आजकल
इंसान की मुस्कुराहट के क्या मायने हो सकते हैं, इसका एक नया नजरिया दिल्ली के हाईकोर्ट के एक जज ने अभी एक बहुत ही संवेदनशील मामले की सुनवाई के दौरान सामने रखा है। दिल्ली दंगों से जुड़े हुए एक मामले की सुनवाई जस्टिस चंद्रधारी सिंह की अदालत में चल रही है, और इसमें सीपीएम सांसद रहीं बृंदा करात ने मोदी सरकार के एक मंत्री अनुराग ठाकुर के एक बयान पर यह मुकदमा किया है। अनुराग ठाकुर ने दिल्ली विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा प्रत्याशी के वोट मांगते हुए मंच से नारा लगाया था- देश के गद्दारों को..., और इसके बाद उन्होंने आम सभा की भीड़ को इसे पूरा करने का मौका दिया था जिसने आवाज लगाई थी-गोली मारो सालों को।
यह वीडियो चारों तरफ खूब फैला था, और इसे लेकर बीते दो बरसों में यह मामला अदालत में चल रहा है और उसकी सुनवाई के दौरान जस्टिस चंद्रधारी सिंह ने कहा कि अगर मुस्कुराते हुए कोई बात कही जाए तो उसके पीछे आपराधिक भावना नहीं रहती, लेकिन अगर कोई बात तल्ख लहजे में कही जाए तो उसके पीछे की मंशा आपराधिक हो सकती है। उन्होंने आगे यह भी कहा कि चुनाव के समय दी गई स्पीच को आम समय में कही बात से नहीं जोड़ा जा सकता। चुनाव के समय अगर कोई बात ही है तो वह माहौल बनाने के लिए होती है, लेकिन आम समय में यह चीच नहीं होती, उस दौरान माना जा सकता है कि आपत्तिजनक टिप्पणी माहौल को भडक़ाने के लिए कही गई थी।
जस्टिस चंद्रधारी सिंह ने एक मुस्कुराहट को जिस तरह की रियायत दी है वह हैरान करने वाली है, और भयानक है। लोगों को याद होगा कि हिन्दी फिल्मों के बहुत से खलनायकों के नामी किरदार हत्या से लेकर बलात्कार तक हँसते-हँसते करते आए हैं। दुनिया की सबसे हिंसक फिल्मों में भी कई ऐसी रही हैं जिनमें ऐतिहासिक हिंसक पात्र दिल हिला देने वाली हिंसा हँसते-मुस्कुराते करते दिखे हैं। एक अमरीकी फिल्म में एक मानवभक्षी आदमी पुलिस हिरासत में रहते हुए भी पुलिस की जरा सी चूक से एक पुलिस वाले पर कब्जा कर लेता है और उसे मारकर खा लेता है। वह भी फिल्म के कई हिस्सों में मुस्कुराते हुए दिखता है। इसलिए देश में घोर साम्प्रदायिक नफरत फैलाने वाली, हिंसा फैलाने वाली बातें अगर चुनावी भाषणों में की जाती हैं, और जिनके असर से इस देश में कमजोर मुस्लिमों के कत्ल का माहौल बनता है, उन्हें देश का गद्दार करार दिया जाता है, तो ऐसे फतवों को भी एक मुस्कुराहट की वजह से मंजूरी देने वाली जज की यह बात बहुत ही भयानक है, और उनकी कमजोर समझ, और बेइंसाफ सोच को उजागर करती है। इंटरनेट पर उनका परिचय बताता है कि वे छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के वक्त सरकार द्वारा मनोनीत अतिरिक्त महाधिवक्ता बनाए गए थे।
दो दिन पहले बृंदा करात के दायर किए गए मुकदमे में जस्टिस चंद्रधारी सिंह ने फैसला सुरक्षित रखा है और यह सवाल किया है कि इस भाषण में साम्प्रदायिक नीयत कहां है? जज के खड़े किए हुए कई और सवाल भी लोकतंत्र पर भरोसा करने वालों को विचलित करने वाले हैं क्योंकि वे देश की बुनियादी धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को खारिज करने वाली बातों को एक मुस्कुराहट का फायदा दे रहे हैं। अगर उनकी यह बात उनके लिखित फैसले में किसी तरह आती है, और अगर उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है, तो इंसाफ की हमारी सीमित बुनियादी समझ यह कहती है कि जस्टिस चंद्रधारी सिंह की इस व्याख्या पर सुप्रीम कोर्ट नहीं मुस्कुराएगा। पता नहीं जस्टिस सिंह ने फिल्म शोले देखी थी या नहीं जिसमें गब्बर अपने आधे जुर्म हँसते हुए करता है, अपने साथियों को गोली मारने सहित। अब अगर वह फिल्म न होती और मामला आज का होता तो गब्बर अपनी हँसी और मुस्कुराहट को लेकर आज संदेह का लाभ पाने का हकदार रहता।
जब देश की बड़ी अदालतों के जज कानून की ऐसी व्याख्या करने लगें, तो हिंदुस्तानी लोकतंत्र के लिए बहुत बड़ी फिक्र खड़ी हो जाती है। इस मामले में और कुछ न सही, जस्टिस चंद्रधारी सिंह को कम से कम यह तो देखना था कि इस चुनावी भाषण को लेकर जनवरी 2020 में चुनाव आयोग ने अनुराग ठाकुर को देश के गद्दारों को वाले नारे के लिए नोटिस जारी किया था और आयोग ने नोटिस में यह लिखा था कि पहली नजर में यह टिप्पणी साम्प्रदायिक सद्भाव को बिगाडऩे का खतरा रखने वाली दिखती है और भाजपा सांसद ने आदर्श चुनाव संहिता और चुनाव कानून का उल्लंघन किया है। जस्टिस चंद्रधारी सिंह को कम से कम यह तो सोचना था कि चुनाव प्रचार के दौरान का भडक़ाऊ भाषण न सिर्फ साम्प्रदायिक सद्भाव को बिगाडऩे का खतरा रखता है, बल्कि वह लोकतंत्र के फैसले को भी गलत तरीके से मोडऩे का खतरा रखता है।
हिंदुस्तान की न्यायपालिका का हाल के कुछ बरसों का रूख दिल बैठा देने वाला रहा है। बहुत से ऐसे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जज रहे हैं जिनके फैसले, आदेश, या जिनकी टिप्पणियां लोकतंत्र को कुचलने वालों को संदेह का लाभ देने वाली रही हैं, और लोकतंत्र का हौसला पस्त करने वाली रही हैं।
यह भी एक दिलचस्प बात है कि आज जब हिंदुस्तान में दिल्ली हाईकोर्ट के ये जज इस मामले में फैसला सुरक्षित रखकर बैठे हैं, उस वक्त अमरीका में सुप्रीम कोर्ट की जज बनाने के लिए राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत एक काली महिला की संसदीय समिति के सामने सुनवाई चल रही है। अमरीका में किसी के सुप्रीम कोर्ट जज बनने के पहले सभी पार्टियों के सदस्यों को मिलाकर बनाई गई कमेटी इस संभावित जज से कई-कई दिनों तक खुली सुनवाई में उसकी पूरी जिंदगी, सोच, विचार, उसके फैसले, सभी के बारे में सैकड़ों सवाल करती है और यह माना जाता है कि यह दुनिया की सबसे कड़ी पूछताछ में से एक रहती है। अमरीका में देश और समाज के जो जलते-सुलगते मुद्दे रहते हैं, उन पर भी ऐसे संभावित जजों की सोच पूछी जाती है, धर्म, राजनीति, समाज से लेकर गर्भपात पर तक उनके पिछले बयानों को लेकर उनसे खूब पूछताछ होती है।
हिंदुस्तान में जब-जब हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज अपनी ऐसी असाधारण सोच सामने रखते हैं, तो लगता है कि क्या इस देश में भी किसी को बड़ा जज बनाने के पहले उससे उसकी जिंदगी, उसकी सोच, उसके पिछले कामकाज के बारे में सार्वजनिक पूछताछ नहीं होनी चाहिए? आज अमरीका में इस काली महिला से चल रही पूछताछ का जीवंत प्रसारण चल रहा है, और हर अमरीकी को यह जानने का हक है कि उनके राष्ट्रपति ने देश की बड़ी अदालत में जज बनाने के लिए किस तरह के व्यक्ति को मनोनीत किया है, और ऐसी खुली सुनवाई में कौन से सांसद कौन से सवाल कर रहे हैं? लोकतंत्र इसी तरह की खुली पारदर्शिता का नाम है।
हिंदुस्तान में अब बड़े जज रिटायर होने के बाद कोई किसी राजभवन चले जाते हैं, तो कोई राज्यसभा। रिटायर होने के ठीक पहले के सूरजमुखी फैसलों के बाद इस तरह का वृद्धावस्था-पुनर्वास न्यायपालिका की साख को वैसे भी चौपट कर चुका है। आज हिंदुस्तान में भी जरूरत है कि किसी के हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट जज बनाने जाने के पहले उनकी ऐसी ही खुली सुनवाई हो, जैसी कि अमरीका में हर जज की होती ही है।
दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस चंद्रधारी सिंह की टिप्पणी पर देश के एक चर्चित मुस्लिम सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने तंज कसा है-तेरा मुस्कुराना गजब हो गया...।
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