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अभिव्यक्ति का यह नया औजार, लोकतंत्र और खेमों के बीच कहीं
11-Feb-2024 3:37 PM
अभिव्यक्ति का यह नया औजार, लोकतंत्र और खेमों के बीच कहीं

हिन्दुस्तान में परंपरागत मीडिया हो, या नया मीडिया, इन दोनों का इस्तेमाल करने वाले लोगों का रूख थोड़ा सा हैरान करता है। पहले सिर्फ अखबार हुआ करते थे, और रेडियो और टीवी के नाम पर आकाशवाणी और दूरदर्शन ही थे, जो कि सरकार के प्रचार का माध्यम थे। बाद में एक-एक करके सैकड़ों निजी चैनल जुटे, और फिर इंटरनेट के विस्फोट से लाखों वेबसाइटें आ गईं। अब सोशल मीडिया की मेहरबानी से लोगों को मुफ्त में फेसबुक, ट्विटर, और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म मिले, और इनके लिए किसी सरकारी इजाजत की जरूरत नहीं रह गई जैसी कि सौ कॉपी छपने वाली किसी सालाना पत्र-पत्रिका को भी लगती थी। एक डोमेन नेम, तकरीबन मुफ्त बन जाने वाली वेबसाइट, और एक मोबाइल फोन से ही उस पर समाचार-विचार या कुछ भी पोस्ट करने की अकल्पनीय और अराजक आजादी! किसने सोचा था कि एक दिन हर नागरिक पत्रकार हो सकते हैं, और अखबारों के संपादक के नाम पत्र कॉलम के लिए चिट्ठी भेजकर हफ्ते भर इंतजार करने के बजाय अपनी बात पल भर में सीधे-सीधे पोस्ट कर सकते हैं। परंपरागत अखबारी-मीडिया को एक बड़ी चुनौती ऐसे आजाद सोशल मीडिया से मिली है, और इन दिनों कोई अखबार ऐसे नहीं रहते जो कि सोशल मीडिया की निगरानी न करते हों, वहां से खबरें न पाते हों। एक किस्म से अखबारों को छुए बिना भी, टीवी चैनलों को देखे बिना भी लोग सोशल मीडिया पर अपने अकाऊंट चला सकते हैं, लेकिन कोई भी अखबार-चैनल बिना सोशल मीडिया की बारीक-निगरानी बिना अपना काम नहीं चला सकते। 

यह एक बुनियादी फर्क पिछले कुछ दशकों में आया है, और लोकतंत्र के नजरिए से देखें तो यह बात साफ है कि जिसे अपने को मूलधारा का मीडिया कहने वाले लोग अराजक मानते हैं, वह एक अलग किस्म का लोकतंत्र है, और भारत जैसे एक वक्त के उदार लोकतंत्र ने भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के माध्यमों को जिस तरह नियम-कानून में जकडक़र रखा था, इंटरनेट की एक आजाद-तकनीक ने उन सब नियमों को चकमक पत्थर जितना पुराना और गैरजरूरी साबित कर दिया। और तो और, अभी आधी सदी के भीतर हिन्दुस्तान में प्रचलित हुए टीवी समाचार माध्यमों ने भी यह समझ लिया है कि इंटरनेट पर जो डिजिटल माध्यम चल रहे हैं, और जिनमें सबसे अधिक लोकप्रिय किसी अकेले व्यक्ति के चलाए जा रहे यूट्यूब सरीखे माध्यम है, उनका मुकाबला करना टीवी के भी बस का नहीं रह गया है। यह नौबत लोकतंत्र के लिए राहत की है जिसमें अभी चौथाई सदी पहले तक अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए अखबार या टीवी का एक महंगा कारोबार शुरू करना पड़ता था, आज वैसे तमाम कारोबार सफेद हाथी साबित हो रहे हैं, जो कि लागत के मुकाबले कोई मुनाफा नहीं दे पा रहे। 

आज बिना किसी संपादक के, बिना किसी सरकारी रजिस्ट्रेशन के, और तो और बिना किसी सरकारी और कारोबारी इश्तहारों के जो यूट्यूब चैनल चल रहे हैं, वे हैरान करते हैं कि अभी कुछ अरसा पहले तक किसी ने उनकी ऐसी ताकत की कल्पना भी नहीं की थी। लेकिन अब लोकतंत्र में यह एक नया आयाम जुड़ा है, जो कि बहुत सी ताकतों को परेशान कर रहा है। जब तक सोशल मीडिया पर लिखने और बोलने वाले, दिखने और पोस्ट करने वाले लोग देश के किसी कानून को तोड़ नहीं रहे हैं, तब तक उन पर सरकार, बाजार, या कारोबार का किसी तरह का प्रत्यक्ष या परोक्ष काबू नहीं है। 

हैरान करने वाली एक बात और भी है कि इंटरनेट जैसी तकनीक और बहुत मामूली से डिजिटल उपकरणों की वजह से जब यह माध्यम पश्चिम के विकसित देशों में खड़ा हुआ, तो तकरीबन उसी के साथ-साथ वह हिन्दुस्तान से लेकर पाकिस्तान और अफगानिस्तान तक हर किस्म के देशों में खड़ा हो गया। अब हर जगह सरकारें इन्हें लेकर बेचैन हैं क्योंकि ये सरकारी इश्तहारों पर जिंदा नहीं हैं, इसलिए कानून न तोडऩे पर सरकारें इनका टेंटुआ नहीं दबा सकती हैं। लेकिन अभी-अभी भारत सरकार, और बहुत सी प्रदेश सरकारों ने अखबार और चैनल से परे, समाचार और विचार वेबसाइटों से भी परे, खालिस सोशल मीडिया पर अधिक लोकप्रिय ब्रांड और लोग देखते हुए उन्हें सोशल मीडिया इन्फ्लुएंजर का दर्जा देते हुए उनके लिए भी कई तरह के महंगे-महंगे पैकेज देना शुरू किया है। मतलब यह है कि सरकारें अपनी पसंद और नापसंद के मुताबिक कुछ लोगों को बढ़ावा देकर, और कुछ लोगों को ऐसे फायदों से परे रखकर, वहां एक किस्म का गैरबराबरी का मुकाबला खड़ा कर रही हैं। ऐसी गैरबराबरी अखबारों और टीवी चैनलों में सरकारें हमेशा से करती आई हैं, लेकिन अब सोशल मीडिया पर भी इनकी ऐसी सीधी दखल हो सकता है कि सोशल मीडिया की आजादी को एक अलग तरह से प्रभावित करे। 

यह सिलसिला अभी शुरू ही हुआ है, और यह बात भी ठीक से समझ नहीं पड़ रही है कि क्या सोशल मीडिया के हमलावर तेवरों, और उसके आजाद मिजाज पर इससे कुछ फर्क पड़ रहा है। अभी तो जो सबसे कामयाब यूट्यूबर हैं, या इंस्टाग्राम जैसे माध्यम पर हैं, उन्हें ये प्लेटफॉर्म ही भुगतान करते हैं, और सबसे कामयाब लोग बड़ी आसानी से एक बड़े कारोबारी की तरह सिर्फ दर्शक संख्या से मिल रहे भुगतान पर कामयाब हो सकते हैं। लेकिन दूसरी तरफ ऐसी सबसे अधिक कामयाबी पाने के लिए भारत में आज जो सबसे आसान रास्ता सूझ रहा है, वह सत्ता या विपक्ष के किसी एक खेमे का हिस्सा बन जाना है, और भाड़े के भोंपू की तरह उस पक्ष का प्रचार और गुणगान करना है। यह एक आसान तरीका दिख रहा है जो कि बहुत से यूट्यूब चैनलों की कामयाबी का एक खुला राज सरीखा है। इसी के साथ-साथ हिन्दुस्तान में आज जिस तरह का राष्ट्रवाद, जिस तरह का धर्मोन्माद बड़ा लोकप्रिय और लुभावना हो गया है, उसके एजेंडे पर चलते हुए दसियों लाख या करोड़ों दर्शकों तक पहुंच जाना भी बहुत आसान हो गया है। खेमेबाजी कामयाबी की एक आसान तरकीब हो गई है, और समाचार-विचार का, बहस का एक कीर्तन सरीखा चलता है, और उस संप्रदाय के भक्तजन मानो धार्मिक भावना से परिपूर्ण होकर वहां जुट जाते हैं। 

अखबारों के पूरे इतिहास में विचारधारा, एजेंडा, या उसका प्रोपेगंडा कभी भी कारोबारी कामयाबी की इस ऊंचाई पर नहीं पहुंचा पाए थे। लेकिन आज तकरीबन हर हाथ में मौजूद मोबाइल फोन लोगों को बात की बात में अंतरिक्ष तक पहुंचा सकते हैं। वैचारिक प्रतिबद्धता कारोबारी सफलता नहीं हो पाती थी, लेकिन आज वह साफ-साफ दिख रही है। आज मोदी से मोहब्बत दिखाने वाले भी कामयाब हैं, और मोदी से नफरत रखने वाले भी। जो लोग राहुल को देश का भविष्य बताते हैं, वे भी शोहरत पाते हैं, और जो उन्हें पप्पू करार देकर उनकी खिल्ली उड़ाते हैं, उनके भी दसियों लाख दर्शक हैं। यह नौबत उन लोगों को बाजार से तकरीबन बाहर कर देने सरीखी है जो कि व्यक्तियों और विचारधारा की प्रतिबद्धता से परे, मुद्दों और इंसाफ की बात तक सीमित रहते हैं, और किसी किस्म का झंडा लेकर नहीं चलते। ऐसे लोगों के लिए आज कोई ग्राहक या बाजार नहीं है, कोई दर्शक या श्रोता नहीं है, एक वक्त ऐसे लोगों के लिए भी अखबार के पाठक जरूर थे, लेकिन अब वे भी शायद कम होते गए हैं। लोकतंत्र में विचारों की आजादी के मौके तो बढ़े हुए दिख रहे हैं, लेकिन ये विचार जिस जनता को प्रभावित करने चाहिए, जिसे प्रभावित करने के लिए इन्हें लिखा जाता है, वह जनता किसी के समर्थन और किसी के विरोध में अपना इतना पक्का मन पहले से बना चुकी है कि वह स्तुति और धिक्कार के बीच किसी चीज में दिलचस्पी नहीं रखती। 

अब सवाल यह उठता है कि क्या यह नौबत इंटरनेट और सोशल मीडिया सरीखी लोकतांत्रिक और तकरीबन मुफ्त टेक्नॉलॉजी के माध्यम से लोकतंत्र को अधिक लोकतांत्रिक बना रही है, या इसके भीतर के खेमों के पूर्वाग्रहों को और अधिक मजबूत कर रही है? 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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