इंटरव्यू » लिखित
-राजू सजवान
पर्यावरणविद चंडी प्रसाद भट्ट ने कहा, पानी के रास्ते में नहीं आते बांध तो इतना नुकसान नहीं होता
पर्यावरणविद चंडी प्रसाद भट्ट उत्तराखंड में चिपको आंदोलन के जनक 87 वर्षीय चंडीप्रसाद भट्ट उन गिने चुने लोगों में से हैं, जो हिमालय पर मंडरा रहे खतरों से लगातार आगाह करते रहे हैं। उन्होंने गोरा देवी के साथ रैणी गांव में 1974 में जंगलों को बचाने के लिए चिपको आंदोलन चलाया था और आज उसी रैणी गांव के पास यह हादसा हुआ। चिपको आंदोलन से जुड़ी यादों के साथ-साथ चमोली आपदा के कारणों के बारे में जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने उनसे बातचीत की। प्रस्तुत हैं, बातचीत के प्रमुख अंश –
प्रश्न: चमोली आपदा को आप कैसे देखते हैं?
अभी तक बहुत साफ नहीं है कि ग्लेशियर टूटने से आपदा आई या झील बनने से। लेकिन इतना जरूर है कि कारण जो भी रहा हो, लेकिन नदी पर बांध नहीं बने होते तो नुकसान नहीं होता। बाढ़ का पानी बह जाता।
प्रश्न: जहां यह हादसा हुआ, आपने वहां बहुत काम किया है, वहां की परिस्थितियां कैसी हैं?
कंचनजंघा के बाद सबसे ऊंची चोटी है नंदा देवी। यहां 4,000 से लेकर 5,000 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले पहाड़ों की संख्या एक दर्जन से अधिक है और एक दर्जन से अधिक बड़े-बड़े ग्लेशियर हैं। यह इलाका नेशनल पार्क घोषित है। नेशनल पार्क जाने के दो रास्ते हैं। एक रास्ता ठीक उसी जगह है, जहां यह घटना हुई है। दूसरा रास्ता लाता से है। यह इलाका बहुत ही संवेदनशील है। इसीलिए इसे नेशनल पार्क घोषित किया गया था।
1970 में अलकनंदा में प्रलयंकारी बाढ़ आई थी। इसके बाद हम पूरे इलाके में घूमे। तब यह महसूस हुआ कि जहां-जहां पेड़ काटे गए, वहां भूस्खलन हुआ और अलकनंदा बौखलाई। उस समय हम राहत पहुंचाने का काम तो करते ही थे, लेकिन साथ-साथ हम यह समझने की कोशिश कर रहे थे कि आखिर बाढ़ क्यों आई?
उससे पहले तक यह बात किसी के दिमाग में नहीं आई कि पेड़ कटने से बाढ़ तक आ सकती है। तब हमने पहली बार एक नोट बनाया, जिसमें कहा कि पेड़ कटने से बाढ़ तक आ सकती है। उस समय केंद्र में सिंचाई राज्य मंत्री केएल राव को यह नोट सौंपा गया। अगस्त 1970 को यह नोट दिया गया, जिसमें सिलसिलेवार यह जानकारी दी गई थी कि किस क्षेत्र में कितने पेड़ काटे गए और उनका असर क्या हुआ।
चिपको आंदोलन की शुरुआत कैसे हुई?
1974 में हमारे एक साथी थे, हयात सिंह रावत। उनकी ससुराल रीणी गांव में थी। उन्होंने हमे बताया कि वहां पेड़ कटने वाले हैं, क्योंकि हम लोग इससे पहले ही पेड़ों को बचाने की मुहिम चला रहे थे और चिपको आंदोलन की शुरुआत कर चुके थे। इसे देखते हुए हयात सिंह रावत ने हमें रीणी गांव के बारे में बताया। इस गांव में जनजातीय लोग रहते हैं। हम लोगों ने वहां की यात्रा की तो पता चला कि वह इलाका बहुत संवदेनशील है, क्योंकि वहां सीधे खड़े पहाड़ हैं और जहां पेड़ कटने वाले थे, वो बहुत कमजोर इलाका था। साथ ही, वह इलाका स्थानीय लोगों के लिए बहुत महत्व रखता था। लोगों को वहां से जंगली सब्जी, जंगली फल, अखरोट आदि कई चीजें मिलती थी।
इससे पहले 1968 में वहां एक भूस्खलन हुआ था और एक झील बनी थी। यह भूस्खलन ठीक उसी जगह हुआ था, जहां अभी 7 फरवरी को पुल बह गया है। बाद में वहां कई पर्यावरणविद पहुंचे थे। हमने वहां चार-पांच दिन की यात्रा की। हमने पूरी परिस्थितियां देखी और उसके बाद यह कहा कि यहां पेड़ काटे गए तो इस तरह की घटनाएं दोबारा होंगी। उस समय तक ग्रामीण महिलाएं हमारे साथ नहीं जुड़ी थी, लेकिन जब 1974 में जंगलात के लोग पेड़ काटने पहुंच गए। वन विभाग ने ऐसी परिस्थितियां बना दी थी कि मैं वहां से काफी दूर था। महिलाओं को यह पता था कि अगर पेड़ कटेंगे तो भूस्खलन होगा और हमारे बदर (खेती आदि) बह जाएंगे। महिलाओं को लगा कि अगर अब पेड़ कट गए तो उन्हें दोबारा नहीं लगाया जा सकता, इसलिए उन्हें ही कुछ करना होगा। गांव की महिला मंगल दल में 26-27 महिलाएं थी, जिसका नेतृत्व गौरा देवी कर रही थी ने पेड़ों से चिपकना शुरू कर दिया। मजबूरन, वन विभाग को पेड़ काटने का इरादा छोड़ना पड़ा। इसके बाद हम लगातार वहां आते-जाते रहे और लोगों को जागरूक करते रहे। इसका असर पूरे उत्तराखंड में हुआ और लोगों ने वन विभाग को आगाह करना शुरू किया कि अगर पेड़ काटेंगे तो वे चिपक जाएंगे।
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इसके बाद सरकार ने हमारी बात मान ली और पूरी अलकनंदा घाटी में पेड़ काटने को प्रतिबंधित कर दिया। एक कमेटी बनाई गई, जिसमें मैं भी शामिल था। जब हमने कहा कि दिल्ली में बैठकर कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता, जिसके बाद एक सब कमेटी बनाई गई, जिसने व्यापक सर्वेक्षण शुरू किया। और 1977-78 में इस इसे पूरे इलाके को प्रतिबंधित कर दिया गया। 1974 से ही आंदोलन की वजह से सरकार पेड़ नहीं काट पा रही थी। लेकिन कमेटी की सिफारिशों के बाद पेड़ों के काटने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
1980 के बाद पूरे उत्तराखंड में पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी गई थी। कमेटी ने सिफारिश की थी कि केवल रैणी ही नहीं, बल्कि पूरा अलकनंदा का इलाका जहां ग्लेशियर से नदियां निकलती हैं से पेड़ों के काटने पर प्रतिबंध लगाया जाए।
ऋषिगंगा परियोजना कैसे शुरू हुई ?
कुछ साल बाद वन विभाग ने चुपके से 13 मेगावाट क्षमता वाली ऋषिगंगा प्रोजेक्ट को मंजूरी दे दी। यह प्रोजेक्ट ठीक नेशनल पार्क के मुहाने पर बनाया गया। जब प्रोजेक्ट को मंजूरी दिए जाने की जानकारी मुझे पता चली तो पहले मैंने सरकारी अधिकारियों से बात की और उसके बाद उच्चतम न्यायालय की हाई पावर कमेटी को इसकी शिकायत की। उस समय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश थे, उनको भी पत्र लिखा। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को पत्र लिखा कि यह इलाका बहुत संवदेनशील है, यहां इस तरह का प्रोजेक्ट नहीं बनाना चाहिए। रैणी ही नहीं, बल्कि कुछ और प्रोजेक्ट्स की जानकारी भी सरकार को दी, जो पहाड़ की दृष्टि से उचित नहीं थे। जय राम रमेश ने आश्वासन दिया कि प्रोजेक्ट नहीं बनेंगे। कुछ प्रोजेक्ट बंद भी हो गए।
मुख्य सवाल यह है कि स्थानीय लोगों को पानी का पाइप बिछानी हो या रास्ता बनाना हो तो वन विभाग वाले रोक देते हैं। लेकिन नेशनल पार्क के मुहाने पर प्रोजेक्ट बनाने की स्वीकृति कैसे मिल गई। हम लोग पहले से ही यह मुद्दा उठा रहे थे कि यहां किसी तरह का निर्माण भी आपदा का कारण बन सकता है और वही हुआ। इस घटना से बड़ा सवाल उठ रहा हैं। किस की मिलीभगत से इस प्रोजेक्ट को मंजूरी मिल गई। यहां 4,000 से 5,000 मीटर ऊंचे पहाड़ हैं।
यह घटना जहां हुई, वहां तो स्थायी बसावट है, लेकिन उससे ऊपर का इलाके में लोग 6 माह रहते हैं और 6 माह के लिए नीचे आ जाते हैं।
क्या आप मानते हैं कि उस क्षेत्र में जनांदोलन कमजोर हो रहे हैं?
1991 में गौरा देवी की मृत्यु हुई। उसके बाद मेरा भी उस इलाके में जाना बंद हो गए। वहां नए-नए संगठन बन गए। लेकिन ये संगठन मजबूत आंदोलन खड़ा नहीं कर पाए। यह ध्यान नहीं दिया गया कि वहां प्रोजेक्ट बनने से क्या प्रभाव पड़ेगा? पहले के मुकाबले अब परिस्थितियां बदल गई हैं। स्थानीय ठेकेदार इस तरह का प्रचार करते हैं कि ये विकास के काम हैं। लोगों की चेतना में भी परिवर्तन आया है। सरकार भी जनांदोलनों की बात को अनसुना कर रही है। प्रोजेक्ट लगाते वक्त सरकार कहती है कि हमने अध्ययन करा लिए हैं, लेकिन उन्हें इलाके की समझ ही नहीं है तो वे किस तरह का अध्ययन करते हैं। अगर किसी प्रोजेक्ट को स्वीकृति दी जाती है तो उसमें पर्याप्त सावधानियां बरतनी चाहिए। काम की निगरानी भी होनी चाहिए।
लोगों को लगता है कि प्रोजेक्ट बनने से उनको रोजगार मिलेगा। जब रैणी में चिपको आंदोलन चल रहा था तो उस समय भी वहां पेड़ काटने के लिए 300 से अधिक मजदूर आ गए थे और वहां की दुकानों में बिक्री बढ़ गई थी, बावजूद इसके लोगों को पता था कि जंगल कटेगा तो बाढ़ आ जाएगी और उनको नुकसान होगा, इसलिए उन स्थानीय लोगों ने विरोध किया, लेकिन अब लोगों की सोच में बदलाव आ रहा है। साथ ही, लोग सरकार पर भी भरोसा करते हैं कि सरकार जो कर रही है, वह उनके भले के लिए कर रही है। ठेकेदार जन प्रतिनिधियों से मिल कर लोगों को गुमराह कर रहे हैं।
हिमालयी क्षेत्र में आपदाएं बढ़ रही हैं, इन्हें रोकने के लिए क्या करना चाहिए?
दरअसल, पूरे हिमालयी क्षेत्र में व्यापक अध्ययन का अभाव है। यह अध्ययन लगातार होना चाहिए कि ग्लेशियरों की स्थिति क्या है, क्या ये ग्लेश्यिर फट सकते हैं। क्या वहां झीलें बन गई हैं? मैं इस बारे में सालों से अपनी बात सरकार तक पहुंचा रहा हूं, लेकिन कोई बदलाव नहीं हुआ। मनमोहन सरकार में भी यह मुद्दा उठाया था और इस सरकार में भी यह बात कह रहा हूं। न केवल रैणी, ऋषिगंगा की बात है, बल्कि हिमालयी राज्यों में ऊपर के इलाकों का विज्ञान सम्मत हर वर्ष नहीं तो दो तीन साल में अध्ययन और शोध होने चाहिए। वर्ना तो बड़े-बड़े संस्थान हमारे लिए हाथी साबित हो रहे हैं। इस बारे में जो भी ज्ञान है, उसके बारे में स्थानीय लोगों और स्थानीय प्रशासन को बताना चाहिए। यदि वहां ग्लेशियर पिघल रहे हैं या कोई बदलाव आ रहा है तो उसकी जानकारी स्थानीय लोगों को होनी चाहिए। शोध रिपोर्ट तैयार करके अलमारी में बंद करने से क्या फायदा।
वर्ना तो चमोली आपदा एक शुरुआत भर है। चार धाम परियोजना चल रही है, जो काफी नुकसान पहुंचा सकती है। नदियों में मलवा डाला जा रहा है, जिससे नदियों का स्तर ऊंचा हो रहा है। ग्लेशियर पीछे सरक रहे हैं। जलवायु परिवर्तन का असर लगातार बढ़ रहा है। हमने 2013 की केदारनाथ आपदा से सबक नहीं लिया। चमोली आपदा को भी कुछ दिन याद रखा जाएगा, उसके बाद भुला दिया जाएगा और फिर से ये काम शुरू हो जाएंगे। (downtoearth.org.in)
अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार सत्ता के खिलाफ बेबाक अंदाज में अपनी राय रखते हैं। पेंगुइन से आ रही उनकी नई किताब में कोविड के कारण अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़े लाखों-करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी छिनने और इन लोगों को राहत देने के लिए सरकार की कोशिशों पर विस्तार से बात की गई है। प्रो. कुमार ने इन मसलों पर एन आर मोहंती के साथ खुलकर बातचीत की। पेश हैं बातचीत के अंशः
इस महामारी का भारतीय अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ा है, यह पुस्तक इसी पर है। खास तौर पर हफ्तों तक चले लॉकडाउन के कारण क्या असर पड़ा।
शायद नहीं। इबोला वायरस की तुलना में कोरोनावायरस कहीं आसानी से फैलता है। विशेषज्ञों का मानना है कि सामुदायिक प्रतिरोधक क्षमता तभी विकसित हो सकती है जब 60 फीसदी भारतीय संक्रमित हो जाएं। अगर 2 फीसदी संक्रमित लोगों की मृत्यु हो जाती तो भी 1.6 करोड़ लोगों की जान जा सकती थी। उस हालत में हमें अस्पतालों में कम-से-कम 4 करोड़ बिस्तरों का इंतजाम करना पड़ता जो हमारे देश के लिए संभव ही नहीं था। इसलिए लॉकडाउन को टाला नहीं जा सकता था। लेकिन तब सरकार को लॉकडाउन के विपरीत असर को कम करने के उपाय पहले से ही करने चाहिए थे। अफसोस की बात है कि हम ऐसा नहीं कर सके और इसका असर यह हुआ कि लॉकडाउन का उद्देश्य पूरा नहीं किया जा सका। दूसरी ओर, चीन ने वुहान में यही काम बड़ी कामयाबी के साथ किया और वह वायरस के संक्रमण को फैलने से रोकने में कामयाब रहा।
जान और रोजी-रोटी के सवालों पर भारत की कोशिशें निराश करने वाली रहीं। खुद सोचिए, जंग के समय कोई सरकार किस तरह के काम करती है। लॉकडाउन और उसके बाद के हालात किसी भी जंग से बदतर ही थे। जंग के समय उत्पादन पूरी क्षमता पर हो रहा होता है क्योंकि मांग बढ़ जाती है और ऐसे में रोजगार के मौके बढ़ जाते हैं। लेकिन इस महामारी में आवश्यक वस्तुओं को छोड़कर उत्पादन एकदम रुक-सा गया, मांग बुरी तरह ठप हो गई और इसके कारण लाखों-लाख लोगों का काम छूट गया, उन्हें वेतन मिलना बंद हो गया। ऐसे समय में जब मांग और आपूर्ति- दोनों बुरी तरह प्रभावित हो चुकी हो, सरकार के लिए जरूरी था कि वह रोजगार के अवसर पैदा करने, मांग को बढ़ाने और उत्पादन बढ़ाने को प्रोत्साहित करने के कदम उठाती। इसमें संदेह नहीं कि सरकार वह सब करने में विफल रही जो वक्त के लिहाज से जरूरी था। उदाहरण के लिए, सरकार ने मनरेगा के लिए 40,000 करोड़ अतिरिक्त धनराशि का आवंटन किया जबकि लॉकडाउन की वजह से बेकार हो गए लोगों को काम देने के लिए ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम में कम-से-कम 4,00,000 करोड़ अतिरिक्त धनराशि की जरूरत थी। वैसे ही शहरी गरीबों के रोजगार के लिए भी सरकार को ठोस उपाय करना चाहिए था लेकिन इन दोनों ही मोर्चों पर सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया।
आपको इस बात पर गौर करना चाहिए कि सरकार ने बेशक 20 लाख करोड़ का पैकेज घोषित किया लेकिन राजस्व पर वास्तविक भार तो 2 लाख करोड़ का ही था और फिर यह जीडीपी का महज 1 फीसदी होता है। इसके अलावा बाकी तो उत्पादन बढ़ाने के लिए व्यवसायियों को तरलता उपलब्ध कराने के उपायों से जुड़ा था। लेकिन सोचने वाली बात है कि जब मांग तलहटी में चली गई हो तो कौन उद्यमी भला उत्पादन बढ़ाना चाहेगा? सरकार को चाहिए था कि मांग बढ़ाने के उपाय करती। और यह तभी हो सकता था जब सरकार खुद बुनियादी ढांचे- जैसे क्षेत्रों में निवेश बढ़ाकर बड़े पैमाने पर रोजगार के मौके तैयार करती। जब किसी अर्थव्यवस्था में 20 करोड़ रोजगार खत्म हो गए हों और मांग एकदम ठहर गई हो, केवल सरकारी निवेश ही अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर ला सकती है। लेकिन सरकार ने इस तरह की कोई कोशिश नहीं की।
आंकड़े जो भी कह रहे हैं, अर्थव्यवस्था की वास्तविक हालत उससे कहीं अधिक खराब है। इसकी वाजिब वजह है। हमारे पास जो भी आंकड़ें हैं, वे औपचारिक क्षेत्र के हैं जबकि हमारे 90 फीसदी से ज्यादा लोग अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं। अगर इन दोनों क्षेत्रों को मिलाकर देखें तो शायद पिछली तिमाही के दौरान हमारी अर्थव्यवस्था 50 फीसदी से ज्यादा ही सिकुड़ चुकी होगी। लगातार दो से तीन साल की मशक्कत के बाद ही पुरानी स्थिति पाई जा सकेगी। संकट से निपटने के लिए सरकार को वैसे उपाय करने होंगे जिससे कम समय में अतिरिक्त पैसे का इंतजाम हो सके। अत्यधिक धनी लोगों पर अधिक कर लगाकर और सरकारी अधिकारियों का वेतन घटाकर यह काम किया जा सकता है। अगर जंग छिड़ी होती और तब इन धनी लोगों को जितना पैसा देना पड़ता, उससे कहीं ज्यादा देने के लिए उन्हें तैयार रहना चाहिए। इसके साथ ही महामारी के बाद से ही सरकारी कर्मचारी जिस सुरक्षित माहौल और भाव के साथ नौकरी कर रहे हैं, उनमें भी ऊपर के ब्रैकेट वालों को वेतन कटौती के लिए तैयार रहना होगा। यहां तक कि रिटायर होने के बाद पेंशन के रूप में बड़ी धनराशि ले रहे लोगों को भी बलिदान के लिए तैयार रहना चाहिए। इन्हीं कदमों से आज की चुनौतियों से निपटा जा सकता है।
इसके अलावा सरकार को कोविड बॉण्ड लाने के बारे में सोचना चाहिए। इन बॉण्ड में ब्याज दर सावधि जमा से थोड़ी अधिक हो जिससे लोग इसमें निवेश के लिए प्रेरित हो सकें और ऐसी स्कीम में धनाढ्य वर्ग से लेकर मध्यम आय वर्ग के लोगों को समान रूप से छूट दी जानी चाहिए। आर्थिक चुनौतियों से निपटने के एक और तरीके के तौर पर घाटे के एक हिस्से की भरपाई के लिए आरबीआई को आगे आना चाहिए। मुद्दे की बात यह है कि सरकार कुछ भी करके मोटी धनराशि का इंतजाम करे और फिर उसे बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं पर खर्च करे, तभी अर्थव्यवस्था में जल्दी सुधार की उम्मीद की जा सकती है।
यह तो वैसी ही बात है जैसे आपके घर में आग लगी हो और सरकार कह रही हो कि वह आपके घर के पास ही फायर स्टेशन खोलने पर विचार कर रही है ताकि अगली बार जब आपके सामने ऐसी समस्या आए तो आप उसका सामना कर सको। दीर्घकालिक और मध्यम आवधिक रणनीतियां जरूरी होती हैं लेकिन यह तो बड़ी सामान्य समझ की बात है कि ये तात्कालिक और अल्पकालिक जरूरतों की विकल्प नहीं हो सकतीं। चाहे कुछ भी हो, हम बहाना बनाकर हाथ पर हाथ रखकर बैठ नहीं सकते। संकट से निकलने के किसी भी रास्ते में आपको कदम तो उठाने ही पड़ेंगे।(navjivan)
-आस मोहम्मद कैफ
कृषि अध्यादेश बिल के बाद किसानों की नाराजगी चरम पर हैं। उत्तर प्रदेश में किसानों के सबसे बड़े संगठन भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत ने ‘नवजीवन’ के साथ बातचीत में दावा किया है कि आने वाला समय किसानों के लिए तो दूभर और कष्टदायक होगा ही मगर सरकार के लिए भी बहुत मुश्किल होने जा रहा है। यह बिल किसानों से उनकी स्वतंत्रता छीनने का जैसा हैं। किसानों के सामने उनके अस्तित्व का संकट आ गया है। उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न खड़ा हो गया है। यह बिल किसान हित में नही है। उनसे बातचीत के प्रमुख अंश यहां पेश किए जा रहे हैं।
इस किसान बिल का क्यों विरोध कर रहे हैं?
राकेश टिकैत - पहली चीज तो यह है कि मंडी से बाहर माल बिकेगा और वो टैक्स फ्री रहेगा तो कौन लेकर आएगा मंडी में, तो मंडी तो सब ये बंद हो जाएंगी। जैसे अभी भी यहां मुजफ्फरनगर में जो व्यापारी है उन्होंने अपनी 'प्राइवेट मंडी 'खोल ली, अपनी जगह ले ली बाहर। वो मंडी में अपने ऑफिस रखेंगे और बाहर खरीद करेंगे माल की, तो एक साल में मंडिया बंद हो जाएंगी सारी। मंडी में यह था कि वहां एमएसपी पर बिक्री हो जाती थी। धान की, गेंहू की, हरियाणा, पंजाब में भी, वहां सरकारी अधिकारी बैठता था। उससे कह-सुन भी लेते। वहां छत भी होती थी। किसान रात में माल लेकर गया तो आराम भी कर सकता था। उसका माल को छावा भी था। अब किसान माल बचेगा सड़क पर,
बाहर के बाहर माल बेचेगा। सरकार का कोई नियंत्रण अब नही रहेगा। आज से 30 साल पहले यही व्यवस्था गांवों में थी। अब और अच्छवाई तरो( अच्छे तरीके से) आप ऐसे समझिए कि शुगर मिल में गन्ने का भाव तय है। मान लीजिये 350 ₹ प्रति कुंतल रेट है, अब सरकार का मामला है तो मिल को इसी भाव लेना पड़ता है। मिल के बराबर में ही निजी क्रेशर हैं वो 150 ₹ का भाव देता है। अब व्यापारी की मर्ज़ी वो क्या भाव ले, ना ले। अब एमएसपी और मंडी दोनों खत्म होगी।
क्या इससे कालाबाजारी बढ़ जाएगी। व्यापारी खुद ख़रीदगा तो मनमर्जी स्टॉक नही कर लेगा?
राकेश टिकैत- कालाबाजारी पहले भी होती थी। तब अधिकारी, पुलिस विभाग सब नजर रखते थे कि कौन आदमी कितनी कालाबाजारी कर रहा है। अब तो सरकार ने ही स्टॉक करने का परमिट दे दिया। अब इससे कालाबाजारी बढ़ेंगी या घटेगी। इसलिए विरोध है हमारा। अब एक किसान से एक बार फसल खरीदकर स्टॉक भर लेंगे अगली बार वो किसान जब फसल बेचेंगे तो कह देंगे कि हमारे पास तो पहले से ही बहुत माल है। हम नया नही ले रहे। तब किसान चौराहे पर खड़ा हो जाएगा। यही होगा। ऐसी स्थिति आएगी।
सरकार के लोगों का कहना है कि बाहर के व्यापारी आएंगे, दायरा बड़ा होगा?
राकेश टिकैत - बाहर का कोई नही आएगा। यहां गुजरात से कोई खरीदने नही आएगा। 'ए' और 'बी' सब यहीं है। नाम बदलकर सब यही खरीदते है। यह बिल किसानों की स्वतंत्रता छीन लेगा। हमारा कहना है कि एमएसपी को कानून बना दो। अब मक्का 600 ₹ कुंतल बिक रही है जबकि एमएसपी 1600₹ है, आने वाले वक्त में गन्ने के भाव पर भी खतरा हो सकता है !
इससे अलग किसानों में तरह तरह की चर्चा डर और अंदेशा भी है।
राकेश टिकैत - अंदेशा यह है कि अभी तीन बिल और आएंगे। आने वाले टाइम पर पेस्टीसाइड बिल, सीड बिल और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग बिल भी आएंगे। किसान विरोध करेंगे। अब क्या कर सकते हैं ! आने वाले टाइम पर क्या पता क्या होगा। अब ताकत पर बल पर सरकार जो चाहे कर ले।
किसानों के दिल ठेस लगी है !
राकेश टिकैत- सरकार को क्या फर्क पड़ता है इससे । यह आर्थिक युग है। दिल पर ठेस क्या। यह तो किसानों की रोजी रोटी पर चोट लग गई है। इससे किसानों की रोजी रोटी पर संकट आएगा। उनके बच्चों के भविष्य पर संकट आएगा। उनका हिसाब किताब गड़बड़ा जाएगा। किसानों को नुकसान होना शुरू हो जाएगा। तो किसान रियेक्शन करेगा। जल्दी करेगा।
कैसा रिएक्शन और कब?
राकेश टिकैत: अब धान की फसल आने वाली है, एक महीने बाद। पंजाब और हरियाणा पूरा बर्बाद होने की कारण कगार पर है। फसल बिकने पर आएगी तो आंखे खुलेगी, अभी कुछ बंद है, सारी खुल जावेंगी, किसान क्रांति आने वाली है, बहुत जगह से आवाज़ उठ रही है। किसानों को आंदोलन को तेज करना पड़ेगा। यह बिल उनके हित मे नहीं है। किसान जाग जावेगा तो ये सरकार भागती पावेगी। (navjivan)
कृषि सुधार विधेयक को लेकर किसान क्यों नाराज है, इस बारे में जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत से बात की
- Shagun Kapil
भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के प्रवक्ता राकेश टिकैत ने बताया कि कृषि सुधार विधेयक, 2020 के विरोध में देशभर के किसान आगामी 25 सितम्बर को सभी जिला मुख्यालयों में धरना-प्रदर्शन और चक्का जाम करेंगे। उन्होंने कहा है कि देश की संसद के इतिहास में पहली दुभार्ग्यपूर्ण घटना है कि अन्नदाता से जुड़े तीन कृषि विधेयकों को पारित करते समय न तो कोई चर्चा की और न ही इस पर किसी सांसद को सवाल करने का अधिकार दिया गया। उनका तर्क है कि मंडी के बाहर खरीद पर कोई शुल्क न होने से देश की मण्डी व्यवस्था समाप्त हो जाएगी। सरकार धीरे-धीरे फसल खरीदी से हाथ खींच लेगी। वह कहते हैं कि किसानों को बाजार के हवाले छोड़कर देश की खेती को मजबूत नहीं किया जा सकता। डाउन टू अर्थ ने इन सभी मुद्दों पर उनसे बातचीत की।
प्रश्न- राज्य सभा में तीन कृषि सुधार बिल गत 20, 2020 को किए गए। केंद्र सरकार का कहना है कि इन कानूनों से मंडियों और अढ़तियों के एकाधिकार से किसानों को मुक्ति मिलेगी। वास्तव में सरकार को कितनी चिंता है किसानों की?
टिकैत- देखिए हमारी सबसे बड़ी चिंता यह है कि मंडियों और बाहर के लेनदेन अलग-अलग होंगे। जबकि मंडी शुल्क लगाएगी और बाहर कोई कर या बाजार शुल्क नहीं लगेगा। इससे मंडी व्यवस्था धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी। यहां देखा जाए तो सरकार सीधे कृषि उपज मंडी समितियों को समाप्त नहीं कर रही है। हालांकि यह ध्यान देने वाली बात है कि मंडी प्रणाली न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित करती है, जो धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा।
प्रश्न- केंद्र सरकार का कहना है कि समर्थन मूल्य जारी रहेगा, यही नही यह बात प्रधानमंत्री ने भी कही है, ऐसे में किसान क्यों नहीं उन पर विश्वास कर पा रहे हैं?
टिकैत- हम बार-बार सरकार से यह बात कह रहे हैं कि एमएसपी को अनिवार्य बनाते हुए बिल में इतना संशोधन किया जाए कि कीमत नीचे होने पर खरीदना गैर कानूनी हो। यदि प्रधानमंत्री कहते हैं कि एमएसपी रहेगा तो इसे कानून के अंतर्गत लाने में क्या मुश्किल है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक बार बड़े कारपोरेट और निजी कंपनियां बाजार में प्रवेश करते हैं तो वे कीमतों पर बोली लगाएंगे। हमारा सरकार से सबसे बड़ा सवाल है कि संसद में बिल पारित करने से पहले सरकार ने बिल से जुड़े देश में किसी भी हितधाकों से परामर्श करना मुनासिफ क्यों नहीं समझा? मेरा कहना है कि जब भूमि अध्यादेश अधिनियम लाया गया था तो इसी भाजपा सरकार की ही नेत्री सुमित्रा महाजन तब स्टैंडिंग कमेटी की चेयरमैन थी तो उन्होंने एक बार नही कम से कम सात से आठ बार किसानों से सलाहमशविरा किया था। ऐसे में अब ऐसी क्या मजबूरी आ गई है सरकार के सामने कि उसने किसानों से जुड़े इस महत्वपूर्ण बिल के संबंध में उनसे बात करना भी गवारा नहीं समझा।
प्रश्न- संसद में पारित किसान बिलों का मुख्य लक्ष्य है कि भारत में कांट्रैक्ट फार्मिंग को कानूनी जामा पहनाना, इससे किसानों के हित पूरी तरह से सुरक्षित होंगे, इस पर आपका क्या दृष्टिकोण है?
टिकैत- कानून के अनुसार कंपनी वाला हो या कोई भी खरीदार, किसान को तीन दिनों के भीतर भुगतान किया जाना चाहिए। और यदि इस भुगतान में देरी होती है तो किसान कैसे इस भुगतान को वसूलेगा और कहां भटकेगा? उदाहरण के लिए गन्ना नियंत्रण आदेश, 1966 के अंतर्गत नियम है कि गन्ने की आपूर्ति के 14 दिन के अंदर बकाया भुगतान किया जाना चाहिए। लेकिन क्या यह नियम जमीनी स्तर पर अब तक लागू हो पाया है? इसका अंदाजा इस एक बात से लगाया जा सकता है कि वर्तमान में किसानों का गन्ना बकाए की राशि 14 हजार करोड़ तक जा पहुंची है। अनुबंध खेती का हमारा पिछला अनुभव बहुत कड़वा रहा है। इसके तहत बताया गया था कि खरीददार उपज की गुणवत्ता को आधार बनाकर अंतिम समय में खरीदने से इंकार कर सकता है। और सबसे बड़ा सवाल है कि इस महत्वपूर्ण मुद्दे की निगरानी करने वाला कौन है? हालांकि सरकार का तर्क है कि इस संबंध में किसान कानूनी रास्ता अपना सकते हैं। लेकिन क्या आपको लगता है कि इस बात के लिए देश के लाखों किसानों के पास समय और संसाधन है?
प्रश्न- किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) का कहना है कि मंडियों के बाहर किसानों को बेहतर मोलभाव करने का अवसर मिलेगा और इससे छोटे किसानों का शोषण से बचाव संभव होगा। लेकिन हमारे एफपीओ अभी भी नवजात अवस्था में हैं। नए ढांचे में वे कितने कुशल हैं?
टिकैत- एफपीओ को अभी भी पूरी तरह से प्रभावी नहीं माना जा सकता है। वर्तमान समय में वे कई मामलों में उन्हें किसान समूहों की तरह नहीं चलाया जाता है। हां एफपीओ को केवल एक छोटे व्यापारी के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। जिसके तहत एक व्यक्ति एफपीओ बनाता है और कुछ और लोगों को समूह में शामिल करता है। एक तरह से यह एक व्यक्ति का एक लाभदायक व्यवसाय मात्र बन कर रह गया है। यही नहीं मैं यहां यह भी बताना चाहूंगा कि हमारे उत्तर भारतीय राज्यों में तो बहुत अधिक एफपीओ हैं भी नहीं। लेकिन हां इसे सरकार का एक अच्छा कदम कहा जा सकता है, लेकिन यह देखने वाली बात होगी कि इस प्रणाली के लाभ हमें कुछ सीलों में ही ज्ञात होंगे।(downtoearth)
डॉ. इलीना सेन का यह इंटरव्यू मैंने 9 साल पहले किया था। इलीना कल कैंसर से जंग हार गई लेकिन अपने मूल्यों आदर्शों के प्रति बेहद प्रतिबद्ध इलीना बराबरी के समाज की मांग को लेकर आखिरी सांस तक डटी रही। यह इंटरव्यू बिनायक सेन की गिरफ्तारी के तत्काल बाद लिया गया है और इलीना के व्यक्तित्व को जानने समझने का मौका देता है।
-आवेश तिवारी
जनतंत्र में बहुत गलतियाँ होती हैं सालों बाद पता लगता है कि किसी के साथ नाइंसाफी हुई है अगर हमारे साथ ऐसा हुआ तो ये मान लेना कि इसमें जनता का हित जुड़ा है। ‘ये शब्द बिनायक सेन ने जेल जाने से पहले अपनी पत्नी इलिना को कहे थे। इलीना बिनायक के साथ, अराजकतावादी राज्य और साम्राज्यवादी अदालतों के निर्णयों के खिलाफ लगातार संघर्ष कर रही है वो हारी नहीं है ना आगे हारने वाली है। जब वे कहती हैं कि हम लड़ेंगे ,हम जहाँ तक ले जा सकेंगे ले जायेंगे जीतेंगे या नहीं जीतेंगे हम नहीं जानते तो इन शब्दों में उनका अदम्य साहस नजर आता है। सुनिये पूरी बातचीत
आवेश-इलीना आप अदालत के फैसले को किस तरह से देखती हैं ?
इलीना- बिनायक ने पैसे और सारी चीजें छोडक़र गरीबों-आदिवासियों के लिए काम किया, उनके ऊपर ऐसा आरोप लगाना कि वो देशद्रोही है गलत हैं। उन्होंने हमेशा देश के लिए काम किया, मेरे और मेरे पति के लिए देश का मतलब देश की जनता हैं। आश्चर्य ये है कि चोर, लूटेरे, गेंगेस्टर खुलेआम घूम रहे हैं, और बिनायक सलाखों के पीछे हैं।
आवेश-आपके पति को जिस कानून के तहत उम्रकैद की सजा सुनाई गयी वो देश का ही कानून है, आप हिंदुस्तान में लोकतंत्र को कितना सफल मानती हैं?
इलीना-विकास के दौर में गरीबी और अमीरी की खाई लगातार बढ़ी है, संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में साफ तौर पर कहा गया है कि इस खाई को खत्म करने की कोशिश की जायेगी, लेकिन आजादी के साथ सालों बाद भी ये खाई निरंतर गहरी होती जा रही है, आज देश में विशाल माध्यम वर्ग है जिसके हाथ में पूरा बाजार हैं लेकिन जितना विशाल माध्यम वर्ग है उतना ही बड़ा वो वर्ग है जो बाजार तक नहीं पहुँच पाता ये लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा हैं। बिनायक सेन का मामले ने एक और नए खतरे को दिखाया वो खतरा देश में अदालतों और प्रशासन की मिलीभगत से पैदा हो रहा है, कई बार झूठे मामले बनाये जा रहे हैं और फिर अपनी नाक बचाने के लिए लगातार झूठ को सच बनाने का खेल खेलने में लग जाते हैं और फिर वो अपनी झूठी दलीलों से अदालतों को भी प्रभावित करने लगते हैं, जैसा बिनायक सेन के मामले में हुआ।
आवेश- छत्तीसगढ़ में बिनायक सेन की गिरफ्तारी हुई, उत्तर प्रदेश में सीमा आजाद की गिरफ्तारी होती हैं, वहीं दूसरी तरफ अरुंधति रॉय छत्तीसगढ़ के जंगलों में जाती हैं, नक्सली हिंसा का समर्थन करती हैं, उनका इंटरव्यू छपता है, क्या आपको लगता है राज्य माओवाद के सम्बंध में दोहरे मापदंड अपना रहा हैं ?
इलीना- सीमा आजाद को मैं अखबारों के माध्यम से ही जानती हूँ, फिर भी कहूँगी चाहे बिनायक सेन हों या सीमा आजाद, साजिशन की जा रही कार्यवाहियां लोकतंत्र के लिए खतरनाक हैं। जहाँ तक अरुंधति का सवाल है मैंने उन्हें पढ़ा हैं कहीं-कहीं अरुंधति और बिनायक सेन के विचारों से समानता हो सकती है, लेकिन विचारों में अंतर भी है, हर व्यक्ति के विचारों में ये विभिन्नता है हमें विचारों का समान करना चाहिए, हम काला सफेद देखने लगते हैं कि क्या काला है क्या सफेद है, ऐसा नहीं होना चाहिए।
आवेश- मैं देश के कई विश्वविद्यालयों में गया, युवा पीढ़ी विनायक को अपना आदर्श मानने लगी है उनकी गिरफ्तारी को लेकर प्रदर्शन हो रहे हैं आन्दोलन हो रहे हैं, आप बिनायक को कितना साहसी मानती हैं ?
इलीना- मेरे हिसाब से बिनायक साहसी जरुर है कई बार उन्होंने लोकप्रिय बातें न कहकर वो बातें कहीं जो कड़वी लेकिन आम आदमी के हित की बात कही,जो उन्हें सही लगा उन्होंने बोला ये बात अलग है कि आप उनकी बात से सहमत और असहमत हों।
आवेश-आपको क्या लगता है कि छत्तीसगढ़ में अघोषित आपातकाल की स्थिति हैं?
इलीना- इसे हम घोषित आपातकाल कहेंगे
आवेश-आपको क्या लगता है कि बार-बार सरकार आपके पति को ही निशाना क्यूँ बना रही है, केंद्र सरकार की भी इस कार्यवाही में मूक सहमति है।
इलीना- दो दिन पहले हमारे डीजीपी ने कहा कि सारे एनजीओ शक के दायरे में है उन्होंने कहा कि पीयूसीएल पर प्रतिबन्ध लगाएगी तो जनता लगाएगी, जनता के बारे में इस तरह के ब्यान देना बेहद खतरनाक है कुछ दिनों पहले संदीप पांडे और मेधा पाटेकर शान्ति का पैगाम लेकर दंतेवाड़ा गए थे वहां उन पर अंडे और टमाटर फेंके गए थे, जब वो गए थे तो राज्य के मंत्रियों ने कहा कि इनके लिए हम कुछ नहीं कहेंगे इनका फैसला जनता करेगी। ये बातें मुझे विचलित करती हैं कि वो कौन सी जनता है और उसे क्या इशारा किया जा रहा, ये साफ है कि वो पीयूसीएल के खिलाफ जनता को सन्देश दे रहे हैं।
आवेश-आपको क्या लगता है वो कौन सी जनता है ?
इलीना- वो उस जनता के बारे में बात कर रहे हैं जो उनके इशारे पर कुछ भी करने को तैयार हो।
आवेश-जेल जाने से पहले बिनायक सेन ने आखिरी बात क्या कही ?
इलीना- मेरी मुलाकात उनसे 26 को हुई थी जब कोर्ट ने ये खेदपूर्ण निर्णय सुनाया, अब चुकी सजा हो चुकी है मुझे 15 दिन में सिर्फ एक बार मिलने दिया जायेगा, मैंने उनसे कहा कि हम लड़ेंगे, हम जहाँ तक ले जा सकेंगे ले जायेंगे जीतेंगे या नहीं जीतेंगे हम नहीं जानते। इस पर बिनायक ने कहा कि जनतंत्र में बहुत गलतियाँ होती हैं सालों बाद पता लगता है कि किसी के साथ नाइंसाफी हुई है अगर हमारे साथ ऐसा हुआ तो ये मान लेना कि इसमें जनता का हित जुड़ा है।
आवेश-क्या आपको लगता है कि हिंदुस्तान में जनता और मीडिया आदालतों के फैसलों की आलोचना करने से डरती हैं, अदालतें साम्राज्यवाद का प्रतीक बन गई है ?
इलीना-अदालती व्यस्था ने जो इस केस में भूमिका अदा की वो बेहद चिंताजनक है कानून की मौलिक समझ भी इस फासिले में नहीं दिखती, बिनायक के खिलाफ फैसला सुननाने वाले जस्टिस वर्मा पहले वकील थे जो एक परीक्षा पास करके जज बन गए मुझे भी लगता ये कि लोकतंत्र है कोई राजशाही नहीं कि हम फैसलों के खिलाफ आवाज न उठा सके, मुझे लगता है कि अदालतों के निर्णयों के मामले में भी अगर जनता सवाल कर रही है तो गलत नहीं कर रही है।
कहा- देश की बहुरंगी संस्कृति को खत्म कर रही है मोदी सरकार
महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तिजा ने जम्मू -कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने के बाद वहां के हालात पर विस्तार से बात की। उन्हें केंद्र की बीजेपी सरकार से गहरी शिकायत है। उन्होंने इस बात पर गहरा अफसोस जताया कि जिस राज्य में पहले प्रधानमंत्री होता था, उसके स्तर को मोदी सरकार ने इतना नीचे तक गिरा दिया। वह साफ कहती हैं कि मोदी सरकार देश की बहुरंगी सभ्यता और संस्कृति को खत्म करती जा रही है। आज उस व्यक्ति के लिए आजादी का कोई मतलब नहीं रह गया है जिसके विचार बीजेपी के विचारों से मेल नहीं खाते हों। नवजीवन संवाददता ऐशलिन मैथ्यू से बातचीत के आधार पर इल्तिजा मुफ्ती का लेख
मेरी मां अब भी सार्वजनिक सुरक्षा कानून (पीएसए) के अंतर्गत घरमें नजरबंद हैं। हमारे घर को उप-जेल में बदल दिया गया है। किसी को यह एक मामूली घटना लग सकती है लेकिन ऐसा नहीं है। किसी को भी आने की अनुमति नहीं है। मां को किसी से मिलने की इजाजत नहीं है, यहां तक कि अपने परिवारवालों से भी नहीं। अगस्त, 2019 से मैं रोजाना एक कपटी सत्ता से लड़ रही हूं। एक ऐसी सत्ता जिसने एहतियात बरतना छोड़ दिया है और वह कानून की परवाह नहीं करती। उनके पास किसी भी तरह का नैतिक या कानूनी संयम नहीं है।
अगर आप देखें तो यही पाएंगे कि इस देश में व्यक्तिगत स्वतंत्रता अब इस बात पर निर्भर करने लगी है कि आप बीजेपी से सहमत हैं या नहीं। और यह केवल राजनेताओं का ही नहीं, बल्कि पत्रकारों का भी सच है। अगर आप उनकी लाइन पर चलते हैं तो आपको विज्ञापन, प्रायोजक और पैसे सब मिलते हैं। इस देश में वे असुरक्षा और भय का माहौल बना रहे हैं।
वे नहीं चाहते कि नेता वह करें जो वे कर रहे हैं। मेरी मां एक नेता हैं और आदर्श रूप से उन्हें लोगों से मिलना चाहिए और घाटी के लोगों को जो महसूस हो रहा है, उसे समझना चाहिए। लेकिन वह लगभग एक साल से लोगों के सामने नहीं आई हैं। अगर आप उनकी विचारधारा को स्वीकार नहीं करते हैं तो वे आपको हिरासत में ले लेंगे या आपको ब्लैकमेल करेंगे। सरकार ने उन्हें सहमत करने और अनुच्छेद-370 को खत्म करने के फैसले का समर्थन करने के लिए उन पर तमाम तरह के दबाव डाले। हर तरह का दबाव जिसमें उनकी पार्टी में विभाजन से लेकर पिछले एक साल के दौरान उन्हें तरह-तरह के तरीके से व्यक्तिगत रूप से अपमानित करना भी शामिल रहा। फिर भी मेरी मां ने अपने लोगों की गरिमा के लिए लड़ने का संकल्प नहीं छोड़ा है और वह लड़ना जारी रखेंगी।
महबूबा मुफ्ती
कश्मीरियों के लिए यह एक सामूहिक त्रासदी है, एक सामूहिक दंड और इसके बाद गुस्से और चिंता का भाव। लोग वक्त के साथ चलते चले जा रहे हैं। उन्हें नहीं पता, वे किधर जा रहे हैं। पिछला वर्ष अविश्वसनीय रूप से कठिन रहा है। जब कोई सरकार आपको भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक रूप से तोड़ने की कोशिश कर रही होती है तो इसका असर तो आप पर पड़ता ही है। संसद में वे कहते हैं कि फिलहाल उन्होंने इस राज्य को केंद्र शासित प्रदेश बनाया है लेकिन बाद में उसे उचित वक्त पर फिर से राज्य बना दिया जाएगा। यह सब बीजेपी अपनी सुविधा के मुताबिक करेगी। जम्मू में जो बीजेपी के वोटर हैं, वे भी बीजेपी नेतृत्व से बेहद परेशान हैं और बीजेपी इस बात को बखूबी जानती है। वे उन्हें नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकते क्योंकि ऐसा करके वे कश्मीर में कभी नहीं जीत पाएंगे। राज्य का दर्जा ऐसी बात है मानो किसी व्यक्ति का पैर काटकर उसे जूते पेश करो।
उन्होंने हमसे सब कुछ ले लिया है- एक ऐसे राज्य से जिसका कभी अपना प्रधानमंत्री हुआ करता था। हमें उस स्थिति से नीचे गिराया गया है। हमें राज्य के दर्जे के लिए क्यों गिड़गिड़ाना चाहिए? वे हम पर कोई उपकार नहीं कर रहे हैं। वे जानते हैं कि पिछले एक साल के दौरान राज्य में कोई विकास नहीं हुआ है। अनुच्छेद-370 का ‘ विकास’ से कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने हमें सिर्फ और सिर्फ अपमानित किया है, इसके अलावा कुछ भी नहीं।
भारत में आज स्थिति इतनी खराब है कि लोग नया अंडरवियर भी नहीं खरीद सकते हैं। इनकी नीतियों ने देश के बाकी हिस्सों में लोगों को भिखारी बनाकर रख दिया है। कश्मीर में बिहार समेत देश के अन्य हिस्सों से लोग बेहतर वेतन पाने के लिए काम करने आते हैं। एक ऐसे राज्य में जो ज्यादातर सूचकांकों पर काफी अच्छी स्थिति में है, वे लोग कौन-सा विकास लाना चाहते हैं? हम बीजेपी के विकास के मॉडल को नहीं चाहते हैं। उनका मॉडल उन्हें ही मुबारक!
यह सरकार वास्तव में एक मजाक है। उसने सर्वोच्च न्यायालय से कहा है कि वे आतंकवाद के कारण यहां 3-जी सेवा बहाल नहीं कर सकते। लेकिन न्यायपालिका को क्या हो गया है? उसने अपनी आंखें बंद कर रखी हैं और रेत की आंधी में शुतुरमुर्ग की तरह व्यवहार कर रहे हैं। लेकिन बीजेपी ने अब आतंकवाद के कम होने को लेकर गाल बजाना बंद कर दिया है क्योंकि उनके अपने जिला अध्यक्ष को भारी सुरक्षा के बावजूद इस महीने के शुरू में बांदीपुरा में गोली मार दी गई थी। आप जो भी कह लें, यहां घुसपैठ बढ़ी है।
वे महामारी के इस दौर के बीच कश्मीर में नए डोमिसाइल कानून को आगे बढ़ा रहे हैं। कोविड पूरी दुनिया में निरंकुश सत्ताओं के लिए एक वरदान के रूप में आया है। भारत कागज पर एक लोकतंत्र हो सकता है लेकिन हकीकत यह है कि हम एक बहुसंख्यकवादी शासन की ओर बढ़ रहे हैं जो हम पर एक धर्म, एक भाषा और एक संस्कृति को थोपना चाहता है। हमारे जैसे विविधता वाले देश में यह सब नहीं चलने वाला, इसका नतीजा उल्टा होगा।
मुझे लगता है कि एक देश के रूप में हमने अपनी पहचान खो दी है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अब कश्मीर एक त्रि-पक्षीय मुद्दा बन गया है। कश्मीर के बारे में अपने तरीके से बातें फैलाने की उनकी कोशिशें भी सफल नहीं हुई हैं। कश्मीर एक अप्रत्याशित जगह है। सब कुछ ऊपर से शांत दिखेगा और हर किसी को यही लगेगा कि यहां के लोगों पर इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता और फिर अचानक कुछ ऐसा हो जाएगा जो लहरों की तरह प्रतिक्रियाओं को बढ़ाता चला जाएगा।(navjivan)
मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने आज एक जोरदार आह्वान किया, ‘जिस किसी को मेरी सरकार गिरानी हो वो आज ही गिराए! अभी, इस साक्षात्कार के दौरान ही गिराए। फिर देखता हूं मैं!’ मुख्यमंत्री ठाकरे के ‘सामना’ में प्रकाशित हो रहे साक्षात्कार ने कई मुद्दों का खुलासा किया और अनेक मुद्दों पर पड़ी धूल हट गई। महाराष्ट्र की अर्थव्यवस्था डगमगा गई है। लेकिन उसमें से मार्ग निकालेंगे, ऐसा विश्वास मुख्यमंत्री ने व्यक्त किया। मंत्रालय, सचिवालय नहीं हुआ है। नौकरशाही सरकारी आदेशों का ही पालन कर रही है, ऐसा उन्होंने दृढ़ता से कहा। उद्धव ठाकरे ने एक सच खुले मन से स्वीकार किया। सरकार तीन पहिया ही है। रिक्शा ही है वो गरीबों का। स्टेयरिंग मेरे हाथ में, लेकिन पीछे दोनों बैठे हैं!
मेरी सरकार का भविष्य विपक्ष के हाथों में नहीं, ऐसी गर्जना ही मुख्यमंत्री ने की।
उद्धव ठाकरे से अनेक विषयों पर चर्चा जारी ही रही। राज्य की अर्थव्यवस्था ठीक नहीं। यह संकट बड़ा है, मेरे ऐसा कहते ही मुख्यमंत्री ने तड़ाक से कहा, ‘ये संकट तो पूरे विश्व पर है!’
मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का सोमवार, २७ जुलाई को जन्मदिन है। शिवसेना के युवा नेता के रूप में राजनीति में कदम रखनेवाले उद्धव ठाकरे कल उम्र के ‘साठ’वें में पदार्पण कर रहे हैं। साक्षात्कार की शुरुआत में ही उन्हें शुभकामना दी!
ऐसे हुई साक्षात्कार की शुरुआत…
करोड़ों लोगों को रोजगार देनेवाला यह राज्य है। इस राज्य की ही अर्थव्यवस्था डगमगा गई तो देश डगमगा जाएगा…
– इससे पहले मैंने उल्लेख किया कि प्रधानमंत्री मोदी ये समय-समय पर वीडियो कॉन्प्रâेंसिंग के माध्यम से देश के सभी मुख्यमंत्रियों से संवाद साधते हैं। इनमें से पहले या दूसरे संवाद में उन्होंने कहा था कि आप सभी ऐसी कोई योजना घोषित न करें कि जिसके कारण भविष्य में हमें कोई परेशानी हो। सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में बेवजह छूट दी, माफी दी, ऐसी घोषणा मत करो। जैसे आपकी आर्थिक परिस्थिति कठिन है, वैसी ही हमारी यानी केंद्र सरकार की भी है। ये सत्य ही है कि यह वैश्विक परेशानी है। परंतु इस पूरे काल में हम सब मिलकर परिस्थिति सुधारने का प्रयास कर रहे हैं।
इसका उपाय क्या? उत्पादन और उद्योग बढ़ाना यही!
– हमने बीच में कुछ निवेश करार भी किए हैं। विश्वस्तरीय बड़ी कंपनियों के साथ हमने ‘एमओयू’ किया, निवेश करार किया। इसके अनुसार करीब १६ हजार करोड़ रुपए का निवेश महाराष्ट्र में आ रहा है। पूरे देश में रिवर्स गेयर डालने जैसी स्थिति होते हुए यह निवेश हमारी तरफ आ रहा है। इसलिए एक बात तो तय है कि सब कुछ खत्म हो गया या होनेवाला है, ऐसा मानने की कोई वजह नहीं। यह काल आपदा का है। चुनौतीभरा है। इससे निकलना जरूरी है। इसमें एक-दूसरे को संभालना बहुत जरूरी है। हम प्रयास कर रहे हैं। उद्योग-धंधे फिर से शुरू होनेवाले हैं। पचास हजार के आस-पास उद्योग राज्य में शुरू भी हो गए हैं। विशेषत: मुंबई और पुणे यह जो पट्टा है। सघन आबादी होने के कारण यहां कोरोना का प्रकोप बड़ा है। यहां यह महत्वपूर्ण औद्योगिक बेल्ट होने के कारण बंद या लॉकडाउन हम कर रहे हैं। लेकिन महाराष्ट्र में जब ग्रीन, ऑरेंज और रेड ऐसी श्रेणी थी, उस समय मतलब मई महीने के मध्य में या आखिर होगा, हमने ऑरेंज जोन में थोड़ी शिथिलता लाने का प्रयास किया। ऑरेंज यानी किसी जिले के किसी एक भाग में ही केसेस हैं, शेष मुक्त है, ऐसा भाग। ऐसे भाग में हमने उद्योगधंधे शुरू करने की सहूलियत दी। ग्रीन जोन में तो कोई भी परेशानी नहीं थी, वहां उद्योग शुरू हो गए हैं।
सरकारी काम भी बंद होने का दृश्य है। सच है क्या?
– यह पूर्णत: सच नहीं, सरकारी काम भी शुरू हैं। आपको बताता हूं, सड़कों की, बांधों की, कोस्टल रोड हुए, ग्रामीण भाग में कोई परियोजना हुई, कपास खरीदी हुई ये काम रुके नहीं। दूध खरीदी शुरू है। दूध खरीदी तो हम ३१ तारीख तक कर रहे हैं। मकई की खरीदी भी हो रही है। जिनके बीज बोगस निकले, उनकी हम नुकसानभरपाई भी करवा रहे हैं। ये सब हम कर रहे हैं। इसमें एक महत्व का मुद्दा ध्यान में रखें, संकट है इसलिए हम हाथ पर हाथ रखकर स्वस्थ नहीं बैठे हैं। साधारणत: १६ हजार करोड़ के ‘एमओयू’ अपने राज्य ने हस्ताक्षर किए हैं। एमओयू यह प्राथमिक अवस्था है। उसके बाद आगे की बातचीत अब शुरू है और इससे परे भी और कुछ हजार करोड़ के एमओयू यानी पूर्ण रूप से नए निवेश आ रहे हैं।
‘एमओयू’ पर कितना विश्वास रखते हैं आप? इससे पहले की सरकार में भी उद्योगमंत्री हमारे ही थे। उस समय भी ऐसे ही एमओयू हुए थे, लेकिन उनमें से कोई निवेश यहां आया नहीं…
– एक बात ध्यान में रखें, सिर्फ अकेला उद्योगमंत्री आपका होने से नहीं चलता। तुम्हारे सरकार की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है और उस समय मैंने पहले उल्लेख किया। वैसे ये निवेश के करार होने के दौरान नोटबंदी आ गई। एक प्रकार की अनिश्चितता निर्माण हो गई। ऐसी नीतियों की अनिश्चितता हो तो निवेश आएगा नहीं।
अब क्या स्थिति है?
– अब मैं अपने राज्य के लिए कहूंगा कि अब नीतियों में अनिश्चितता नहीं। हम कई चीजें इस काल में भी कर रहे हैं। इसके अलावा ये सुविधाएं हम अपना कुछ गिरवी रखकर कर रहे हैं ऐसा नहीं है, लेकिन कुछ बातें हम जान-बूझकर कर रहे हैं। मतलब भूमि अधिग्रहण के नियम आसान हो, ईज ऑफ डुइंग बिजनेस हो, ये सभी चीजें हम कर रहे हैं और ये जो एमओयू किए गए हैं, उसे अमल में लाने की जिम्मेदारी अपनी ही सरकार की है और सरकार वैसा अनुकूल वातावरण तैयार कर रही है। निवेशकों में जो विश्वास चाहिए वो पैदा किया जा रहा है। उससे ही निवेश आएगा यह निश्चित है। इन निवेशों के आने के दौरान पहले से जो उद्योग धंधे हैं, उन्हें तो हमने गो अहेड दे दिया है। वे काम शुरू कर रहे हैं। हालांकि जहां
लॉकडाउन नहीं, वहां फिर से कोरोना का दुष्प्रभाव पाया गया तो न चाहते हुए भी दोबारा लॉकडाउन करने का निर्णय लेना पड़ेगा। अर्थात यह अस्थायी विकल्प है। इसलिए सब कुछ समाप्त हुआ ऐसा समझने की जरूरत नहीं। मैं बिल्कुल निराशावादी नहीं और मैं किसी को निराशावादी होने नहीं दूंगा।
आपके नेतृत्व में सकारात्मक कार्य हो रहे हैं, राज्य को ऊर्जा मिल रही है। ये सभी बातें लोगों ने स्वीकार की हैं…
– एक उदाहरण देता हूं। एक शब्द है संयम।
जो आपके बारे में हमेशा इस्तेमाल किया जाता है…
– बताता हूं। मेरा मुद्दा अलग है। इन शब्दों का भी खेल है। एक अक्षर से भी फर्क पड़ता है। शिवसेनाप्रमुख कहते थे, अक्षर अक्षर जोड़कर शब्द बनता है और उन शब्दों का मंत्र होता है। शब्दों से गीत भी बनता है और गाली भी। अब संयम का उदाहरण लो। इस संयम में से ‘सं’ निकाल दें तो क्या होगा?
यम होता है…
– फिर क्या चाहिए, आप तय करो। संयम चाहिए कि यम, तय करो।
देश और महाराष्ट्र की राजनीति में उद्धव ठाकरे यानी संयम ये समीकरण है।
– मुझमें आत्मविश्वास है, जो काम हाथों में लिया, उसे मैं पूरा करके ही दिखाऊंगा।
लेकिन पिछले पांच वर्षों में जो सरकार थी, उस सरकार में आप भी थे। इस काल में वेंâद्र हो, राज्य हो, मेक इन इंडिया, स्टार्टअप फेल हो गया…
– उस समय भी ‘सामना’ ने मेरा साक्षात्कार लिया है। उस समय का साक्षात्कार पढ़ो। मेरी उस समय की भूमिका देख पाएंगे।
स्टार्टअप, मेक इन इंडिया, उसके बाद एमओयू हुआ। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा कोई भी एमओयू आखिर तक प्रत्यक्ष साकार नहीं हुआ…
– ये निर्भर होता है उन उन सरकार की नीतियों पर। केवल उत्सवप्रियता हो तो कुछ होगा नहीं। अब महाविकास आघाड़ी के साथी साथ हैं। वे सकारात्मक हैं। शरद पवार साहब हैं। कांग्रेस की सोनिया जी हैं। इसके अलावा कांग्रेस के अन्य नेता लोग भी हैं। इन सभी के साथ तीनों दलों के अनुभवों से जो समझदारी आई है वो समझदारी अब हम अपने काम में दिखा रहे हैं। अब तक पीछे मुड़कर देखने पर अपने से क्या रह गया है, इसका भी विचार आता है। पार्टी का लेबल लगाकर मैं देखता नहीं। सरकार ये सरकार होती है। इस सरकार की ओर से क्या रह गया था, क्या अच्छा हुआ था। इसकी समीक्षा करके हम काम कर रहे हैं और जरूरी बात मतलब (मुस्कुराते हुए) १६ हजार करोड़ के एमओयू का काम भी मैंने घर पर बैठ कर किया है।
हां, हमने देखा वो…
– हां, घर बैठकर ही किया। मैं कहीं भी भटका नहीं। यहां जाओ, वहां जाओ ऐसा कुछ नहीं किया। हमारा जो सिस्टम है, उस सिस्टम में ही काम किया। सिस्टम में ही काम करते हैं। वीडियो कॉन्प्रâेंसिंग द्वारा इन निवेशों के संदर्भ में हमने बैठकें की, चर्चा करके पैâसले लिए। विदेश के लोग उनके देश से शामिल हुए थे। अपने कुछ लोग यहां से शामिल हुए। मैंने घर से हिस्सा लिया। सुभाष देसाई और सभी सहयोगी मंत्रालय से शामिल हुए।
इन निवेशों में चीन का निवेश कितना…
– चीन का निवेश कितना, इससे ज्यादा चीनी निवेश हमारे देश में होनी चाहिए या नहीं, ये जरूरी है। बीच में प्रधानमंत्री मोदी ने चीन के बारे में वीडियो कॉन्प्रâेंसिंग की थी, तब उसमें मैंने पूछा था कि आप देश की एक नीति तय करो। मेरी आज भी यह अग्रणी मांग है।
आपकी सटीक भूमिका क्या है इस विषय पर?
– अपने यहां क्या होता है कि पाकिस्तान के साथ संबंध अगर तनावपूर्ण हुआ तो फिर पाकिस्तान मुर्दाबाद । पाकिस्तान के साथ कोई भी संबंध नहीं चाहिए। उनके साथ खेल नहीं, ये नहीं, वो नहीं। और जब माहौल ठंडा हुआ कि भूमिका बदल जाती है। फिर खेल और राजनीति आप एक साथ मत लाओ। यह सब बौद्धिक ज्ञान दिया जाता है। लेकिन जब बात तनाव की हो तब आपकी भूमिका ‘खबरदार’, अगर ये किया तो…’ ऐसी रहती है। फिर वो खिलाड़ी भी नहीं चाहिए, कलाकार भी नहीं चाहिए, कोई उद्योग भी नहीं चाहिए। वैसा चीन के संदर्भ में होना नहीं चाहिए। आप चीन के संदर्भ में एक बार तय करो, वस्तु तो छोड़ो ही, पर उद्योग धंधे हमें लाना है कि नहीं लाना है। ये देश की नीति होनी चाहिए। राष्ट्रभक्ति यह सभी देशों की एक जैसी होनी चाहिए। मेरी है। हमने ये सभी करार होल्ड पर रखे हैं। नहीं चाहिए तो वापस भेज देंगे, लेकिन कल आप ‘हिंदी-चीनी भाई भाई’ कहकर चीन के प्रधानमंत्री को घुमाओगे तो यह मौका हम गंवाए क्यों? और गंवाना है तो एक बार दिशा तय करो, हम आगे बढ़ें।
आप जब मुख्यमंत्री नहीं थे तब भी कुछ परियोजनाओं के मामले में आपने विशेष रूप से ध्यान आकर्षित किया। विशेषकर मुंबई का कोस्टल रोड। फिलहाल वर्तमान की अर्थव्यवस्था का विचार करते हुए एक प्रश्न मन में आ रहा है कि कोस्टल रोड होगा कि नहीं?
– काम शुरू है। जोरों में शुरू है। कोस्टल रोड का काम कहीं भी रुका नहीं है। हमने उसके लिए पैसों का नियोजन कर रखा है।
बुलेट ट्रेन की जरूरत नहीं, ऐसा आपने भी कहा था। शरद पवार ने भी कहा था। बुलेट ट्रेन का अपने राज्य को फायदा न होने से अपने राज्य को निवेश करना योग्य नहीं। फिर भी महाराष्ट्र में ६० फीसदी जमीन का अधिग्रहण हो गया है अब तक। ऐसे में बुलेट ट्रेन का सही मायने में भविष्य क्या है?
– हर कहानी का केवल एक ही पहलू नहीं होता। कई पहलू होते हैं। इसमें हमें स्थानीय लोगों का विचार करना बहुत महत्वपूर्ण है। राज्य को बुलेट ट्रेन की आवश्यकता होगी तो मैं कहूंगा, मेरे मुंबई-नागपुर को जोड़नेवाली बुलेट ट्रेन दो। मेरी राजधानी और उपराजधानी को जोड़नेवाली ट्रेन दो। जिसके कारण विदर्भ के मन में कारण न होते हुए भी जो दूरी बनाने का प्रयास किया जा रहा है, वह दूरी नष्ट होगी। जैसे समृद्धि महामार्ग बन रहा है, उसे अब शिवसेनाप्रमुख का नाम दिया है। उसी तरह मुंबई-नागपुर को जोड़नेवाली बुलेट ट्रेन दो। मुझे खुशी होगी।
मुंबई-सूरत बुलेट ट्रेन का क्या…
– उसकी अब कोई जरूरत नहीं लेकिन भूमि अधिग्रहण करते समय जिन्होंने विरोध किया है उनके पीछे शिवसेना… शिवसेना पार्टी के रूप में मजबूती से खड़ी है। सरकार के तौर पर जो कुछ करना है वह निर्णय हम लेंगे ही लेकिन जिन-जिन का विरोध है, उनके पीछे शिवसेना है। अब कुछ लोगों ने खुद से जमीन दी है तो हम क्या करें…
बुलेट ट्रेन होगी की नहीं? ऐसा मेरा सीधा सवाल है। क्योंकि इसमें राज्य सरकार का निवेश है…
– बताता हूं। पहले मैं जमीन का विषय लेता हूं। जिन्होंने खुद से जमीन दी है उनका व्यवहार अब तक पूरा हो गया होगा। लेकिन ग्रामीण भागों के जमीनी स्तर के लोगों का अभी भी विरोध है। जिनके पीछे शिवसेना मजबूती से खड़ी है। जैसे नाणार का विषय है। नाणार का भी सरकार ने करार किया था लेकिन उसे जनता ने नकार दिया। शिवसेना जनता के साथ खड़ी रही। अब सभी को मंजूर होगा तो सरकार करार करेगी। लेकिन बीच के दो-तीन महीने हमारे करोना में चले गए। जिसके चलते सारे विषय पीछे रह गए।
बुलेट ट्रेन का क्या?
– बुलेट ट्रेन हो तो भी बुलेट ट्रेन का विषय बैकसीट पर गया। उस पर किसी भी तरह की चर्चा नहीं हुई है और कोई पूछताछ भी नहीं कर रहा है। इस पर भी अब सरकार राज्य के हितों का विचार करके ही कोई निर्णय लेगी। मेरी भूमिका व्यक्तिगत अलग हो सकती है, जो जनता के हित में होगी, लेकिन राज्य के हित का विषय आया, उस समय इसमें हित है या अहित इसका विचार करना पड़ेगा। मेरा विचार ऐसा है कि सभी को एक साथ बुलाकर हमें ये निर्णय लेने की आवश्यकता है।
सरकार को ढाई सौ, तीन सौ करोड़ रुपए देने की क्या जरूरत है? ऐसा प्रश्न हम सबने मिलकर उपस्थित किया था…
– सही में। ये मेरा मुद्दा आज भी कायम है। लेकिन अब हमारी सरकार होते हुए ‘क्यों?’ को खत्म करने की जरूरत है। ‘क्यों?’ का कोई कारण है क्या? सही में इससे कोई फायदा होनेवाला है क्या, दिखाओ हमें। क्या होगा फायदा? कितना मुंबई से और सूरत से आना-जाना होगा? कितना आर्थिक घटनाक्रम होनेवाला है? ये सरकार में होते हुए मुझे जानकारी मिलने दो। यदि मुझे ठीक लगा तो मैं जनता के समक्ष रखूंगा। लेकिन कोई भूमिका मैंने एकतरफा ली होगी और अब अयोग्य लग रही होगी तो ये परियोजना मैं रद्द कर दूंगा।
आपकी महाविकास आघाड़ी क्या कह रही है?
– ठीक है।
बीच-बीच में नोक-झोंक शुरू ही रहती है…
– नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। एक बात स्वीकारनी चाहिए और उसे मैं स्वीकार करता हूं। पिछले दो-तीन महीनों से फेस-टू-फेस मिलना-जुलना मुश्किल हो गया है। अभी मैंने पढ़ा कि और एक मंत्रालय कोरोना की जद में आ गया। इससे पहले जितेंद्र हों, अशोकराव रहे हों या धनंजय मुंडे ये बीमार हुए थे। ईश्वर की कृपा से वे ठीक हो गए। जितेंद्र तो बहुत ही गंभीर था। ऐसी परिस्थिति में ये मिलना-जुलना थोड़ा-सा मुश्किल हो गया था। इसलिए फोन पर या वीडियो के जरिए मुलाकात होती रहती है। अब हम वैâबिनेट मीटिंग भी करते हैं, अर्थात उसमें थोड़ा विस्तार किया गया है। मतलब कुछ मंत्री जो-जो अपने कार्यालय में या जहां होते हैं वहीं से मीटिंग में बैठते हैं। मैं घर से मतलब ‘मातोश्री’ से हिस्सा लेता हूं। मंत्रालय से कुछ लोग हिस्सा लेते हैं। ऐसा सभी लोग मिलकर वैâबिनेट लेते हैं। क्योंकि एक साथ एक ही जगह पर बैठकर फिलहाल ये संभव नहीं है। जनता को हम कानून बताते हैं और हम ही इसका उल्लंघन करें ये सही नहीं है। इसलिए हम इसका खयाल रखते हैं।
कुछ मंत्रियों का ऐसा आरोप है कि मंत्रालय का सचिवालय हो गया है। मतलब पूर्व के सचिवालय का मंत्रालय क्यों हुआ तो ये राज्य नौकरशाही नहीं चला रहे हैं तो क्या मंत्री चला रहे हैं।
– क्यों क्या हुआ?
मतलब नौकरशाही ही राज्य चला रही है और मंत्रियों को ही नहीं सुना जाता।
– नहीं। वैसा बिल्कुल नहीं है। और पल भर के लिए मान भी लें तो धारावी की प्रशंसा, राज्य की प्रशंसा, सर्वोत्तम मुख्यमंत्री ये प्रशंसा हो रही है। ये प्रशंसात्मक कार्य नौकरशाही ने सरकार का न सुनते हुए किया है क्या? निर्णय लेने का अधिकार सरकार का है ये मान्य, लेकिन इसे अमल में सचिव लाते हैं। अंत में यंत्रणा तैयार करने की हिम्मत तुम्हारे में होनी चाहिए। हर जगह ऑर्डर भी तुम ही दोगे और काम भी तुम ही करोगे, तो ये ऐसी सरकार नहीं हो सकती है।
नागपुर का उदाहरण है। वहां तुकाराम मुंडे मनपा के आयुक्त हैं। उनके और नगरसेवकों के बीच विवाद चल रहा है। इतना ही नहीं उन्होंने केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी से भी पंगा ले लिया है।
– सही है। फिर मेरा इस पर कहना है कि आप इस सचिव तंत्र को कचरे की टोकरी में फेंक दें। मंत्रालय या सचिवालय, यह विवाद क्यों चाहिए? सचिव पद्धति बंद कर दें। पिन टू पियानो अर्थात ए टू जेड ऑर्डर भी आप ही जारी करते हो, काम भी आप ही करते हो, मदद आदि का बंटवारा वगैरह सब आप ही करते हो।
राज्य के मुख्यमंत्री की हैसियत से आप तुकाराम मुंडे के पीछे हैं उस जनता द्वारा नियुक्त मनपा के, जो मुंडे के पीछे हाथ धोकर पड़ गई है?
– आपकी राय क्या है? किसके साथ हैं?
मुझे ऐसा लगता है कि तुकाराम मुंडे के आने से वहां अनुशासन लग गया है।
– फिर मुझे किसके पीछे खड़ा रहना चाहिए…
अर्थात अनुशासन के पीछे खड़े रहना चाहिए।
– फिर ऐसा ही है।
एक अधिकारी कठोर हो सकता है, सख्त हो सकता…
– होगा, लेकिन उसकी सख्ती आप जनता के हित में इस्तेमाल करते होंगे तो बुराई क्या है? उस समय उन्होंने कोई नियम, कुछ कानूनों को सख्ती से अमल में लाया था, कुछ लोगों को ये नागवार लगता होगा। परंतु तुकाराम मुंडे ने कोई बात सख्ती से अमल में लाई होगी तो ऐसे अधिकारी के पीछे सभी को खड़ा रहना चाहिए। आततायीपन कोई भी न करे। अनुशासित किया जाता होगा और जनता के हित की सुरक्षा की जा रही होगी तो बढ़ियां है। अंतत: जनता भी खुली आंखों से ये सब देखती होगी। उनके चेहरे पर मास्क होगा, फिर भी उनकी आंखें खुली हैं। ये भूलकर नहीं चलेगा। इसलिए मैंने पहले भी कहा था कि ये महाराष्ट्र है। इसका धृतराष्ट्र अभी नहीं हुआ है। और न ही हो सकता है।
आघाडी सरकार चलाते समय मर्यादा होती है, ऐसा मनमोहन सिंह हमेशा कहते थे। अटल बिहारी वाजपेयी भी ऐसा ही कहते थे। कई पार्टियां एक साथ होती हैं। उनकी भूमिका अलग होती है। मनमोहन सिंह एक बार हताश होकर बोले थे कि मैं कोई निर्णय नहीं ले सकता हूं। ये आघाडी की सरकार है। मर्यादा होती है। क्या आपका भी ऐसा ही मत है?
– मनमोहन सिंह को प्रशासन का अनुभव था। इसलिए उन्हें मर्यादा का भान था। (मुस्कुराते हुए) मुझे प्रशासन का अनुभव नहीं है। इसलिए मुझे मर्यादा का भान नहीं है।
ये तीन पहियोंवाली सरकार है ऐसा कहते हैं…रिक्शा जैसी।
– हां ना, लेकिन वह गरीबों का वाहन है। बुलेट ट्रेन या रिक्शा में चुनाव करना पड़ा तो मैं रिक्शा ही चुनूंगा। मैं गरीबों के साथ खड़ा रहूंगा। मेरी यह भूमिका मैं बदलता नहीं हूं। कोई ऐसी सोच न बनाए कि अब मैं मुख्यमंत्री बन गया हूं, मतलब बुलेट ट्रेन के पीछे खड़ा रहूंगा। नहीं, मैंने इतना ही कहा कि मैं मुख्यमंत्री होने के नाते सर्वांगीण विकास करूंगा। मेरी राय है कि लोग मेरे साथ होने के कारण बुलेट ट्रेन नहीं, ये तो है ही परंतु अभी भी सर्वमत से बुलेट ट्रेन नहीं चाहिए होगी तो मैं नहीं करूंगा। इसलिए ३ पहिया तो ३ पहिया… वह एक दिशा में चलती है ना। फिर आपका पेट क्यों दुखता है! केंद्र में कितने पहिये हैं? हमारी तो ये तीन पार्टियों की सरकार है। केंद्र में कितने दलों की सरकार है, बताओ ना! पिछली बार जब मैं एनडीए की मीटिंग में गया था, तब तो ३०-३५ पहिए थे। मतलब रेलगाड़ी थी।
अब शिवसेना रूपी एक पहिया अलग हो गया है…
– इसके अलावा केंद्र में निर्दलीय भी हैं।
इन तीन पार्टियों में जो प्रमुख पार्टी है… शिवसेना है ही… कांग्रेस है, राष्ट्रवादी है… उनमें कांग्रेस का ऐसा कहना है कि मुख्यमंत्री का झुकाव राष्ट्रवादी की ओर है…
– मतलब क्या करते हैं? उनका स्नेह युक्त आक्षेप प्रारंभ में था लेकिन वह गलतफहमी बीच में मुझसे मिलने के बाद हो गई है और वह एतराज बहुत ज्यादा सख्त नहीं था। ऐसा है सभी लोग चुनाव लड़कर जीतते हैं। जनता की कुछ अपेक्षा उनसे होती है। इसीलिए जनता उन्हें मत देती है और वो अपेक्षा हम पूरी नहीं कर सकते हैं, ऐसा यदि किसी को लगता है तो या उनकी भूल है, ऐसी कोई बात नहीं है। इस तरह आशा और अपेक्षा व्यक्त करना कोई गुनाह नहीं है। जैसा कि आप कह रहे हैं प्रारंभ के दौर में उनके मन में कुछ रहा भी होगा लेकिन मुझसे किसी ने स्पष्ट रूप से ऐसा कुछ कहा नहीं कि आप हमें पूछते नहीं हो। पवार साहब से भी मेरी अच्छी बातचीत होती है। एकदम नियमित तौर पर तो नहीं लेकिन बीच-बीच में मैं सोनिया जी को भी फोन करता रहता हूं।
शरद पवार का कितना मार्गदर्शन मिलता है… राज्य चलाने का उन्हें भरपूर अनुभव है…
– उनके साथ मुलाकात एक अलग ही अनुभव होता है। वे मिलते हैं तब कुछ काम लेकर आते हैं ऐसा बिल्कुल नहीं है। कभी-कभी उनका फोन आता है कि कल क्या कर रहे हो? और ज्यादातर समय सब तालमेल बैठता होगा तो उनकी और मेरी मुलाकात होती है। मुलाकात में वे अपने पुराने अनुभव बताते रहते हैं। लातूर में भूकंप आया तब उन्होंने क्या किया था… चीन का मुद्दा निकला। रक्षा मंत्री रहते उनका अनुभव… उनका चीन दौरा… फिर चीन के प्रधानमंत्री के साथ क्या चर्चा हुई… उनकी पुरानी अनुभव की यादें वे बताते रहते हैं।
शरद पवार, महाराष्ट्र अथवा देश के किसानों के महत्वपूर्ण नेता हैं। सहकारिता क्षेत्र में उनका बड़ा योगदान है।
– निश्चित तौर पर है। इसमें कोई विवाद नहीं है।
महाराष्ट्र में शक्कर उद्योगपतियों को कोई परेशानी न हो, यह उनकी पहले से भूमिका रही है लेकिन हाल ही में ऐसा देखा कि राज्य के विपक्ष के नेता देवेंद्र फडणवीस शक्कर उद्योगपतियों की समस्या लेकर अमित शाह से मिले…
– वे पूरे देश के शक्कर उद्योगपतियों की चिंता कर रहे होंगे।
लेकिन गृहविभाग के पास शक्कर उद्योग की क्या समस्या हो सकती है?
– आखिर गृह में शक्कर भी लगती है न। गृहमंत्री मतलब जैसे कदाचित आदेश बांदेकर कार्यक्रम करते हैं… वैसे गृहमंत्री लगे होंगे।
अच्छा, मतलब ‘होम मिनिस्टर’…
– हां, इसीलिए शक्कर की समस्या लेकर वे गृहमंत्री से मिले होंगे।
राज्य की शक्कर उत्पादकों की समस्या मुख्यमंत्री के अधिकार क्षेत्र में नहीं आती है क्या?
– महाराज, मुझे अनुमान नहीं है।
लेकिन दिल्ली में जाकर एक घोषणा उन्होंने निश्चित तौर पर की, वह मतलब यह सरकार गिराने का हमारा इरादा नहीं है यह उन्होंने महाराष्ट्र सदन में जाकर कहा। आपके लिए यह कितने संतोष की बात है?
– मैं तो यहां बैठा ही हूं। उनका इरादा होगा या नहीं होगा… कुछ लोग कहते हैं कि अगस्त-सितंबर में सरकार गिराएंगे। मेरा कहना है कि इंतजार किस बात का करते हो, अभी गिराओ। मेरा साक्षात्कार चलने के दौरान सरकार गिराओ। मैं क्या फेविकॉल लगाकर नहीं बैठा हूं। गिराना होगा तो गिराओ। अवश्य गिराओ। आप को गिराने-पटकने में आनंद मिलता है ना। कुछ लोगों को बनाने में आनंद मिलता है। कुछ लोगों को बिगाड़ने में आनंद मिलता है। बिगाड़ने में होगा तो बिगाड़ो। मुझे परवाह नहीं है। गिराओ सरकार।
यह आपकी सोच है कि चुनौती है?
– ये मेरा स्वभाव है।
बहुत मुश्किल से बनाई गई यह सरकार है। इस सरकार का काम बढ़ियां चल रहा है। यह सरकार लोकप्रिय है। यह सरकार टिकनी चाहिए, ऐसी जनता की भावना है।
– इस सरकार का भविष्य विपक्ष के नेता पर निर्भर नहीं है। इसलिए मैं कहता हूं कि सरकार गिराना होगा तो अवश्य गिराओ। अभी गिराओ।
मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिराई, राजस्थान में गिराने का प्रयास हुआ लेकिन सफल नहीं हुआ…
– वहां कदाचित कोरोना की महामारी गंभीर नहीं होगी अथवा कोरोना की महामारी पहुंची नहीं होगी। क्योंकि यहां के कोरोना की अवस्था के बारे में गृह मंत्री के पास अथवा दिल्ली जाकर विपक्ष के नेता ने शिकायत की है। जबकि यह जो महामारी दुनियाभर में पैâली है, वह केवल महाराष्ट्र में ही होगी मध्यप्रदेश में नहीं होगी, राजस्थान में नहीं होगी।
अब नंबर महाराष्ट्र का, ऐसा दृढ़तापूर्वक कहते हैं…
– गिराओ। आपको सरकार गिरानी है ना, गिराओ।
राजस्थान की सरकार गिराने की कवायद शुरू रहते कांग्रेस के बागी नेता और भाजपा के कुछ नेताओं के बीच पैसों के लेन-देन से संबंधित कुछ टेप्स सामने आए। फोन टैपिंग गैर कानूनी है, फिर भी पैसे की ताकत लगाकर सरकार गिराने का काम चल रहा है…
– वे दूसरा क्या कर सकते हैं? यह उनका लोकतंत्र है ना। अर्थात यहां की हमारी सरकार लोकतंत्र विरोधी है और पैसे देकर तोड़कर यहां लाई जानेवाली सरकार लोकतंत्र के अनुसार होगी। यह उनके लोकतंत्र की व्याख्या है। लोकतंत्र का मजाक शिवसेनाप्रमुख को स्वीकार नहीं था। इसलिए वे कहते थे, यह आपका ऐसा बदहाल लोकतंत्र है। ये ऐसा। ये मुझे स्वीकार नहीं है।
यह जो राजनीति में पैसों का इस्तेमाल बढ़ रहा है इस बारे में आपका क्या कहना है? बालासाहेब तो इस पर प्रखरता से प्रहार करते थे। आप आज मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर बैठे हैं, आप जब यह देखते हैं तब क्या लगता है?
– ये सब घृणास्पद है। पैसे का इस्तेमाल करोगे तो गुनाह नहीं होता है लेकिन कोई आपके विरोध में होगा तो उसके पीछे जांच झमेला लगा देते हो। सब दिन समान नहीं होते हैं। यह याद रखो। दिन बदलते रहते हैं। हम कहते हैं ना, यह दिन भी चले जाएंगे सभी दिन गुजर जाते हैं।
‘ऑपरेशन लोटस’ महाराष्ट्र में सफल नहीं होगा…
– करके देखो ना। मैं भविष्यवाणी कैसे करूंगा? आप करके देखो। जोड़-तोड़ करके देखो। एक महत्वपूर्ण मुद्दा क्या है कि ऐसा कोई भी विपक्षी नेता दिखाओ जो दूसरी पार्टी में जाकर सर्वोच्च पद पर पहुंचा है, मुख्यमंत्री बना है। आपको आपकी पार्टी में ऐसा क्या मिलता नहीं है कि आप दूसरी पार्टी में जाते हैं। कई जगह पर ऐसे उदाहरण हैं। ऐसे तोड़फोड़ होता है उसके पीछे ‘इस्तेमाल करो और फेंक दो’ यही नीति सबने अपनाई है।
पालकी ढोने की राजनीति है।
– यह हमारे यहां की राजनीति है। इसलिए दूसरी पार्टी को केवल ‘इस्तेमाल करो और फेंक दो’ करने के लिए अपना इस्तेमाल करने देना चाहिए या अपनी पार्टी में दृढ़तापूर्वक काम करते रहना चाहिए, यह हर किसी को तय करना चाहिए। ठीक है, कदाचित कोई व्यक्ति अथवा नेता अपनी पार्टी में आप पर अन्याय कर सकता होगा अथवा करता होगा, लेकिन इसलिए आपका उस पार्टी को त्याग कर दूसरों की पालकी ढोना… ऐसा करना चाहिए। आखिरकार पालकी ही ढोओगे ना या पालकी में बैठनेवाले हो? पैदल चलना…
स्वार्थ के लिए ऐसे दलबदल किए जाते हैं।
– हां, लेकिन पालकी में आपको बैठाने के लिए कोई तैयार है क्या? होगा तो अवश्य जाओ। मैं किसी के भी उज्जवल भविष्य के आड़े नहीं आ सकता हूं। नहीं आता। यदि तुम्हें दूसरी पार्टी में पालकी में बैठने का स्थान मिलता होगा तो अवश्य जाकर पालकी में बैठो लेकिन पालकी ढोने के लिए ना जाओ। मतलब क्या तो दूसरे की बारात जा रही है और आपके कंधे पर पालकी का बोझ है। इतना ही आपको संतोष है। पालकी का बोझ ढोना होगा तो जा सकते हो। कितने ऐसे दलबदल करनेवाले नेता दूसरी पार्टी में जाकर बड़े बने हैं? एक तय समय गुजरने के बाद उनका कार्य सीमित कर दिया जाता है। जो मूल सार होता है, आपकी पार्टी के विचार का वह महत्वपूर्ण होता है।
पालकी आपने भी बदल ली।
– ऐसा नहीं कह सकते हैं। मैंने भी गठबंधन किया है। क्यों किया? पहले जिनके साथ एक उद्देश्य के साथ गया था उनके उद्देश्य में खोखलापन है, यह मुझे बाद में समझ आया। इसलिए मैंने यह निर्णय लिया है और मैं फिर दुबारा कहता हूं कि मन में न होने के बाद भी मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी मेरे कंधे पर आई। अन्यथा कभी सपने में भी यह अवसर मिलेगा, ऐसा लगा नहीं था। आप मुझे जानते हो।
आपके सपने में यह नहीं था लेकिन यह महाराष्ट्र अथवा जनता के सपने में था…
– सही है ना। फिर अब यह मेरी जिम्मेदारी है कि यदि मुझ पर मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी आई है तो मैं मेरे राज्य की और जनता के सपनों को पूरा करूंगा ही।
फिलहाल आप राष्ट्रीय राजनीति की ओर किस नजरिए से देखते हैं?
– किस राजनीति की ओर देखूं… राजस्थान की देखूं, दिल्ली की देखूं, मध्यप्रदेश की देखूं… किस राजनीति की ओर देखूं। हम दोनों चश्मे वाले हैं। आपको जानकारी होगी कि
एक लंबी दूरी का चश्मा होता है और एक करीब का होता है। नंबर यदि ऐसे सरसरी तौर पर देखना होगा तो हमें किस दृष्टि से देखना चाहिए? लेकिन इतना कहता हूं, मैं सब तरफ दूर दृष्टि से देखता हूं।
आप चीन की ओर देखते हो कि नहीं?
– दूर दृष्टि से देखता हूं।
चीन ने हिंदुस्थान की सीमा में घुसकर हमारे २० जवानों की हत्या कर दी। आपकी नजर उस संकट तक गई या नहीं?
– गई, लेकिन हम क्या कर सकते हैं?
आज भी चीन के संदर्भ में होगा, पाकिस्तान के संदर्भ में होगा, जब हम देखते हैं तब ऐसा दिखता है कि हिंदुस्थान बड़ा देश है परंतु हिंदुस्थान के आसपास के एक भी देश से हमारा संबंध अच्छा नहीं है…
– आपकी बात सही है।
राज्य के मुख्यमंत्री की हैसियत से, शिवसेना का प्रमुख होने की हैसियत से आप इस नीति की ओर वैâसे देखते हैं…
– मैं ऐसा कभी नहीं कहूंगा कि आप हमें कहो, हमारे शिवसैनिक सरहद पर जाकर लड़ेंगे। कुछ लोग ऐसा कहते हैं, वैसा मैं कभी नहीं कहूंगा। परंतु हर किसी पर कुछ-न-कुछ जिम्मेदारी होती है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी मुझ पर है। देश के प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी नरेंद्र भाई मोदी पर है। बीच में उन्होंने एक सर्वदलीय बैठक बुलाई थी। उसमें सभी दलों के नेताओं ने उनसे कहा था कि देश पर जब संकट आता है तब हम उसमें कुछ बाधित नहीं होने देंगे। आप आगे बढ़ो। हम एक दिल से आपके साथ हैं। उसी बैठक में मैंने कहा था कि एक नीति तय करो। बर्ताव वैâसा करना है? निश्चित तौर पर क्या करना है? उस बैठक में कई मुख्यमंत्रियों ने अपने विचार व्यक्त किए। सबसे अंत में बोलने वाला मैं था। मुझसे पहले लगभग सभी बोल चुके थे। इसमें से ज्यादातर लोगों ने चीनी माल का बहिष्कार करो ऐसी इच्छा जताई थी। भगवान की मूर्ति चीन से आ रही है। यह बंद करो। ये बंद करो, वो बंद करो। ऐसी मांगें उठी। ठीक है हमने चीन के ऐप पर बंदी लगाई लेकिन अब हम चीन को कब पटकेंगे? महज ऐप बंद करके चीन को सबक सिखा देंगे तो खुशी की बात है।
राममंदिर हमारी भावनाओं से जुड़ा मुद्दा है। शिवसेना ने राम मंदिर का मार्ग प्रशस्त किया, यह इतिहास कहता है। आप भी अयोध्या गए थे… मुख्यमंत्री बनने से पहले।
– मुख्यमंत्री बनने पर भी गया था…
मतलब आपने अपनी भूमिका में कोई बदलाव नहीं किया है।
– होगा भी नहीं!
राम मंदिर का भूमिपूजन ५ अगस्त को होगा, ऐसी तारीख घोषित की गई है। आप उस भूमिपूजन में जाओगे क्या?
– सिर्फ ‘हां’ या ‘ना’ में जवाब देने के लिए तो मैं इंसान के रूप में कुछ भी जवाब दे सकता हूं लेकिन आपने जैसा कहा है कि राम मंदिर के संघर्ष में शिवसेना की भूमिका इतिहास में दर्ज है। मैं मुख्यमंत्री नहीं था उस समय भी राम मंदिर में गया था। असल में संयोग में मेरी श्रद्धा है। मेरी भावना यही कहती है कि नवंबर, १८ में पहली बार मैं राम मंदिर में गया था, आप साथ में थे। शिवनेरी की मतलब शिवाजी महाराज की जन्मभूमि की एक मुठ्ठी मिट्टी मैं लेकर गया था। उसके बाद इस मुद्दे को काफी गति मिली। उससे पहले यह विषय ठंडा पड़ा था। किसी ने कोई विषय ही नहीं निकाला था। शिवसेना ने शुरुआत की। समय लगता होगा तो कानून बनाओ। सरकारी आदेश जारी करो जो आवश्यक हो करो लेकिन राम मंदिर बनाओ।
यह आप ही की मांग थी…
– यह शिवसेना की मांग थी। इसके लिए हम अयोध्या गए। आप संयोग कहें, कुछ भी कहें। जिस वर्ष १८ के नवंबर में मैं वहां गया उसके अगले नवंबर में राम मंदिर की समस्या हल हो गई और मैं मुख्यमंत्री बन गया। यह मेरी श्रद्धा है। जिसे कोई अंधश्रद्धा कहना चाहे तो वह कहे। लेकिन यह मेरी श्रद्धा है और रहेगी। मुद्दा क्या आता है कि फिलहाल सर्वत्र कोरोना से हाहाकार मचा है। मैं ठीक हूं। मैं कहूंगा मैं अयोध्या जाऊंगा ही। मैं मुख्यमंत्री हूं। लेकिन मुख्यमंत्री नहीं था तब भी मुझे वहां मान-सम्मान… सब कुछ मिला। मिला था। वह भी शिवसेनाप्रमुख और उनका बेटा होने की हैसियत से। वह पुण्य प्रताप मेरे पास है ही। अब तो मुख्यमंत्री हूं। मुझे सुरक्षा मिलेगी। मैं सही से जाऊंगा। मैं पूजा-अर्चना करके अथवा उस कार्यक्रम में सहभागी होकर वापस आऊंगा लेकिन यह मंदिर आम मंदिर नहीं है। किसी गांव में मंदिर बनाना होगा तो भी गांव वाले एक दिल से एकत्रित होते हैं। उस गांव के लिए वह अयोध्या जैसा ही राम मंदिर होता है। वे कई लोग अयोध्या नहीं जा सकते हैं। उनके लिए गांव का वह मंदिर महत्वपूर्ण होता है। गांव में कई कार्यक्रम, विवाह समारोह उस ईश्वर की साक्षी से संपन्न होते हैं।
अयोध्या का मंदिर मतलब संघर्ष है।
– फिर, यह राम मंदिर का मुद्दा है, जिसकी एक संघर्ष की पृष्ठभूमि है। गजब पृष्ठभूमि है। जिस पर बाबर ने आक्रमण करके मस्जिद बनाई थी। उस जगह फिर हमारा मंदिर बना रहे हैं। केवल हिंदुस्थान के हिंदू ही नहीं, बल्कि वैश्विक कौतूहल का विषय है। आज हमारे यहां कोरोना संकट होने के कारण सभी मंदिरों में जाने-आने पर पाबंदी है। मैं अयोध्या जाकर आऊंगा लेकिन लाखों राम भक्त जो उपस्थित रहने के इच्छुक होंगे, उनका आप क्या करोगे? उन्हें आप रोकोगे या उन्हें आने दोगे? जाने अनजाने में उनसे कोरोना का प्रसार होने दोगे क्या? क्योंकि यह आनंद का क्षण है। कई लोगों की वहां जाने की इच्छा होगी। अन्यथा आप वीडियो कॉन्प्रâेंसिंग के जरिए भूमि पूजन कर सकते हैं।
आपको याद होगा कि मुख्यमंत्री की हैसियत से जब आप गए थे तब सरयू के तट पर आपको आरती करने से रोका गया था क्योंकि कोरोना का प्रसार होने की आशंका थी…
– हां, आरती नहीं कर सके थे रोक दिया था।
वो कोरोना की शुरुआत का समय था।
– सही है। उसके पहले जब गया था, तब सरयू का घाट वैâसा था…
हां, उसका स्वरूप भव्य था।
– बहुत भीड़ थी। पैर रखने की भी जगह नहीं थी। राम मंदिर भावनात्मक मुद्दा है। उससे लोगों की भावनाएं जुड़ी हुई हैं। उसे आप वैâसे रोकोगे? मैं आना-जाना करता रहूंगा। मुख्यमंत्री रहते हुए मैं जाकर आऊंगा। अभी भी अधिकृत तारीख नहीं आई है। अधिकृत कार्यक्रम वैâसा होगा, यह नहीं पता। कार्यक्रम आने के बाद हम तय करेंगे लेकिन जो लाखों लोगों की भावना है कि वहां उपस्थित रहें, उन्हें आप वैâसे रोकोगे? क्योंकि वहां सरयू का किनारा ही महत्वपूर्ण है। जब राम मंदिर का आंदोलन चला था तब सरयू भी लाल हुई थी। राम भक्तों के खून से। ऐसे लाखों करोड़ों लोगों की भावना वहां से जुड़ी है।
आप इस मुद्दे से भावनात्मक रूप से जुड़े हैं…
– हूं ही। क्योंकि मैं दो से तीन बार अयोध्या गया हूं। मेरा अनुभव कहता है, मैं अंधश्रद्धालु नहीं हूं, यह ध्यान रखना। मेरे दादाजी और मेरे पिता का साफ मानना था, दादाजी का कहना मुझे अच्छी तरह से याद है। मेरे दादा नास्तिक नहीं थे। उनकी देवताओं और देवियों पर श्रद्धा थी। मेरे पिता अंधश्रद्धालु नहीं थे। श्रद्धा और अंधश्रद्धा में एक बारीक रेखा है। वह बहुत महत्वपूर्ण है। उसी भावना से मैं कहता हूं कि अब तक मैं तीन बार अयोध्या गया हूं। लेकिन वहां गर्भगृह में खड़े होने के बाद जो अनुभव आया, वह अद्भुत था। औरों को भी ऐसा अनुभव आया होगा, मैं इससे इनकार नहीं करता। इसलिए इस मामले में कोई मुझसे विवाद ना करे और ना ही मुझे कुछ सिखाए।
शिवसेना मतलब भीड़, ऐसा गत ५०-५५ साल का अनुभव है। शिवसेनाप्रमुख मतलब भीड़ का महासागर। आप भी शिवसेनापक्षप्रमुख हुए और भीड़ में ही रहे। शिवसेना की एक आवाज पर हजारों-लाखों लोग रास्ते पर उतर जाते हैं। आप लाखों की सभा करते हैं। लेकिन इस नए संकट की स्थिति में आप हमसे दूर हो गए या फिर भीड़ कम हो गई। शिवसेना का वर्धापन दिन भी बिना भीड़ के किया।
– भीड़ थी। लेकिन वह ई-भीड़ थी।
इस परिस्थिति में राजनीति कैसे आगे बढ़ेगी?
– मुश्किल है। मैंने आपसे अभी कहा ना कि शिवसेनाप्रमुख की याद भीड़ के संदर्भ में भी आती है। जब भी विजयोत्सव होता था या शिवसेनाप्रमुख का जन्मदिन होता था, उस समय की भीड़ याद आती है। आखिरी के दिनों में वे नहीं उतरते थे। वे खिड़की में से ही हाथ दिखाते थे। वो फोटो भी है। नीचे इकट्ठा हुई भीड़ में जल्लोष होता था और जयघोष होता था। उस समय वे खिड़की में आकर उनका अभिवादन स्वीकार करते थे। मैं उनसे कहता था आप बार-बार मत उठिए… इस पर वे कहते यह मेरा टॉनिक है। मेरी तबीयत की चिंता मत कर। यह भीड़ ही मेरी टॉनिक है। शिवसैनिकों का और हमारा ऐसा रिश्ता है। इस रिश्ते का यह यथार्थ वर्णन है।
अब इस टॉनिक का आप क्या करनेवाले हैं?
– अब ये टॉनिक तो चाहिए ही। किसी भी परिस्थिति में मैं टॉनिक को नहीं छोड़ूंगा।
लॉकडाउन के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने आत्मनिर्भर होने का मंत्र दिया था। अच्छा मंत्र है। आत्मनिर्भर होना चाहिए। आप राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में इसे किस तरह देखते हैं? आप अपने कार्यकाल में महाराष्ट्र को आत्मनिर्भर वैâसे बनाएंगे?
– शब्दों के कई पहलू हैं। शब्दों के कई अर्थ होते हैं। अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है। आत्मनिर्भर मतलब क्या? सरकार के रूप में शुरुआत में ही मैंने कहा था तुम सावधानी बरतो, मैं जिम्मेदारी लूंगा। मैं आत्मनिर्भरता को ऐसे देखता हूं। सावधानी मतलब क्या? मैंने पहले जो बौद्धिक दिया, कोरोना के साथ जीने के बारे में उसकी सावधानी तुम बरतो। स्वास्थ्य सुविधाएं बढ़ाने और उपचार की जिम्मेदारी हम लेते हैं। फिर पटरी से उतरी जो गाड़ियां है, चाहे वो आर्थिक गाड़ी हो या कोई और उसे पटरी पर लाने की जिम्मेदारी हम लेते हैं। एक बार मेरी जनता सावधानी से रहने लगी तो हम इस वायरस से निपट लेंगे, ऐसा मैं कहता हूं। इसे सावधानी कहो या आत्मनिर्भरता कहो, कुछ भी कहो। देखिए ऐसा नहीं है कि कभी कोई बीमार नहीं पड़ेगा। कोरोना फ्लू का ही एक प्रकार है। इस वायरस के आने के पहले छह से सात प्रकार के वायरस हमारे देश में पहले से ही थे। उसी का यह अगला प्रकार है। १९ में आने के कारण इसे ‘कोविड-१९’ कहते हैं। उसका मुकाबला करने या उसका सामना करने के लिए बाहर घूमते-फिरते समय खुद को वैâसे बचाना है, अपने बचाव के तरीके को मैं आत्मनिर्भरता कहूंगा। सावधानी कहूंगा और उसके बाद आवश्यकता हुई तो जो दवाइयां हमारे पास उपलब्ध हैं, उसका उपयोग करके जान बचाने की जिम्मेदारी सरकार को लेनी चाहिए।
मुख्यमंत्री के रूप में आपने अपनी बात रखी। आप मुख्यमंत्री तो हैं ही लेकिन आखिरकार आपका पंचप्राण शिवसेना है। कई सालों से आप शिवसेना का काम कर रहे हैं। आप प्रमुख नेता हैं। मार्गदर्शक हैं। शिवसेनाप्रमुख ने आपको एक राह दिखाई है। उस रास्ते पर आप चल रहे हैं। आप हमेशा कहते आए हैं शत-प्रतिशत शिवसेना। कुछ समय के लिए आपने एक दल से युति की। तब दो दलों की सरकार थी। आज आप तीन दलों के साथ हैं।
– लेकिन मुख्यमंत्री हैं…
हां, आप मुख्यमंत्री हैं। उसमें आप अलग-अलग विचारों के दलों के साथ हैं। आपको पूरे महाराष्ट्र में शिवसेना पैâलानी है। आत्मनिर्भर शिवसेना बनानी है। यह आपका सपना कायम है।
– विरोधी दल का काम आप कर रहे हैं क्या?
हां, मैं हमेशा विरोधी दल में रहता हूं। मुझ पर ऐसा आरोप है…
– अरे, अभी हमारी गाड़ी कहां पटरी पर आ रही है। अब हमारी रिक्शा अच्छे से चलने लगी है। स्टेरिंग मेरे हाथ में है। पीछे दो लोग बैठे हैं। लेकिन एक बात बताता हूं, आप सत्ता की बात करें तो एक ही दल की सरकार जैसा बड़ा सपना नहीं है। यह आपका व्यक्तिगत सपना हो सकता है लेकिन उसका जरा-सा भी उपयोग नहीं है। कौड़ी की कीमत नहीं है। क्योंकि जब उस सपने में जनता का सपना शामिल नहीं होता तब तक एकतरफा सरकार नहीं आती। और जो सपना सरकार आने के बावजूद पूरा नहीं हो सकता तो जनता ही उसे गिराए बिना नहीं रहेगी। अब महाराष्ट्र में एक अलग प्रयोग किया गया है। तीन अलग-अलग विचारधाराओं के दल एक विचित्र राजनीतिक परिस्थिति में एक हुए हैं। उसमें सिर्फ और सिर्फ अपरिहार्यता के रूप में मुख्यमंत्री पद की कुर्सी मैंने स्वीकार की है। यह सम्मान है। सम्मान का पद है। बहुत बड़ा है। लेकिन यह मेरा सपना कभी नहीं था। लेकिन अब मैंने इसे स्वीकार कर लिया है।
…और कामों का धमाका ही कर दिया।
– आपको एक बात बताता हूं। इस जिम्मेदारी को स्वीकार करने के बाद मैंने पहला बजट पेश किया। इस बजट में जनता के हित के लिए हमने कई घोषणाएं कीं। उसमें कुछ बातें ऐसी हैं जो आज तक किसी ने नहीं कीं और शायद किसी ने विचार भी नहीं किया होगा। उन सबको पूरा करना मेरी जिम्मेदारी है। उस संदर्भ में प्रयास भी शुरू है। जब मैंने अपने काम की शुरुआत की थी, विरोधियों की भाषा में कहें तो मैंने घूमने की शुरुआत की थी, उस समय की सरकार ने भी नहीं किया होगा ऐसे विभागवार कामों का बंटवारा किया। मैंने हर विभाग की बैठक ली। मुझे पता है कि मराठवाड़ा के कुछ जिले रह गए हैं और विदर्भ का कुछ भाग, उत्तर महाराष्ट्र, पश्चिम महाराष्ट्र, कोकण, मुंबई और आधे महाराष्ट्र में जाकर मैंने अपने प्रशासन के सहयोगियों के साथ सर्वदलीय विधायकों की बैठक ली थी। उनके कामों को सुनकर उसे पूरा करने के ऑर्डर्स भी दिए हैं। जैसे ही काम की शुरुआत हुई, कोरोना आने के कारण वह रुक गया। मैं जिस विभाग में जाता, स्वाभाविक है मैं शिवसैनिकों से भी मिलता। कुछ शिवसैनिकों के भी कार्यक्रम होते थे। ये सारी बातें गत दो-तीन महीनों से रुकी हुई हैं। कोरोना काल समाप्त हो जाए, तो फिर से शुरू होगा। मुख्यमंत्री पद के बारे में शिवसेनाप्रमुख हमेशा कहते थे, यह बातें आती-जाती रहती हैं। हमेशा के लिए रहेगी वह मेरी पार्टी और प्रमुख पद। वह कायम है। शिवसेनाप्रमुख कहते, यह पद भी जब तक शिवसैनिकों का विश्वास है तब तक ही। इसलिए मैं इसे कभी नहीं छोड़ूंगा और पार्टी को बढ़ाने का प्रयास मैं करने ही वाला हूं, जैसा कि सारी पार्टियां करती हैं।
आपने जो पार्टी का काम शुरू किया शिवसैनिक के रूप में, नेता के रूप में, बाद में कार्याध्यक्ष के रूप में और बालासाहेब के बाद शिवसेनापक्षप्रमुख के रूप में…आपने ये सब एक वृहद स्तर पर किया। राज्य को शिवसेना का मुख्यमंत्री दिया। पार्टी सत्ता में है। जब आपने पार्टी का काम शुरू किया तब आप शिवसेना के युवा नेता थे, अब आप ६० वर्ष के होने जा रहे हैं।
– यस! मैं साठवें साल में मुख्यमंत्री भले ही हूं लेकिन इसके लिए जिद नहीं की थी। यह सिर्फ संयोग मात्र है। मुझे लगता है दुनिया में एकमात्र ऐसा मेरा ही उदाहरण होगा जिसकी सबसे कम अहमियत मानी गई, वही पार्टी का सर्वोच्च नेता बना और इसमें कुछ नहीं है, इसे कुछ समझता नहीं है, ऐसा कुछ लोग बोलते थे। लेकिन आज वही राज्य का मुख्यमंत्री बन गया।
जी और आप अच्छा काम कर रहे हैं। आपको राज्य की जनता का आशीर्वाद प्राप्त है।
– यह महत्वपूर्ण है। मैं आज आपको प्रमाणिकता से कहता हूं। मैं आज भी अपना हस्ताक्षर ‘आपका नम्र’ के रूप में ही करता हूं।
यह हम सबको बालासाहेब द्वारा दी गई सीख है।
– हां। यह बालासाहेब का तरीका है। मेरे दादाजी का भी यही तरीका था। मुख्यमंत्री पद की बात करें तो ऐसे पद आएंगे-जाएंगे लेकिन जनता से हमें विनम्र होकर व्यवहार करना चाहिए क्योंकि मैं मुख्यमंत्री रहूंगा या नहीं भी रहूंगा। लेकिन कहीं भी मां और बालासाहेब के बेटे के रूप में लोग मुस्कुराकर मेरा स्वागत करते हैं। प्रेम से आदरातिथ्य करते हैं। ‘आइए बैठिए’ कहते हैं। यह पूर्वजों के पुण्य कर्म की कमाई है। इसमें मेरा कर्तृत्व शून्य है।
आप युवा नेता थे और अब ६० वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। मतलब सीनियर सिटीजन कह सकते हैं।
– हां, अब मुझे बस की यात्रा मुफ्त में मिलेगी। हालांकि आप भी पीछे ही हैं। मैं आज बस में एक कदम रख रहा हूं। तो आप भी पैर रखने की तैयारी में हैं।
सच है। आपके साथ ही हूं। लेकिन मुझे बताइए कि आपकी यात्रा युवा नेता से लेकर शिवसेना के वरिष्ठ नेता…आनेवाला साठवां वर्ष…क्योंकि यह साठवां बहुत महत्वपूर्ण चरण है।
– बिल्कुल है। लेकिन पीछे मुड़कर देखो तो ऐसा बिल्कुल नहीं लगता। यात्रा बुलेट ट्रेन की गति से हुई। यहां-वहां देखने का समय ही नहीं मिला। मैं पूरी ईमानदारी से कहता हूं, कुछ लोग कहते हैं कि यह मेरा क्षेत्र नहीं है। यह सही बात है। सच में यह मेरा क्षेत्र नहीं है। मैं मूलत: एक कलाकार हूं। जब मेरी कला की यात्रा शुरू थी तो सिर्फ और सिर्फ अपने पिता यानी शिवसेनाप्रमुख की कुछ सहायता हो सके, उसमें थोड़ा-बहुत मैं योगदान कर सकूं इसलिए पार्टी का काम शुरू किया। मेरा पहला कदम था ‘सामना’। उस समय आपने देखा होगा कि शिवसेनाप्रमुख को जरा भी आराम नहीं था। उस समय आज की तरह साधन नहीं थे। हेलीकॉप्टर नहीं थे। हवाई जहाज नहीं थे। कहीं जाना होता तो गाड़ी से यात्रा करनी होती थी। उसमें भी एयरकंडीशन गाड़ी होना एक बड़ी लग्जरी बात होती थी। शिवसेना के कई नेता और शिवसैनिक आज भी मैं देखता हूं कि एसटी से यात्रा करते हैं। उस दौरान भी यात्रा करते ही थे। वामन राव महाडिक हों, दत्ताजी हों या उनके साथ के शिवसैनिक हों, उन सभी का कर्तृत्व बहुत बड़ा है। उन्होंने उस समय हर जगह पहुंचकर शिवसेना को पैâलाया है। बीजारोपण किया है और उस बीज से आए हुए ये जो अंकुर हैं, उन्हें मैं आज देख रहा हूं। जैसे कोकण में कहते हैं कि अगर नारियल का पेड़ दादाजी लगाते हैं तो उसका फल पोते को मिलता है। आज उनके द्वारा लगाए गए पेड़ों का फल हम चख रहे हैं। इसलिए उनका कर्तृत्व और उनका योगदान बहुत बड़ा है। सच में इसमें मेरा कोई कर्तृत्व नहीं है। सिर्फ और सिर्फ मैं इन कामों में मन से इनवॉल्व हो गया। जैसा आपने अभी कहा था कि कोरोना में डॉक्टरेट हो गया क्या? ऐसा नहीं है। कोई भी जिम्मेदारी स्वीकार करने पर उसमें पूरी जान लगा देनी चाहिए। जैसे ‘सामना’ हो, संगठन में अनुशासन हो या कोई यंत्रणा शुरू करनी हो, इनमें धीरे-धीरे काम करते-करते मैं चलता रहा। आपको याद होगा कि शुरुआत में मैं भाषण भी नहीं करता था।
हां, मुझे पता है।
– मतलब, मेरा कहना है कि मुझे भाषण करना नहीं आता था और आज भी नहीं आता। एक बार तो ऐसा हुआ कि एक जगह मुझे जबरदस्ती बुलाया गया और उसी समय मैंने तय किया कि आज भाषण करना ही है। लोगों को पता चलने दो कि मुझे भाषण करना नहीं आता। मैंने पहले भाषण लिखा। उसे याद किया। लेकिन माइक के सामने खड़ा होने पर मुझे भाषण याद ही नहीं आया। फिर मैंने उस समय जो मुझे सूझा, वही बोला और उस भाषण पर भी खूब तालियां बजीं। ऐसे ही भाषण करते-करते मैं यहां तक पहुंच गया। मतलब हर चीज का आपको अनुभव होना चाहिए, यह जरूरी नहीं है। आपका दिल, आपके अंत:करण में तड़प होनी चाहिए, वह महत्वपूर्ण है।
इसीलिए जब आप मुख्यमंत्री बने तो पूरे महाराष्ट्र ने तालियां बजाकर आपका स्वागत किया…
– यस। तड़प चाहिए और मैं तड़प के साथ काम करता हूं।
आपसे बात करते हुए ऐसा लगा ही नहीं कि मैं मुख्यमंत्री से बात कर रहा हूं। ऐसा लग रहा था अपने घर के ही किसी सदस्य से बात कर रहा हूं।
– मैं ऐसा ही हूं। आखिर मुख्यमंत्री मतलब क्या? उसे सींग उग आती है क्या? मुझे ऐसे ही रहना है! आखिरकार मेरे लिए जनता का आशीर्वाद महत्वपूर्ण है। वो है तब तक चिंता नहीं। (indisaamana.com)
नई दिल्ली, 11 जुलाई। देश के सबसे वरिष्ठ और अनुभवी नेता शरद पवार ने ‘सामना’ को धमाकेदार ‘मैराथन’ साक्षात्कार दिया। शरद पवार राजनीति में कौन-सी नीति अपनाते हैं, क्या बोलते हैं, इसे हमेशा ही महत्व रहा है। इस बार शरद पवार ‘सामना’ के माध्यम से बोले। वे जितने मार्गदर्शक हैं, उतने ही खलबली मचानेवाले भी हैं। महाराष्ट्र की ‘ठाकरे सरकार’ को बिल्कुल भी खतरा नहीं! ऐसा उन्होंने विश्वासपूर्वक कहा है। देवेंद्र फडणवीस द्वारा किए गए सभी आरोपों का पवार ने रोकठोक जवाब दिया। सरकार बनाने के संदर्भ में भाजपा से कभी भी चर्चा नहीं हुई। फडणवीस राष्ट्रीय स्तर पर निर्णय प्रक्रिया में कभी भी नहीं थे। उन्हें कुछ पता नहीं, ऐसा ‘विस्फोट’ शरद पवार ने किया।
लॉकडाउन, कोरोना, चीन का संकट, डगमगाती अर्थव्यवस्था, ऐसे सभी सवालों पर शरद पवार ने दिल खोलकर बोला है।
शरद पवार ने एक भी सवाल को टाला नहीं। ढाई घंटे का यह साक्षात्कार राजनीतिक इतिहास का दस्तावेज साबित होगा!
‘लॉकडाउन’ की बेड़ियों से बाहर आए देश के वरिष्ठ नेता से पूछा, ‘फिलहाल निश्चित तौर पर क्या चल रहा है?’
इस पर उन्होंने कहा, खास कुछ नहीं चल रहा। क्या चलेगा? एक तो देश में और राज्य में क्या चल रहा है इस पर नजर रखना और अलग-अलग लोगों से संवाद करना, राजनीति के बाहर के लोगों से मैं बात करता हूं और कुछ अच्छा पढ़ने मिले तो पढ़ता हूं, इसके अलावा कुछ खास नहीं चल रहा है।
लॉकडाउन के ये फायदे भी हैं।
– संकट तो है ही लेकिन उसमें जो अच्छा किया जा सके, सकारात्मक दृष्टिकोण रखा जा सके वह करना जरूरी है। इसके महत्व की वजह यह कि अभी कोरोना का जो संकट विश्व पर आया है, उसके चलते लॉकडाउन हुआ है। सभी चीजें बंद हैं। दुर्भाग्यवश लॉकडाउन जैसा जो निर्णय सभी को लेना पड़ा उसका यह परिणाम है। समझो यह लॉकडाउन काल नहीं होता, यह संकट नहीं होता तो शायद मेरे बारे में कुछ अलग दृश्य देखने को मिला होता यह निश्चित!
लेकिन लॉकडाउन अभी समाप्त नहीं हुआ है। जीने पर बंदिशें लगी हैं। इंसान को एक तरह से बेड़ियां ही लग गई हैं। मनुष्य जकड़ गया है। राजनीति जकड़ गई है, उद्योग जकड़ गया है। आप कई वर्षों से समाजसेवा और राजनीति में हैं। आपने कई बार भविष्य का वेध लिया। आपको सपने में भी कभी ऐसा लगा था क्या कि इस तरह के संकटों का सामना इंसानों को करना पड़ेगा?
– कभी भी नहीं लगा। मेरे पठन में कुछ पुराने संदर्भ हैं। खासकर कांग्रेस पार्टी का इतिहास पढ़ने में। कांग्रेस पार्टी की स्थापना जो हुई, उसका एक इतिहास है। वर्ष १८८५ में कांग्रेस की स्थापना पुणे में होनी थी और वहां अधिवेशन भी तय हुआ था। लेकिन प्लेग की बीमारी उसी समय बड़े पैमाने पर फैली। इंसान मरने लगे इसलिए पुणे की जगह मुंबई में अधिवेशन हुआ। आज जिस जगह को अगस्त क्रांति मैदान या ग्वालिया टैंक कहा जाता है, वहां कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। उस समय के प्लेग संक्रमण का पूरा इतिहास लिखा गया है। उस समय ऐसा दृश्य था कि राज्य के कई भागों में इंसान प्लेग के कारण मर रहे थे। सभी व्यवहार थम गए थे। लेकिन यह पढ़ी हुई बातें है क्योंकि उस समय मेरा जन्म नहीं हुआ था। और आज कभी अपेक्षा की नहीं, कभी विचार किया नहीं इस तरह का दृश्य है। यह दृश्य सिर्फ महाराष्ट्र तक सीमित नहीं बल्कि पूरे विश्व में है। कभी ऐसा अनुभव होगा, ऐसा नहीं सोचा था। लेकिन परिस्थिति का सामना करना ही पड़ेगा।
आज इंसान, इंसान से घबरा रहा है। ऐसा दृश्य है…
– हां, घर-घर में यही दृश्य है। डॉक्टरों का भी सुझाव है कि एक-दूसरे से जितना दूर रह सकें, उतना दूर रहें। तुम सावधानी बरतो नहीं तो उसका दुष्परिणाम सहन करना पड़ेगा। इसलिए पूरा विश्व चिंतित है। इस कालखंड में एक ही चीज बड़े पैमाने में देखने को मिल रही है कि समाज के सभी घटकों में एक तरह की घबराहट है। अब धीरे-धीरे वह कम होने लगी है, यह सही है। लेकिन इस घबराहट के चलते इंसान घर के बाहर नहीं निकलेगा ऐसा कभी लगा नहीं था, वह हमें देखने को मिला है।
अलग तरह का कर्फ्यू लगा है कई बार…
– मुझे याद है कि पहले चीन व पाकिस्तान का युध्द हुआ तब एक-दो दिन का कर्फ्यू रहता था। दुश्मन देश हवाई जहाज से हमला करेगा, ऐसी खबरें आती थीं। तब इस तरह का कर्फ्यू रहता था। लोग घरों में ही रहते थे लेकिन वह भी एक दिन के लिए, आधे दिन के लिए या फिर एक रात के लिए यह कर्फ्यू हुआ करता था। लेकिन अब कोरोना के चलते लोग महीना-महीना, दो-दो महीना, ढाई महीना घर के बाहर नहीं निकले। यह दृश्य कभी देखने को मिलेगा, ऐसा नहीं सोचा था। अब एक अलग ही स्थिति कोरोना के चलते हमें देखने को मिली।
लॉकडाउन का शुरुआती काल सभी ने बिल्कुल सख्ती से पालन किया। चाहे वह कलाकार हो, हमारी तरह राजनीतिज्ञ हो या उद्योजक हो।
– दूसरा क्या विकल्प था? घर पर रहना ही सबसे सुरक्षित उपाय था।
आप तो निरंतर घूमनेवाले नेता हैं। हमेशा लोगों के बीच रहनेवाले नेता हैं। इस लॉकडाउन का शुरुआती काल आपने कैसे व्यतीत किया?
– शुरुआती महीने-डेढ़ महीने मैं अपने घर की चौखट से बाहर तक नहीं गया। प्रांगण में भी नहीं गया। चौखट के अंदर ही रहा। उसकी कुछ वजहें थीं। एक तो घर से प्रेशर था। इसके अलावा सभी विशेषज्ञों ने कहा था कि ७० से ८० आयु वर्ग के लोगों को बिल्कुल सावधानी बरतने की जरूरत है या यह आयु वर्ग बिल्कुल व्हलनरेबल है। मैं भी इसी आयु वर्ग में आता हूं इसलिए अधिक ध्यान देने की जरूरत है। ऐसा घर के लोगों का आग्रह था और न कहें तो मन में उत्पीड़न। इसलिए मैं उस चौखट के बाहर कहीं गया नहीं। ज्यादा समय टेलीविजन, पढ़ाई के अलावा कुछ दूसरा नहीं किया।
हमने आपका एक वीडियो देखा, जो सुप्रियाताई ने डाला था। उसमें आप बरामदे में घूम रहे हैं और गीत-रामायण सुन रहे हैं।
– हां, इस काल में खूब गीत सुने। भीमसेन जोशी के सभी अभंग सुने। ये सभी अभंग दो-तीन-चार बार नहीं बल्कि कई बार सुना। पुराने दौर में हिंदी में ‘बिनाका गीतमाला’ होती थी। अब वह नए कलेवर में उपलब्ध है। उसे भी बार-बार सुनने का मौका इस काल में मिला। संपूर्ण गीत-रामायण दोबारा सुना। ग. दि. माडगुलकर ने क्या जबरदस्त कलाकृति इस देश, विशेष रूप से महाराष्ट्र की और मराठी लोगों की सांस्कृतिक विश्व में निर्माण करके रखी इसका दोबारा अनुभव हुआ।
आपका राममंदिर के आंदोलन से कभी संबंध नहीं रहा लेकिन गीत-रामायण से आता है…
– नहीं, उस आंदोलन से कभी संबंध नहीं रहा।
पर रामायण से संबंध आया…
– वह गीत-रामायण के माध्यम से!
कोरोना का संकट तो रहेगा ही, ऐसा विश्व के विशेषज्ञों का मानना है। यह संकट इतनी जल्दी दूर नहीं होगा। ये ऐसे ही रहेगा, लेकिन लॉकडाउन का संकट कब तक रहेगा, आपको क्या लगता है?
– एक बात तो इस काल में स्पष्ट हो गई है कि यहां से आगे आपको, मुझे, हम सभी को कोरोना के साथ जीने की तैयारी रखनी होगी। कोरोना हमारी दैनिक जिंदगी का एक हिस्सा बन रहा है, इस प्रकार की बात विशेषज्ञों द्वारा कही गई है। इसलिए अब हमें भी इसे स्वीकारना ही होगा। इस परिस्थिति को ध्यान में रखकर ही आगे जाने की तैयारी करनी होगी। सवाल है लॉकडाउन का। चिंताजनक परिस्थिति निर्माण करती है लॉकडाउन।
मतलब लॉकडाउन के साथ भी जीना होगा क्या?
– नहीं। हर्गिज नहीं। लॉकडाउन के साथ हमेशा जीना होगा ऐसा मुझे नहीं लगता। हाल ही में मैंने कुछ विशेषज्ञों से बात की। उन्होंने कहा कि लगभग जुलाई महीने के तीसरे सप्ताह से यह ट्रेंड नीचे आएगा। अगस्त और सितंबर में पूरा खाली जाएगा और दोबारा नॉर्मलसी आएगी। लेकिन इसका मतलब कोरोना हमेशा के लिए समाप्त हो गया, ऐसा नहीं मान लेना है। कभी भी रिवर्स हो सकता है। इसलिए आगे से हमें कोरोना को लेकर ध्यान देना होगा और अपने सभी व्यवहारों में सावधानी लेने की जरूरत है। लेकिन ऐसी कोरोना जैसी परिस्थिति दोबारा आई तो लॉकडाउन करने की नौबत आती है और लॉकडाउन करने से जो परिणाम हुए, उदाहरणार्थ वित्तीय व्यवस्था पर हुआ, परिवार में हुआ, व्यापार पर हुआ, यात्रा पर हुआ। यह सब हमने अभी देखा है। इसके आगे ऐसी परिस्थिति दोबारा न आए ऐसी हमारी प्रार्थना है, लेकिन वित्तीय संकट आ ही गया तो उसके लिए हम सबकी तैयारी होनी चाहिए।
इसके लिए समाज में जागरूकता लाने की जरूरत है, ऐसा क्यों लगता है?
– हां, निश्चित ही। मेरा तो साफ मानना है कि, यहां से आगे अब अपने पाठ्यपुस्तक में यह दो-ढाई महीने के कालखंड का जो हमने अनुभव लिया है, इस संबंध में जो देखभाल और सावधानी लेने की जरूरत है, उस पर आधारित एक दूसरा पाठ पाठ्यपुस्तक में होना जरूरी है।
पिछले कुछ दिनों से जो खबरें आ रही हैं उसके आधार पर पूछ रहा हूं कि लॉकडाउन के संदर्भ में आपकी भूमिका और राज्य के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की भूमिका अलग है। मतभेद है।
– बिल्कुल नहीं। वैâसा मतभेद? मतभेद किस लिए? इस पूरे काल में मेरा मुख्यमंत्री के साथ उत्तम संवाद था। आज भी है।
पर लॉकडाउन शिथिल करें, आपका ऐसा मानना था और उस संदर्भ में मतभेद था, ऐसा मीडिया में आया।
– मीडिया में क्या आ रहा है, उसे आने दो। एक बात ध्यान देनी चाहिए। अखबारों की भी कुछ समस्या होती है। जैसे लॉकडाउन के चलते हमें घर से बाहर निकलते नहीं बन रहा। हमारे बहुत से काम करते नहीं बन रहे। बहुत सी एक्टिविटीज रुक गई। इसका परिणाम जैसे बहुत से घटकों पर हुआ है वैसे अखबारों पर भी हुआ है। मुख्य परिणाम यानी उन्हें जो खबर चाहिए, वह खबर देनेवाले जो उद्योग हैं, कार्यक्रम हैं, वो कम हुए और इसलिए जगह भरने संबंधित जिम्मेदारी उन्हें टालते नहीं बन रही। फिर इनमें और उनमें नाराजगी है, ऐसी खबरें दी जा रही हैं। दो-तीन दिन से मैं पढ़ रहा हूं कि हमारे यानी कांग्रेस, राष्ट्रवादी और शिवसेना में मतभेद है। उसमें रत्तीभर भी सच्चाई नहीं, लेकिन ऐसी खबरें आ रही हैं। आने दो!
मेरा सवाल ऐसा था कि लॉकडाउन धीरे-धीरे हटाएं, ऐसी आपकी भूमिका है। लोगों को छूट देनी चाहिए, ऐसा आपका कहना है।
– देखिए, इसमें मेरा साफ कहना है कि शुरुआती काल में कड़ाई से लॉकडाउन करने की आवश्यकता थी। उसका पालन मुख्यमंत्री ठाकरे के नेतृत्व में महाराष्ट्र में हुआ। यहां वैसी ही आवश्यकता थी। इतनी कठोरता नहीं की गई होती तो शायद न्यूयॉर्क जैसा हाल यहां हुआ होता। हम न्यूयॉर्क के बारे में खबरें पढ़ते हैं कि हजारों लोगों को इस संकट के चलते मौत के मुंह में जाना पड़ा। वही स्थिति यहां आ गई होती। यहां सख्ती से लॉकडाउन लागू हुआ और विशेष रूप से लोगों ने सहयोग भी किया। इसलिए यहां की परिस्थिति सुधारने में मदद मिली, नहीं तो अनर्थ हो गया होता। पहले दो-ढाई महीने इसकी आवश्यकता थी। इस बारे में मुख्यमंत्री ठाकरे और राज्य सरकार का दृष्टिकोण सौ प्रतिशत सही था। हम सबका इसे मन से समर्थन था।
लॉकडाउन का सबसे बड़ा फटका मजदूरों और उद्योगपतियों को लगा इसलिए शिथिलता लाएं ऐसा आपका मत था…
– इस काल में मैंने कइयों से चर्चा की, उसमें उद्योगपति भी थे। मजदूर संगठनों के लोग भी थे। उनसे चर्चा करने के बाद मेरी एक राय बनी, वो मैंने मुख्यमंत्री के कानों पर जरूर डाली। इसे मतभेद नहीं कहते। स्पष्ट कहें तो कुछ जगह, उदाहरणार्थ दिल्ली। दिल्ली में रिलेक्शेसन किया गया। क्या हुआ वहां? उसका नुकसान हुआ। लेकिन व्यवहार धीरे-धीरे शुरू हुआ। कर्नाटक के सरकार ने भी रिलेक्शेसन किया। वहां भी कुछ परिणाम हुआ, नहीं ऐसा नहीं, लेकिन कर्नाटक में भी व्यवहार शुरू हुआ। यह महत्वपूर्ण है। इस तरीके से कदम रखना होगा क्योंकि समाज की, राज्य की, देश की वित्त व्यवस्था पूरी तरह उध्वस्त हुई तो कोरोना से ज्यादा उसका दुष्परिणाम आगे की कुछ पीढ़ियों को सहना पड़ेगा। इसलिए ही वित्त व्यवस्था को दोबारा कैसे संवारा जा सकता है, इस दृष्टि से ध्यान देते हुए हम आगे कैसे जाएं, इसका विचार करना होगा। तब तक का निर्णय लेना होगा। इसका मतलब सब खोल दो, ऐसा नहीं है लेकिन थोड़ी-बहुत तो अब धीरे-धीरे ढील लेने की जरूरत है, वैसे वो दी गई है। उदाहरणार्थ परसों मुख्यमंत्री ठाकरे ने सलून शुरू करने के बारे में निर्णय लिया। उसकी आवश्यकता थी क्योंकि हमारे कई मित्र जब मिलते थे, उन्हें देखकर उनके सिर पर इतने बाल हैं, ये पहली बार पता लगा। कोरोना का परिणाम! दूसरी बात ऐसी कि इस व्यवसाय में आए लोगों की पारिवारिक समस्या काफी बढ़ने लगी थी, उस दृष्टि से सलून शुरू करने का निर्णय मुख्यमंत्री ने लिया और वो मेरी राय से योग्य निर्णय था।
मतलब मुख्यमंत्री ने अपने ढंग से लॉकडाउन शिथिल करने का निर्णय लिया…
– निश्चित ही मुख्यमंत्री ठाकरे द्वारा लिया गया निर्णय कुछ लोगों को थोड़ी देर से लिया गया लगता होगा, लेकिन उन्होंने यह निर्णय सही समय पर लिया है। मुख्यमंत्री का जो स्वभाव है, यह निर्णय उस स्वभाव के अनुकूल ही है। अर्थात निर्णय लेना ही है परंतु बेहद सतर्कता के साथ। निर्णय लेने के बाद कुछ दुष्परिणाम न हो, यह जितना ज्यादा सुनिश्चित किया जा सके, उतना करने के बाद लेना चाहिए और फिर कदम आगे बढ़ाना चाहिए। एक बार कदम बढ़ाने के बाद पीछे नहीं लेना है, यह उनकी कार्यशैली है।
बालासाहेब ठाकरे और उद्धव ठाकरे की कार्यशैली में यह अंतर है तो…
– सही है… यह अंतर है। वैसे यह रहेगा ही।
बालासाहेब ठाकरे फटाफट निर्णय लेकर फैसला सुना देते थे। लेकिन बालासाहेब कभी भी सत्ता में नहीं थे और उद्धव ठाकरे प्रत्यक्ष मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर हैं…
– यह अंतर भी है ही ना। बालासाहेब प्रत्यक्ष सत्ता में नहीं थे, फिर भी सत्ता के पीछे एक मुख्य घटक थे। उनके विचारों से महाराष्ट्र में सत्ता आई, महाराष्ट्र और देश ने देखा। आज विचारों से सत्ता नहीं आई लेकिन सत्ता प्रत्यक्ष कृति से लाने में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी आज के मुख्यमंत्री ठाकरे की है। यह फर्क महत्वपूर्ण है।
इन तमाम परिस्थितियों में क्या कभी आपको बालासाहेब ठाकरे की याद आती है?
– आती है ना। कोरोना और लॉकडाउन के कारण पहले दो महीने इत्मीनान से घर में बैठा था। बालासाहेब के काम का तरीका मुझसे ज्यादा तुम जानते हो। वह क्या दिन भर घर के बाहर निकल कर कहीं जाते थे, ऐसा नहीं है। कई बार कई दिन वे घर में ही बिताते थे। परंतु घर में रहते हुए भी सहयोगियों को साथ लेकर उन्हें प्रोत्साहित करके सामने आई चुनौतियों का सामना करना बालासाहेब ने सिखाया था, ऐसा मुझे लगता है। मेरे जैसे को इन दो महीनों में बालासाहेब की याद इन्हीं वजहों से आती थी कि हमें घर से तो बाहर निकलना नहीं है लेकिन बाकी के काम, जिस दिशा में हमें जाना है, उस दिशा में जाने के लिए सफर की तैयारी हमें करनी चाहिए। ये जिस तरह से बालासाहेब करते थे उसकी याद मुझे इस दौरान आई।
कोरोना के कारण पूरी दुनिया बदल गई। इस बदली हुई दुनिया का परिणाम हिंदुस्थान पर भी हो रहा है, विदेश में जो नौकरीपेशा वर्ग पूरी दुनिया में फैला था, जो कि हमारा था, वह हमारे देश में लौट आया है। अभी आपने न्यूयॉर्क का उल्लेख किया। वहां से भी हजारों लोग यहां वापस आए। इस बदली हुई दुनिया को आप किस तरह से देखते हैं?
– मेरे अनुसार हमें इन हालातों को एक अवसर के रूप में देखना चाहिए। इस संकट के कारण पहली बार हमें ज्ञात हुआ कि दुनिया के कोने-कोने में हिंदुस्थानी कहां-कहां तक पहुंचे हैं। विशेषत: लॉकडाउन के पहले दो महीनों में मुंबई में रहकर यह काम बहुत ज्यादा करना पड़ा। वह काम यह था कि कई देशों से टेलीफोन आते थे कि हमारे देश में इतने-इतने हिंदुस्थानी हैं, उन्हें वापस लौटना है। उन्हें वापस लौटने के लिए विमान की व्यवस्था करने में सहयोग दें। मुझे आश्चर्यजनक झटका कब लगा? जब फिलीपींस में मेडिकल की पढ़ाई करने गए ४०० बच्चों के लौटने की व्यवस्था मुझे करनी पड़ी। ताशकंद से ३००-३५० विद्यार्थियों को लाने की व्यवस्था मुझे करनी पड़ी। इंग्लैंड-अमेरिका ठीक है लेकिन जो ये देश हैं, इन देशों में इतनी बड़ी संख्या में हमारे विद्यार्थी गए हैं, यह पता ही नहीं था। दुनिया के कोने-कोने में हिंदुस्थानी और मराठी, ये दोनों ही देखने को मिले। यह कोरोना के कारण हुआ।
इस पूरे प्रकरण से देश और राज्य की राजनीति ही बदल गई है। अब तक आप जैसे बड़े नेता सार्वजनिक सभा करते थे। हजारों लाखों लोगों की सभा को संबोधित करते थे। प्रधानमंत्री मोदी होंगे। आप होंगे, अन्य नेता होंगे। अब यह सब बंद हो जाएगा। क्या यह राजनीति का ही लॉकडाउन हो गया है?
– आप जो कहते हो, सही है। आज तो हालात ऐसे ही नजर आ रहे हैं। नए ढंग की राजनीति अब स्वीकार करनी होगी।
मूलत: भीड़ भारतीय राजनीति की आत्मा है। भीड़ नहीं होगी तो हमारी राजनीति इंच भर भी आगे नहीं बढ़ेगी। आपका संदेश आगे नहीं जाएगा। लाखों की भीड़ जो जमा करता है। वह बड़ा नेता है यह अब तक हमारे देश की अवस्था थी।
– यह स्थिति एकदम से बदल जाएगी ऐसा मुझे नहीं लगता। धीरे-धीरे हालात होते जाएंगे लेकिन हमारे लिए इस स्थिति को नजरअंदाज करना संभव नहीं है। अमेरिका में राष्ट्रपति पद का चुनाव देखते हैं। उन चुनावों में दृश्य एकदम अलग होते हैं। हमारे यहां दृश्य अलग होते हैं। हम हिंदुस्थान को देखते हैं। बालासाहेब की लाखों की सभा होती थी। अटल जी की लाखों की सभा होती थी। इंदिरा गांधी की होती थी, यशवंतराव चव्हाण की होती थी। यह दृश्य अमेरिका एवं पश्चिमी देशों में देखने को नहीं मिलता है लेकिन टेलीविजन और रेडियो के माध्यम से पूरे देश का ध्यान उस दिन चर्चा की ओर होता था। मान लो राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार और प्रतिस्पर्धी उम्मीदवार इन दोनों के बीच डिस्कशन, चर्चा, सवाल-जवाब होते थे। उसको लगा होता था। पूरा देश देखता रहता है। लेकिन यह देखने के लिए और व्यक्त करने के लिए माध्यम अलग होता है। हमारा माध्यम अलग है।
हमारे यहां ये डिजिटल सभा का प्रकरण सफल होगा?
– हमारे यहां ऐसा है, यहां नेताओं वक्ताओं के सामने भीड़ नहीं होगी तो उनकी बातों में धार नहीं आती। मैं जो बोल रहा हूं, सामनेवाले को कितना जंच रहा है, कितना डायजेस्ट हो रहा है, ये उनके चेहरे से समझ आता है और मान लो वह स्तब्ध रह गया… भीड़ से बिलकुल भी प्रतिसाद नहीं मिल रहा होगा तो इसका भी प्रभाव वक्ता पर होता रहता है। इन सबसे हम गुजर चुके हैं। परंतु अब धीरे-धीरे ये तमाम पुराने तरीके हमें बदलने होंगे। मतलब ये सब शत-प्रतिशत समाप्त हो जाएंगे, मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं। परंतु ये धीरे-धीरे कम होगा ही। कम्युनिकेशन की आधुनिक तकनीक आत्मसात करने के बारे में सोचना होगा।
परंतु ग्रामीण भागों में ये कैसे सफल होगा? विधानसभा चुनाव में जैसा माहौल खुद आपने तैयार किया, जिसके कारण आगे परिवर्तन हो सका। खासकर भरी बरसात में आपकी सातारा जैसी सभा नए तंत्र में कैसे होगी? लोगों को दिल से लगता है कि मैं अपने नेता को देखूं, सामने से सुनूं। इसके आगे ये सब रुक जाएगा ऐसा लगता नहीं है?
– निश्चित ही ये रुक जाएगा। मेरे जैसे इंसान के लिए, मेरी पीढ़ी के इंसान के लिए यह रुक गया तो अच्छा नहीं है। लोगों के बीच जाना ही होगा। चुनावी सभाओं में न जाना, ऐसे भी हालात आएंगे क्या, इसकी चिंता है। लेकिन ये ज्यादा दिन चलेगा, ऐसा लगता नहीं है। चलना नहीं चाहिए, ऐसी प्रार्थना है।
एक साल पहले इस देश में लोकसभा चुनाव हुए थे। सामान्यत: देश की अवस्था और राजनीति ‘जैसे थे’ रही। अर्थात जो व्यवस्था थी व व्यवस्था बरकरार रही। प्रधानमंत्री मोदी हैं। उनकी सरकार बरकरार रही। केंद्र की राजनैतिक व्यवस्था बदलेगी, ऐसी संभावना नहीं थी। लोकसभा चुनाव का परिणाम जैसा अपेक्षित था वैसा ही आया, परंतु कुछ राज्यों में बदलाव हुआ। खासकर हम महाराष्ट्र के बारे में बात करें तो महाराष्ट्र की राजनीति ६ महीने पहले ही पूरी तरह से बदल गई। इस तरह से बदली कि पूरा देश इस महाराष्ट्र की घटनाओं के भविष्य की ओर एक अलग नजरिए से देखने लगा। कइयों के मन में एक सवाल है कि महाराष्ट्र में यह जो बदलाव है, ये एक हादसा था। उस समय हुआ? अथवा ये बदलाव सभी ने मिलकर किया।
– मुझे हादसा बिलकुल भी नहीं लगता। दो बातें हैं। महाराष्ट्र के लोकसभा के चुनाव। देश के लोकसभा के चुनाव में बहुत ज्यादा अंतर नहीं था। लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र की मराठी जनतों ने भी देश में जो दृश्य था, उससे सुसंगत महत्वपूर्ण भूमिका अपनाई। परंतु राज्य का सवाल आया, उस समय हमें महाराष्ट्र का नजारा और ही दिखने लगा। ये केवल महाराष्ट्र में ही नहीं बल्कि अन्य राज्यों में भी दिख रहा था। कहीं कांग्रेस आई… कहीं अन्य गठबंधन सत्तासीन हुए। अब मध्यप्रदेश का उदाहरण लें या राजस्थान, झारखंड, छत्तीसगढ़.. इन सभी राज्यों में तस्वीर बदली। लोकसभा के लिए वहां सीटें थीं। पीछे केंद्र सरकार थी। परंतु विधानसभा में भाजपा मुकरती दिखी। मेरे अनुसार महाराष्ट्र में तस्वीर बदलने का मूड जनता का था।
ऐसा आप कैसे कहते हैं?
– उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री बनने के पहले का दौर देखें। इन पांच वर्षों में शिवसेना और भाजपा की सरकार थी। लेकिन शिवसेना के विचारोंवाले जो मतदाता हैं और जो शिवसेना कार्यकर्ता हैं उन सभी में उस सरकार के प्रति एक तरह की व्याकुलता साफ दिखाई दे रही थी।
आपको ऐसा क्या महसूस हुआ?
– शिवसेना के काम करने की विशिष्ट शैली है। कोई काम हाथ में लेने के बाद उसे दृढ़तापूर्वक पूरा करना। उसके लिए कितना भी परिश्रम एवं पैसा देने की तैयारी रखनी चाहिए। भाजपा के साथ सहभाग के उस कालखंड में शिवसेना ने भारी कीमत चुकाई। साधारणत: शिवसेना को शांत वैâसे रखा जा सकता है, रोका वैâसे जा सकता है, उन्हें हाशिए पर कैसे रखा जा सकता है? यह नीति भाजपा ने हमेशा अपनाई। इसलिए शिवसेना को माननेवाला यह वर्ग उद्विग्न था। दूसरी बात, वो जो पांच साल महाराष्ट्र की जनता ने देखे वे वास्तविक अर्थों में भाजपा की ही सरकार होनी चाहिए, ऐसी ही थी। इसके पहले युति की सरकार थी। वर्ष १९९५ में मनोहर जोशी मुख्यमंत्री थे। उस दौरान ऐसा माहौल कभी नहीं था। इसकी वजह, उसका नेतृत्व शिवसेना के पास था और बालासाहेब के पास था। इस सरकार के पीछे उनकी सशक्त भूमिका थी। अभी जो इन दोनों की सरकार थी, उसमें भाजपा ने शिवसेना को करीब-करीब किनारे कर दिया और भाजपा ही असली शासक तथा इसके आगे के कालखंड में राज्य भाजपा के नेतृत्व के विचारों से ही चलेगा, यह भूमिका दृढ़ता से अपनाकर उन्होंने कदम बढ़ाए। महाराष्ट्र की जनता को यह जंचा नहीं।
मतलब इस महाराष्ट्र में हम ही राजनीति करेंगे, अन्य कोई नहीं करेगा…
– हां, कर ही नहीं सकता है। अन्य कोई यहां राजनीति कर ही नहीं सकता है। ऐसी सोच दिख रही थी।
फिर इसके विरोध में लोगों की बगावत उबलकर मतपेटी से निकली, ऐसा लगता है क्या?
– एकदम, सीधे-सीधे ऐसी ही अवस्था है और थोड़ा बहुत ये उपहास का विषय भी बन गया कि ‘मैं फिर आउंगा… मैं फिर आउंगा…’
मैं फिर आऊंंगा…
– हां, मैं फिर आऊंंगा… इस सबके कारण एक तो ऐसा है कि किसी भी शासक, राजनीतिज्ञ नेता को मैं ही आऊंंगा, इस सोच के साथ जनता को जागीर नहीं समझना चाहिए। इस तरह की सोच में थोड़ा दंभ झलकता है। ऐसी भावना लोगोें में हो गई और इन्हें सबक सिखाना चाहिए। यह विचार लोगों में फैल गया।
पूर्व मुख्यमंत्री फडणवीस ने हाल ही में एक साक्षात्कार में कहा कि मेरी सरकार चली गई अथवा मैं मुख्यमंत्री पद पर नहीं हूं, यह पचाने में बड़ी परेशानी हुई। इसे स्वीकार करने में ही दो दिन लगे। इसका अर्थ यह है कि हमारी सत्ता कभी नहीं जाएगी। इस सोच… अमरपट्टा ही बांधकर आए हैं।
– देखो, किसी भी लोकतंत्र में नेता हम अमरत्व लेकर आए हैं, ऐसा नहीं सोच सकता है। इस देश के मतदाताओं के प्रति गलतफहमी पाली तो वह कभी सहन नहीं करता। इंदिरा गांधी जैसी जनमानस में प्रचंड समर्थन प्राप्त महिला को भी पराजय देखने को मिली। इसका अर्थ यह है कि इस देश का सामान्य इंसान लोकतांत्रिक अधिकारों के संदर्भ में हम राजनीतिज्ञों से ज्यादा सयाना है और हमारे कदम चौखट के बाहर निकल रहे हैं, ऐसा दिखा तो वह हमें भी सबक सिखाता है। इसलिए कोई भी भूमिका लेकर बैठे कि हम ही! हम ही आएंगे…तो लोगों को यह पसंद नहीं आता है।
१०५ विधायकों का समर्थन होने के बावजूद प्रमुख पार्टी सत्ता स्थापित नहीं कर सकी। सत्ता में नहीं आ सकी। यह भी एक अजीब कला है अथवा महाराष्ट्र में चमत्कार हुआ। इसे आप क्या कहेंगे?
– ऐसा है कि तुम जिसे प्रमुख पार्टी कहते हो, वह प्रमुख पार्टी वैâसे बनी? इसकी भी गहराई में जाना चाहिए। मेरा स्पष्ट मत है कि विधानसभा में उनके विधायकों का जो १०५ फिगर हुआ, उसमें शिवसेना का योगदान बहुत बड़ा था। उसमें से तुमने शिवसेना को मायनस कर दिया होता, उसमें शामिल नहीं होती तो इस बार १०५ का आंकड़ा तुम्हें कहीं तो ४०-५० के करीब दिखा होता। भाजपा के लोग जो कहते हैं कि हमारे १०५ होने के बावजूद हमें हमारी सहयोगी यानी शिवसेना ने नजरअंदाज किया अथवा सत्ता से दूर रखा। उन्हें १०५ तक पहुंचाने का काम जिन्होंने किया, यदि उन्हीं के प्रति गलतफहमी भरी भूमिका अपनाई तो मुझे नहीं लगता कि औरों को कुछ अलग करने की आवश्यकता है।
परंतु उनके लिए जो संभव नहीं हुआ, वह शरद पवार ने संभव कर दिखाया। और शिवसेना को भाजपा के बगैर मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचा दिया।
– ऐसा कहना पूरी तरह सच नहीं है। मैं जिन बालासाहेब ठाकरे को जानता हूं। मेरी तुलना में आप लोगों को शायद अधिक जानकारी होगी। परंतु बालासाहेब की पूरी विचारधारा, काम करने की शैली भारतीय जनता पार्टी के अनुरूप थी, ऐसा मुझे कभी महसूस ही नहीं हुआ।
क्यों…? आपको ऐसा क्यों लगा?
– बताता हूं ना। सबकी वजह ये है कि बालासाहेब की भूमिका और भाजपा की विचारधारा में अंतर था। खासकर काम की शैली में जमीन आसमान का अंतर है। बालासाहेब ने कुछ व्यक्तियों का आदर किया। उन्होंने अटलबिहारी वाजपेयी का? आदर किया। उन्होंने आडवाणी का किया। उन्होंने प्रमोद महाजन का आदर किया। उन सभी को सम्मान देकर उन्होंने एक साथ आने का विचार किया और आगे सत्ता आने में सहयोग दिया। दूसरी बात ऐसी थी कि कांग्रेस से उनका संघर्ष था, ऐसा मुझे नहीं लगता। शिवसेना हमेशा कांग्रेस के विरोध में ही थी, ऐसा नहीं है।
बालासाहेब अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा मुंह पर ही कहनेवाले नेता थे। इसलिए ये अब हुआ होगा।
– हां, बालासाहेब वैसे ही थे। जितने बिंदास उतने ही दिलदार। राजनीति में वैसी दिलदारी मुश्किल है। शायद बालासाहेब ठाकरे और शिवसेना देश का पहला ऐसा दल है कि किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर सत्ताधारी दल के प्रमुख लोगों का खुद के दल के भविष्य की चिंता न करते हुए समर्थन करते थे। आपातकाल में भी पूरा देश इंदिरा गांधी के विरोध में था। उस समय अनुशासित नेतृत्व के लिए बालासाहेब इंदिरा गांधी के साथ खड़े थे। सिर्फ खड़े ही नहीं हुए बल्कि हम लोगों के लिए चैंकानेवाली बात तो ये भी थी कि उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र के चुनाव में वे अपने उम्मीदवार भी नहीं उतारेंगे! किसी राजनीतिक दल द्वारा हम उम्मीदवार नहीं उतारेंगे बोलकर राजनीतिक दल को चलाना मामूली बात नहीं है। लेकिन ऐसा बालासाहेब ही कर सकते थे और उन्होंने करके भी दिखाया। उसका कारण ये है कि उनके मन में कांग्रेस को लेकर कोई द्वेष नहीं था। कुछ नीतियों को लेकर उनकी स्पष्ट सोच थी। इसलिए उस समय कुछ अलग देखने को मिला और आज लगभग उसी रास्ते पर उद्धव ठाकरे चल रहे हैं, ऐसा कहने में कोई हर्ज नहीं है।
आपका शिवसेना से कभी वैचारिक नाता था, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता…लेकिन आज आप महाराष्ट्र में एक हैं..
– वैचारिक मतभेद थे। कुछ मामलों में रहे होंगे। लेकिन ऐसा नहीं था कि सुसंवाद नहीं था। बालासाहेब से सुसंवाद था। शिवसेना के वर्तमान नेतृत्व से ज्यादा सुसंवाद था। मिलना-जुलना, चर्चा, एक-दूसरे के यहां आना-जाना, ये सारी बातें थीं। ऐसा मैं कई बार घोषित तौर पर बोल चुका हूं। बालासाहेब ने अगर किसी व्यक्ति, परिवार या दल से संबंधित व्यक्तिगत सुसंवाद रखा या व्यक्तिगत ऋणानुबंध रखा, तो उन्होंने कभी किसी की फिक्र नहीं की। वे ओपनली सबकी मदद करते थे। इसलिए मैं अपने घर का घोषित तौर पर उदाहरण देता हूं कि सुप्रिया के समय सिर्फ बालासाहेब ही उसे निर्विरोध चुनकर लाए। यह सिर्फ बालासाहेब ही कर सकते थे।
आपने राज्य में महाविकास आघाड़ी का प्रयोग किया, आपने उसका नेतृत्व किया। उसे ६ महीने पूरे हो चुके हैं। यह प्रयोग कामयाब हो रहा है, ऐसा आपको लगता है क्या?
– बिल्कुल हो रहा है। यह प्रयोग, और भी कामयाब होगा, इस प्रयोग का फल महाराष्ट्र की जनता और महाराष्ट्र के विभिन्न विभागों को मिलेगा, ऐसी स्थिति हमें अवश्य देखने को मिलेगी। लेकिन अचानक कोरोना संकट आ गया। यह महाराष्ट्र का दुर्भाग्य है। गत कुछ महीनों से राज्य प्रशासन, सत्ताधीश तथा राज्य की पूरी यंत्रणा सिर्फ एक काम में ही जुटी हुई है, वह है कोरोना से लड़ाई। इसलिए बाकी मुद्दे एक तरफ रह गए हैं। एक और बात बताता हूं अगर फिलहाल का सेटअप ना होता तो तो कोरोना संकट से इतने प्रभावीपूर्ण ढंग से नहीं निपटा जा सकता था। ध्यान रहे, कोरोना जितना बड़ा संकट और तीन विचारों की पार्टी, लेकिन सब लोग एक विचार से मुख्यमंत्री ठाकरे के साथ खड़े हैं। उनकी नीतियों के साथ खड़े हैं और परिस्थिति का सामना कर रहे हैं। लोगों के साथ मजबूती से खड़े हैं। यह कामयाबी है, इसका मुझे पूरा विश्वास है। सब लोग एक साथ मिलकर काम कर रहे हैं इसलिए यह संभव हुआ है। तीनों दलों में जरा-सी भी नाराजगी नहीं है।
और श्रेय लेने की जल्दबाजी भी नहीं।
– बिल्कुल नहीं।
आपने पुलोद का प्रयोग देश में पहली बार किया। कई पार्टियों को मिलाकर राज किया। पुलोद की सरकार और वर्तमान महा विकास आघाड़ी सरकार में क्या फर्क है?
– फर्क ऐसा है कि पुलोद सरकार का नेतृत्व मेरे पास था। उस सरकार में सभी लोग थे। आज की भाजपा उस समय जनसंघ के रूप में थी, वे भी हमारे साथ थे, वे भी उसमें थे। मंत्रिमंडल एक विचार से काम करने वाला था। उसमें किसी भी प्रकार की असुविधा नहीं थी। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि केंद्र सरकार उसे पूरा साथ देती थी। पुलोद की सरकार आई, उस समय देश का नेतृत्व मोरारजी भाई देसाई के पास था। वह प्रधानमंत्री के रूप में महाराष्ट्र की पुलोद सरकार को पूरी ताकत से मदद करते थे। आज थोड़ा फर्क यह है कि यहां आइडियोलॉजी अलग होगी, फिर भी एक विचार से काम करनेवाले लोग साथ आए हैं। दिशा कौन सी है, यह स्पष्ट है और उस दिशा में जाने की यात्रा भी अच्छी रहेगी तथा लोगों के हित में रहेगी, इसका ध्यान रखा गया है। लेकिन पुलोद के समय जैसे केंद्र मजबूती से साथ देता था, वैसा इस समय नहीं दिखता।
इस सरकार के आप हेडमास्टर हैं या रिमोट कंट्रोल?
– दोनों में से कोई नहीं। हेडमास्टर तो स्कूल में होना चाहिए। लोकतंत्र में सरकार या प्रशासन कभी रिमोट से नहीं चलता। रिमोट कहां चलता है? जहां लोकतंत्र नहीं है वहां। हमने रशिया का उदाहरण देखा है। पुतिन वहां २०३६ तक अध्यक्ष रहेंगे। वो एकतरफा सत्ता है, लोकतंत्र आदि एक तरफ रख दिया है। इसलिए यह कहना कि हम जैसे कहेंगे वैसे सरकार चलेगी, यह एक प्रकार की जिद है। यहां लोकतंत्र की सरकार है और लोकतंत्र की सरकार रिमोट कंट्रोल से कभी नहीं चल सकती। मुझे यह स्वीकार नहीं। सरकार मुख्यमंत्री और उनके मंत्री चला रहे हैं।(hindisaamana)
नई दिल्ली, 5 जुलाई (आईएएनएस)। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव राम माधव पार्टी के हाईप्रोफाइल चेहरों में से एक हैं। 2003 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रवक्ता बनने के बाद से वह देश ही नहीं दुनिया की मीडिया में भी सुर्खियों में रहे। तब उन्हें आरएसएस का ‘ग्लोबल एम्बेसडर’ भी कहा जाने लगा था। 2014 में उनकी भाजपा में बतौर नेशनल जनरल सेक्रेटरी एंट्री हुई। तबसे वह पार्टी में जम्मू-कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर मामलों की गतिविधियां देख रहे हैं।
राम माधव ने पूर्वोत्तर में भाजपा की पहुंच बनाने में अहम भूमिका निभाई। यह उनकी कोशिशों का नतीजा है कि जिस पूर्वोत्तर में भारतीय जनता पार्टी की उपस्थिति नहीं थी, वहां के राज्यों में आज भाजपा की सरकारें हैं। आंध्र प्रदेश के मूलनिवासी 56 वर्षीय राम माधव आरएसएस में प्रचारक बनने से पहले इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे।
बहुत जल्दी ही जम्मू-कश्मीर को वापस पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने का प्रयास किया जाएगा
राम माधव ने जम्मू-कश्मीर को फिर से पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने के सवाल पर कहा कि उनकी पार्टी इसका समर्थन करती है। उन्होंने कहा, भाजपा की जम्मू-कश्मीर यूनिट का मत है कि सही समय हो तो राज्य का दर्जा वापस दिया जाए। हम चाहते हैं कि जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल हो। गृहमंत्री अमित शाह ने खुद यूनियन टेरिटरी का दर्जा देते समय कहा था कि बहुत जल्दी ही वापस पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने का प्रयास किया जाएगा। अभी यूनियन टेरिटरी के लिए असेंबली और डिलिमिटेशन कमीशन का गठन होना है।
सभी नेता राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेकर प्रशासन और जनता के बीच सेतु का काम करें
घाटी में राजनीतिक गतिविधियों को शुरू करने के सवाल पर उन्होंने कहा कि ज्यादातर नेता रिहा किए जा चुके हैं। राम माधव ने कहा, भाजपा चाहती है कि सभी नेता राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेकर प्रशासन और जनता के बीच सेतु का काम करें, लेकिन पीडीपीए नेशनल कांफ्रेंस, कांग्रेस के सभी बड़े नेता घरों में बैठे हैं। कांग्रेस के नेता तो गिरफ्तार भी नहीं हुए थे। ऐसे में उन्हें जवाब देना चाहिए कि क्यों राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा नहीं ले रहे हैं। असेंबली चुनाव होगा तभी राजनीतिक गतिविधि चलेंगी।
केवल कॉलोनियां बनाने से ही कश्मीरी पंडितों की घर वापसी नहीं हो सकती
हाल में अजय पंडित की हत्या के बाद कश्मीरी पंडितों में डर और उनकी घर वापसी से जुड़े सवाल पर राम माधव ने कहा कि गृहमंत्रालय इस पूरे मामले को देख रहा है। उन्होंने कहा, जब तक वहां सुरक्षा और सम्मान दोनों की हम गारंटी नहीं कर सकेंगे तब तक घाटी में पंडितों का जाना संभव नहीं होगा। केवल कालोनियां बनाने से ही पंडितों की घर वापसी नहीं हो सकती।
370 के रहते सिर्फ नेताओं की संपन्नता बढ़ी, लेकिन जनता को कोई फायदा नहीं हुआ
पीडीपी के साथ सरकार बनाने के सवाल पर भाजपा महासचिव ने कहा कि अगर भाजपा सरकार न बनाती तो फिर से विधानसभा चुनाव होता। हालांकि पीडीपी के साथ सरकार बनाने का कुछ फायदा भी हुआ और कुछ नुकसान भी हुआ। नुकसान के कारण ही तीन साल बाद भाजपा अलग हो गई। राम माधव ने कहा कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटने के बाद जनता में बहुत कम विरोध हुआ है। जनता ने महसूस किया कि 370 के रहते सिर्फ नेताओं की संपन्नता बढ़ी, लेकिन जनता को कोई फायदा नहीं हुआ। अब जनता का रुख सकारात्मक दिख रहा है।
सैयद अली शाह गिलानी के इस्तीफे को राम माधव ने हुर्रियत की अंदरुनी राजनीति का परिणाम बताया। कहा कि गिलानी के इस्तीफे से पिछले 30 साल के उनके कारनामे माफ नहीं हो जाएंगे। गिलानी की वजह से हजारों युवाओं की घाटी में जान गई।
चीन की जमीन हड़पने की पुरानी आदत रही है, मगर सरकार ने पिछले 5 सालों में मुंहतोड़ जवाब दिया है
भाजपा के राष्ट्रीय महासिव ने चीन के मसले पर भी बात की। उन्होंने कहा कि चीन की जमीन हड़पने की पुरानी आदत रही है, मगर मोदी सरकार ने पिछले 5 सालों में मुंहतोड़ जवाब दिया है। आखिर चीन से सीमा विवाद का हल क्या है? इस सवाल पर राम माधव ने कहा कि दो मोर्चों पर खास तौर से सरकार काम कर रही है। प्रो ऐक्टिव डिप्लोमेसी और स्ट्रांग ग्राउंड पोजीशनिंग पर बल दिया जा रहा है। सैन्य और कूटनीतिक स्तर से जहां बात चल रही है वहीं एक-एक इंच भूमि की रक्षा के लिए भी सरकार संकल्पित है।
दोबारा गलवान घाटी जैसा हादसा न हो, इसके लिए हर संभव कदम उठाए जा रहे हैं। राम माधव ने कहा कि मोदी सरकार बनने के बाद से भारत ने सीमा-नीति को लेकर कठोरता बरती है। 2017 के डोकलाम और मौजूदा गलवान घाटी की घटना को लेकर उन्होंने कहा, डोकलाम में भारत जिस मजबूती के साथ सीना ताने खड़ा हुआ, उससे चीन भी हैरान था। तब चीन, चिकन नेक एरिया के नजदीक आने की कोशिश में था, मगर भारत ने मुंहतोड़ जवाब देते हुए उसकी साजिश सफल नहीं होने दी थी।
राम माधव ने कहा कि चीन चाहता था कि हम सेना हटाएं, लेकिन मोदी सरकार ने साफ़ कर दिया था कि जब तक चीन सीमा के पास किए गए निर्माण नहीं हटाता सेना नहीं हटेगी। उन्होंने कहा कि इस बार भी चीन ने एलएसी में घुसने की कोशिश की, जिसे हमने रोका। लाठी-पत्थर भी बरसे, दुर्भाग्य से हमारे 20 जवान शहीद हुए। भारत ने चीन को संदेश दिया है कि हम सीमा पर चुपचाप कब्जा करने की चीन की चाल को सफल नहीं होने देंगे।
आज भले ही नेपाल भारत विरोधी बयानबाजी कर रहा हो, लेकिन इससे दोनों देशों के संबंध नहीं बिगड़ेंगे
मित्र देश नेपाल आखिर भारत के विरोध में क्यों खड़ा हो गया है? इस सवाल पर राम माधव ने कहा कि आज भले ही नेपाल भारत विरोधी बयानबाजी कर रहा हो, लेकिन इससे दोनों देशों के संबंध नहीं बिगड़ेंगे। वैसे यह पहली घटना नहीं है, राजवंश के समय से ऐसी घटनाएं कई बार हुईं है। उन्होंने कहा, जब नेपाल में राजा का शासन था तब नेहरू जी का विरोध करता था।
राम माधव ने कहा,ज्ज्अतीत और वर्तमान के अनुभवों के आधार पर मैं कह सकता हूं कि नेपाल के भारत का विरोध करने का ज्यादा कारण आंतरिक होता है। जब कोई अंदरुनी समस्या होती है, तब वहां की सरकार को लगता है कि पड़ोसी भारत पर कुछ हमले करो तो आंतरिक राजनीति में फायदा होगा।ज्ज् भाजपा महासचिव ने साफ किया कि भारत और नेपाल के संबंध हमेशा पहले की तरह मजबूत रहेंगे।
‘इंस्टीट्यूट फ़ॉर गिलगित-बाल्टिस्तान स्टडीज़’ के निदेशक सेंगे सेरिंग से बातचीत
-आरिफ़ आज़ाकिया
ख़बर है कि पाकिस्तानी सेना कोरोना वायरस से संक्रमित वहां के पंजाबियों को पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर व गिलगित-बाल्टिस्तान में भेज रही है. स्थानीय जनता इसका भारी विरोध कर रही है, तब भी मीरपुर सहित कई प्रमुख शहरों में इन संक्रमितों के लिए कई क्वारंटीन शिविर बनाये गये हैं. पाकिस्तानी सेना चाहती है कि पंजाब में जहां कहीं सैन्य प्रतिष्ठान या सेना वालों के घर-परिवार हैं, उनके आस-पास कोरोना वायरस का कोई संक्रमित या पीड़ित नहीं होना चाहिये. गिलगित-बाल्टिस्तान के मूल निवासियों का मानना है कि उनके मानवाधिकारों को धता बताने वाली यह कार्रवाई उन्हें कोविड-19 का निशाना बनाने के लिए भी की जा रही है.
गिलगित-बाल्टिस्तान भारत की आजादी से पहले जम्मू-कश्मीर रियासत का ही हिस्सा था. 1947 में जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला किया तब गिलगित-बाल्टिस्तान सहित पूरे कश्मीर का भारत में विलय हो गया. लेकिन उस समय से ही यह पाकिस्तान के कब्जे में है जबकि भारत इसे अपना अभिन्न हिस्सा मानता है.
फिलहाल गिलगित-बाल्टिस्तान पाकिस्तान के कब्जे वाली कश्मीर का भी हिस्सा नहीं है और सिर्फ नाम के लिए ही पाकिस्तान का एक स्वायत्त इलाका है. इसकी भौगोलिक स्थिति की बात करें तो दक्षिण में यह पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर से जुड़ा हुआ है, पश्चिम में पाकिस्तान के खैबर पख्तुनवा प्रांत से, उत्तर में अफगानिस्तान से, पूर्व में चीन से, उत्तर-पूर्व में जम्मू-कश्मीर से और दक्षिण-पूर्व में लद्दाख से.
आरिफ़ आजाकिया मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाले एक पाकिस्तानी हैं. 1980 वाले दशक में उन्हें पाकिस्तान छोड़ना पड़ा था. उनके पास फ्रांस की नागरिकता है, पर वे अब लंदन में रह कर अपना संघर्ष चलाते हैं. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (UNHRC) के इस वर्ष जेनेवा में हुए 43 वें सम्मेलन के दौरान उन्होंने वॉशिंगटन स्थित ‘इंस्टीट्यूट फ़ॉर गिलगित-बाल्टिस्तान स्टडीज़’ के निदेशक सेंगे सेरिंग से, जो स्वयं गिलगित-बाल्टिस्तान के निवासी और वहां होने वाले अत्याचारों के भुक्तभोगी रहे हैं, वहां की स्थिति के बारे में एक इंटरव्यू किया. इस इंटरव्यू के कुछ महत्वपूर्ण अंश.
गिलगित-बाल्टिस्तान में पाकिस्तानी आधिपत्य को लेकर इस समय क्या ज़मीनी स्थिति है?
सेंगे सेरिंग– वहां की जनता संवैधानिक अधिकारों से वंचित हैं. उसके पास आत्मनिर्णय का अधिकार नहीं है. ऐसा कोई सरकारी ढांचा भी नहीं है जो उसे किसी प्रकार की स्वायत्तता देता हो. संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों में उसे आत्मनिर्णय का अधिकार दिया गया था. बल्कि, एक प्रकार से गारंटी दी गयी थी कि जब तक समस्या हल नहीं हो जाती, वहां एक स्थानीय प्राधिकरण होगा. उस समय वहां पाकिस्तान का कोई अमल-दखल नहीं था. संयुक्त राष्ट्र ने तो पाकिस्तान से कहा कि आप वहां से जायें. हम भी जानते थे कि हमारा विलय भारत के साथ हुआ है. हम भारत के नागरिक हैं. हम समझते हैं कि अगर इसका कोई विलंबित हल है तो वह गिलगित-बाल्टिस्तान के मूल निवासियों और भारत की केंद्र सरकार के बीच से ही निकल सकता है. यह तो हुआ संक्षेप में संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का सार.
लेकिन, हमारा तो सफ़ाया हो रहा है. हमारे बिना तो पाकिस्तान और चीन के बीच कोई ज़मीनी रास्ता ही नहीं है. दोनों की कोई साझी सीमा तो है नहीं. इस वजह से पाकिस्तान हताशा का शिकार है कि यदि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों पर अमल हो गया और पाकिस्तान को वहां से निकलना पड़ा, तो उसके और चीन के बीच की जो आपसी मिलीभगत है, वह ख़त्म हो जायेगी. पाकिस्तान की इस कारण यही कोशिश होती है कि गिलगित-बाल्टिस्तान के मूल निवासियों का दमन करते हुए उन्हें फौलादी मुट्ठियों में जकड़ कर रखा जाये. उनके प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम शोषण किया जाये. लोगों की अपेक्षाओं-आकाक्षांओं को मान्यता दिये बिना लूट-मार की जाये.
पाकिस्तान और चीन मिल कर यही कर रहे हैं. स्थानीय लोग जब भी विरोध का स्वर उठाते हैं तो उन पर आतंकवाद के मुक़दमे थोप दिये जाते हैं. आतंकवाद-निरोधक क़ानून लगा दिया जाता है. एक तरह का आपातकाल है वहां पर. लोगों को लगता है कि वे जेल में बंद हैं. पाकिस्तान तो एक ऐसा देश है, जो तालिबान को अमनपसंद कहता है और जो आम लोग अपने संसाधनों के लिए आवाज़ उठाते हैं, उनको आतंकवादी बताता है. पाकिस्तान अपने बलूचों और पख्तूनों के साथ जो कर रहा है, वही गिलगित-बाल्टिस्तान में भी कर रहा है.
गिलगित-बाल्टिस्तान में कई जातियों-धर्मों के लोग रहा करते थे, उनका क्या हाल है?
सेंगे सेरिंग– हमारी जो इस्माइली बिरादरी है, उसे वहां रहने वाले पाकिस्तानियों द्वारा डराया-धमकाया गया कि गिलगित-बाल्टिस्तान के जो इस्माइली और शिया हैं, उन्हें मालूम है कि किस तरह से हमने उनके क़त्लेआम किये हैं. हम उन पर दुबारा हमला करेंगे. इस धमकी के पीछे इतिहास यह है कि गिलगित में ज़मीन पर अनधिकृत क़ब्ज़ा जमाए बैठे पाकिस्तानी नागरिकों का स्थानीय लोगों ने जब विरोध किया, तो उन्होंने हमारे कुछ स्थानीय लोगों का अपहरण कर लिया और उन्हें ख़ूजिस्तान में ले गये. गिलगित की स्थानीय पुलिस ने बाद में उन लोगों को गिरफ़्तार किया, जिन पर अपहरण करने का शक था.
इस गिरफ़्तारी के खिलाफ़ पूरा कोहिस्तान क़त्लेआम की धमकियां देने लगा. तो, हमारे लोग तो बेचारे एक तरह से जेल में रह रहे हैं. उनका ज़मीनी रास्ता पाकिस्तान से ही होकर गुज़रता है. वे खाने-पीने के सामान के लिए उसी रास्ते पर निर्भर हैं. रोज़मर्रा की ज़रूरतें पाकिस्तान से ही आती रही हैं. भारत के साथ वाले रास्ते जान-बूझ कर बंद रखे गये हैं, ताकि हमें पाकिस्तान का मुंह जोहने के सिवाय कोई दूसरा चारा न रहे. अफ़ग़ानिस्तान के साथ के हमारे रास्ते भी बंद हैं. सिर्फ चीन और पाकिस्तान के बीच के रास्ते खुले हैं, ताकि हमें ब्लैकमेल कर के और एक प्रकार से जेल में बंद रख कर हमारे ऊपर अपनी मनमर्ज़ी और धौंस चला सकें. हमारा शोषण कर सकें.
गिलगित-बाल्टिस्तान की जनसंख्या में इस्माइली बिरादरी का, शिया-सुन्नी का क्या अनुपात है और क्या ग़ैर-मुस्लिम भी वहां रहते हैं?
सेंगे सेरिंग– मुझे याद है कि अरगनोख़ हमारा एक गांव है, जहां पर स्थानीय आबादी ग़ैर-मुस्लिमों की होती थी. लेकिन 1971 के युद्ध के आस-पास वे भारत की तरफ पलायन कर गये. जहां तक मुझे पता है, इस समय वह शतप्रतिशत एक मुस्लिम इलाका है. अगर आप पाकिस्तान से आकर बस गयों को ना देखें, तो जो मूल निवासी हैं – और उनमें उन लोगों को भी जोड़ लें, जो रोज़मर्रा की अपनी ज़िंदगी गुज़ारने के लिए या शिक्षा-व्यापार जैसे अवसरों के लिए अस्थायी तौर पर पाकिस्तान में रह रहे हैं – तो हमारी कुल क़रीब दो-ढाई लाख की जनसंख्या है. इस्लामाबाद-रावलपिंडी में भी एक लाख से ऊपर हमारे लोग हैं. ये सारे मिला कर कह सकते हैं कि जो स्थानीय शिया आबादी है – जिसमें बारेइमामी हैं, सूफ़ी नूरबख़्शी हैं, जाफ़ीशिया हैं, ईशशिमामी और इस्माइली हैं – इन सबको मिलाकर कह सकते हैं कि इनकी क़रीब 70-75 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या है. यह अनुपात क़रीब 80 प्रतिशत हो जायेगा, यदि मूल स्थानीय निवासियों को भी इसमें मिला लें.
लेकिन, अब पाकिस्तान से आये लोगों की बाढ़ के चलते मिली-जुली जनसंख्या काफ़ी बढ़ गयी है. अकेले गिलगित शहर में ही लगभग 115 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. इसी प्रकार चित्राल, स्वात और कोहिस्तान में भी आबादी बढ़ी है. सभी लोगों को जोड़ कर देखें, तो कह सकते हैं कि अब सुन्नी कम से कम 35 प्रतिशत हो गये होंगे. ये पाकिस्तान की बदनीयती है, बेईमानी है कि वह स्थानीय शियों को निष्ठावान नहीं मानता. वह समझता है कि जब आप शियों को अल्पसंख्यक बना देंगे, जैसा कि पारेचेनार में किया गया है – पारेचेनार में किसी ज़माने में 80-85 प्रतिशत शिया होते थे – तो उनकी तरफ़ से विरोध भी कम हो जायेगा. तालिबान को भी ला कर वहां आबाद किया गया है. तो इस तरह शियों का अनुपात घटते-घटते अब क़रीब 40 प्रतिशत पर आ गया है. पाकिस्तान की यही कोशिश है कि शिया, इस्माइली, नूरबख़्शी जब 50 प्रतिशत से कम हो जायेंगे, यानी अल्पसंख्यक बन जायेंगे, तो वहां के स्थानीय लोगों को नियंत्रित करना आसान हो जायेगा. स्थानीय लोगों को पाकिस्तान अपने लिए ख़तरा समझता है.
क़ाफ़िरिस्तान एक शब्द है, जिसे गिलगित-बल्टिस्तान से जोड़ा जाता है. इस काफ़िरिस्तान के बारे में कुछ बतायें, वहां ग़ैर-मुस्लिम तो अब हैं नहीं?
सेंगे सेरिंग– जो ड्यूरंड लाइन है अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच, उसके ऊपर जो इलाक़े और घाटियां हैं, उनको मिलाकर क़ाफ़िरिस्तान कहा जाता है. ये चित्राल का कुछ इलाका़ है, लेकिन अधिकतर अफ़ग़ानिस्तान में है. तो, ज्यों-ज्यों वहां के लोग मुसलमान होते गये, उनको काफ़िर कहना छोड़ दिया गया. इसी तरह जो नूरिस्तान है, वह पहले क़ाफ़िरिस्तान का हिस्सा था. वहां के लोग जब मुसलमान हो गये, तो उसे नूरिस्तान कहना शुरू कर दिया. वे दरअसल एक स्थानीय दार्दिक क़बीला हैं, जिनका भाषायी और जातीय (एथनिक) मेल गिलगित के लोगों के साथ है, चलास के लोगों के साथ है. लद्दाख में इस तरह के बहुत से लोग दाहनू में भी हैं. कश्मीर में भी हैं. हमारे दार्दिक समुदाय की जड़ें मध्यप्रदेश में हैं. वहीं से वे आये थे. वे अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, ताजिकिस्तान में भी बस गये.
दुर्भाग्य से इन लोगों पर बहुत अत्याचार होता है. उन्हें ज़बर्दस्ती मुसलमान बनाया जा रहा है. पाकिस्तान में ‘जमाते इस्लामी’ के जो जत्थे हैं, और हमारे केलाश में जो लोग हैं, वे उनको तंग करते हैं. उनकी लड़कियों को तंग करते हैं. ज़बर्दस्ती धर्मांतरित करते हैं. उन्हें अपनी संस्कृति के लिए शर्मिंदा किया जाता है. उन्हें एक सामजिक कलंक बना दिया गया है. यह घुट्टी पिला दी गयी है कि जो मुलमान नहीं है, वह कोई सच्चा एथनिक या धार्मिक समुदाय नहीं हो सकता. उन पर धर्मांतरण करने का भारी दबाव है. बताया जाता है कि इन लोगों की संख्या अब डेढ़-दो हज़ार से भी कम रह गयी है.
धारा 370 भारत में हटा दी गयी है. इसका आप से सीधा संबंध है. गिलगित-बल्टिस्तान महाराजा हरि सिंह के कश्मीर का हिस्सा हुआ करता था. इससे आपके लोगों को कोई लाभ-हानि हो सकती है?
सेंगे सेरिंग– हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बहुत आभारी हैं कि उन्होंने इतना बड़ा क़दम उठाया. इसे तो 70 साल पहले ही हो जाना चाहिये था. प्रधानमंत्री नेहरू ने जब इसे शब्दबद्ध किया और भारत के संविधान का एक अनुच्छेद बनाया, तब उन्होंने कहा था कि यह एक अस्थायी व्यवस्था है, समय के साथ ख़त्म हो जायेगी. लेकिन, राजनैतिक दबाव के कारण वे ऐसा नहीं कर पाये. प्रधानमंत्री मोदी का यह बहुत ही अच्छा क़दम है. इसमें गिलगित-बल्टिस्तान के लिए जो सबसे बड़ा आशीर्वाद है, वह यह कि हम हमेशा से कहते आये हैं कि जम्मू-कश्मीर के जो एथनिक ग्रुप हैं, उनके साथ हमारा संबंध नहीं है. हमारी लद्दाख़ से जुड़ी अपनी एक अलग पहचान है. अनुच्छेद 370 को हटा कर लद्दाख को एक अलग प्रदेश का, संघीय क्षेत्र का जो दर्जा दिया गया है, वह बहुत अच्छी बात है. अब हम क़ानूनी और संवैधानिक तौर पर लद्दाख का हिस्सा बन गये हैं. भारत का हिस्सा तो हम पहले भी थे.
1949 में भारत का जो संविधान बना था, उसने हमें भारत का हिस्सा बना लिया था, लेकिन कश्मीर से जोड़ रखा था. अब हमें कश्मीर से निकाल कर लद्दाख का हिस्सा बनाया गया है. इस प्रकार हमारी पहचान को पुनर्स्थापित किया गया है. मनुष्य अपने इतिहास में जिस बात के लिए सबसे अधिक संघर्ष करता है, वह है उसकी अपनी पहचान. लद्दाख के साथ जोड़कर हमारी पहचान को बहाल करने के लिए हम मोदी जी को सैल्यूट करते हैं.
इस क़दम के बाद हम यह भी देख रहें हैं उनके ऊपर कितने सारे अंतरराष्ट्रीय दबाव पड़ रहे हैं. लेकिन हम उनको सैल्यूट करते हैं कि वे हिम्मत के साथ अडिग हैं. चुनाव-घोषणापत्र के अपने वादे को पूरा किया है. हम यहां संयुक्त राष्ट्र की बिल्डिंग में हैं. संयुक्त राष्ट्र से हमारी यही मांग और उससे यही अनुरोध है कि पाकिस्तान पर दबाव डाला जाये कि वह संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों पर अब अमल करे. हमारे इलाके से पीछे हटे, ताकि भारत के संविधान के अधीन हमें जो लाभ मिलने हैं, भारत का नागरिक होने के हमें जो अधिकार मिलने हैं, उन्हें हम पा सकें.
धारा 370 हटाने के साथ कश्मीर में जो पाबंदियां लगाई गयीं, जो सख़्तियां हुयीं, भारत के लिए क्या यह सब ज़रूरी था?
सेंगे सेरिंग– देखिये, 370 को हटाते समय पाकिस्तान की ओर से बहुत-सी धमकियां आयी थीं. इमरान ख़ान ने कहा था कि वहां खून की नदियां बहेंगी. जनसंहार होगा. पाकिस्तान के पाले हुए सारे आतंकवादी तैयार बैठे थे कि स्थानीय लोगों के साथ, जमाते इस्लामी के जो ग्रुप दक्षिणी कश्मीर में हैं, उनके साथ मिल कर वे मारकाट करेंगे, ताकि दुनिया में यह संदेश जाये कि जम्मू-कश्मीर में जो हो रहा है, वहां की पूरी जनता उसके खिंलाफ है. पाकिस्तान को इसका बहुत ज़्यादा रणनीतिक लाभ मिलना था.
लेकिन, अपने नागरिकों की जान बचाना हर सरकार का पहला कर्तव्य होता है. दिल्ली की सरकार हो या श्रीनगर की, दोनों की यही सबसे पहली ज़िम्मेदारी थी. संयुक्त राष्ट्र ने भारत से कहा कि गिलगित-बाल्टिस्तान में, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में आपकी ज़िम्मदारी है कि वहां के लोगों के जीवन, सम्मान और माल-सामान की रक्षा हो. यह तो संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में भी लिखा है कि किसी भी सरकार की मूल जिम्मेदारी है कि वह अपने नागरिकों के जीवन, मान-सम्मान और माल-सामान की रक्षा करे. पाकिस्तान एक बहुत बड़ी साज़िश के तहत वहां नरसंहार करना चाहता था.
भारत सरकार ने बड़ी सावधानी व सफलता के साथ स्थिति को संभाला. लोगों की हरकतों को, टेलीफ़ोन द्वारा या सोशल मिडिया द्वारा दंगा-फ़साद फैलाने वालों को काबू में रखा. विरोध-प्रदर्शन हर देश में एक मौलिक अधिकार होता है. लेकिन पाकिस्तान का यह इतिहास रहा है कि वह अपने मनपसंद ग्रुपों द्वारा भारत में हमेशा घेराव-जलाव करवाता है, आगज़नी करवाता है. इन चीज़ों से बचाने के लिए और आम जनता को सुरक्षा देने के लिए भारत ने जो क़दम उठाये, वे बहुत ज़रूरी थे. भारत सरकार इसमें काफ़ी हद तक सफल भी रही.
‘सीएए’ वैसे तो भारत का आंतरिक मामला है, पर पाकिस्तान उसका सफलता के साथ जिस तरह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लाभ उठा रहा है, उसके बारे में आपका क्या कहना है?
सेंगे सेरिंग– हाल ही में वाशिंगटन डीसी में एक सेमिनार हुआ था, जिसमें मुझे अपनी बात कहने का मौका दिया गया. उस सेमिनार में हमारे एक दोस्त खंडाराव जी ने इस मुद्दे को उठाया. उन्होने कहा कि सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसका नाम ही ग़लत है. इसका नाम ‘रेफ्यूजी प्रोटेक्शन ऐक्ट’ होना चाहिये था. नाम में ‘नागरिक’ शब्द लगाकर कर यह आभास दिया गया कि भारतीय नागरिकों के साथ कोई समस्या है. जबकि ये क़ानून पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश से आये शरणार्थियों के बारे में है. इसका नाम ही भ्रामक है. इसका नाम यदि शुरू से ही ‘रेफ्यूजी प्रोटेक्शन ऐक्ट’ रहा होता, तो मैं नहीं समझता कि तब भारत के किसी नागरिक को यह बहाना मिलता कि वह उसका ग़लत इस्तेमाल करके पाकिस्तान को लाभ पहुंचा सके. मैं भी मुसलमान हूं और मैं समझता हूं कि इस क़ानून के नाम का सबसे ज़्यादा दुरुपयोग हमारी मुस्लिम बिरादरी ने ही किया है. उसके साथ भारत के वामपंथी भी जुड़ गये हैं. इससे पाकिस्तान में जो बहुत सारी शक्तियां हैं, उनके साथ मिलकर इन लोगों ने एक बहुत बाड़ा भारत-विरोधी बाज़ार बना लिया है. भारत सरकार को दबाव में डाल दिया है.
हमारे-जैसे पाकिस्तानी मुसलमान पाकिस्तान में रहते हुए सदा अल्पसंख्यकों के हितों की पैरवी करते रहे हैं. अपने स्कूल-कॉलेज के ज़माने से ही जब से हमें कुछ समझ आयी, हम कहने लगे कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों का संरक्षण व पालन होना चाहिये. यह बड़े दुख की बात है कि बहुत से मुसलमान, जो पहले अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए खड़े होते थे, इस समय उनके विरोध में खड़े होकर एक ग़लत सोच में फंस गये हैं; इस सोच में कि यह शायद भारत के अल्पसंख्यक मुसलमानों की नागरिकता से जुड़ा कोई मामला है.
हमें तो भारत सरकार को सैल्यूट करना चाहिये कि वे लोग, जो पिछले 70 साल से सिंध में, पंजाब में, बलोचिस्तान में अपने धर्म के कारण मर रहे थे, क़त्ल हो रहे थे, उनकी लड़कियां उठा ली जाती थीं, उनको भारत में अब एक नया शांतिपूर्ण जीवन मिलेगा. बंग्लादेश में भी हिंदू अल्पसंख्यक कभी 25 प्रतिशत से भी अधिक होते थे. अब कम होते-होते 7-8 प्रतिशत ही रह गये हैं. ‘सीएए’ ज़बर्दस्ती धर्मांतरण और हत्याओं से अल्पसंख्यकों की जान बचायेगा. अफ़ग़ानिस्तान से भी 30 हज़ार सिक्ख भारत में बैठे हुए हैं. मैं बहुत खुश हूं कि पाकिस्तान में अत्याचार सह रहे बहुत से हिंदुओं को भारत में एक नया जीवन मिल सकता है. दुख इस बात का है कि पाकिस्तान के बहुत से मानवाधिकारवादी भी बिना ठीक से पढ़े-समझे, सिर्फ हिंदू- दुश्मनी में, भारत-दुश्मनी में आकर इस क़ानून का विरोध कर रहे हैं. वे पाकिस्तान सरकार और इस्टैब्लिशमेंट (सैनिक तंत्र) के साथ खड़े हो गये हैं, जिनका काम ही अल्पसंख्यकों का दमन और शोषण करना है.
हम देखते हैं कि यूएन (संयुक्त राष्ट्र) में, यूरोपीय संसद में, अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेन्ट (विदेशमंत्रालय) में या अन्य जगहों पर पाकिस्तान को कोई कुछ नहीं बोलता, जहां मानवाधिकार बिल्कुल हैं ही नहीं, जबकि भारत के बारे में दुनिया तुरंत बोलने लगती है. इसकी क्या वजह है?
सेंगे सेरिंग– जहा तक यूएन का संबंध है, तो यूएन तो एक फ़ोरम (मंच) है. यहां जेनेवा में हो, ऑस्ट्रिया में हो, न्यूयार्क में हो या कही भी हो, अलग-अलग देशों के एकसाथ मिल-बैठने की वह एक जगह है. यहां उन लगों की चलती है, जो लॉबीइंग करते हैं. यह नैतिक शक्ति को मनवाने की कोई संस्था नहीं है. पकिस्तान को सबसे बड़ा फ़ायदा यह है कि वह हमेशा अपना इस्लामी कार्ड इस्तेमाल करता है, और इस्लाम के नाम पर मुस्लिम देश उसके साथ हो जाते हैं. इसी तरह जो वामपंथी झुकाव वाले देश हैं, वे मुस्लिम देशों के पक्षकार बनते हैं. चीन उनका साथी बन कर उनके साथ बैठ जाता है.
पाकिस्तान अपने आप को एक अंडरडॉग (शोषित-उपेक्षित) दिखाता है. दुनिया भर में अपना फ़साद फैलाए हुआ है, फिर भी अपने आप को मजलूम (अत्याचार-पीड़ित) के तैर पर पेश करता है. भारत की कमी यह है कि वह एक अंतर्मुखी देश है. गुटनिरपेक्षता आन्दोलन में उसका जो रोल रहा है उसके कारण, 1940 और 50 वाले दशकों में (इस्लामी और पश्चिमी देशों से) उसके जो गठजोड़ बनने चाहिये थे, वे नहीं बन पाये.
भारत नें 1980-90 वाले दशकों में इस की शुरुआत की, तो ज़ाहिर है कि जब आप किसी चीज़ को देर से शुरू करते हैं, तो उसका नतीजा भी उसी तरह देर से ही मिलेगा. भारत अब धीरे-धीरे जाग रहा है. महसूस कर रहा है कि वह जब तक दूसरे देशों के साथ मिल कर लॉबीइंग नहीं करेगा, तब तक अपने बारे में पाकिस्तान द्वारा तुर्की जैसे मुस्लिम देशों में फैलायी गयी ग़लत धारणाओं की और चीन के साथ मिल कर बने उनके भारत-विरोधी गठजोड़ की काट नहीं कर पायेगा. भारत अब जिस रास्ते पर है, उससे आशा बंधती है कि दुनिया के देश भी धीरे-धीरे समझ जायेंगे कि भारत बाकी दुनिया के लिए कोई ख़तरा नहीं है. उसने कभी किसी दूसरे देश में जा कर वैसी कोई तबाही नहीं की है जैसी पाकिस्तान ने की है. पाकिस्तान ने जो भारत-विरोधी माहौल बनाया है, वह बहुत दिनों तक नहीं टिकेगा.