आजकल
हर बरस दीवाली पर रौशनी के लिए लगने वाली चीनी झालरों, और होली पर प्लास्टिक की चीनी पिचकारियों का कारोबार करने वाले छोटे-छोटे लोग दहशत में रहते हैं कि त्यौहारी बाजार शुरू होने के ठीक पहले अगर भारत-चीन सरहद पर कोई बड़ा बखेड़ा हो गया तो उनका कारोबार धरे रह जाएगा। झंडे-डंडे लिए हुए राष्ट्रवादी लोग बाजारों पर टूट पड़ेंगे, और चीनी सामानों के बहिष्कार के फतवे हवा में तैरने लगेंगे। पिछले बरसों में ऐसा हुआ भी है, और छोटे-छोटे दुकानदार ऐसे सामानों के साथ फंस गए। अब नए आंकड़े बतलाते हैं कि चीन से आयात हाल के तीस महीनों में रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गया है। जब सरहद पर हिन्दुस्तानी-चीनी फौजों के बीच कड़ा संघर्ष हुआ था, और दोनों तरफ से दर्जनों लोग मारे गए थे, तब से अब तक केन्द्र सरकार की एक असाधारण चुप्पी इस मामले पर बनी हुई है, लेकिन चीन से भारत में आयात लगातार बढ़ते ही चल रहा है। इस मामले पर आज लिखने की जरूरत इसलिए है कि अरूणाचल प्रदेश में चीनी सरहद पर हुए ताजा संघर्ष के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने यह सवाल उठाया कि भारत-चीन के साथ व्यापार बंद क्यों नहीं करता? उन्होंने कहा कि चीन से आयात होने वाला ज्यादातर सामान भारत में बनता है, आयात बंद करने से चीन को सबक मिलेगा, और भारत में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे।
बहुत सी राष्ट्रवादी ताकतें समय-समय पर यह मांग करती रहती हैं, और उनका गुस्सा सडक़ किनारे चीनी किस्म के खानपान बेचने वाले ठेलों पर भी उतरता है। 2020 में गलवान घाटी के टकराव के बाद से चीन से आयात लगातार बढ़ते चल रहा है, और यह इस दौर में हुआ है जब भारत सरकार चीजों को भारत में बनाने का अभियान चला रही है।
लेकिन कारोबार को भावनाओं, और राष्ट्रवादी उन्माद से अलग करके देखने की जरूरत है। केजरीवाल की बात मानकर अगर चीन से आयात बंद कर दिया जाता है, तो सवाल यह उठता है कि हिन्दुस्तान में जो चीनी सामान कच्चेमाल की तरह बुलाया जाता है, और यहां उससे दूसरे सामान बनाकर घरेलू बाजार में, या विदेशों में बेचा जाता है, उसका क्या होगा? चीन से आयात तो कम हो सकता है, लेकिन फिर हिन्दुस्तान उस रेट पर कच्चामाल कहां से पाएगा? और अगर चीन के बहिष्कार के फेर में हिन्दुस्तानी सामानों का दाम बढ़ते चलेगा, तो उसका अंतरराष्ट्रीय बाजार कहां रहेगा? इस तरह के फतवे देना बड़ा आसान रहता है, लेकिन किसी भी देश की सरकार, और वहां का कारोबार इस बात को बेहतर समझते हैं कि आज की दुनिया में देशों की एक-दूसरे पर निर्भरता कितनी बनी हुई है। आज अगर जंग के मैदान में अमरीका और चीन आमने-सामने खड़े होते हैं, और एक-दूसरे से कारोबार बंद होता है, तो चीन से अधिक अमरीका तबाह होगा क्योंकि वहां चीजों का बनना ही थम जाएगा। आज चीन के मुकाबले अगर अमरीका ताइवान को बचाने में अपनी ताकत झोंकता है, तो उसकी वजह फौजी न होकर कारोबारी है क्योंकि ताइवान का दुनिया में चिप बनाने में एकाधिकार सा है, और अमरीका के पास उसका कोई विकल्प नहीं है। आज का अंतरराष्ट्रीय कारोबार ऐसी बहुत सी मजबूरियों से भरा हुआ है, और सिर्फ राष्ट्रवादी उन्माद से आर्थिक फैसले नहीं लिए जा सकते।
आम जुबान में कहें तो यह समझने की जरूरत है कि चीन से सौ रूपये का कच्चामाल मंगाकर उससे कुछ और बनाकर हिन्दुस्तान अगर दो सौ रूपये में उसे बाहर बेचता है तो यह सौ रूपये हिन्दुस्तानी कामगारों और कारोबारियों के बीच बंटता है, सरकार को टैक्स मिलता है। चीन से सौ रूपये का आयात बंद कर देना आसान है, लेकिन उसके बाद हिन्दुस्तानी अर्थव्यवस्था इसमें वेल्यूएडिशन का सौ रूपया पाना भी खो बैठेगी। इसलिए सरहद को लेकर राजधानियों में जंग के फतवे देने वाले लोग अलग होते हैं, और अर्थव्यवस्था को चलाने वाले लोग अलग होते हैं। यही आर्थिक मजबूरी रहती है जो चीन से लंबे समय बाद हुए सरहदी संघर्ष के बाद भी भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आज तक इस सिलसिले में चीन का नाम भी नहीं लिया, चीन को एक शब्द के रूप में भी इस्तेमाल नहीं किया। हालांकि चीन को आंखें दिखाने के बारे में बहुत कुछ कहा गया, लेकिन पर्दे के पीछे जो हुआ वह तो चीन से लगातार खरीददारी बढ़ते चलना ही हुआ है। हम पाकिस्तान से भी कारोबारी रिश्ते खत्म करने के हिमायती नहीं हैं, आज जो योरप यूक्रेन को रूस के खिलाफ लगातार फौजी मदद कर रहा है, वह आज भी रूस से खरीदी गई गैस और डीजल-पेट्रोल पर चल रहा है। हिन्दुस्तान में अगर एक ग्राहक के रूप में चीन से आयात किया है, तो वह फिक्र की बात है, लेकिन अगर उसने एक कारोबारी के रूप में कच्चामाल आयात किया है, तो वह एक अच्छी बात है। अपने देश में जब तक उस दर्जे का, उस रेट पर कच्चामाल न बनने लगे, तब तक चीन से परहेज के नाम पर देश के कारोबार को ही बंद कर देना चीन का बहिष्कार नहीं होगा, हिन्दुस्तान की आत्महत्या होगी।
लेकिन केन्द्र सरकार के अभी सामने आए आंकड़ों से युद्धोन्मादी और राष्ट्रवादी फतवेबाजों के मुंह कुछ बंद होने चाहिए। चीन सिर्फ सरहद पर खड़े हुए फौजी नहीं हैं, चीन वहां के कारोबारी शहरों में बसे हुए कारोबारी भी हैं जिनसे लेन-देन करना भारत की मजबूरी है। बहिष्कार से चीन की बोलती बंद कर देना, और उसे सबक सिखा देना बचकानी बात है। आज चीन पूरी दुनिया का सबसे बड़ा कारखाना है, सबसे बड़ा निर्यातक है, चीन के बिना आज पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था एक दिन में ठप्प पड़ सकती है, आज ब्रिटेन जैसे देश में सरकार इस फिक्र में डूबी है कि चीन से परे कौन से और रास्ते निकाले जा सकते हैं। ऐसे में हिन्दुस्तान को लोगों का ध्यान बंटाने के लिए चीन की जरूरत पड़ सकती है, लेकिन अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए उसे चीन की जरूरत और अधिक है। देश के किसी जानकार अर्थशास्त्री या किसी संस्था को यह अंदाज निकालकर लोगों के सामने रखना चाहिए कि चीनी कच्चेमाल का प्रतिस्पर्धी हिन्दुस्तानी विकल्प कितने बरसों में बन पाएगा, किस रेट का रहेगा, और उसके इस्तेमाल के बाद बने भारतीय सामानों का रेट कितना हो जाएगा, और क्या वे घरेलू बाजार या विदेशों में मुकाबला कर सकेंगे? लेकिन सरकारों की दिलचस्पी उन्मादी नारों के बीच ऐसी समझदारी की बातों में नहीं रहती है, और इस तरह की व्याख्या करने वाले किसी गैरसरकारी संगठन को भी लोग चीन का दलाल कहने लगेंगे। फिर भी हिन्दुस्तानियों की उत्तेजना शांत करने के लिए ऐसा हिसाब-किताब किसी को जरूर करना चाहिए कि भारतीय अर्थव्यवस्था का कितना हिस्सा चीन से आयात से जुड़ा हुआ है। अपना असली कद देखकर उन्मादी नारे शायद वैसे भी कम हो जाएंगे, अगर पिछले तीस महीनों के चीन से आयात के आंकड़ों से कम नहीं हुए हैं तो।