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जन्नत का झांसा दिखाकर मन्नत! धर्म समझ को आने ही नहीं देता
02-Jun-2024 4:57 PM
जन्नत का झांसा दिखाकर मन्नत! धर्म समझ को आने ही नहीं देता

छत्तीसगढ़ में 46 डिग्री तापमान पर एक धार्मिक प्रवचन चल रहा है, और कुछ दिन पहले इसकी तैयारी में हजारों महिलाओं ने सिर पर कलश रखकर नंगे पैर शोभायात्रा भी निकाली थी। अभी भी जिस जगह यह प्रवचन चल रहा है, वहां लाखों लोगों की आवाजाही है, और कई किलोमीटर तक ट्रैफिक जाम रहता है। सत्तारूढ़ भाजपा के एक नेता ने कल ही ट्विटर पर यह लिखा है कि इतनी गर्मी में कथावाचक प्रदीप मिश्रा के कार्यक्रम में 8 साल की बच्ची ने दम तोड़ दिया। स्थानीय नागरिकों का दावा है कि अब तक 6 मौतें हो चुकी हैं। तत्काल इस आयोजन पर रोक लगे, प्रशासन इस पर ध्यान दें। और लोगों ने भी इस पर लिखा है कि कथावाचकों को अप्रैल, मई, और जून के महीनों में कार्यक्रम नहीं रखने चाहिए। किसी ने लिखा है कि इस महाराज को खुद ही यह कार्यक्रम रखना नहीं था, या अब बंद कर देना चाहिए, किसी के कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। एक और ने लिखा है कि महाराज को पैसा कमाने से फुर्सत मिले, तो आम नागरिकों की सोचें। इतनी गर्मी में कोई ऐसा आयोजन करता है, जबकि गर्मी का रेड अलर्ट जारी हुआ है। एक व्यक्ति ने तंज कसते हुए कहा है कि दो सौ बेलपत्र चढ़ाने बोलिए, ठीक हो जाएगा। किसी और ने याद दिलाया है कि इसी प्रवचनकर्ता के मध्यप्रदेश में भी रूद्राक्ष वितरण के दौरान बहुत से मौतें देखने मिली थी। कुछ लोगों ने यह याद दिलाया है कि लोगों को अपने घर से ही कथा सुननी चाहिए। एक ने ट्वीट करने वाले भाजपा नेता को याद दिलाया कि इतनी भरी गर्मी में यह जानलेवा आयोजन करने की अनुमति भाजपा सरकार ने ही दी है। एक ने लिखा है कि चलिए बहुत जल्द जाग गए, फिलहाल कथा समाप्त हो चुकी है। एक ने सवाल उठाया है कि 6 मौतों की जिम्मेदार किसे ठहराया जाए। एक व्यक्ति ने लिखा है कि महाराज को होश नहीं है क्या, इसी भीषण गर्मी में अपने प्रवचन रद्द करना चाहिए, मरने वालों को दस-दस लाख मुआवजा देना चाहिए। 

अभी कल की ही एक खबर थी कि डेढ़ बरस पहले राजस्थान से निकले पति-पत्नी 665 किलोमीटर की दंडवत यात्रा करके उज्जैन पहुंचे हैं। इसका वीडियो देखना भी भयानक था जब चारों तरफ तपती सडक़ पर नंगे पैर यह बुजुर्ग जोड़ा चल रहा है, और ये सडक़ों पर लेट-लेटकर आगे बढ़ रहे हैं। 55 बरस उम्र का आदमी एक दिन में करीब डेढ़ किलोमीटर की यात्रा इस तरह कदम-कदम पर दंडवत लेटकर इंच-इंच आगे बढ़ते दिखता है, और पत्नी भी झोले में थोड़ा सा सामान लेकर साथ चल रही है। रास्ते में कभी वे कुछ खरीदकर खा लेते हैं, कभी लोग कुछ खिला देते हैं। अब आज जब सरकार लोगों को गर्मी में घर से बाहर न निकलने की सलाह दे रही है, देश भर में सैकड़ों लोग एक-एक दिन में लू से मर रहे हैं, तब यह बुजुर्ग जोड़ा डेढ़ साल के इस कठिन, तकलीफदेह, और जानलेवा तीर्थयात्रा पर है। नवतपा के बीच सफर इसी तरह जारी है। 

आस्था लोगों की तर्कशक्ति को पूरी तरह खत्म कर देती है। अब इस जोड़े ने डेढ़ बरस का वक्त ऐसी यात्रा पर लगा दिया है, जिससे उनकी निजी आस्था जरूर पूरी हो रही है, कोई मन्नत भी पूरी हो रही है, लेकिन इससे समाज का भला क्या भला हो रहा है? और जहां तक ईश्वर की बात है, तो पत्थर की प्रतिमाओं, लकड़ी के सलीब, या अमूर्त ईश्वरों, धार्मिक ग्रंथों की उपासना और आराधना से किसी ईश्वर का भला होते तो किसी ने देखा नहीं है। बहुत से लोग तरह-तरह के कठिन इरादे तय कर लेते हैं, और फिर बरसों तक उसे पूरा करने में लगे रहते हैं। अगर सचमुच ही कहीं कोई ईश्वर है, तो उसे क्यों ऐसी बातों को बढ़ावा देना चाहिए? अभी कुछ दिन पहले ही हमने अपने पास ही एक व्यक्ति को अपनी जीभ काटकर किसी देवता को चढ़ाते हुए देखा है, और कहीं पर किसी देवता को खुश करने के लिए एक इंसान ने अपने चार बरस के बेटे की बलि दे दी। भला कौन सा ऐसा ईश्वर हो सकता है जो एक नन्हें बच्चे की बलि पाकर खुश हो, और अगर सचमुच ही ऐसा कोई ईश्वर है, तो वह पूजा-उपासना के लायक तो हो भी नहीं सकता। 

इस तरह के अंधविश्वासी आस्थावान लोगों को वह मिसाल दिखाने की जरूरत है जिसमें किसी एक व्यक्ति ने पहाड़ पर से आने-जाने का रास्ता बनाना तय किया, और कई बरस हर दिन खुदाई करके उसने अकेले सडक़ ही बना दी। कई ऐसे लोगों की असल जिंदगी की कहानियां सामने है जिन्होंने किसी बंजर पहाड़ पर पौधे लगाने शुरू किए, और आज 25-30 बरस बाद उस रूखे-सूखे पहाड़ की एक-एक इंच जमीन हरियाली से पट गई है। अकेले अपने दम पर अभियान छेडऩे वाले बहुत से लोग हैं, मुम्बई में एक विख्यात कार्टूनिस्ट आबिद सुरती हैं जो किसी प्लंबर को लेकर घर-घर जाकर दरवाजा खटखटाते हैं, और पूछते हैं कि उनके घर कोई नल तो नहीं टपकता? अपने पैसों पर अपनी मेहनत से कभी प्लंबर ले जाकर, तो कभी खुद औजार चलाकर वे पानी की बर्बादी वाली टोटियों को सुधारने का अभियान चला रहे हैं, और पूरी तरह अकेले चला रहे हैं। कुछ और लोग भी हैं जो जरूरतमंद मरीजों के लिए रक्तदाता जुटाने का काम करते हैं, और हमारे आसपास ही ऐसे कुछ लोग हुए हैं जिन्होंने पूरी जिंदगी अपना भी खून दिया, और दूसरे दानदाता भी जुटाए। 

हमारा ख्याल है कि मन्नत तो किसी भी तरह की मानी जाती है, और लोगों की यह निजी आजादी है। लेकिन अगर इस मन्नत का धरती पर कोई इस्तेमाल भी हो, तो भी वह काम की हो सकती है। डेढ़ बरस का वक्त सिर्फ तकलीफ पाकर एक सफर में गुजार देना, इससे न तो उज्जैन के महाकाल को कुछ हासिल होना है, न ही समाज को इससे कोई फायदा हुआ। इसके बजाय यह जोड़ा अगर 665 दिन अपने शहर के अस्पताल जाकर रोज 8-10 घंटे मरीजों की मदद करता, कहीं व्हीलचेयर धकेलता, कहीं मरीजों के स्ट्रेचर ले जाने में मदद करता, तो उससे समाज का भी भला होता। अलग-अलग बहुत से धर्मों के लोग महीने में या हफ्ते में एक दिन कई घंटे उपासना-आराधना में गुजारते हैं, अगर उन्हें अपने ईश्वर की बनाई हुई इस दुनिया में लोगों के दुख-तकलीफ को दूर करने की बात सूझती, तो उससे उनका ईश्वर भी, अगर कहीं होता तो, खुश हो सकता था। किसी दिन कुछ खाना नहीं, किसी दिन कुछ पीना नहीं, किसी दिन किसी रंग के कपड़े पहनना, किसी दिन उपासना स्थल जाना, इससे किसी को क्या हासिल होता है? यह अपने आपको बेवकूफ बनाने के तरीके रहते हैं। अगर सचमुच ही लोगों को लगता है कि दुनिया उनके ईश्वर की बनाई हुई है, तो उन्हें इस दुनिया के जरूरतमंद लोगों की सेवा करना चाहिए, धरती की बर्बादी रोकना चाहिए। मजे की बात यह है कि कोई भी धर्मगुरू लोगों को ऐसा रास्ता सुझाते नहीं दिखते। भला अपनी दुकान बंद करवाना कौन चाहेंगे? यह तो कुछ वैसा ही होगा कि फास्ट फूड बेचने वाले लोग यह पर्चा छपवाकर आने वालों को थमाते रहें कि फास्ट फूड से सेहत का कितना नुकसान होता है। अब अगर प्रवचनकर्ता या मुल्ला, पुजारी, और पादरी लोगों को ईश्वर की आराधना के लिए कचरा साफ करने, गरीबों की मदद करने, अस्पताल जाकर काम करने की नसीहत देंगे, तो खुद का धंधा बंद ही हो जाएगा। इसलिए धर्म प्रायश्चित, दान, और पाप-मुक्ति के बड़े कामयाब फॉर्मूले पर काम करता है जो कि हिट हिन्दी फिल्में बनाने के फॉर्मूलों सरीखा है। इसलिए ऐसे धर्म को 665 किलोमीटर की दंडवत तीर्थयात्रा को बढ़ावा देना ठीक लगता है, बजाय इतने दिनों के किसी सार्थक उपयोग के।   

 (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)   

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