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जुमलों का मोहताज मीडिया
24-Apr-2022 4:22 PM
जुमलों का मोहताज मीडिया

जब अमिताभ बच्चन की शुरुआती कुछ फिल्में आईं तो उनमें अमिताभ के किरदार देखकर मीडिया ने उन्हें एंग्री यंग मैन का लेबल लगा दिया, और फिर वह उनके साथ लंबे समय तक चलते रहा। किसी को स्वप्नसुंदरी कहा गया, किसी को चॉकलेटी हीरो, और किसी को कुछ और। मानो बिना लेबल लगाए काम नहीं चलता। ऐसा राजनीति में भी बहुत होता है, जैसे ही कोई मजबूत सत्ता पर काबिज हो जाते हैं, वे युवा हृदय सम्राट हो जाते हैं। ऐसे सम्राट शहर-शहर देखने-सुनने मिलते हैं, फिर इनमें से कोई हमलावर हिन्दुत्व का झंडा बरदार हो, तो उसे हिन्दू युवा हृदय सम्राट का खिताब मिल जाता है। और भी नेता तरह-तरह से ऐसे जुमले खुद उछालते हैं, या मीडिया उनके बारे में उनका इस्तेमाल करने लगता है। अभी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल खुद अपने बारे में स्टेज से एक जुमला कहने लगे हैं- कका अभी जिंदा हे...। अब इसे सुनकर राजधानी रायपुर में एक बड़ी सी कार ने अपने पिछले शीशे पर प्रेस के साथ-साथ कका अभी जिंदा हे भी लिखवा लिया है। अब प्रेस और मुख्यमंत्री के नारे का भला क्या जोड़ हो सकता है?

खैर, मीडिया का खुद का काम जुमलों का मोहताज हो गया है। हिन्दुस्तान के हिन्दी समाचार चैनल देखें तो ऐसा लगता है कि उत्तर कोरिया के तानाशाह से लेकर मंगल ग्रह के अंतरिक्ष निवासियों तक हर कोई मोदी से कांपते हैं, और पुतिन से लेकर बाइडन तक मोदी से फोन पर सलाह करके ही कोई फैसले लेते हैं। पाकिस्तान हर दो-चार दिन में मोदी के नाम से कांपने लगता है, और चीन के छक्के छूटते ही रहते हैं, फिर भले ही वह हिन्दुस्तानी जमीन पर काबिज भी हो, और इस बारे में मोदी ने आज तक उसका नाम भी न लिया हो। जब मीडिया के पास तथ्य नहीं रह जाते, तब विशेषणों से काम चलाना एक बड़ा आसान जरिया रहता है, और इसी के चलते हुए मीडिया तरह-तरह के जुमले गढ़ लेता है, और फिर बच्चों की ड्राइंग की किताब की तरह उन जुमलों में रंग भरते रहता है।

सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी की तो यह जिम्मेदारी रहती है कि सरकार किसी इलाके में किसी योजना की मंजूरी दे, तो उसे उस इलाके के लिए सौगात लिखा जाए ताकि सत्तारूढ़ नेता और पार्टी को वाहवाही मिले। लेकिन जब मीडिया इसी पर उतारू हो जाता है, और आम सरकारी योजनाओं की मंजूरी को किसी इलाके को मुख्यमंत्री की दी गई सौगात की तरह पेश किया जाता है, तो ऐसे मीडिया को पढऩे और देखने वाले लोग भी धीरे-धीरे ऐसी सामंती सोच का शिकार हो जाते हैं, और वे भी अपना हक मिलने के बजाय अपने को सौगात मिलने की जुबान में सोचने लगते हैं। धीरे-धीरे यह सौगाती सोच और आगे बढ़ते चलती है, और फिर सत्ता और जनता के बीच खैराती रिश्ता होने लगता है, मानो जनता के पैसों से उसे हक मिलना कोई खैरात है।

लेकिन मीडिया के जुमले गढऩे और उन्हें रात-दिन दुहराने का कोई अंत नहीं रहता। और कोई जुमले सामंती सोच बतलाते हैं, कोई बताते हैं कि मीडिया की सामाजिक समझ शून्य है, या उसके भी नीचे गिरकर नकारात्मक है। बलात्कार की खबर में पूरे ही वक्त छपते रहता है कि किसी लडक़ी की आबरू लूट ली गई, किसी महिला की इज्जत लुट गई। अब सवाल यह है कि बलात्कार जैसा जुर्म करने वाला इंसान अपनी इज्जत नहीं खोता, और उसके जुर्म की शिकार लडक़ी या महिला अपनी इज्जत खो बैठती है! यह सोच एक सामाजिक इंसाफ की समझ से पूरी तरह आजाद है, और जो धीरे-धीरे लोगों को यह बताने लगती है कि बलात्कार की शिकार महिला इज्जत खो चुकी है, और अब वह किसी इज्जत के लायक नहीं है, अब उसकी कोई इज्जत नहीं है। किसी बलात्कारी के बारे में लोग इस भाषा में बात नहीं करते कि इस जुर्म को करके वह अपनी इज्जत खो चुका है, अपने परिवार की इज्जत खो चुका है।

रोजाना ही कई खबरों में छपता है कि बेरहमी से हत्या कर दी गई। हत्या की खबर अपने आपमें सब कुछ बतला देती है। किसने, किसे, किस तरह, कहां पर, और क्यों मारा, आमतौर पर ये बातें हत्या के तुरंत बाद की खबर में, या मुजरिम की शिनाख्त होने पर आ जाती हैं। लेकिन इतने किस्म के विशेषण मीडिया ऐसी खबर में जोड़ देता है कि यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि अगर यह हत्या बेरहम थी, अमानवीय तरीके से थी, तो क्या रहमदिली और मानवीय तरीके से भी कोई हत्या हो सकती है?

भाषा से परे मीडिया की लोकतांत्रिक सोच भी कमजोर रहती है, और सत्ता के लगातार करीब रहते हुए मीडिया आदतन सत्ता के चारण और भाट की तरह काम करने लगती है। नेताओं और अफसरों की छोटी-छोटी सी फूहड़ बातों को महान जानकारी की तरह पेश करके मीडिया का कम से कम एक हिस्सा ताकतवर कुर्सियों पर बैठे ऐसे लोगों की बददिमागी बढ़ाते चलता है, और इसके लिए भी ऐसी भाषा का इस्तेमाल होता है जिससे लोगों की लोकतांत्रिक चेतना कमजोर होती चले। किसी बड़े नेता या बड़े अफसर ने खुद उठकर एक गिलास पानी ले लिया हो तो उसे विनम्रता की प्रतिमूर्ति करार देते हुए मीडिया उनके पैर आसमान पर ही रखता है। ऐसे में कोई हैरानी की बात नहीं रहती कि चापलूस मीडिया के चढ़ाए हुए ताकतवर ओहदों के लोग लगातार चने के झाड़ पर चढ़े रहते हैं, और वहां से उन्हें नीचे की धरती के लोग बड़े छोटे-छोटे दिखते हैं। नेताओं को खुद लगे या न लगे, चापलूस मीडिया उन्हें यह अहसास कराते रहता है कि वे कितने महत्वपूर्ण हैं, उनकी मामूली और गैरजरूरी जानकारी को मिनट-टू-मिनट कार्यक्रम की जुबान में पेश किया जाता है, मानो उनके कार्यक्रम न हों, बल्कि इसरो का रॉकेट छूटने वाला हो। उनकी सुरक्षा में थोड़ी सी कमी रहे तो चापलूस मीडिया बवाल खड़ा कर देता है कि वीआईपी सुरक्षा में बड़ी सेंध लगी, प्रोटोकॉल टूटा।

मीडिया में जिनके पास न जानकारी रहती, न तथ्य रहते, न किसी विश्लेषण की समझ रहती, उनके लिए यह बड़ा आसान रहता है कि वे जुमलों की आड़ में अपने अज्ञान को छुपा लें, और तरह-तरह की चापलूसी से सत्ता का घरोबा पा लें। इस चक्कर में जिला स्तर के पत्रकार किसी कलेक्टर के आने पर उसके इंटरव्यू को टूट पड़ते हैं, और उसके बाद सुर्खी लगती है- नये कलेक्टर ने अपनी प्राथमिकताएं गिनाईं।

क्या सचमुच ही कोई अफसर अपनी प्राथमिकताएं तय करने का हक रखते हैं? प्राथमिकताएं तय करना तो निर्वाचित सरकार का काम होता है, जो लोग चुनकर आते हैं, और बहुमत से सत्ता पर पहुंचते हैं, वे प्राथमिकताएं तय करते हैं। अफसरों का काम तो सिर्फ उन पर अमल करना और करवाना रहता है। लेकिन मीडिया चापलूसी की अपनी आदत के चलते हुए थानेदार तक की प्राथमिकताएं पूछने लगता है, और फिर उनके भी पांव जमीन पर पडऩा बंद हो जाता है।

सत्ता से परे भी मीडिया के जुमले खत्म नहीं होते हैं। दो बालिग युवक-युवती अगर शादी करने बाहर चले जाते हैं ताकि उनके परिवार अड़ंगा न डाल सकें, तो ऐसी खबरों में आमतौर पर लिखा जाता है कि लडक़ी घर छोडक़र भागी। घर छोडक़र जाने का फैसला दोनों अलग-अलग लेते हैं, और युवती भी अपना घर छोडक़र जाती है, लेकिन उसके जाने को भागना कहा जाता है, और युवक के जाने को जाना। मीडिया में काम करने वाले अधिकतर लोगों की औरत-मर्द की समानता की समझ कहावत और मुहावरे गढ़े जाने के युग की रहती है जिसमें औरत के लिए हजार किस्म की गालियां गढ़ी जाती हैं, दलितों को दुत्कार के लायक माना जाता है, दूसरे धर्मों के लोग म्लेच्छ गिने जाते हैं, और मनुवादी जाति व्यवस्था राज करती है। ऐसी सोच जब जुमलेबाजी के साथ मिलकर काम करती है, तो मीडिया की जुबान लोकतंत्र शुरू होने के भी पहले के दौर में चली जाती है। अपनी-अपनी जिंदगी में रोज अखबार पलटते, या पलटे न जा सकने वाले टीवी न्यूज बुलेटिन देखते हुए सोचें कि उनमें समाचारों के नाम पर कौन सा सामाजिक अन्याय परोसा जा रहा है।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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