आजकल

रामचरितमानस बहस से परे कैसे हो सकती है?
15-Jan-2023 3:59 PM
रामचरितमानस बहस से  परे कैसे हो सकती है?

बिहार के शिक्षामंत्री प्रोफेसर चन्द्रशेखर ने मनुस्मृति के साथ-साथ रामचरित मानस को भी नफरत फैलाने वाली किताब करार दिया है, तो उससे उन पर भाजपा-आरएसएस के हमले तो होने ही थे, गठबंधन सरकार में भागीदार जेडीयू ने भी राजद कोटे से मंत्री बने प्रोफेसर चन्द्रशेखर पर सवाल उठाया है, और कहा है कि ये बयान भाजपा को फायदा पहुंचाने वाले हैं, राजद इस पर अपना रूख साफ करे। खबरें बताती हैं कि राजद ने अब तक इस पर कुछ नहीं कहा है। सोशल मीडिया पर प्रोफेसर चन्द्रशेखर का बयान एक बहस छेड़ चुका है कि गोस्वामी तुलसीदास की लिखी हुई रामचरित मानस क्या समाज के कुछ तबकों के खिलाफ सचमुच ही नफरत फैलाती है? और यह विवाद एकदम नया भी नहीं है, लोगों को याद होना चाहिए कि सरिता-मुक्ता जैसी पत्रिकाएं प्रकाशित करने वाले प्रकाशक ने ‘हिन्दू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास’ नाम की किताब बरसों पहले लिखी और छापी थी। इस किताब में तुलसीदास की लिखी हुई लाईनों को उठाकर यह साबित करने की कोशिश की गई थी कि विदेशी जूतियों के नीचे कुचले जा रहे हिन्दुओं को बहादुरी छोडक़र रामभरोसे पड़े रहने की नसीहत देने वाले तुलसीदास को कैसे जनकवि कहा जा सकता है? किताब के लेखक विश्वनाथ ने बड़े खुलासे से तुलसीदास की रामचरित मानस के हिस्से छांट-छांटकर यह बताया था कि वे किस तरह महिलाविरोधी थे, किस तरह दलितविरोधी थे। ऐसा याद पड़ता है कि इस किताब के खिलाफ एक मुकदमा भी हुआ था, और फैसला लेखक के हक में गया था। 

तुलसीदास न हिन्दू धर्म हैं, और न ही वे ईश्वर हैं। इसलिए उनकी कही बातों पर अगर बहस होती है, तो वह बहस मुद्दों पर होनी चाहिए, न कि भावनाओं पर। यह बयान देने वाले बिहार के शिक्षामंत्री ने कहा भी है कि उनके खिलाफ बयान दे रहे, धमकियां दे रहे लोगों को चाहिए कि वे आकर उनसे बहस करें। उनका तर्क है कि रामचरित मानस समाज के वंचितों को आगे बढऩे से रोकती है, और कमजोर तबकों के खिलाफ नफरत फैलाती है। उन्होंने कहा कि रामचरित मानस में लिखा गया है कि नीच जाति के लोगों को शिक्षा पाने का अधिकार नहीं है, और ये शिक्षा पाकर जहरीले हो जाते हैं, जैसे सांप को दूध पिलाने पर वह और जहरीला हो जाता है। चन्द्रशेखर ने यह भी कहा कि रामचरित मानस से पहले मनुस्मृति ने भी समाज में नफरत का ऐसा ही बीज बोया था, और उसमें समाज के एक बड़े तबके खिलाफ गालियां दी गई थीं जिसके बाद उसका विरोध कर उसकी प्रतियां जलाई गईं। उन्होंने कहा कि वर्तमान युग में आरएसएस नेता गुरू गोलवलकर की किताब, बंच ऑफ थॉट्स, ने लोगों को बांटने का काम किया, और उनकी विचारधारा नफरत फैला रही है। 

दूसरे धर्मों की तरह हिन्दू समाज में भी दिक्कत यह है कि धर्म के बारे में लिखी गई किसी कविता-कहानी को भी धर्म मान लिया जाता है। रामचरित मानस किसी धार्मिक गुरू की लिखी हुई धार्मिक प्रवचन की किताब नहीं है, वह रामकथा है जो कि एक महाकाव्य के आकार में लिखी गई है। यह बात सभी लोग जानते हैं कि तुलसीदास एक ब्राम्हण थे, और आज से सैकड़ों बरस पहले की उनकी सोच उस वक्त की प्रचलित सोच से प्रभावित होना जायज ही है। उन्होंने बहुत सी जगहों पर महिलाविरोधी, दलितविरोधी बातें लिखी हैं, जो कि उस समय की सामाजिक सोच के मुताबिक ही थीं। तुलसीदास को किसी ने कबीर जैसा क्रांतिकारी और समाज सुधारक कवि नहीं माना। वे पूरी तरह से राम की भक्ति में रमे हुए रामकथा लेखक थे, और उनकी सरल भाषा और उनके लेखन की वजह से रामचरित मानस हिन्दुस्तान का सबसे लोकप्रिय ग्रंथ भी बना हुआ है। लेकिन जैसा कि किसी भी चर्चित, कामयाब, महान रचना के साथ होना चाहिए, रामचरित मानस को भी आलोचकों के लिए खुला रखना ही चाहिए। हिन्दुस्तान में अगर किसी एक किताब पर सबसे अधिक पीएचडी हुई हैं, तो वह रामचरित मानस है। और ऐसी चर्चित किताब के महिलाविरोधी, दलितविरोधी पहलू पर चर्चा न की जाए, यह तो खुद लेखक के साथ ज्यादती होगी। जब इस देश में गांधी और नेहरू के जिंदगी के निजी और अप्रासंगिक प्रसंगों की चर्चा करके आज के बहुत से बड़े नेता बड़े बने हुए हैं, तो तुलसीदास की ऐसी विख्यात रचना के कुख्यात हिस्सों को बहस से परे कैसे माना जा सकता है? 

किसी राजनीतिक दल के लिए यह बात असुविधा की हो सकती है कि  उसके नेता किसी धर्म से जुड़े हुए एक ग्रंथ की आलोचना करें, लेकिन आज की सभ्य दुनिया में तो किसी धर्म को भी आलोचना से परे नहीं रखा जा सकता है, किसी धर्मकथा को तो चर्चा से परे रखना नामुमकिन है। तुलसीदास तो रामकथा लिखने वाले बहुत से लेखकों और कवियों में से एक थे, हमारे सरीखे अखबारनवीस भी भगवान कहे जाने वाले राम की चरित्र की कई बातों को लेकर उनकी आलोचना करते हैं, और खासकर पत्नी को घर से निकाल देने जैसे प्रसंगों की। यह भी समझने की जरूरत है कि जिस 16वीं सदी में तुलसीदास ने रामचरित मानस लिखी थी, वह दौर किसी दलित अधिकार का दौर नहीं था, किसी महिला अधिकार का दौर नहीं था, और विदेशी मुस्लिम शासकों के राज में हिन्दू समाज का सवर्ण तबका अपना धर्म बचाने में लगा हुआ था, और यही वह दौर था जब हिन्दू समाज के सबसे अधिक कुचले हुए लोग इस धर्म को छोड़ रहे थे। इस दौर में तुलसीदास ने अगर शूद्रों के खिलाफ लिखा था, तो यह उनकी वर्ण और वर्ग संस्कृति का एक नमूना ही था। अगर उनकी बातों में महिलाविरोध कई जगह झलकता है, तो यह उनके आराध्य राम की कई मिसालों से ही सीखा गया विरोध दिखता है। 

और चन्द्रशेखर ने इसके पहले की मनुस्मृति को गिनाया है, और इसके बाद की गोलवलकर की किताब को भी जो कि बाद में विचार नवनीत नाम से हिन्दी में भी छपी थी। विचार नवनीत को लेकर भी यह आपत्ति तो दर्ज की ही जाती रही है कि गोलवलकर ने महिलाओं और दलितों के खिलाफ बहुत जहरीली बातें लिखी थीं। आज अगर बिहार में एक समाजवादी सरकार का एक मंत्री भी अगर इन बातों को उठाने से सहमेगा, तो फिर इन बातों को आखिर उठाएंगे कौन? इन तीनों किताबों में समाज के वंचित तबकों के खिलाफ जितना कुछ लिखा गया है, वह बहुत अधिक खुलासे से इस एक कॉलम में गिनाना मुमकिन नहीं है, लेकिन इन पर अनगिनत लेख लिखे गए हैं। गोलवलकर की किताब जितनी आक्रामक सोच सामने रखती है, उतनी आक्रामक सोच तो आज की भाजपा भी लेकर नहीं चल सकती। हमारा खयाल है कि राजनीतिक असुविधा के बावजूद यह बहस काम की है क्योंकि इससे लोगों को अपनी जड़ों की खामियों को देखने का मौका मिलता है, और जब तक उसे देखकर समझा नहीं जाएगा, तब तक किसी सुधार की गुंजाइश नहीं रहेगी। फिलहाल तो यह सोचना चाहिए कि जो राजनीतिक दल अंबेडकर का नाम लेते नहीं थकते हैं, वे इस बात को कैसे अनदेखा कर सकते हैं कि इन तमाम किताबों की अंबेडकर ने भी जमकर आलोचना की थी। 

 (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news