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पैकेट में बंद स्वाद आता है बहुत सी बीमारियां लेकर..
03-Mar-2024 3:57 PM
पैकेट में बंद स्वाद आता है बहुत सी बीमारियां लेकर..

ब्रिटेन की एक रिपोर्ट है कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड (यूपीएफ) से इंसान की सेहत पर दर्जनों किस्म के बुरे असर पड़ते हैं, और इससे हृदय रोग, डायबिटीज, कैंसर सहित कई दूसरी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। ब्रिटिश जनरल ऑफ मेडिसिन की एक रिपोर्ट बताती है कि यूपीएफ खाने से मौत का खतरा करीब डेढ़ गुना हो जाता है। यह अध्ययन बताता है कि इसके बाद मौत का खतरा 21 फीसदी तक बढ़ जाता है, और मोटापा, डायबिटीज जैसी बीमारियों की वजह से लोगों को बहुत इलाज की जरूरत पड़ती है। दिक्कत की एक बात यह भी है कि संपन्न तबके के खानपान में अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड जितना है, उसके मुकाबले गरीबों के खाने में भी यह कम नहीं है। 

हम हिन्दुस्तान जैसे देश में देखते हैं कि गरीब और मजदूर भी अपने बच्चों को कामकाज की मजबूरियों के चलते पैकेटबंद नमकीन और मीठे सरीखे खानपान को देने पर मजबूर हो जाते हैं। छोटे-छोटे बच्चों को घर पर छोडक़र जाने वाले मजदूर मां-बाप खाना पकाने का समय न रहने पर ऐसे ही पैकेटबंद सामान छोड़ जाते हैं। और धीरे-धीरे इन बच्चों की आदत ही ऐसे सामान की पडऩे लगती है। दूसरी तरफ जो अंतरराष्ट्रीय ब्रांड दुनिया के बाकी देशों में वहां के सख्त कानूनों की वजह से अपने पैकेट पर सेहत की चेतावनी को साफ-साफ छापते हैं, नमक, शक्कर, और तेल को सीमित रखते हैं, वे हिन्दुस्तान में कमजोर सरकारी नियमों के चलते मनमानी करते हैं, और चेतावनी छापने से कई तरह से बचते रहते हैं। नतीजा यह होता है कि स्वाद को रिझाने वाले रसायनों के साथ बाजार उन चीजों से पटा हुआ है जिन्हें अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड कहा जाता है, और जो कि कई बीमारियों की जड़ है। 

विकसित देशों में तो यह बात ठीक हो सकती थी, लेकिन गरीब देशों में भी कंपनियों के बनाए सामानों का यही हाल है। बहुत हमलावर अंदाज की मार्केटिंग बचपन से ही लोगों को तबाह कर रही है, और बुढ़ापे तक तो शायद पहुंचने ही नहीं दे रही है। ऐसा लगता है कि बाजारू पैकेटबंद खाना बनाने वाली कंपनियां अस्पतालों के लिए काम करती हैं, और अपने ग्राहक और अस्पतालों के लिए मरीज तैयार करती हैं। यह सिलसिला शहरीकरण, और भागदौड़ के साथ बढ़ते चल रहा है, क्योंकि लोगों के पास राह चलते, या सफर पर खाने के लिए यही चीजें सबसे सहूलियत से हासिल हैं। दूसरी तरफ जैसे-जैसे एयरपोर्ट, प्लेन, या निजीकरण में जा चुके रेलवे स्टेशन बढ़ते चल रहे हैं, वैसे-वैसे इन तमाम जगहों पर इसी नुकसानदेह दर्जे का खाना बढ़ते चल रहा है। आज किसी एयरपोर्ट पर सेहतमंद खाना हासिल ही नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसे ठेके पर लेने वाले लोग अधिक से अधिक चटपटा और महंगा खाना चेपने में लगे रहते हैं। आज जितने दिन लोग सफर में खाना खरीदकर खाते हैं, मानो वे अपनी जिंदगी से उतने दिन खो बैठते हैं, और जो बकाया दिन रहते भी हैं, उनमें भी बीमारियों का खतरा अधिक रहता है।

आज महंगी और निजी स्कूलों तक में हफ्ते में एक दिन जंक फूड का दिन कहा जाता है, और ऐसे दिन छोटे-छोटे बच्चे भी सेहत बर्बाद करने वाला पैकेटबंद खानपान लेकर जाते हैं। आज बच्चों की जितने तरह की दावतें होती हैं, वे इसी दर्जे का खाना खिलाती हैं, चटपटे स्वाद की वजह से बच्चे घर पर भी इसी किस्म की चीजें खाते हैं, और घर के बड़े भी यह ध्यान नहीं रखते कि घर पर इस तरह के सामान लाना बंद करके बच्चों को बचाया जा सकता है। हमने कई मौकों पर यह सुझाया है कि घर आए हुए मेहमानों को भी कारखानों से आए हुए, रेस्त्रां से बुलाए हुए अल्ट्रा प्रोसेस्ड सामान न परोसे जाएं, और ऐसा करके ही घर के बच्चों को भी इस खतरे से बचाया जा सकता है। लेकिन अतिथि सत्कार की भारतीय भावना ऐसी रहती है कि घर आए मेहमानों के सामने हर किस्म का जंक फूड परोसा जाता है, और घर के बच्चे बारीक नजर रखकर ऐसे मौकों का इस्तेमाल करते हैं। 

हिन्दुस्तान में एक दिक्कत यह भी है कि यहां योग और ध्यान, आध्यात्म जैसी बातों का एक गौरव पाकर लोग उसे सेहतमंद जिंदगी के लिए काफी मान लेते हैं। जबकि इन पर अमल करने का तो फायदा हो सकता है, देश के इतिहास में इनकी जगह का कोई फायदा लोगों को तब तक नहीं हो सकता, जब तक वे इस राह पर न चलें। लोग जीवनशैली को सेहतमंद बनाने के बजाय भारतीयता पर गर्व करने को काफी समझ लेते हैं। 

हिन्दुस्तान जिस तरह से दुनिया भर की बीमारियों का गढ़ बन चुका है, उसे देखते हुए सरकारों को खानपान के खतरों को उजागर करने वाले कानूनों को कड़ा बनाना चाहिए, और जनता के बीच ऐसे जागरूकता अभियान चलाने चाहिए जो कि कारखानों और बाजार के बनाए हुए खानपान के खतरे से लोगों को आगाह करे। एक बार लोगों की सेहत बिगड़ जाए, तो फिर केन्द्र और राज्य सरकारों के मुफ्त इलाज के कार्ड किसी काम के नहीं रहते। आज हालत यह है कि सरकारें अपनी न्यूनतम कानूनी जिम्मेदारी पूरी करने के बजाय भारी-भरकम खर्च करके इलाज की अधिकतम जिम्मेदारी को पूरा करने की कोशिश करती हैं, जो कि एक बहुत ही कमअक्ली का आर्थिक फैसला है। लोगों की सेहत को बचाना प्राथमिकता होना चाहिए, और अगर ऐसा होने लगा तो सरकारों को इलाज का बीमा भी कम लागत पर मिलने लगेगा, अस्पतालों पर सरकार का खर्च घटने लगेगा। 

अब इसके साथ-साथ एक उम्मीद यह भी की जानी चाहिए कि लोग खुद होकर भी अपनी सेहत के प्रति जागरूक रहें, अपने खानपान को सुधारें, अपनी रोज की जिंदगी में सैर या कसरत को, योग और ध्यान को जगह दें, और बीमारी से बचने की भरसक कोशिश करें। यह भी समझने की जरूरत है कि आने वाली पीढिय़ों के लिए महज जमीन-जायदाद छोडक़र जाना काफी नहीं है, अपने ऐसे सेहतमंद जींस छोडक़र जाना भी जरूरी है जो कि अगली पीढिय़ों को बीमारियों से कुछ या अधिक हद तक दूर रखे। यह बात समझना चाहिए कि जो पीढ़ी खुद बीमारियों से बचती है, उसी के साथ यह संभावना अधिक रहती है कि उसकी अगली पीढ़ी भी सेहतमंद हो सके। लोगों को अटपटा लग सकता है कि हमने अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड की बात को यहां तक खींच लिया है, लेकिन इन बातों का एक-दूसरे से सीधा रिश्ता है। पैकेट का खाना खा-खाकर जो पीढ़ी अपना बदन बर्बाद करती है, वह ठीक वैसे ही जींस अगली पीढ़ी को देती है। 

 (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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