आजकल
देश के विख्यात तिरूपति मंदिर को लेकर कई बार यह आलोचना सामने आती है कि मंदिर ट्रस्ट अलग-अलग दाम की टिकटें बेचकर भक्तों और दर्शनार्थियों को अलग-अलग तेजी से दर्शन करवाता है। इसके अलावा कई किस्म की पूजा के लिए और भी महंगी टिकटें रहती हैं, और फिर देश-प्रदेश की सरकार या देश के कारोबार के अडानी-अंबानी जब मंदिर पहुंचते हैं तो तमाम लोगों को रोककर मंदिर के ट्रस्टी इनकी खातिर करके इन्हें देव-दर्शन के लिए ले जाते हैं, इनके लिए अलग सब इंतजाम किया जाता है, और दिन-दिन भर से कतार में लगे हुए लोगों को और देर तक रूकना पड़ता है। इस मंदिर की टिकटों की व्यवस्था कुछ अधिक विवादास्पद है, वरना देश के हर तीर्थस्थान में नेताओं और अफसरों, बड़े कारोबारियों और नामी-गिरामी लोगों के लिए देश के एक सबसे बेशर्म शब्द, वीआईपी, नाम से दर्शन का अलग इंतजाम रहता है।
ऐसे में अभी तमिलनाडु के एक उपभोक्ता कोर्ट ने तिरूपति देव स्थानन ट्रस्ट को एक भक्त को भुगतान लेने के बाद 14 बरस इंतजार करवाने के बाद भी उसकी चाही गई वस्त्रलंकारा सेवा का मौका न देने पर 50 लाख का मुआवजा देने का हुक्म दिया है। इस मंदिर ट्रस्ट के खिलाफ उपभोक्ता कोर्ट में यह पहला ही मुकदमा था, और यह ट्रस्ट के खिलाफ गया। एक भक्त ने 2006 में मंदिर ट्रस्ट को 12,250 रूपये देकर 2020 में देवता की वस्त्रलंकारा सेवा की बुकिंग की थी। कोरोना लॉकडाउन की वजह से वह दिन आकर चले गया, और मंदिर भुगतान के एवज में भक्त को पूजा में रहने का मौका नहीं दिला पाया। अब कोर्ट ने उसके पक्ष में फैसला दिया है कि या तो मंदिर एक साल के भीतर उसे इस पूजा में शामिल करने का मौका दे, या फिर उसे 50 लाख मुआवजा दे। तिरूपति मंदिर ट्रस्ट को साल में तीन हजार करोड़ रूपये तक दान और टिकटों से मिलते हैं। इसमें से हजार करोड़ रूपये तो नगद चढ़ावे से आता है। मंदिर प्रसाद भी बेचता है, दर्शन भी बेचता है, और वहां जाने वाले लोग जानते होंगे कि और क्या-क्या चीजें बिकती हैं।
मंदिर में दर्शनों को बेचना किसी भी तरह से गलत नहीं है। जिसके पास अधिक पैसा है, उसे भगवान तक जाने का रास्ता जल्दी मिलना चाहिए, गरीबों को चाहिए कि जिस तरह सडक़ों पर से किसी तथाकथित वीआईपी के आने-जाने पर उन्हें किनारे होकर काफिले को रास्ता देना पड़ता है, ठीक वैसा ही रास्ता ट्रस्टियों के घेरे में पहुंचने वाले तथाकथित बड़े लोगों के लिए उसे देना ही चाहिए। कोई अगर यह सोचे कि भगवान के घर में गरीब और अमीर के बीच भेदभाव ठीक नहीं है, तो यह बुनियादी बात समझ लेना चाहिए कि धर्म तो बनाया ही इस हिसाब से गया है कि वह ताकतवर लोगों की सेवा करे, और गरीबों को मानसिक गुलामी में कैद रखकर उन्हें ताकतवरों की सेवा के लिए तैयार रखे। बात महज तिरूपति के मंदिर की नहीं है, धर्म का सारा मिजाज ही राजा या सेठ की गुलामी करने का है, और गरीबों को लाकर उनका गुलाम बनाने का है। धर्मों के बड़े-बड़े प्रवचन होते हैं, टीवी के आस्था वाले चैनलों पर बहुत से धर्मप्रचारक घंटे-घंटे भर बकवास करते हैं, और वे यही सिखाते हैं कि इस जन्म में मिल रही तकलीफें पिछले जन्म के उनके पाप का नतीजा है, और इस जन्म में बिना लालच किए, बिना स्वार्थ के, बिना किसी वासना के मालिक का भगवान मानकर सेवा करें, तो अगला जन्म सुख से भरा हुआ होगा। कुछ धर्मों में राजा को ईश्वर का दर्जा दिया गया है ताकि लोगों को राजा की तमाम ज्यादतियों को भी ईश्वर की दी हुई सजा मानकर बर्दाश्त करने की ताकत दी जा सके।
अगर अफीम के नशे की तरह धर्म का नशा लोगों को करवाया हुआ न रहे, तो राजा से लेकर मालिक तक की ज्यादतियों के खिलाफ बहुत से लोग खड़े हो सकते हैं, और संगठित हो सकते हैं। इसी खतरे को खत्म करने के लिए धर्म और ईश्वर की धारणा का आविष्कार किया गया, और जो कि दुनिया में सबसे कामयाब आविष्कार माने जाने वाले चक्के से भी अधिक कामयाब है, और इसमें दुनिया में शोषण का और अधिक बड़ा, और फौलादी चक्का चला रखा है जिसके नीचे हजारों बरस से सबसे गरीब, सबसे कमजोर, महिलाएं कुचले जा रहे हैं, और उन्हें दर्द का अहसास भी नहीं होता है क्योंकि उन्हें पाप और पुण्य की धारणा में जकडक़र रखा गया है, उन्हें बार-बार यह समझाया जाता है कि उन्होंने पिछले जन्म में पाप किए होंगे जिसका नतीजा उन्हें इस जन्म में मिल रहा है, और इसके लिए उन्हें न तो राजा को कोसना चाहिए, और न ही मालिक को। धर्म की यह धारणा दुनिया भर से लोगों को उनके धर्मस्थानों की तरफ ले जाती है, और दुनिया से सामाजिक इंसाफ को खत्म करने में तमाम धर्म अलग-अलग रंगों के लबादे पहनकर एक सा काम करते हैं।
अफ्रीका के जंगलों में बसे हुए लोगों की अपनी कबीलाई आस्थाएं थीं जो कि किसी भी आधुनिक और संगठित धर्म से बिल्कुल अलग थीं। लेकिन जब बाद में ईसाई वहां पहुंचे, तब का एक लतीफा बनाया गया है कि जब पादरी वहां पहुंचा, तो लोगों के पास जमीनें थीं, और पादरी के हाथ में बाइबिल थी। कुछ बरसों के बाद पादरी और चर्च के पास जमीनें थीं, और लोगों के हाथ बाइबिल थी। आज दुनिया भर में धार्मिक संस्थानों के पास जितनी रकम है, जितना खजाना है, उससे दुनिया की गरीबी दूर हो सकती है। लेकिन गरीबों को ही झांसा दे-देकर उनके गिने-चुने कौर में से आस्था नाम का जो जीएसटी वसूल कर लिया जाता है, उससे धर्मगुरू आलीशान महलों में रहते हैं, भक्तों से बलात्कार करते हैं, वोटरों को गुलाम बनाने का संगठित माफिया चलाते हैं, और लोकतंत्र के सभी हांकने वालों को हांकते हैं।
हालत यह है कि हिन्दुस्तान में आज भी हिन्दू धर्म के भीतर यह बहुत बड़ा मुद्दा बना हुआ है कि किस मंदिर में दलितों को दाखिला है, और किसमें नहीं। यह भी मुद्दा बना हुआ है कि दलितों और महिलाओं को कब पुजारी बनने मिलेगा, और कब उनमें से किसी को शंकराचार्य बनाया जा सकेगा। धर्म के खड़ाऊ तले कुचले जाने वाले दलितों और महिलाओं से धर्म का मोह नहीं छूट रहा है। यह धर्म नाम की साजिश की सबसे बड़ी कामयाबी है कि वह जिन लोगों को लात मार-मारकर कुचलता है, वे लोग उसके पांव पडऩे के लिए उतावले रहते हैं। हिन्दुस्तान में हिन्दुओं के बीच बहुत से सुधारवादी आंदोलन हुए हैं, लेकिन उन आंदोलनकारियों को धीरे-धीरे फिर धर्म और भगवान जैसा दर्जा दे दिया गया है। कबीर ने आज से सैकड़ों बरस पहले बिना किसी कानूनी हिफाजत के धर्म के आडंबरों के खिलाफ कड़ी मुहिम चलाई थी, वे दुनिया के धार्मिक इतिहास के सबसे बड़े सुधारवादी व्यक्ति थे, लेकिन आज उनकी नसीहतों को ताक पर धरकर, उन्हें ही भगवान बनाकर उन्हीं आडंबरों में उनकी उपासना को जकड़ दिया गया है, जिसके खिलाफ वे अपनी पूरी जिंदगी लड़ते रहे।
अभी तिरूपति के मामले में उपभोक्ता कोर्ट के फैसले से यह बात खुलकर साबित हुई है कि मंदिर और भक्त का रिश्ता यहां पर आकर दुकानदार और ग्राहक का रिश्ता हो गया है। अब लोगों को अपने-अपने धर्म के भीतर के इंतजाम को इस कसौटी पर कसना चाहिए कि उनका ईश्वर किस तबके पर मेहरबानी करता है, किसके साथ खड़े रहता है, किसे बेसहारा छोड़ देता है। जिन लोगों को पाप और पुण्य की धारणा में बांधकर स्वर्ग और नर्क पर भरोसा दिलाया जाता है, उनके बारे में किसी समझदार ने यह लिखा था कि मरकर स्वर्ग-नर्क जाकर कोई लौटे नहीं, और जीते-जी स्वर्ग-नर्क दिखता नहीं, तो फिर इसके बारे में जानकारी कहां से मिली है? इस झांसे को जो नहीं समझेंगे, वे अफीम चाटे हुए गुलामों से बेहतर नहीं रहेंगे, और अपने परिवार पर बलात्कार को ईश्वर की कृपा भी मानकर चलेंगे।
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