आजकल

photo courtesy MINT
अमरीका के एक थिंक टैंक प्यूव रिसर्च सेंटर की एक शोध रिपोर्ट यह कहती है कि 2020 में दुनिया के अलग-अलग देशों में धर्म आधारित सामाजिक तनाव के मामले में हिन्दुस्तान पहले नंबर पर था। कुछ महीने पहले की इस रिपोर्ट में कोरोना संक्रमण से गुजरते हुए 2020 के दौर के माहौल को देखा गया था। इस रिपोर्ट में सर्वाधिक धार्मिक-सामाजिक तनाव के पैमाने पर 10 नंबर में से हिन्दुस्तान को 9.4 नंबर मिले थे, अफ्रीकी देश नाइजीरिया को 8.5, अफगानिस्तान को 8, इजराइल 8, माली 7.9, सोमालिया 7.6, पाकिस्तान 7.5, इजिप्ट 7.4, लीबिया 7.4, और सीरिया 7.4। दुनिया के ये दस देश सबसे अधिक धर्म-आधारित सामाजिक तनाव वाले पाए गए थे, जिनमें हिन्दुस्तान किसी भी और देश से बहुत ऊपर था। अब आज इस पर चर्चा की एक जरूरत इसलिए भी है कि अभी दो दिन पहले ही बिहार में एक मुस्लिम आदमी को पीट-पीटकर मार डाला गया क्योंकि किसी ने उस पर बीफ रखने का आरोप लगाया था। मारने वालों में गांव के सरपंच की अगुवाई में दूसरे हिन्दू लोगों की भीड़ थी, और मांस ले जा रहे मुस्लिम पर बीफ ले जाने का आरोप लगाते हुए उसे मार डाला गया।
प्यूव रिसर्च सेंटर की इस रिपोर्ट में 198 देशों का अध्ययन किया गया था, इनमें से धार्मिक आधार पर सबसे अधिक तनाव वाले 10 देशों में भारत सबसे ऊपर था। अब अभी दो दिन पहले भारत आए हुए ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री से बातचीत में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ऑस्ट्रेलिया में हिन्दू मंदिरों पर हमलों की चर्चा करते हुए फिक्र जाहिर की। अब दो देशों के बीच प्रधानमंत्रियों की बातचीत में तोहमतें तो नहीं लगाई जा सकती लेकिन ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री के मन में यह बात जरूर आई होगी कि आज भारत में धार्मिक आधार पर तनाव और बगावती तेवरों का हाल पड़ोस के पाकिस्तान और अफगानिस्तान से भी अधिक खराब क्यों हैं? इस पर चर्चा की जरूरत आज इसलिए है कि देश में मुस्लिमों के खिलाफ हिंसक बातें बंद होने का नाम नहीं ले रही हैं, और तथाकथित हिन्दुत्ववादियों का एक मुखर तबका किसी को मुस्लिम हो जाने भर से मुजरिम करार देने पर आमादा रहता है।
सुप्रीम कोर्ट ने अभी इस बात पर फिक्र जाहिर की है कि किस तरह हिन्दुस्तानी मीडिया ने सनसनी फैलाने का काम किया है, और अपनी जिम्मेदारी खो दी है। यह मीडिया बार-बार किसी जुर्म में मुजरिम के शामिल होने पर उसका नाम सुर्खियों में बड़ा-बड़ा छापता है, और अगर वह हिन्दू है तो हैडिंग में न उसका नाम रहता, न उसका धर्म रहता। यह लगातार चल रहा सिलसिला है, और देश की एक सबसे बड़ी समाचार एजेंसी की ऐसी कई खबरों की तस्वीरें लगाकर लोगों ने यह साबित किया है कि मुस्लिम-मुजरिम का नाम किस तरह से बढ़ा-चढ़ाकर उसके धर्म को दिखाने के लिए खबरों में इस्तेमाल किया जाता है।
आज देश में हिन्दुओं की आबादी बहुसंख्यक है, और बहुत से लोग लगातार यह सार्वजनिक मांग करते हैं कि इसे हिन्दूराष्ट्र घोषित किया जाए। आरएसएस जैसे संगठन शब्दों को घुमा-फिराकर बार-बार यह कहते हैं कि भारत हमेशा से एक हिन्दू राष्ट्र रहा है, यह आज भी हिन्दू राष्ट्र है, और सिक्ख, बौद्ध, जैन ये सब हिन्दू धर्म की शाखाएं हैं। फिर बार-बार आज के मुस्लिमों को सैकड़ों बरस पहले के हमलावर मुगलों की औलाद साबित करने का कोई मौका नहीं छोड़ा जाता, और भाजपा के एक चर्चित नेता और सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी उपाध्याय की एक याचिका को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अभी बड़े कड़े तेवरों के साथ उन्हें यह समझाया था कि इतिहास को लेकर वर्तमान को तबाह नहीं किया जा सकता।
ऐसे माहौल में अगर कोई तटस्थ और ईमानदार शोध संस्थान सामाजिक अध्ययन करे, तो उसे सतह पर तैरती हुई नफरत तो दिखेगी ही, लोगों की हड्डियों के भीतर तक पहुंच चुकी नफरत भी दिखेगी। इसलिए सिर्फ अमरीकी होने के नाते इस रिसर्च के नतीजे को खारिज कर देना ठीक नहीं है, हिन्दुस्तान में जो लोग हिंसक धार्मिक नफरत के खतरे समझते हैं, कम से कम उन्हें इस पर चर्चा करनी चाहिए।
लोगों को यह याद रखना चाहिए कि किसी धर्म या समुदाय के लोगों को इस कदर घेरकर अगर उनकी भीड़त्या की जाएगी, तो उस समुदाय के बाकी लोग भी इस खतरे से घिरे हुए जाने कब तक अहिंसक रह पाएंगे। और बहुसंख्यक आबादी को भी इस खतरे को समझना चाहिए कि धार्मिक या राजनीतिक आधार पर असहमत कोई छोटा तबका भी, उस तबके के गिने-चुने दो-चार लोग भी देश के भीतर या बाहर की किसी मदद से एक बड़ी तबाही ला सकते हैं। लोगों को याद रखना चाहिए कि अभी कुछ हफ्ते पहले पाकिस्तान में पुलिस के महफूज इलाके की एक मस्जिद में एक आतंकी ने आत्मघाती धमाका करके किस तरह एक साथ 60 या अधिक लोगों को मार डाला था। ऐसे कई आत्मघाती हमले पहले भी पाकिस्तान में हुए हैं, अफगानिस्तान में हो ही रहे हैं, और हिन्दुस्तान में भी श्रीलंका के आतंकी संगठन लिट्टे के लोगों ने दक्षिण भारत में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या उसी तरह धमाके से की थी जिसमें और भी बहुत से लोग मारे गए थे। इसलिए बहुसंख्यक हो जाना किसी तरह की हिफाजत की गारंटी नहीं होती, और अल्पसंख्यक हो जाना किसी कमजोरी का सुबूत नहीं होता।
अगर अल्पसंख्यक तबका अपने आपको लगातार खतरे में पाएगा, उसके लोगों को यह लगेगा कि वे हिन्दुस्तान में दूसरे दर्जे के नागरिक माने जा रहे हैं, तो उसके कुछ लोग राह से भटककर घरेलू या बाहरी आतंकियों के झांसे में आ सकते हैं, और उनके हाथ के औजार बन सकते हैं। जब कभी किसी देश में कोई तबका आत्मघाती आतंकी हमलों पर उतारू हो जाता है, तो फिर नुकसान करने की उसकी क्षमता अपार रहती है। हिन्दुस्तान में ऐसे एक दर्जन आत्मघाती जत्थे भी पूरे देश के अमन-चैन को खत्म कर सकते हैं। देश को हिंसा से बचाने की सबसे बड़ी गारंटी देश के लोगों के साथ बराबरी का सुलूक ही हो सकता है। देश के भीतर के लोग किसी भी जायज या नाजायज वजह से जब हिंसा पर उतारू हो जाते हैं, तो उसका नतीजा हम हिन्दुस्तान में भी देख चुके हैं, और पड़ोस के देशों में तो हर कुछ हफ्तों में देखते ही हैं।
इसलिए जो लोग आज सोशल मीडिया पर मुस्लिम होने को गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि हिन्दुस्तान की कोई सी भी सरकार, कितने भी बड़े संसदीय बाहुबल से देश के 20 करोड़ मुसलमानों की हकीकत को मिटा नहीं सकती। इसलिए किसी एक धर्म के लोगों को कुचलकर रखने से नुकसान पूरे देश को होगा, और जब खतरा होगा, तो वह खतरा आबादी के अनुपात में बहुसंख्यक तबके को अधिक होगा। आज अगर दुनिया की कोई संस्था भारत की साम्प्रदायिक हकीकत को आईना दिखा रही है, तो उसे कोसने से कुछ हासिल नहीं होना है। देश के भीतर यह नफरत एक हकीकत है, और इसे फैलाने वाली ताकतें पूरी तरह से उजागर भी हैं। देश में बहुत कड़ा कानून भी मौजूद है, लेकिन अगर केन्द्र और अधिकतर राज्यों की सरकारें कोई कार्रवाई नहीं कर रही हैं, तो वे मुस्लिमों को नहीं कुचल रही हैं, वे हिन्दुओं के लिए, बहुसंख्यक तबके के लिए खतरा बढ़ा रही हैं। लोगों को हसरत से अधिक हकीकत पर भरोसा करना चाहिए। बीस करोड़ जख्मी दिल-दिमाग के बीच बाकी सौ करोड़ से अधिक लोग भी सुख से नहीं जी सकेंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)