आजकल
करीब डेढ़ सौ बरस पुराने, दुनिया के सबसे मशहूर टेनिस टूर्नामेंट, विम्बलडन, का एक नियम अब जाकर बदला है जिसके बाद अगले बरस से महिला खिलाडिय़ों को अपनी टेनिस ड्रेस के भीतर रंगीन अंडरवियर पहनने की छूट मिलेगी। लंबे समय से महिला खिलाडिय़ों की यह मांग चली आ रही थी कि माहवारी के दौरान उनके दिमाग में लगातार यह तनाव रहता है कि खेलते हुए उनकी सफेद अंडरवियर पर खून के दाग न दिखने लगें। यह मामला उस ब्रिटेन का है जो कि पश्चिम में एक विकसित लोकतंत्र माना जाता है, और वहां पर पुरूषों के दबदबे वाले विम्बलडन में महिलाओं की इस बुनियादी जरूरत को समझने में, मानने में डेढ़ सौ बरस लगे हैं। यहां पर महिलाओं के मुकाबलों का इतिहास 1984 से चले आ रहा है, और यहां चैम्पियन बनने वाली महिलाएं किसी भी मायने में पुरूष खिलाडिय़ों से कम चर्चित नहीं रहती हैं, लेकिन महिलाओं की इस बुनियादी जरूरत को मानने का काम अब जाकर हो पाया है। जैसा कि टेनिस देखने वाले जानते हैं, महिलाओं का खेल का ड्रेस छोटा होता है, और उनकी अंडरवियर दिखती ही रहती है। ऐसे में इतनी भाग-दौड़ वाले खेल में महिलाओं को अगर अपनी बदन की जरूरत के लिए विम्बलडन संचालकों को बरसों तक समझाना पड़ा, तो यह महिलाओं के खिलाफ पुरूषप्रधान दबदबे का एक सुबूत छोड़ और कुछ नहीं है।
महिलाओं के खिलाफ पूर्वाग्रह पूरी ही दुनिया में अलग-अलग शक्लों में हमेशा ही रहा है। कहने के लिए अमरीका का लोकतंत्र हिन्दुस्तानी लोकतंत्र के मुकाबले डेढ़ सौ से अधिक बरस पुरानी है, लेकिन जब गुलाम हिन्दुस्तान के राज्यों में एक-एक प्रदेश में महिलाओं को वोट देने का हक मिल रहा था, तकरीबन उसी समय अमरीका में भी महिलाओं को वोट देने का संवैधानिक हक दिया गया। हिन्दुस्तान के पहले चुनाव से ही यहां के दलितों को वोट देने का बराबरी का हक था, लेकिन अमरीका में लोकतंत्र के बाद करीब एक सदी लग गई जब काले मर्दों को वोट देने का हक मिला, और इसके बाद काली महिलाओं को वोट देने के हक में और एक सदी लग गई। भेदभाव का यह सिलसिला संविधान और कानून में हिन्दुस्तान में तो पहले दिन से खत्म था, लेकिन अमरीका जैसे लोकतंत्र में बराबरी का यह बुनियादी हक देने में सदियां लग गईं। अमरीका में लोकतंत्र आने के करीब दो सदी बाद काली महिलाओं का वोट डालना शुरू हो पाया।
अभी जब हिन्दुस्तान में अनारक्षित तबके के गरीब लोगों को आरक्षण देने पर सुप्रीम कोर्ट का बहुमत से सहमति का फैसला आया, उस वक्त यह बात भी उठी कि आरक्षण के पैमाने पूरी तरह से इंसाफ नहीं कर पाते हैं। जहां पर दलितों या आदिवासियों को आरक्षण हैं, वहां पर उनके बीच की एक चौड़ी और गहरी खाई को आरक्षण के नियम अनदेखा करते हैं। आरक्षित तबके के भीतर शहरी और ग्रामीण के बीच बड़ा फासला है, लडक़े और लडक़ी के बीच बड़ा फासला है, संपन्न और विपन्न के बीच तो बड़ा फासला है ही, लेकिन दलित और आदिवासी आरक्षण में इनमें से किसी समस्या का कोई समाधान नहीं है। महज जन्म के आधार पर सबको एक बराबरी से आरक्षण का हकदार मान लिया गया है। एक लडक़ी या महिला को उसके लडक़ी या महिला होने से जो नुकसान झेलना पड़ता है, उसका कोई इलाज आरक्षण में नहीं हैं।
हमने बात विम्बलडन से शुरू जरूर की है, लेकिन वहीं पर खत्म नहीं हो रही है। भारतीय संसद में महिला आरक्षण विधेयक दशकों से पड़ा हुआ है लेकिन बड़ी राजनीतिक पार्टियां उसे पास करना नहीं चाहतीं। जबकि इस देश में 1993 से एक संविधान संशोधन करके पंचायत स्तर तक महिला आरक्षण किया गया जो कि कामयाबी से काम कर रहा है। उसी वक्त संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण की बात कही गई, लेकिन आज तक यह कानून नहीं बन पाया। संसद और विधानसभाओं में गांव-गांव तक में महिला नेतृत्व को संभव मान लिया, और पंचायतों के पंच पदों पर भी महिला आरक्षण कर दिया, लेकिन संसद और विधानसभाओं में एक तिहाई आरक्षण देने से भी पुरूषप्रधान व्यवस्था को तकलीफ हो रही है। विम्बलडन से हिन्दुस्तानी संसद तक, महिलाओं को उनके हक देने के मामलों में मर्दों की टालमटोल एक सरीखी है। आज हालत यह है कि न तो संसद और विधानसभाओं में एक तिहाई महिलाओं को आरक्षण है, बल्कि राजनीतिक दल एक तिहाई महिलाओं को टिकट भी नहीं देते। उत्तरप्रदेश के जिस पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इक्का-दुक्का सीट छोड़ जीत की और कोई उम्मीद नहीं थी, वहीं पर प्रियंका गांधी ने लडक़ी का नारा लगाकर 40 फीसदी उम्मीदवार महिलाओं को बनाया था। लेकिन उसके बाद पंजाब के चुनाव हुए, अभी हिमाचल के चुनाव हुए, गुजरात के हो रहे हैं, कहीं भी कांग्रेस पार्टी ने न तो 40 फीसदी महिलाओं को टिकट दी, न ही एक तिहाई सीटों पर महिलाओं को लड़वाया। अगर संसद में आरक्षण पास नहीं हो सका है, तब भी किसी पार्टी को तो कोई नहीं रोकते कि वे एक तिहाई महिला उम्मीदवार न बनाएं।
जिस ब्रिटेन को लोकतंत्र की जननी कहा जाता है, जो उन गिने-चुने देशों में से है जहां महिला प्रधानमंत्री रही हैं, वहां भी महिलाओं की चड्डी का रंग तय करने में पुरूषों को मजा आता है। पूरी दुनिया में महिलाओं की हक की लड़ाई तेज करने की जरूरत है, और हिन्दुस्तान में भी आए दिन यह जरूरत दिखती ही है। सोशल मीडिया की मेहरबानी से यह लड़ाई अब पहले के मुकाबले कुछ आसान हुई है, और लोगों को बराबरी के हक की बात उठाने का कोई मौका नहीं चूकना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)