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हॉस्टल में शाकाहारी-टेबिल पर धर्म-जाति का विवाद!
22-Oct-2023 3:32 PM
हॉस्टल में शाकाहारी-टेबिल पर धर्म-जाति का विवाद!

मुम्बई के आईआईटी में खानपान को लेकर एक विवाद चल रहा है। वहां हॉस्टल में रहने वाले और मेस में खाने वाले छात्र-छात्राओं में से शाकाहारियों को यह शिकायत थी कि मांसाहारियों के साथ बैठकर खाने में उन्हें असुविधा होती है। उनकी मांग को देखते हुए आईआईटी ने मेस में कुछ टेबिलों को सिर्फ शाकाहारियों के लिए आरक्षित कर दिया था कि जिन्हें मांसाहार देखने से दिक्कत होती है, वे वहां बैठकर खा सकते हैं, और बाकी टेबिलों पर सभी लोग बैठ सकते हैं। इसे लेकर वहां एक विवाद चल रहा है। लोगों का कहना है कि यह जाति व्यवस्था, और धर्म व्यवस्था से जुड़ी हुई दकियानूसी सोच है। और अभी वहां एक छात्र पर शाकाहारी टेबिल पर मांसाहार खाने पर 10 हजार रूपए जुर्माना लगाया गया है जिसके बाद वहां के प्राध्यापकों से लेकर दूसरे लोगों तक सभी लोग इस विवाद में कूद पड़े हैं। और जब बात निकलती है तो कुछ दूर तक जाती है। यह बहस बढ़ते-बढ़ते मुम्बई जैसे महानगर में उन रिहायशी इमारतों तक चली गई है जिनमें से कुछ में मांसाहारियों को फ्लैट खरीदने नहीं मिलते, या उन्हें किरायेदार बनकर आने भी नहीं मिलता। उनके खानपान को लेकर शाकाहारियों को दिक्कत होती है, और इसलिए वे रिहायशी इमारतों को सिर्फ शाकाहारियों के लिए जैसी शर्तें रखते हैं। 

भारत में पिछले 10-15 बरस में कई प्रदेशों से होते हुए अब तकरीबन पूरे देश में खानपान को धर्म और जाति से जोड़ दिया गया है। उत्तर भारत के बहुत से ऐसे शहर हैं जहां पर जब कांवडिय़ा निकलते हैं, तो उतने दिन रास्ते की सभी मांसाहार की दुकानों को, रेस्त्रां को बंद करवा दिया जाता है। कई शहर ऐसे हैं जहां हिन्दू त्यौहारों पर जानवरों का काटना बंद रहता है, और मांस-मछली बेचना भी। धीरे-धीरे हिन्दू, सवर्ण शाकाहारियों, जैन समुदाय के लोगों के दबाव में प्रदेशों में ऐसे दिन बढ़ रहे हैं, और एक-एक करके कई त्यौहारों पर मांसाहार को बंद कर दिया गया है। जबकि भारत के शाकाहार-मांसाहार के नक्शे को देखें तो 30 फीसदी से कम हिन्दुस्तानी ही शाकाहारी हैं। जिस उत्तरप्रदेश को लेकर घटनाएं सबसे अधिक सामने आती हैं वहां पर आधे से कम, 47 फीसदी शाकाहारी हैं। छत्तीसगढ़ में 18 फीसदी, झारखंड में 3 फीसदी, ओडिशा में 2.6 फीसदी, और तेलंगाना में 1.3 फीसदी लोग ही शाकाहारी हैं। 

खानपान में मांसाहार से और बड़ा मुद्दा गाय-भंैस के मांस, बीफ का है। देश के बहुत से राज्यों में बीफ पर रोक लगी हुई है, लेकिन कई राज्य ऐसे हैं जहां इसकी पूरी कानूनी इजाजत है। ऐसे में जहां इसे गैरकानूनी करार दिया गया है, वहां पर गाय को मारना इंसान को मारने से बड़ा मुद्दा रहता है, और बीफ के शक में भी इंसानों को मार डालना कई जगह हुआ है। ऐसे में खानपान को लेकर अगर आईआईटी के हॉस्टल में एक विवाद खड़ा हुआ है, तो उसे धार्मिक और सामाजिक पहलू से परे भी देखने की जरूरत है। आज आईआईटी के कुछ प्राध्यापकों सहित बहुत से लोग इसे एक सवर्ण पूर्वाग्रह का नतीजा बता रहे हैं, और इसे दलित-आदिवासी विरोधी करार दे रहे हैं, ओबीसी विरोधी करार दे रहे हैं जो कि मोटेतौर पर मांसाहारी समुदाय हैं। 

यह बात जरूर है कि देश में एक तिहाई से कम लोग ही शाकाहारी हैं। इनमें से अधिकतर लोग अपनी धार्मिक मान्यताओं और जातिगत रीति-रिवाजों की वजह से शाकाहारी होंगे, और धीरे-धीरे इनकी भी अगली पीढिय़ां हो सकता है मांसाहारी होती जाएं। लेकिन शाकाहार को सिर्फ धर्म और जाति से जोडऩा क्या सचमुच जायज होगा? क्या धर्म और जाति से परे खानपान की कोई दूसरी वजहें नहीं हो सकतीं? 

मैं अपने खुद के बारे में अगर लिखूं, तो मैं न धर्म को मानता हूं, न जाति को। पूरी जिंदगी में इन दोनों पर आधारित किसी संगठन का मेम्बर भी नहीं बना। इनमें से किसी के कार्यक्रम में भी नहीं गया। कोई रस्म-रिवाज नहीं मानी। पूरी तरह से नास्तिक हूं। लेकिन पूरी तरह से शाकाहारी भी हूं। हिन्दुस्तान से फिलीस्तीन तक सडक़ के लंबे सफर में महीने भर सिर्फ मुस्लिम देशों से गुजरते हुए भी किसी तरह हमारे शांति-कारवां में आधा दर्जन से अधिक लोग शाकाहारी थे, और किसी तरह हमारा गुजारा चल गया। दस फीसदी से कम लोग अपने खाने में मांसाहार से परे रहे, लेकिन किसी और के मांसाहार से कोई दिक्कत नहीं रही। मैं दुनिया के एक-दो दर्जन देशों में घूमा हूं, और सभी तरह के खानपान वाले लोगों के साथ बैठकर अपना शाकाहारी खाना खाया है। लेकिन दूसरों के खाने से कोई चिढ़ न रहते हुए भी मांसाहार को देखने में कभी-कभी असुविधा भी हुई। 

अब मेरी तरह के धर्म और जाति से परे के शाकाहारी लोगों में से भी कुछ लोगों को ऐसी टेबिल पसंद आ सकती है जिस पर कोई मांसाहार न करे। आज भी हर दिन फेसबुक और ट्विटर पर मेरे कई मिनट मांसाहार की तस्वीरों को सामने से हटाने में गुजरते हैं क्योंकि मुझे उनके साथ किसी प्राणी को मारने की बात दिखती है। किसी जानवर, या पशु-पक्षी को खाने के पहले उसे मारना तो पड़ता ही है, और मैं ऐसी हिंसा के खिलाफ हूं। लेकिन मेरा ऐसी हिंसा से परहेज किसी और का विरोध नहीं है, जिन्हें यह ठीक लगता है, वह ऐसा करते रहें, मैं किसी को रोकने भी नहीं जाता, जिस तरह मैं सिगरेट या तम्बाकू के खिलाफ मुहिम चलाता हूं, वैसा कुछ भी मांसाहार के खिलाफ नहीं करता। वह लोगों की अपनी मर्जी की बात है। लेकिन अगर मुझे किसी हॉस्टल में रहना पड़े, और किसी मेस में खाना पड़े, और वहां पर बिना किसी के लिए असुविधा पैदा किए शाकाहारियों के लिए अलग टेबिल तय की जा सके, तो मुझे इसमें कोई बुराई नहीं लगती है। शाकाहारियों की वजह से मांसाहारियों को टेबिल न मिले, वह तो गलत बात होगी। लेकिन शाकाहारियों के लिए तय की गई टेबिल के अलावा अगर दूसरी टेबिल खाली हो, और मांसाहारी यह जिद करे कि वे शाकाहारियों की टेबिल पर ही बैठेंगे, तो उनकी ऐसी जिद मुझे हिंसक लगेगी। 

खानपान को अगर धर्म और जाति के आधार पर ही मुद्दा बनाया जाता है, तो यह कुछ लोगों के हकों के खिलाफ बात हो सकती है, लेकिन अगर मेरी तरह के लोगों के खानपान के सिद्धांत की बात हो, तो किसी जगह संभावना होने पर अलग बैठने के इंतजाम में क्या दिक्कत है? क्या कोई किसी दूसरे को नापसंद खानपान लेकर उसके टेबिल पर बैठने की जिद करे, तो क्या यह कोई लोकतांत्रिक अधिकार है? अगर लोगों को अपने खानपान का हक पसंद है, तो उन्हें दूसरों की पसंद का भी ख्याल रखना चाहिए। 

यह बात जरूर है कि किसी भी त्यौहार या किसी दूसरे दिन पर मांसाहार की दुकानों का बंद करना फिजूल की बात है, और कुछ धर्मों के लोगों को, कुछ महान लोगों के अनुयायियों को मांसाहार से अपने परहेज को दूसरों पर नहीं थोपना चाहिए। 

जहां तक मुम्बई और गुजरात के कुछ शहरों में रिहायशी इमारतों में मांसाहारियों को मकान न बेचने, या किराये से न देने का मुद्दा एक अलग किस्म का मामला है जिसमें अलग किस्म के कानून जुड़े हुए हैं, और उस पर चर्चा हॉस्टल जैसे मामले से जोडक़र यहां नहीं हो सकती। फिलहाल जो लोग हॉस्टल की मेस में शाकाहारियों के लिए अलग तय की गई टेबिल के खिलाफ हैं, वे धर्म और जाति से परे खानपान की निजी पसंद के हक को भी खारिज कर रहे हैं, जैसी पसंद, और जैसे सिद्धांत पर मेरा शाकाहार टिका हुआ है।  

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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