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खत्म तो राजभवन हों, लेकिन तब तक राज्यपालों की एफआईआर से छूट हटे
21-Jul-2024 3:07 PM
खत्म तो राजभवन हों, लेकिन तब तक  राज्यपालों की एफआईआर से छूट हटे

हिन्दुस्तानी सुप्रीम कोर्ट अभी एक दिलचस्प मामले पर गौर कर रहा है कि भारत के राज्यपालों को आपराधिक मुकदमों से मिली सुरक्षा जायज है या नहीं। हम बरसों से इस बात को लिखते आ रहे हैं कि संविधान में राज्यपालों को दी गई हिफाजत की रियायत अलोकतांत्रिक है। अभी सुप्रीम कोर्ट में यह मामला पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सी.वी.आनंद बोस के खिलाफ राजभवन की एक महिला कर्मचारी द्वारा यौन शोषण की शिकायत को लेकर पहुंचा है। संविधान में धारा 361 में राज्यपाल को पद पर रहने तक किसी भी आपराधिक मामले से छूट मिली हुई है। इसलिए बंगाल पुलिस महिला की एफआईआर पर भी राज्यपाल पर कोई कार्रवाई नहीं कर पा रही है। लेकिन हम देश में कई दूसरे राज्यपालों की मिसालें भी देखें तो भी यह समझ पड़ता है कि आज के वक्त राज्यपालों का जो हाल रहता है उसमें ऐसी अंधी रियायत देना ठीक नहीं है। दूसरे भी कई राज्यपाल ऐसे हुए हैं जो कि बड़े-बड़े आपराधिक मामलों में फंसे रहे, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हो पाई। मध्यप्रदेश में 2015 में भयानक विशाल पैमाने के व्यापमं घोटाले में वहां के उस वक्त के राज्यपाल रामनरेश यादव के खिलाफ विशेष जांच दल ने सुबूत पाए थे। उनके बेटे शैलेष यादव को भी भर्ती घोटाले में शामिल पाया गया था। उनके ओएसडी धनराज यादव को गिरफ्तार भी किया गया था। अपने खिलाफ मामला देखकर राज्यपाल हाईकोर्ट गए थे कि संविधान के हिसाब से पद पर रहने तक उन पर कोई कार्रवाई नहीं हो सकती, और अदालत ने रामनरेश यादव की गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी, लेकिन जांच जारी रखने की छूट दी थी। जांच दल के मुखिया ने कहा था कि यादव के रिटायरमेंट के बाद उनके खिलाफ कार्रवाई होगी, लेकिन शायद वे ऐसी नौबत आने के पहले गुजर ही गए थे। यह मामला इतना भयानक था कि इसमें एमपी के बड़े भाजपा नेता और राज्य के मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा की भी गिरफ्तारी शिक्षक भर्ती घोटाले में हुई थी।

संविधान में राज्यपाल की चाहे जो भी भूमिका बनाई गई हो, उसे किसी तरह की अलोकतांत्रिक हिफाजत देना बहुत ही नाजायज है। इसका मतलब तो यह है कि जिन बातों को लेकर एक छोटे कर्मचारी को तुरंत जेल में डाला जा सकता है, उससे हजार गुना बड़ा जुर्म करके भी राज्यपाल या राष्ट्रपति जैसे लोग बच सकते हैं। यह परले दर्जे की शर्मिंदगी की बात है कि जांच में कुसूरवार दिखने पर भी राज्यपाल अपने संवैधानिक ओहदे को छोडक़र घर नहीं बैठते, बल्कि कुर्सी पर चिपके रहकर गिरफ्तारी से बचने के लिए एक पेशेवर मुजरिम की तरह अदालत दौड़ते हैं। कुछ लोगों को अपनी ऊंची और विशेषाधिकार से लैस कुर्सी की इज्जत का ख्याल भी नहीं रहता, बस उससे चिपके रहकर, तरह-तरह के जुर्म करके कमाने या मजा लेने की ही सूझती है।

मैं लंबे समय से राज्यपाल की व्यवस्था के ही खिलाफ लिखते आ रहा हूं। मेरा मानना है कि राजभवन की व्यवस्था पूरी तरह गैरजरूरी, अलोकतांत्रिक, राजनीतिक-साजिश की, और खर्चीली है। दुनिया के बहुत से लोकतंत्र बिना ऐसे राज्यपाल के चलते हैं, और उनका कोई भी काम नहीं रूकता। हिन्दुस्तान में तो राजभवनों को राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने, विधायकों की खरीद-फरोख्त की मंडी चलाने, भ्रष्टाचार करने, और निर्वाचित लोकतांत्रिक ताकतों को कमजोर करने के लिए नियमित रूप से इस्तेमाल किया जाता है। जाने कितने ही राज्यपालों को सुप्रीम कोर्ट समय-समय पर झिडक़ चुका है, और महाराष्ट्र सरीखे राज्य में तो एक वक्त राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष इन दोनों के बीच यह मुकाबला चल रहा था कि केन्द्र सरकार को अधिक खुश कौन कर सकता है। अब जब राज्यों में निर्वाचित विधायकों की चुनी गई सरकार बिल्कुल साफ-साफ चलनी चाहिए, तो उसमें केन्द्र सरकार की राजनीतिक एजेंट की तरह राज्यपाल साजिश में जुट जाएं, यह लोकतंत्र को कमजोर और खोखला करने के अलावा और कुछ नहीं है। फिर अलग-अलग समय पर अलग-अलग प्रदेशों के राज्यपाल भ्रष्टाचार में भी फंसे रहे, निर्वाचित सरकार के काम में अड़ंगे लगाते रहे, और कुछ राजभवन तो सेक्स के मजे का अड्डा भी बने रहे। लोगों को शायद होगा कि किस तरह एक बहुत बुजुर्ग हो चुके राज्यपाल के सेक्स-वीडियो हैदराबाद के राजभवन से निकलकर चारों तरफ फैले थे, और एक उच्च-सवर्ण बुजुर्ग की रवानगी का सामान बने थे। भारत में ऊंचे संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोगों के जुर्म करने पर धर्म या जाति की कोई व्यवस्था आड़े नहीं आती, बल्कि मुजरिमों का एक जातिविहीन, सर्वधर्म समाज अलग ही नजर आता है।

सुप्रीम कोर्ट शायद राज्यपाल की संवैधानिक व्यवस्था पर सुनवाई करने का हकदार नहीं है, लेकिन राज्यपाल को किसी भी जुर्म के मामले में मिले हुए संरक्षण के खिलाफ सुनवाई का हक तो उसे है ही। लोकतंत्र में ऐसी कोई भी रियायत किसी को नहीं मिलनी चाहिए। जिस वक्त ऐसी रियायत का इंतजाम संविधान में किया गया होगा, उस वक्त लोगों को पता नहीं होगा कि एक दिन ऐसा आएगा, जब राज्यपाल अपनी आल-औलाद सहित राज्य की नौकरियों को बेचने का धंधा करेंगे, कॉलेजों की सीट बेचेंगे, महिला कर्मचारियों को दबोचेंगे, और उनके सेक्स के वीडियो लोगों का वयस्क मनोरंजन करेंगे। अब जब लोकतंत्र की इतनी दुर्गति हो चुकी है, और राज्यपाल बहुत से राज्यों में केन्द्र से सुपारी लेकर लोकतांत्रिक-संवैधानिक व्यवस्था की हत्या के लिए भाड़े के हत्यारे की तरह काम करने लगे हैं, तो ऐसे मुजरिमों को पूरे कार्यकाल तक मुकदमे से रियायत क्यों दी जाए? ममता बैनर्जी चाहे राज्यपाल के खिलाफ ही क्यों न रहती आई हो, क्या उस वजह से राजभवन की महिला कर्मचारी को अपने देहशोषण के खिलाफ आवाज उठाने का हक गंवाना पड़ेगा? और जब यह बेशर्म राज्यपाल मीडिया के सौ चुनिंदा लोगों को इकट्ठा करके राजभवन के सीसीटीवी कैमरों की चुनिंदा रिकॉर्डिंग दिखाकर, उनमें उस महिला को दिखाकर अपने को बेकसूर साबित करने का काम कर सकता है, तो यही काम वह अदालत के कटघरे से करे। इस देश में ऊंचे ओहदे पर बैठे एक आदमी का ऐसा हक कैसे हो सकता है कि उसके जुल्म के खिलाफ एक आम नागरिक को इंसाफ पाने का हक न रह जाए? अगर किसी वक्त मासूमियत और नासमझी से ऐसी संवैधानिक व्यवस्था की भी गई थी, तो राज्यपालों के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए यह व्यवस्था खत्म करनी चाहिए। हो सकता है कि यह संवैधानिक-हिफाजत खत्म होने से बहुत से राज्यपालों का जुर्म करना कम हो जाएगा। आज तो यह हिफाजत राज्यपालों को मुजरिम बनने का एक असाधारण हौसला देती है, यह लोकतंत्र की किस भावना का सम्मान है? देश के राजभवनों में महिलाओं की हिफाजत के लिए भी यह जरूरी है कि राज्यपालों के खूनी पंजों को भी हथकड़ी के दायरे में लाया जाए।  

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