5 साल में खुले 117 कैंप, 20 में से 6 हजार वर्ग किमी तक सिमटे नक्सली
‘छत्तीसगढ़’ से विशेष बातचीत- प्रदीप मेश्राम
रायपुर, 13 अक्टूबर (‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता)। बस्तर रेंज आईजी सुंदरराज पी. यह मानकर चल रहे हैं कि नक्सल समस्या के खात्मे के लिए पुलिस सिर्फ मुठभेड़ पर भरोसा नहीं कर रही है। बार-बार नक्सलियों से समर्पण के जरिये मुख्यधारा में लौटने की अपील की जा रही है। आईजी का मत है कि जल-जंगल और जमीन पर आदिवासियों का नारा नक्सलियों का शिगूफ़ा मात्र रह गया है। वक्त के साथ बस्तर की फिजा बदल रही है। बस्तर के अंतिम छोर पर बसे लोग भी आगे बढऩा चाहते हैं।
0 - हाल ही में दंतेवाड़ा-नारायणपुर बार्डर में हुई अब तक की सबसे बड़ी मुठभेड़ पर आपका क्या कहना है ?
00 - पुलिस हर मोर्चे पर पूरी ताकत लगाकर नक्सलियों का सामना कर रही है। दंतेवाड़ा-नारायणपुर बार्डर मुठभेड़ में मिली सफलता पुलिस के बढ़ते हौसले का परिणाम है। ऐसे आपरेशन आगे भी होते रहेंगे।
0 - आईजी के तौर पर आप बस्तर में किस तरह का बदलाव देखते हैं?
00- बीते पांच वर्षों में बस्तर के सातों जि़लों में व्यापक बदलाव हुए हैं। हमने कोर नक्सल इलाकों में सबसे पहले सडक़ों का जाल बिछाया। जिसमें बासागुड़ा-जगरगुंडा, बीजापुर से मिरतूर, सिलेगर से पूवर्ती, भेज्जी से चिंतागुफा, चिंताराम से किस्टाराम जैसे महत्वपूर्ण इलाकों में सडक़ें बनाई। पुलिस की मौजूदगी में कांकेर, नारायणपुर, कोंडागांव इलाकों में भी सडक़ें बनाई गई है। यह बदलाव का पहला चरण है।
0- सुरक्षा कैम्पों को लेकर नक्सली मुखर रहते हैं कि कैम्प आदिवासियों के हित में नहीं हैं, इस पर आप क्या कहेंगे।
00- सुरक्षा कैम्पों के कारण ही आज बस्तर में शांति व अमन कायम हो रहा है। नक्सली आदिवासियों को ढ़ाल बनाकर अपने मंसूबों को पूरा करते हैं। अब बस्तर का हर बाशिंदा नक्सलियों के चाल-चरित्र को समझ गया है।
0- जल-जंगल-जमीन की बस्तर में क्या स्थिति है। तेजी से औद्योगिकीकरण के खिलाफ नक्सली क्यों है?
00- जल-जंगल-जमीन नक्सलियों के लिए एक शिगूफा मात्र है। नक्सलियों की दोहरी नीति उनके सफाए के साथ खात्मे की ओर है। आदिवासियों को भी आगे बढऩे का मौका मिलना चाहिए। औद्योगिकीकरण का विरोध के पीछे नक्सलियों का स्वार्थ है।
0- भीतरी इलाकों में पुलिस की इमेज कैसी रह गई है?
00- बस्तर की जनता के साथ पुलिस का रिश्ता प्रगाढ़ होता चला जा रहा है। भीतरी इलाकों में पुलिस की साख अब बदल गई है। पुलिस मानवीय दृष्टिकोण के तहत पिछड़ेपन के शिकार गांवों को अपने जरिये बुनियादी सुविधाएं मुहैया करा रही है। पुलिस अपने कैम्पों में प्रसूति से लेकर अन्य चिकित्सकीय कार्यों में भी लोगों की मदद कर रही है।
0- लगातार मुठभेड़ों से नक्सली क्या बैकफुट पर हैं। क्या ऐसा लगता है कि यह समस्या चंद दिनों की है?
00- मैं कह सकता हूं कि पुलिस का वर्चस्व अब बस्तर के हर इलाके में है। पिछले 5 सालों में बस्तर के 7 जिलों के 20 हजार वर्ग किमी से नक्सली सिर्फ 6 हजार वर्ग किमी तक सिमटकर रह गए हैं। कोर एरिया कमेटी में सिलसिलेवार खुल रहे कैम्प से नक्सलियों में भगदड़ की स्थिति ही है। यह समस्या जल्द ही सुलझ जाएगी।
0- नक्सलग्रस्त बस्तर में विकास के रास्ते कैसे खुलेंगे?
00- नक्सलियों की स्थिति कमजोर होने के साथ समाप्ति की ओर भी बढ़ रही है। बस्तर एक खूबसूरत इलाका है। इसकी अपनी संस्कृति और वातावरण है, जो कि पर्यटन के लिहाज से पर्यटकों के लिए एक मुफीद वजह है। पर्यटन के साथ-साथ भीतरी इलाकों में बन रही सडक़ों से ट्रांसपोर्टिंग और मैनपावर बढ़ेंगे। एनएमडीसी का उद्योग बस्तर की आर्थिक ताकत को मजबूती देगा। यह तमाम बातें है जो विकास के द्वार खोलने के लिए काफी है।
0- नक्सलियों के लाल गलियारे पर आपका क्या कहना है?
00- नक्सलियों का लाल गलियारा अब एक सपना रह गया है। वजह यह है कि बस्तर में इनकी जड़ें कमजोर हो गई है। भर्तियां नहीं होने से नक्सली संगठन लडख़ड़ा रहा है। वहीं बस्तर के नक्सलियों के साथ तेलुगू कैडर के नक्सल नेताओं का सौतेला व्यवहार सर्वविदित है। पिछले कुछ सालों से नक्सलियों के तेलुगू कैडर के शीर्ष नक्सली अलग-अलग खत्म हो गए हैं। कुल मिलाकर लाल गलियारा तैयार करना दूर की सपना मात्र है।
0- बतौर आईजी आपकी ओर से जनता के लिए क्या संदेश है?
00- बस्तर की जनता बेहद भोली-भाली और शांतिप्रिय है। नक्सल विचार से उनका मोहभंग होने लगा है। जनता से लगातार हम बातचीत कर एक उन्मुक्त माहौल बनाकर मुख्यधारा में साथ चलने की अपील करते रहे हैं। निश्चिततौर पर नक्सलियों से जनता अब रिश्ता बनाने में रूचि नहीं है। आने वाला भविष्य बस्तर के लिए काफी उज्जवल है।
-उमंग पोद्दार
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक अहम फ़ैसला सुनाते हुए कहा कि सभी निजी संपत्ति को सरकार नहीं ले सकती है।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की बेंच ने 1978 में दिए गए अपने ही फ़ैसले को पलट दिया। चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली 9 जजों की बेंच ने 7-2 के बहुमत से यह फ़ैसला दिया है।
चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस हृषिकेश रॉय, जस्टिस मनोज मिश्रा, जस्टिस राजेश बिंदल, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस एससी शर्मा और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह इस फ़ैसले पर एकमत थे।
वहीं जस्टिस बी।वी नागरत्ना फैसले से आंशिक रूप से सहमत थे जबकि जस्टिस सुधांशु धूलिया ने सभी पहलुओं पर असहमति जताई।
अपने फ़ैसले में बेंच ने कहा, ‘हर निजी संपत्ति को सामुदायिक संपत्ति नहीं मान सकते हैं। कुछ ख़ास संपत्तियों को ही सरकार सामुदायिक संसाधन मानकर इसका इस्तेमाल आम लोगों के लिए कर सकती है।’
बेंच ने साल 1978 में दिए जस्टिस कृष्ण अय्यर के उस फ़ैसले को खारिज़ कर दिया है, जिसमें कहा गया था कि सभी निजी स्वामित्व वाले संसाधनों को राज्य सरकारें अधिग्रहण कर सकती हैं।
चीफ जस्टिस ने कहा कि पुराना फ़ैसला ख़ास आर्थिक और समाजवादी विचारधारा से प्रेरित था। हालांकि राज्य सरकारें उन संसाधनों पर दावा कर सकती हैं, जिन्हें समुदाय, सार्वजनिक भलाई के लिए रख रहा है।
आमतौर पर 9 जजों की बेंच बहुत कम ही देखने को मिलती है। आज तक महज़ 17 मामलों में ही ऐसा देखा गया है।
ऐसी बेंच आमतौर पर संवैधानिक महत्व से जुड़े सवालों पर फ़ैसला लेने के लिए बनाई जाती है। आज़ादी के बाद से ही निजी संपत्ति और उसके अधिग्रहण पर विवाद होता आया है।
हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों के दौरान यह मुद्दा काफ़ी गरमा गया था। जहाँ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आरोप लगाया कि कांग्रेस पार्टी संपत्ति का अधिग्रहण कर बाँटना चाहती है।
हालांकि कांग्रेस के घोषणापत्र में ऐसा कोई दावा नहीं किया गया था।
संविधान का अनुच्छेद 39बी
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39(बी) के मुताबिक़, सरकार की नीतियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ‘समाज के संसाधनों’ को इस तरह से बाँटा जाए कि वे सभी के भलाई के काम आएं। इस सिद्धांत के आधार पर ही सरकार को अपनी नीति बनानी चाहिए। जिसका इस्तेमाल करते हुए सरकार ने संपत्ति पर नियंत्रण रखने के लिए कई क़ानून बनाए हैं।
इस मामले से जुड़े सीनियर वकील अंध्यारुजिना ने कहा, ‘इस फै़सले का असर केवल संपत्ति क़ानूनों पर नहीं बल्कि दूसरे क़ानूनों पर भी पड़ेगा।’
इसी मामले से जुड़े दूसरे वकील निपुण सक्सेना ने कहा, ‘संविधान के उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए पहले भी कई तरह के क़ानून बनाए गए हैं, जैसे कोयले का राष्ट्रीयकरण, ज़रूरी चीज़ों के लिए क़ीमतों को तय करना। इसलिए इस फ़ैसले का बहुत ज़्यादा असर होगा।’
संपत्ति का अधिकार
आइए इस जटिल मुद्दे को समझने के लिए इतिहास में वापस जाते हैं।
संपत्ति के अधिकार को भारतीय संविधान में एक मौलिक अधिकार के रूप में शामिल किया गया था।
अनुच्छेद 19(1)(एफ), सभी नागरिकों को संपत्ति को इक_ा करने, उसे रखने और बेचने का अधिकार देता था। लेकिन अनुच्छेद 31 ने सरकार को ‘सार्वजनिक उद्देश्यों’ के लिए संपत्ति पर कब्ज़ा करने का अधिकार दिया।
एक तरफ़, समय के साथ सरकार ने संपत्ति अर्जित करने के उसके अधिकार को बचाने के लिए संविधान में कई संशोधन किए। वहीं दूसरी तरफ, न्यायपालिका ने नागरिकों की संपत्ति के अधिकार की रक्षा के लिए कई ऐतिहासिक फ़ैसले सुनाए।
साल 1978 में, जनता पार्टी की सरकार ने संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार से हटाकर संवैधानिक अधिकार में बदल दिया।
संवैधानिक अधिकारों को मौलिक अधिकारों की तुलना में कम सुरक्षा मिलती है।
मौजूदा समय में संपत्ति का अधिकार महज़ अनुच्छेद 300 ए के तहत एक संवैधानिक अधिकार है। वहीं कई तरह के क़ानून हैं, जैसे कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम, जो अलग-अलग हालात में सरकार को संपत्ति पर कब्जा करने की शक्ति देते हैं।
संपत्ति अधिग्रहण करने का मामला हमेशा विवादों से भरा रहा है। जब 2013 में कांग्रेस की यूपीए सरकार ने एक नया भूमि अधिग्रहण क़ानून लाना चाहा, तो उन्हें कड़े विरोध का सामना करना पड़ा था। इसी तरह, बीजेपी की एनडीए सरकार इस क़ानून में बदलाव लाना चाहती थी लेकिन वे ऐसा करने में नाकाम रही।
क्या मामला है?
मौजूदा मामला, महाराष्ट्र आवास और क्षेत्र विकास अधिनियम (एमएचएडीए) में 1986 में किए गए संशोधन से जुड़ा है।
इस संशोधन में, राज्य सरकार के नियंत्रण वाली मुंबई बिल्डिंग रिपेयर एंड रिकंस्ट्रक्शन बोर्ड को कुछ पुरानी संपत्तियों को अधिग्रहित करने की अनुमति दी गई थी।
यह अनुमति इसलिए दी गई थी क्योंकि संपत्तियों के मालिक उनकी मरम्मत नहीं कर रहे थे और वे ढहने के कगार पर थी।
इस संशोधन से बोर्ड को उन पुरानी इमारतों की मरम्मत और उनके दोबारा निर्माण करने की शक्ति मिली। जिसे करने के बाद बोर्ड उन संपत्तियों को वहां रहने वाले किरायेदारों की सहकारी समिति को सौंप सकता था।
यह स्कीम उन इमारतों पर लागू होती है, जो कम से कम 60 साल पुरानी हो और सरकार को टैक्स देती हो। 1997 तक, महाराष्ट्र में ऐसी 15,000 से ज़्यादा इमारतें थीं।
मुंबई में 28,000 मकान मालिकों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था, प्रॉपर्टी ओनर्स एसोसिएशन (पीओए) ने 1991 में बॉम्बे हाई कोर्ट में इस क़ानून को चुनौती दी। लेकिन कोर्ट ने उनकी याचिका को ख़ारिज कर दिया।
जिसके बाद संस्था ने 1992 में सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया।
दोनों पक्षों ने क्या दलील दी?
मकान मालिकों ने दलील दी कि ये निजी संपत्तियां समाज के संसाधन नहीं है और न तो इन संपत्तियों का अधिग्रहण लोगों की भलाई के लिए किया जा रहा है। साथ ही उन्होंने कहा कि सरकार द्वारा दिया जाने वाला मुआवजा भी बहुत कम है।
हालांकि, महाराष्ट्र सरकार और हाउसिंग अथॉरिटी ने कहा कि यह क़दम लोगों के हितों को बचाने के लिए लिया गया था।
वैसे तो यह क़ानून कांग्रेस सरकार लाई थी लेकिन शिव सेना (शिंदे) और बीजेपी सरकार ने भी इसका बचाव किया है।
सरकार ने कहा कि मुंबई में आवास की बहुत समस्या है। मकान मालिक इन इमारतों की मरम्मत नहीं कर रहे थे क्योंकि मालिकों के पास दूसरी जगह जाने का कोई रास्ता नहीं था। इसलिए इस क़ानून को लाना ज़रूरी था।
आखिरकार, इस मामले को साल 2002 में नौ जजों की बेंच के पास भेज दिया गया।
यह फैसला जरूरी क्यों है?
यह फ़ैसला महज़ महाराष्ट्र के इस कानून पर ही नहीं असर डालेगा। बल्कि यह इस बात पर भी प्रभाव डालेगा कि देश में कोई भी सरकारी संस्था कब और किस हद तक निजी संपत्ति का अधिग्रहण कर सकती है।
हालांकि अब भी सरकार भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 जैसे क़ानूनों के तहत संपत्ति का अधिग्रहण कर सकती है।
इंदिरा गांधी द्वारा लाया गया संविधान का अनुच्छेद 31 सी कहता है कि अगर संपत्ति को लोगों की भलाई के लिए अधिग्रहित किया जाता है, तो वह समानता जैसे मौलिक अधिकारों का हनन नहीं करता है।
यह अनुच्छेद 1969 में लाया गया था, जब अदालत ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण के फ़ैसले को रद्द कर दिया था। जिसके बाद 1976 में इंदिरा गांधी सरकार ने अनुच्छेद 31 सी का दायरा बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसे ख़ारिज कर दिया। (bbc.com/hindi)