संपादकीय
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में कल तीन बरस की एक बच्ची से उसके मकान मालिक के 14-15 बरस के नाबालिग बेटे ने घर के बाथरूम में ही बलात्कार किया, और इसकी खबर लगने पर जब बच्ची के परिवार ने जाकर बाथरूम का दरवाजा पीटा तो उसने भीतर से दरवाजा खोला नहीं। दरवाजा तोडऩे पर यह बच्ची खून से लथपथ मिली, बलात्कार के अलावा उसके बदन पर काटने के निशान भी मिले, बच्ची को तुरंत अस्पताल पहुंचाया गया जहां उसे मृत पाया गया। मकान मालिक का नाबालिग बेटा फरार है, और बिलासपुर शहर इस घटना को लेकर जाहिर है कि बहुत विचलित है। अपने ही घर के आसपास खेल रही तीन साल की बच्ची इस कदर असुरक्षित हो सकती है, यह किसने सोचा था? और जिस अंदाज में यह पूरी घटना हुई है, उसमें कौन अड़ोस-पड़ोस पर भरोसा कर सकते हैं?
हिन्दुस्तानी समाज में बलात्कार के अधिकतर मामलों में लडक़ी या महिला को ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। जिस देश में बड़े-बड़े संवैधानिक पदों पर बैठे हुए नेता ऐसे बयान देते हैं कि लड़कियों के जींस पहनने से, या शाम-रात अकेले बाहर घूमने से वे बलात्कार के खतरे में पड़ती हैं। कुछ सत्तारूढ़ नेता तो ऐसे भी रहे हैं जो कि नूडल्स खाने से लोग बलात्कारी हो रहे हैं जैसी बातें भी कह चुके हैं। मुलायम सिंह यादव जैसे देश के एक सबसे बड़े नेता रहे व्यक्ति बलात्कार की घटनाओं पर सार्वजनिक रूप से यह बोलते दर्ज हुए हैं कि लडक़े रहते हैं, उनसे गलतियां हो जाती हैं। सपा के ही आजम खां से लेकर बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी तक बलात्कार की शिकायतों को राजनीतिक साजिश बताने में पल भर का वक्त नहीं लगाते। यह देश बलात्कार को लडक़ी या महिला की इज्जत लुटना बताता है, मानो उसने कोई जुर्म किया हो। बलात्कार के समाचारों में बड़े-बड़े अखबारों से लेकर समाचार चैनलों तक यही जुबान इस्तेमाल होती है, और समाज की पूरी भाषा और सोच बलात्कारी की मर्दानगी की हिफाजत करने में जुट जाती है। जब पूरे देश की सोच यही हो, तो मकान मालिक के नाबालिग बेटे ने अगर किराएदार की तीन साल की बेटी को बलात्कार के लायक मान लिया, तो इसके पीछे धीरे-धीरे पनपी उसकी सोच भी जिम्मेदार है कि लड़कियां और महिलाएं हिंसा झेलने की ही हकदार होती हैं।
अब इससे परे एक बिल्कुल अलग पहलू यह भी है कि मोबाइल फोन और इंटरनेट की मेहरबानी से अब देश के छोटे-छोटे बच्चों की पहुंच भी परले दर्जे के हिंसक पोर्नो वीडियो तक हो गई है, और ऐसे बहुत से वीडियो मौजूद हैं जो कि छोटे बच्चों के साथ सेक्स दिखाते हैं। ऐसे में इस नाबालिग लडक़े ने इनमें से किसी चीज से यह हौसला पाया हो, और यह हिंसा की हो, तो भी हमें हैरानी नहीं होगी। आज ही छत्तीसगढ़ के ही जशपुर इलाके की एक दूसरी खबर है कि वहां एक नाबालिग स्कूली छात्र ने एक दूसरे स्कूल की नाबालिग छात्रा से बलात्कार किया, और इस मामले का खुलासा तब हुआ जब छात्रा गर्भवती हो गई। अब पुलिस में रिपोर्ट हुई है, और बलात्कारी लडक़े को हिरासत में लिया गया है। ऐसी घटनाएं महज बच्चे कर रहे हों ऐसा भी नहीं है, पिछले कुछ दिनों में ही छत्तीसगढ़ के अलग-अलग इलाकों के स्कूली शिक्षक और हेडमास्टर तक छात्राओं का यौन शोषण करते पकड़ाए हैं, उनमें से कुछ तो नाबालिग लड़कियों को मोबाइल पर पोर्नो वीडियो दिखाते थे, और उनके बदन का शोषण करते थे। दर्जन-दर्जन भर लड़कियों ने जब इसकी शिकायत की, तब जाकर कार्रवाई हुई है।
समाज की जब ऐसी नौबत है, और जब नाबालिग ही दूसरे नाबालिग से बलात्कार करने लगें, तो उसे रोक पाना पुलिस के लिए मुमकिन नहीं होता है। सरकार और समाज के लिए यही सबसे सहूलियत की बात होती है कि इन घटनाओं को पुलिस, अदालत, और जेल या सुधारगृह का मामला बताकर अपने हाथ झाड़ लिए जाएं। लेकिन ऐसी घटनाएं साबित करती हैं कि सरकार और समाज को लोगों को शिक्षित करने की अपनी जो जिम्मेदारी पूरी करनी थी, वह पूरी नहीं हो पाई है, पूरी होना तो दूर, उस तरफ कोई शुरूआत भी नहीं हो पाई है। स्कूली बच्चों को अच्छे और बुरे स्पर्श की समझ देना अभी भी इस समाज में पश्चिमी संस्कृति मान लिया जाएगा, मानो हिन्दुस्तान में बलात्कार अंग्रेज लेकर आए थे। हिन्दुस्तान की पौराणिक और धार्मिक कहानियां बलात्कार की घटनाओं से भरी हुई हैं, और अब तो 21वीं सदी का भारत सेक्स की चर्चा को भी, बदन की जानकारी को भी बच्चों को देने से जिस कदर मुंह चुराता है, उसका मतलब यही है कि वह ऐसे खतरे में पडऩे के लिए रोज और अधिक तैयार होता है। जब तक जिम्मेदारी से बचा जाएगा, तब तक यह सिलसिला जारी रहेगा, और बढ़ते भी चलेगा। छोटे और बड़े बच्चों को, समाज के बाकी लोगों को बचपन से ही महिलाओं और लड़कियों का सम्मान सिखाने की जरूरत है, और हर तबके को सेक्स के जुर्म से बचना सिखाने की भी। सरकार और समाज इन बातों को अनदेखा करके, मुंह मोडक़र इनसे नहीं बच सकते, इसके लिए योजनाबद्ध तरीके से जागरूकता लाने की जरूरत है। पन्द्रह बरस के लडक़े को अगर तीन बरस की बच्ची से बलात्कार सूझ रहा है, और उसे एक लंबी सजा का भी डर नहीं है, पूरी जिंदगी बर्बाद हो जाने का डर नहीं है, एक मासूम को मार डालने से भी जिसे हिचक नहीं है, तो उसे और उसकी पीढ़ी के दूसरे लोगों को मनोवैज्ञानिक परामर्श की जरूरत है।
हम पहले भी इस बात को लिख चुके हैं कि प्रदेश के विश्वविद्यालयों में मनोवैज्ञानिक परामर्श के कोर्स शुरू किए जाने चाहिए, और अगर चल रहे हैं तो उनकी सीटें लगातार बढ़ानी चाहिए, ताकि प्रदेश के हर कस्बे तक किसी न किसी ऐसे शिक्षित-प्रशिक्षित शिक्षक की तैनाती हो सके, और ऐसे लोग बच्चों को जुर्म करने से, या जुर्म का शिकार होने से सावधान रखते चलें। अगर सरकार गिरफ्तारी और सजा को ही पर्याप्त मान रही है, तो उससे ऐसे जुर्म कम नहीं होने हैं। इन्हें मनोवैज्ञानिक सलाह-मशविरे से ही घटाया जा सकता है। कहने के लिए राज्य सरकार में महिला और बाल विकास विभाग है, लेकिन उसके कामकाज में कहीं भी इनकी रक्षा करने की ऐसी योजना नहीं है जो कि इन्हें बलात्कार से बचा सके।
ऐसी घटनाएं अगर हमें सजग नहीं कर पाती हैं, अगर सरकारें इन्हें सजा दिलाकर उसे काफी मान लेती हैं, तो कोई भी बच्चे महफूज नहीं हैं।
पाकिस्तान की एक खबर है कि वहां एक भारतीय नागरिक 2013 में गिरफ्तार किया गया, और आज से सात बरस पहले सिंध के हाईकोर्ट ने सरकार को हुक्म दिया कि इस आदमी को हिन्दुस्तान को लौटा दिया जाए, लेकिन सरकार अब तक यह कर नहीं पाई है। हाईकोर्ट ने सरकारी अफसरों पर बड़ी नाराजगी जाहिर की है, और अगली पेशी पर सरकार के किसी बड़े अफसर को जवाब देने को कहा है। हम इस मामले के अधिक खुलासे पर जाना नहीं चाहते, लेकिन भारत और पाकिस्तान के बीच इस तरह के बहुत से तनावों को लेकर चर्चा जरूर करना चाहते हैं। दोनों देशों के बीच एक-दूसरे के मछुवारे कई बार पकड़ाते हैं, और कभी उस वक्त के अफसरों के मन में हमदर्दी रहती है तो वे छोड़ दिए जाते हैं, या फिर उन्हें दूसरे देश की जेल में रखा जाता है जहां उन पर टोबा टेक सिंह सरीखी कहानी लिखने के लिए आज कोई मंटो भी नहीं बचे हैं।
भारत और पाकिस्तान की सरकारें कई किस्म की ठोस वजहों से, और कई किस्म की काल्पनिक या गढ़ी हुई वजहों से भी एक-दूसरे के खिलाफ दुश्मनी के तेवर अख्तियार किए रहती हैं। इनको अपनी खुद की जमीन पर अपने लोगों को तसल्ली देने के लिए भी पड़ोसी देश को दुश्मन करार देना माकूल बैठता है। न सिर्फ चुनाव के वक्त, बल्कि किसी भी तरह की घरेलू परेशानी की तरफ से ध्यान बंटाने के लिए इन दोनों देशों में एक-दूसरे के खिलाफ फतवे जारी किए जाते हैं, और सच्ची या झूठी घटनाओं का इस्तेमाल करके लोगों का ध्यान जिंदगी की असल दिक्कतों की तरफ से हटाया जाता है। ऐसे तनावों के चलते दोनों देशों के आम लोगों की दर्दभरी कहानियों का कोई समाधान नहीं निकल पाता। दशकों से, या पीढिय़ों से बिछुड़े हुए परिवारों को मिलाना भी नहीं हो पाता, जेलों में बंद लोगों की खबर भी ठीक से नहीं मिल पाती।
1947 में एक से दो हुए इन देशों के बीच जब दीवार उठी, तो जरूरत से काफी अधिक ऊंची उठी। लेकिन दोनों तरफ लोगों के बीच रिश्तेदारियां बहुत थीं, कारोबार और जमीन-जायदाद सरहद के दूसरे तरफ भी थे, और एक सरहद ने देशों को तो बांट दिया, समाज और परिवार को यह सरहद उस तरह से नहीं बांट पाई। आज भी हर हफ्ते या पखवाड़े में भारत-पाकिस्तान के बीच करतारपुर गलियारा नाम की जगह से ऐसी खबरें आती हैं कि दोनों तरफ से वहां पहुंचे भाई-भाई या भाई-बहन किस तरह आधी या पौन सदी बाद वहां पर मिल रहे हैं। ऐसे जर्जर हो चुके बुजुर्गों के रोते हुए वीडियो दिल हिला देते हैं। लेकिन सरकारों के बीच तल्खी इतनी है कि यह गलियारा भी किस तरह दशकों की मांग के बाद बन पाया है, इसे भी दोनों तरफ के सिक्ख ही जानते हैं। पाकिस्तान की जमीन पर इस प्रमुख गुरुद्वारे तक जाने के लिए हिन्दुस्तानी सिक्खों को भी वीजा की जरूरत नहीं पड़ती, और वहां पर दोनों देशों के लोग मिल भी सकते हैं। ऐसे में ही बिखरे हुए, या बिछुड़े हुए परिवार यहां पर एकजुट होते हैं।
भारत और पाकिस्तान दोनों जगह कुछ संगठन और कुछ सामाजिक कार्यकर्ता यह काम भी कर रहे हैं कि सरहद के पार गलती से दाखिल हो चुके लोगों को वापिस भेजने का कानूनी इंतजाम किया जाए, या एक-दूसरे की जेलों में बंद लोगों को कानूनी मदद मुहैया कराई जाए। यह काम अलोकप्रिय है क्योंकि अपनी-अपनी जमीन पर लोगों के मन में पड़ोसियों के खिलाफ नफरत बड़ी कोशिश करके ठूंसी गई है, और वैसे पड़ोसी देश के लोगों की कोई भी मदद अपने देश के खिलाफ एक भावना की तरह कही जाती है। भारत और पाकिस्तान को इस बात से उबरना चाहिए। सरकार और फौज चाहे जिन मोर्चों पर दूसरे देश की सरकार और फौज से लड़ती रहें, दोनों देशों के नागरिकों को अधिक आजादी से मिलने-जुलने देना चाहिए, दोनों तरफ खेल, कला, और फिल्म का लेन-देन अधिक होना चाहिए। राजधानियों में बैठे हुए बड़े-बड़े नेता और फौजी आला अफसर जिन बातों को नहीं सुलझा पा रहे हैं, या नहीं सुलझाना चाहते हैं, उन बातों को समाज के दूसरे तबके बेहतर तरीके से सुलझा सकते हैं, क्योंकि उन्हें हथियारों की खरीदी में दलाली नहीं लेनी है। राजधानियां दुश्मनी को फायदे का पाती हैं, क्योंकि दुश्मनी निभाने के लिए हथियारों की बड़ी खरीदी होती है, जो कि सत्ता के फायदे की रहती है।
भारत और पाकिस्तान को कैदियों और नागरिकों की अदला-बदली का एक ऐसा आयोग बनाना चाहिए जिसमें दोनों देशों के अधिकारसंपन्न लोग रहें, और वे बैठकर बरसों से कैद या फंसे हुए लोगों के मामले सुलझाएं। हिन्दुस्तान ने अभी-अभी नागरिकता संशोधन कानून लागू किया है जिसमें पड़ोस के तीन देशों के गैरमुस्लिमों को उनके चाहने पर भारत की नागरिकता देने की बात कही है। तब तक जब तक कि भारत का सुप्रीम कोर्ट इस कानून को गैरकानूनी करार नहीं देता, तब तक यह लागू तो है ही, और चाहे यह कानून मुस्लिमों के मामलों में भेदभाव करता है, इसके तहत बाकी धर्मों के जो लोग आते हैं, उनका भला तो शुरू होना चाहिए। चाहे धार्मिक भेदभाव और प्रताडऩा की वजह से, या किसी और वजह से, जिस वजह से भी लोग दूसरे देशों में फंसे हुए हैं, उन्हें अपने देश, या मनचाहे देश जाने की आजादी मिलनी चाहिए। और जब तक कोई बिना चूक का कानून नहीं बन जाता, तब तक भी जो भी संभावनाएं जिस देश के कानून में हैं, उनके तहत आम लोगों को राहत मिलनी चाहिए। भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्ते सरकारों के बीच ही खराब हैं, आम जनता के बीच नहीं। इसलिए आम जनता को राहत देने का जो-जो काम हो सकता है, वह करना चाहिए, और इसकी शुरूआत जेलों में बंद कैदियों से करनी चाहिए।
केन्द्र सरकार की शहरीकरण योजना के तहत देश के अलग-अलग शहरों में बसें चलाने के लिए हमेशा से मदद दी जाती रही है, और अब बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों का चलन बढऩे से इलेक्ट्रिक बसों के लिए केन्द्र की योजना मौजूद है। सार्वजनिक परिवहन या पब्लिक ट्रांसपोर्ट के बिना शहरों का विकास मुमकिन नहीं है। इसलिए देश के महानगरों और उपमहानगरों में केन्द्र और राज्य की मिलीजुली मेट्रो परियोजनाएं बन चुकी हैं, और कई जगहों पर उन पर काम जारी भी है। लेकिन मेट्रो स्टेशन पहुंचने के लिए छोटी-बड़ी बसों की जरूरत पड़ती है, और मेट्रो से उतरने के बाद भी लोगों को अपने ठिकानों पर पहुंचने के लिए फिर कोई दूसरे साधन लगते हैं क्योंकि मेट्रो हर गली-मोहल्ले में तो जा नहीं सकती। इसलिए मेट्रो के साथ-साथ छोटी-बड़ी बसों का जाल बिछाना अभी तक दिल्ली में भी चल रहा है जहां मेट्रो शुरू हुए बहुत बरस हो चुके हैं। आज बीस बरस बाद भी दिल्ली मेट्रो दस अलग-अलग लाइनों पर चल रही है, ढाई सौ से अधिक स्टेशन हैं, साढ़े तीन सौ किलोमीटर पटरियां हैं, लेकिन जिसे लास्ट माइल कनेक्टिविटी कहते हैं, वह अब भी पूरी नहीं हो पाई है। नतीजा यह है कि बहुत सी जगहों पर लोग अपने निजी वाहनों पर अब भी आश्रित रहते हैं। लेकिन जो शहर अब तक मेट्रो नहीं पा सके हैं, वहां पर तो सब कुछ बसों पर ही निर्भर रहता है, अब इलेक्ट्रिक बसें आ जाने से बिना प्रदूषण, और बिना अधिक शोरगुल के आरामदेह बसें चल सकती हैं, और वे शहरी सडक़ों से गाडिय़ों की भीड़ घटा सकती हैं।
भारत के अधिकतर पुराने शहरों में सडक़ें बसों के लायक चौड़ी नहीं है। जिन शहरों में अंग्रेजों के फौजी ठिकाने रहे, वहां तो उन्होंने सौ बरस बाद की जरूरत का भी ध्यान रखते हुए चौड़ी सडक़ें बनवाई थीं, लेकिन बाद के बरसों में जो हिन्दुस्तानी शहर बने, वे कल्पनाहीन, बिना योजना के, और शून्य संभावनाओं वाले थे। नतीजा यह हुआ कि वे बड़े आकार के कस्बे से अधिक कभी कुछ नहीं बन पाए। अब वहां बसे लोगों की महत्वाकांक्षाएं अगर जोर मारती भी हैं, तो भी न तो वहां शहरी विकास की अधिक संभावनाएं मौजूद हैं, और न ही भारत में शहरीकरण की ऐसी समझ रही कि सार्वजनिक परिवहन को समय रहते बढ़ावा दिया गया हो। हमारी बात में, समय रहते, इन दो शब्दों का बड़ा महत्व है। एक बार जब किसी शहर का जनजीवन निजी वाहनों का मोहताज हो जाता है, तो फिर उसके बाद लोगों की इस आदत को पब्लिक ट्रांसपोर्ट की तरफ मोडऩा मुश्किल हो जाता है। लोगों को अपने दुपहिए-चौपरियों की आदत पड़ जाती है, और फिर उन्हें पब्लिक ट्रांसपोर्ट की परेशानियां दिखने लगती हैं। इसलिए सार्वजनिक परिवहन को जितनी जल्दी और जितने बड़े पैमाने पर लागू किया जाए, उसकी कामयाबी की संभावना उतनी ही अधिक रहती है। जो सचमुच ही विकसित दुनिया है, उसमें शहरों के पब्लिक ट्रांसपोर्ट को पूरी तरह मुफ्त कर दिया जाता है, क्योंकि इस पर होने वाले खर्च को निजी वाहनों की भीड़ और प्रदूषण से बचने का मुआवजा मान लिया जाता है। अगर पब्लिक ट्रांसपोर्ट में हिन्दुस्तान की तरफ नफा-नुकसान देखा जाता रहेगा, तो शहरों के प्रदूषण को कितना भी खर्च करके रोका नहीं जा सकेगा। शहरी ट्रांसपोर्ट लोगों को रेवड़ी नहीं रहता, वह शहरों को सांस लेने लायक जगह बनाए रखने का दाम रहता है। या तो सरकार पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बहुत रियायती या तकरीबन मुफ्त कर ले, या फिर वह शहरी प्रदूषण से बीमार होने वाले लोगों के इलाज पर खर्च कर ले, बोझ तो सरकारी जेब पर ही पडऩा है।
भारत के शहरीकरण को लेकर एक कल्पनाशील योजना की जरूरत है जो कि घिसे-पिटे ढर्रे पर चलते हुए हासिल नहीं हो सकती। व्यस्त होते शहरों में निजी कारों पर टैक्स बढ़ाया जाना चाहिए, और पार्किंग के नियम कड़ाई से लागू करके लोगों को मजबूर किया जाना चाहिए कि वे सार्वजनिक गाडिय़ों से ही आना-जाना करें। पिछले बीस बरस में दिल्ली में मेट्रो से जितना आना-जाना हो रहा है, वह अगर आज पूरी तरह बसों का मोहताज रहता, तो दिल्ली की सडक़ों का इंच-इंच उन बसों से पट गया रहता। इसी तरह एक बस में चलने वाले मुसाफिरों को देखें, और फिर उन्हें उतनी कारों में चढ़ाने की कल्पना करें, तो सडक़ पर 25 गुना अधिक जगह लग गई होती। इसलिए शहरों को जिंदा रहने लायक बचाए रखने के लिए दूसरे तरह के टैक्स लगाकर बसों को इतना सस्ता या मुफ्त कर देना चाहिए कि लोग निजी दुपहियों से भी बसों को सस्ता पाएं। और फिर बड़ी बसों के रूट से परे छोटी बसों का जाल भी बिछाना चाहिए ताकि लोग अपनी गाडिय़ों से पूरी तरह आजादी पा सकें।
दिक्कत यह है कि भारत में सरकारी कामकाज अलग-अलग विभागों में टापुओं की तरह बंटे रहते हैं। कोई दो विभाग मिलकर काम करने के पहले इस सोच में पड़ जाते हैं कि खरीदी और निर्माण का किसका मौका चूक जाएगा। ऐसे तंग नजरिए के चलते शहरों की नई जरूरतें किसी एक विभाग के तहत नहीं आ पातीं, और हर योजना की लागत और उसकी वापिसी सिर्फ रूपयों की शक्ल में नहीं गिनी जा सकती। आज किसी म्युनिसिपल में बसों को पर्यावरण बचाने वाला माना जाए, तो म्युनिसिपल के पर्यावरण विभाग को यह संतान अच्छी नहीं लगेगी, उसे पेड़, बगीचे, और तालाब तक शायद अपना काम सीमित लगे। इसलिए आज की बदली हुई जरूरतों के मुताबिक केन्द्र और राज्य सरकारों, और म्युनिसिपलों को अपना नजरिया बदलना होगा, और 21वीं सदी की बदली हुई जरूरतों के मुताबिक अपने पुराने ढांचे में फेरबदल करना होगा। निर्वाचित जनप्रतिनिधियों और सरकारी अफसरों को दशकों तक यह समझ नहीं आता था कि गरीबों को रियायती या मुफ्त राशन देना, मुफ्त इलाज देना, मुफ्त पढ़ाना, मुफ्त दोपहर का भोजन देना घाटे का नहीं फायदे का सौदा रहता है। देश का सामाजिक ढांचा विकसित करने की लागत शुरू-शुरू में लोगों को समझ नहीं आई थी, लेकिन बाद में समझ पड़ा था। इसी तरह भारत जैसे देश को अभी जागना होगा, और सौ बरस बाद मलाल करने के बजाय अभी से शहरों के फेंफड़े बचाए रखने के लिए सार्वजनिक परिवहन पर पूंजीनिवेश करना होगा। अभी केन्द्र सरकार राज्यों में जिस तरह से कुछ सीमा तक मदद कर रही है, उसे अधिक कल्पनाशील तरीके से आगे बढ़ाना होगा, किसी शहर से मिलने वाले जीएसटी का एक हिस्सा उस शहर के सार्वजनिक यातायात के लिए रखा जा सकता है, और इस तरह के और भी कई फार्मूले निकाले जा सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट के आदेश का स्टेट बैंक ने चुनावी बॉंड खरीदने वाली कंपनियों और लोगों के नाम रकम सहित उजागर कर दिए हैं। चुनाव आयोग की वेबसाइट पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश से ये जानकारी पोस्ट हो गई है, और इसके साथ एक अलग जानकारी भी पोस्ट हुई है कि किस-किस राजनीतिक दल को चुनावी बॉंड से कितना पैसा मिला। लेकिन किसी शातिर धूर्त की तरह हिन्दुस्तान के सबसे बड़े बैंक ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश से कतराकर निकलते हुए यह पोस्ट नहीं किया है कि किस कंपनी ने किस नंबर के बॉंड खरीदे थे, और किस राजनीतिक दल ने किस-किस नंबर के बॉंड भुनाए थे। इससे यह साफ हो जाता कि किस दानदाता ने किस पार्टी को कितना चंदा दिया, किस तारीख को दिया, और जैसा कि अदालत में जनहित याचिका लेकर जाने वाले लोगों का कहना है, इससे यह भी पता लगेगा कि किस तारीख को किस कंपनी पर किस केन्द्रीय एजेंसी की क्या कार्रवाई हुई, और क्या उसके बाद यह चंदा दिया गया? अब सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर स्टेट बैंक को लताड़ लगाई है कि उसने चुनाव आयोग को दी जानकारी में बॉंड के नंबर क्यों नहीं दिए हैं। देश को कोई भी जानकारी देने से स्टेट बैंक एक पेशेवर मुजरिम की तरह बच रहा है, और इससे देश के इस सबसे बड़े, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक की साख को बट्टा लगा है। ऐसा लग रहा है कि यह राजनीतिक खेल में एक हिस्सेदार बन गया है, और सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करने से भी यह कतरा नहीं रहा है। देश का एक सबसे महंगा वकील भी इसे सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का मतलब नहीं समझा पा रहा है।
आंकड़े बतलाते हैं कि चुनावी बॉंड से राजनीतिक दलों को जो पैसा मिला है, उसमें देश की बाकी तमाम पार्टियों को मिला कुल पैसा भी अकेली भाजपा को मिले पैसे से कम है। छह हजार करोड़ से अधिक पाने वाली भाजपा के तुरंत बाद इस लिस्ट में 16 सौ करोड़ पाने वाली तृणमूल कांग्रेस है, और अपने को राष्ट्रीय पार्टी बताने वाली कांग्रेस को भी इससे कम पैसा मिला है। कांग्रेस को मिले 14 सौ करोड़ के मुकाबले एक प्रदेश वाली भारत राष्ट्र समिति को 12 सौ करोड़ रूपए मिले हैं। लेकिन इससे अधिक दिलचस्प यह जानकारी है कि चुनावी बॉंड से सबसे अधिक चंदा किस कंपनी ने दिया है। देश के कई प्रदेशों में लॉटरी चलाने वाली एक कंपनी, फ्यूचर गेमिंग एंड होटल सर्विसेस ने 1368 करोड़ के चुनावी बॉंड खरीदे, और इस कंपनी पर पश्चिम बंगाल में लॉटरी की गड़बडिय़ों के जुर्म दर्ज हैं, और बंगाल के ही दर्ज जुर्म के आधार पर ईडी ने इस कंपनी के खिलाफ कार्रवाई की, और खुद ईडी का कहना है कि इसने लॉटरी की बिक्री से मिली कमाई को जमा न करके लॉटरी करवाने वाले राज्य को धोखा दिया है, ईडी का यह भी कहना था कि इस कंपनी ने कई और तरह से भी लॉटरी कानून तोड़ा है। यह कंपनी भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के राज्यों में काम कर रही है, और अब ऐसी कंपनी के खिलाफ गंभीर जुर्म भी दर्ज हैं, और कंपनी ने 13 सौ करोड़ से अधिक का चंदा भी दिया है, तो देश को यह जानने का हक तो है ही कि उसने किस पार्टी को कितना पैसा दिया? वोटरों को यह जानने का हक है कि किस पार्टी के राज में किसने क्या कारोबार किया, क्या गड़बड़ी की, और कब कितना चंदा दिया, उसके पहले और उसके बाद कार्रवाई में क्या फर्क हुआ?
अगर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना में जेल जाने के पहले स्टेट बैंक के चेयरमैन चुल्लू भर पानी में डूब मरने के बजाय अदालती आदेश के मुताबिक कही गई जानकारी दे देते हैं, तो देश के कई जनसंगठन यह विश्लेषण कर सकेंगे कि एक राज्य तक सीमित पार्टी तृणमूल कांग्रेस को इतना अंधाधुंध चंदा कैसे मिला है, और जिन्होंने चंदा दिया उनके पश्चिम बंगाल में कौन से कारोबारी हित हैं? ऐसा ही विश्लेषण बाकी पार्टियों के राज वाले प्रदेशों में, या पूरे देश में किया जा सकता है कि चंदे से धंधा किस तरह प्रभावित हुआ है। जिस जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने यह ऐतिहासिक फैसला दिया, उस याचिका का मकसद भी यही है कि सरकारी कार्रवाई का डर, चंदा, और फिर कारोबारी रियायत, इनका आपस में क्या संबंध है यह मतदाताओं के सामने रखा जाए। एक सीरियल के नाम पर इस नौबत को देखें तो सब जानकारी सामने आने से यह समझ पड़ेगा कि ये रिश्ता क्या कहलाता है? सुप्रीम कोर्ट को यह भी सोचना चाहिए कि अगर देश का एक बैंक अगर अदालत को उसकी औकात दिखाने पर उतारू है, तो उसके साथ क्या सुलूक करना बेहतर होगा? यह वही स्टेट बैंक है जहां देश का सबसे अधिक सरकारी कामकाज होता है, और जहां पहुंचने वाले आम लोग कर्मचारियों को घंटों लंच मनाते देखते हैं। बैंक सुप्रीम कोर्ट से भी लंच की तीन महीने की छुट्टी मांग रहा था, ताकि उसके बाद जानकारी दे, यह तो अदालत को समझ आ गया कि बैंक उसे बेवकूफ समझ रहा है, और उसने बैंक को जेल की तस्वीर दिखाई, तो कुछ घंटों में ही सारी जानकारी निकल आई। लेकिन इसके बाद भी स्टेट बैंक ने दानदाता और दानपाता के बीच रिश्ता बताने वाली जानकारी अब तक छुपाकर रखी है, और हमारा ख्याल है कि स्टेट बैंक चेयरमैन को तिहाड़ जेल दिखाना चाहिए, ताकि वे वहां एक दिन रहकर देख सकें कि कोई ब्रांच कैसे खोली जा सकती है।
जो भी आधी-अधूरी जानकारी सामने आई है, वह बताती है कि देश का सबसे बड़ा राजनीतिक चंदा देने वाला एक लॉटरी कंपनी का मालिक है, जो एक-एक महीने में सैकड़ों करोड़ के बॉंड खरीद चुका है। फिर जो भी लोग यह समझते हैं कि राजनीतिक दलों को चंदा बैंकों के मार्फत ही मिलता है, वे परले दर्जे के मासूम लोग हैं। भारत जैसे लोकतंत्र में अधिकतर चुनावी कमाई, खर्च, और राजनीतिक जमाखर्च यह सब कुछ अब भी कालेधन से ही होता है। चुनावी कालेधन की बात करें तो देश के बड़े-बड़े अफसर भी चुनावी खर्च पर्यवेक्षक बनकर भी देश में एक भी चुनाव को अवैध करार नहीं करवा पाते हैं, क्योंकि शायद चुनाव आयोग और सरकार की ऐसी नीयत भी नहीं रहती है। ऐसे में चुनावी दलों को बॉंड के मार्फत चंदा देने को ही पूरा नहीं समझ लेना चाहिए। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट को भी अपनी यह जिम्मेदारी समझ लेनी चाहिए कि जब सरकार, संसद, और चुनाव आयोग जैसी अलग-अलग संस्थाओं को लोकतंत्र कायम रखने में सीमित दिलचस्पी रह गई है, तो ऐसे में अदालत के कंधों पर एक अभूतपूर्व जिम्मेदारी आ जाती है। चुनावी बॉंड के इस मामले में अगर अदालत जरा भी समझौतापरस्त हो गई रहती, और कुछ जजों को रिटायरमेंट के बाद वृद्धावस्था-पुनर्वास की फिक्र रहती, तो हो सकता है कि चुनावी बॉंड की यह जानकारी भी जनता के सामने नहीं आ पाती। अब अदालत को स्टेट बैंक के मुखिया को कटघरे में बुलाना चाहिए, ताकि उन्हें आते-जाते कैमरे दिखा सकें, और लोगों को पता चल सके कि देश में सबसे लंबा लंच खाने वाला इंसान कौन हैं।
छत्तीसगढ़ के बस्तर में आदिवासी इलाके के एक आवासीय विद्यालय में पढ़ रही छात्रा ने कल एक बच्चे को जन्म दिया है, जिसके बाद हडक़म्प मच गया। बीजापुर नक्सल प्रभावित इलाका है, और वहां छात्रा को पेट दर्द की शिकायत के बाद सरकारी स्वास्थ्य केन्द्र ले जाया गया था, वहां बच्चे को जन्म देने के बाद दोनों सुरक्षित हैं। इस पर कांग्रेस ने अपनी एक महिला विधायक की अगुवाई में 8 सदस्यीय जांच दल बनाया है। जिस स्कूल छात्रावास में यह लडक़ी रह रही थी, उसकी अधीक्षिका को निलंबित कर दिया गया है। आदिवासी इलाकों में छात्राओं के साथ लगातार इसी तरह, या कई तरह के मामले होते रहते हैं, और उनके शोषण की बातें कई बार स्थापित भी हो चुकी हैं, कई लोगों की गिरफ्तारी भी होते रहती है। इस मामले में छात्रावास अधीक्षिका का कहना है कि यह छात्रा बालिग थी, और उसका एक लडक़े से प्रेमप्रसंग था जो कि दोनों परिवारों की जानकारी में भी था, और उसी के नतीजे में यह गर्भ और जन्म हुआ है। अधीक्षिका ने अपनी सफाई में कहा है कि यह संबंध दोनों परिवारों की जानकारी में था, और छात्रा को छात्रावास से बाहर जाने की इजाजत पारिवारिक सहमति के आधार पर ही मिलती थी।
हो सकता है कि अधीक्षिका ने अपनी सफाई में जो कुछ कहा है, सब सही हो, लेकिन एक सवाल यह उठता है कि छात्रावास में रहते हुए कोई छात्रा अगर गर्भवती हो रही है, और पूरे गर्भकाल के बाद एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दे रही है, तो छात्रावास के प्रभारी लोगों को इसकी जानकारी कैसे नहीं हुई? हमारा ख्याल है कि हॉस्टल के बच्चों के नियमित स्वास्थ्य परीक्षण का नियम रहता है, और छात्राओं के मामले में तो इस पर और अधिक गौर किया जाता होगा। ऐसे में हॉस्टल की जानकारी के बिना बात इतनी आगे बढ़ जाना परले दर्जे की लापरवाही के सुबूत के अलावा और कुछ नहीं है। बस्तर के इलाके में छात्रावासी छात्राओं के ऐसे मामले पहले भी सामने आए हैं, और यह बात साफ है कि स्कूल शिक्षा विभाग, या आदिम जाति कल्याण विभाग, जिनके भी स्कूल-छात्रावास होते हैं, उनकी लापरवाही और गैरजिम्मेदारी ऐसे मामलों में रहती है। इन विभागों में आदिवासी इलाकों में लोग अपनी तैनाती खरीददारी के लिए करवाते हैं जहां वे मनचाहे दाम पर खरीदी करते हैं, और उनके भ्रष्टाचार को पकडऩे वाले कोई नहीं रहते। लेकिन जब ऐसी घटनाएं बढक़र देह शोषण तक पहुंच जाती हैं, तो फिर मामला सिर्फ भ्रष्टाचार का नहीं रहता।
हमने बस्तर के इलाके में, और छत्तीसगढ़ के दूसरे सिरे के आदिवासी सरगुजा में भी आदिवासी बच्चियों के साथ ऐसा सरकारी बर्ताव देखा हुआ है। इसमें नई बात कुछ नहीं है, लेकिन यह बात कम गंभीर भी नहीं है। आज कांग्रेस अपनी महिला विधायक की अगुवाई में बड़ी सी टीम इस बच्ची के मां बनने की जांच के लिए बना चुकी है, लेकिन सवाल यह उठता है कि 9 महीने चले गर्भ की शुरूआत कांग्रेस सरकार के वक्त ही हुई होगी, और अभी तीन महीने पहले आई हुई विष्णु देव साय की सरकार के तहत तो उस गर्भ से संतान भर हुई है। इसमें किसे जिम्मेदार माना जाए? मौजूदा भाजपा सरकार को तो अगर सरकार बनते ही यह पता लग भी जाता कि एक लडक़ी गर्भवती है, तो भी वह गर्भ का तो कोई समाधान कर नहीं सकती थी, छात्रावास अधीक्षिका पर कार्रवाई जरूर हो सकती थी। यह बात भी कुछ हैरान करती है कि अधीक्षिका का कहना है कि अभी कुछ अरसा पहले एक मेडिकल जांच के लिए टीम छात्रावास आई थी, और सभी छात्राओं की जांच करके गई थी। जाहिर है कि गर्भवती छात्रा का पता नहीं लगना, मेडिकल टीम की भी लापरवाही रही होगी।
हम पहले भी इस बात को लिख चुके हैं कि आदिवासी इलाकों के लिए सरकार को अधिक संवेदनशील अधिकारी-कर्मचारी रखने चाहिए, और खासकर जहां आदिवासी बच्चों, लड़कियां, और महिलाओं का मामला हो, वहां पर सरकारी अमले को बड़ी सावधानी बरतनी चाहिए। वैसे भी नक्सल प्रभावित इलाकों में सरकार की सबसे बड़ी प्राथमिकता सुरक्षा व्यवस्था हो जाती है, और वहां पर बाकी कोई भी बात अधिक नहीं सोची जाती। ऐसी बहुत सी शिकायतें लंबे समय से रही हैं कि सुरक्षा कर्मचारियों में से कुछ लोग किस तरह स्थानीय महिलाओं से बुरा बर्ताव करते हैं, और उस पर कोई कार्रवाई इसलिए नहीं होती कि सुरक्षा बलों का मनोबल टूटेगा। लोगों को याद होगा कि हथियारबंद मोर्चे वाले जितने भी प्रदेश इस देश में रहे हैं, वहां सरकारी संगीनों वाली बंदूकों की लगातार लंबी मौजूदगी से ऐसा नुकसान होता है कि मानवाधिकार बेमायने लगने लगते हैं, और महिलाओं पर तरह-तरह का जुल्म होता है। मणिपुर की नग्न महिलाओं का प्रदर्शन लोगों को याद होगा जो कि फौज को मिली हुई एक खास हिफाजत के कानून को खत्म करने के लिए कई बार किया गया है। बस्तर में नौबत उतनी बुरी नहीं रही, लेकिन सुरक्षा बलों के हाथ महिलाओं के शोषण की शिकायतें भी बहुत रही हैं। ऐसे ही जुल्मों की वजह से बस्तर जैसे शांत इलाके में नक्सलियों को आने और पांव जमाने का मौका मिला। इसलिए जहां कहीं स्थानीय आदिवासियों के साथ सरकारी अमले की लापरवाही या गैरजिम्मेदारी रहती है, उस पर कड़ाई से कार्रवाई होनी चाहिए।
बस्तर की बालिग या नाबालिग, इस स्कूली छात्रा का इस तरह मां बनना या सरकार के लिए कई किस्म के सवाल खड़े करता है। इस पर कांग्रेस को जांच दल बनाने के बजाय अपने कार्यकाल में हुई लापरवाही को मंजूर करना चाहिए, लेकिन चुनाव के माहौल में सच से अधिक लंबा रिश्ता किसी का रहता नहीं है। ऐसी घटनाएं सरकार को यह मौका भी देती हैं कि वह अपना घर सुधार ले। पूरे प्रदेश में हर किस्म के सरकारी छात्रावास की छात्राओं के स्वास्थ्य की जांच भी होनी चाहिए, और उन्हें गर्भधारण या बीमारी से बचने के रास्ते भी बताने चाहिए। उनसे सिर्फ नैतिकता की उम्मीद जायज नहीं होगी, उन्हें उनकी उम्र के मुताबिक जरूरी सलाह भी देनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान की कम्प्यूटर राजधानी कहे जाने वाले देश के तीसरे सबसे अधिक आबादी के शहर बेंगलुरू का बिना पानी हाल-बेहाल है। लोग शहर छोड़ रहे हैं, और कंपनियों में कह रहे हैं कि उन्हें दूसरे शहर से काम करने दिया जाए। राज्य के मुख्यमंत्री सोशल मीडिया पर आईटी कंपनियों से अपील कर रहे हैं कि वे वर्क फ्रॉम होम अनिवार्य कर दें, ताकि लोग दूसरे शहरों से काम कर सकें। पानी की कमी से समाज में टैंकर खरीदने की ताकत रखने वाले और उतनी राजनीतिक पहुंच वाले लोगों के आसपास के कमजोर लोगों से रिश्ते खराब हो रहे हैं। इमारतों ने वहां रहने वाले बाशिंदों के लिए पानी में भारी कटौती कर दी है, और चारों तरफ पानी को किसी भी तरह बचाने की बात हो रही है। शहर में 16 हजार ट्यूबवेल हैं, जिनमें से 7 हजार सूखे हैं। यह शहर जो कि देश में एक सबसे महंगे, कम्प्यूटर-कारोबार का केन्द्र है, आज रात-रात जागकर पानी भरने वाले लोगों की जगह हो गया है। कोई शहर कितनी जल्दी दीवालिया हो सकता है, आज का बेंगलुरू इसकी एक बड़ी मिसाल है, और बाकी हिन्दुस्तान, या कि बाकी दुनिया के लिए एक सबक भी है।
हम कुछ अरसा पहले ही यह बात उठा चुके हैं कि हिन्दुस्तान में किस तरह जमीन में गहरे ट्यूबवेल खोदकर बहुत ताकतवर पम्प लगाकर लोग अंधाधुंध पानी उलीचते रहते हैं, और यह पूरा सिलसिला पूरी तरह बेकाबू है। हम अपने आसपास यह भी देखते हैं कि किस तरह लोग आज भी कारें धोने में पानी बर्बाद कर रहे हैं, और ताकतवर पम्प लगाकर उससे मकान-दुकान के सामने की फर्श-सडक़ भी धोई जाती है। लोग बड़े-बड़े लॉन लगाते हैं, और उस घास को धान की फसल की तरह सींचते हैं। लोग छतों पर गार्डन लगाते हैं, और हिन्दुस्तान जैसे गर्म देश में छतों पर पौधों को जिंदा रखने के लिए पैसे वाले लोग टैंकरों से भी पानी बुलवाते हैं। हरियाली के नाम पर आबादी का एक बड़ा हिस्सा जिस तरह के पेड़-पौधे लगाता है, लॉन लगाता है, उसमें से अधिकतर पानी की खपत वाले रहते हैं। कुल मिलाकर मतलब यह है कि आज जिनके हाथ पानी लग गया है, वे उसे बाकी तमाम जिंदगी की सहूलियत गिनकर चल रहे हैं, उनकी सेहत पर इससे भी फर्क नहीं पड़ रहा कि हर बरस जलस्तर नीचे जा रहा है। शहरी-संपन्न तबका पानी की अपनी रोज की बेकाबू खपत की तरफ ध्यान भी नहीं देता है क्योंकि उसके पम्प जमीन को खाली करने की ताकत रखते हैं।
हिन्दुस्तान में पानी की बर्बादी को रोकने का एक तरीका हमें यह दिखता है कि हर ट्यूबवेल पर मीटर लगाया जाए ताकि कितना पानी निकाला जा रहा है, उस पर टैक्स लिया जा सके। जब लोग टैक्स देते हैं तो अधिकतर लोग फिजूलखर्ची बंद कर देते हैं। एक बहुत छोटा सा अतिसंपन्न तबका ऐसा जरूर हो सकता है जो कि इसके बाद भी पानी की फिजूलखर्ची को अपनी शान-शौकत माने, लेकिन वह खपत बहुत बड़ी नहीं होगी। देश में गाडिय़ों को धोने पर तुरंत रोक लगनी चाहिए, और म्युनिसिपलों को भी बिजली के बिल की तरह अधिक पानी-खपत वाले लोगों पर भुगतान का रेट बढ़ाते चलना चाहिए। नागपुर जैसे कुछ शहरों में जहां पर निजी कंपनी के साथ मिलकर सरकार या म्युनिसिपल ने पानी पर टैक्स लगाया है, वहां पानी की खपत एकदम से कम हो गई है। और सवाल सिर्फ सरकार या म्युनिसिपल की कमाई का नहीं है, सवाल पानी की किफायत की आदत का भी है जो कि पानी पर टैक्स लगे बिना सुधरने वाली नहीं है।
क्लिक करें और देखें: खेत ही नहीं, शहर भी बंजर होने के करीब!
दूसरी बात यह कि शहरों में नए मकानों और इमारतों पर अंडरग्राउंड वॉटर री-चार्जिंग की जो शर्त लगाई जाती है, वह अधिकतर जगहों पर कागजी भर रहती है, और उस पर अमल नहीं होता। इस पर एक ईमानदार कड़ाई बरतने के साथ-साथ हर शहर को बड़े पैमाने पर सार्वजनिक अंडरग्राउंड वॉटर री-चार्जिंग का इंतजाम करना चाहिए। शहरों से परे भी बारिश में जिन नदियों में बाढ़ आती है, उनके कैचमेंट एरिया में बहुत बड़े-बड़े तालाब खोदने चाहिए ताकि ओवरफ्लो बह रही नदियों का पानी उनमें भर सके, और फिर धीरे-धीरे जमीन के भीतर जलस्तर को बढ़ाने के काम आ सके। आज एक दिक्कत यह भी है कि तालाब बनाने की सारी योजनाएं मजदूरों को रोजगार देने के हिसाब से चलती हैं, और जमीन की जरूरत के हिसाब से ग्राउंड वॉटर री-चार्जिंग के तालाब नहीं बनाए जाते जिन्हें कि मशीनें लगाकर भी बनाना चाहिए। इन तालाबों को ग्रामीणों की निस्तारी के या खेतों की सिंचाई के हिसाब से ही नहीं बनाना चाहिए बल्कि नदियों की बाढ़ घटाने के हिसाब से भी बनाना चाहिए।
पानी की यह कमी पूरी तरह इंसानों की पैदा की हुई है। लोगों ने शहरी जिंदगी ऐसी बना ली है कि चौथाई लीटर पेशाब बहाने के लिए भी मूत्रालय में पांच लीटर पानी फ्लश किया जाता है। यह तो कुदरत ने ही बेंगलुरू जैसे एक बड़े शहर को मॉडल बनाकर अपने तेवर दिखा दिए हैं, और बाकी शहरों के सम्हल जाने की एक संभावना खड़ी की है। केन्द्र सरकार से लेकर म्युनिसिपल और पंचायतों तक हर किसी को पानी को लेकर जाग जाना चाहिए, वरना जिस तरह कर्नाटक सरकार को आज अपनी राजधानी से लोगों की आबादी घटाने की फिक्र करनी पड़ रही है, वह नौबत किसी भी शहर की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह चौपट कर देगी। और अभी तो गर्मी के मौसम का पहले महीने, मार्च का पहला पखवाड़ा ही चल रहा है, अभी तो बारिश आने में करीब तीन महीने बाकी हैं, और तब तक जिंदगी कैसी रह जाएगी, इसका अंदाज भी लगाना मुश्किल है।
अभी तो हम सिर्फ पानी की खपत करने वाले इंसानों से जुड़ी बातें कर रहे हैं। अभी मौसम के बदलाव की वजह से बर्फ से लदी पहाडिय़ों पर पडऩे वाले फर्क, और नदियों के बहाव को मोडऩे की योजनाओं की व्यापक चर्चा नहीं कर रहे हैं। ऐसी चर्चा स्थानीय संस्थाओं के काबू के बाहर की होगी। इसलिए पहले तो स्थानीय निर्वाचित संस्थाएं और उनके नागरिक-निवासी क्या कर सकते हैं, इसी की फिक्र तुरंत होना चाहिए। हमारे हिसाब से पानी की मीटरिंग सबसे पहला कदम हो सकता है, और यह प्राकृतिक साधन का एक समानतावादी इस्तेमाल भी होगा। देखें कि सरकारें जनता पर जरा सा भी अनुशासन लादने का हौसला दिखा सकती हैं या नहीं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
ब्रिटेन के एक प्रतिष्ठित अखबार, गॉर्डियन, की एक खोजी रिपोर्ट में एक ऐसे एआई एप्लीकेशन को बनाने वाले को तलाशा गया है जिससे कि लोग स्कूली लड़कियों की आम तस्वीरों को लेकर ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से उनको नग्न तस्वीरों में बदल दे रहे हैं। इसकी वजह से स्पेन की कई स्कूलों में तबाही सरीखी आ गई है, और अब वहां की पुलिस भी इस उलझन में है कि ऐसी तस्वीरें गढऩे वाले सहपाठी लडक़ों पर कितनी कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाए। ये तस्वीरें एकदम असली दिखती हैं, और पल भर को भी यह नहीं लग सकता कि उन्हें किसी तकनीक से गढ़ा गया है। जब इस एप्लीकेशन को बनाने वाले को तलाश कर उससे बात की गई, तो उसने बदली हुई आवाज में दिए गए जवाबों में यह कहा कि उसने इसे इसलिए बनाया है कि लोग अपने बदन के साथ चैन से रह सकें। अब हालत यह है कि ये तस्वीरें पोर्न वेबसाइटों पर पहुंच गई हैं, और इनके असली दिखने की वजह से वे लोग बहुत मानसिक यातना से गुजर रहे हैं जिनके चेहरे इन पर लगे हैं। अब डीपफेक कही जाने वाली एक तकनीक के इस्तेमाल से हर दिन ऐसी तस्वीरें और ऐसे वीडियो गढऩा आसान होते चले जा रहा है, और इनसे पैदा होने वाली मानसिक यातना और सामाजिक प्रताडऩा से हो सकता है कि बहुत से लोग अपनी जिंदगी देने लगें। क्लोथ्सऑफ नाम के इस एआई एप्लीकेशन को बनाने वाली कंपनी की जड़ें बेलारूस, रूस से होते हुए योरप के कई देशों से गुजरकर लंदन में गॉर्डियन में ऑफिस के पास में ही निकली। इस वेबसाइट पर लोगों को न्यौता दिया जाता है कि वे एआई का इस्तेमाल करके किसी के भी कपड़े उतार सकते हैं, और हजार रूपए से कम की फीस में वे ऐसी 25 तस्वीरें बना सकती हैं। एक भाई-बहन ने मिलकर यह एप्लीकेशन बनाया है, और वे अपनी पहचान छुपाने के साथ-साथ मीडिया की नजरों से दूर-दूर भी चल रहे हैं।
जब योरप जैसी उदार जीवन संस्कृति के देशों में ऐसे ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस औजार से इस तरह की तबाही आ सकती है तो बाकी देशों के बारे में अंदाज लगाया जा सकता है जहां पर लोग अधिक दकियानूसी या तंगदिल हैं। अभी तक हम रिवेंज पोर्न नाम के ऐसे नग्न या अश्लील वीडियो और फोटो देखते हैं जो कि भूतपूर्व प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे के खिलाफ सोशल मीडिया या पोर्न वेबसाइट पर बदला निकालने के लिए पोस्ट करते हैं। हम अपने इस कॉलम में लोगों को यह सावधानी भी सुझाते आए हैं कि किसी अच्छे वक्त में भी लोगों को ऐसे फोटो-वीडियो से बचना चाहिए। लेकिन अब अगर एकदम असली जैसी दिखने वाले फोटो और वीडियो गढऩा आसान हो गया है तो किसी को भी बदनाम करने के लिए इंटरनेट पर मौजूद ऐसी सस्ती तकनीक का कैसा-कैसा बेजा इस्तेमाल नहीं हो सकता? फिर यह भी है कि पोर्नो से परे भी ऐसी तकनीक के हजार किस्म के दूसरे इस्तेमाल हैं जो कि लोकतंत्र और चुनाव को प्रभावित करने के लिए शुरू हो चुके हैं। अभी अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव का प्रचार शुरू भी नहीं हुआ है, और अमरीका के काले लोग ट्रंप के पक्ष में बातें कर रहे हैं, उनका समर्थन कर रहे हैं, ऐसे फोटो और वीडियो सामने आ गए हैं। लोग यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि इससे कैसे निपटा जा सकेगा?
एआई के सबसे बड़े खतरों में से एक यह भी है कि इससे जनमत की पहचान करके, अलग-अलग लोगों के राजनीतिक या सामाजिक, साम्प्रदायिक या आर्थिक रूझान का हिसाब लगाकर उन्हें प्रभावित करने के लिए अलग-अलग किस्म से कोशिश की जा सकती है। इसे एआई का सबसे बड़ा खतरा बताया जा रहा है कि यह जनमत को प्रभावित कर सकता है, और उस तरह से यह चुनाव और लोकतंत्र पर कुछ चुनिंदा ताकतों को ला सकता है, वहां बनाए रख सकता है। दुनिया के बहुत से कम्प्यूटर-संबंधित कारोबारी भी ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के आगे के विकास पर रोक लगाने की मांग कर रहे हैं, क्योंकि यह विकसित होते-होते कब और कितना विनाशकारी हो जाएगा, कब इंसानों से बेकाबू हो जाएगा, इसका अंदाज लगाना मुमकिन नहीं है। कई महीने हो चुके हैं जब एक टेक्नॉलॉजी-पत्रकार ने एक ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आधारित चैटबॉट के बारे में लिखा था कि उसने इस पत्रकार को बातें करते-करते आत्महत्या के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया था। और यह तो महज शुरूआत थी, बहुत से लोग आज असल जिंदगी के संबंधों से डरने लगे हैं, और ऐसे लोग ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर आधारित कृत्रिम किरदारों से भावनात्मक संबंध बनाना अधिक आसान और महफूज मान सकते हैं। ऐसे किरदार आगे चलकर लोगों की जिंदगी में इंसानी संबंधों का विकल्प बन सकते हैं, और जिंदा इंसानों की सोच बदल सकते हैं। यह पूरा सिलसिला इंसानों के सामाजिक ताने-बाने को एक बिल्कुल ही नई शक्ल दे सकता है, और आज भी बहुत से भविष्य-विज्ञानी इस बात का अंदाज लगा रहे हैं कि अगले 25-30 बरस में इंसान रोबो से शादी कर सकते हैं।
आज किसी चेहरे के साथ बाकी बदन की एक तस्वीर गढ़ देने वाला ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस कुछ बरस के भीतर ऐसे बदनों के थ्रीडी मॉडल बनाने लगेगा, और आज भी काम कर रहे थ्रीडी प्रिंटर उस दिन असली से लगने वाले बदन तैयार करने लगेंगे, और ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस उन बदनों के भीतर दिल-दिमाग और भावनाएं भर देंगे, और इंसानों को वे दूसरे इंसानों के बजाय अधिक आसान और सहूलियत वाले जीवनसाथी लगने लगेंगे। एक तरफ तो ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से दुनिया भर में आतंकी हमले, साइबर क्राइम, और जनमत प्रभावित करने के खतरे दिख ही रहे हैं, और दुनिया के कई देशों में बुरी तरह घटती हुई आबादी में हो सकता है कि कृत्रिम जीवनसाथी और गिरावट ला दें। इसलिए ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की संभावनाओं और इसके खतरों पर नजर रखना जरूरी है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बैंक से लेकर गैस सिलेंडर तक, और दूसरे सौ किस्म के कामों के लिए लोगों के मोबाइल फोन पर ओटीपी आते हैं, उन्हें बैंक या गैस एजेंसी, या किसी और सरकारी दफ्तर का प्रतिनिधि बनकर लोग फोन करते हैं, ओटीपी पूछते हैं, और इसके तुरंत बाद इन लोगों के बैंक खातों से पूरी रकम खाली हो जाती है। यह सिलसिला हर दिन देश में हजारों लोगों के साथ हो रहा है। झारखंड के जामताड़ा जैसे कुछ कस्बों में फोन और इंटरनेट से ऐसी ठगी करने के कुटीर उद्योग चल रहे हैं, वहां के तकरीबन हर नौजवान इसी काम में लगे हैं। यह सब कुछ तब हो रहा है जब देश के हर मोबाइल नंबर और हर बैंक खाते को आधार कार्ड से जोड़ा गया है, और सरकार की हर किस्म की योजना भी आधार कार्ड से जोड़ी गई है। एक कार्ड की जानकारी लोगों को लगने से वे किसी व्यक्ति की हर जानकारी तक पहुंच जा रहे हैं, और बैंक खाते खाली कर देने का काम उनके लिए बड़ा ही आसान हो गया है।
अब देश भर से रोज आती ऐसी शिकायतों को देखें तो समझ पड़ता है कि भारत सरकार जिस रफ्तार से, और जितने दबाव से देश में डिजिटल लेन-देन बढ़ा रही है, जिस तरह सुप्रीम कोर्ट के साफ-साफ निर्देशों के बावजूद आधार को अनिवार्य किए चली जा रही है, उससे आम तो आम, खासे पढ़े-लिखे लोग भी ठगी का शिकार हो रहे हैं। केन्द्र सरकार अगर देश भर में ऑनलाईन ठगी, और ओटीपी के बेजा इस्तेमाल का अध्ययन कर ले, तो ही उसे समझ आ जाना चाहिए कि डिजिटल लेन-देन की अनिवार्यता, और आधार से बैंक खातों को लिंक किया जाना एक नया खतरा खड़ा कर रहे हैं क्योंकि लोगों का चौकन्नापन अभी ऐसे लेन-देन के लायक तैयार नहीं है। और अभी तो बहुत से बुजुर्ग, कम पढ़े-लिखे, या कम चौकन्ने बैंक उपभोक्ता ऐसे भी हो सकते हैं जिन्हें उनके खाते खाली हो जाने की खबर भी न लगी हो।
चूंकि देश के लोगों को आर्थिक अपराधों से बचाना भी एक किस्म से केन्द्र और राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है इसलिए जहां कहीं ठगी में आधार कार्ड, बैंक खातों, और मोबाइल नंबरों की जानकारी इस्तेमाल होती है, वहां ठगी के खिलाफ सरकारों को एक बीमे का इंतजाम करना चाहिए। चूंकि सरकार और बैंक जानकारियों को इकट्ठा करती हैं, और इन्हीं में जमा पैसों की ठगी होती है, इसलिए ठगी गई रकम का मुआवजा या तो सरकारें खुद लोगों को दें, या फिर ऐसे बीमे का इंतजाम करें जिससे नुकसान की भरपाई हो सके। बैंकों को भी अपने ग्राहकों से होने वाली ठगी के खिलाफ बीमे और मुआवजे का इंतजाम करना चाहिए। आज जब मौसम की मार से फसल को होने वाले नुकसान का बीमा होता है, तो लोगों की बैंक खातों की जमा रकम ठग लिए जाने के खिलाफ बीमा क्यों नहीं हो सकता?
यहां पर इस बात पर विचार की जरूरत भी है कि लोगों के आधार कार्ड, पेनकार्ड, वोटर आईडी, ड्राइविंग लाइसेंस जैसी बहुत सारी शिनाख्त की जानकारी सरकार ने एक-दूसरे से जुड़वा दी है। इसके बाद तरह-तरह की सरकारी योजनाओं के लिए ऑनलाईन रजिस्ट्रेशन की जरूरत पड़ती है। केन्द्र सरकार की एक-एक योजना में सौ-पचास करोड़ लोगों की जानकारी जमा है। अब आम लोगों से ऐसी जानकारी के साथ जुड़ी रहने वाली हिफाजत की कड़ी जरूरत को पूरा करने की उम्मीद नहीं की जा सकती। आम हिन्दुस्तानी की जिंदगी इतनी डिजिटल जागरूकता वाली नहीं है कि वे पूरी सावधानी बरत सकें। दूसरी तरफ ठगों ने बहुत मामूली से कम्प्यूटरों और मोबाइल फोन से इन जानकारियों को चुरा लेने का तरीका निकाल लिया है, और लोगों को धोखा देना उनके लिए एक आसान काम हो गया। यह नौबत बड़ी खतरनाक है क्योंकि सरकार की इकट्ठा की गई जानकारी इतनी अधिक है कि उसमें जरा सी घुसपैठ भी करोड़ों लोगों की हर जानकारी मुजरिमों के हाथ दे सकती है। बीच-बीच में ऐसी खबरें आती हैं कि मुजरिमों के बीच इस्तेमाल होने वाले डार्क-वेब पर जानकारी बिकने के लिए आती रहती है, हालांकि अभी तक ऐसी सनसनी सही साबित नहीं हुई है। लेकिन बड़े पैमाने पर न सही, इक्का-दुक्का लोगों को ठगने लायक जानकारी कहीं न कहीं से निकलती ही है, चाहे उन लोगों से खुद से ही क्यों न निकले। ऐसे में सरकार के जागरूकता अभियान की जरूरत तो ठीक है, लेकिन इतने व्यापक स्तर पर इतनी जागरूकता नहीं फैल सकती कि लोग ठगी के शिकार न हों।
फिर एक बात यह भी है कि मोबाइल फोन पर तमाम संदेश सरकार की निगरानी और पहुंच के भीतर रहते हैं। ठगी के कुछ प्रचलित तरीके हैं जो कि पुलिस रिपोर्ट से सामने आ जाते हैं। केन्द्र सरकार को ऐसा एक निगरानीतंत्र बनाना चाहिए जो कि मोबाइल फोन और इंटरनेट से होने वाली ठगी के पहले ही उस पर निगरानी रखे, और समय रहते मुजरिमों को पकड़ा जाए। कुल मिलाकर यह सरकार के हिस्से की कमी और कमजोरी दिख रही है कि लोग ठगे जा रहे हैं। आज सरकार के ही नियम लोगों को नगद लेन-देन से रोकते हैं, घर में नगदी रखने से रोकते हैं, और जब सारा लेन-देन डिजिटल करने के लिए सरकार ने कमर कस ली है, तो फिर उसे ठगी के खिलाफ जनता को हिफाजत देने का इंतजाम भी करना चाहिए।
बिहार में कल भूतपूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव के एक सहयोगी पर ईडी का छापा पड़ा, और उसके घर से दो करोड़ नगदी के अलावा बड़ी जायदाद के कागज मिलने का दावा किया गया है, उसे रेत कारोबार से जुड़ा बताया गया है, और गिरफ्तार किया गया। सुभाष यादव नाम का यह आदमी 2019 में आरजेडी की टिकट पर लोकसभा चुनाव भी लड़ चुका है, उसके खिलाफ पहले भी रेत के अवैध कारोबार के छापे पड़ चुके हैं, और मामले दर्ज हैं। इस बार फिर इसके लोकसभा चुनाव लडऩे की तैयारी बताई जा रही थी। शायद इसी मामले को लेकर पटना में कल केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा है कि जमीन और रेत माफिया को उल्टा लटकाकर हम सीधा कर देंगे। रेत को लेकर देश के बहुत से प्रदेशों में माफिया-कारोबार चलता है। कई जगह सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को रेत माफिया अपनी गाडिय़ों से कुचलकर मार डालता है। और छत्तीसगढ़ में भी रेत माफिया की ताकत इतनी है कि गैरकानूनी तरीके से बड़ी-बड़ी मशीनें लगाकर नदियों से अवैध रेत खुदाई की जाती है, और जहां पर रेत खदान नहीं मिली है, वहां पर खुदाई और अधिक की जाती है। आज ही रेत ढोने वाले ट्रांसपोर्टरों के संघ ने कहा है कि प्रदेश में 222 रेत खदानों की नीलामी हुई है लेकिन अब तक 20 खदानें भी शुरू नहीं हुई हैं। उनका कहना है कि खदानों से ही चार-पांच गुना दाम पर रेत दी जा रही है, इसलिए बाजार में रेत महंगी है। यह भी याद रखने की जरूरत है कि पिछले दिनों विधानसभा में सत्तारूढ़ भाजपा के विधायक धर्मजीत सिंह ने दावे के साथ यह कहा था कि प्रदेश की नदियों में दो सौ से अधिक पोकलैंड मशीनें रेत की अवैध खुदाई कर रही हैं। उन्होंने कहा कि जांच में अगर मशीनें इससे कम मिले, तो वे विधानसभा से इस्तीफा दे देंगे। सत्तारूढ़ विधायक की यह छोटी चुनौती नहीं थी।
दरअसल पिछले पांच बरस से छत्तीसगढ़ में रेत का जो अवैध कारोबार चल रहा है, उसमें नेता, अफसर, और ठेकेदार का एक माफिया बना डाला है। किसी भी जिले में अफसरों को लाखों रूपए की रिश्वत दिए बिना रेत खदान की लीज पर दस्तखत नहीं होते। इसके अलावा हर जगह लॉटरी से खदान पाने वाले लोगों पर प्रशासन की तरफ से यह दबाव डाला गया कि वे किसी सत्तारूढ़ नेता को अघोषित भागीदार बनाएं तभी वे खदान चला पाएंगे। यह दादागिरी पूरे प्रदेश में पूरे पांच बरस चली, और इन्हीं सब वजहों से रेत के दाम न सिर्फ आसमान पर रहे, बल्कि छत्तीसगढ़ से पड़ोस के प्रदेशों में हर दिन हजारों ट्रक रेत की तस्करी भी होती रही। पूरे प्रदेश में खनिज विभाग एक तरफ तो कोयला-रंगदारी वसूलने में लगे रहा, जिसकी वजह से आज ढेर सारे जिला खनिज अधिकारी जेल में पड़े हैं, और जब किसी अफसर को एक जुर्म में शामिल किया जाता है, तो फिर उन्हें बाकी किसी जुर्म से भी परहेज नहीं रह जाता। इस तरह कोयला, रेत, आयरन ओर, सभी तरह की अवैध उगाही, और अवैध कारोबार में जिला प्रशासन का औजार बना हुआ खनिज विभाग लगे रहा। फिर सत्ता के बड़े-बड़े ताकतवर लोगों को अघोषित भागीदार बनाने के लिए कलेक्टरों ने गुंडों की तरह काम किया। नतीजा यह हुआ कि आज भाजपा की सरकार आने के बाद भी पिछले बरसों में अवैध कमाई से भारी बाहुबल पाने वाले रेत माफिया का अवैध कारोबार जारी है, और लोगों को रेत महंगी मिल रही है।
जब किसी कारोबार में लोगों को बरसों तक अंधाधुंध कमाई होती है, तो वे इतना बाहुबल बना लेते हैं कि वे नई सरकार की नई नीति, या नए नियम-कायदों को नाकामयाब साबित करने के लिए कारोबार को ठप्प करने की हरकत भी करते हैं, ताकि लोगों के बीच बेचैनी फैले, और सरकार उन्हें पुराने ढर्रे पर जुर्म करने की छूट दे। ऐसे माफिया की कमर एक बार तोडऩा जरूरी है। दिक्कत यह होती है कि अवैध कमाई का ढांचा बनाने वाले अधिकारी माफिया-कारोबारियों के साथ मिलकर नए सत्तारूढ़ नेताओं को रिझाने की कोशिश में लग जाते हैं, और कार्रवाई दिखावे के लिए शुरू होती है, और फिर थम जाती है।
हम रेत माफिया के तौर-तरीकों से जनता की खदानों की लूट से परे भी इस मुद्दे पर बात करना चाहते हैं। नदियों से रेत की अंधाधुंध और अवैध खुदाई जब गैरकानूनी मशीनों को लगाकर की जाती है, तो नदियों का और पर्यावरण का कोई ध्यान नहीं रखा जाता। जहां से सहूलियत अधिक रहती है, वहां पर खाई बना दी जाती है, और रेतघाट के ठेकेदारों का पर्यावरण से कुछ लेना-देना नहीं रहता। जब कलेक्टर की कुर्सियों पर बैठे लोग हर ट्रक पीछे अपना हिस्सा बांध लें, और जब मंत्री या विधायक धंधे में हिस्सेदार हो जाएं, तो फिर कार्रवाई कौन कर सकते हैं? पिछले पूरे पांच बरस इसी अंदाज में काम चला, और अब नई सरकार को शायद कार्रवाई करने में दिक्कत भी हो रही है, क्योंकि सारा सरकारी अमला बुरी तरह भ्रष्ट हो चुका है। अगर नदियों से अंधाधुंध रेत उगाही चलती रही, तो नदियों के बहाव में फर्क पड़ेगा, हो सकता है कि उनमें गाद भरती जाए, और जैसा कि कुछ अरसा पहले बिलासपुर की अरपा नदी में सामने आया है, अवैध खुदाई की वजह से बने गड्ढों में डूबकर बच्चे मारे भी गए।
हमारी सलाह है कि सरकार इस पूरे अवैध कारोबार को पूरी कड़ाई से बंद करवाए, और जितनी गाडिय़ां जब्त हो रही हैं, उनको राजसात किया जाना चाहिए, या फिर उनसे अधिकतम संभव जुर्माना वसूलना चाहिए। रेत खदानों को मुरम या पत्थर खदानों के मुकाबले अधिक नाजुक मामला मानना चाहिए क्योंकि वह नदियों से जुड़ा हुआ मुद्दा है। सरकार की अगर इच्छाशक्ति होगी, तो इस माफिया-कारोबार को बंद करवाना अधिक मुश्किल बात नहीं है। पिछली कांग्रेस सरकार अगर चुनाव हारी थी, तो उसके पीछे जनता को रेत के अंधाधुंध दाम देना भी एक छोटी वजह रही होगी, और ऐसी वजह हमेशा ही चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी को नुकसान पहुंचाएगी। अभी तुरंत ही लोकसभा के चुनाव सामने हैं, और उसके कुछ महीनों बाद पंचायत और म्युनिसिपल के चुनाव रहेंगे जिनमें स्थानीय मुद्दे सबसे अधिक हावी रहेंगे। शराब और रेत, पटवारी और तहसील, ये आम जनता को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले होते हैं।
दिल्ली में कल एक सडक़ पर नमाज पढ़ रहे नमाजियों को जूतों से धक्के मारकर हटाने वाले एक पुलिस अफसर को निलंबित तो कर दिया गया है, लेकिन इसका वीडियो एक अफसर और एक निलंबन से अधिक दहशत पैदा कर रहा है। यह दहशत सिर्फ गरीब नमाजियों के मन में नहीं है, जिनके लिए आसपास कोई मस्जिद नहीं है, और जो कुछ मिनटों की नमाज पढऩे के लिए बहुत से शहरों में मैदान, बगीचे, सडक़ की कुछ चौड़ाई, और रेलवे प्लेटफॉर्म जैसी जगहों का इस्तेमाल करते हैं। जाहिर तौर पर यह सार्वजनिक जगह पर कुछ मिनटों की असुविधा हो सकती है, लेकिन एक लोकतंत्र में क्या किसी एक चुनिंदा धर्म के लिए इस तरह से ऐसी सजा तय की जा सकती है? दिल्ली में इस घटना के दौरान के जो वीडियो सामने आए हैं वे बताते हैं कि सडक़ के किनारे में पढ़ी जा रही नमाज से बाकी सडक़ पर आवाजाही में रूकावट नहीं आ रही थी। खबरें बताती हैं कि वहां की मस्जिद पूरी भर गई थी इसलिए कुछ लोग बाहर बैठे थे।
खैर, हम बहुत बारीकी वजहों पर जाना नहीं चाहते, और देश में आज मोटेतौर पर जो माहौल बना है, उस पर बात करना चाहते हैं। इस वीडियो के पहले भी कई लोगों ने हैदराबाद के एक भाजपा विधायक के वीडियो देखे होंगे जिनमें वह भारी भीड़ के बीच एक मंच के ऊपर से माईक पर धर्मों के भेदभाव की बात करते हुए मां-बहन की गालियां बकता है, और बकते ही चले जाता है। इसे आज देश में आक्रामक हिन्दुत्व का ध्वजवाहक माना जा रहा है। इसी तरह का माहौल बहुत से प्रदेशों में बना हुआ है, और किसी भी किस्म के छोटे-बड़े जुर्म में शामिल होने के आरोप में जिन लोगों के मकान, दुकान बुलडोजर से गिराए जा रहे हैं, वे तकरीबन तमाम ही मुस्लिम हैं। बहुत से ऐसे मामले हैं जिनमें आतंक के जुर्म में बंद मुस्लिम 20-25 बरस बाद अदालत से बरी हो रहे हैं, तब तक उनकी खुद की, और परिवार की जिंदगी तकरीबन खत्म हो चुकी रहती है।
अब अगर सडक़ किनारे नमाज पढ़ते लोगों को पुलिस बूट से मारा जाना है, तो फिर इस धर्मनिरपेक्ष देश में बाकी धर्मों के साथ जो सुलूक होता है, उसे भी समझने की जरूरत है। मुस्लिमों की ऐसी नमाज तो शायद हफ्ते में एक दिन कुछ मिनटों की रहती है, और उससे हो सकता है कहीं-कहीं मामूली सी दिक्कत भी होती हो। लेकिन दूसरे धर्मों के धार्मिक जुलूस जिस तरह कई-कई दिनों तक निकलते हैं, सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के शोरगुल-विरोधी फैसलों के खिलाफ पूरी दबंगई से निकलते हैं, क्या उनसे लोगों को असुविधा नहीं होती? प्रतिमाओं को स्थापित करने ले जाने, और फिर उन्हें विसर्जन के लिए ले जाने का सिलसिला हर शहर में कई दिन चलता है, और वहां पर लाउडस्पीकर का हाल यह रहता है कि आसपास लोगों की मौत भी दर्ज हो चुकी है। मस्जिदों पर हर दिन कुछ बार कुछ-कुछ मिनट के लिए बजने वाले लाउडस्पीकर को उतरवाने की बहुत बात होती है, लेकिन मंदिरों पर लगे लाउडस्पीकर तो कुछ-कुछ मिनटों के लिए नहीं बजते, वे तो घंटों तक बजते हैं, और त्यौहारों के वक्त तो वे लगातार कई दिन बज सकते हैं, बजते हैं। दूसरे धर्मों के जुलूस और लाउडस्पीकर भी इसी तरह रहते हैं, कई धर्मों के लोग हथियार लिए हुए सडक़ों पर चलते हैं, और ऐसे तमाम धार्मिक जुलूसों से बंद सडक़ों पर पुलिस ही जुलूस की हिफाजत करते चलती है। बीते बरसों में लगातार यह बात सामने आई है कि किस तरह कांवर यात्राओं के दौरान सडक़ों पर अराजकता और हिंसा होती है, किस तरह खानपान के ठेलों को बंद करवाया जाता है, ट्रैफिक तो मनचाहे तरीके से रोक ही दिया जाता है। लेकिन उत्तरप्रदेश जैसे राज्य में राज्य के पुलिस प्रमुख हेलीकॉप्टर से जाकर कांवरियों पर फूल बरसाते हैं। और इधर मुस्लिमों की नमाज के दौरान नमाजियों के पिछवाड़े पर बूट पहनी पुलिस लात मार रही है।
देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को खत्म करने के अलावा जगह-जगह पुलिस एक दूसरा काम भी कर रही है, वह नागरिकों के बुनियादी अधिकार भी अपने बूट से कुचल रही है, और लोकतंत्र को भी जूते तले कुचल रही है। कल का यह जूता एक पुलिसवाले का जूता नहीं था, वह सत्ता की सोच का एक सुबूत था, और वह किसी नमाजी के पिछवाड़े पर नहीं मारा गया था, वह लोकतंत्र के मुंह पर मारा गया था, और उसी दिल्ली में बैठे हुए सुप्रीम कोर्ट का मुंह चिढ़ाते हुए उसकी मौन-औकात बताते हुए मारा गया था। यह सिलसिला भयानक है। वीडियो तो आधे मिनट का है, लेकिन यह पूरी दुनिया में हिन्दुस्तान को विश्वगुरू के किसी भी संभावित, काल्पनिक, और स्वघोषित तमगे से दूर धकेल देता है, और यह बताता है कि ऐसी हरकतों के चलते हुए विश्वगुरू रहने और बनने का दंभ अपने मुंह एक पाखंडी दावा करने से अधिक कुछ नहीं है। दिल्ली की पुलिस केन्द्र सरकार के मातहत काम करती है, और हम उम्मीद करते थे कि महज पुलिस अफसर से ऊपर के कोई अधिक महत्वपूर्ण लोग इस पर कुछ बोलेंगे। आज पूरे देश में जिस तरह का माहौल मुस्लिमों और बाकी गैरहिन्दुओं के खिलाफ बना हुआ है, वह इस देश की हर किस्म की संभावनाओं को भी प्रभावित करता है। देश की गैरबहुसंख्यक आबादी को कुचलकर, उसके पिछवाड़े बूट मारकर देश का भला नहीं किया जा सकता। जब आबादी के एक हिस्से को नीचा दिखाकर ही बड़े हिस्से को गर्व का अहसास कराया जाए, तो फिर उसे जिंदगी में असली गर्व के लायक कुछ करने की जरूरत ही नहीं रहेगी। जब गैरहिन्दुओं का अपमान ही हिन्दू अपना सम्मान मान लेंगे, तो फिर वे जिंदगी में असल सम्मान पाने लायक काम क्यों करेंगे?
देश में धार्मिक नफरत, साम्प्रदायिक हिंसा, जातिवाद, धर्मान्धता जैसी बातें देश के लोगों में वैज्ञानिक नजरिए को पूरी तरह खत्म कर रही है, और इसके साथ-साथ ही खत्म हो रही हैं देश की संभावनाएं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दिल्ली के एक चर्चित अंकित सक्सेना हत्याकांड में अदालत ने तीन कातिलों को उम्रकैद सुनाई है। अंकित की एक मुस्लिम लडक़ी से मोहब्बत थी, और उसी वजह से पास ही रहने वाले इस मुस्लिम परिवार के दो मर्दों और एक औरत ने खुली सडक़ पर अंकित को चाकुओं से गोदकर मार डाला था। दोनों परिवारों में पहचान थी, और अलग-अलग धर्म का होना ही सबसे बड़ा मुद्दा था। हिन्दुस्तान में धर्म तो बड़ा मुद्दा है ही, जात के बाहर शादी करना भी मरने-मारने की वजह बन जाता है, और समाज में बहुत से ऐसे लोग हैं जो कि ऑनर-किलिंग के नाम पर विजातीय प्रेमविवाह करने वाले अपने बच्चों को मार डालते हैं। उन्हें अपनी जाति के भीतर एक तथाकथित स्वाभिमान की फिक्र अधिक रहती है, और जात-धरम के बाहर की शादी उन्हें अपने खानदान पर कलंक की तरह लगती है। हिन्दुस्तान में आज हिन्दू लड़कियों के मुस्लिम लडक़ों से शादी करने पर उसे लव-जिहाद कहते हुए उसके खिलाफ एक साम्प्रदायिक माहौल बना हुआ है, और जिस देश में जिस काल में बहुसंख्यक वर्ग में साम्प्रदायिक सोच आ जाती है, उस देश में उस दौर में अल्पसंख्यक तबके भी वैसी ही सोच के शिकार हो जाते हैं। यह क्रिया की प्रतिक्रिया का मामला रहता है।
हम किसी एक जात या धरम की वकालत किए बिना देश के माहौल की बात करना चाहते हैं कि आधुनिकीकरण, शहरीकरण, आर्थिक विकास, नौजवान पीढ़ी की आत्मनिर्भरता, और बढ़ती हुई शिक्षा के साथ-साथ समाज की जिंदगी में जिन बातों की अहमियत बढऩी चाहिए थी, वह दिखाई नहीं देती है। आज भी जातियों के संगठन लोगों की जिंदगी का रूख तय करते दिखते हैं, और उन संगठनों के दबाव में परिवार भी अपने बच्चों को अकेला छोड़ देने को मजबूर हो जाते हैं। छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में ओबीसी की कुछ जातियों में जाति संगठन इतने मजबूत और ताकतवर हैं कि किसी भी विजातीय शादी के खिलाफ वे संबंधित परिवार का इतना मजबूत सामाजिक बहिष्कार करते हैं कि बहुत से लोगों का हौसला टूट जाता है, वे लाखों रूपए का जुर्माना पटाकर, माफी मांगकर, जात में शामिल होने की कोशिश करते हैं। आज शहरीकरण के साथ-साथ जाति संगठन की प्रासंगिकता खत्म हो जानी चाहिए थी, लेकिन बहुत संपन्न, शिक्षित, और शहरी लोग भी अपनी जाति संगठन के गुलामों की तरह रह जाते हैं। धर्म का मामला भी ऐसा ही है। कई जगहों पर मां-बाप अगर अपने बच्चों की दूसरे धर्म में शादी के लिए तैयार भी हो जाते हैं, तो उन पर अपने धर्म के लोगों का दबाव इतना अधिक रहता है कि वे जाहिर तौर पर बरसों तक अपने ही बच्चों से रिश्ते नहीं रख पाते।
आज 21वीं सदी में आकर जब लोगों की जिंदगी में पढ़ाई, रोजगार, रोज की जिंदगी की सहूलियतें, कामयाबी की अहमियत रहनी चाहिए, अधिकतर लोगों की जिंदगी में जाति और धरम की अहमियत सबसे ऊपर चलती है। हिन्दुस्तान अभी तक कई अलग-अलग सदियों में एक साथ जी रहा है। जो लोग इसके सामाजिक रिवाजों को तोडऩे का हौसला दिखाते हैं, वे बिना किसी अधिक तकलीफ के जिंदा भी रह सकते हैं। यह एक अलग बात है कि यह हौसला दिखाने का हौसला बहुत कम लोगों में रहता है। लोग छोटी-छोटी टेक्नॉलॉजी के लिए तो विकसित देशों की तरफ देखते हैं, लेकिन उन देशों की सामाजिक उदारता की परंपराओं की तरफ नहीं देखते। नतीजा यह है कि हमने मोबाइल फोन और इंटरनेट तो दूसरे देशों से ले लिया है, वहां के सोशल मीडिया का इस्तेमाल भी करते हैं, लेकिन अपने देश की नई पीढ़ी की हसरतों की जरूरतों को कुचलते रहते हैं। हर दिन देश में दर्जनों आत्महत्याएं होती हैं क्योंकि जालिम जमाना प्रेमीजोड़ों को मिलने नहीं देता। दूसरी तरफ खुदकुशी से कुछ कम निराशा वाले हजारों गुना अधिक लोग ऐसे रहते हैं जो कि मरते तो नहीं हैं लेकिन जीते-जीते मरे सरीखे जरूर हो जाते हैं। दुनिया के उदार देशों से तुलना करें, तो उन देशों में धर्म, जाति, नस्ल, रंग, राष्ट्रीयता कोई मुद्दा ही नहीं रह गए हैं। वहां पर बच्चे शादी के बाद हों या पहले, यह भी कोई मुद्दा नहीं रह गया है। ऐसे सारे समाज अपने खुशहाल और मानसिक सेहतमंद लोगों की वजह से आगे भी बढ़ते हैं, क्योंकि समाज के थोपे हुए कोई प्रतिबंध उनकी हसरतों को कुचलने के लिए ओवरटाइम नहीं करते। हमारा मानना है कि किसी भी देश की नौजवान पीढ़ी की आगे बढऩे की संभावनाएं इस बात से जुड़ी रहती हैं कि वह पीढ़ी किसी भी तरह की निराशा और कुंठा से कितनी आजाद है। जब नौजवान कंधे परिवार और समाज के लादे गए प्रतिबंधों को ढोते हुए अपने ही सपनों को कुचलने के लिए मजबूर रहते हैं, तो फिर ऐसी युवा पीढ़ी कामयाबी की राह पर अपनी पूरी क्षमता का सफर नहीं कर पाती।
सिर्फ आत्महत्याओं और ऑनर-किलिंग के आंकड़े पूरी हकीकत नहीं बताते, समाज के भीतर कुंठा में डूबी हुई युवा पीढ़ी अपनी निराशा का शिकार रहती है, और यह निराशा समाज को उसकी उत्पादकता नहीं दे पाती। हिन्दुस्तान में शहरीकरण चाहे जितना बढ़ गया हो, सामाजिक पाखंड भी उसी अनुपात में बढ़ते जा रहा है, जबकि समाज विज्ञान की सामान्य समझ कहती है कि शहरीकरण से जात-धरम का फौलादी ढांचा कमजोर होना चाहिए था। हिन्दुस्तान में आज जात और धरम की जिंदगी में अहमियत सामान्य और तर्कसंगत सीमा से बहुत अधिक है। यह कुछ उस किस्म की है कि लोग दिन में 8 घंटे पूजा करें, और आधे घंटे काम करें। जिंदगी में तीन चीजों का क्या अनुपात रहना चाहिए, यह मामला हिन्दुस्तान में पूरी तरह, और बुरी तरह गड़बड़ा गया है। लोग जात और धरम के नाम पर ऐसे भरम में डूब गए हैं कि उनकी समझ खत्म हो गई है। लोगों के लिए अपनी पैदा की हुई औलादों की अहमियत हिंसक सामाजिक नियमों से भी कम रह गई है। समाज में यह सब घटते नहीं दिख रहा है, बल्कि बढ़ते दिख रहा है। इससे और कुछ नहीं होगा, महज भड़ास में डूबी यह पीढ़ी देश को उसकी पूरी संभावना तक नहीं ले जा पाएगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव के पहले अब यह तस्वीर साफ हो गई है कि पिछले राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार होंगे, और मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन डेमोक्रेटिक पार्टी के। यह दो उम्मीदवारों की एक खासी बुजुर्ग टीम होगी, जो आमने-सामने तो है, लेकिन दोनों ही उम्रदराज हैं, बाइडन 81 बरस के, और ट्रंप 77 साल के। इनमें से बाइडन की उम्र उनकी सेहत पर झलकने भी लगी है, और कभी याददाश्त, तो कभी उनका बदन लडख़ड़ाने भी लगा है। फिर भी दोनों अपनी-अपनी पार्टियों के भीतर की चुनौतियों से गुजरते हुए, अब तकरीबन एक-दूसरे के सामने खड़े हैं।
अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव पर आज लिखने की वजह यह भी है कि यह भारत के चुनावी माहौल से एकदम ही अलग नजारा है। और पिछले कुछ बरसों में अमरीकी राष्ट्रपति और भारत के प्रधानमंत्री के बीच जिस तरह का तालमेल चलते आया है, उसके चलते इन दोनों चुनावों के फर्क समझना भी जरूरी है। पहले तो अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव में अपनी पार्टी के प्रत्याशी बनने के लिए किसी नेता को जिस दौर से गुजरना होता है, उसकी कल्पना भी हिन्दुस्तानी राजनीति में नहीं की जा सकती। जो लोग चुनाव लडऩा चाहते हैं, उन्हें पहले अपनी पार्टी की राज्य इकाईयों के बीच जाकर अपना प्रचार करना पड़ता है, लोगों को अपनी निजी उम्मीदवारी के फायदे गिनाने पड़ते हैं, और यह बात इस हद तक चली जाती है कि ऐसे दूसरे महत्वाकांक्षी नेताओं की खुली आलोचना भी मंच पर होती है। पार्टी के खुले मंच पर ये नेता एक-दूसरे से बहस करते हैं, आगे की अपनी सोच बताते हैं, और यह बात पार्टी के ही दूसरे नेताओं की खुली आलोचना तक चली जाती है, जिसका कोई बुरा नहीं मानते। यह पार्टियों के भीतर का ऐसा आंतरिक लोकतंत्र है, कि जिसकी कोई कल्पना हिन्दुस्तान में नहीं की जा सकती। अमरीकी पार्टियों के नेता शांत रहकर सभी महत्वाकांक्षी लोगों को खुलकर प्रचार करने देते हैं, मंच पर खुलकर एक-दूसरे से बहस करने देते हैं, और यह भी नहीं माना जाता कि ऐसी आलोचना बाद में दूसरी पार्टी के उम्मीदवार के काम आएगी। बल्कि होता यह है कि लोगों की सारी कमजोरियां अपनी पार्टी के भीतर ही उजागर हो जाती हैं, उन पर बहस हो जाती है, और उनका जवाब भी दे दिया जाता है। इस तरह आग में तपकर जो उम्मीदवार बचते हैं, जिन्हें अपनी पार्टी के प्रदेश संगठनों का समर्थन मिलता है, वे उम्मीदवारी तक पहुंचते हैं। भारत में अगर किसी एक पार्टी के लोग एक-दूसरे के मुकाबले किसी मंच पर खड़े होकर बहस भी कर लें, तो पार्टी उन्हें शायद निकाल बाहर करे। इसका एक बड़ा नुकसान यह होता है कि किसी भारतीय राजनीतिक दल में संगठन पर काबिज लोग अपनी मनमर्जी और मनमानी से उम्मीदवार तय कर लेते हैं, और लोगों को, पार्टी संगठन के कार्यकर्ताओं को अपनी राय रखने का कोई खुला मंच नहीं मिलता।
अब एक दूसरी बड़ी बात जो कि भारत और अमरीका के बीच अलग है, वह राष्ट्रपति प्रणाली है। अमरीका के हर वोटर राष्ट्रपति को चुनने के लिए वोट डालते हैं, जबकि हिन्दुस्तान प्रधानमंत्री को चुनने में वोटरों का कोई सीधा हाथ नहीं रहता, वोटर सांसद भर चुनते हैं, और फिर वे सांसद अपनी पार्टी के कहे मुताबिक प्रधानमंत्री चुनते हैं। किसी सांसद की भी कोई मर्जी प्रधानमंत्री चुनने में नहीं रहती। इस तरह हिन्दुस्तान में पार्टी संगठन संसद और विधानसभा चुनाव के उम्मीदवार तय करने से लेकर, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री तक सबको तय करते हैं, और न तो पार्टी के आम कार्यकर्ताओं की कोई भूमिका रह जाती, न ही जनता की। इस मामले में अमरीकी चुनाव अधिक लोकतांत्रिक हैं जहां किसी पार्टी के उम्मीदवार बनने के लिए लोगों को देश भर के अपने संगठन के भीतर बहुमत-समर्थन पाना रहता है, और तभी जाकर वे राष्ट्रपति चुनाव लड़ पाते हैं।
वैसे तो हर देश की चुनाव व्यवस्था अलग-अलग रहती है, और किसी एक देश के किसी एक पहलू को किसी दूसरे देश पर लागू करना गलत भी हो सकता है, लेकिन हमें पार्टी के भीतर का लोकतंत्र और अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच समर्थन साबित करने की अमरीकी स्थिति बड़ी अच्छी लगती है। पल भर के लिए अगर हिन्दुस्तान जैसे देश में देखें कि यहां किसी संसदीय सीट पर पार्टी के हर तरह के पदाधिकारी, और पार्टी के सक्रिय सदस्य किसी मंच पर उम्मीदवार बनने की चाहत रखने वाले लोगों को सुनें, उनसे सवाल करें, उनकी तुलना करें, और फिर पार्टी के भीतर उनके लिए मतदान करें, तो जाहिर तौर पर हिन्दुस्तानी उम्मीदवारों का स्तर ऊपर जा सकता है। आज तो दिल्ली में बंद कमरे में बैठकर संगठन के नेता जो तय करते हैं, वही उम्मीदवारी हो जाती है, और पार्टी के सदस्यों और कार्यकर्ताओं के लिए उसी पसंद का साथ देने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता। अगर पार्टी सदस्यों के बीच से मतदान से जीतकर आने की व्यवस्था हिन्दुस्तान में रहती, तो जनता के बीच बेहतर उम्मीदवार आ सकते थे। लेकिन यहां जाति और धर्म, क्षेत्र के साथ-साथ पार्टी के बड़े नेताओं के अलग-अलग गुटों के बीच संतुलन जिस तरह बनाया जाता है, उससे बड़े समझौतों से उम्मीदवारी तय होती है, और उसका पार्टी सदस्यों में समर्थन होना कहीं जरूरी नहीं रहता। अमरीकी चुनाव व्यवस्था से कुछ सीखकर अगर हिन्दुस्तान में कोई बड़ी पार्टी उसी तरह से संगठन का लोकतंत्र कायम कर सके, तो शायद ऐसी पार्टी अधिक मजबूत भी होगी। अब पता नहीं संगठनों पर काबिज खूसट लोग अपना शिकंजा ढीला करना चाहेंगे या नहीं, लेकिन अगर हिन्दुस्तान में पार्टियां बर्बाद हुई हैं, तो ऐसे ही फौलादी शिकंजों की वजह से। इसलिए कम से कम किसी पार्टी को ऐसा आंतरिक लोकतंत्र लागू करके एक मिसाल कायम करनी चाहिए। यही तरीका मतदाताओं को अपने इलाके के विधायक या सांसद तय करते हुए एक बेहतर हक भी देगा।
कलकत्ता हाईकोर्ट के एक विवादास्पद जज, जस्टिस अभिजीत गंगोपाध्याय ने कल इस्तीफा दे दिया है, और आने वाले कल वे भाजपा में शामिल हो रहे हैं। उन्होंने खुद ने यह घोषणा की है। यह भी माना जा रहा है कि वे भाजपा टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। वे लगातार राज्य में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस से जुड़े हुए बहुत से मामलों में सरकार और इसके नेताओं के खिलाफ फैसले देते आ रहे थे, और सरकार के दर्जन भर से अधिक मामलों को उन्होंने जांच के लिए ईडी और सीबीआई को दिया था। उन्होंने ममता सरकार द्वारा नियुक्त किए गए 32 हजार से अधिक शिक्षकों को बर्खास्त कर दिया था, बाद में एक से अधिक जजों की बेंच ने उनके इस फैसले पर रोक लगाई। उनसे जुड़े हुए और भी कई विवाद रहे, वे एक मामले की सुनवाई कर रहे थे, और इस पर उन्होंने एक टीवी चैनल को इंटरव्यू दिया जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने आपत्ति की। इस इंटरव्यू में उन्होंने तृणमूल नेता अभिषेक बैनर्जी के खिलाफ भी बातें कहीं, और इस पर देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ ने कहा था कि कोई जज जिन मामलों की सुनवाई कर रहे हैं, उसके बारे में वे इंटरव्यू देने जैसा काम नहीं कर सकते, और अगर उन्होंने याचिकाकर्ता के बारे में इस तरह की बातें कही हैं, तो उन्होंने इस मामले की आगे सुनवाई का कोई हक नहीं है। उन्होंने कहा कि जो जज किसी राजनेता की तरह के बयान दे रहे हैं, वे ऐसे मामलों की सुनवाई में नहीं रह सकते। इसके बाद भी कुछ दूसरे मामलों को लेकर जब सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस गंगोपाध्याय को सुनवाई से हटाया, तो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के सेक्रेटरी को ही नोटिस जारी कर दिया। उन्होंने अपने एक साथी जज पर भी आरोप लगाया कि वे एक राजनीतिक पार्टी के लिए काम कर रहे हैं। कुछ महीने पहले कलकत्ता हाईकोर्ट बार एसोसिएशन ने जस्टिस गंगोपाध्याय का बहिष्कार करने की घोषणा की थी। अलग-अलग खबरें बताती हैं कि किस तरह यह जज लगातार ममता बैनर्जी सरकार के खिलाफ आदेश करते आ रहे थे, और हर मामले को जांच के लिए ईडी और सीबीआई को दे रहे थे। अब इस्तीफे के दो दिन के भीतर ही भाजपा में जाने की उनकी घोषणा कई सवाल खड़े करती है।
हिन्दुस्तानी न्याय व्यवस्था में हाईकोर्ट के जज बहुत हद तक स्वायत्तता से काम करते हैं, और उनके फैसलों को पुनर्विचार के लिए, या उनके खिलाफ कोई अपील किए बिना आगे चुनौती नहीं दी जा सकती। सुप्रीम कोर्ट भी देश की सबसे बड़ी अदालत होने के बावजूद हाईकोर्ट पर अधिक काबू नहीं रखता। और अगर कोई हाईकोर्ट जज सुप्रीम कोर्ट से उलझने पर आमादा हो जाए, तो फिर न्यायपालिका के भीतर एक बड़ी मुश्किल नौबत आ खड़ी होती है। और जब ऐसे कोई लड़ाकू जज राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी रखने लगते हैं, किसी एक पार्टी के समर्थन या विरोध के लिए प्रतिबद्ध हो जाते हैं, तो उनके फैसले शक के घेरे में ही रहते हैं। ऐसी खुली राजनीतिक और चुनावी महत्वाकांक्षा इसके पहले हमें हाईकोर्ट या उसके ऊपर के किसी जज में देखना याद नहीं पड़ता है। हमारा ख्याल है कि देश में जो भी महत्वपूर्ण और नाजुक ओहदे हैं, उन पर रहने वाले लोगों के साथ नौकरी पूरी होने के बाद का एक खासा अरसा बिना काम रहने का रहना चाहिए। राजनीति से जुड़े मामलों पर लगातार एक ही रूझान वाले फैसले देकर जस्टिस गंगोपाध्याय पहले से विवादों में घिरे हुए थे, और अब चुनाव लडऩे की संभावनाएं, भाजपा में जाने की संभावनाएं यह खतरनाक नौबत बताती हैं कि न्यायपालिका किस तरह राजनीतिक पूर्वाग्रह ग्रस्त हो सकती है।
लोगों को याद होगा कि देश के मुख्य न्यायाधीश रहे रंजन गोगोई किस तरह रामजन्म भूमि सरीखे कई मामलों में सरकार को सुहाने वाले कई फैसले देने के बाद रिटायर होते ही भाजपा की तरफ से राज्यसभा चले गए। इसी तरह एक दूसरे जज रिटायरमेंट के तुरंत बाद एक राज्य के राज्यपाल होकर चले गए। इन राजनीतिक मनोनयनों के अलावा भी देश में दर्जनों ऐसे बड़े संवैधानिक ओहदे तय किए हुए हैं जहां पर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के रिटायर्ड जजों को ही लाया जा सकता है। और जज रिटायर होने के पहले अपने वृद्धावस्था पुनर्वास का ध्यान रखते हुए ऐसे फैसले देने के लिए जाने जाते हैं जिनसे खुश होकर सरकार उन्हें फिर कई साल की सहूलियतों वाला ओहदा दे दे। इसलिए चाहे नौकरशाही हो, जज हों, या फौज के ऊंचे ओहदे से रिटायर होने वाले लोग हों, इन सबका राजनीतिक पुनर्वास तुरंत नहीं होना चाहिए, इसमें कम से कम दो बरस का फासला रहना चाहिए। फिर राज्यों के भीतर बहुत से ऐसे ओहदे बनाए गए हैं जिन पर रिटायर्ड जज या रिटायर्ड अफसर ही आमतौर पर मनोनीत किए जाते हैं। यह सिलसिला भी खत्म करना चाहिए। इस बारे में हम पहले भी एक नेशनल पूल बनाने की बात सुझा चुके हैं, और इनमें से अलग-अलग राज्य अपनी जरूरत के लोगों को छांट सकते हैं, और ये लोग ऐसे ही रहने चाहिए जिन्होंने उन राज्यों में पहले काम न किया हो।
पारदर्शिता और ईमानदारी, निष्पक्षता और जनधारणा, इन सबका ख्याल रखते हुए यह बात बिल्कुल साफ रहनी चाहिए कि सरकार को उपकृत करने की जगह पर बैठे हुए लोग, या कि ऊंची फौजी कुर्सियों से हटने वाले लोग तुरंत किसी राजनीतिक काम में नहीं लगाए जाने चाहिए, ऐसा होने पर लोकतंत्र में इन संस्थाओं की साख तो खत्म होती है, जनता के बीच खुद लोकतंत्र की साख खत्म होती है। अब जस्टिस रंजन गोगोई की दो कौड़ी की इज्जत उस दिन नहीं रह गई थी, जिस दिन उनकी मातहत कर्मचारी ने उन पर यौन शोषण का आरोप लगाया था, और आरोपों की सुनवाई के लिए खुद रंजन गोगोई सुप्रीम कोर्ट बेंच के मुखिया होकर बैठ गए थे। कायदे की बात तो यह होती कि उनकी उस हरकत से असहमति जाहिर करते हुए बाकी तमाम जज उस बेंच से हट जाते, और देश के राजनीतिक दल उनके खिलाफ महाभियोग लेकर आते। लेकिन लोकतंत्र बेशर्म हो चुका है, और लोगों की ऐसी अश्लील हरकतें आम हो चुकी हैं। हमारा ख्याल है कि कलकत्ता के इस हाईकोर्ट जज के इस्तीफे से एक ऐसी जनहित याचिका की गुंजाइश खड़ी होती है जो सुप्रीम कोर्ट जाकर यह मांग करे कि राजनीतिक दलों से जुड़े जितने फैसले जस्टिस गंगोपाध्याय ने दिए थे, उन्हें दुबारा सुना जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी की पिछली भूपेश बघेल सरकार के कई तरह के भ्रष्टाचारों की जांच आयकर विभाग, और ईडी से चल रही है, और ईडी ने कई मामलों में लोगों की गिरफ्तारी करके अदालत में चालान पेश कर दिया है। अपने ताजा प्रेसनोट में ईडी ने कहा है कि कोरबा में ही जिला खनिज निधि में 5-6 सौ करोड़ का कमीशन खाया गया है। ईडी ने कहा है कि अफसरों और राजनीतिक पदाधिकारियों ने 25 से 40 फीसदी तक कमीशन खाया। जिला खनिज निधि जिलों में होने वाले खनिजकर्म से पर्यावरण और लोगों को होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए बनाया गया एक फंड है, और खनिज रायल्टी का एक हिस्सा इस फंड में जमा होता है, और कलेक्टर की अगुवाई में एक कमेटी इसे खर्च करती है। छत्तीसगढ़ का कोरबा जिला देश का सबसे बड़ा कोयला उत्पादक जिला है, और यहां देश का 17 फीसदी कोयला होता है। जाहिर है कि ऐसे में यहां सैकड़ों करोड़ रूपए साल का डीएमएफ रहता है, और इसे अलग-अलग सरकारों में सत्ता के अलग-अलग तय किए गए कंट्रोल रूम इस्तेमाल करते हैं। ऐसा भी माना जाता है कि डीएमएफ कलेक्टरों का पॉकेटमनी सरीख रहता है, और वे इसका मनमाना इस्तेमाल करते हैं। अब ईडी ने अगर अपना यह निष्कर्ष निकाला है कि अकेले कोरबा जिले में डीएमएफ के तहत करवाए गए कामों में 5-6 सौ करोड़ रूपए कमीशन खा लिया गया है, तो इससे यह भी समझना चाहिए कि ऐसा करने वाले नेता, अफसर, और ठेकेदार इससे कितने ताकतवर हो चुके होंगे कि वे कई तरह की जांच एजेंसियों, कई तरह की अदालती प्रक्रिया को खरीदने लायक ताकत रखते होंगे। इनमें से जो लोग आगे चुनाव लड़ते हैं, वे चुनावी खर्च सीमा से सौ-सौ गुना अधिक खर्च कर पाते हैं, और लोकतंत्र को एक किस्म से जरखरीद गुलाम बनाकर रख लेते हैं। छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, और कर्नाटक सरीखे खनिज उत्पादक राज्यों में जो खनिज जिले हैं, वहां पर तैनाती के लिए अफसर करोड़ों रूपए के सौदे करते हैं। छत्तीसगढ़ में ही इस कोरबा जिले को लेकर एक गिरफ्तार आईएएस के बारे में यह आम चर्चा थी कि उसने पिछली सरकार की एक ताकतवर अफसर को पांच करोड़ रूपए देकर इस जिले में पोस्टिंग पाई थी। इतनी रकम देने के अलावा कोरबा जिले के अफसरों को कोल लेवी उगाही के काम में गिरफ्तार सूर्यकांत तिवारी नाम के सत्ता के चहेते व्यक्ति के साथ गिरोह की तरह काम भी करना पड़ता था, और एक के बाद एक आईएएस और आईपीएस अफसर मवालियों सरीखा काम करने में फख्र भी हासिल करते थे। वर्तमान भाजपा सरकार ऐसे सारे सुबूत सामने आने के बाद भी अभी ऐसे भ्रष्ट और वसूलीबाज अफसरों के खिलाफ तेजी से कोई कार्रवाई करते नहीं दिख रही है। एक चर्चा यह भी है कि आईएएस और आईपीएस अफसर ईडी के मामलों में इतनी बड़ी संख्या में फंस रहे हैं, कि वे गिरोहबंदी करके अपने सभी लोगों को बचाने में लगे हैं। जिला खनिज निधि को जिस मकसद से शुरू किया गया था, उसे शिकस्त देने का काम नेता, अफसर, और ठेकेदार का त्रिकोण लगातार करते आया है। नई सरकार को ईडी के निष्कर्षों से यह सावधानी भी सीख लेनी चाहिए कि उसके कार्यकाल में ऐसी गड़बडिय़ां न हो, वरना वे किसी न किसी दिन तैरकर सतह पर आ ही जाती है।
लेकिन हम आज यहां पर भ्रष्टाचार पर बात खत्म करना नहीं चाहते हैं। हम खनिज-कर्म से पर्यावरण के होने वाले नुकसान, और प्रदूषण की बात करना चाहते हैं। प्रकृति, प्राणी, और इंसान, इन सबको खुदाई और खनिज से होने वाले नुकसान के असर को कम करना तो दूर रहा, डीएमएफ से ऐसे-ऐसे काम करवाए जाते हैं जिससे धरती पर कार्बन और अधिक बढ़ जाए, और प्रदूषण फैलता रहे। इसी कोरबा जिले में डीएमएफ से शहर के बीच में बहुमंजिली पार्किंग बना दी गई थी, जो कि डीएमएफ के मकसद के ठीक खिलाफ थी। इसी तरह हाईकोर्ट की लगातार दखल से बिलासपुर में एयरपोर्ट शुरू करने के लिए काम आगे बढ़ाया गया, और उसमें भी डीएमएफ की रकम का इस्तेमाल किया गया, और तर्क यह दिया गया कि एयरपोर्ट का इस्तेमाल करने वाले लोग खनिज जिलों के कामकाज के लिए भी आते हैं, और उनके आने से इन जिलों का फायदा होता है। हमारा ख्याल है कि इस खर्च को तर्कों को बहुत खींचतान कर डीएमएफ के दायरे में लाया गया था, और यह भी पहली नजर में जायज नहीं लगता है।
सरकारों की दिक्कत यह रहती है कि जब-जब विपक्ष, मीडिया, और जनसंगठन कमजोर होते हैं, सरकारें मनमानी अधिक करने लगती हैं। कुछ ऐसा ही हाल छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल सरकार का था, जब गिने-चुने दो-तीन अफसर पूरे प्रदेश को चला रहे थे, और जमकर कमाने की नीयत से प्रदेश के बड़े-बड़े अफसर इन्हीं छोटे अफसरों की चापलूसी करते दिखते थे। नतीजा यह हुआ कि किसी जिले में पर्यावरण बचाने के लिए, प्रदूषण का नुकसान कम करने के लिए कामकाज नहीं हुआ, और जिन कामों में मोटा कमीशन मिल सकता था, उन्हीं कामों को मंजूर किया गया ताकि जल्द से जल्द कमाई हो सके। सरकार में हर विभाग के बजट में तेजी से मोटी कमाई वाले कामों की शिनाख्त सबको रहती है, और कमीशन की हड़बड़ी में ये सब लोग उन्हीं कामों को हर जगह करते हैं, फिर चाहे उनकी जरूरत रहे या न रहे। फिर यह भी है कि पर्यावरण बचाने के लिए वृक्षारोपण जैसे काम जिस वन विभाग के मार्फत करवाए जाते हैं, वह प्रदेश में सबसे अधिक भ्रष्ट एक विभाग है, और पिछले कई बरस से इस विभाग का मुखिया बनने के लिए प्रामाणिक भ्रष्ट होना जरूरी मान लिया गया है। इस तरह खनिज-प्रदूषण प्रभावित जिलों, प्राणियों, प्रकृति, और इंसानों को राहत पहुंचाना बस कागजी बात रह गई है। हमारा ख्याल है कि डीएमएफ के तहत होने वाले कामों पर कड़ाई से गौर करना चाहिए, और उनके प्रदूषण घटाने के योगदान का आंकलन होना चाहिए। इसके बिना डीएमएफ जैसा सीमित मकसद वाला फंड भी सरकार के बाकी कामकाज के नियमों से परे अंधाधुंध खर्च करने के लिए एक तिजोरी सरीखा बन गया है, जिसकी चाबी कलेक्टर के पास रहती है। डीएमएफ को सिर्फ खनन-प्रदूषण और इससे जुड़े हुए दूसरे नुकसान की भरपाई तक सीमित रखने के लिए एक बार फिर संबंधित जिलों में जनसुनवाई होनी चाहिए, और देश के विशेषज्ञों की मौजूदगी में जनता की बात भी सुनी जानी चाहिए कि खदानों और खनिज आवाजाही से उनका क्या नुकसान हो रहा है, और उसकी भरपाई के लिए क्या किया जाना चाहिए। आज डीएमएफ के इस्तेमाल से उस जिले की जनता कटी हुई है, यह सिलसिला राजा और प्रजा जैसा फर्क पैदा करता है। डीएमएफ के तहत होने वाले खर्च का पूरा ब्यौरा जिला स्तर पर सीधे सार्वजनिक करने का इंतजाम होना चाहिए, और ऐसा करवाने के लिए जरूरत हो तो कुछ संगठन अदालत तक भी जा सकते हैं, ताकि एक-एक जिले में सैकड़ों करोड़ की ऐसी कमीशनखोरी की जानकारी तो लोगों को रहे कि उनके इलाके के लिए, उनकी सहूलियत के नाम पर किन लोगों के मार्फत कितना खर्च किस काम पर किया जा रहा है? डीएमएफ के इतने व्यापक और संगठित भ्रष्टाचार से संबंधित तबके एक दैत्याकार ताकत हासिल कर रहे हैं जो कि लोकतंत्र को भी परास्त कर रही है।
सुप्रीम कोर्ट ने आज एक ऐतिहासिक मामले में फैसला दिया है। फैसला ऐतिहासिक नहीं है, क्योंकि इस मामले में इंसाफ की बात तो यही हो सकती थी, यह एक अलग बात है कि 1998 में सुप्रीम कोर्ट की ही एक पांच जजों की संविधानपीठ ने जो फैसला दिया था, उसे अब सात जजों की बेंच ने पलट दिया है। सर्वसम्मत इस फैसले में कहा गया है कि संसद या विधानसभा में वोट के बदले नोट लेने वाले सांसदों या विधायकों को कोई कानूनी संरक्षण नहीं मिल सकता। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान के संबंधित अनुच्छेदों में रिश्वतखोरी को छूट नहीं दी गई है क्योंकि रिश्वत लेने वाले निर्वाचित सदस्य एक जुर्म में शामिल रहते हैं जो कि वोट देने या सदन में भाषण देने के लिए जरूरी नहीं है। अदालत ने फैसले में कहा कि अपराध उस समय पूरा हो जाता है जब सांसद या विधायक रिश्वत लेते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सांसदों और विधायकों द्वारा भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी से भारतीय संसदीय लोकतंत्र नष्ट हो जाता है।
उल्लेखनीय है कि देश में अलग-अलग समय कई ऐसे सांसदों और विधायकों के मामले रहे जिसमें निर्वाचित नेताओं पर सदन में वोट या भाषण देने के लिए रिश्वत लेने के आरोप लगे, लेकिन 30 बरस पहले का ऐसा एक मामला 1998 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अब तक मुकदमे से बचा हुआ था। पांच जजों की बेंच ने 1998 में पी.व्ही.नरसिंहराव पर लगे आरोपों का मामला चलाने लायक नहीं करार दिया था। अब इस फैसले के खिलाफ पिछले कई महीनों से सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई पूरी करके आदेश सुरक्षित रखा था, और पांच महीने बाद आज यह फैसला सुनाया है। हम बहुत तकनीकी बारीकियों का जिक्र किए बिना यह याद करना चाहते हैं कि किस तरह 2005 में कोबरा पोस्ट नाम के एक स्टिंग ऑपरेशन डिजिटल मीडिया ने 11 सांसदों को संसद में सवाल पूछने के लिए रिश्वत दी थी, और खुफिया कैमरों से पूरी रिकॉर्डिंग की थी। लेकिन 1998 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की वजह से ये लोग मुकदमे से बच गए थे, और इन 11 सांसदों में 6 भाजपा के थे, 3 बसपा के, और 1-1 सांसद आरजेडी और कांग्रेस के थे। इनमें छत्तीसगढ़ से बीजेपी के सांसद प्रदीप गांधी भी थे। लोकसभा में अपने 10 सदस्यों के, और राज्यसभा अपने एक सदस्य को निष्कासित कर दिया था। लेकिन संसद में अपने इन सदस्यों पर कोई मुकदमा नहीं चलने दिया था, और इसे सदन के भीतर के विशेषाधिकार का मामला माना था। इस निष्कासन के खिलाफ भी उस वक्त भाजपा के एल.के.अडवानी ने सदन से भाजपा सांसदों के साथ बहिष्कार करते हुए कहा था कि यह भ्रष्टाचार से अधिक बेवकूफी का काम था, और सांसदों का निष्कासन जरूरत से अधिक कड़ी सजा है।
ऐसे और भी मामले हुए हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का 1998 का फैसला भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हुए लोगों के बचने के काम आते रहा। अब मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ की अगुवाई में अदालत की सात जजों की संविधानपीठ ने सुप्रीम कोर्ट की ही पिछली पांच जजों की बेंच के 3:2 के बहुमत से दिए गए फैसले को पलट दिया है। लोगों को याद होगा कि 1993 में नरसिंहराव की केन्द्र सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर सरकार का साथ देने के लिए शिबू सोरेन और उनके चार सांसदों पर आरोप लगे कि उन्होंने रिश्वत लेकर लोकसभा में वोट दिया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें कानूनी कार्रवाई से छूट देते हुए इस मामले को ही रद्द कर दिया था। ऐसे ही शिबू सोरेन की बहू पर भी यह आरोप लगा था कि उन्होंने वोट देने के लिए रिश्वत ली थी। वह मामला भी 1998 के फैसले के हवाले से छूट गया था।
हमारा हमेशा से यह कहना रहा, और सांसदों की बर्खास्तगी के वक्त से हम लगातार इस बात को लिखते आए हैं कि संसद या विधानसभा के भीतर के ऐसे रिश्वतखोरी के मामलों को वहीं दफन नहीं किया जा सकता, और ऐसे जुर्म के खिलाफ अगर देश का लोकतांत्रिक कानून अगर कोई छूट दे रहा है, तो वह छूट गलत है। किसी के सांसद या विधायक हो जाने से उनको जुर्म करने का हक नहीं मिल सकता। लेकिन 1998 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की वजह से ऐसे तमाम मुजरिम अब तक बचे आ रहे थे, और अब ऐसा लगता है कि देश में दर्जन भर से अधिक सांसद-विधायकों पर आपराधिक मुकदमे चलने का समय आ गया है। यह बात लोकतंत्र और न्याय की बुनियादी समझ के खिलाफ थी कि किसी के निर्वाचित जनप्रतिनिधि होने से उन्हें वैसे जुर्म करने का हक मिल जाए, जैसे जुर्म करने पर आम जनता को बरसों की कैद होती है। यह बात ऐसी संसदीय व्यवस्था को शर्मनाक करार दे रही थी, और संसद खुद तो अपने आपको नहीं सुधार पाई, वह अपने मुजरिमों को बचाने में ही लगी रही, अब सुप्रीम कोर्ट की दखल से भारतीय संसद की खोई हुई इज्जत लौटने का आसार दिख रहा है। सच तो यह है कि जो सांसद देश के सबसे महत्वपूर्ण कानून बनाते हैं, वे अपने-आपके मुजरिम रहने पर भी अपने को बचाने के लिए संसद के विशेषाधिकारों का उपयोग कर रहे थे, जो कि शर्मनाक था। सांसदों और विधायकों को आम जनता के सामने एक मिसाल पेश करनी चाहिए, लेकिन हालत यह है कि दो हजार रूपए रिश्वत लेने पर पटवारी को तो कैद हो जाती है, लेकिन लाखों-करोड़ों रिश्वत लेकर संसद और विधानसभा में वोट देने पर कुछ नहीं होता, और ऐसे भ्रष्ट-मुजरिम विशेषाधिकार की हिफाजत पाते रहते हैं। यह फैसला भारतीय राजनीति के एक बड़े ही गंदे पहलू को साफ करने वाला साबित हो सकता है, यह एक अलग बात है कि संसद में तमाम पार्टियां मिलकर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को पलटने के लिए संविधान संशोधन भी कर सकती हैं क्योंकि हर पार्टी में ऐसे मुजरिम मौजूद हैं। हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह फैसला आते ही आज इसका स्वागत किया है। देखना है कि आने वाले महीनों में, आम चुनाव के बाद बनने वाली सरकार इस पर क्या करती हैं।
कई बार कुछ अलग-अलग खबरें मिलकर लिखने का एक मुद्दा सुझाती हैं। जापान की खबर है कि वहां ड्राइवरों की कमी से पूरी सप्लाई चेन गड़बड़ा गई है, कारखानों के सामान दुकानों और लोगों के घर तक पहुंच नहीं रहे, और ऐसी आशंका है कि 2030 तक यह गड़बड़ी कायम रहेगी। दूसरी तरफ नेपाल की खबर है कि वहां नर्सों की बहुत कमी हो गई है, जरूरत से आधी संख्या भी उनकी नहीं है, और नर्सें ब्रिटेन में नौकरी पाना बेहतर समझ रही हैं। ब्रिटेन ने वैसे तो दुनिया के कम विकसित देशों से प्रशिक्षित नर्सों को लेने की सीमा बांध रखी है, ताकि इन देशों की स्थानीय जरूरतें बुरी तरह प्रभावित न हों, लेकिन ऐसा हो रहा है। एक तीसरी खबर है कि जर्मनी में लोग पढ़ाई बीच में छोड़ दे रहे हैं, और वहां कामगारों की कमी हो रही है। दक्षिण कोरिया की खबर है कि वहां जन्म दर दुनिया में सबसे कम हो चुकी है, जिसके बढऩे का कोई आसार भी नहीं है, और आने वाले बरसों में वहां सिर्फ बुजुर्गों का अनुपात बढ़ते चले जाएगा, और कामगार लोग घटते चले जाएंगे। दक्षिण कोरिया की जन्म दर 0.72 बच्चे प्रति महिला हो गई है, जबकि जनसंख्या को बनाए रखने के लिए 2.1 की जन्म दर जरूरी होती है। जापान सहित कई दूसरे देशों में भी जन्म दर गिरती जा रही है, और बूढ़ी आबादी की सेवा के लिए कामकाजी लोगों की जरूरत अधिक पडऩे वाली है। जापान में औसत उम्र 84 बरस है। इनमें भी महिलाओं की औसत उम्र 87 बरस है। जाहिर है कि इतनी अधिक उम्र तक लोगों को कई किस्म के कामगारों की जरूरत पड़ेगी, जिसमें जाहिर तौर पर नर्सों की जरूरत भी अधिक रहेगी।
इसके साथ-साथ भारत की एक खबर को भी देखने की जरूरत है जिसे देश की एक उपलब्धि माना जा रहा है। दुनिया में गरीबी का सर्वे करने वाली एक संस्था का वर्ल्ड पावर्टी क्लॉक के आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल भरत में 4.6 करोड़ लोग अत्यधिक गरीब थे, और अब उसमें से घटकर कुल 3.4 करोड़ लोग इस वर्ग में रह गए हैं, जिसका मतलब यह है कि यह आबादी रोजाना 159 रूपए से कम कमा रही है। यह भारत के लिए एक कामयाबी की बात हो सकती है, लेकिन दूसरी तरफ यह एक बड़ी संभावना की बात भी है। जब देश की आबादी का एक हिस्सा इतनी कम कमाई वाला है, तो जाहिर है कि आबादी का और दूसरा हिस्सा भी बहुत अधिक कमाई वाला नहीं होगा। ऐसे में इस देश के कामगारों का बेहतर प्रशिक्षण करके उन्हें दुनिया के उन देशों में काम के लायक बनाया जा सकता है जहां पर स्थानीय कामगारों की कमी है। भारत और कनाडा के बीच पिछले कुछ अरसे से चले आ रहे तनाव को अगर छोड़ दें, तो हर बरस भारत से लाखों कामगार कनाडा में काम पा रहे थे, जा रहे थे, और वहां बस भी रहे थे। लाखों छात्र हर बरस कनाडा पढऩे जाते थे क्योंकि पढ़ाई के बाद वहां उन्हें काम मिलने की गुंजाइश अधिक थी।
ऐसे बहुत से देश हैं। खाड़ी के देशों में भारत से तकनीकी कामों के लिए लाखों लोग बसे हुए हैं, और केरल के लोगों की बड़ी संख्या इनमें है। पंजाब के लोग कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, और ब्रिटेन से अपने परिवारों और प्रदेशों को खासी कमाई भेजते हैं। आन्ध्र-तेलंगाना के अधिक पढ़े-लिखे लोग अमरीका जैसे देश में सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर के काम में बड़ी संख्या में लगे हुए हैं। भारत के आईआईटी से निकले हुए अधिकतर लोगों को विकसित देशों में काम मिल जाता है, या मिल सकता है, जिसे छोडक़र उनमें से कुछ देश में ही रहना पसंद करते हैं। दुनिया की बड़ी-बड़ी टेक्नॉलॉजी कंपनियों में भारतवंशी मुखिया हैं, और बाकी जगहों पर तो वे हैं ही।
दुनिया की बढ़ती जरूरतों को देखते हुए भारत जैसे बहुत से देश ऐसे हो सकते हैं जो कि तरह-तरह के हुनर के प्रशिक्षण देकर, अलग-अलग देशों की भाषाएं सिखाकर, और वहां की संस्कृति की जानकारी देकर लोगों को उन देशों के लिए तैयार कर सकते हैं। आज भी काम की तलाश में जंग में फंसे हुए यूक्रेन में हिन्दुस्तानी जाकर काम करने लगे हैं, और उन्हें जो बताया गया था, उसके खिलाफ उन्हें रूस के जंग के मोर्चे पर लगा दिया गया है। दूसरी तरफ पिछले कुछ महीनों से भारत में यह बात भी एक विवाद बनी हुई है कि इजराइल में खतरों के बीच भी निर्माण मजदूरी के काम में कामगारों की बहुत जरूरत है, और उसके लिए हिन्दुस्तान में सरकार के स्तर पर लोगों की भर्ती की जा रही है। आमतौर पर जब किसी देश में जंग या टकराव का खतरा रहता है, तो वहां पर से देश अपने-अपने लोगों को निकालने का काम करते हैं, भारत में भी कई जगहों से ऐसा किया है, लेकिन आज इजराइल के कामगार फौज में शामिल होकर फिलीस्तीनियों को मारने में जुटे हैं, और ऐसे देश के लिए भारत अपने मजदूरों को भर्ती करके वहां भेज रहा है। खैर, इस विरोधाभास पर हम आज की बाकी बातचीत को झोंकना नहीं चाहते, क्योंकि एक व्यापक मुद्दा चर्चा मांगता है।
भारत को अपने घरेलू कामगार बाजार से परे देखना चाहिए। इस देश में कॉलेज पढक़र निकले बेरोजगारों की फौज को बढ़ाना बंद करना चाहिए। केन्द्र और राज्य सरकारों को चाहिए कि वे स्कूल की पढ़ाई के बीच से ही लोगों को छांटकर प्रशिक्षण की तरफ मोड़ें। जो किताबी पढ़ाई में बहुत अच्छे नहीं हैं, उन्हें मिडिल स्कूल तक की पढ़ाई के बाद, हुनर वाली ट्रेनिंग में डालना चाहिए, ताकि वे बालिग होने तक अच्छी तरह सीखकर कमाऊ हो सकें। फिर सरकारों को यह भी देखना चाहिए कि अगले दस-बीस बरस दुनिया में कौन-कौन से हुनर की अधिक जरूरत रहनी है। बूढ़ी होती विदेशी आबादी की निजी देखरेख की जरूरत बढ़ती चली जानी है, और उस तरह के कामगार जो देश-प्रदेश तैयार करेंगे, वे अपने लोगों को विकसित देशों में भेज भी सकेंगे, और जैसा कि आमतौर पर होता है ऐसे लोग अपनी अगली पीढिय़ों को वहां और आगे बढ़ा सकेंगे। भारत में आज मां-बाप और सरकार के पैसों से पूरी तरह फिजूल की पढ़ाई करके लोग बेरोजगारों में अपनी गिनती बढ़ाते हैं, और यह सिलसिला पूरी तरह खत्म होना चाहिए। इस देश को पूरी दुनिया की संभावनाओं को देखते हुए अपनी अगली पीढ़ी को तैयार करना चाहिए।
दुनिया के अलग-अलग देशों की संपन्नता, उनकी गिरती आबादी के आंकड़े, वहां पर बूढ़ी होती आबादी का अनुमान, वहां की जरूरतों का अंदाज, यह सब मुश्किल नहीं है। भारत सरकार को बाकी देशों के साथ बात करके आपसी संभावनाओं पर काम करना चाहिए। देश के बाहर निकले हुए लोग आमतौर पर देश में अपनी बराबरी के रह गए लोगों के मुकाबले आगे बढ़ते हैं। इस हकीकत को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार, और अलग-अलग प्रदेशों को अपनी नौजवान पीढ़ी पर जमकर मेहनत करनी चाहिए, इससे देश के भीतर भी रोजगार देने का दबाव घटेगा।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट में एक दिलचस्प मामला पहुंचा जिसमें जनहित याचिका दायर करने वाले एक वकील पर मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ भडक़ गए। याचिका में अदालत से मांग की गई थी कि सांसदों और विधायकों की डिजिटल निगरानी करने के लिए उनमें चिप लगाई जाए। सीजेआई ने भडक़ते हुए कहा कि यह कैसी याचिका है? अगर इसे मंजूर करेंगे, और सुनवाई के बाद खारिज होगी, तो पांच लाख रूपए देना होगा क्योंकि यह जनता का समय है। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि सांसदों और विधायकों की भी निजी जिंदगी होती है। इसके बाद बिना जुर्माना लगाए अदालत ने यह याचिका खारिज कर दी।
हमारा ख्याल है कि इस याचिका को तो खारिज होना ही था, लेकिन इसमें देश की सर्वोच्च अदालत के सामने देश की एक बड़ी फिक्र को सामने रखा है कि सांसद और विधायक अब विश्वसनीय नहीं रह गए हैं। उन्हें चुनने के लिए जनता जो वोट देती है, वह वोट तो उम्मीदवार का नाम और पार्टी के निशान पर दोनों पर एक साथ होता है, लेकिन ऐसे नेता जनता के फैसले के खिलाफ जाकर जब चाहे तब पार्टी बदल लेते हैं, और अगर वे थोक में पार्टी बदलते हैं, तो वह दलबदल भी नहीं कहलाता है। ऐसे में जनता के दिए हुए फैसले को लात मारने के अलावा और कुछ नहीं होता। पार्टी छोडऩे वाले उम्मीदवार जनता के अपने नाम पर दिए गए वोट का तो अपमान करते हैं, और साथ-साथ पार्टी निशान पर दिए गए वोट के खिलाफ काम करते हैं। आज देश में बहुत से लोगों का ऐसा मानना है कि पंच-सरपंच से लेकर पार्षदों तक, और विधायकों से लेकर सांसदों तक का कोई ऐसा इलाज होना चाहिए कि वे मंडी में अपने को पूरी बेशर्मी से बेच न सकें। इस खरीदी-बिक्री में भुगतान कई तरह से होता है, नगद भी होता होगा, सजा से माफी भी होती होगी, और कमाऊ ओहदों का बंटवारा भी होता होगा। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, ऐसा जनता का मानना है।
मुख्य न्यायाधीश ने याचिकाकर्ता की सोच और उसके तर्क को पूरी तरह खारिज कर दिया। याचिका में अपील की गई थी कि बिना किसी अपवाद के सारे जनप्रतिनिधियों की डिजिटल निगरानी होनी चाहिए। उसका तर्क था कि एक बार जनता के द्वारा चुन लिए जाने पर विधायक और सांसद ऐसे बर्ताव करते हैं कि मानो वे जनता पर राज करने के लिए आए हैं, और जनता के मालिक हैं। सीजेआई का कहना था कि निर्वाचित नेता भी परिवार के बीच भी रहते हैं और उनकी निजता को इस तरह से खत्म नहीं किया जा सकता मुख्य न्यायाधीश ने इस पिटीशन को गैर गंभीर माना और इसे खारिज कर दिया।
हम भी इस पिटीशन के ऊपर अदालत के किसी फैसले की उम्मीद नहीं कर सकते थे, लेकिन एक दूसरी बात यह है कि देश के सांसदों और विधायकों के प्रति जनता के मन में जो अविश्वास पैदा हो गया है, और जिस तरह से बहुत से सांसद और विधायक अपनी आत्मा को बेचने के लिए एक पैर पर खड़े रहते हैं, वह बात इस पिटीशन के माफऱ्त अदालत तक पहुंची है. हम इससे जुड़े हुए एक दूसरे पहलू पर बात करना चाहते हैं. इसके बारे में हमने कई बार लिखा भी है. हमारा मानना है कि संवैधानिक पदों पर जो लोग पहुंचते हैं या जो सत्ता की शपथ लेकर सरकार चलाते हैं, ऐसे लोगों के लिए यह शर्त होनी चाहिए कि उनके ऊपर अगर कोई आरोप लगेंगे, भ्रष्टाचार के, अनियमितता के, किसी गड़बड़ी के, तो वैसी हालत में उनको जांच में मदद करने के लिए झूठ पकडऩे की मशीन का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए, या नार्को टेस्ट के लिए भी तैयार रहना चाहिए। हमारे इस तर्क के पीछे भी सत्तारूढ़ लोगों के प्रति जनता के मन में बैठा हुआ एक गहरा विश्वास है। इसी तरह की बात इस पिटीशन में भी की गई है।
इस याचिका ने एक अलग कानूनी समाधान माँगा है, इसके लिए अदालत से रास्ता अलग मांगा गया है, लेकिन कुल मिलाकर बात उसी के आसपास है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि अब न भरोसेमंद हैं, न उनका कोई अधिक सम्मान रह गया है। ऐसे में भारतीय लोकतंत्र में दलबदल के बारे में, या जैसा कि अभी ताजा मामला है कई राज्यों में राज्यसभा के लिए वोट डालते हुए बहुत सी दूसरी पार्टियों के लोगों ने भाजपा के उम्मीदवारों के पक्ष में वोट डाले, भाजपा की ताकत आज जग जाहिर है और ऐसे में उसके लिए वोट डालना और अपनी पार्टी के साथ बेईमानी दिखाना, इस बात को भी समझने की जरूरत है।
यह बात जरूर है कि हिंदुस्तानी लोकतंत्र में हर मर्ज का इलाज सुप्रीम कोर्ट नहीं है, दूसरी बात यह है कि जो संसद एक दूसरा इलाज हो सकती थी, वह संसद आज जनता के सामने कोई विकल्प नहीं है। जनता जाए तो किधर जाए ? इसलिए यह सोचने का मौका है कि अविश्वसनीय जनप्रतिनिधियों का क्या इलाज किया जाए? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
फिलीस्तीन और इजिप्ट की सरहद पर रफा क्रॉसिंग नाम की जगह गाजा में दाखिले का रास्ता है, और यह इजिप्ट की मर्जी पर होता है कि वह किसी वहां से कितने दिन के लिए गाजा जाने दे। फिलहाल इजराइली हमले के शिकार इस शहर गाजा से लाखों लोग रफा में बनाए शरणार्थी शिविरों में ठहरे हुए हैं क्योंकि इजराइली हमले थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। अक्टूबर में गाजा पर काबिज एक इस्लामी-फिलीस्तीनी हथियारबंद संगठन हमास ने इजराइल पर ऐतिहासिक हमला किया था जिसमें कई सौ लोग मारे गए थे, और कुछ सौ लोगों को अपहरण करके गाजा ले आया गया था। उसके तुरंत बाद से इजराइल ने हर किस्म का फौजी हमला करके हमास को खत्म करने के नाम पर गाजा शहर और फिलीस्तीनियों को खत्म करना शुरू किया था, और वहां करीब 23 लाख आबादी में से 30 हजार से ज्यादा फिलीस्तीनी मारे जा चुके हैं, 70 हजार से अधिक जख्मी हैं, और 15 लाख फिलीस्तीनी नागरिक रफा के शरणार्थी शिविरों में हैं। अगर संयुक्त राष्ट्र के बयानों पर भरोसा किया जाए, तो इजराइली सेनाएं फिलीस्तीन के स्कूलों, अस्पतालों, संयुक्त राष्ट्र के शरणस्थलों, हर किस्म की जगह पर हमले कर रही हैं, और दुनिया के बहुत से देशों ने इसे फिलीस्तीनी जाति का जनसंहार करार दिया है।
ऐसे रफा में कल संयुक्त राष्ट्र की तरफ से राहत सामग्री लेकर ट्रक पहुंचे, तो भूखे फिलीस्तीनियों ने उन्हें घेरना शुरू किया, और वहां मौजूद इजराइली सैनिकों ने अपने टैंकों के साथ वहां चौकसी करते हुए निहत्थे फिलीस्तीनियों पर गोली चलाई जिसमें 112 लोग मारे गए, और 7 सौ से अधिक जख्मी हुए। इजराइली सेना ने बाद में इस बारे में कहा कि उसके सैनिकों को लगा कि यह भीड़ खतरनाक हो सकती है, इसलिए उन्होंने गोलियां चलाईं। जो ट्रक राहत सामग्री लेकर पहुंचा था उसी से घायलों और लाशों को अस्पताल पहुंचाया गया। इजराइली हमलों में करीब 25 अस्पताल खत्म हो चुके हैं, और हालत यह है कि जख्मियों को बेहोश किए बिना उनके ऑपरेशन करने पड़ रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र लगातार इस बात को बोलते आ रहा है कि गाजा में भुखमरी की नौबत है, और इजराइली फौजें गाजा में मदद जाने नहीं दे रही हैं। अभी बड़ी अंतरराष्ट्रीय दखल से किसी तरह यह इजाजत जुटाई गई, तो भूखे फिलीस्तीनियों को इजराइली सैनिकों ने थोक में भून डाला।
कल ही पत्रकारों के एक अंतरराष्ट्रीय संगठन ने इजराइली सरकार से कहा है कि वह अपने देश में मीडिया की आजादी की बात कहती है, लेकिन गाजा जाकर काम करने वाले पत्रकारों को इजाजत नहीं दे रही, और गाजा में दर्जनों अखबारनवीसों को मार डाला गया है। इस मौके पर पिछले कुछ दिनों से आ रहे बीबीसी के एक इश्तहार को देखना जरूरी लगता है जो कि बीबीसी की बनाई एक डॉक्यूमेंट्री का है। इसका नाम थ्री मिलियन है, मतलब 30 लाख। यह डॉक्यूमेंट्री अंग्रेजी राज में बंगाल में पड़े अकाल पर बनाई गई है, और इसे बनाने वाली महिला इसके प्रमोशनल इश्तहार में इस बात पर सदमा जाहिर करती है कि 30 लाख लोग मारे गए, लेकिन उनकी याद में कोई स्मारक नहीं है, उसके इतिहास का दस्तावेजीकरण नहीं हुआ है, और उसका कोई प्रतीक चिन्ह तक नहीं है। अब इस डॉक्यूमेंट्री को उसी इतिहास को दर्ज करना कहा जा रहा है।
हम फिलीस्तीन से लेकर 1930 के दशक में बंगाल के अकाल में मरने वाले लोगों पर बनी इस डॉक्यूमेंट्री की बात इसलिए जोड़ रहे हैं कि तकरीबन एक सदी बाद ब्रिटेन के जनता के पैसों से चलने वाले इस मीडिया संस्थान, बीबीसी का दर्ज किया हुआ यह इतिहास भारत में ब्रिटिश राज का सबसे बड़ा कलंक भी दर्ज कर रहा है। एक दिन ऐसा भी आएगा जब दुनिया फिलीस्तीन पर इजराइल-अमरीका के जुर्म का इतिहास दर्ज करेगी। फिलहाल ब्रिटिश जनता के पैसों से भारत में ब्रिटिश राज के कलंक का जो दस्तावेजीकरण हुआ है, वह बताता है कि अपने खुद के इतिहास के कालिख लगे हिस्से को ईमानदारी से दर्ज करना भी एक सभ्य, लोकतांत्रिक और जिम्मेदार समाज का काम होता है। यह बात इसलिए भी जरूरी है कि दुनिया के कई देशों में इतिहास को मिटाने का काम चल रहा है, और इतिहास लिखने को देश के साथ गद्दारी कहा जा रहा है क्योंकि मौजूदा सत्ता को इतिहास के उस खरे पहलू से शर्मिंदगी होती है। इसलिए असल इतिहास को दर्ज करने वालों से कागज और स्याही भी छीन लेना, और उस स्याही को पुराने दर्ज इतिहास के उस हिस्से पर मल देना जो कि आज पसंद नहीं किया जा रहा है। यह सिलसिला इसी एक देश को अपनी सरहद में इतिहास लेखन को तो कुछ हद तक रोकने की ताकत देता है, लेकिन बाकी दुनिया तो हर जगह का इतिहास दर्ज करती ही है। आज ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन की एक पत्रकार बंगाल के अकाल और अंग्रेजों की आपराधिक लापरवाही या साजिश पर एक डॉक्यूमेंट्री बना रही है। इससे अंग्रेजों का ही इतिहास कलंकित हो रहा है, और यह अंग्रेजों के टैक्स के पैसों से चलने वाला स्वायत्त संस्थान हैं।
दुनिया को इस मिसाल से यह सबक लेना चाहिए कि इतिहास लिखने के लिए तथ्यों को छांट-छांटकर नहीं लिया जा सकता, और न ही नापसंद तथ्यों को इतिहास से हटाया जा सकता है। दुनिया के इतिहास में इजराइल और अमरीका हिटलर के बाद के एक सबसे बड़े मुजरिम की तरह दर्ज होंगे। आज जर्मनी अपने एक वक्त के शासक हिटलर का नाम लेने से भी कतराता है, शर्म करता है, हिटलर पूरी दुनिया के लिए शर्मिंदगी का सामान बना हुआ है, हमेशा ही रहेगा। दूसरी तरफ इजराइल के खिलाफ दक्षिण अफ्रीका से लेकर ब्राजील तक कई देश खुलकर खड़े हुए हैं, और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस ऐतिहासिक जुर्म का भांडाफोड़ कर रहे हैं। लेकिन भारत सहित बहुत से देश आज जुल्म के इस दौर में, नस्लीय जनसंहार की इस फौजी कार्रवाई को देखते हुए चुप बैठे हैं, और यह समझ लेना चाहिए कि यह चुप्पी तटस्थता नहीं है, जब जुल्म होता है, जुर्म होता है, तो उस वक्त चुप रहने वाले लोग मुजरिम के साथी रहते हैं। जिस तरह आज एक सदी बाद बंगाल का इतिहास दर्ज हो रहा है, उसी तरह एक दिन इजराइल के जुर्म का भी इतिहास दर्ज होगा, और उस दिन दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील जैसे देशों का हौसला सुनहरे हर्फों में दर्ज होगा, बाकी लोग अपने-अपने जिक्र की स्याही के रंग का अंदाज खुद लगा सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
तेलंगाना से कुछ अजीब सी खबर आई है, आन्ध्रप्रदेश और इलाहाबाद हाईकोर्ट में जज रह चुके एक रिटायर्ड व्यक्ति से दो लोग अपने को आरएसएस का बताकर मिले, और केन्द्र सरकार में बड़ा ओहदा दिलाने के नाम पर उनसे मोटी रकम वसूली। भूतपूर्व जज के अलावा उनके परिवार से भी अमरीका में नौकरी दिलाने का झांसा दिया, और इसके एवज में भाजपा के लिए चुनावी बांड के जरिए चंदा लेने की बात कहते हुए ढाई करोड़ रूपए ठग लिए। अब तक कम पढ़े-लिखे लोग या टेक्नॉलॉजी को न समझने वाले लोग फोन पर आने वाले ओटीपी को देने की गलती कर बैठते थे, लेकिन यह बिल्कुल अलग किस्म का मामला है जिसमें हाईकोर्ट के जज रह चुके व्यक्ति ने इस तरह करोड़ों रूपए गंवा दिए, और यह मान लिया कि भाजपा के चुनावी बांड खरीदने से उसे केन्द्र सरकार में बड़ा ओहदा मिल जाएगा। जाहिर है कि भाजपा की तरफ से ऐसा कोई धोखा नहीं दिया गया है, और आरएसएस का भी इसमें नाम ही लिया गया है, लेकिन बाजार में भ्रष्टाचार को लेकर लोगों के मन में कितना भरोसा है यह इससे साबित होता है। हमारे आसपास तकरीबन हर हफ्ते एक-दो ऐसी गिरफ्तारियां होती हैं जिनमें लोग नौकरी लगाने का वायदा करके वसूली करते हैं जो कि किसी असली संभावना को लेकर नहीं होती, पूरी तरह से ठगी होती है। लेकिन हाईकोर्ट के भूतपूर्व जज अगर ऐसी लंबी-चौड़ी और करोड़ों की ठगी के शिकार हुए हैं, तो उससे ऐसा लगता है कि सरकारों में व्यापक भ्रष्टाचार होने की साख काफी फैली हुई है, अब अगर जनधारणा ऐसी है, तो लोगों को सोचना चाहिए कि भारत की सरकारी व्यवस्था की साख दूर-दूर तक गड़बड़ है। फिर यह भी है कि मामूली सरकारी नौकरियों से परे मनोनयन से भरे जाने वाले बड़े-बड़े और ऊंचे ओहदे भी भ्रष्टाचार के शिकार हैं। दूसरी बात यह भी है कि यहां पर किसी की नियुक्ति रिश्वत लेकर हो या बिना रिश्वत के, इन जगहों पर बैठकर भी कमाई की मोटी गुंजाइश जरूर होगी, तभी लोग इसके लिए करोड़ों रूपए देने को तैयार हैं।
अब हम इस एक घटना से परे देखें, तो राज्यों में जगह-जगह कमाऊ कुर्सियों पर अफसरों की तैनाती मोटी रिश्वत से होती है, और वहां जाते ही अफसर अपने पूंजीनिवेश को वसूलना शुरू कर देते हैं। छत्तीसगढ़ में पिछले पांच बरस में यह आम चर्चा रही कि किसने, किस अफसर को, कितने करोड़ देकर कौन सी कुर्सी पाई। इसके बाद यह भी चर्चा आम रहती है कि किस कुर्सी की कितनी कमाई रहती है। यह भी लोगों को दिखता है कि कौन-कौन से अफसर किस-किस जगह पर कितनी जमीन-जायदाद खरीदते हैं। अगर जमीनों के दलालों से समझा जाए, तो वे एक-एक अफसर की हर जमीन को गिना सकते हैं, जो कि उनके इलाके में ली गई है, या पहले से है। हर पटवारी को पता होता है कि किस साहब ने उसे बुलाकर किन जमीनों के बारे में बात की है, किनके कागज निकलवाए हैं। इसका पता अगर नहीं होता है, तो भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाले, अनुपातहीन संपत्ति पकडऩे वाले उन विभागों को ही नहीं पता होता है जो इसी काम की रोटी खाते हैं। सत्ता पर पार्टियां आती-जाती रहती हैं, नेता भी बदलते रहते हैं, लेकिन अफसर औसतन पांच-छह सरकारों के कार्यकाल तक बने रहते हैं। नतीजा यह होता है कि अवैध कमाई की उनकी जानकारी नेताओं के मुकाबले खासी अधिक रहती है, और फिर यह भी रहता है कि अधिकतर फाइलों पर दस्तखत अफसरों के ही होते हैं, इसलिए मंत्री या नेता बिना तो भ्रष्टाचार हो सकता है, लेकिन अफसर बिना भ्रष्टाचार नहीं हो सकता। आन्ध्र के इस ताजा पूंजीनिवेश को देखते हुए देश और प्रदेशों की सरकारों को यह सोचना चाहिए कि अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में, और जिम्मेदारी के अपने-अपने दायरों में क्या वे भी इस भ्रष्ट व्यवस्था को कुछ कम कर सकते हैं? या फिर सत्ता पर आने के लिए एक बड़ी प्रेरणा यह भ्रष्टाचार ही रहता है, और लोग मेहनत और खर्च से चुनाव जीतकर सत्ता पर आते इसीलिए हैं कि कमाया जा सके। छत्तीसगढ़ में अभी पिछली कांग्रेस सरकार के जाने के बाद, और भाजपा सरकार के आने पर पिछले लोगों के कई किस्म के भ्रष्टाचार सामने आ रहे हैं। इसलिए यह भी लगता है कि जिन लोगों के मंत्री बनने की संभावना रहती है, वे अंधाधुंध चुनावी-निवेश करके जीतने की कोशिश करते हैं, ताकि लागत के पेड़ से सैकड़ों गुना अधिक फल पाए जा सकें।
अब भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस न्यायपालिका से थोड़ी-बहुत उम्मीद बंधती है, उसमें संवैधानिक-अदालत, हाईकोर्ट के जज रहे हुए आदमी को भी जब करोड़ों का पूंजीनिवेश सुहा रहा है, तो फिर आम लोगों से क्या उम्मीद की जा सकती है। दिक्कत एक है कि भ्रष्टाचार के मामले पकड़ाते बहुत हैं, उनमें से अदालत तक बहुत कम पहुंच पाते हैं, और सजा तो शायद ही किसी को मिलती है। आज देश में जांच के सबसे अधिक अधिकार जिस एजेंसी, ईडी के पास हैं, उस एजेंसी का भी सजा दिलवाने का रिकॉर्ड बड़ा ही कमजोर है। यह महज कुछ फीसदी तक सीमित है। इसलिए अधिकतर लोग यह मानते हैं कि ईडी के मामलों में गिरफ्तार लोग जमानत के पहले जितने वक्त जेल में रहते हैं, बस वही मानो उनकी सजा रहती है। जब सबसे अधिक अधिकारों वाली एजेंसी का यह हाल है, तो बाकी एजेंसियों का सजा दिलवाने का, या भ्रष्टाचार पकडऩे का रिकॉर्ड तो और भी खराब होना ही है। राज्यों की भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसियां सिर्फ पटवारी या बहुत छोटे-छोटे सबइंजीनियर जैसे लोगों को पकड़ती है, और जिन मगरमच्छों की जानकारी हर किसी को रहती है, वे खुले घूमते रहते हैं, रिटायर होने के बाद भी तरह-तरह का दूसरा पुनर्वास पाते हैं, और कमाई करते रहते हैं। देश और प्रदेशों में जितने तरह के संवैधानिक आयोग बने हैं, उनकी वजह से अब सिर्फ दीनहीन अफसर और जज ही रिटायर होने के बाद बिना काम रहते हैं, बाकी तमाम लोग कोई न कोई सहूलियत और/या कमाई की कुर्सी पा जाते हैं। तेलंगाना के रिटायर्ड जज साहब ने ऐसा ही पूंजीनिवेश किया था, लेकिन ढाई करोड़ की ठगी से हासिल कुछ नहीं हुआ।
देश में भ्रष्टाचार कम होना चाहिए यह कहना तो आसान है, लेकिन भ्रष्टाचार को कम करने की नीयत किसी की दिखती नहीं है। और तो और इसे उजागर करने की जिम्मेदारी लोकतंत्र के जिस स्वघोषित चौथे स्तंभ की मानी जाती है, वह खुद भी तरह-तरह के भ्रष्टाचार का हिस्सेदार हो जाता है। ऐसे में इस देश को गहरे गड्ढे की तरफ जाना है, और वह जा रहा है। ताकतवर लोग चाहे लोकतंत्र के किसी भी स्तंभ के हों, वे गिरोहबंदी करके एक माफिया चला रहे हैं, और चुनाव एक माफिया की जगह दूसरे माफिया को कुछ बरसों की लीज देता है।
राज्यसभा के चुनावों में कई जगहों पर कांग्रेस विधायकों ने भाजपा उम्मीदवारों के लिए वोट डाले। उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी के आधा दर्जन से अधिक विधायक भाजपा की तरफ गए। दूसरी तरफ कर्नाटक में भाजपा के एक विधायक ने सत्तारूढ़ कांग्रेस के समर्थन में क्रॉस वोटिंग की, और एक विधायक ने वोट नहीं डाला। इसके साथ-साथ पिछले दिनों झारखंड में सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल कांग्रेस के विधायकों ने बगावती तेवर दिखाए थे, और उन्हें शांत करने के लिए दिल्ली भी बुलाया गया था। अभी सुनाई पड़ रहा है कि हिमाचल में राज्यसभा चुनाव के मतदान से आधा दर्जन कांग्रेस विधायक गायब थे, और वहां पर मौजूदा कांग्रेस मुख्यमंत्री को बदलने की मांग भी हो रही है। कुल मिलाकर देश में गिने-चुने राज्यों में सरकार चला रही, या गठबंधन में भागीदार कांग्रेस पार्टी में बड़े पैमाने पर फूट पड़ रही है, या बगावत हो रही है। और जहां जिस पार्टी में कोई बगावत हो रही है, विधायक या सांसद धोखा दे रहे हैं, पूरी जिंदगी कांग्रेसी कटोरे से मलाई चाटने वाले आज पार्टी को लात मारकर बाहर जा रहे हैं, तो वे सबके सब सिर्फ भाजपा की तरफ जा रहे हैं। यह बात जाहिर है कि इन तमाम लोगों को देश में भाजपा का, और भाजपा में ही अपना भविष्य दिख रहा है। हो सकता है कि इनमें से कई लोग ईडी या आईटी, या सीबीआई और राज्य की भाजपा सरकार की जांच से घिरे हुए हों, लेकिन उससे परे के लोग भी रहस्यमय वजहों से कांग्रेस में काया छोड़ अपनी आत्मा संग कहीं और मंडराते दिख रहे हैं, और फिर बाद में उस नश्वर काया को भी उठाकर ले जा रहे हैं।
भाजपा के सिद्धांतों के खासे खिलाफ रहने वाले दल, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के लोग, एनसीपी, और राजद के लोग जब भाजपा जाते हैं, तो एक बात साफ हो जाती है कि भारतीय राजनीति में, खासकर चुनावी, और सत्ता-संभावनाओं के खेल में सिद्धांतों का बोझ ढोना अब खत्म हो गया है। अब लोग पुराने वक्त की तरह पेटी-बिस्तरा उठाकर सफर नहीं करते, अब छोटे से, और वह भी पहियों वाले, सूटकेस को लेकर हवाई सफर का वक्त आ चुका है। और सहूलियत का ऐसा फैशन सबसे पहले राजनीति में ही शुरू होता है। आज अंतरात्मा की आवाज मानो सत्ता के ब्लूटूथ से नियंत्रित हो रही है, और लोग हवा के झोंकों की तरह कहीं भी आ-जा रहे हैं। भारतीय राजनीति में यह एक बिल्कुल ही अनोखा दौर है जिसमें अपने बेहतर भविष्य की संभावना, या अपने खतरनाक भविष्य की आशंका को देखते हुए लोग पल भर में फैसले ले रहे हैं। जिस तरह किसी ब्यूटी पार्लर में वैक्सिंग की पट्टी चमड़ी से रोओं को पल भर में अलग कर देती है, उसी तरह आज लोग पार्टी-प्रतिबद्धता से पल भर में अलग हो जा रहे हैं। यह भारतीय राजनीति का वैक्सिंग-काल चल रहा है, और वैक्सिंग का यह काम धीरे-धीरे नहीं होता है, एक झटके से होता है। एक झटके से दूसरी-तीसरी पीढ़ी के कांग्रेसी, जिनके बाप-दादा भी इस पार्टी की सहूलियतों के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी बड़े हुए थे, उनकी दौलत की विरासत थामे हुए, और राजनीतिक विरासत को छिटकते हुए लोग कांग्रेस को छोड़ रहे हैं। यह रफ्तार इतनी अधिक है कि देश को कांग्रेसमुक्त करने के संकल्प वाली भाजपा आज खुद बहुत हद तक कांग्रेसयुक्त हो गई है, और उसके अपने पुराने निष्ठावान लोग कई जगहों पर कल कांग्रेस से भाजपा में आए लोगों के कार्यक्रमों में दरी बिछा रहे हैं।
भारतीय राजनीति का यह दौर कुछ लोगों को निराश कर सकता है, लेकिन सत्ता पर काबिज और उसके आदी हो चुके नेताओं को अगर देखें तो उनकी आत्मा का परकाया प्रवेश उसी रफ्तार से होता है, जिस रफ्तार से सत्तारूढ़ पार्टी का विस्तार हो रहा है, वह मजबूत हो रही है, और उसका अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा ध्वज लिए हुए जितनी दूर तक जा रहा है। ऐसी राजनीति के अंगने में सिद्धांत, नैतिकता, पीढिय़ों के अहसान की जगह भी कहां है? और ऐसा भी नहीं है कि दूसरी बहुत सी पार्टियां ऐसे ही किस्म के दल-बदल से परहेज करते आई हों। जिसकी गांठ में जितने नोट लिपटे होते हैं, वे राजनीति की मंडी में उतनी ही खरीददारी कर पाते हैं, आज कई किस्म की करेंसी, और कई किस्म के हथियार भाजपा के पास हैं, इसलिए वह भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी खरीददार है। ऐसा भी नहीं कि दूसरी पार्टियों का बस चले तो वे इस ग्रेट इंडियन शॉपिंग फेस्टिवल से कोई परहेज करें।
अब यह तो भारतीय राजनीति के लोगों के सोचने की बात है कि सिद्धांतों पर कितना दांव लगाया जाए? जब मतदाताओं के एक बहुत बड़े, शायद सबसे बड़े हिस्से से नैतिकता और सिद्धांतों की संवेदनशीलता और समझ खत्म हो चुकी हैं, तो फिर इस बोझ को लादे हुए कोई चुनाव प्रचार क्यों करे? राजनीति में कामयाबी और सत्ता की ताकत ही सब कुछ है। इसी से तमाम पुराने जुर्म और कुकर्म ढोए जा सकते हैं, इसी मौके पर समझदारी न दिखाने से लोगों के इतिहास की कब्र फाडक़र उनके दफन-जुर्म निकल भी सकते हैं। ऐसे में हर नए दल-बदल के साथ दल-बदल शब्द की गंदगी धुलती चली जा रही है। अब दल-बदल अछूत या बुरा शब्द नहीं रह गया है, अब वह उसी तरह एक जीवनशैली बन गया है, जिस तरह कई बड़े अदालती मामलों में हिन्दुत्व को एक जीवनशैली साबित किया जाता है, कि वह धर्म नहीं है, जीवनशैली है, वे ऑफ लाईफ है।
भारतीय राजनीति तमाम किस्म की नैतिकता, और परंपराओं के बोझ से मुक्त अब उन्मुक्त नृत्य कर रही है, जो कि कुली की तरह लदे बोझ के साथ मुमकिन नहीं था। भारत की बाकी तमाम पार्टियों को यह समझना होगा कि बाजार और कारोबार के जो नियम रहते हैं कि पैसा पैसे को खींचता है, कुछ वैसे ही नियम अब भारतीय राजनीति के हो गए हैं कि ताकत ताकत को खींचती है। जिस तरह बड़े शहरों में एक अकेले खंभे पर बहुत बड़े-बड़े होर्डिंग लगे रहते हैं, और जिन्हें यूनीपोल कहा जाता है, भारतीय राजनीति अब वैसी ही यूनीपोलर होते दिख रही है, और भाजपा बहुत हद तक अकेली पार्टी बनने की राह पर बढ़ रही है। वैसे तो राजनीति में बहुत से ऐसे पल आते हैं जब उसके मुद्दे रातों-रात बदल जाते हैं, लेकिन फिलहाल तो सिर्फ भाजपा विरोधी रहे नेताओं की अंतरात्मा की आवाज ही बदल रही है। यह सिलसिला तब तक थमते नहीं दिखता है, जब तक भाजपा की जीत का सफर धीमा न पड़े, और आज ऐसे कोई आसार दिख नहीं रहे हैं। लोग अब कौमार्य खोने से अधिक आसानी से आत्मा खो रहे हैं, और आने वाले दिन और अधिक उत्तेजक रहने का आसार दिख रहा है।
पाकिस्तान में पिछले एक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की बेटी मरियम नवाज पंजाब प्रांत की मुख्यमंत्री चुनी गई हैं। वे पाकिस्तान के किसी भी प्रदेश में सीएम बनने वाली पहली महिला हैं। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान की एक खबर बताती है कि भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान राहुल गांधी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पहुंचे, और वहां की छात्राओं के साथ उनकी बातचीत हुई। जाहिर है कि किसी जागरूक विश्वविद्यालय की अल्पसंख्यक वर्ग की छात्राओं को जब बात करने का मौका मिलेगा, तो वे महिलाओं के हक को लेकर कई तरह के सवाल करेंगी। राहुल देश के प्रमुख नेताओं से एक पीढ़ी कम उम्र के भी हैं, और इसलिए युवा पीढ़ी के साथ उनकी बातचीत कुछ अधिक स्वाभाविक होती है। छात्राओं ने उनसे पूछा कि अगर वे प्रधानमंत्री बनते हैं तो महिलाओं के हिजाब पहनने के मुद्दे पर उनकी क्या राय रहेगी? राहुल ने कहा कि महिलाएं क्या पहनती हैं ये उनका हक है, उन्हें क्या पहनना है या क्या नहीं पहनना है ये उनका फैसला है। उन्होंने कहा कि उन्हें यह नहीं लगता कि किसी और को यह तय करना चाहिए कि महिलाएं क्या पहनें। इसके साथ-साथ राजनीति में महिलाओं की भागीदारी पर जब राहुल से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि राजनीति और कारोबार में महिलाओं का प्रतिनिधित्व पूरी तरह से नहीं दिखता है, इसके लिए सभी राजनीतिक दलों को सोचना होगा कि वे ज्यादा से ज्यादा महिला उम्मीदवारों को मौका दें, देश के राजनीतिक ढांचे से महिलाओं को जोडऩा होगा। राहुल का कहना था कि स्थानीय स्तर पर महिलाओं की फिर भी राजनीति में मौजूदगी दिखती है, वे प्रधान या पार्षद के स्तर तक पहुंच जाती हैं, लेकिन इससे ऊपर जब विधायक या सांसद बनने की बारी आती है तो महिलाएं बहुत कम दिखती हैं, ऐसे में महिलाओं को प्रोत्साहित करना होगा।
राहुल की कही हुई बातें तो अच्छी हैं, लेकिन देश की राजनीति में महिलाओं को हक देने की बातें ही होती रहती हैं। हम दो प्रमुख पार्टियों की बात करें, तो कांग्रेस लंबे समय तक सत्ता पर रहते हुए भी महिला आरक्षण विधेयक पास नहीं करवा पाई थी। दूसरी तरफ मोदी सरकार ने यह कानून तो बनवा दिया, लेकिन उसके साथ इतनी सारी शर्तें जुड़ी हुई हैं कि 2029 का आम चुनाव भी शायद महिला आरक्षण के बिना होगा। कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश के विधानसभा के चुनाव में प्रियंका गांधी की लीडरशिप में, लडक़ी हूं लड़ सकती हूं का नारा लगाया था। और अपनी घोषणा के मुताबिक 40 फीसदी सीटों पर महिला उम्मीदवार भी बनाए थे। लेकिन यह बात पहले से तय थी कि उंगलियों पर गिने जाने लायक ही जीत कांग्रेस पार्टी की होगी, इसलिए कांग्रेस की उस घोषणा का नारे से अधिक कोई मतलब नहीं था। दूसरी तरफ यूपी चुनाव के तुरंत बाद देश में जहां-जहां भी चुनाव हुए, कांग्रेस को और किसी प्रदेश में लडऩे लायक लड़कियां दिखी ही नहीं, और कहीं वे 40 फीसदी सीटों की चर्चा भी नहीं हुई। हमारा ख्याल है कि महिलाओं को टिकट देने में कांग्रेस 20 फीसदी के आसपास ही थम गई थी। महिला आरक्षण लागू होने के पहले भी कोई पार्टी अगर चाहे तो वह खुद होकर सौ फीसदी सीटें भी महिला उम्मीदवारों को दे सकती है, लेकिन कांग्रेस ने न 40 फीसदी सीटें दीं, न 33 फीसदी। भाजपा ने भी महिला आरक्षण विधेयक पास करवाने के बाद भी एक सैद्धांतिक ईमानदारी के आधार पर भी ऐसा नहीं किया।
अब राहुल ने स्थानीय राजनीति में महिलाओं के दिखने की जो बात कही है, वह सही है। छत्तीसगढ़ जैसे बहुत से राज्य हैं जहां पंचायतों में 50 फीसदी सीटें महिला पंच-सरपंच के लिए आरक्षित हैं। मतलब यह कि वहां जाति का आरक्षण होने के अलावा महिला आरक्षण भी लागू होता है। ऐसे दोहरे आरक्षण के बाद भी छोटे-छोटे गांव में भी हर पार्टी को उम्मीदवार बनाने लायक महिला मिल जाती हैं। तो फिर ऐसा क्या है कि विधानसभा और लोकसभा के स्तर पर महिला उम्मीदवार न मिलने का रोना रोया जाता है? एक विधानसभा के भीतर सैकड़ों महिला पंच-सरपंच, और सैकड़ों पार्षद हो सकती हैं, फिर इनके बीच से तो आसानी से महिला उम्मीदवार हर पार्टी को मिल सकती है। राहुल गांधी पूरे देश में जिस किस्म की सही राजनीति का झंडा लेकर घूम रहे हैं, क्या यह सही राजनीति नहीं होती कि आने वाले आम चुनाव में कांग्रेस 40 या 33 फीसदी महिला आरक्षण अपनी टिकटों पर ही लागू करती? राहुल ने महिला आरक्षण विधेयक चर्चा के दौरान मोदी सरकार से कहा भी था कि इस विधेयक को जनगणना के बाद के डी-लिमिटेशन से जोडक़र नहीं रखना चाहिए, और अगले दिन से तुरंत ही लागू कर देना चाहिए। ऐसी सलाह देने वाले राहुल की पार्टी के सामने आज भी यह मौका है कि महिला आरक्षण लागू होने के पहले ही उनकी पार्टी एक तिहाई सीटों पर आरक्षण लागू करे। अगर कोई सिद्धांत है, तो उसका कानून बनकर सामने आना जरूरी हो, ऐसा तो नहीं है।
हमारी कांग्रेस और भाजपा जैसी दोनों बड़ी पार्टियों से, और इनके गठबंधनों से यह उम्मीद है कि वे आम चुनाव 33 फीसदी महिलाओं को टिकट दें। अगर कोई एक पार्टी ऐसी पहल करती है, तो देश की आधी मतदाताओं के बीच उसकी तस्वीर बेहतर बनेगी कि कानून पर अमल का दिन आने के पहले ही उस पार्टी ने महिलाओं को यह हक दिया है। और इससे पार्टी को एक तजुर्बा भी होगा कि एक तिहाई महिलाओं के साथ चुनाव कैसे लड़ा और जीता जा सकता है। देश के लोकतंत्र को कानून की तंग सीमाओं से ऊपर निकलना भी सीखना चाहिए। जनता के बीच से भी राजनीतिक दलों के लिए ऐसी मांग होनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
ब्रिटेन के एक विश्वविद्यालय में पढ़ा रहीं भारतीय मूल की कश्मीरी पंडित प्रो.निताशा कौल को कर्नाटक सरकार ने एक कार्यक्रम में बुलाया, और उन्हें बेंगलुरू एयरपोर्ट पर इमिग्रेशन अफसरों ने बताया कि दिल्ली से हुक्म मिला है कि उन्हें भारत में घुसने न दिया जाए। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने केन्द्र सरकार तक कोशिश भी की, लेकिन बात नहीं बनी, और अगली सुबह निताशा कौल को वापिस ब्रिटेन भेज दिया गया। केन्द्र सरकार के इमिग्रेशन अफसरों ने एयरलाईंस को कहा कि इन्हें भारत में घुसने की इजाजत नहीं है। निताशा कौल कर्नाटक सरकार द्वारा आयोजित, ‘संविधान और राष्ट्रीय एकता अधिवेशन’ में शामिल होने आई थीं, वे इस कार्यक्रम में वक्ता भी नहीं थीं। वे वेस्टमिंस्टर यूनिवर्सिटी में राजनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंध पढ़ाती हैं। जैसा कि उनके नाम से जाहिर है वे कश्मीरी पंडित हैं, उस समुदाय की हैं जो कि कश्मीर से बेदखल किया गया था, और उनके भारत के राष्ट्रविरोधी होने की कोई वजह नहीं है। उन पर आरएसएस विरोधी होने की तोहमत है, अफसर बेंगलुरू एयरपोर्ट पर 24 घंटे उनकी हिरासत के दौरान बार-बार यही बात पूछते रहे। उनका कहना है कि उन्हें कभी भारत सरकार की तरफ से कोई नोटिस नहीं मिला था।
यह नौबत भयानक है। देश में बहुत से लोग आरएसएस के आलोचक हो सकते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कि लोग मोदी, राहुल, या किसी और नेता के भी आलोचक हो सकते हैं। देश के भीतर अलग-अलग पार्टियों और संगठनों को लेकर कई तरह की बहस चलते रहती है, और न सिर्फ आरएसएस बल्कि बहुत से दूसरे संगठन भी आलोचना के निशाने पर रहते हैं, और यही तो लोकतंत्र है कि लोग सैद्धांतिक और वैचारिक आधार पर अपनी बात कानूनी दायरे में रख सकें। भारतीय मूल की ब्रिटेन में पढ़ा रहीं एक प्रोफेसर की बातों को लेकर सरकार को इतना संवेदनशील क्यों होना चाहिए, खासकर तब जब वह भारतीय मूल की हैं, कश्मीरी पंडित हैं, और राजनीति शास्त्र पढ़ाती हैं। पश्चिम के उदार राजनीतिक माहौल में किसी प्राध्यापक या किसी आम व्यक्ति से भी यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे लोकतंत्र के दायरे में आलोचना करने से कतराएं। और भारत में भी ऐसा माहौल पहले नहीं रहा कि लोग आलोचना न करें। देश का इतिहास अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराओं के चलते हुए कई तरह की आलोचनाओं से भरा रहा। हैरानी की बात यह है कि देश की एक प्रदेश सरकार, फिर चाहे वह कांग्रेस की ही क्यों न हो, अगर उसमें संविधान और राष्ट्रीय एकता पर कार्यक्रम हो रहा है, और भारतीय मूल की एक प्राध्यापक को सरकार ने विदेश से आमंत्रित किया है, तो उसे इस तरह से वापिस भेज देना एक घोर अलोकतांत्रिक बात है। हमारा यह भी ख्याल है कि केन्द्र सरकार के स्तर पर जिस किसी ने यह फैसला लिया होगा, इससे केन्द्र सरकार का ही बड़ा नुकसान होगा। आरएसएस की आलोचक यह प्रोफेसर यहां चाहे जो बोल जाती, अब इस तरह से उन्हें वापिस भेजने का नतीजा यह होगा कि दुनिया भर के पढ़े-लिखे लोगों के बीच संघ की आलोचना को लेकर एक नई उत्सुकता पैदा होगी, और बाकी दुनिया में तो विचारों पर इस तरह की सेंसरशिप है नहीं, इसलिए ब्रिटेन से परे भी बहुत सी देशों में निताशा कौल की लिखी और कही बातें गूंजेंगी। आज हिन्दुस्तान में जरूर असहमति एक अवांछित संतान की तरह हो गई है, लेकिन बाकी दुनिया के सभ्य और विकसित लोकतंत्रों में ऐसा नहीं है। वहां की राजनीतिक व्यवस्था असहमति के बीच मजबूत होते चलती है, और लोकतंत्र की मजबूती में विपक्ष की असहमति का बड़ा योगदान रहता है। ऐसे में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को हिन्दुस्तान में इस तरह खारिज करके यह देश अपनी जमीन पर ही खुद ही अपने को विश्वगुरू करार दे सकता है, लेकिन कोई भी विकसित लोकतंत्र भारत को ऐसा कोई तमगा नहीं देगा। लोकतांत्रिक दुनिया के लिए असहमति को लेकर बर्दाश्त का एक महत्व रहता है। और अगर हिन्दुस्तान में एक भारतवंशी की असहमति से इस कदर परहेज किया गया है, तो फिर विदेशी विचारकों की भारत की आलोचना की गुंजाइश ही कहां रहेगी?
अभी अधिक दिन नहीं हुए हैं भारत सरकार ने पिछले 22 बरस से हिन्दुस्तान में काम कर रही एक फ्रांसीसी पत्रकार को उस दिन भारत छोडऩे का आदेश दिया जब दो दिन बाद फ्रांस के राष्ट्रपति भारत के गणतंत्र दिवस में मुख्य अतिथि होकर पहुंच रहे थे। इस फ्रांसीसी पत्रकार की शादी भी एक भारतीय से हुई है, और उसने हिन्दुस्तान पर बड़ी गंभीर रिपोर्टिंग की है। जाहिर है कि किसी भी गंभीर और पेशेवर पत्रकार के लिखे में कई लोगों की आलोचना भी होगी। इसे भारत सरकार की तरफ से दिए गए नोटिस में यह कहा गया कि उसकी रिपोर्टिंग आलोचना से भरी और खराब नीयत की रहती है। कहा गया कि उसका काम भारत के राष्ट्रीय हितों के खिलाफ है। हमारा ख्याल है कि उस महिला पत्रकार के लिखे हुए से भारत का जितना नुकसान हो सकता था, उससे कहीं अधिक नुकसान उसे देश से निकालने पर हुआ है, और इतिहास में ऐसी बातें गंभीरता से दर्ज होती हैं।
असहमति के बीच ही लोकतंत्र का विकास होता है, और जब असहमति रह नहीं जाती, तो फिर खुद सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार को जनभावना समझ नहीं आती, और ऐसी कई मिसालें रही हैं कि जनता की नब्ज से हाथ हट जाने पर सत्तारूढ़ पार्टी का नुकसान होता है। देश और कई प्रदेशों की सरकारों का तजुर्बा यही है कि जब मीडिया और दूसरे लोगों को दबाकर सच पर चर्चा नहीं होने दी जाती, तो उसके बाद सत्तारूढ़ पार्टी अपनी खुशफहमी में रहती है, और कब पांवोंतले से जमीन खिसकना शुरू होती है, उसे पता भी नहीं लगता। आज भारत में मोदी सरकार और उनकी पार्टी भाजपा जिस हद तक कामयाब हैं, उसमें यह बात लोगों को फिजूल लग सकती है, लेकिन जब वक्त नाजुक आता है, और छोटा-छोटा समर्थन भी जरूरी होता है, तब दबाई गई असहमति का नुकसान सामने आता है। जिन दो मामलों को हमने गिनाया है, इन दोनों ही महिलाओं को लेकर पूरी दुनिया के लोकतंत्रों में चर्चा होगी, और इससे सबसे बड़ा नुकसान भारत के विश्वगुरू बनने की खुशफहमी का होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
किसी प्रदेश में सरकार बदलने से पिछली सरकार के वक्त के कामकाज अगर खुर्दबीन तले आते हैं, तो उससे लोकतंत्र का भला ही होता है। राजनीति में जो लोग अपने भ्रष्टाचार को छुपाना चाहते हैं, वे किसी दूसरी पार्टी की सरकार की कार्रवाई को विच-हंटिंग करार देते हुए उसे बदनीयत की बुरी बात साबित करने लगते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि सत्तारूढ़ पार्टी बदलने से पिछली सरकार के भ्रष्टाचार की जांच मुमकिन हो पाती है। और इन दिनों छत्तीसगढ़ में ऐसा ही देखने मिल रहा है। किस तरह राज्य सरकार की बंधुआ मजदूर सरीखी राजधानी की म्युनिसिपल विभागीय मंत्री की चाकरी में लगी रहती है, यह देखना भी हक्का-बक्का करता है। राजधानी रायपुर में म्युनिसिपल-मंत्री रहे शिव डहरिया के रिहायशी इलाके में सामुदायिक भवन पर उनकी बीवी ने अपने एक तथाकथित समाजसेवी संगठन के नाम पर कब्जा कर लिया, और उसके बाद जिस अंदाज में म्युनिसिपल ने वह सामुदायिक भवन इस संगठन को न सिर्फ आबंटित कर दिया, बल्कि इस पर करोड़ों रूपए खर्च भी कर दिए। अब जब इसका भांडा फूटा है, तो पता लग रहा है कि मंत्री-पत्नी के कब्जे के दो बरस बाद म्युनिसिपल ने इसे आबंटित करने का प्रस्ताव पास किया। इस तरह यह भी साबित होता है कि जिन स्थानीय संस्थाओं को अलग से अधिकार मिलते हैं, वे भी राज्य शासन से सैकड़ों करोड़ रूपए पाने के लिए मंत्री-मुख्यमंत्री की मर्जी से कुछ भी करने को तैयार रहती हैं। यह मामला इसलिए भयानक है कि एक निजी संगठन के कब्जे के बाद म्युनिसिपल ने वहां पर क्या-क्या खर्च नहीं किया। और जो भवन समाज के काम आना था, वह इस तरह लोगों के उपयोग के बाहर कर दिया गया। भूतपूर्व मंत्री शिव डहरिया ने अपना बंगला खाली करते हुए वहां के सामानों को जिस तरह उखाडक़र अपना बताकर ले जाने का काम किया था, उससे भी सरकारी संपत्ति की ढेर बर्बादी हुई थी। सामान हो सकता है उनका खुद का हो, लेकिन सरकारी बंगले को तोडफ़ोड़ करके उस सामान को निकालने का उनको क्या हक था? और चाहे कोई भी मंत्री या अफसर रहे, उन्हें सरकारी संपत्ति से खिलवाड़ करने पर जुर्माने और सजा के लिए तैयार भी रहना चाहिए।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हमने कई बार इस बात को लिखा है कि मंत्रियों और बड़े अफसरों के बंगलों पर उनके विभागों की तरफ से, या किसी ठेकेदार या सप्लायर की तरफ से बहुत से निर्माण कराए जाते हैं, जो कि सरकारी रिकॉर्ड में नहीं रहते। हो सकता है कि सरकारी फाइलें किसी दूसरी जगह वह खर्च बताएं, लेकिन ऐसे बहुत से खर्च होते बंगलों पर हैं। सरकारी की मंजूरी से परे के कोई भी खर्च किसी सरकारी संपत्ति पर कैसे करवाए जा सकते? और हक्का-बक्का करने वाली बात यह है कि मंत्री और अफसर बंगलों पर करवाए गए ऐसे अवैध निर्माण को अपना योगदान गिनाते हैं, और बताते हैं कि वे जहां-जहां रहे, हर बंगले में कुछ न कुछ जोडक़र निकले। सरकार अगर एक ऑडिट करा ले कि बंगले का मूल ढांचा क्या था, और बाद में वहां जुडऩे वाले काम किस मद से कराए गए, तो शायद यह समझ आएगा कि जादू या चमत्कार से बिना घोषित सरकारी खर्च के ये सब काम हुए हैं। यह सिलसिला सरकार में पूरी तरह से मंजूर हो चुके भ्रष्टाचार का एक तौर-तरीका है, और इसका बोझ कुल मिलाकर जनता पर ही पड़ता है। कुछ अफसरों का हाल तो यह है कि उन्होंने राजधानी के पास भिलाई में भिलाई स्टील प्लांट से बंगले ले लिए हैं, क्योंकि वहां स्कूल-कॉलेज बेहतर हैं। और बीएसपी से अस्थाई रूप से आबंटित ऐसे बंगलों में भी उन्होंने करोड़ों के काम करवाए हैं, जो कि जाहिर तौर पर किसी न किसी तरह के भ्रष्टाचार का ही नतीजा हैं।
भारत और इसके प्रदेशों में इस किस्म की सरकारी बर्बादी, और सार्वजनिक जगहों का बेजा इस्तेमाल सत्ता अपना विशेषाधिकार मानकर चलती है। सरकारी भवनों को कितनी आसानी से लोग अपनी संस्था या अपने कारोबार के लिए आबंटित करवा लेते हैं, और फिर उस पर सरकार का ही खर्च करवाते रहते हैं, यह देखना भयानक है। हमारा ख्याल है कि नगरीय प्रशासन मंत्री रहे शिव डहरिया की पत्नी को जिस तरह से एक सरकारी संपत्ति देने के बाद भी उस पर लगातार म्युनिसिपल की मोटी रकमें खर्च हुई हैं, उसके खिलाफ आर्थिक अपराध का जुर्म दर्ज होना चाहिए, और मंत्री से सपत्नीक उसकी वसूली भी होनी चाहिए, और इस पूरे मामले में जितने अफसर शामिल हैं, उनके खिलाफ भी मुकदमा चलना चाहिए। राजनीतिक शिष्टाचार के नाम पर पिछली सरकारों के जुर्म माफ कर देने का हक किसी भी अगली सरकार को नहीं रहता। नई सत्तारूढ़ पार्टी चाहे तो अपने पार्टी संगठन से किसी को कुछ भी दे दे, लेकिन सरकार को नुकसान पहुंचाने वाले, भ्रष्टाचार करने वाले, जनता के हक छीनने वाले काम माफ कर देने का हक किसी सरकार को नहीं रहता। ऐसा होते दिखे तो किसी जनसंगठन को अदालत तक जाना चाहिए, और वहां की दखल से जुर्म दर्ज करवाना चाहिए। सरकारी खजाने की शक्ल में जनता का जो पैसा रहता है, उसके बेजा इस्तेमाल के खिलाफ कार्रवाई करवाने का हक जनता को रहना चाहिए।
आज सुबह से छत्तीसगढ़ में शराब घोटाले से जुड़े हुए छापे पड़ रहे हैं। राज्य की आर्थिक अपराध जांच एजेंसी यह कार्रवाई ईडी की लिखवाई गई एक एफआईआर के आधार पर कर रही है। इसमें पिछले पांच बरस प्रदेश में सबसे ताकतवर रहे कई अफसरों और शराब कारखानेदारों की भी जांच शुरू हुई है। इनमें से पिछले एक मुख्य सचिव तो राज्य बनने के बाद से आज तक लगातार सिर्फ ताकत की कुर्सियों पर रहे हैं, और उनके खिलाफ अगर ईडी, आईटी ने जांच में गलत काम पाए हैं, तो यह अंदाज लगाना आसान है कि सत्ता के अपने दो दशक में ऐसे अफसरों ने क्या नहीं किया होगा? कोई भी नई सरकार संविधान की शपथ लेकर काम संभालती है। हमारा ख्याल है कि कोई भी आर्थिक अपराध, भ्रष्टाचार, या दूसरे किस्म का जुर्म सामने आने पर सरकार को उस पर अनिवार्य रूप से कार्रवाई करनी चाहिए, वरना यह संविधान की शपथ के खिलाफ काम होगा। देश के कुछ राज्य लगभग परंपरागत रूप से हर पांच बरस में सत्ता पलट देते हैं, और ऐसे में पिछली सरकारों के जुर्म उजागर होने, उस पर कार्रवाई होने की संभावना बढ़ भी जाती है। अगर जनता ही इतनी जागरूक हो जाए कि सत्ता के भ्रष्टाचार देखते हुए भ्रष्ट कार्यकाल के बाद सत्तारूढ़ पार्टी को हटा ही दे, तो भी भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी मजबूती से नहीं जम पाएंगी, जैसी कि वे दस-पन्द्रह बरसों के शासनकाल में जम जाती हैं। देश में प्रशासनिक अधिकारी तैयार करने वाली मसूरी प्रशासन अकादमी को भी चाहिए कि वह कई राज्यों के ऐसे कामकाज का अध्ययन करवाकर उन्हें मिसाल की तौर पर प्रशिक्षणार्थी अफसरों को पढ़ाए, कि काम कैसे-कैसे नहीं होना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
लोग बात-बात में इंसानियत का तकाजा देते हैं। ऐसा, मानो कि इंसानियत कोई बहुत बड़ी चीज हो। और हकीकत यह है कि इंसान जैसी हरकतें करते हैं, वैसी तो जानवरों में सबसे बुरे ठहराए जाने वाले, सांप, बिच्छू, और कुत्ते भी नहीं करते। इन प्राणियों को लेकर गालियां बहुत बनती हैं, लेकिन सच तो यह है कि वे अपने प्राकृतिक तौर-तरीकों के खिलाफ जाकर कुछ भी नहीं करते। कई प्राणी तो ऐसे भी हैं जिनमें नर-मादा के जोड़े बन जाते हैं, और वे जिंदगी भर एक-दूसरे के वफादार बने रहते हैं, यह बात इंसानों में तो बिल्कुल ही नहीं दिखती है। ऐसे इंसानों को लेकर आए दिन यह खबर आती है कि किस तरह परिवार के भीतर ही एक-दूसरे को मार डाला गया, बलात्कार किया गया, या धोखा दिया गया। ऐसे हर मौके पर हमको यही लगता है कि इंसान ऐसी हरकतों के लिए जिस एक काल्पनिक हैवान पर तोहमत धर देते हैं, वे असल जिंदगी में तो होते नहीं हैं, इंसान अपने भीतर के बुरे काम करने वाली सोच को ही हैवान नाम दे देते हैं, ताकि उसकी अपनी तथाकथित इंसानियत की साख बनी रहे।
अब इतनी भूमिका बांधने के बाद आज की खबर यह है कि छत्तीसगढ़ आदिवासी इलाके बस्तर में एक नाती ने अपनी 70 साल की नानी की उम्र बहुत कम बताते हुए उसका फर्जी आयु प्रमाणपत्र बनवाया, और उसे मटन शॉप की मालकिन बताते हुए उसका एक करोड़ रूपए का बीमा करवा दिया। इस फर्जीवाड़े में एलआईसी का एजेंट भी शामिल हो गया। इसके बाद नाती नानी को संपेरों के डेरे में लेकर गया, और एक संपेरे से सौदा करके 30 हजार रूपए में नानी को डंसवा दिया। फिर घर लाकर सांप के काटने से जहर फैलने की बात कहते हुए उसने हल्ला मचाया, अस्पताल में डॉक्टर ने जहर का असर देखकर सांप के काटने से हुई मौत वजह लिखी, और कुछ वक्त में बीमा दावा किया गया तो एलआईसी से एक करोड़ रूपए मिल गए। इसके बाद यह नौजवान जिस अंधाधुंध तरीके से खर्च करने लगा, उससे पुलिस को शक हुआ, पुलिस को कोई शिकायत भी मिली, और अब इस कत्ल का भांडाफोड़ करके सबको गिरफ्तार किया गया है।
मां, नानी, और मौसी को लेकर जाने कितने तरह की कहानियां चलती हैं। लोग यह भी मानते हैं कि मां-बाप अपने बच्चों को जितना प्यार करते हैं, उससे कई गुना ज्यादा प्यार दादा-दादी, या नाना-नानी करते हैं। ऐसे में महज मोटी रकम कमाने की नीयत से अपनी नानी को ऐसी साजिश के तहत ऐसे भयानक तरीके से मारकर कोई बीमा दावा ले ले, ऐसा अभी तक सुना नहीं गया था। दूसरी तरफ आज ही की एक खबर है कि जयपुर में एक बैंक में लूट हुई तो वहां कैशियर ने एक लुटेरे को पकड़ लिया। दूसरा लुटेरा अपने साथी को छुड़ाने लगा, तो कैशियर ने दोनों को जकड़ लिया, इस पर एक लुटेरे ने कैशियर के पेट में तीन गोलियां दाग दीं, इसके बावजूद कैशियर ने एक लुटेरे को नहीं छोड़ा, और गोली की आवाज से आसपास से आए लोगों ने इस लुटेरे को पकड़ लिया। एक ही दिन की ये दो खबरों बताती हैं कि किस तरह कोई अपनी जिंदगी को खतरे में डालकर अपने बैंक को बचा रहा है, और किस तरह कोई दूसरा अपनी नानी का ऐसा भयानक कत्ल करके उसका झूठा बीमा दावा पा रहा है। इंसानों की गलत हरकतों के लिए जानवरों की मिसाल देने वाले लोगों को ऐसा एक भी जानवर ढूंढकर बताना चाहिए जो कमाई करने के लिए अपनी नानी या दादी का ऐसा कत्ल करते हों।
आज ऐसा लगता है कि तथाकथित इंसानियत एक ऐसी फर्जी धारणा के अलावा और कुछ नहीं है जिसे कि इंसानों ने एक नाजायज इज्जत पाने के मकसद से गढ़ा है। हर इंसान के भीतर तथाकथित इंसानियत, और काल्पनिक हैवानियत, दोनों बराबरी से कायम रहते हैं, और अलग-अलग वक्त पर ये दोनों उस पर हावी होते हैं, कभी-कभी इंसानियत, और अधिक वक्त हैवानियत। यह भी समझने की जरूरत है कि अगर परिवार और समाज का दबाव नहीं रहता, देश का कानून नहीं रहता, पुलिस और अदालतें नहीं रहतीं, तो लोग जाने और क्या-क्या नहीं करते? हर दिन कहीं न कहीं से ऐसी खबर आती है कि परिवार के भीतर ही बाप ने बेटी से, या भाई ने बहन से बलात्कार किया। यह तब हो रहा है जब हर किसी को मालूम है कि ऐसे मामलों के पुलिस तक पहुंचने पर गिरफ्तारी और सजा की गारंटी सरीखी रहती है, फिर भी कुछ देर के मजे के लिए लोग परिवार के भीतर वर्जित संबंधों में भी ऐसे जुर्म करते हैं। आज की ही एक खबर हरियाणा से आई है, जहां पर एक महिला का पति से तलाक हो गया, और उनके दो बच्चे महिला के पास ही रहते थे। महिला का किसी और से प्रेमसंबंध था, और वह उससे शादी करना चाहती थी। इस महिला ने अपने दोनों बच्चों का कत्ल करने के बाद इनकी लाशें खेतों में डाल दी, और पुलिस में शिकायत की कि उसके भूतपूर्व पति ने दोनों बच्चों को मार डाला है। जांच पर पता लगा कि कातिल वही मां थी। अब मां की महानता की कहानियां खत्म होने का भी नाम नहीं लेती हैं। ऐसे में महज प्रेमी से शादी करने के लिए मां अपने दोनों बच्चों को काटकर फेंक दे, इसकी तोहमत उसके भीतर की इंसानियत पर लगाई जाए, या किसी और की हैवानियत पर?
इस मुद्दे पर हम इसलिए लिख रहे हैं कि इंसानियत का तकाजा और हवाला दे-देकर लोग जिस तरह और जिस कदर दूसरों का भरोसा जीतते हैं, और फिर उसी भरोसे को हथियार बनाकर लोगों को धोखा देते हैं, उससे सावधान रहने की जरूरत है। हालांकि यह बात कहते हुए हमें खुद ही यह लगता है कि कोई महिला अपने नाती से भला कैसे यह आशंका रख सकती है कि वह उसे मार डालेगा, लेकिन असल जिंदगी को देखें तो ऐसी बहुत सी घटनाएं हो रही हैं जिनमें लोग मां-बाप को भी मार डाल रहे हैं। इसलिए समाज को रिश्तों की बुनियाद पर बने हुए भरोसे का बहुत अधिक भरोसा नहीं करना चाहिए। लोगों को इंसानी फितरत के खतरों को भी याद रखना चाहिए कि अपने आपको बड़ा शुभचिंतक बताने वाले लोग भी कैसे खतरनाक साबित हो सकते हैं। परिवार के बीच भी लोगों को वर्जित संबंधों को लेकर, संपत्ति को लेकर, विरासत को लेकर सावधान रहना चाहिए, क्योंकि परिवार का ढांचा दिखने में मजबूत लगता है, लेकिन वह उतना ही कमजोर होता है जितने कमजोर उसके सदस्य होते हैं। निराशा की ऐसी तस्वीर के बीच चलते-चलते हम जयपुर के उस बैंक कैशियर को भी याद करना चाहते हैं बैंक को लुटेरों से बचाने के लिए पेट में गोलियां खा लीं, फिर भी लुटेरे को नहीं छोड़ा। लेकिन भले इंसानों से न खतरा रहता, न बचने की जरूरत रहती, दूसरी तरफ गलत काम करने वाले बुरे इंसान भी अच्छा सा मुखौटा लगाकर ही रहते हैं, और यह मुखौटा उनके किसी बड़े जुर्म के बाद ही उतरता है। इसलिए हर किसी से सावधान रहने में ही समझदारी है।
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर के एक नर्सिंग कॉलेज का मामला सामने आया है जिसमें वहां के एक प्राध्यापक ने एक छात्रा को पास करने के लिए 30 हजार रूपए मांगे, या अपने साथ सेक्स की मांग की। छात्रा की शिकायत पर इस प्राध्यापक को गिरफ्तार किया गया है। नर्सिंग कॉलेज में अमूमन लड़कियां ही पढ़ती हैं, और ये आमतौर पर गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों की रहती हैं। न सिर्फ नर्सिंग की पढ़ाई के दौरान, बल्कि बाद में भी अस्पतालों में नौकरी करते हुए उन्हें विपरीत परिस्थितियों में काम करना पड़ता है, और शोषण के खिलाफ अपने आपको तैयार भी रखना पड़ता है। इस प्राध्यापक की इतनी हिम्मत थी कि उसने इस छात्रा को वॉट्सऐप पर संदेश भेजकर सेक्स की शर्त रखी, जबकि आज जगह-जगह इस तरह के मामलों में सजा होने की खबरें भी आती रहती हैं। इस तरह की चैट के सुबूत के साथ जब छात्रा ने पुलिस को रिपोर्ट की, तो इस प्राध्यापक को गिरफ्तार किया गया। इस प्रोफेसर ने छात्रा को लिखा है कि पास होना है तो हर विषय के 30 हजार रूपए लगेंगे, या ब्वॉयफ्रेंड के साथ जो करती हो वो करना पड़ेगा। उसने यह भी लिखा कि अपनी कोई ऑटफोटो भेजो, तब मानूंगा कि तुम तैयार हो। छात्रा ने ऐसी तस्वीरें भेजने से मना किया तो प्राध्यापक ने उसे फेल करने की धमकी दी। समाचार बताते हैं कि पहले भी इस प्राध्यापक की ऐसी मांग से परेशान एक छात्रा पढ़ाई छोडक़र जा चुकी है। यह बड़ा बेहूदा सा संयोग है कि इसी शहर से अभी एक दूसरी खबर आई है कि किस तरह यहां का एक डॉक्टर 13 बरस की उम्र से एक लडक़ी से रेप करते आ रहा है, और 14 बरस से यह सिलसिला चल रहा है। लडक़ी की शादी हो गई तो उसके बाद भी वह यह सिलसिला चलाते रहा। अब लडक़ी ने अपना आरोप साबित करने के लिए अपने बच्चे के डीएनए टेस्ट का आवेदन दिया है। और हाईकोर्ट ने उसकी याचिका मंजूर करते हुए उसके बच्चे और आरोपी डॉक्टर दोनों का डीएनए करवाने की बात कही है।
ऐसा एक दिन नहीं गुजर रहा है कि कहीं न कहीं से इस तरह के यौन शोषण की शिकायत न आए। जब कोई प्राध्यापक, खेल प्रशिक्षक, रिसर्च गाईड, या डॉक्टर धमकी देकर इस तरह बलात्कार करे, तो यह एक अलग दर्जे का जुर्म हो जाता है। बलात्कार पर सजा का जो दायरा रहता है, उसमें इस तरह के मामलों में अधिकतम संभव सजा दी जानी चाहिए। अपनी छात्रा को, मरीज या प्रशिक्षणार्थी खिलाड़ी को, या शोध छात्रा को सेक्स का शिकार बनाना आम बलात्कार के मुकाबले अधिक संगीन जुर्म है, क्योंकि बलात्कार की शिकार लड़कियां विरोध करने पर अपने जीवन का बहुत बड़ा नुकसान झेलने को मजबूर रहती हैं। इसलिए मातहत कर्मचारी के साथ भी इस तरह का शोषण अधिक गंभीर सजा के लायक होना चाहिए। सरकारी और निजी संस्थानों में मातहत के यौन शोषण को एक किस्म का हक मान लिया जाता है, और समर्पण न करने पर उन्हें तरह-तरह से सताया जाता है। कहने के लिए संस्थानों और दफ्तरों में यौन शोषण रोकने के लिए कमेटियां बनाने का नियम है, लेकिन न तो ऐसी कमेटियां रहतीं, और न ही कमेटियों की हमदर्दी महिलाओं के साथ रहती है। हम असल जिंदगी की बातचीत में देखते हैं कि जब किसी लडक़ी या महिला के चाल-चलन के खिलाफ ओछी बातें की जाती हैं, तो इसमें न सिर्फ मर्द दिलचस्पी लेते हैं, बल्कि कई मामलों में कई महिलाएं भी महिला के चरित्र के खिलाफ बोलने लगती हैं। हमने अभी सोशल मीडिया पर लिखा भी था कि चरित्र को लेकर महिला पर चलाया गया पहला पत्थर किसी महिला के हाथ से चला हुआ भी हो सकता है।
न सिर्फ हिन्दुस्तान, बल्कि दुनिया के अधिकतर देशों में मर्दो के शोषण की शिकार लड़कियों और महिलाओं को ऐसे शोषण में हिस्सेदार मान लिया जाता है। हिन्दुस्तान में तो बलात्कार के पीछे लड़कियों और महिलाओं के शाम को अकेले निकलने से लेकर उनकी जींस तक को जिम्मेदार मान लिया जाता है, और किसी एक नेता ने तो सौ कदम आगे बढक़र नूडल्स खाने को बलात्कार के लिए जिम्मेदार बताया था। देश के एक मुख्यमंत्री ने यह कहा था कि महिलाओं के बदन में इतनी अधिक ऊर्जा होती है कि उसे काबू करने के लिए एक मर्द जरूरी होता है। इस देश में मनुस्मृति जैसे ग्रंथ हैं जो कि महिला को पहले पिता के अधीन रहने को कहते हैं, फिर पति, और फिर पुत्र की सुरक्षा में रहने को कहा जाता है। यह पूरा सिलसिला महिलाओं को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने का है, और इसी सोच-समझ के साथ जो मर्द बड़े होते हैं, उन्हें इतनी साधारण समझ भी नहीं रह जाती कि सेक्स की मांग वाले उनके चैट उन्हें जेल ले जाने और सजा दिलवाने के लिए काफी होते हैं।
मातहत लोगों के शोषण की कहानी सिर्फ औपचारिक गुरू-शिष्या सरीखे मामलों में नहीं हैं, बल्कि आसाराम नाम के एक पाखंडी और स्वघोषित संत पर भी वह लागू होती है जिसने कि अपने एक भक्त परिवार की नाबालिग लडक़ी से बलात्कार किया था जो कि आसाराम की ही एक स्कूल में पढ़ती थी, और वहां के छात्रावास में रहती थी। किसी भी तरह से अपने मातहत या अपने काबू की लडक़ी या महिला के साथ बलात्कार हिन्दुस्तान में बहुत आम जुर्म हैं। ऐसा लगता है कि पुरूषों के एक बड़े हिस्से के दिमाग में पूरे ही वक्त सेक्स-शोषण छाया रहता है, और पहला मौका मिलते ही वह बाहर निकलने लगता है। कानून कड़े जरूर हैं, लेकिन पुलिस की जांच और अदालती प्रक्रिया इतनी महिलाविरोधी है कि बलात्कार के मामलों में महिला को इंसाफ मिलने के पहले कई और बलात्कार मिल जाने का खतरा रहता है। दो-चार दिन पहले की ही एक अलग खबर है कि बलात्कार के एक मामले में जुर्म की शिकार महिला को अदालत के चेम्बर में बुलाकर वहां जज ने ही उसका यौन शोषण करने की कोशिश की। त्रिपुरा के इस मामले में दुष्कर्म पीडि़ता ने बताया कि जब वह बयान देने गई, तो जज ने उसके साथ छेडख़ानी की। इस शिकायत पर जिला जज की अध्यक्षता में तीन लोगों की जांच कमेटी बनाई गई है। और यह मामला तो एक महिला की हिम्मत की वजह से सामने आया हुआ दिख रहा है, कितनी ऐसी महिलाएं होंगी जो कि मर्दों की इस दुनिया से इस तरह लड़ते हुए थक न जाती हों।
हमारा ख्याल है कि मौजूदा नियम-कानून रहते हुए भी शिकायत, जांच, और सुनवाई का सिलसिला महिलाविरोधी है, और महज कानून कड़े करने से कुछ नहीं होगा, समाज के नजरिए को भी बदलना पड़ेगा, और जांच एजेंसियों से लेकर अदालत तक एक अधिक संवेदनशील इंतजाम भी करना पड़ेगा, वरना इस लोकतंत्र में महिला की शिकायत का क्या हाल है, यह तो हमने आधा दर्जन महिला पहलवानों की यौन शोषण की शिकायतों पर देख लिया है कि जब तक सुप्रीम कोर्ट की दखल नहीं हुई, तब तक पुलिस ने एफआईआर तक नहीं लिखी थी। और जब देश के मुख्य न्यायाधीश पर यौन शोषण का आरोप उन्हीं की एक मातहत ने लगाया था, तो यह मुख्य न्यायाधीश ही इस मामले की सुनवाई में जजों की बेंच का मुखिया बनकर बैठ गया था। महाभारत और रामायण काल से इस देश की संस्कृति का रूख जिस तरह महिलाविरोधी है, वह अब तक जारी है, और जाने कितनी सदियों तक ऐसा ही चलेगा।