आजकल
थाईलैंड के एक विश्वविद्यालय में लैब्राडोर नस्ल के कुत्तों को ट्रेनिंग दी जा रही है कि वह लोगों को सूंघकर यह पता लगा लें कि वे कोरोना पॉजिटिव हैं या नहीं। अभी वैज्ञानिकों को प्रयोग के स्तर पर जो नतीजे मिले हैं उनके मुताबिक कोरोना की प्रारंभिक जांच, रैपिड टेस्ट से मिलने वाले नतीजों के मुकाबले कुत्तों के पहचाने गए नतीजे अधिक सही निकल रहे हैं। ऐसी उम्मीद की जा रही है कि अगर बड़ी संख्या में कुत्तों को प्रशिक्षित किया जा सका तो उन्हें भीड़ की जगहों पर, स्टेडियम, रेलवे स्टेशन या एयरपोर्ट पर तैनात करके कोरोना के मरीजों को पहचाना जा सकेगा। अभी थाईलैंड के अलावा फ्रांस, ब्रिटेन, चिली, ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम, और जर्मनी में भी कुत्तों को ऐसा प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
यह तो लोगों ने पहले से देखा हुआ है कि किसी जुर्म के होने पर मुजरिम की तलाश के लिए पुलिस अपने प्रशिक्षित कुत्ते को लेकर पहुंचती है, जो बहुत से मामलों में मौके को सूंघकर और जाकर मुजरिम को पकड़ भी लेते हैं. इसी तरह एयरपोर्ट और दूसरी जगहों पर प्रशिक्षित कुत्ते सूंघकर विस्फोटकों को पकड़ लेते हैं, और नशीले पदार्थों को पकड़ लेते हैं। हालत यह है कि किसी जुर्म की जगह पर अगर पुलिस पहुंचे तो लोगों को ठीक से भरोसा नहीं होता है कि जांच हो पाएगी या नहीं, लेकिन पुलिस का कुत्ता पहुंच जाए तो लोगों का भरोसा हो जाता है कि मुजरिम पकड़ में आ जाएंगे।
इन बातों से परे बहुत सी दूसरी जगहों पर कुत्तों का इस्तेमाल हो रहा है, वे किसी भूकंप में गिरी इमारतों, या किसी हवाई हमले में गिरी इमारतों के मलबे में से लोगों को तलाशने में भी बचाव कर्मियों की मदद करते हैं, जिंदा या मुर्दा लोगों का पता गंध से ही लगा लेते हैं, ताकि कम मेहनत में उन तक पहुंचा जा सके। बहुत से प्रशिक्षित कुत्ते ऐसे हैं जो नेत्रहीन लोगों के साथ चलते हैं और उनके गाइड का काम करते हैं। इसी तरह बीमार लोगों की पहियों वाली कुर्सी को खींचकर ले जाने का काम भी कुछ कुत्ते करते हैं और दुनिया का इतिहास ऐसी सच्ची कहानियों से भरा हुआ है जहां मालिक के गुजर जाने पर उनके पालतू कुत्ते वर्षों तक उनकी समाधि पर रोज आते रहे या वहां डेरा डालकर बैठे रहे।
दिक्कत यह है कि घर की चौकीदारी करने के मामले में सबसे वफादार प्राणी माना जाने वाला कुत्ता इंसान के लिए सबसे आसान और सहज गाली की तरह भी इस्तेमाल होता है। वैसे तो इंसान अपनी कहावतें और मुहावरों में अनंत काल से अपने से परे तमाम किस्म के प्राणियों को गालियों की तरह इस्तेमाल करते आए हैं, लेकिन कुत्तों के ऊपर इंसानों की कुछ खास मेहरबानी है। ऐसा शायद इसलिए भी है कि कुत्ता सबसे अधिक प्रचलित पालतू प्राणी है, और सबसे अधिक वफादार भी समझा जाता है। जो सबसे अधिक वफादार हो उसे सबसे जल्दी गाली बना लेना इंसान के हिसाब से देखें तो कोई अटपटी बात नहीं है, इंसान होते ही ऐसे हैं कि जो उनके सबसे अधिक काम आए उन्हें वह गालियों की तरह इस्तेमाल करें।
अब अगर हिंदी भाषा में कहावतें और मुहावरों को देखें तो कुत्ते को लेकर सबसे ही खराब गालियां बनाई जाती हैं। जब किसी को बद्दुआ देनी हो तो कहा जाता कि वे कुत्ते की मौत मरेंगे, और यह कहने के मतलब बूढ़ा होकर स्वाभाविक मौत नहीं होता, यह रैबीज के शिकार तड़पकर मारने वाले कुत्ते होते हैं। जब किसी इंसान के मां-बाप को गाली देनी हो तो हिंदी फिल्मों में आमतौर पर उन्हें कुत्ते के पिल्ले या कुतिया के पिल्ले कहा जाता है, और धर्मेंद्र तो कुछ अधिक हिंसक होकर यह भी बोलते आए हैं कि कुत्ते मैं तेरा खून पी जाऊंगा। एक और फिल्मी डायलॉग तो एक लतीफे में बदल चुका है, फिल्म शोले में धर्मेंद्र हेमा मालिनी से कहते हैं कि बसंती इन कुत्तों के सामने मत नाचना। इसे लेकर कई कार्टून बने हैं जिनमें कुत्तों की पूरी टोली जाकर किसी से पूछते हुए दिखती है कि हममें क्या कमी है जो बसंती को हमारे सामने नाचने से मना किया जा रहा है? अब बसंती जिन कुत्तों के सामने ना नाचे और जिन कुत्तों का वीरू खून पी जाए, उनसे अब इंसान यह उम्मीद करते हैं कि वे अपनी जान खतरे में डालकर इंसानों के लिए एक काम और करें, और कोरोना के मरीज पकड़ें।
अब तक कुत्ते जमीनी सुरंग ढूंढ लेते हैं, दूसरी जगहों पर विस्फोटक ढूंढते हैं, हत्यारे और डकैत ढूंढते हैं, नशे के सौदागरों को पकड़ते हैं, नशीले पदार्थों का जखीरा कहीं हो तो उसे पकड़ते हैं, और बदस्तूर गालियां खाते चलते हैं और नए-नए काम करना सीखते चलते हैं। यानी फौजी, पुलिस, बचाव कर्मी, होने के साथ-साथ अब कुत्ते पैथोलॉजिस्ट, डॉक्टर का काम भी करने लगे हैं, इसलिए इंसानों को एक बार सोचना चाहिए कि क्या कुत्ते को लेकर बनाई गई गालियों में से कुछ गालियों को कम करना जायज नहीं होगा?
इंसान कुत्तों के ऊपर ही इतनी सारी गालियां क्यों बनाते हैं, और कुत्तों को लेकर ही इतनी सारी कहावतें और मुहावरे क्यों गढ़े गए थे इस बारे में सोचें तो ऐसा लगता है कि कुत्ते अपनी वफादारी से और अपनी दूसरी खूबियों से इंसानों के मन में एक गहरी हीन भावना पैदा कर देते हैं, जो कि पहला मौका मिलते ही वफादारी को फेंककर करीबी लोगों की पीठ में छुरा भोंकने में लग जाते हैं। अब हाल के बरसों में हिंदुस्तान में एक पार्टी छोडक़र दूसरी पार्टी में जाने वाले लोगों को देखें, किसी पार्टी या विचारधारा के साथ उनकी बेवफाई देखें, उनकी गद्दारी देखें, तो यह जाहिर है कि किसी भी वफादार प्राणी को देखकर उनके मन में हीनभावना तो आएगी ही। कुछ ऐसा ही सिलसिला जिंदगी के अलग अलग दायरों में अनंत काल से चले आ रहा होगा जब इंसानों को अपनी बेईमानी, अपने धोखे के बाद जब कुत्ता दिखता होगा, तो लगता होगा कि उनसे तो कुत्ता बेहतर है जो आसपास के लोगों को धोखा नहीं देता। शायद उसी वक्त ऐसी कहावतें और ऐसे मुहावरे गढ़े गए होंगे।
हिंदी में कहावत और मुहावरों की सबसे प्रतिष्ठित किताब को देखें तो उसमें कुत्तों पर सैकड़ों लोकोक्तियां बनी हुई हैं, और हर एक के मतलब में यह लिखा हुआ है कि वह नीच व्यक्ति, बुरे व्यक्ति, दुष्ट और पापी के लिए बनाई गई हैं। अब इंसान अपने भीतर के सबसे बुरे लोगों के लिए कुत्तों पर ही दर्जनों कहावत बनाकर बैठा है, और अपनी हर मुसीबत, और अब तो सबसे खतरनाक जानलेवा बीमारी से बचने, के लिए भी वह कुत्तों को झोंक रहा है। सबसे वफादार को इस तरह खतरे में डालकर क्या इंसान को किताबों में दर्ज कुत्तों के खिलाफ किसी भी गाली को इस्तेमाल करने का नैतिक अधिकार बचता है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)