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ये कहां...., आ गए हम...
24-Mar-2024 3:22 PM
ये कहां...., आ गए हम...

पिछले कुछ हफ्तों के सुप्रीम कोर्ट को देखें तो लगता है कि केन्द्र और कई राज्य सरकारें अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में संविधान और कानून से लगातार टकरा रही हैं। राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार के जाने कितने ही फैसलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट को इन सरकारों को याद दिलाना पड़ रहा है कि वे कानून के खिलाफ काम कर रही हैं। ऐसा भी नहीं कि इन्हें अपने दायरे मालूम न हों, क्योंकि निर्वाचित नेता तो नासमझ और बदनीयत हो सकते हैं, लेकिन लगातार काम करने वाले नौकरशाह और बड़े-बड़े सरकारी वकील तो कानून को जानते हैं, और वे पहले से बता सकते हैं कि कौन से फैसले अदालती कटघरे में खड़े नहीं हो सकेंगे। इसके बावजूद अगर सरकारें ऐसे फैसले लेती हैं, ऐसे काम करती हैं, तो यह जाहिर है कि वे अदालत से इन कामों के रद्द या खारिज होने के पहले तक के वक्त का इस्तेमाल करती हैं। चुनावी बॉंड का मामला ऐसा ही रहा, और कई राज्यों की सरकारों के बहुत से फैसले ऐसे ही रहे जिनके बारे में अदालत से खारिज होना तय था, लेकिन उसके पहले तक उनका बेजा इस्तेमाल ही पूरा मकसद था।

अब ऐसा लगता है कि भारतीय लोकतंत्र में कार्यपालिका, विधायिका, और न्यायपालिका नाम के जो तीन स्तंभ अलग-अलग बनाए गए थे, उनमें से कार्यपालिका किसी बिफरे हुए सांड की तरह नथुनों से फुंफकारते हुए, सींगों से हमला करते हुए जनहित को कुचल देने के लिए टूटी पड़ी है, और सुप्रीम कोर्ट है कि अपने काम के बाकी बोझ को किनारे रखकर इस सांड को सींगों से थामकर काबू में करने में लगा हुआ है। और तो और, चुनाव आयोग से लेकर राष्ट्रपति तक, राज्यपालों से लेकर विधानसभाध्यक्षों तक जो स्वतंत्र और स्वायत्त संस्थाएं होनी चाहिए, वे सारी की सारी सरकार के मातहत विभागों की तरह काम कर रही हैं। नौबत इतनी खराब हो गई है कि जनता को अब सिर्फ एक संस्था, अदालत की तरफ देखना पड़ रहा है, लेकिन यह लोकतंत्र इस नौबत के लिए बनाया नहीं गया था कि बाकी तमाम संस्थाएं गैरजिम्मेदारी करें, गलत करें, और सिर्फ अदालत उसे सुधारने का काम करे। 

देश और प्रदेशों को देखें तो यह साफ है कि सरकारें ऐसे बहुत से फैसले ले रही हैं जिनके बारे में हम उसी वक्त से यह लिखते आए हैं कि वे अदालती सवालों को नहीं झेल पाएंगे, लेकिन सरकारें हैं कि बेझिझक और बेधडक़ होकर ऐसा ही काम करती जा रही है। कहीं आतंक के कानून का ऐसा इस्तेमाल किसी खास तबके की गिरफ्तारी के लिए किया जा रहा है, तो कहीं केन्द्र और राज्य सरकारों की जांच एजेंसियों का काम सत्ता को नापसंद लोगों की गिरफ्तारी तक सीमित रह गया है। राज्यों में भी छांट-छांटकर राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ मामले-मुकदमे दर्ज करने का काम चल रहा है। और सरकारें इस बेशर्मी के साथ ऐसे काम कर रही हैं कि यह भी लगता है कि क्या सरकारों को सचमुच ही कोई अधिकार होना चाहिए? 

देश के कानून एकदम साफ हैं, और सरकारों को उनकी सीमाएं मालूम हैं, लेकिन सौ फीसदी गलत तरीके से काम करना जारी है, और सिर्फ निर्वाचित सरकारें नहीं, राज्यपाल और विधानसभाध्यक्ष भी ऐसे खराब और घटिया फैसले ले रहे हैं, कि उन्हें मालूम है कि अदालत उन्हें पलट देगी। लेकिन इसमें कुछ हफ्तों या महीनों का समय लगेगा, और उस वक्त का इस्तेमाल तोडफ़ोड़ करने, सत्ता पलटाने, दलबदल करवाने में किया जाता है। अदालती फैसलों से सरकारें कुछ भी नहीं सीख रही हैं, वे इस बात पर पूरी तरह अड़ी हुई हैं कि उन्हें अदालतों से टकराव लेना है, और मनमानी करनी है। सरकारें तो सरकारें, स्टेट बैंक जैसे सार्वजनिक संस्थान भी सुप्रीम कोर्ट के सामने बेशर्मी से हुक्मउदूली कर रहे हैं, और इसके चेयरमैन तक को अदालत का कोई डर नहीं है। 

चुनावी बॉंड से लेकर पीएम केयर्स तक बहुत से ऐसे फंड हैं जिन्हें सरकार जनता की नजरों से दूर रखने पर अड़ी हुई है। छत्तीसगढ़ में तो सरकार ने एक जाति सर्वे करवाया, और उस रिपोर्ट को दो-दो राज्यपाल मानते रह गए, लेकिन किसी को दिया नहीं गया। जनता के पैसों और उन पैसों से किए गए काम का हिसाब भी देना नेता और पार्टियां नहीं चाहते। लोकतंत्र में जनता एकदम ही खारिज कर दी गई है, और जनहित, जनभावना, जनसरोकार जैसे शब्द मानो 21वीं सदी के भारत के इस तथाकथित अमृतकाल के शब्दकोश से निकाल ही दिए गए हैं। ये तमाम बातें लोगों के मन में सवाल खड़े करती, लेकिन ये मन धर्म और जाति की भावनाओं में घिरे हुए हैं, और उनकी बाकी समझ धीमी पड़ चुकी हैं। 

जिस रफ्तार से दलबदल चल रहे हैं, और लोग थोक में दलबदल करके सदस्यता खोने से भी बच जा रहे हैं, इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अभी चार दिन पहले ही बड़ी हैरानी जाहिर की थी, देखना है कि अदालती जुबानी जमाखर्च किसी फैसले की शक्ल में पहुंच पाएगा या नहीं। इन दिनों देश में जो कुछ अच्छा होते दिख रहा है, वह सुप्रीम कोर्ट की मेहरबानी से चल रहा है, क्योंकि कई हाईकोर्ट तो पत्थरयुग और गुफाकाल के अंदाज में काम कर रहे हैं। 

भारतीय लोकतंत्र को कुछ थमकर इस पर सोचने की जरूरत है जो कि एक फिल्म के गाने में पूछा गया था- ये कहां...., आ गए हम... 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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