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सुप्रीम कोर्ट की यह सोच गलत है...
07-Nov-2021 3:30 PM
सुप्रीम कोर्ट की यह सोच गलत है...

हाल के महीनों में हिंदुस्तान में सुप्रीम कोर्ट ने बहुत से ऐसे फैसले दिए हैं जिनसे केंद्र और राज्य सरकारों को झटका लगा है, और जिनसे नागरिक स्वतंत्रता का हक दमदारी से फिर से कायम होते दिख रहा है। लेकिन कभी-कभी बहुत तकनीकी आधार पर दो बड़ी अदालतों के बीच में इस तरह का टकराव होता है कि उसमें नीचे की अदालत का रुख अधिक सकारात्मक दिखता है, और सुप्रीम कोर्ट उसे एक तकनीकी आधार पर पलट देता है। ऐसा ही एक मामला अभी कलकत्ता हाई कोर्ट के एक फैसले को लेकर आया जिसने राज्य में मनाए जाने वाले काली पूजा, दिवाली, छठ पूजा, गुरु नानक जयंती, क्रिसमस, और नए साल के त्योहारों पर पटाखों के इस्तेमाल पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को खारिज कर दिया और कहा कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही पटाखों के उपयोग को प्रतिबंधों के साथ छूट दे चुका है, और पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला 1 नवंबर को आया था और उसके तुरंत बाद आई दिवाली पर दिल्ली की हवा में इतना जहर घुल गया है कि आज दिवाली के तीसरे दिन भी दिल्ली में सांस लेना महफूज नहीं है।

देश की सबसे बड़ी पर्यावरण संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की एक रिपोर्ट कहती है कि ‘केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की ओर से पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) 2.5 और पीएम 10 के स्तर की 24 घंटे निगरानी करने वाले केंद्रीय नियंत्रण कक्ष (सीसीआर) ने 5 नवंबर, 2021 की रात 9.30 बजे के बाद अपडेट देना बंद कर दिया है। दीवाली की रात से 5 नवंबर के रात 9.30 बजे तक यानी कुल 32 घंटे तक पीएम 2.5 हवा में आपात स्तर (300 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) पर ही बना रहा।’ सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला है कि प्रदूषण का स्तर एक सीमा से अधिक बढऩे पर एक आपात योजना लागू की जाए जिसके तहत कई किस्मों के काम दिल्ली में बंद कर दिए जाएं। लेकिन एक तरफ दिल्ली के आसपास खेतों में फसलों के ठूंठ जलाए जा रहे हैं, और दूसरी तरफ पटाखे इतनी बड़ी संख्या में छोड़े गए कि दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को किसी ने भी नहीं माना।


कलकत्ता हाईकोर्ट का आदेश बिल्कुल इसी बात को सोचते हुए दिया गया था कि पटाखों और ग्रीन पटाखों में फर्क कर पाना प्रशासन के लिए संभव नहीं होगा, क्योंकि पटाखा बनाने वाले लोग उन पर ग्रीन पटाखे का लेबल लगाकर बेच रहे हैं, और सरकारी अधिकारी कर्मचारी इसकी कोई शिनाख्त नहीं कर सकते। हकीकत भी यही है कि सुप्रीम कोर्ट की नजरों के सामने, सुप्रीम कोर्ट के जजों के फेफड़ों को प्रभावित करते हुए दिल्ली के इलाके में दिवाली पर जितने पटाखे फोड़े गए, उन पर अदालत का, या सरकार का कोई भी जोर नहीं चला। बहुत सी बातें ऐसी रहती हैं जिनको एक फैसले में तो लिखा जा सकता है, लेकिन इन पर अमल का कोई जरिया नहीं रहता। करने के लिए तो सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में थाने के स्तर तक के पुलिस अफसर की शिनाख्त कर दी थी कि जिस इलाके में 2 घंटे के बाद पटाखे फोड़े जाएंगे या प्रतिबंधित पटाखे फोड़े जाएंगे उन इलाकों के थाना प्रभारी भी जिम्मेदार रहेंगे, लेकिन उस बात का क्या हुआ? न तो कहीं पर शासन-प्रशासन ने इस बात को दर्ज किया, न ही कोई केस दर्ज हुआ। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने एक तकनीकी आधार पर हाईकोर्ट के आदेश को खारिज तो कर दिया कि पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने देश में प्रदूषण की खतरनाक हालत को जरा भी ध्यान में नहीं रखा, जिसे सोचते हुए, यह जिसका हवाला देते हुए, उसने खुद पहले एक लंबा चौड़ा आदेश जारी किया था।

हम पिछले दस दिनों में दो बार इस मुद्दे पर इसी जगह पर लिख चुके हैं, और फिर लिखने की बात इसलिए महसूस कर रहे हैं कि दिवाली के बाद भी जिस तरह दिल्ली में प्रदूषण का स्तर एकदम जहरीला बना हुआ है, और उसमें पटाखों का जितना बड़ा योगदान रहा है उसे देखते हुए सुप्रीम कोर्ट को अगले साल के लिए अभी से आदेश जारी करना चाहिए ताकि पटाखा उद्योग और कारोबारी अगले साल फिर यह रोना न रोएं कि उनका धंधा प्रभावित होगा। अदालत को यह भी देखना चाहिए कि जिस पुलिस के भरोसे वह बहुत से आदेशों को जारी करने की सोचती है क्या उस पुलिस के पास सचमुच ऐसा कोई खली वक्त है कि वह आबादी के बड़े हिस्से से टकराव मोल ले, दिवाली मना रहे लोगों के खिलाफ जुर्म दर्ज करे, उसके सुबूत रिकॉर्ड करे, और उन्हें अदालतों में साबित करे? न पुलिस के पास इतना वक्त है, और न अदालतों के पास. इन दोनों के जिम्मे पहले से जितना बोझ पड़ा हुआ है वह उसी से नहीं निपट पा रहे हैं, पुलिस अधिकतर मामलों की समय पर जांच नहीं कर पाती, और अदालत से तो शायद ही किसी मामले का समय पर निपटारा हो सकता है। तो ऐसी हालत में ऐसे अमूर्त किस्म के (अनइन्फोरसिएबल), आदेश या फैसले सुप्रीम कोर्ट को या किसी दूसरी अदालत को नहीं देने चाहिए, जिन पर अमल नहीं हो सकता।

देश की हकीकत यह है कि केंद्र सरकार और उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार के देखते हुए भी लोगों की भीड़ ने जब बाबरी मस्जिद गिरा दी थी तब भी यही तर्क सामने आया था कि अगर इतनी भीड़ पर पुलिस कार्यवाही की गई होती तो सैकड़ों लोग मारे गए होते। इसलिए जो कुछ हो सकता था वह समय के पहले ही हो सकता था। पटाखों को लेकर जो प्रतिबंध लागू हो सकते हैं वे दिवाली के काफी पहले से ही लागू किए जा सकते हैं वह उनके बनाने और बिकने पर ही लागू किए जा सकते हैं एक बार लोगों के घर अगर पटाखे पहुंच गए तो उसके बाद कोई प्रतिबंध लागू नहीं हो सकते। हिंदुस्तान की कोई पुलिस अपने शहर की आबादी के एक बड़े हिस्से से टकराव नहीं ले सकती। एक-एक पुलिस सिपाही क्या पटाखे जला रहे सैकड़ों लोगों को किसी भी तरह से रोक सकते हैं ?

फिर सुप्रीम कोर्ट की इस सोच में भी हमको एक खामी दिखती है कि पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। आज जब ब्रिटेन में ग्लास्गो शहर में दुनिया भर से 20,000 से अधिक लोग इकट्ठे होकर पर्यावरण को बचाने की बात सोच रहे हैं, और लगातार यह फि़क्र की जा रही है कि धरती को कैसे बचाया जाए, कैसे प्रदूषण को कम किया जाए, कैसे मौसम की मार को बढऩे से रोका जाए, तो ऐसे में अगर हिंदुस्तान का सुप्रीम कोर्ट पटाखों पर रोक को लेकर एक दकियानूसी और परंपरागत सोच को आगे बढ़ाता है कि पटाखों पर पूरी रोक नहीं लगाई जा सकती, तो उसकी यह सोच गलत है। जिस सामान से केवल हवा प्रदूषित हो, हवा में असहनीय शोर गूंजे, उसमें जहर फैले, उसे जलाने या फोडऩे का हक किसी को कैसे दिया जा सकता है? जब हिंदुस्तान में पटाखों का इस्तेमाल शुरू हुआ था तब लोकतंत्र नहीं था, और उस वक्त कोई ऐसे कानून नहीं थे कि वे दूसरों को नुकसान पहुंचाने वाले सामानों पर रोक लगाएं। लेकिन वक्त के साथ-साथ ऐसे नुकसान को नापने के वैज्ञानिक पैमाने सामने आए. आज प्रदूषण को नापने के ठोस तरीके मौजूद हैं।

आज यह तक मौजूद है कि किस तरह प्रदूषण के चलते हुए अकेले दिल्ली शहर में पिछले 1 बरस में कितने हजार अतिरिक्त लोगों की मौत हुई है. तो ऐसे में पटाखों पर पूरी रोक क्यों न लगाई जाए? किसी के अपनी खुशी मनाने के ऐसे जहरीले तरीके को दूसरों की सेहत को बर्बाद करने की छूट क्यों दी जाए? और फिर पटाखे कौन सी धार्मिक परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं? धार्मिक परंपरा तो तालाबों और नदियों में मूर्तियों के विसर्जन करने की भी रही है, जिन पर हाल के वर्षों में अदालतों ने और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने तरह-तरह की रोक लगाई ही है। नदियों में जिस तरह से अंतिम संस्कार का काम होता था, उस पर कानून ने रोक लगाई ही है। इसलिए वक्त को देखते हुए, आज की हिंदुस्तानी आबादी की सेहत को देखते हुए, पटाखों पर पूरी की पूरी रोक लगानी चाहिए, और यह रोक अभी समय रहते लगा देनी चाहिए ताकि कुछ महीने बाद पटाखा निर्माता या कारोबारी आकर अदालत में खड़े ना हो जाए कि उनके बनाए हुए पटाखों का क्या होगा?

सुप्रीम कोर्ट को इस हकीकत को याद रखना होगा कि देश में पटाखों का सबसे बड़ा इस्तेमाल साल में एक-दो दिनों के कुछ घंटों में ही होता है और यही सबसे घने प्रदूषण की वजह है, लेकिन बाकी वक्त भी जब पटाखे फोड़े जाते हैं तो उस वक्त अंधाधुंध शोर होता है, छोटे बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक, और बीमारों से लेकर सोए हुए लोगों तक को भारी तकलीफ होती है, फायदा किसी का भी नहीं होता है। किसी को भी अपनी खुशी मनाने के लिए ऐसे हिंसक तरीकों को इस्तेमाल करने की छूट नहीं दी जानी चाहिए जो कि सौ-पचास बरस पहले की हल्की आबादी में तो चल जाते थे, लेकिन आज जब चारों तरफ इमारतें हैं, तब उनके बीच में ये पटाखे अधिक शोर करते हैं, अधिक नुकसान करते हैं।

कोलकाता हाई कोर्ट का फैसला एकदम ही सही था, वह शासन प्रशासन के ऊपर से एक अनावश्यक सार्वजनिक दबाव को भी घटाने वाला था, और अगर सुप्रीम कोर्ट अपने कमरे में बैठकर यह सोचता है कि उसके फैसले को लागू करवाने की पूरी ताकत शासन-प्रशासन में है तो बहुत से फैसलों पर यह बात लागू नहीं होती है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट को अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए। पर्यावरण के नुकसान रोकने के लिए जो संस्थाएं काम कर रही हैं, उन्हें अदालत तक जाकर फिर से पिटीशन लगाना चाहिए और अगले बरस के लिए, अगले बरस तक के लिए, और उसके बाद के लिए, एक ऐसा आदेश पाने की कोशिश करनी चाहिए जो देश में पटाखों को पूरी तरह से बंद करे।

अगर खुशी मनाने का यही एक तरीका रह गया है तो यह तरीका आज हिंसक साबित हो चुका है. जहां तक धार्मिक परंपराओं की बात है तो कई बरस पहले इस देश में सती प्रथा को भी धार्मिक माना जाता था, और बाल विवाह को भी धार्मिक माना जाता था, देवदासी भी धार्मिक थी, और तीन तलाक भी धार्मिक था। लेकिन वक्त के साथ-साथ इन सभी में बदलाव किया गया, नए कानून बने, कई अदालतों ने फैसले दिए, तो कहीं सरकार ने संसद से, और विधानसभाओं से कानून बनवाए, और धार्मिक व सार्वजनिक मनमानी को खत्म किया। इसलिए परंपरा का नाम लेकर हिंसा को जारी नहीं रखा जाना चाहिए, और कोलकाता हाई कोर्ट का एकदम सही फैसला पूरे देश में लागू होना चाहिए, और क्योंकि इस बारे में सुप्रीम कोर्ट फैसला दे चुका है, और वह खुद ही देख चुका है कि एक हफ्ते के भीतर ही किस तरह उसके फैसले को हर गली-मोहल्ले में फाडक़र फेंक दिया गया, इसलिए अब उसे एक ऐसा फैसला देना चाहिए जिस पर अमल हो सके। अभी से यह फैसला आने से देश का संगठित और असंगठित पटाखा उद्योग अपने आपको संभाल सकेगा और केंद्र और राज्य सरकारों को ऐसे काम में लगे हुए लोगों के लिए वैकल्पिक रोजगार तुरंत ही उपलब्ध कराना चाहिए जिसके लिए सरकारों के पास दर्जनों योजनाएं हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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