आजकल

इंसाफ के हिंदुस्तानी सिलसिले में तो बुनियाद में ही बेइंसाफी जमी है !
28-Nov-2021 3:44 PM
इंसाफ के हिंदुस्तानी सिलसिले में    तो बुनियाद में ही बेइंसाफी जमी है !

credit wall street journal

सुप्रीम कोर्ट के एक बड़े वकील और छत्तीसगढ़ से राज्यसभा में कांग्रेस की तरफ से भेजे गए एडवोकेट केटीएस तुलसी ने कल बिलासपुर में एक व्याख्यान में कई बड़े दिलचस्प तथ्य रखे। हिंदुस्तान में यह तो माना जाता है कि अदालतें बहुत धीमी रफ्तार से काम करती हैं, लोगों को फैसला पाने में पूरी जिंदगी लग जाती है, लेकिन ऐसा क्यों होता है इसकी एक बड़ी वजह एडवोकेट तुलसी ने कल अपने व्याख्यान में बताई। उन्होंने कहा कि कई देशों में जैसे ही थानों में किसी जुर्म की या हादसे की जानकारी के लिए फोन जाता है तो वॉइस रिकॉर्डिंग शुरू हो जाती है, और उसी को एफआईआर माना जाता है। भारत में भी एफआईआर का हिंदी प्रथम सूचना रिपोर्ट होना तो ऐसा ही चाहिए, लेकिन होता नहीं है कई बार तो एफआईआर लिखने के लिए महीनों तक लोगों को धक्के खाने पड़ते हैं, और पुलिस के बारे में कहा जाता है कि वह आमतौर पर एफआईआर लिखने के लिए उगाही भी कर लेती है।

एडवोकेट तुलसी ने बताया कि दुनिया के बेहतर इंतजाम वाले देशों में टेलीफोन पर मिली शिकायत या जानकारी को कई थानों के लोग सुनते हैं, तुरंत सक्रिय हो जाते हैं, पुलिस के साथ ही फॉरेंसिक मोबाइल टीम भी चली जाती है और आधे घंटे में ही फिंगरप्रिंट बगैर इक_े कर लिए जाते हैं। इन सबके चलते हुए सुबूत विश्वसनीय रहते हैं, मददगार रहते हैं, और अदालती सुनवाई और फैसलों में देर नहीं लगती। हिंदुस्तान के बारे में उन्होंने बताया कि यहां पर छोटे अपराधों में चालान पेश करने के लिए 60 दिन और बड़े मामलों में 90 दिन का समय मिलता है लेकिन अक्सर इतने वक्त में भी चालान पेश नहीं होते, नतीजा यह होता है कि भारत सजा दिलवाने का प्रतिशत सिर्फ 2.9 है जबकि कई देशों में यह 48 फीसदी या उससे अधिक है। उन्होंने कहा कि यहां एक-एक मजिस्ट्रेट या जज के पास हर दिन करीब 60 मामले आते हैं, और किसी के लिए यह मुमकिन नहीं होता कि 60 अलग-अलग मामलों की फाइलों को देखकर पढ़ सकें, इसलिए एक केस में सिर्फ दो-तीन मिनट का समय मिलता है। नतीजा यह है कि जेलों में भी भयानक भीड़ है, जहां 80 फीसदी विचाराधीन कैदी हैं, और सुनवाई में देरी के कारण उन्हें एक निश्चित समय सीमा में जमानत का फायदा भी नहीं मिलता।

अभी जब हिंदुस्तान की फिल्म इंडस्ट्री के सबसे बड़े नाम शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान को एक सही या गलत मामले में गिरफ्तार किया गया तो उसकी जमानत के लिए मानो धरती और आसमान को एक कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट के सबसे दिग्गज और शायद हिंदुस्तान के सबसे महंगे वकीलों में से एक को लाकर खड़ा कर दिया गया जिसने नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के केस की धज्जियां उड़ा दीं। केस को इतना कमजोर साबित कर दिया कि जज को कहना पड़ा कि आर्यन के खिलाफ किसी तरह का कोई सबूत नहीं दिख रहा है. और यह मामला उस अफसर के बनाए केस का है जो बड़ा नामी-गिरामी है, और जिसने हिंदुस्तान के ऐसे बहुत बड़े-बड़े फिल्म कलाकारों को नशे के मामलों में घेरा हुआ है। उसका बनाया हुआ केस इतना कमजोर साबित हुआ कि न सिर्फ हाई कोर्ट ने जमानत दी बल्कि नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो की कार्यवाही की धज्जियां भी उड़ा दीं। अब सवाल यह है कि यह केस सच्चा था या गढ़ा हुआ था, जो भी था, यह इतना कमजोर बना था कि यह जमानत के स्तर पर भी नहीं टिक पाया, जमानत की सुनवाई में ही इसकी बुनियादी कमजोरियां उजागर हो गईं। दूसरी तरफ पुलिस के आम मामलों में हाल यह रहता है कि पुलिस सच्चे गवाहों के साथ-साथ कुछ पेशेवर गवाहों को भी मामले में जोड़ देती है क्योंकि उसका यह मानना रहता है कि सच्चे गवाह अदालत में मुजरिम के वकील के सवालों के सामने टिक नहीं पाते, लडख़ड़ा जाते हैं, और वैसे में घिसे और मंजे हुए पेशेवर गवाह ही पुलिस के मामले को साबित कर पाते हैं। अब यह कैसी न्याय व्यवस्था है जिसकी शुरुआत ही झूठ से और फरेब से होती और जिससे इंसाफ की उम्मीद की जाती है?

दूसरी तरफ हिंदुस्तान की जेलों की हालत को देखें तो वहां बहुत अमानवीय हालत में लोग फंसे हुए हैं, उन्हें अदालतों में पेश करने के लिए पुलिस कम पड़ती है, और पुलिस बार-बार अदालत से अगली पेशी मांगती है कि पुलिस बल की कमी है। एक दूसरी बात जिसे समझने की जरूरत है, जेल और अदालत, इनका एक-दूसरे से इतने दूर रहना भी ठीक नहीं है। फिर जो पुलिस जुर्म की जांच करती है, उस पुलिस के जिम्मे सौ किस्म के दूसरे काम डालना भी ठीक नहीं है। इसके लिए विदेश को देखने की जरूरत नहीं है हिंदुस्तान में ही कुछ प्रदेशों में जुर्म की जांच का काम पुलिस के अलग लोगों के हवाले रहता है, और कानून-व्यवस्था को कायम रखने का काम दूसरे पुलिसवालों के हवाले रहता है। वरना होता यह है कि थाने के इलाके में कोई मंत्री, मुख्यमंत्री पहुंचने वाले हैं तो वहां की पुलिस पूरे-पूरे एक-दो दिन उसी इंतजाम में लग जाती है, और उसकी तमाम किस्म की जांच धरी रह जाती है। वैसे दिनों पर पुलिस अदालत में भी सुबूत या डायरी लेकर पेश नहीं हो पाती, सरकारी वकील के पास नहीं जा पाती। इन सबको देखते हुए पुलिस के दो हिस्से साफ-साफ बना देना जरूरी है, एक हिस्सा जिसे जुर्म की जांच करना है, उसे किसी भी किस्म के दूसरे काम से अलग रखना चाहिए। भारत में जहां-जहां ऐसा बंटवारा कर दिया गया है वहां पर जुर्म की बेहतर जांच होती है। वरना थानों की पुलिस के हवाले जब जांच रहती है तो जब वहां कोई धरना प्रदर्शन नहीं रहता, जब वहां कोई जुलूस नहीं निकलते रहता, जब वहां कोई धार्मिक त्यौहार नहीं मनाया जाता, जब वहां किसी मंत्री या नेता का दौरा नहीं रहता, तब पुलिस कभी-कभी जांच भी कर लेती है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए।

एडवोकेट तुलसी ने जो बात की है उसका एक और पहलू या तो उनके भाषण में नहीं आया है या भाषण की खबर में नहीं आया है। हिंदुस्तान में हाल के बरसों में बहुत सी जांच एजेंसियां लोगों को घेर कर रखती हैं, और उन पर ऐसे कड़े कानून लगाती हैं कि उनकी जमानत ना हो सके। इसके बाद उनकी जमानत को रोकने के लिए ही पूरा दमखम लगा देती हैं। भीमा कोरेगांव का केस हो या शाहीन बाग का केस हो, या दिल्ली के किसी दूसरे प्रदर्शन का केस हो, जहां कहीं भी लोगों को निशाने पर लेकर उन्हें प्रताडि़त करने की सरकार की नीयत रहती है, वहां जांच एजेंसियां उन्हें जमानत ना मिलने देकर तरह-तरह से प्रताडि़त करती हैं, और मामले की सुनवाई भी शुरू नहीं हो पाती और लोगों के कई बरस कैद में निकल जाते हैं।

छत्तीसगढ़ के जिस बिलासपुर हाईकोर्ट के वकीलों के बीच एडवोकेट तुलसी का यह व्याख्यान हुआ है वहीं पर वकालत करने वाली सुधा भारद्वाज को भीमा कोरेगांव केस में बंद हुए बरसों हो रहे हैं, और सरकारी एजेंसी उनकी जमानत नहीं होने दे रही। अब इतने बरसों की कैद के बाद अगर वे बेकसूर भी साबित हो जाती हैं, तो भी क्या होगा?सामाजिक कार्यकर्ताओं, छात्र नेताओं, पत्रकारों का एक अलग ऐसा तबका है जो कि सरकार से अपनी असहमति की वजह से उसके निशाने पर रहता है और सरकार की एजेंसियां जिनके खिलाफ ऐसे कड़े कानून के तहत केस दर्ज करती हैं कि उनकी जमानत ना हो सके।

अब हिंदुस्तान के भीतर राजद्रोह और देशद्रोह के मामले बड़ी आसानी से लोगों के खिलाफ दर्ज कर दिए जा रहे हैं, लेकिन बरसों के बाद जाकर अदालत को समझ आता है कि इस मामले में कोई सुबूत नहीं है, कोई दम नहीं है, और तब जाकर लोगों की जमानत हो पाती है। अभी जब यह लिखा ही जा रहा है उसी वक्त यह खबर आई है कि जेएनयू के एक पूर्व छात्र और शाहीन बाग में सीएए-एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले शरजील इमाम को इलाहाबाद हाईकोर्ट से कल जमानत मिली है। वे साल भर से गिरफ्तार करके जेल में रखे गए थे और उन पर यह आरोप था कि उन्होंने उत्तर पूर्वी राज्यों को भारत के बाकी हिस्सों से अलग होने के लिए उकसाया। इस मामले में शरजील के खिलाफ मणिपुर, असम, और अरुणाचल की पुलिस ने भी एफआईआर दर्ज की थी, और असम, और अरुणाचल के मामलों में उन्हें पहले ही जमानत मिल चुकी थी। फिलहाल यह छात्र नेता दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद है, और उस पर देशद्रोह के आरोप लगाए गए हैं।

अब एडवोकेट तुलसी ने जिन मामलों की भीड़ के बारे में कहा है उससे परे यह अलग किस्म का रुझान हाल के वर्षों में हिंदुस्तान में सामने आया है जब लोगों की जमानत रोककर लंबे समय तक कैद में रखा जाता है, और उसे कैद कहा भी नहीं जाता। यह सिलसिला भी खत्म होना चाहिए क्योंकि इससे भी जेलों में भीड़ बढ़ रही है, अदालतों में मामले बढ़ रहे हैं, पुलिस और जांच एजेंसियों पर बोझ बढ़ रहा है, और लोगों का जमानत पाने का जायज हक छीना जा रहा है। इस किस्म की बहुत सी बातों पर सुप्रीम कोर्ट को भी गौर करना चाहिए। क्योंकि ऐसा किसी एक मामले में ही हो रहा हो ऐसा नहीं है, यह देश भर में केंद्र और राज्य सरकारों की तरह-तरह की एजेंसियां सत्ता को नापसंद लोगों के खिलाफ बड़े पैमाने पर कर रही हैं, इस पर भी रोक लगनी चाहिए। देखते हैं कि एडवोकेट तुलसी की छेड़ी गई बात कहां तक आगे बढ़ती है।

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news