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सामानों की लाइब्रेरी, अनोखी तो नहीं, पर काम की सोच है
12-May-2024 1:32 PM
सामानों की लाइब्रेरी, अनोखी  तो नहीं, पर काम की सोच है

दुनिया में अगर अपनी ही खरीदी हुई किताबों से ज्ञान हासिल करना रहता, उन्हें पढऩा रहता, तो लोग बहुत जरा सा पढ़ पाते। सबसे गरीब से लेकर सबसे संपन्न देशों तक अधिकतर लोगों का किताब पढऩा लाइब्रेरी पर निर्भर करता है। सार्वजनिक लाइब्रेरी जैसे-जैसे घट रही हैं, वैसे-वैसे लोगों की पढऩे की आदत कम हो रही है। और अब तो दुनिया के कम सभ्य और कम समझदार देशों में लाइब्रेरी की जरूरत ही नहीं समझी जा रही है। फिर भी कुछ घंटों या दिनों के लिए किताबें लेकर पढऩा, एक-दूसरे से उधार लेकर पढऩा अभी भी दुनिया में बड़े पैमाने पर चलन में है, और इसी निजी मालिक  की किताब के मुकाबले लाइब्रेरी की किताब शायद सौ-सौ गुना इस्तेमाल होती है।

ऐसा इसलिए भी होता है कि जिस किताब की जरूरत रहती है, लाइब्रेरी से उस वक्त उसे ही लिया जाता है। अब पश्चिम में एक नया चलन शुरू हो रहा है अपनी जरूरत के किसी भी सामान को सीमित समय के लिए किराए पर लेना। यह एक किस्म से सामानों की लाइब्रेरी है। अभी ब्रिटिश अखबार द गार्डियन ने वहां की एक रिपोर्ट छापी है जिसमें बच्चों के जूते-कपड़ों से लेकर मशीनी औजारों तक, और रसोई के उपकरणों तक तमाम किस्म की चीजें किराए पर मिल रही हैं, और लोग उनका भरपूर इस्तेमाल भी कर रहे हैं। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि कुछ लोग अगर घूमने के लिए अपनी जगह से बहुत अधिक ठंडी या गर्म जगह पर जा रहे हैं, तो उसके लिए अलग तरह के कपड़े, जूते, और बाकी तमाम चीजों की जरूरत पड़ती है। अब इन्हें अगर खरीद लिया जाए तो हफ्ते-दस दिन के बाद उनका कोई इस्तेमाल नहीं रह जाता, और वे सामान बोझ बनकर रह जाते हैं। उपकरणों का इस्तेमाल तो बहुत ही कम होता है, और उन्हें भाड़े पर लाकर काम चलाना एक समझदारी की बात होती है। यह कुछ उसी किस्म का है कि अपनी डिजिटल सामग्री को रखने के लिए हार्डडिस्क खरीदने के बजाय इंटरनेट पर क्लाउड-स्पेस किराए पर ले लिया जाए, और जितनी सामग्री, जितने समय तक वहां रखी जाए, उसके किराए का ही भुगतान किया जाए। यह कुछ वैसा ही है जैसा कोल्ड स्टोरेज में आलू-प्याज, या दूसरी सब्जियां रखने वाले लोगों के साथ होता है, अपने कुछ हफ्तों या महीनों के लिए गोदाम बनाने के बजाय कोल्ड स्टोरेज किराए पर लेते हैं।

मैंने कुछ बरस पहले अपने इसी कॉलम में ‘दस का दम’ नाम की एक कल्पना लिखी थी, लेकिन उस पर आगे कोई काम नहीं हो पाया। सोच यह थी कि लोग अपने आसपास के दस परिवारों का जिम्मा लें कि उनके घरों पर बिना जरूरत रह गए सामानों को दान पर देने की प्रेरणा उन्हें दें, उन सामानों को लेकर किसी एक जगह इकट्ठा करें, और फिर उन्हें जरूरतमंद लोगों को बांट दें। हर परिवार में बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक के इस्तेमाल के ऐसे बहुत से सामान रहते हैं, जो कि आगे जाकर बेकार रह जाते हैं। दूसरी तरफ समाज के बहुत से जरूरतमंद लोगों को इन चीजों की जरूरत रहती है। ऐसे में एक औपचारिक या अनौपचारिक संगठन की शक्ल में अगर लोग महीने में कुछ घंटे अपने परिचित दस-दस परिवारों से ऐसे सामान जुटाकर उन्हें एक साथ कहीं रखकर जरूरतमंद लोगों को दे सकें, तो गरीबों की बहुत सी जरूरत भी पूरी होगी, और धरती पर नए सामानों का बोझ भी बढऩा थमेगा। मेरी कल्पना यह थी कि दस-दस लोगों के ऐसे समूह बनते जाएं, आगे बढ़ते जाएं, और जिस तरह आज मार्केटिंग नेटवर्क के सामानों को खपाने के लिए लोगों की एक चेन बनाई जाती है, वैसी चेन नेक काम के लिए भी बनाई जा सकती है।

एक बार अगर कोई भरोसेमंद संस्था ऐसा करके दिखा दे, तो बहुत से लोग ऐसे मिलेंगे जो कि अपने गैरजरूरी सामान लाकर छोडऩे भी लगेंगे। संस्था और संगठन का फायदा यह होता है कि जरूरतमंद लोगों की शिनाख्त आसानी से, और बेहतर तरीके से हो सकती है। यह सिलसिला शुरू करने के लिए बस दस उत्साही लोगों की जरूरत है, जो कि अपने आसपास के दस, या अधिक परिवारों को सहमत कराकर उनसे उनके लिए गैरजरूरी हो चुकी चीजें ले सकें। धीरे-धीरे इनमें से हर कोई अपने नीचे की, दस-दस लोगों की एक लाईन तैयार कर सकते हैं, और जिस तरह नेटवर्क मार्केटिंग के लोग बढ़ावा देते हैं, वैसे ही अधिक समर्पित समाजसेवी ऐसा ही बढ़ावा दे सकते हैं।

आज धरती पर सामानों की बढ़ती खपत, धरती पर कार्बन का बोझ बढ़ा रही है। नया सामान बनने में चीजें भी लगती हैं, और ऊर्जा भी लगती है, प्रदूषण भी होता है। दूसरी तरफ पुराना सामान कचरे या घूरे में जाकर धरती पर बोझ बनता है। समझदारी इसी में है कि किसी सामान का अधिक से अधिक बार इस्तेमाल कैसे किया जाए? ऐसे में एक तरफ तो हमारा सुझाया जा रहा ‘दस का दम’ जैसा एक खयाल है, दूसरी तरफ ब्रिटेन की आई हुई यह खबर है जिसमें सामानों की लाइब्रेरी की बढ़ती हुई लोकप्रियता बताई गई है। आज भी हिन्दुस्तान में स्कूलों के फैंसी ड्रेस के लिए बच्चों के तरह-तरह के कपड़े बाजार में किराए पर मिलते हैं, और दावतों में जाने के लिए बड़ों के महंग कपड़े भी। धरती पर सामानों का बोझ सीमित रखने के लिए यह एक बड़ा योगदान हो सकता है कि लोग कुछ देर की जरूरत के लिए खरीदने पर मजबूर न हों। क्योंकि एक बार के इस्तेमाल के लिए खरीदे गए सामान बाद में रखने की भी दिक्कत रहती है, जगह भी लगती है, पड़े-पड़े सामान खराब भी होते हैं, और फैशन के सामानों के साथ तो यह भी रहता है कि उनकी फैशन बदल जाती है। इसलिए किसी एक सामान के बनाए जाने के बाद उसका अधिक से अधिक बार इस्तेमाल किस तरह हो सकता है, इसकी योजना लोगों को बनानी चाहिए, चाहे यह समाजसेवा के नजरिए से चीजों को दान में जुटाकर जरूरतमंदों में बांटकर की जाए, या फिर किराए पर मुहैया कराकर। जहां तक धरती और पर्यावरण की बात है उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता कि इन दोनों में से किस तरीके से नए सामान बनना थम रहे हैं, और पुराने सामानों का घूरे पर जाना थम रहा है।

जिन लोगों के पास कुछ खाली वक्त हो, दोस्तों में से किसी एक के पास एक-दो खाली कमरे हों, या कि कोई गोदाम हो, तो अपने-अपने स्तर पर वे सामान जुटाकर, उसका अधिक इस्तेमाल सुनिश्चित करके धरती का, मतलब है कि अपना खुद का भला कर सकते हैं। धरती का क्या है वह तो तमाम इंसानों के चले जाने के बाद भी बनी रहेगी, और पर्यावरण बर्बाद होने से इंसान खत्म होंगे, धरती तो बची रहेगी।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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