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विशेष रिपोर्ट

लक्ष्य के प्रति समर्पण और बदलाव की कहानी कह रहा पत्थरों के सीने में हरे-भरे पेड़ की जड़ों पर पानी से भरे घड़े

रोज सुबह यहां घड़ों में पानी भर दिया जाता है और दिन भर में पानी बूंद बूंद करके पेड़ों की जड़ों तक पहुंचते रहता है

‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
महासमुंद,18 मार्च।
यह तस्वीर महासमुंद से तुमगांव मार्ग पर कौंदकेरा जंगल की है। इस चट्टानी जमीन पर हरे पेड़ों की कहानी कुछ और है। छत्तीसगढ़ में अपनी तरह की इस पहली योजना में पौधे लगाने से लेकर इनमें पानी पहुंचने तक की पूरी प्रक्रिया एक नया प्रयोग हुआ है। पत्थरों पर रोपित इन पेड़ों के नीचे आज भी घड़े रखे हुए हैं। इन घड़ों में हल्की सुराख है। रोज सुबह यहां घड़ों में पानी भर दिया जाता है और दिन भर में घड़ों का पानी बूंद-बूंद करके पेड़ों की जड़ों तक पहुंचते रहता है। 

पथरी जमीन पर पेड़ लगाने का काम महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के अंतर्गत 14.50 लाख की लागत से वर्ष 2010-11 में हुआ है। इस कार्य से गांव के54 मनरेगा जॉब कार्डधारी परिवारों को 7 हजार 741 मानव दिवस का रोजगार भी प्राप्त हुआ। इसके लिए उन्हें 9 लाख 44 हजार 410 रुपए का मजदूरी भुगतान किया गया था। 

ग्राम कौंदकेरा में जंगल के बीच एक बड़ा क्षेत्र चट्टान पत्थरों का है। जगह पथरीली होने के कारण यहां हरियाली सामान्य से कम थी। ऐसे में वन विभाग के सामने बड़ा सवाल था कि इस पथरीली जमीन को कैसे इस्तेमाल में लाया जाए? कुछ तत्कालीन अफसरों ने मिलकर एक योजना बनाई कि क्यों न इसी पथरीली-चट्टानी जमीन पर पौधे लगाई जाए? फिर पथरीली जमीन पर ऐसे पौधे लगाने की योजना बनी जो पर्यावरण को बनाने में महत्वपूर्ण होते हों और जो एक बार लग जाएं तो इनकी जड़े पत्थरों को भी तोडऩे में दक्षता रखती हो। जैसे बरगद, पीपल, डूमर आदि। अब बड़ा सवाल था कि पौधे कैसे लगाएं? 

जिले के वन विभाग में अफसरों ने बैठकर सोचा कि मनरेगा के तहत काम करा लिया जाए।  इसके लिए मनरेगा से 14 लाख 50 हजार रुपए स्वीकृत किए गए। लगातार दो बरसों तक वन विभाग के मार्गदर्शन में यहां 44 महिला और 93 पुरुष मनरेगा श्रमिकों ने तगड़ी मेहनत और देखरेख कर एक हजार पौधे लगाए। चूूंकि पत्थरों को काटकर उसमें मिट्टी-खाद आदि डालकर पौधे रोपे गए थे। लिहाजा पौधे मुरझाए नहींं, इसके लिए पौधरोपण के बाद पौधों की सिंचाई मटका के माध्यम से टपक पद्धति से की गई। आज जब पाौधों ने पेड़ का रूप ले लिया है, तब भी यहां गर्मी के दिनों में मटकों में पानी भरकर रखा जाता है।  

देखा जा सकता है कि पौधे बेहतर तरीके से बढ़े इसके लिए पौधों के बीच लगभग 8 मीटर की दूरी रखी गई है। समय-समय पर आज भी इन पौधों को गोबर खाद, डीएपी, यूरिया और सुपर फॉस्फेट भी डाला जाता है। यहां रोपे गए पौधे अब 20-25 फ ीट के हरे-भरे पेड़ बन गए हैं और यह क्षेत्र सामूहिक प्रयास से हरा-भरा होकर ऑक्सीजोन में बदल गया है। अब इसे देखने और यहां घूमने-फिरने आस-पास के लोग आते हैं। 

विचार/लेख

सपनों में हरकतें मस्तिष्क रोगों की अग्रदूत हो सकती हैं

कई लोग सपने में देखे गए दृश्यों को वास्तव में अंजाम देते हैं। यह एक समस्या है जो अक्सर नींद के रैपिड आई मूवमेंट (आरईएम) चरण में होती है। इसे आरईएम निद्रा व्यवहार विकार (आरबीडी) कहते हैं और यह लगभग 0.5 से लेकर 1.25 प्रतिशत लोगों, खासकर वयस्क पुरुषों, को प्रभावित करता है। विश्लेषण से पता चला है कि आरबीडी तंत्रिका-क्षति रोगों का पूर्वाभास हो सकता है। खास तौर से सिन्यूक्लीनोपैथी का अंदेशा होता है जिसमें मस्तिष्क में अल्फा-सिन्यूक्लीन नामक प्रोटीन के लोंदे जमा हो जाते हैं। वैसे सोते हुए किए जाने वाले सारे व्यवहार आरबीडी नहीं होते। जैसे नींद में चलना या बड़बड़ाना गैर-आरईएम निद्रा के दौरान होते हैं और इन्हें आरबीडी की क्षेणी में नहीं रखा जा सकता। इसके अलावा एक तथ्य यह भी है कि सारे आरबीडी का सम्बंध सिन्यूक्लीनोपैथी से नहीं होता। और तो और, यह स्थिति अन्य कारणों से भी बन सकती है।

अलबत्ता, जब आरबीडी के साथ ऐसी कोई अन्य स्थिति न हो तो भविष्य में बीमारी अंदेशा होता है। कुछ अध्ययनों का निष्कर्ष है कि सपनों में हरकतें भविष्य में तंत्रिका-क्षति रोग पैदा होने की 80 प्रतिशत तक भविष्यवाणी कर सकती हैं। हो सकता है कि यह ऐसी बीमारी का प्रथम लक्षण हो।

आरबीडी से जुड़ा सबसे प्रमुख रोग पार्किंसन रोग है। इसमें व्यक्ति क्रमश: अपने मांसपेशीय क्रियाकलापों पर नियंत्रण गंवाता जाता है। एक अन्य रोग है लेवी बॉडी स्मृतिभ्रंश। इसमें मस्तिष्क में लेवी बॉडीज़ जमा होने लगती हैं और व्यक्ति का अपनी हरकतों और संज्ञान पर नियंत्रण नहीं रहता। एक तीसरे प्रकार की सिन्यूक्लीनोपैथी व्यक्ति की ऐच्छिक हरकतों के अलावा अनैच्छिक क्रियाओं (जैसे पाचन) में भी व्यवधान पहुंचाती है। शोधकर्ताओं का मत है कि जीर्ण कब्ज़ और गंध की संवेदना के ह्रास की अपेक्षा आरबीडी सिन्यूक्लीनोपैथी का बेहतर पूर्वानुमान देता है।

वैसे तो सपनों को चेष्टाओं में बदलना और पार्किंसन के आपसी सम्बंध के बारे में काफी समय से लिखा जाता रहा है। स्वयं जेम्स पार्किंसन ने 1817 में इसके बारे में लिखा था। सपनों और पार्किंसन रोग के बारे में कई रिपोर्ट्स के बावजूद इनकी कडिय़ों को जोड़ा नहीं जा सका था। लेकिन हाल ही में खुद एक मरीज़, जिसे आरबीडी की शिकायत थी, ने अपने डॉक्टर से आग्रह किया कि उसका ब्रेन स्कैन करके पार्किंसन के बारे में शंका की जांच करें। उस मरीज़ की आशंका सही निकली - उसे पार्किंसन रोग था।

हाल के वर्षों में आरबीडी और सिन्यूक्लीनोपैथी के बीच कार्यकारी सम्बंध की समझ बढ़ी है। आम तौर पर आरईएम निद्रा के दौरान कुछ क्रियाविधि होती है जो ऐसी चेष्टाओं पर रोक लगाकर रखती है। लेकिन आरबीडी पीडि़त व्यक्ति में यह क्रियाविधि काम नहीं करती और वे शारीरिक चेष्टाएं करते रहते हैं। 1950 व 1960 के दशक में किए गए प्रयोगों से पता चला था कि आरईएम निद्रा के दौरान ऐसी हरकतें कितनी ऊटपटांग हो सकती हैं। जैसे कुछ बिल्लियों पर प्रयोग के दौरान उनके ब्रेन स्टेम के कुछ हिस्सों को काटकर निकाल दिया गया। ऐसा करने पर आरईएम निद्रा के दौरान मांसपेशियों की हरकतों पर जो रुकावट लगी थी वह समाप्त हो गई और आरईएम निद्रा के दौरान वे बिल्लियां ऐसे हाथ-पैर मारती रहीं जैसे सपने देखकर उसके अनुसार हरकतें कर रही हों।

फिर 1980 के दशक में एक मनोचिकित्सक कार्लोस शेंक और उनके साथियों ने आरबीडी को लेकर पहले केस अध्ययन प्रकाशित किए। ये मरीज़ वैसे तो शांत स्वभाव के थे किंतु उनका कहना था कि वे हिंसक सपने देखते हैं और आक्रामक व्यवहार करने लगते हैं। शेंक की टीम ने 29 आरबीडी मरीज़ों का अध्ययन किया। सभी 50 वर्ष से अधिक उम्र के थे। शेंक की टीम ने रिपोर्ट किया है कि इनमें से 11 में आरबीडी की शुरुआत के औसतन 13 वर्षों बाद तंत्रिका-क्षति रोग उभरे। आगे चलकर, कुल 21 मरीज़ों में ऐसे रोग प्रकट हुए।

इन परिणामों की पुष्टि एक ज़्यादा व्यापक अध्ययन से भी हुई है। दुनिया भर के 21 केंद्रों के 1280 आरबीडी मरीज़ों में से 74 प्रतिशत में 12 वर्षों के अंदर तंत्रिका-क्षति रोग का निदान किया गया। धीरे-धीरे आरबीडी और तंत्रिका-क्षति  रोगों के बीच की कडिय़ों को स्वीकार कर लिया गया है। लेकिन अभी स्पष्ट नहीं है कि इन कडिय़ों का कार्यिकीय आधार क्या है।

कई वैज्ञानिकों का मत है कि आरबीडी इस वजह से होता है क्योंकि सिन्यूक्लीन ब्रेन स्टेम के उस हिस्से में जमा होने लगता है जो हमें आरईएम निद्रा के दौरान निष्क्रिय करके रखता है। अपने सामान्य रूप में यह प्रोटीन तंत्रिकाओं के कामकाज में भूमिका निभाता है। लेकिन जब यह असामान्य ढंग से तह हो जाता है तो यह विषैले लोंदे बना सकता है। ऑटोप्सी परीक्षणों से पता चला है कि आरबीडी से पीडि़त 90 प्रतिशत मरीज़ों की मृत्यु मस्तिष्क में सिन्यूक्लीन जमाव के लक्षणों के साथ होती है। अभी तक ऐसी कोई तकनीक उपलब्ध नहीं है जिससे जीवित व्यक्ति के मस्तिष्क में सिन्यूक्लीन के थक्कों की जांच की जा सके। अलबत्ता, वैज्ञानिक कोशिश कर रहे हैं कि शरीर के अन्य हिस्सों (खासकर सेरेब्रो-स्पायनल द्रव) में गलत तरह से तह हुए सिन्यूक्लीन का पता लगाया जा सके। ऐसे एक अध्ययन में आरबीडी पीडि़त 90 प्रतिशत व्यक्तियों में गलत ढंग से तह हुआ सिन्यूक्लीन मिला है।

इतना तो सभी मान रहे हैं कि आरबीडी पार्किंसन तथा अन्य तंत्रिका-क्षति रोगों का प्रारंभिक लक्षण है। इस समझ के साथ वैज्ञानिक यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि ऐसा हानिकारक सिन्यूक्लीन शरीर में किस तरह फैलता है। इस बात के काफी प्रमाण मिले हैं कि यह विकार आंतों में शुरू होता है और वहां से मस्तिष्क तक पहुंचता है। उदाहरण के लिए चूहों पर किए गए प्रयोगों से पता चला है कि आंतों से मस्तिष्क तक यह वैगस तंत्रिका के ज़रिए पहुंचता है। मनुष्यों में भी देखा गया है कि वैगस तंत्रिका को काट दें (जो जीर्ण आमाशय अल्सर के इलाज के लिए किया जाता है), तो पार्किंसन होने का जोखिम कम हो जाता है।

कुछ शोधकर्ताओं का मत है कि पार्किंसन दो प्रकार का होता है। कुछ में यह आंतों में पहले शुरू होता है और कुछ में पहले मस्तिष्क में। जैसे डेनमार्क के आर्हुस विश्वविद्यालय के पर बोर्गहैमर का कहना है कि आरबीडी मस्तिष्क-प्रथम पार्किंसन का एक शुरुआती लक्षण हो सकता है लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि आरबीडी के हर मरीज़ को अंतत: पार्किंसन रोग होगा ही। मात्र एक-तिहाई मरीज़ों में ऐसा होता है।

इस संदर्भ में एक और अवलोकन महत्वपूर्ण है। सॉरबोन विश्वविद्यालय की इसाबेल आर्नल्फ ने पार्किंसन के मरीज़ों के स्वप्न के समय के व्यवहार में कुछ अजीब बात देखी। ये मरीज़ जागृत अवस्था में तो शारीरिक क्रियाओं में दिक्कत महसूस करते थे, लेकिन सोते समय इन्हें हिलने-डुलने में कोई परेशानी नहीं होती थी। इस तरह के व्यवहार के रिकॉर्डिग की मदद से आर्नल्फ की टीम को आरबीडी मरीज़ों के सपनों की कुछ विशेषताएं देखने को मिलीं जिनके आधार पर शायद यह समझने में मदद मिलेगी कि हमें सपने कैसे और क्यों आते हैं।

(स्रोत फीचर्स)

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