोरोना संक्रमण से सुरक्षा को लेकर बेपरवाह दिख रहे हैं। ऐसे ही बिना मास्क के मुलाकात करने आए एक उद्योगपति को केन्द्रीय कोयला मंत्री प्रहलाद जोशी की फटकार भी सहनी पड़ी।
हुआ यूं कि नया रायपुर के एक बड़े होटल में केन्द्रीय कोयला मंत्री, उद्योगपतियों से रूबरू हुए और उनकी समस्याओं का मौके पर ही निराकरण कर रहे थे। इसी बीच सिलतरा के एक उद्योगपति बिना मास्क लगाए ज्ञापन देने के लिए स्टेज पर चढ़ गए। उन्हें अपने करीब आता देख जोशी भडक़ गए और उन्हें तुरंत मंच से नीचे उतर जाने कहा। मास्क नहीं लगाने पर जमकर खरी-खोटी भी सुनाई। जोशी इतने नाराज थे कि उद्योगपति की बात भी नहीं सुनी।
सुनील सोनी मददगार
प्रदेश भाजपा के बड़े नेताओं को उम्मीद थी कि प्रहलाद जोशी राज्य सरकार के खिलाफ कुछ कहेंगे। एक दिन पहले जोशी को पार्टी की तरफ से कुछ फीडबैक भी दिया गया था। मगर जोशी ने सरकार के खिलाफ एक शब्द भी नहीं कहा बल्कि सीएम के साथ अपनी बैठक को सकारात्मक करार दिया। प्रहलाद जोशी के दौरे का विशेषकर राज्य के उद्योगपति काफी समय से इंतजार कर रहे थे। जोशी पूरे कोयला मंत्रालय को लेकर यहां आए थे और उनकी ज्यादातर समस्याओं का मौके पर ही निराकरण किया।
केन्द्रीय कोयला मंत्री ने सांसद सुनील सोनी को खास महत्व दिया। सोनी सभी बैठकों में जोशी के साथ रहे। जोशी ने उद्योगपतियों को यहां तक कहा कि यदि कोई बात हो, तो वे सुनील सोनी को बता सकते हैं, सोनीजी उनके संपर्क में रहते हैं। भाजपा के एक सीनियर विधायक ने भी प्रहलाद जोशी को कोयले से जुड़ी समस्याओं पर चर्चा की तो उन्हें भी इसी तरह का जवाब मिला। कुल मिलाकर यह नजर आया कि कोयला मंत्रालय से जुड़ी समस्याओं के निराकरण में सुनील सोनी मददगार हो सकते हैं।
चाय पीकर निकल गए
भाजपा के एक नेता को पार्टी के लोग आपसी चर्चा में नारद कहकर पुकारते हैं। वैसे तो नेताजी संगठन में हावी नेताओं के बेहद करीबी हैं, लेकिन वे पार्टी के भीतर हाशिए पर चल रहे नेताओं के बंगले में भी अक्सर आते-जाते रहते हैं। एक-दूसरे के बंगले की गतिविधियों को शेयर भी करते हैं। नेताजी(नारद) पिछले दिनों पार्टी के एक सीनियर आदिवासी नेता का हाल जानने उनके घर पहुंचे।
आदिवासी नेता ने नारद को देखकर बुरा सा मुंह बनाया लेकिन शिष्टाचारवश उन्हें बैठने के लिए कहा। नारद ने जैसे ही प्रदेश में पार्टी के दो सबसे बड़े नेताओं का नाम लेकर संगठन की गतिविधियों पर बातचीत शुरू ही की थी कि आदिवासी नेता बुरी तरह भडक़ गए और दोनों बड़े नेताओं का नाम लेकर गालियों की बौछार शुरू कर दी। आदिवासी नेता ने यहां तक कह दिया कि पार्टी की दुर्दशा के लिए दोनों ही जिम्मेदार हैं। आदिवासी नेता के तेवर इतने गरम थे कि नारद चुप रहे और किसी तरह चाय पीकर निकल गए।
बधाई इतनी भारी पड़ी !
भाजपा की दो महिला नेत्री शैलेंद्री परगनिया और मीनल चौबे, राज्य महिला आयोग की नवनियुक्त अध्यक्ष किरणमयी नायक को बधाई देकर फंस गई हैं। भाजपा के वॉटसएप ग्रुप में इसकी कड़ी आलोचना हो रही है। एक भाजपा नेता ने मैसेज पोस्ट किया कि किरणमयी नायक ने भाजपा के नेताओं के खिलाफ रात के 1 बजे तक लिखित शिकायत की थी। हाईकोर्ट में भाजपा नेताओं के खिलाफ भी याचिका लगाई है। ऐसी महिला के सम्मान के लिए पार्टी की महिला मोर्चा के पदाधिकारियों को जाना कहां तक उचित है।
इस नेता ने तो शैलेंद्री और मीनल के खिलाफ कार्रवाई तक की मांग कर दी है। दोनों महिला पदाधिकारियों को नई कार्यकारिणी में भी जगह मिलने की उम्मीद जताई जा रही है। मीनल का नाम तो नगर निगम में नेता प्रतिपक्ष के लिए भी प्रमुखता से उभरा है। पूर्व मंत्री राजेश मूणत इसके लिए अड़े हैं, मगर सुनील सोनी इससे सहमत नहीं है। कुल मिलाकर दोनों बड़े नेताओं के बीच टकराव के कारण नेता प्रतिपक्ष नियुक्ति नहीं हो पा रही है। अब मीनल के किरणमयी को बधाई देने पर जिस तरह पार्टी नेताओं की भृकुटी तनी है, उससे मीनल के नेता प्रतिपक्ष बनने का दावा कमजोर होता दिख रहा है।
क्रिकेट से नोट तक, लार वालों के लिए...
वैसे तो कोरोना से जुड़ी हुई कोई भी और बात लिखने का अब दिल नहीं करता, लेकिन लोगों की जान बचाने के लिए फिर भी कुछ लिखना जरूरी लगता है। जिन लोगों को दिन भर नोट गिनने की जरूरत पड़ती है, और जिनके पास इतने भी नोट नहीं रहते कि मशीन लगा लें, वे लोग आमतौर पर थूक से काम चलाते हैं। जो लोग अधिक आधुनिक हो गए हैं वे लोग प्लास्टिक की एक डिब्बी में स्पंज का एक टुकड़ा रखते हैं, और उसमें पानी रखकर गीले स्पंज पर उंगलियां नम करके उससे नोट गिनते हैं।
अब आज कोरोना के खतरे में इन दोनों में से कौन सा तरीका अधिक खतरनाक है, यह समझना मुश्किल है। कोई दुकानदार अपने नोटों को बैंक ले जाने के पहले थूक लगाकर गिने, और बैंक में कोई उसे थूक लगाकर गिने, तो दूरदर्शन के एक मशहूर गाने की तरह, मिले थूक मेरा तुम्हारा..., जैसा हो जाएगा। खैर, बैंक में तो अब मशीन से नोट गिनते हैं, लेकिन मशीनविहीन छोटे लोग अब भी हाथों से गिनते हैं, अब भी बहुत से लोग थूक लगाते हैं, या फिर डिब्बी का स्पंज टेबिल के चारों तरफ बैठे कोई भी लोग इस्तेमाल करते हैं। कोरोना को यह नजारा बहुत सुहाता है।
लेकिन खबरों में ये छोटी-छोटी बातें नहीं आतीं, और बड़ी-बड़ी खबरों में भी केवल क्रिकेट गेंदबाज का थूक आता है कि लार लगाए बिना गेंद कैसे की जाए? गेंदबाजों की लार से खबरें ऐसी गीली हैं कि अखबारों के पन्ने गीले हो जाएं, या टीवी पर खेल की खबरें देखते हुए मॉनीटर से लार टपकने लगे। जो भी हो लोगों को अपनी लार काबू में रखनी चाहिए क्योंकि अब तक तो लापरवाह लार लोगों के कपड़े ही गीले कर सकती थी, अब तो वह जान ले सकती है। इसलिए किताबें पढ़ते हुए या अखबार के पन्ने पलटते हुए अपनी लार पर काबू रखें, क्योंकि हो सकता है जरा ही देर पहले किसी और ने ही उसे पलटा हो या जरा देर बाद कोई और उन्हें पलटे। ऐसे में साथ पढ़ेंगे साथ मरेंगे जैसा साथ ठीक नहीं है।
सुरक्षा इंतजाम और आशंका
सत्ता या विपक्ष के बड़े नेता जिन्हें उनके सुरक्षा दर्जे की वजह से बहुत से सिपाहियों और जवानों के घेरे में रहना पड़ता है, वे एक अलग किस्म के तनाव से गुजर रहे हैं। रोज अखबारों में देखते हैं कि किस थाने या बटालियन के, किस सुरक्षा बल के जवान कोरोना पॉजिटिव निकले हैं, और उन जगहों के दूसरे लोग उनके साथ तो तैनात नहीं हैं?
इसी तरह ये सुरक्षा कर्मचारी भी लगातार तनाव में रहते हैं, और रोज खबरों में देखते हैं कि कौन-कौन से नेता कोरोना पॉजिटिव निकले हैं, और अपने ऊपर मंडराते खतरे को लेकर सहमे रहते हैं।
सुरक्षा इंतजाम परस्पर विश्वास पर भी टिका होता है, और आज कोरोना ने लोगों के मन में एक-दूसरे के लिए खासा शक पैदा कर दिया है कि कहीं दूसरे लोग कोरोना पॉजिटिव न हों। खासकर एक वजह से यह शक बढ़ते चल रहा है कि हिन्दुस्तान में एक बड़ी आबादी कोरोना पॉजिटिव होकर उससे उबर भी जा रही है, और उनमें से किसी तरह के लक्षण नहीं दिखते, इसलिए जांच भी नहीं होती। अगर जांच हुई होती, तो आसपास के लोग सावधान भी हुए होते, लेकिन न जांच न आसपास के लोगों के सावधान होने की कोई जरूरत। यह समझने की जरूरत है कि आप उतने ही सुरक्षित हैं जितने आपके आसपास के लोग सुरक्षित हैं। इसलिए महज अपना खयाल रखना काफी नहीं है, आसपास सबको चौकन्ना रखना जरूरी है।
नेताजी भांजा न बचा पा रहे..
पिछली सरकार में एक संस्थान के मुखिया रहे नेता के भांजे को कुछ दिन पहले दिल्ली पुलिस पकडक़र ले गई। नेताजी ने भांजे को हिरासत से बचाने की भरपूर कोशिश की और भाजपा के बड़े नेताओं से मदद भी मांगी। किंतु कुछ नहीं हुआ।
सुनते हैं कि नेताजी के भांजे का हवाला का कारोबार है। एक व्यापारी जो कि चीन से सामान मंगाते हैं, उन्होंने कुछ भुगतान हवाला के जरिए किया था। हाल के दिनों में चीन के साथ संबंध तनावपूर्ण हैं। ऐसे में चीन से आयातित सामानों की काफी जांच-पड़ताल हो रही है। अब जांच का दायरा बढ़ गया है, तो नेताजी के भांजे भी हत्थे चढ़ गए। नेताजी को दुख इस बात का है कि पार्टी के लोग भी मुसीबत में साथ नहीं दे रहे और छिटक गए हैं।
कुछ तेज संसदीय सचिव
सरकार ने संसदीय सचिवों की नियुक्ति तो कर दी है। मगर ज्यादातर को अपने विभाग के प्रमुख अफसरों से मेल-मुलाकात का मौका तक नहीं मिल पाया है। दो संसदीय सचिव काफी तेज निकले। आदिवासी इलाके के एक संसदीय सचिव ने तो लॉकडाउन के बीच एक निगम के दफ्तर में अपने लिए कमरा तैयार करवा लिया है।
लॉकडाउन के चलते मंत्रालय-सचिवालय और निगम के दफ्तर भले ही बंद हैं, लेकिन संसदीय सचिव नियमित अपने कक्ष में बैठते हैं। वे अफसरों की मीटिंग भी लेते हैं। संसदीय सचिव राजनीति में आने से पहले ठेकेदार थे। वे निर्माण कार्यों की बारीकियों से परिचित हैं। भले ही संसदीय सचिवों को फाइल पर हस्ताक्षर करने का अधिकार नहीं है, लेकिन उनके विभाग के मंत्री ने उन्हें फ्री हैंड दे रखा है। यही वजह है कि अनिच्छा के बावजूद अफसरों को संसदीय सचिव को फाइल का अवलोकन कराना पड़ रहा है।
दूसरे संसदीय सचिव को तो राज्य बनने के बाद से पिछली और वर्तमान सरकार में नियुक्त सभी संसदीय सचिवों से ज्यादा तेज माना जा रहा है। उनका रूतबा ऐसा है कि पहले दिन ही विभाग के सीनियर अफसर उनके आगे-पीछे होते देखे गए। संसदीय सचिव की सक्रियता से मंत्री के स्टाफ के लोग असहज दिख रहे हैं।
अध्यक्ष के क्वारंटीन पर जाने से...
मोहन मरकाम होम क्वारेंटीन पर हैं। उन्हें 14 दिन मुलाकातियों से दूर रहना पड़ेगा। मरकाम के क्वारेंटीन पर रहने से कांग्रेस के वे नेता टेंशन में है, जो कि निगम मंडलों की दौड़ में थे। उनकी गैरमौजूदगी में नाम तय करने के लिए बैठक होने की संभावना कम है। वैसे एक बैठक हो चुकी है। इसमें कुछ नाम तय भी किए गए हैं। बाकी नाम तय होने के बाद वे सूची लेकर दिल्ली जाने वाले थे, लेकिन अब नहीं जा पाएंगे। प्रदेश प्रभारी पीएल पुनिया का भी दौरा कुछ समय के लिए टल गया है। ऐसे में निगम मंडलों की दूसरी सूची जारी होने में विलंब हो सकता है। ऐसे में पिछले 18 महीने से निगम मंडलों में जगह पाने की उम्मीद पाले नेताओं में मायूसी स्वाभाविक है।
महासमुंद पुलिस की मेहनत
छत्तीसगढ़ का ओडिशा के रास्ते गांजा आने-जाने का पता नहीं क्या चक्कर है कि आए दिन महासमुंद जिले में गाड़ी घुसते ही पकड़ में आ जाती है। ओडिशा सरहद का यह जिला कभी उस रास्ते कार में छुपाकर लाई गई दसियों लाख की नगदी जब्त करता है, तो कभी मिनी ट्रक भरकर गांजा। अभी नकली नोट छापने या चलाने वालों को जिस तरह से महासमुंद पुलिस ने गिरफ्तार किया है, और 21 लाख रूपए के नकली नोट बरामद किए हैं, वह भी एक बड़ा भांडाफोड़ रहा। पहली बार एसपी बने प्रफुल्ल ठाकुर जिला मिलने के बाद खासी मेहनत करते दिख रहे हैं।
गांजे का इतिहास हजारों बरस पुराना
लेकिन गांजा एक दिलचस्प चीज है। कुछ बरस पहले तक गांजा कानूनी था, और आबकारी विभाग दारू की दुकानों की तरह गांजा-भांग की दुकानें भी नीलाम करता था। बाद में गांजा गैरकानूनी कर दिया गया तो बिक्री बंद हो गई, लेकिन हिन्दुस्तान में सदियों से चली आ रही गांजे की परंपरा कानून की वजह से खत्म नहीं हो पाई है। यहां तो मंदिरों में साधुओं के अलावा आम लोग भी बैठकर चिलम भरकर गांजा पी लेते हैं, और इसे धार्मिक रिवाज से जोड़ दिया गया है, सन्यास से जोड़ दिया गया है। अब इतना गांजा कहां से आता है, कहां जाता है, और इतने थोक में पकड़ाने के बाद गिरफ्तारियों और गाडिय़ां जब्त होने के बाद भी यह धड़ल्ले से कैसे चल रहा है, यह हैरानी की बात है। क्या इतनी गिरफ्तारियां भी इस धंधे में लगे लोगों के मुकाबले बहुत कम हैं?
एम्स में इलाज के लिए केन्द्रीय मंत्री का फोन
रायपुर में एकाएक कोरोना का प्रकोप बढ़ गया है। एम्स और अंबेडकर अस्पताल तकरीबन फुल हो गए हैं। ज्यादातर मरीज एम्स में ही भर्ती होना चाहते हैं। इसके चलते प्रबंधन पर काफी दबाव रहता है। ऐसे ही एक हाई प्रोफाइल संत-परिवार के पांच सदस्य कोरोना के चपेट में आ गए हैं। स्वास्थ्य विभाग ने सभी को अंबेडकर अस्पताल ले जाने की तैयारी कर ली थी। मगर संत-परिवार के लोग नहीं माने।
ये एम्स छोडक़र कहीं और नहीं जाना चाहते थे। एम्स प्रबंधन ने बेड नहीं होने का कारण बताकर भर्ती करने में असमर्थता जताई। इसके बाद संत ने केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन को फोन लगा दिया। इसके बाद केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने एम्स प्रबंधन को फोन किया तब कहीं जाकर एम्स प्रबंधन ने संत-परिवार के लिए किसी तरह बेड का इंतजाम कर भर्ती किया।
संत खुद कोरोना संक्रमित हैं। उनके कोरोना के चपेट में आने की कहानी कम दिलचस्प नहीं है। सुनते हैं कि संतजी के एक-दो अनुयायी सबसे पहले कोरोना संक्रमित हुए। ये लोग स्वास्थ्य लाभ के लिए संतजी के पास गए और आशीर्वाद लिया। फिर क्या था, संतजी भी कोरोना के चपेट में आ गए।
लोग प्रतिबंध को इलाज समझते हैं
सरकारों में शहर और जिले के स्तर के छोटे-छोटे बहुत से फैसले अफसर खुद लेते हैं। और सत्ता चलाने वाले निर्वाचित नेता भी अक्सर उनकी बात मान लेते हैं। अफसरों को सबसे आसान तरीका प्रतिबंध का लगता है। बहुत सारी चीजों पर प्रतिबंध लगा दिया जाए, तो उन्हें यह भी लगता है कि उनके हाथ कई तरह के अधिकार हैं, और उन्हें ताकत महसूस होती है। अभी छत्तीसगढ़ में लॉकडाऊन का एक और दौर चल रहा है। अधिकतर काम बंद कर दिए गए हैं, बाजार भी बंद कर दिए गए हैं। बकरीद और राखी, दो बड़े त्यौहार एक साथ आ रहे हैं, इसलिए नेताओं की मांग पर अफसरों ने बाजारों को कुछ घंटे खोलने की छूट दे दी है। नतीजा यह होने जा रहा है कि इन तमाम दुकानों पर अंधाधुंध भीड़ लगेगी, लोगों में धक्का-मुक्की होगी, और लॉकडाऊन का मकसद मारा जाएगा। जिस कोरोना-संक्रमण को कम करने के लिए लॉकडाऊन बढ़ाया जा रहा है, उसका बढऩा ऐसे सीमित घंटों की वजह से तय है। जिन चीजों की दुकानों को खुलने देना है, उन्हें अधिक से अधिक घंटों के लिए, या कम से कम काफी घंटों के लिए खुलने देना चाहिए, ताकि वहां पर धक्का-मुक्की की भीड़ न हो।
कोरोना को शिकार मिल रहे एक साथ
आज छत्तीसगढ़ के जिन शहरों में लॉकडाऊन के तहत बाजार बंद करवाए गए हैं, और दारू दुकानें भी बंद हैं, उन शहरों की सीमा से लगकर जो शराब दुकानें खुली हैं, उन शराब दुकानों पर भीड़ की हालत देखें तो लगता है कि वहां कोरोना को भी ओवरटाईम करना पड़ रहा होगा। यह लगता है कि कोरोना को शराब दुकानों से परे और कहीं जाने की जरूरत भी नहीं है क्योंकि वहां उसे उसकी क्षमता से अधिक शिकार आसानी से हासिल हैं। यह पूरा खतरनाक सिलसिला बाकी लोगों को भी खतरे में डाल रहा है क्योंकि जिस शराब के मोह में नशेड़ी-भीड़ कोरोना से बेपरवाह होकर धक्का-मुक्की कर रही है, वह पीने के बाद क्या नहीं करेगी। इसलिए कोरोना से बचाव और दारू, इन दोनों का साथ-साथ चलना मुमकिन नहीं है। दिक्कत यह है कि 15 बरस की भाजपा सरकार ने भी दारू के धंधे को ऐसी फौलादी पकड़ में जकड़ रखा था कि पत्थर से भी तेल निकाला जा रहा था। इसलिए अब कांग्रेस सरकार को कुछ कहने का मुंह भाजपा के बहुत से लोगों का तो रह भी नहीं गया है। कुल मिलाकर जहां प्रतिबंध नहीं रहनी चाहिए, वहां जरूरी सामानों की दुकानें खुलने पर प्रतिबंध लगाए गए हैं, और जिस दारू पर प्रतिबंध लगना चाहिए, उस दारू पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाए गए हैं। इस कॉम्बिनेशन को कोरोना बहुत पसंद कर रहा है।
पोस्ट न सही, जिले मिले
प्रमुख सचिव डॉ. मनिन्दर कौर द्विवेदी को कृषि विभाग से हटने के बाद अभी तक नई पोस्टिंग नहीं मिल पाई है। अलबत्ता, उन्हें महासमुंद और गरियाबंद जिले का प्रभारी सचिव बनाया गया है। वे काफी पहले महासमुंद कलेक्टर रह चुकी हैं। प्रभारी सचिव को महीने में एकाध बार जिले का चक्कर लगाकर सरकारी योजनाओं का हाल जानना होता है और इसकी रिपोर्ट सीएस को देनी होती है। ज्यादातर प्रभारी सचिव तो यह भी नहीं करते हैं। मगर आईएएस के 95 बैच की अफसर मनिन्दर कौर द्विवेदी की गिनती तेज तर्रार और काबिल अफसरों में होती है। ये अलग बात है कि मंडी बोर्ड की जमीन के ट्रांसफर में देरी को लेकर उन्हें सीएम का कोपभाजन बनना पड़ा था और उन्हें कृषि के साथ-साथ ग्रामोद्योग विभाग के दायित्व से भी मुक्त कर दिया गया था ।
अब जब उनके पास विशेष काम नहीं है, तो वे फिलहाल अपने सरकारी बंगले में गार्डर्निंग का शौक पूरा कर रही हैं। अच्छे अफसरों को सरकार वैसे भी ज्यादा समय तक खाली नहीं रखती। देर सबेर उन्हें कोई विभाग मिल ही जाएगा, तब तक शौक पूरा कर लेना अच्छा है।
हिन्दुस्तानी बचे तो कैसे बचे?
कोरोना से बचने के लिए दुनिया भर में डॉक्टरी सलाह यह है कि लोग अपना हाथ अपने चेहरे तक भी न ले जाएं क्योंकि हाथ तो कई तरह की चीजों को छुएगा ही, वैसा हाथ चेहरे तक न पहुंचे तो कोरोना का खतरा कम रहेगा। डॉक्टरों का यह भी कहना है कि घर के बाहर चेहरे पर मास्क पूरे समय लगे रहना चाहिए, और मास्क को भी बार-बार हाथ नहीं लगाना चाहिए। यह पूरा सिलसिला हिन्दुस्तानियों के लिए कई दूसरे देश वालों के मुकाबले अधिक मुश्किल है। इसलिए कि दुनिया में कम ही देश होंगे जहां हिन्दुस्तानियों की तरह पान, सुपारी, और गुटखा चबाया जाता है। इनको चबाते-चबाते दांतों की हालत ऐसी हो जाती है कि उनके जोड़ों में सुपारी-पान पत्ता फंस ही जाते हैं। किसी भी पानठेले पर देखें तो लोग किसी तीली से दांतों के जोड़ साफ करते दिखते हैं। अब उसके लिए लकड़ी की टूथपिक चल निकली हैं, और फ्लॉस भी। और इनकी आदत ऐसी रहती है कि छूटती नहीं। सार्वजनिक जीवन में बहुत से ऐसे मंत्री और नेता हैं जो भरी बैठक में भी चांदी की एक डंडी से, या किसी गुटखे के खाली पाऊच को मोडक़र दांतों से सुपारी निकालते रहते हैं। इनके बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन भी कोई रास्ता नहीं निकाल सकता क्योंकि वह तो चेहरे तक भी हाथ ले जाने के खिलाफ है, मुंह के भीतर लार तक जाने वाले हाथ की तो वह कल्पना ही नहीं करता।
अब सरकार का नया हुक्म...
फिर आज भारत सरकार का एक और आदेश आ गया है कि लोगों को बार-बार सेनेटाइजर से हाथ साफ नहीं करना चाहिए, जहां तक मुमकिन है पानी और साबुन से ही हाथ धोना चाहिए। सरकार ने सेनेटाइजर के अधिक इस्तेमाल के खतरे गिनाएं हैं। अब सवाल यह है कि मेडिकल साईंस के पास कोरोना के खतरे के बीच दांत कुरेदने की लत का कोई भी इलाज नहीं है, कोई भी रास्ता नहीं है कि लोग अपनी इस आदत के साथ-साथ महफूज भी रह जाएं।
थोड़ी देर में हाथ कांपते हैं...
और जहां तक सेनेटाइजर से हाथ साफ करने की बात है तो कई लोग मनोविज्ञान की भाषा में दहशत में एक नई लत का शिकार हो गए हैं, उन्हें वायरस का फोबिया हो गया है, और वे अगर थोड़ी देर सेनेटाइजर हाथों पर नहीं लगाते, तो उन्हें अपने पर खतरा मंडराते दिखता है। लोग ऐसे ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर के शिकार होते जा रहे हैं। ऐसे में सोशल मीडिया पर एक ने बहुत मजे की बात लिखी- सेनेटाइजर से अल्कोहल की वजह से मेरे हाथ ऐसे अल्कोहोलिक (नशे के आदी) हो चुके हैं कि कुछ देर अगर सेनेटाइजर न मिले, तो हाथ कांपने लगते हैं। अब ऐसे माहौल में हिन्दुस्तानी आदतों के साथ पान-सुपारी और तम्बाखू कैसे जारी रह सकता है, और कैसे कोरोना से बचा जा सकता है, यह तरीका ढूंढना कोरोना की वैक्सीन ढूंढने के मुकाबले भी अधिक मुश्किल है।
मंत्रालय भी गरीब और अमीर !
वैसे तो केन्द्र सरकार में राज्य से सिर्फ रेणुका सिंह ही मंत्री हैं मगर कई मंत्री ऐसे हैं, जिनका छत्तीसगढ़ से सीधा नाता रहा है। ये छत्तीसगढ़ भाजपा के प्रभारी अथवा चुनाव प्रभारी रहे हैं। इनमें राजनाथ सिंह, धर्मेन्द्र प्रधान और रविशंकर प्रसाद शामिल हैं। ये मंत्री प्रदेश के छोटे-बड़े नेताओं से परिचित हैं और प्रदेश से जब कोई नेता उनसे मुलाकात के लिए जाते हैं, तो वे अच्छी खातिरदारी भी करते हैं। पिछली सरकार में विष्णुदेव साय भी मंत्री थे और वे भी प्रदेश से लोगों की आवभगत में कोई कमी बाकी नहीं रखते थे।
विष्णुदेव साय भले ही राज्यमंत्री थे, लेकिन उनके पास इस्पात जैसा भारी भरकम महकमा था। लिहाजा एनएमडीसी और सेल के ऑफिस से साय के लोगों के लिए खाने-पीने का बंदोबस्त हो जाता था। मगर केन्द्र में पहली बार की एक मंत्री को अपने लोगों को खुश करना भारी पड़ गया। हुआ यूं कि मंत्री के यहां कुछ महीने पहले क्षेत्र के लोग दिल्ली पहुंचे थे। क्षेत्र के लोग आए हैं, तो स्वाभाविक है कि खाने-पीने की व्यवस्था की जिम्मेदारी भी मंत्री स्टॉफ की थी। खाने-पीने का बिल भी दो लाख से अधिक पहुंच गया। मंत्री स्टॉफ ने बिल मंत्रालय भेज दिया।
दो दिन बाद मंत्रालय से जवाब आ गया कि इतनी बड़ी राशि के भुगतान की व्यवस्था नहीं है। मंत्री के स्टाफ के लोग काफी दिनों तक मंत्रालय के लोगों को मनाने की कोशिश करते रहे, लेकिन मंत्रालय के लोग टस से मस नहीं हुए। आखिरकार मंत्री ने मंत्रालय के प्रमुख लोगों को बुलाया और निवेदन किया कि कोई रास्ता निकालें क्योंकि रोज होटलवाला बिल लेकर पहुंच जाता है।
मंत्रालय के लोगों ने काफी मंथन के बाद रास्ता निकाला कि खाने-पीने के बिल को चाय-नाश्ते में बदल दिया जाए। दिक्कत यह भी थी कि दो लाख की चाय के बिल भुगतान से जांच-पड़ताल का खतरा पैदा हो सकता था। इसलिए टुकड़े-टुकड़े में बिल का भुगतान करने का निर्णय लिया गया। मंत्रीजी के स्टॉफ को भी नसीहत दी गई है कि गरीबों का मंत्रालय है, इसलिए 20-25 हजार महीने से ज्यादा की आवभगत न करें। मंत्रीजी को भी बात समझ में आ गई और उन्होंने अब क्षेत्र के लोगों को दिल्ली आने के लिए कहना बंद कर दिया है।
मन में बहुत ही उत्साह हो तो...
छत्तीसगढ़ में निगम-मंडल की कुर्सियों पर बिठाए गए लोग पदभार लेते समय कम से कम विभागीय मंत्री, संभव हो सके तो मुख्यमंत्री, कई दूसरे मंत्री, मुख्यमंत्री के सलाहकार, और दूसरे बड़े नेताओं की मौजूदगी की कोशिश कर रहे हैं। यह एक किस्म से शक्ति प्रदर्शन भी हो जाता है, और बड़े नेताओं को महत्व देना भी। लेकिन इन मौकों पर एक-दूसरे को मिठाई खिलाना, आसपास खड़े रहना, मास्क उतारकर मजाक करना, खतरनाक भी होते चल रहा है। कुछ लोग पदभार सम्हालते हुए कोई दावत नहीं रख पा रहे हैं कि पन्द्रह बरस तो लोगों के यहां दावत खाई ही है, और आज जब खुशी की घड़ी आई है, तो लोगों को कैसे न बुलाएं।
कुछ लोग इस खुशी में मिठाई भेज रहे हैं, तो कुछ दूसरे लोग उन्हें यह समझा रहे हैं कि इन दिनों बहुत से लोग बाहर से आई हुई मिठाई खाने से परहेज कर रहे हैं, वे डिब्बे या तो दूसरों में बांट दे रहे हैं, या गाय-कुत्तों को खिला दे रहे हैं। किसी ने सुझाया कि मिठाई की जगह मेवे के डिब्बे भेजना ठीक रहेगा जिन्हें लोग कुछ दिन धूप में रखने के बाद घर में ले सकेंगे, और खा भी सकेंगे। लेकिन फिर यह बात उठी कि अभी तो निगम-मंडल का हिसाब भी नहीं देखा है, अभी से मेवे जैसा पैसा आएगा कहां से? ऐसे में उन कुछ समझदार लोगों का भला हो जिन्होंने खुद फोन करके नए बने अध्यक्षों को कह दिया कि मेहरबानी करके मिठाई न भेजें क्योंकि वे अपने घर बाहर का बना कुछ आने नहीं दे रहे हैं। फिलहाल समझदारी इसी में है कि न तो भीड़ इक_ा होने दें, और न ही मिठाई खाएं-खिलाएं, या घर भेजें। खुशी मनाने की पुरानी शैली को अब बदलना पड़ेगा। एक पुराने पत्रकार ने अपने करीबी एक नए अध्यक्ष बने नेता से कहा- एक काम करना, मन में बहुत ही उत्साह हो तो नगदी भेज देना...।
पार्टियों का सिलसिला जारी...
लॉकडाउन की धज्जियां उड़ाने में दौलतमंद और पढ़ा-लिखा तबका पीछे नहीं है। ऐसे ही राजधानी रायपुर की सबसे महंगी कॉलोनियों में से एक लॉ विस्टा के रहवासियों को कोरोना के खतरे को नजरअंदाज कर पार्टी करना भारी पड़ गया। कॉलोनी में पिछले कई दिनों से अलग-अलग लोगों के यहां पार्टी हो रही थी। इन्हीं पार्टियों में शामिल एक की कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आ गई। इसके बाद से कॉलोनी में हडक़ंप मचा हुआ है। बात यहीं खत्म नहीं हुई। दो दिन पहले कॉलोनी में एक के यहां मारवाड़ी समाज का तीज मिलन कार्यक्रम था।
तीज मिलन में भी इन्हीं पार्टी में शामिल रहने वाली महिलाओं को आमंत्रित किया गया था। इस दौरान खूब जश्न हुआ। अब जब एक की कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आ गई है, तो सभी पुरूष और महिलाओं को होम आइसोलेशन में रहने कहा गया है। कुछ लोग तो यहां भी भाठागांव की तर्ज पर कोरोना विस्फोट होने की आशंका जता रहे हैं। फिलहाल तो सभी को कोरोना टेस्ट कराने की सलाह दी गई है।
दूसरी तरफ, लॉकडाउन के बावजूद कई जगहों पर धड़ल्ले से पार्टियां चल रही हैं। शंकर नगर सिंधी पंचायत ने तो बकायदा वाट्सएप मैसेज भेजकर समाज के लोगों को पार्टियों से दूर रहने की सलाह दी है। शदाणी दरबार से जुड़े दर्जनभर से अधिक लोग कोरोना की चपेट में आ चुके हैं। यह सब देखकर सिंधी पंचायत ने कहा है कि कोरोना से समाज के कई लोग पीडि़त हैं। दो लोगों की मृत्यु हो चुकी है। ऐसे में अपने और परिवार के लोगों को सुरक्षित रखने के लिए घर से बाहर न निकले। कल रात राज्य सरकार की जो लिस्ट बनी है, उसमें भी रायपुर के एक सिंधी परिवार के 6 लोगों के नाम कोरोना पॉजिटिव हैं।
कल ही रायपुर पुलिस ने रायपुर में खम्हारडीह स्टील सिटी में दारू-पार्टी करते जवान लडक़े-लड़कियां पकड़ाए। केरल की तरह मोटा जुर्माना न लगे तब तक कुछ नहीं होगा।
पंजाब पर चिकन को भरोसा होगा?
हिन्दुस्तान में अक्सर आबादी के एक बड़े हिस्से को शाकाहारी साबित करने की कोशिश की जाती है। लेकिन भारत सरकार के आंकड़े कुछ और बताते हैं। ऐसे पिछले आंकड़े 2014 में इक_ा हुए थे और उनके हिसाब से हिन्दुस्तान का नक्शा बड़ा दिलचस्प बनता है। इंडिया इन पिक्सेल्स नाम की संस्था ने भारत सरकार के आंकड़ों से यह नक्शा बनाया है जिसमें अधिक शाकाहारी राज्य हरे दिख रहे हैं, और अधिक मांसाहारी राज्य लाल दिख रहे हैं। इसके मुताबिक राजस्थान 75 फीसदी शाकाहारियों के साथ सबसे हरा है, और उसके तुरंत बाद 70 फीसदी पर हरियाणा, 67 फीसदी पर पंजाब (हालांकि मुर्गियां इन आंकड़ों पर भरोसा नहीं करेंगी), 61 फीसदी पर गुजरात, 53 फीसदी पर हिमाचल, 51 फीसदी पर मध्यप्रदेश, और फिर 47 फीसदी पर यूपी वगैरह...
दूसरी तरफ मध्यप्रदेश से अलग हुआ छत्तीसगढ़ खानपान में भी मध्यप्रदेश से एकदम अलग है। जहां आज के मध्यप्रदेश में 51 फीसदी शाकाहारी हैं, छत्तीसगढ़ में कुल 18 फीसदी शाकाहारी हैं। लेकिन मांसाहारी बहुलता वाले राज्यों में 1.3 फीसदी शाकाहारियों वाला तेलंगाना है, उसके नीचे बंगाल है जहां कुल 1.4 फीसदी शाकाहारी हैं, इससे जरा ऊपर 3 फीसदी शाकाहारियों वाला केरल है। छत्तीसगढ़ से लगा हुआ झारखंड 3 फीसदी शाकाहारियों वाला है, और ओडिशा में 2.6 फीसदी ही शाकाहारी हैं। दक्षिण भारत से लेकर बंगाल, छत्तीसगढ़, और बिहार के मुकाबले असम अधिक शाकाहारी है जहां 20 फीसदी लोग मांस नहीं खाते। अब इस नक्शे को देखकर अंदाज लगाया जा सकता है कि देश का कुल 29 फीसदी हिस्सा शाकाहारी है, और कर्नाटक से लेकर तमाम उत्तर-पूर्व तक के राज्य कश्मीर और लद्दाख से भी बहुत ही कम शाकाहारी हैं, उनसे बहुत अधिक मांसाहारी हैं।
वीआईपी सिंड्रोम के शिकार बेचारे..
रायपुर में कोरोना तेजी से पांव पसार रहा है, और एम्स के साथ राज्य सरकार के चिकित्सा संस्थान के लोग नियंत्रण के लिए भरपूर कोशिश कर रहे हैं। मगर राजनीतिक दलों और प्रभावशाली के लोगों के आगे ये कोरोना योद्धा धीरे-धीरे पस्त पड़ रहे हैं। ऐसे ही एक कोरोना मरीज भाजपा नेता की उटपटांग हरकतों से परेशान होकर एम्स प्रबंधन ने थाने में शिकायत की तैयारी कर ली थी।
दरअसल, कोरोना मरीज भाजपा नेता की नियमों को नजरअंदाज कर लापरवाही बरतने से कई और लोगों के संक्रमण का खतरा पैदा हो गया था। नर्सिंग स्टॉफ ने उन्हें समझाइश देने की कोशिश की, तो केन्द्र में अपनी सरकार होने का हवाला देकर बदसलूकी करने लगा। इसके बाद एम्स प्रबंधन ने कड़ा रूख अपनाया और थाने में रिपोर्ट लिखाने की तैयारी कर ली थी। तभी एम्स से जुड़े एक बड़े भाजपा नेता ने हस्तक्षेप किया और प्रबंधन से जुड़े लोगों से थाने में शिकायत नहीं करने के लिए मान-मनौव्वल की। बाद में कोरोना पीडि़त भाजपा नेता ने एम्स के नर्सिंग स्टॉफ से माफी मांगी, तब कहीं जाकर मामला शांत हुआ।
ऐसे ही रायपुर शहर के एक पूर्व पार्षद परिवार के सदस्य की कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आ गई। स्वास्थ्य अफसरों ने परिवार के लोगों को हिदायत दी कि एम्बुलेंस आने का इंतजार करें, और घर से बाहर न निकलें । चूंकि एक दिन में दो सौ से अधिक मरीज आ गए थे। एम्स, अंबेडकर और अन्य अस्पतालों की एम्बुलेंस, कोरोना मरीजों को लाने में जुटी रही। पूर्व पार्षद परिवार को एम्बुलेंस का देर से आना बर्दाश्त नहीं हो पा रहा था। पूर्व पार्षद ने तो अपने करीबी लोगों को मैसेज कर दिया कि यदि उन्हें या उनके परिवार को कुछ हुआ, तो इसके लिए राज्य सरकार जिम्मेदार होगी।
बड़े लोगों से डरता है कोरोना?
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में जिस रफ्तार से कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं, उस रफ्तार से लोगों में चौकन्नापन नहीं बढ़ रहा है। लोग निश्ंिचत हैं कि उन्होंने कोई इतने गलत काम तो किए नहीं हैं कि उन्हें कोरोना हो। फिर कोरोना भी यह तो देखेगा ही कि उनकी ताकत क्या है, वे कितने बड़े हैं, कितने संपन्न हैं, कितनी बड़ी गाड़ी में चल रहे हैं, कितने महंगे हैंडवॉश इस्तेमाल कर रहे हैं, उनके मास्क और सेनेटाइजर ब्रांडेड में भी सबसे महंगे वाले है। इस सोच के चलते अब गरीब और मजदूर बस्तियों से निकलकर कोरोना बड़ी कॉलोनियों तक पहुंच गया है जहां सुबह और रात में टोली बनाकर घूमने निकलने वाले करोड़पति हॅंसी-ठठ्ठा करते चलते हैं, और मास्क तो लगाते नहीं क्योंकि उन्हें मालूम है कि कोरोना को उनकी हैसियत पता है। ऐसी ही एक कॉलोनी में ऐसी ही टोली में रोज साथ घूमने जाने वाले एक कारोबारी को कोरोना पॉजिटिव पाया गया, और अस्पताल ले जाया गया, तो अगली सुबह घूमने वाली टोलियां इसी की बात करती रहीं, लेकिन मास्क से परहेज जारी था। इसके दो दिन बाद जब लॉकडाऊन शुरू हुआ, तो रात को घूमने निकली टोलियां तेज रफ्तार से वापिस लौटते दिखीं कि आगे पुलिस पहुंच गई है, और लोगों को लौटा रही है। इस हॅंसी-मजाक के बीच भी मास्क नहीं था जिसके न रहने पर छत्तीसगढ़ में सौ रूपए जुर्माना है, और केरल में 10 हजार रूपए। जब सरकार की ही दिलचस्पी मास्क लागू करवाने में न हो, तो पुलिस की जान-जोखिम में डालकर लापरवाह लोगों से सौ-सौ रूपए लिए जा रहे हैं, जो कि पुलिस पर होने वाले सरकारी खर्च से भी कम हैं।
अब जगह-जगह मणिकर्णिका?
जिन लोगों को अब तक कोरोना की गंभीरता समझ में नहीं आ रही है, उन्हें हैदराबाद का आज पोस्ट किया गया (इस अखबार की वेबसाईट पर भी) वीडियो देखना चाहिए कि वहां श्मशान में एक साथ 50 कोरोना-मृतक जल रहे हैं। इसके पहले तक तो ऐसा हाल सिर्फ बनारस के मणिकर्णिका घाट के बारे में सुनने मिलता था कि वहां कभी चिताएं जलना बंद नहीं होता, अब हैदराबाद से कुछ वैसा ही नजारा देखने मिला है। बीती रात रायपुर में एक सक्रिय पत्रकार ने इस शहर और प्रदेश में कोरोना के बढ़ते मामलों के बारे में अपनी जानकारी बताई कि अब सरकार को जितनी मेहनत अस्पतालों पर करनी है, उतनी ही मेहनत श्मशान-कब्रिस्तान पर भी करनी चाहिए।
सावधानी और फैशन साथ नहीं...
कोरोना से बचने के लिए कैसी सावधानी बरती जाए इस बारे में दुनिया भर के तजुर्बेकार डॉक्टर तरह-तरह की सावधानी सुझा रहे हैं। इसमें से एक तो यह है कि लोग कम से कम सामान पहनकर निकलें। हाथों में चूड़ी, अंगूठी या घड़ी, फिटनेस बैंड न रहे तो बेहतर क्योंकि इनको पूरे वक्त हाथों की तरह सेनेटाईज करना मुमकिन नहीं होता। एक डॉक्टर का कहना है कि नाखूनों को लंबा रखना या नाखूनों पर नेलपॉलिश रखना भी खतरनाक है क्योंकि उनकी भी अधिक सफाई मुमकिन नहीं है। यह बात सुनने में फैशन के शौकीन लोगों को बुरी लग सकती है कि नाखून लंबे न रखे जाएं, और नेलपॉलिश न किया जाए जो कि उधड़ते ही रहता है, और वैसी सतह कोरोना के लिए सोफा जैसी होती है।
इसके अलावा गले में चेन या लॉकेट पहनना भी छोडऩा चाहिए क्योंकि उसकी बारीक डिजाइन को दिन में कई बार सेनेटाईज करना संभव नहीं है, और सामने बोलने वाले जब थूक उड़ाते हैं तो सबसे पहले सामने वाले के चेहरे के आसपास संक्रमण पहुंचता है।
जब मुखिया ने कृषि मंत्री को दिलवाया करेला !
एक पुरानी और प्रचलित कहावत है करेला ऊपर से नीम चढ़ा। इसका आशय हम सभी अच्छी तरह से जानते हैं और अक्सर हम इसका उपयोग भी करते हैं। पिछले दिनों सूबे के मुखिया अपने सरकारी निवास से गोबर खरीद योजना की लांचिंग कर रहे थे। उस दौरान मुखिया के सरकारी आवास का पूरा वातावरण छत्तीसगढ़ीमय था। यहां गोबर खरीद के साथ हरेली उत्सव का भी कार्यक्रम रखा गया था। लिहाजा ग्रामीण इलाके से बड़ी संख्या में लोग आए हुए थे। इस दौरान मुख्यमंत्री को ऑर्गनिक तरीके से उगाई गई सब्जी-भाजी महिलाओं ने भेंट की। जिसमें तमाम तरह की देसी साग-भाजी की टोकरी थी। महिलाओं ने बड़े सलीके से अपने मुखिया को सब्जी की टोकरी उपहार स्वरुप भेंट की। इस दौरान राज्य के कृषि मंत्री भी मौजूद थे। सबसे पहले मुख्यमंत्री को भिंडी की टोकरी दी गई। इसके बाद जैसे ही करेले की टोकरी महिलाओं ने आगे बढ़ाई, सीएम ने तपाक से कृषि मंत्री की तरफ इशारा किया कि ये उन्हें दिया जाए। कृषि मंत्री ने बड़ी सहजता से करेला स्वीकार किया। उसके बाद जितनी भी सब्जी-भाजी दी गई सभी को सीएम ने लिया। अब करेले में ऐसा क्या था, ये तो नहीं पता, लेकिन सीएम साहब ने जो किया उसे सभी ने देखा। चूंकि इसी दिन यहां हरेली उत्सव भी मनाया जा रहा था और हरेली के दिन मान्यता है कि चौखट पर नीम के पत्ते लगाए जाते हैं। सीएम आवास में भी जगह-जगह नीम के पत्ते लगाए गए थे। इस तरह यहां पर करेले और नीम का कॉम्बिनेशन अपने आप हो गया। संभव है कि करेले पर नीम चढ़ गया होगा, तभी तो सीएम ने कृषि मंत्री की तरफ बढ़ा दिया। जैसा कि सभी जानते हैं कि करेला कड़वा होता है और नीम की भी तासीर कड़वी होती है। करेले पर नीम चढ़ जाए तो उसकी कड़वाहट मत पूछिए। अब यहां कौन करेला है और किस पर नीम चढ़ा है। इस पर हम कुछ नहीं कह रहे हैं। ये तो एक वाकया है, जिसके कई लोग साक्षी है। अब सियासत में मायने तो ऐसे ही निकाले जाते हैं।
पद छोडऩा उचित समझा
रसिक परमार के छत्तीसगढ़ दुग्ध महासंघ अध्यक्ष पद से इस्तीफे से सहकारिता अफसरों ने राहत की सांस ली है। रसिक भाजपाई हैं। और वे सरकार की आंखों की किरकिरी बने हुए थे। सरकार के लोग उन्हें हटाना चाह रहे थे, मगर यह आसान नहीं था। क्योंकि उनके खिलाफ कोई पुख्ता मामला भी नहीं बन पा रहा था और उन्हें जबरिया हटाने से मामला अदालत जा सकता था। राजनीति में आने से पहले रसिक पत्रकार के रूप में सीएम के दो सलाहकार रूचिर गर्ग और विनोद वर्मा के साथ भी काम कर चुके हैं। अलग-अलग पार्टियों से जुड़े होने के कारण पुराने सहयोगी भी चाहकर रसिक की मदद नहीं कर पा रहे थे।
ऐसा नहीं है कि पिछली सरकार में भी रसिक के लिए सबकुछ ठीक था। तब भी कई प्रभावशाली लोग उन्हें नापसंद करते थे। पार्टी बैठकों के नाम पर मुफ्त दूध-म_ा और श्रीखंड भिजवाने के लिए काफी दबाव रहता था, लेकिन उन्होंने ऐसा करने से साफ तौर पर मना कर दिया। चूंकि रसिक संगठन के पसंदीदा थे इसलिए किसी दबाव का उन पर ज्यादा असर नहीं पड़ा। उन्होंने अपने कार्यकाल में देवभोग ब्रांड को अमूल की तर्ज पर मशहूर करने के लिए भरपूर मेहनत की। खैर, भूपेश सरकार ने उनके खिलाफ जांच बिठाई, तो उन्हें इससे कोई परेशानी नहीं थी। मगर जिस तरह शिकायतों को विरोधी मीडिया में हवा दे रहे थे उससे वे नाखुश थे। पार्टी के कई नेता उन्हें इस्तीफा देने के बजाए अदालत में जाने की सलाह दी थी, लेकिन इससे महासंघ को नुकसान पहुंचने का अंदेशा था। ऐसे में उन्होंने पद छोडऩा उचित समझा।
राजनीति में सब कुछ संभव है
निगम-मंडल में नियुक्तियां होनी है, और अब रसिक परमार के इस्तीफे के बाद खाली दुग्ध महासंघ में भी नियुक्तियां होनी है। महासंघ के अध्यक्ष पद के लिए संगठन के एक बड़े पदाधिकारी का नाम उछला है। सुनते हैं कि संगठन के ये पदाधिकारी राज्य बनने के पहले और बाद में कभी महासंघ के बड़े ठेकेदार हुआ करते थे, उनका दुग्ध परिवहन में एकाधिकार था। मगर वे कांग्रेस की गुटबाजी में फंस गए। उन पर विद्याचरण शुक्ल का साथ छोडऩे के लिए दबाव पड़ा, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। धीरे-धीरे उनका सारा काम छीन गया। अब सरकार कांग्रेस की आ गई है और खुद भी ताकतवर हो चुके हैं। ऐसे में उनका नाम तो चर्चा में है, लेकिन उन्हें संगठन के अहम दायित्व से मुक्त कर महासंघ की कमान सौंपी जाएगी, इसमें संदेह है। फिर भी कांग्रेस और राजनीति में सब कुछ संभव है।
सामाजिक समानता की ओर...
केन्द्र सरकार ने वॉल्व वाले एन-95 मास्क को नाकामयाब बताते हुए उसका इस्तेमाल न करने की चेतावनी क्या जारी कर दी, तमाम बड़े लोग उदास हो गए। आज किसी बड़े व्यक्ति को देखें, तो वे इसी किस्म के मास्क में दिखते हैं जो कि आमतौर पर सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर-नर्सों को भी नसीब नहीं हो रहे हैं। अब इन लोगों ने सरकारी या निजी पैसों से ऐसे एन-95 मास्क इक_ा कर रखे थे क्योंकि उन्हें यह खतरा भी था कि बाजार से ये खत्म हो जाएं तो उन पर एक खतरा आ सकता है। अब जब एकाएक केन्द्र सरकार ने इसे इस्तेमाल न करने के साथ-साथ इसके प्रयोग पर रोक लगाने के लिए कहा है, तो यह पूरा स्टॉक बेकार हो गया। अभी तक आम और खास लोगों में एक फर्क यह भी था कि आम लोग साधारण मास्क इस्तेमाल करते थे, और खास लोग एन-95। अब एक सामाजिक समानता आ जाएगी।
रूपया किलो चावल, दो रूपया गोबर...
राज्य सरकार ने पहले डेढ़ रूपए किलो गोबर खरीदने की घोषणा की थी, फिर उसे बढ़ाकर दो रूपए किलो कर दिया। सरकारी खरीदी में धान जैसे सूखे सामान में नमी कितनी रहती है उसे देखकर ही खरीदी होती है। अब गोबर के मामले में क्या होगा? गोबर तो धूल-मिट्टी पर से उठाकर लाया जाता है, तो मिट्टी-कंकड़ कम या अधिक होने से क्या होगा? और सबसे बड़ा खतरा यह है कि आने वाले महीनों में बारिश रहेगी, और बारिश के पानी में खरीदा हुआ गोबर अगर बह जाएगा, तो सरकारी माल के स्टॉक का हिसाब कैसे रखा जाएगा? ये तमाम चीजें सरकार की भावना, और उस पर आरएसएस की हार्दिक प्रशंसा पर हावी होने जा रही हैं। तेंदूपत्ता, इमली, और धान की खरीदी आसान है, गोबर की खरीदी थोड़ी मुश्किल रहने वाली है। फिर यह भी है कि जिस प्रदेश में गरीबों को एक रूपए किलो चावल मिल रहा है, उनसे दो रूपए किलो गोबर खरीदने को भी बहुत सारे लोग मजाक का सामान बना रहे हैं। ऐसे ही मजाक में एक व्यक्ति ने कहा कि गाय को एक किलो चावल खिलाकर देखना चाहिए कि वह एक किलो गोबर देती है या नहीं? अगर गोबर एक किलो मिल जाए, तो सरकारी रियायती चावल खिला-खिलाकर भी गोबर का धंधा किया जा सकता है।
नांदगांव श्मशान से सीखा जाए...
लेकिन ऐसे तमाम मजाकों से परे हकीकत यह है कि अगर सरकार गोबर खरीदने में और उसका इस्तेमाल करने में कामयाब होती है, तो बहुत बड़ी बात हो जाएगी। छेना, कंडा, या गोबरी जैसे नामों से प्रचलित चीजें भी बन सकती हैं जो कि अंतिम संस्कार में लगने वाली लकडिय़ों का अच्छा विकल्प हो सकती हैं। इससे पर्यावरण की बर्बादी भी कम होगी, और हो सकता है कि अंतिम संस्कार का खर्च भी कुछ कम हो जाए। राज्य सरकार को राजनांदगांव के श्मशान का मॉडल देखना चाहिए जहां अंतिम संस्कार सिर्फ छेने से होता है। देश में कहीं-कहीं पर लकड़ी के बुरादे या पत्तों के साथ मिलाकर भी गोबर से सूखी लकड़ी जैसी ही बनाने के प्रयोग हुए हैं, राज्य सरकार को ऐसे प्रयोगों की जानकारी भी लेनी चाहिए ताकि गोबर खरीदी मखौल का सामान न बने, रमन सरकार के वक्त का रतनजोत जैसा फ्लॉप प्रयोग न बने, और सचमुच ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मदद मिल सके।
एम्स में वीवीआईपी सहूलियत के लिए संघर्ष !
कोरोना संक्रमित नेताओं-परिजनों से एम्स प्रबंधन हलाकान है। एम्स के खुद के कोरोना संक्रमित डॉक्टर-नर्सिंग स्टॉफ जनरल वार्ड में भर्ती होकर आम मरीजों की तरह इलाज करा रहे हैं, तो दूसरी तरफ, नेता चाहते हैं कि उनके लिए अलग रूम का इंतजाम किया जाए। और इसके लिए एम्स प्रबंधन पर दबाव भी बनाए हुए हैं।
ऐसे ही एक भाजपा नेता ने एम्स प्रबंधन के नाक में दम कर रखा है। भाजपा नेता की शिका यत है कि जनरल वार्ड में उन्हें नींद नहीं आती। भाजपा संगठन के बड़े नेताओं ने फोन घनघनाया, तो किसी तरह उनके लिए अपेक्षाकृत बेहतर व्यवस्था की गई, जहां सिर्फ तीन-चार मरीज थे। मगर भाजपा नेता को नई व्यवस्था भी रास नहीं आ रही है और उनके लिए रोज कई प्रभावशाली लोगों के फोन आ रहे हैं।
एम्स प्रबंधन ने तीन-चार रूम, वीवीआईपी मरीजों के लिए सुरक्षित रखा है। भाजपा नेता की मांग है कि वीवीआईपी रूम में से एक उन्हें दिया जाए। कांग्रेस के एक प्रभावशाली नेता के परिजन भी कोरोना संक्रमित हैं। कांग्रेस नेता ने तो दबाव बनाकर वीवीआईपी रूम में अपने परिजनों को भर्ती करने की व्यवस्था करा ली थी। भाजपा नेता भी कुछ इसी तरह की ताकत दिखाने की कोशिश कर रहे हैं।
यह भी दिलचस्प है कि भाजपा नेता को कोरोना भी एक कांग्रेस नेता के संपर्क में आने से हुआ है। दोनों कॉफी हाऊस में रोजाना घंटों गपियाते थे। कांग्रेस नेता को कोरोना हुआ, तो भाजपा नेता भी इसकी चपेट में आ गया। चर्चा है कि दोनों के बीच ज्यादा से ज्यादा वीवीआईपी सुविधा पाने की होड़ मची हुई है। नेताओं और उनके परिजनों के चक्कर में एम्स की व्यवस्था भी तार-तार हो रही है।
एम्स भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार का अस्पताल है, केंद्रीय स्वस्थ्य मंत्री भाजपा के हैं, एम्स रायपुर के चेयरमैन भाजपा सांसद सुनील सोनी हैं, फिर भी भाजपा के लोग बर्दाश्त करने तैयार नहीं हैं !
साढ़े तीन लाख के बिल में दवा 405 की!
दुनिया में इतने लोगों की कोरोना मौत के बाद भी छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में लोगों का दुस्साहस और अहंकार देखने लायक है। जिस कॉलोनी में कोरोना मरीज निकल रहे हैं, वहां सुबह और रात में घूमते हुए संपन्न लोगों के जत्थे इन्हीं मरीजों की बात कर रहे हैं, लेकिन बिना मास्क लगाए रोज घूम रहे हैं। शायद ऐसे लोगों पर दक्षिण भारत के एक अस्पताल के इस बिल को देखकर कुछ असर हो। सोशल मीडिया पर आज पोस्ट किए गए इस बिल में कोरोना के एक मरीज के 15 दिनों का अस्पताल का बिल 3 लाख 55 हजार बना है, और देखने लायक बात यह है कि उसमें दवाओं का बिल कुल 405 रूपए का है। अस्पताल ने बिल में इस मरीज के लिए दो हजार रूपए दाम वाली 120 पीपीई किट लगने का खर्च जोड़ा है। यानी हर दिन करीब 8 किट! इस बिल को देखने के बाद अपनी लापरवाही के बारे में एक बार फिर सोचना चाहिए क्योंकि संपन्न लोग लापरवाही करेंगे, और उनके आसपास के गरीब लोग भी कोरोना का खतरा झेलेंगे।
हितों का टकराव
कांग्रेस के प्रदेश कोषाध्यक्ष रामगोपाल अग्रवाल को घोटालों के लिए कुख्यात नागरिक आपूर्ति निगम की कमान सौंपी गई है। रामगोपाल खुद राइस मिलर हैं और राइस मिल एसोसिएशन के संरक्षक भी हैं। राइस मिलरों का नान के साथ सीधा कारोबारी रिश्ता है। ऐसे में रामगोपाल के लिए अपना और नान के हितों का ख्याल रखने की तगड़ी चुनौती भी है। वैसे भी नान में भ्रष्टाचार के प्रकरणों की जांच के लिए ईओडब्ल्यू-एसीबी और ईडी तक घुस चुकी हैं । कानून की जुबान में इसे हितों का टकराव कहते हैं।
यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि रमन सरकार के पहले कार्यकाल में बृजमोहन अग्रवाल ने खाद्य विभाग लेने से सिर्फ इसलिए मना कर दिया था कि उनके परिवार का खाद्य विभाग के साथ कारोबारी रिश्ता है। मगर भाजपा के एक होटल व्यवसायी नेता को पर्यटन बोर्ड की जिम्मेदारी दी गई, तो उसने खुशी-खुशी से पद संभाल लिया। ये अलग बात है कि भाजपा नेता ने पर्यटन बोर्ड में रहते निगम के प्राइम लोकेशन पर स्थित बंद पड़े छत्तीसगढ़ होटल को खुलवाने के लिए कोई ठोस पहल नहीं की। अलबत्ता, उनका अपना होटल कारोबार दमकता रहा। सरकार बदलने के बाद पर्यटन बोर्ड ने अब जाकर छत्तीसगढ़ होटल को फिर से शुरू करने का फैसला लिया है।
बैचमेट एसपी मिलने का फायदा
नक्सलियों को रणनीतिक मोर्चे पर घेरने की मुहिम में राजनांदगांव पुलिस को मिल रही फायदे की एक खास वजह है। एसपी जितेन्द्र शुक्ल को इस लड़ाई में उनके बैचमेट दो अफसरों का भरपूर साथ मिल रहा है। एक अफसर गोंदिया के एसपी मंगेश शिंदे हैं, तो दूसरे मध्यप्रदेश के सर्वाधिक नक्सलग्रस्त बालाघाट जिलें मे पुलिस कप्तान अभिषेक तिवारी हैं । नांदगांव की भौगोलिक बनावट ऐसी है कि दोनों जिलों से बड़ा हिस्सा जुड़ा है। 2013 बैच के तीनों अफसरों की ट्रेनिंग में आपसी में गहरी छनती रही है। अभिषेक के साथ शुक्ल एक साथ रूममेंट भी रहे हैं। अभिषेक अपने बैच के टॉपर भी रहे हैं । राज्य सरकारों में प्रशासनिक पोस्टिंगमें यह संयोग बन गया कि नक्सल उपद्रव से त्रस्त तीनों जिलों में सटीक रणनीति और सूचनाओं का खुलेदिल से आदान-प्रदान हो रहा है। तीनों के पास ढ़ेरों खुफिया सुराग का होना नक्सलवाद के खात्मे में कारगर साबित हो सकता है। नांदगांव एसपी का अपने बैचमेंट अफसरों को साथ लेकर काम करने का अभियान फायदेमंद दिख रहा है।
तालमेल में पार्टी मुश्किलें
भाजपा के दो बड़े नेता सांसद सुनील सोनी और राजेश मूणत के बीच जंग चल रही है। दोनों के बीच मतभेद इतने गहरे हैं कि पार्टी 9 महीने बाद भी नगर निगम में नेता प्रतिपक्ष तय नहीं कर पाई है। चर्चा है कि सुनील सोनी, सूर्यकांत राठौर को नेता प्रतिपक्ष बनाना चाहते हैं। जबकि राजेश मूणत, मीनल चौबे के लिए अड़ गए हैं। कुछ इसी तरह रायपुर शहर अध्यक्ष के लिए भी दोनों के विचार मेल नहीं खा रहे हैं। सुनील सोनी, पूर्व पार्षद रमेश ठाकुर या जयंती पटेल को शहर अध्यक्ष के पद पर देखना चाहते हैं, तो राजेश मूणत की पसंद छगनलाल मुंदड़ा, प्रफुल्ल विश्वकर्मा हैं। दोनों के बीच तालमेल बिठाने में पार्टी नेताओं को मुश्किलें आ रही हैं और यही वजह है कि अब तक नियुक्तियां नहीं हो पाई हैं ।
पेशगी तो ले ली, लेकिन
वैसे तो कोरोना संक्रमण के चलते ट्रांसफर-पोस्टिंग पर रोक लगी हुई है, मगर निर्माण विभाग के कुछ अफसर जल्दबाजी में दिख रहे हैं, और इसी चक्कर में काफी कुछ गंवा भी चुके हैं। सुनते हैं कि निर्माण के तीन-चार इंजीनियरों ने मलाईदार पोस्टिंग के लिए एक बड़े ठेकेदार के मार्फत कोशिश की थी। ठेकेदार ने दो युवा नेताओं पर भरोसा कर उन्हें पेशगी भी दे दी। कई महीने गुजर गए, पर काम नहीं हुआ।
हाल यह है कि एक युवा नेता ने तो बकायदा दुकान खोल ली है, तो दूसरे ने महंगी गाड़ी ले ली है। अब इंजीनियरों का ठेकेदार पर दबाव बढ़ रहा है, लेकिन मलाईदार पोस्टिंग की उम्मीद की किरण नहीं दिख रही है। चर्चा है कि ठेकेदार ने एक को तो सीधे-सीधे ऊपर तक शिकायत करने की धमकी भी दे दी है। युवा नेता को निगम-मंडल में पद की उम्मीद है। लिहाजा ठेकेदार को किसी तरह जल्द काम होने का भरोसा दिलाकर फिलहाल शांत लिया है। मगर देर सबेर मामला गरमा सकता है।
सीएम के लायक
सरकार के निगम-मंडलों में थोक में नियुक्तियां हुई हैं। सीनियर विधायकों को भी पद की पेशकश की गई थी। कुछ ने स्वीकार कर ली, तो सत्यनारायण शर्मा और धनेन्द्र साहू ने मना कर दिया। एक अन्य सीनियर विधायक से पूछा गया, तो उनका जवाब सुनकर पार्टी के प्रमुख लोग हक्का-बक्का रह गए। विधायक ने टका-सा जवाब दिया कि वे खुद को सीएम मटेरियल मानते हैं, लेकिन फिर भी पार्टी मंत्री पद देना चाहती है, तो ही इसे स्वीकार कर पाएंगे। अब मंत्रिमंडल में नए मंत्री की गुंजाइश है नहीं, ऐसे में विधायक महोदय को हाथ जोड़ लिया गया।
दिग्विजय के आने का राज
अविभाजित मध्यप्रदेश के दस बरस तक मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह छत्तीसगढ़ आकर क्या लौटे, कई किस्म की सुगुबुगाहट शुरू हो गई। कुछ ने यह अंदाज लगाया कि क्या वे छत्तीसगढ़ के प्रभारी बन सकते हैं? लेकिन अभी तो वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में महासचिव नहीं हैं जो कि प्रभारी बनने के लिए एक शर्त सरीखी रहती है। लेकिन एक के बाद एक कई प्रदेशों में कांग्रेस सरकारें जिस तरह चल बसी हैं या अस्थिर हो रही हैं, उन्हें देखते हुए कुछ लोगों को छत्तीसगढ़ की फिक्र होती है। वैसे तो यहां का बहुमत सत्ता पलटाने जैसा नहीं है, लेकिन देश के आज के माहौल में किसी को अधिक आत्मविश्वास पर नहीं चलना चाहिए।
दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से मिले, विधानसभा अध्यक्ष चरणदास महंत से मिले, जो कि दोनों ही मध्यप्रदेश के समय से उनके करीबी रहे हुए हैं। भूपेश भतीजे हैं, और महंत छोटे भाई। लेकिन उनके अलावा उनकी राजेन्द्र तिवारी से भी बातचीत हुई है, और फिर वे खाना खाने टी.एस. सिंहदेव के घर गए जहां जाहिर है कि बातचीत खाने पर लंबी होती ही है। इसके बाद अगली सुबह वे जोगी निवास जाकर जोगी परिवार से मिले, और अजीत जोगी के निधन पर शोक व्यक्त किया। कुछ का कहना है कि वे जोगी परिवार में जाने के लिए ही आए थे, कुछ का कहना है कि वे कांग्रेस पार्टी के भीतर की तनातनी दूर करने आए थे क्योंकि भूपेश उनके सबसे करीबी लोगों में से हैं, और दूसरी तरफ टी.एस. सिंहदेव के पिता एम.एस. सिंहदेव दिग्विजय सिंह के मुख्य सचिव थे, और बाद में उन्हें योजना मंडल में उपाध्यक्ष बनाया गया था। टी.एस. सिंहदेव के भाई-बहन भोपाल में ही रहते हैं, और जाहिर है कि वहां आते-जाते उनकी मुलाकात दिग्विजय सिंह से होती ही है। छत्तीसगढ़ के नेताओं के बीच में सबसे अधिक मान्यता और सम्मान अकेले दिग्विजय सिंह का है। ऐसे में हो सकता है कि आज नहीं तो कल उन्हें पार्टी राज्य में एकता मजबूत करने के काम में लगाए।
कोरोना में पार्टियां जारी !
रायपुर में एकाएक कोरोना संक्रमण तेजी से फैल रहा है। कई ऐसे नौजवान चपेट में आ गए हैं, जो कि कोरोना के खतरे को नजरअंदाज कर पार्टी कर रहे थे। इन्हीं में से एक एक नेता का भतीजा भी है, जो कि कुछ दिन पहले ही बंगलोर से लौटा था। भतीजे का अपना एक ग्रुप है, जो कि अक्सर पार्टी करते रहते हैं। बंगलोर से आने के बाद दोस्तों की पार्टी में शामिल हो गया। फिर क्या था एक-दो दिन बाद कोरोना की आशंका हुई। जांच में भतीजे के कोरोना की पुष्टि हुई, तब तक उनके तीन और पार्टीबाज दोस्त भी कोरोना के चपेट में आ चुके थे।
कुछ इसी तरह का वाक्या एक कांग्रेस नेता के साथ हुआ। कांग्रेस प्रवक्ता एक बर्थडे पार्टी से लौटे थे और कोरोना संक्रमित हो गए। इसके बाद वे टीवी डिबेट में भी गए। जहां भाजपा प्रवक्ता के साथ बैठे थे। अब भाजपा प्रवक्ता को भी कोरोना के लक्षण दिखने लगे हैं और उन्हें एम्स में भर्ती कराया गया है।
एल्डरमैन के लिए किच-किच
खबर है नगरीय निकायों में एल्डरमैन की नियुक्ति पर सरकार और संगठन में किचकिच चल रही है। चर्चा है कि नगर निगमों-पालिकाओं में एल्डरमैन की नियुक्ति के लिए विधायकों से तो नाम लिए गए, लेकिन जिलाध्यक्षों से पूछा नहीं गया। इससे खफा कुछ जिलाध्यक्षों ने मोहन मरकाम से बात की। मरकाम ने प्रदेश प्रभारी पीएल पुनिया को भी इससे अवगत कराया है। इसका प्रतिफल यह रहा कि स्थानीय संगठन को भी विश्वास में लेने के लिए कहा गया है।
छत्तीसगढ़ कांग्रेस के पोस्टर पर दर्जनों ने की चोट, सौ से अधिक कमेंट
छत्तीसगढ़ कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी और आरएसएस के गहरे रिश्तों का आरोप एक डिजाइन बनाकर लगाया है। इस पर उन्होंने जुड़े हुए पैदा बच्चे भी लिखा है। ट्विटर पर पोस्ट इस तस्वीर के जवाब में पवन सेठी नाम के एक व्यक्ति ने एक दूसरी फोटो पोस्ट की जिसमें कांग्रेस के अंग्रेजी हिज्जों के भीतर ही आरएसएस ढूंढकर दिखा दिया, और लिखा कि यह कांग्रेस के भीतर गहरे तक बैठा हुआ है। कांग्रेस ने यह डिजाइन पोस्ट करते हुए आम आदमी पार्टी पर तंज कसा था, और उसे आप की जगह, जनता से छिपाया गया पाप, लिखा था। उस पर कुछ लोगों ने लिखा- मत छेड़ो उसको, वो है सबका पाप। एक ने लिखा- जनता तुम्हारी ही हाथ तुम्हारे गाल पर देगी छाप। एक ने लिखा- आप के झापड़ की छाप दिल्ली में कांग्रेस और बीजेपी-आरएसएस को पड़ चुकी है, अब तो सुधर जाओ। एक ने लिखा- अरे तुम क्यों रहे हो इतना कांप?
आशीष द्विवेदी ने लिखा- जनता बटन कांग्रेस का मत देना तुम दबाए, आज का कांग्रेसी न जाने कल भाजपा में बिक जाए।
बहुत हो गए, कुछ बाकी हैं...
निगम-मंडलों की एक और सूची जल्द जारी हो सकती है। इसमें वजनदार सीएसआईडीसी, ब्रेवरेज कॉर्पोरेशन, वित्त आयोग, पर्यटन बोर्ड और श्रमिक कर्मकार कल्याण मंडल में नियुक्तियां हो सकती हैं,और नगर निगमों में एल्डरमैन की नियुक्ति होनी है। कुल मिलाकर ढाई-तीन सौ नेताओं के लिए अभी और गुंजाइश बाकी है। कांग्रेस विधायक की कुल संख्या 69 है। जिनमें से 49 को पद मिल चुका है। इससे अधिक की संभावना अब नहीं रह गई है। वैसे भी राज्य में इससे पहले इतनी बड़ी संख्या में विधायकों को पद नहीं मिले थे।
खास बात यह है कि महासमुंद जिले के सभी चार विधायकों को लालबत्ती मिल गई है। विनोद चंद्राकर और द्वारिकाधीश यादव, संसदीय सचिव बनाए गए। जबकि देवेन्द्र बहादुर सिंह को वन विकास निगम का चेयरमैन और किस्मतलाल नंद को प्राधिकरण का उपाध्यक्ष बनाया गया है। पिछली बार भाजपा विधायकों की कुल संख्या ही 49 थी। यानी सरकार अब और मजबूत स्थिति में आ गई है।
सीनियर विधायक धनेन्द्र साहू, सत्यनारायण शर्मा और अमितेश शुक्ल पहले ही पद लेने से मना कर चुके थे। सत्यनारायण के करीबी महेश शर्मा को श्रम कर्मकार मंडल का सदस्य बनाया गया है। इसी तरह अमितेश के करीबी सतीश अग्रवाल को भी इसी मंडल में जगह दी गई है। अलबत्ता, धनेन्द्र के किसी करीबी को ही पद मिलना बाकी है। सुनते हैं कि धनेन्द्र के बेटे प्रवीण को किसी निगम की चेयरमैनशिप दी जा सकती है।
वोरा का खाता खाली
दिग्गज कांग्रेस नेता मोतीलाल वोरा के समर्थकों को निगम-मंडलों में जगह नहीं मिल पाई है। सिर्फ उनके बेटे अरूण वोरा को भंडार गृह निगम का चेयरमैन बनाया गया है। जबकि वोरा के करीबी रमेश वर्ल्यानी, सुभाष शर्मा सहित कई और नेताओं को पद मिलने की संभावना जताई जा रही थी। जिससे वोरा समर्थकों में निराशा है।
दुर्ग के प्रभाव क्षेत्र से खुद सीएम और चार मंत्री आते हैं। यहां के नेताओं को संसदीय सचिव और निगम-मंडल में भी पद मिल चुका है। ऐसे में दुर्ग से वोरा समर्थक नेताओं को पद मिलने की संभावना बेहद कम हो गई है। हालांकि वर्ल्यानी को पद मिलने की संभावना अभी बरकरार है। पेशे से आयकर विक्रय सलाहकार वर्ल्यानी की रूचि वित्त आयोग को लेकर ज्यादा है। वैसे भी सिंधी समाज को प्रतिनिधित्व मिलना बाकी है। इससे परे सिंधी साहित्य अकादमी का गठन हो चुका है। ऐसे में यहां वर्ल्यानी सहित किसी सिंधी नेता को पद मिलने की पूरी संभावना है।
मंत्रियों की टेंशन
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल मंगलवार को संसदीय सचिवों को शपथ दिलाते समय आत्मविश्वास से भरे नजर आ रहे थे। समीक्षकों का मानना है कि यह आत्मविश्वास दरअसल तसल्ली का भाव था कि देर से ही सही विधायकों को संतुष्ट करने का काम तो पूरा हुआ। 12 मंत्री और 15 संसदीय सचिवों को मिला लिया जाए तो 27 विधायक तो सरकार के पास हैं। वे अब सरकार की मर्जी के बिना हिल-डुल भी नहीं सकते। सीएम ने नए संसदीय सचिवों को भरोसा दिलाया कि अभी कामकाज सीख लें, फिर तो उन्हें ही मंत्री बनकर सरकार चलाना है। मुखिया ने उन्हें भविष्य का भी सपना दिखा दिया है। अब तो वे संसदीय सचिव के रूप में बेहतर करने के लिए जुट जाएंगे, ताकि मंत्री बनने का मौका मिल सके, लेकिन इससे मंत्रियों की चिंता बढ़ गई है, क्योंकि कैबिनेट का आकार तो बढ़ नहीं सकता। नए मंत्रियों के लिए पुरानों को जाना पड़ेगा। ऐसे में वे मंत्री ज्यादा टेंशन में है, जिनके परफार्मेंस से मुखिया खुश नहीं है। उनके सामने तो चुनौती खड़ी हो गई है।
दरअसल कांग्रेस पार्टी कोई भी फैसला लेने में, या किसी लिस्ट को मंजूरी देने में जिस तरह महीनों लगा देती है, उससे पार्टी में असंतोष बढ़ते चलता है। अब मध्यप्रदेश और राजस्थान की गड़बड़ी के बाद बाकी राज्यों में भी कांग्रेस को अपना संगठन, या अपनी सरकार, या दोनों सम्हालने की जरूरत है। छत्तीसगढ़ में निगम-मंडल में भी कुछ विधायक एडजस्ट होंगे, और कुल मिलाकर 45 ऐसे विधायक हमेशा ही सरकार के काबू में रहेंगे जिनसे विधानसभा में बहुमत साबित होता है। छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार देश में सबसे सुरक्षित कांग्रेस सरकार हैं, लेकिन मोदी-शाह जिस तरह एक-एक प्रदेश को निशाने पर लेकर चल रहे हैं, सबको अपने दरवाजे मजबूत रखने चाहिए।
नेम प्लेट में पद बदलने की खुशी
छत्तीसगढ़ में संसदीय सचिवों ने शपथ ले ली है। इससे उनका सामाजिक और क्षेत्र में ओहदा तो बढ़ गया है, लेकिन सरकार में क्या स्थिति रहने वाली है, यह स्पष्ट नहीं हो पाया है, क्योंकि लाभ का पद मानते हुए अदालत ने कई तरह की बंदिशें लगा दी थीं। जानकारों की मानें तो संसदीय सचिव के पास न तो फाइल जाएगी और न ही विधानसभा में वे सवालों के जवाब दे सकेंगे। कुल मिलाकर संसदीय सचिव का पद लॉलीपॉप ही है। हालांकि कुछ विधायक तो नेम प्लेट में पद बदलने से ही खुश है। अब देखना है कि उनकी यह खुशी कब तक रहती है।
दिलचस्प बात यह है कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पहले संसदीय सचिव बनाने के खिलाफ थे, और सरकार बनने के बाद जल्द ही उनके एक करीबी मंत्री मोहम्मद अकबर ने बयान दिया था कि संसदीय सचिव बनाए जाएंगे, और तुरंत ही भूपेश बघेल ने इसके खिलाफ बयान दिया था कि ऐसा कोई इरादा नहीं है। लेकिन वक्त बढऩे के साथ-साथ ओवरलोड कांग्रेस विधायक दल में बेचैनी बढ़ रही थी, इसलिए अधिक से अधिक लोगों को सत्ता में भागीदारी देना जरूरी हो गया था। राज्य बनने के बाद किसने सोचा था कि एक दिन कांग्रेस विधायक दल का इतना बड़ा आकार रहेगा?
मना करने वाले भी हैं...
खबर है कि सीनियर विधायक रामपुकार सिंह ने निगम-मंडल पद लेने से मना कर दिया। रामपुकार सिंह सबसे ज्यादा आठवीं बार विधायक बने हैं। वे जोगी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे। सीधे-सरल इस आदिवासी नेता के मंत्री बनने की उम्मीद जताई जा रही थी, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। वे औरों की तरह जोड़-तोड़ से दूर रहे हैं। मंत्री पद नहीं मिला, तो वे कोप भवन में नहीं गए।
अब पार्टी के प्रमुख नेताओं ने उन्हें निगम-मंडल अथवा संसदीय सचिव का पद का ऑफर दिया। मगर उन्होंने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया। इसी तरह पूर्व सांसद करूणा शुक्ला को भी निगम-मंडल में पद के लिए ऑफर किया गया था। करूणा शुक्ला ने पद लेने से मना कर दिया। चर्चा है कि करूणा की इच्छा राज्यसभा में जाने की है। मगर उनकी इच्छा पूरी होती है अथवा नहीं, देखना है।
राजस्थान जैसा कुछ मुमकिन नहीं
राजस्थान की तरह छत्तीसगढ़ के राजनीतिक माहौल में खदबदाहट पैदा करने की कोशिश हो रही है। वैसे तो कांग्रेस विधायकों की संख्या इतनी ज्यादा है कि मध्यप्रदेश और राजस्थान की तरह की स्थिति पैदा हो पाना असंभव है। इसकी एक वजह यह भी है कि विपक्ष बेहद कमजोर हो चुका है। किसी तरह की कोशिश पर विपक्ष के ही टूटने का ही खतरा ज्यादा है। ईडी-इनकम टैक्स की कुछ कार्रवाई भी हुई थी, लेकिन ये भी ज्यादा मारक साबित नहीं हो पाई।
सुनते हैं कि सरकार में बैठे प्रमुख लोगों को अब कुछ कानूनी झमेलों का सामना करना पड़ सकता है। इन लोगों के खिलाफ चल रहे पुराने प्रकरणों की मॉनिटरिंग राज्य भाजपा के शीर्ष नेता कर रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट के नामी वकीलों से संपर्क बनाए हुए हैं। पिछले दिनों इस सिलसिले में मौलश्री विहार के एक बंगले में बैठक भी हुई थी। चर्चा का निचोड़ यह रहा है कि अगले कुछ दिनों में अदालती प्रकरण के चलते सरकार में बैठे लोगों के लिए उलझनें पैदा हो सकती हैं । देखना है कि आगे-आगे होता है क्या?
डिजिटल खाई खुद गयी...
कोरोना की वजह से स्कूल-कॉलेज तो बंद हैं , लेकिन स्कूल शिक्षा विभाग की पहल पर वर्चुअल क्लास चल रही है। स्कूल शिक्षा विभाग ने बकायदा एप भी तैयार किया है, जिससे विद्यार्थी पाठ्यक्रम सामग्री डाउनलोड कर सकते हैं। निजी स्कूलों में तो क्लास ठीक ठाक चल रही है, मगर सरकारी स्कूलों का बुरा हाल है।
शहर के बाहरी इलाके के एक सरकारी स्कूल के क्लास टीचर के पास एक छात्र का फोन आया। उसने गुजारिश की कि क्लास रात में ही लिया करें, क्योंकि दिन में मोबाइल पिताजी लेकर चले जाते हैं। ऐसे में दिन में क्लास में शामिल हो पाना संभव नहीं है। इसी तरह एक अन्य छात्र से टीचर ने वर्चुअल क्लॉस अटेंड नहीं करने का कारण पूछा, तो उसने कह दिया कि मोबाइल में बैलेंस खत्म हो गया है और आप नेट पैक डलवाएंगी, तभी क्लॉस अटेंड कर पाऊंगा। अब शहर के स्कूलों का यह हाल है, तो दूर दराज के इलाकों में वर्चुअल क्लॉस का क्या हाल होगा, यह अंदाजा लगाया जा सकता है।
देश भर के जानकारों का कहना है कि संपन्न और विपन्न बच्चों के बीच यह एक नई डिजिटल खाई खुद गयी है...
कौन किसकी सिफारिश पर...
संसदीय सचिवों की नियुक्ति में विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत और टीएस सिंहदेव की पसंद को भी खास महत्व दिया गया है। महंत कैंप की विधायक रश्मि सिंह, यूडी मिंज, द्वारिकाधीश यादव और शिशुपाल सोरी को संसदीय सचिव बनाया गया, तो टीएस की सिफारिश पर पारस राजवाड़े, अंबिका सिंहदेव, चिंतामणी महाराज को संसदीय सचिव का पद नवाजा गया।
विकास उपाध्याय का नाम सीएम और टीएस, दोनों ही कैंप से था। ताम्रध्वज साहू और रविन्द्र चौबे की सिफारिश से पहली बार विधायक बने गुरूदयाल सिंह बंजारे को संसदीय पद दिया गया। बाकी विनोद सेवनलाल चंद्राकर, इंदरशाह मंडावी, कुंवर सिंह निषाद, रेखचंद जैन, चंद्रदेव राय और शकुंतला साहू सीएम की पसंद थे। कुल मिलाकर इन नियुक्तियों में किसी तरह मतभेद की स्थिति नहीं रही।
हर डाल में उल्लू बैठा है, अंजाम गुलिस्तां क्या होगा?
उपर लिखी यह लोकोक्ती सरकार के दोबारा राज्य के भी चेकपोस्ट को चालू किए जाने पर बिल्कुल फीट बैठ रहा है। दरअसल राज्य को सर्वाधिक राजस्व देने वाले चेकपोस्ट पाटेकोहरा बेरियर के खुलने से पहले ही राजनेताओं, अफसरों और दूसरे प्रभावी लोग अपने पसंदीदों को चेकपोस्ट मेें काम दिलाने के लिए दिन-रात विभागीय मंत्री समेत परिवहन अफसरों के दहलीज पर चक्कर लगा रहे हैं। बेरियर खुलने के लिए सरकार की घोषणा पर अभी अमल हुआ नहीं कि पाटेकोहरा बेरियर से जुड़े कई तरह के कामों को करने की ख्वाहिश लोग पाल बैठे हैं। सुनते हैं कि विभागीय मंत्री मो. अकबर के राजनांदगांव के प्रभारी मंत्री होने की वजह से भी उनके दफ्तर में आवेदनों का अंबार लग गया है। जबकि वह कई बार कह चुके हैं कि सरकार की ओर से अभी बेरियर खोलने की प्रारंभिक तैयारी मात्र है। यह कह सकते हैं कि बस्ती अभी बसी नहीं है और लोगों ने अपना गुलिस्तां तैयार कर लिया है। प्रशासनिक और राजनीतिक जगत में पाटेकोहरा बेरियर पर सबकी नजरें जमी हुई है। इस बेरियर के इर्द-गिर्द प्रशासनिक अमला अपनी तैनाती की कोशिश में है। राजनेताओं और पुलिस महकमे के अफसरों ने बेरियर में पोस्टिंग के लिए ऐडी-चोटी का जोर लगाना शुरू कर दिया है। यह बेरियर कमाई के मामले में सबकी प्राथमिकता में है।
भाजपा के दिन-बादर खराब
राज्य से सत्ता हाथ से चले जाने के बाद भाजपा के दिन-बादर खराब चल रहे हैं। सबसे ज्यादा झटका सत्ता गंवाने का असर राजनांदगांव के नेताओं को लगा है। पिछले सप्ताह एक भाजपा नेत्री के साथ कथित मारपीट का मामला प्रदेश में सुर्खियों में रहा। भाजपा के जिलाध्यक्ष के साथ विवाद के बाद महिला नेत्री को पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया। अब चर्चा है कि आपसी खींचतान में फंसी पार्टी के कुछ नेता उक्त महिला को दोबारा संगठन में वापस लेने के लिए राज्यभर के नेताओं और संगठन प्रमुखों से मिल रहे हैं।
राजनांदगांव की दूसरी पंक्ति के नेताओं ने अघोषित रूप से अभियान छेड़ते हुए जिलाध्यक्ष की कार्रवाई पर ही सवाल खड़ा कर रहे हैं। भाजपा से जुड़ा एक वाक्या चिटफंड कंपनी का है। खैरागढ़ पुलिस ने लाखों रुपए की हेराफेरी के मामले में मंडल अध्यक्ष को मुख्य आरोपी बनाकर जेल में भीतरा दिया। वहीं पुलिस की इस कार्रवाई के दो दिन पहले निगम के एक पूर्व नेता ने भाजपा के वाट्सअप ग्रुप में अश्लील वीडियो अपलोड कर दिया। अपलोड किए गए वीडियो को उक्त नेता लाख कोशिश के बावजूद डिलीट नहीं कर पाया, क्योंकि वह तकनीकी रूप से मोबाइल चलाने का जानकार नहीं है। गुजरा पखवाड़ा राजनांदगांव के भाजपा नेताओं के लिए सार्वजनिक रूप से विवादों से भरा रहा।
उस वक्त तो सिंंहदेव ने...
वैसे तो राज्यसभा चुनाव के वक्त ही राजस्थान में सचिन पायलट समर्थक विधायकों के तेवर गरम थे तब उस समय डैमेज कंट्रोल के लिए राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला और टीएस सिंहदेव को लगाया गया था। छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री सिंहदेव को हाईकमान ने चुनाव पर्यवेक्षक बनाया था। सुनते हैं कि कुछ विधायक तो क्रास वोटिंग कर सीएम अशोक गहलोत को सबक सिखाना चाहते थे।
भाजपा के रणनीतिकार तो कांग्रेस की अंदरूनी लडाई का फायदा उठाने के पहले से ही तैयार बैठे थे। भाजपा से जुड़े थैलीशाह जयपुर में डेरा डाले हुए थे। तब सिंहदेव ने नाराज चल रहे पायलट समर्थक विधायकों से व्यक्तिगत चर्चा की और उन्हें मनाने में कामयाब रहे। विधायकों की नाराजग़ी यह थी कि पायलट खेमे से जुड़े होने के कारण सीएम उन्हें महत्व नहीं देते, उनके क्षेत्रों में काम नहीं हो पा रहे हैं। सुरजेवाला और सिंहदेव ने विधायकों को भविष्य में ऐसा नहीं होने भरोसा दिलाकर पार्टी के खिलाफ जाने से रोक दिया था।
राष्ट्रीय महासचिव के वेणुगोपाल ने, जो कि राज्यसभा प्रत्याशी भी थे उन्होंने सुरजेवाला और सिंहदेव के प्रयासों की सराहना की थी। मगर चुनाव होते ही पायलट समर्थक विधायकों के प्रति सीएम का रूख नहीं बदला और फिर अब जो हो रहा है वह सबके सामने है।
कुछ जिलों का रहस्य..
छत्तीसगढ़ में कोरोना का संक्रमण तेजी से बढ़ रहा है। रायपुर में तो कोरोना की रफ्तार अब बेकाबू हो रही है। मगर आश्चर्यजनक तरीके से कुछ जिले, जहां पहले कोरोना तेजी से फैल रहा था वहां एक-दो ही पाजिटिव केस आ रहे हैं।
अंदर की खबर यह है कि यहां के कलेक्टर और अन्य आला अफसरों की कोशिश रहती है कि टेस्ट कम से कम हों । अब टेस्ट कम होंगे तो पाजिटिव केस भी कम आएंगे। वैसे भी दो तीन महीनों में कोराना की दवा आने की संभावना है। ऐसे में किसी तरह समय काटने से वाहवाही मिल रही है, तो हर्ज क्या है।
नाम चिपकाओ, हिसाब चुकताओ
बिना अपनी किसी गलती के बदनाम हो गए एक मैसेंजर-औजार वॉट्सऐप ने कल फिर अपने तेवर दिखाए और भूतपूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह के एक ओएसडी रहे विक्रम सिसोदिया को परेशानी में डालने की कोशिश की। वॉट्सऐप के कुछ ग्रुप पर यह पोस्ट किया गया कि विक्रम ने दिल्ली हाईकोर्ट में राज्य सरकार के खिलाफ एक मुकदमा किया है। पिछली सरकार के सीएम के करीबी लोगों में विक्रम सिसोदिया ही एक ऐसे रहे जो कि मामले-मुकदमे लायक विवाद से परे रहे। अब उन्हें सरकार के सामने एक टकराव की मुद्रा में खड़ा करने का मकसद साफ दिखता है। विक्रम सिसोदिया से समय रहते बात कर ली गई तो पता लगा कि वॉट्सऐप पर फैलाई गई यह खबर पूरी तरह झूठी है।
इसी तरह स्वास्थ्य मंत्री टी.एस. सिंहदेव के नाम से हर दो-चार दिनों में कुछ न्यूज पोर्टल और कुछ वॉट्सऐप ग्रुप पर ऐसे बयान फैलते हैं जो कि उनके दिए हुए नहीं रहते। जब तक उनका कोई खंडन हो सके, तब तक वहां पर बयान देखकर कुछ अखबार और कुछ टीवी चैनल भी उसे आगे बढ़ा चुके रहते हैं। अब हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में इतने अधिक मामले दायर हो रहे हैं कि किसी भी मामले के साथ किसी का नाम जोडक़र, उसे फैलाकर अपना हिसाब तो चुकता किया ही जा सकता है।
रमन सिंह के ओएसडी रहे अरूण बिसेन तो फिर भी कई किस्म के मामलों में घिरे हुए हैं, लेकिन विक्रम सिसोदिया पिछली सरकार के आखिरी पांच बरस में पूरी तरह हाशिए पर खिसका दिए गए थे, और वे आज आरोपमुक्त घर बैठे हैं।
पूर्व प्रत्याशी सांसद, लोकसभा
अब जरा सोचिये, ये सांसद पद के लिए कभी उम्मीदवार रहें होंगे, उसी को आज भी अपनी पहचान बनाये फिर रहे हैं. मगर ये अकेले हैं ऐसा भी नहीं है। कइयों ऐसे मंत्री, सांसद, विधायक, न्यायपालिका, कार्यपालिका से जुड़े लोगों के अलावा छुटभइये हैं जो कभी किसी पद पर रहे होंगे उसे ताउम्र वाहनों की नंबर प्लेट पर या फिर उसके ऊपर एक प्लेट लगाकर लिखाये घूमते फिर रहे हैं।
अपनी पहचान के संकट से जूझते लोग अक्सर इस तरह की पहचान पर ही जि़ंदा रहते हैं। बिलासपुर शहर में कइयों ऐसे भी वाहन हैं जिन पर हाईकोर्ट, जिलाकोर्ट, कलेक्टोरेट, क्कह्ररुढ्ढष्टश्व, आबकारी, राजस्व और फलां-फलां पूर्व न्यायाधीश, सेवानिवृत आबकारी निरीक्षक, रिटायर्ड कार्यपालन अभियंता और न जाने क्या-क्या लिखा है। पूर्व छोटा लिखा दिखेगा, विधायक-सांसद, मंत्री बड़ा सा लिखा होगा। विधायक प्रतिनिधि, सरपंच पति, पार्षद पति, पूर्व एल्डरमैन। ऐसे लोगों के वाहन की नंबर प्लेट के ऊपर चमकती तख्ती ही शायद इनकी असल पहचान होती है।
इस पहचान का संक्रमण एक वक्त गाडिय़ों पर ‘प्रेस’ के वायरस से ग्रसित था, अब भी है। इस दौर में असंख्य छोटे-बड़े वाहनों, यहां तक कि मालवाहक वाहनों के शीशों पर क्कह्ररुढ्ढष्टश्व लिखा दिखाई पड़ जाएगा। कई सरकारी अफसरों के निजी वाहनों पर भी पदनाम की तख्तियां उनकी हौसलाआफजाई और इज्जतदारी के लिए लगी होती है। नंबर प्लेटों के ऊपर लगी तख्तियों से दिखाया जा रहा पेशा, पद और पहचान का रसूख, नियम कहता है ये गलत है मगर देखेगा कौन ?
फोटो और टिप्पणी-सत्यप्रकाश पांडेय।