आजकल
अयोध्या में कल रामलला के नए बने हुए मंदिर में रामलला की नई प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा होने जा रही है। देश के बहुत बड़े हिस्से में एक अभूतपूर्व और असाधारण हिन्दू धार्मिक आस्था का नजारा हो रहा है, और चूंकि अधिकतर हिन्दू संगठन भाजपा के साथ जुड़े हुए हैं, और अभी-अभी तीन राज्यों में भाजपा ने शानदार चुनावी कामयाबी हासिल की है, इसलिए भी उत्साह सामान्य से बहुत अधिक है। इसके अलावा कुछ महीनों के भीतर लोकसभा के चुनाव होने हैं, और उनमें सबसे अधिक चर्चित, कामयाब, और संभावनाओं वाले नेता नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री पद पर दस बरस भी पूरे होने को होंगे, इसलिए उनकी पार्टी की केन्द्र और राज्य सरकारों का भी बड़ा उत्साह 22 जनवरी की रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा को लेकर है। एक किस्म से यह भी माना जा सकता है कि कल मोदी के लोकसभा चुनाव प्रचार की शुरूआत होने जा रही है, और इसके बाद से वह लगातार अयोध्या से जुड़ी हुई बहुत से प्रतीकों को लेकर देश भर में फैलते चले जाएगा। चुनाव के पहले भाजपा और एनडीए के मुकाबले इंडिया नाम का जो गठबंधन खड़ा हुआ है, वह अपनी आंतरिक विसंगतियों से तो अनिश्चय और अनिश्चित भविष्य दोनों का शिकार है ही, अयोध्या के इस मौके पर इस गठबंधन में पार्टियों के बीच गहरी दरारें देखने मिली हैं, और इस मौके पर इंडिया-गठबंधन की पार्टियों में एक राय होना तो दूर रहा, इसकी मुखिया कांग्रेस पार्टी के भीतर भी इस पर एक राय नहीं है। पार्टी ने औपचारिक रूप से जिस तरह अयोध्या ट्रस्ट के भेजे हुए न्यौते को नामंजूर किया है, उससे पार्टी के ही बहुत से नेता हक्का-बक्का हैं कि कांग्रेस क्या सचमुच इस प्राण-प्रतिष्ठा के बाद, इसके न्यौते को नामंजूर करके चुनाव मैदान में बने रहने की उम्मीद करती है?
अयोध्या के राम मंदिर का मामला कभी भी विशुद्ध धार्मिक मामला नहीं रहा, और जब से लालकृष्ण अडवानी ने इसके लिए 90 के दशक में रथयात्रा निकाली थी, तब से लेकर अब तक यह धार्मिक के साथ-साथ राजनीतिक, और इन सबके भी ऊपर अदालती मामला बने रहा। जाने कितने दशक की कानूनी लड़ाई के बाद हिन्दू समाज के अलग-अलग बहुत से लोगों और संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट से एक सर्वसम्मत फैसला पाया, और उसी के नतीजे की शक्ल में यह मंदिर पूरा होने जा रहा है। चूंकि देश की सबसे बड़ी अदालत इस पर सर्वसम्मत फैसला दे चुकी है, इसलिए हम उसके पहले जाना नहीं चाहते, और कांग्रेस जैसी कई पार्टियां इस हकीकत तक पहुंचना नहीं चाहतीं कि हिन्दू संगठनों ने भाजपा के साथ मिलकर ही राम मंदिर की लड़ाई लड़ी थी, और अब जब मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा हो रही है, तो जाहिर तौर पर भाजपा ही मंदिर ट्रस्ट के दिल के करीब रहेगी। ऐसे में भाजपा के आज के सबसे बड़े नेता नरेन्द्र मोदी को अगर इस प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया गया है, और वे अपनी सहज शैली के मुताबिक इस मौके को कई दिनों के समारोह में तब्दील कर चुके हैं, प्राण-प्रतिष्ठा के पहले दक्षिण के कई मंदिरों में जाकर रामकथा में दर्ज इतिहास की जगहों पर घूम रहे हैं, तो इसमें न कुछ अनैतिक है, और न ही यह किसी कानून का बेजा इस्तेमाल है। लोकतंत्र में हर किसी पार्टी या संगठन को इस बात की आजादी है कि वे कानून के दायरे में अपनी पसंद के लोगों को जोड़ें, और चुनाव आचार संहिता से परे आयोजन करें। राम मंदिर ट्रस्ट ने देश की बहुत सी पार्टियों के बहुत से नेताओं को भी न्यौता भेजा है, और देश के बड़े-बड़े कामयाब और मशहूर लोगों को भी। अब यह इनका निजी फैसला रहेगा कि ये इस आयोजन में पहुंचते हैं या नहीं। कांग्रेस ने जब इस न्यौते को नामंजूर किया था, उस दिन भी हमने उसके इस रूख के खिलाफ कहा था। आज कई दिन गुजर जाने के बाद भी हमारी यही सोच कायम है कि जिस पार्टी को जनता के बीच जाकर वोट मांगने होते हैं, वह पार्टी एक सैद्धांतिक कट्टरता पर अड़ी नहीं रह सकती, सिद्धांत अपनी जगह बने रह सकते हैं, और देश की संस्कृति के हिसाब से व्यवहार में एक लचीलापन भी रह सकता है। कांग्रेस पार्टी ने बिना किसी वजह के वह लचीलापन खो दिया है, और एक गैरराजनीतिक ट्रस्ट को अदालत से मिले फैसले के बाद हो रहे इस आयोजन का न्यौता नामंजूर करके पार्टी ने जो अडिय़ल रूख दिखाया है, वह भला किसी का नहीं कर रहा, इस पार्टी का बुरा जरूर करने जा रहा है।
अयोध्या के इस राम मंदिर की बुनियाद में बड़ा लंबा इतिहास दफन है, उसमें आजादी के पहले का सैकड़ों बरस का इतिहास भी है, और आजादी के बाद का बाबरी मस्जिद गिराने से लेकर अदालती फैसले से राम मंदिर बनाने तक का ताजा इतिहास भी सामने है। इन 30 बरसों में देश, और अयोध्या वाले उत्तरप्रदेश में कई तरह की सोच की सरकारें रहीं, अयोध्या का मामला अदालतों में चलते हुए कई जज भी बदले, और जिला अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक इस पर जितनी लंबी सुनवाई हुई है, उससे अधिक कुछ भी एक लोकतंत्र की न्यायपालिका में मुमकिन नहीं था। इसलिए अब जब अदालती फैसले और जनता के पैसों से राम मंदिर बना है, तो उसे राजनीतिक मानना सही नहीं है। यूं तो लोकतंत्र के हर काम से राजनीति जुड़ी रहती है, लेकिन जहां इतनी लंबी अदालती प्रक्रिया ने, और दानदाताओं ने इस मंदिर को हकीकत बनाया है, तो फिर इसे महज राजनीति कह देना लोकतंत्र के बाकी दायरों और पहलुओं की अनदेखी करना है। अयोध्या में प्राण-प्रतिष्ठा का समारोह कोई मनाए या न मनाए, यह उनका अपना फैसला है, और प्रधानमंत्री की हैसियत से अगर नरेन्द्र मोदी को मंदिर ट्रस्ट ने मुख्य अतिथि बनाया है, तो यह ट्रस्ट और पीएम का आपसी फैसला है। इससे जिसको जो चुनावी नफा-नुकसान होना है, वे खुद उसके लिए जिम्मेदार हैं। जिन पार्टियों को चुनावी नुकसान झेलकर भी प्राण-प्रतिष्ठा के इस समारोह से परे रहना है, यह उनकी अपनी सोच, और उनकी अपनी आजादी है। भारतीय लोकतंत्र में यह बहुसंख्यक हिन्दू जनता के धार्मिक पुनर्जागरण का ऐतिहासिक मौका है, इसे इससे कम आंकना गलत होगा। देश के चारों शंकराचार्यों ने प्राण-प्रतिष्ठा समारोह का अलग-अलग कारणों से विरोध किया है, लेकिन सबके विरोध में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक निशाना हैं। इसे देखते हुए सोशल मीडिया पर किसी ने एक मजेदार बात लिखी है कि भारत में धर्म और राजनीति का मेल इतना गहरा हो गया है कि आज प्रधानमंत्री देश के सबसे बड़े धर्मगुरू दिख रहे हैं, और चारों सबसे बड़े धर्मगुरू विपक्षी नेता दिख रहे हैं!
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