आजकल
हिन्दुस्तानी सुप्रीम कोर्ट अभी एक दिलचस्प मामले पर गौर कर रहा है कि भारत के राज्यपालों को आपराधिक मुकदमों से मिली सुरक्षा जायज है या नहीं। हम बरसों से इस बात को लिखते आ रहे हैं कि संविधान में राज्यपालों को दी गई हिफाजत की रियायत अलोकतांत्रिक है। अभी सुप्रीम कोर्ट में यह मामला पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सी.वी.आनंद बोस के खिलाफ राजभवन की एक महिला कर्मचारी द्वारा यौन शोषण की शिकायत को लेकर पहुंचा है। संविधान में धारा 361 में राज्यपाल को पद पर रहने तक किसी भी आपराधिक मामले से छूट मिली हुई है। इसलिए बंगाल पुलिस महिला की एफआईआर पर भी राज्यपाल पर कोई कार्रवाई नहीं कर पा रही है। लेकिन हम देश में कई दूसरे राज्यपालों की मिसालें भी देखें तो भी यह समझ पड़ता है कि आज के वक्त राज्यपालों का जो हाल रहता है उसमें ऐसी अंधी रियायत देना ठीक नहीं है। दूसरे भी कई राज्यपाल ऐसे हुए हैं जो कि बड़े-बड़े आपराधिक मामलों में फंसे रहे, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हो पाई। मध्यप्रदेश में 2015 में भयानक विशाल पैमाने के व्यापमं घोटाले में वहां के उस वक्त के राज्यपाल रामनरेश यादव के खिलाफ विशेष जांच दल ने सुबूत पाए थे। उनके बेटे शैलेष यादव को भी भर्ती घोटाले में शामिल पाया गया था। उनके ओएसडी धनराज यादव को गिरफ्तार भी किया गया था। अपने खिलाफ मामला देखकर राज्यपाल हाईकोर्ट गए थे कि संविधान के हिसाब से पद पर रहने तक उन पर कोई कार्रवाई नहीं हो सकती, और अदालत ने रामनरेश यादव की गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी, लेकिन जांच जारी रखने की छूट दी थी। जांच दल के मुखिया ने कहा था कि यादव के रिटायरमेंट के बाद उनके खिलाफ कार्रवाई होगी, लेकिन शायद वे ऐसी नौबत आने के पहले गुजर ही गए थे। यह मामला इतना भयानक था कि इसमें एमपी के बड़े भाजपा नेता और राज्य के मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा की भी गिरफ्तारी शिक्षक भर्ती घोटाले में हुई थी।
संविधान में राज्यपाल की चाहे जो भी भूमिका बनाई गई हो, उसे किसी तरह की अलोकतांत्रिक हिफाजत देना बहुत ही नाजायज है। इसका मतलब तो यह है कि जिन बातों को लेकर एक छोटे कर्मचारी को तुरंत जेल में डाला जा सकता है, उससे हजार गुना बड़ा जुर्म करके भी राज्यपाल या राष्ट्रपति जैसे लोग बच सकते हैं। यह परले दर्जे की शर्मिंदगी की बात है कि जांच में कुसूरवार दिखने पर भी राज्यपाल अपने संवैधानिक ओहदे को छोडक़र घर नहीं बैठते, बल्कि कुर्सी पर चिपके रहकर गिरफ्तारी से बचने के लिए एक पेशेवर मुजरिम की तरह अदालत दौड़ते हैं। कुछ लोगों को अपनी ऊंची और विशेषाधिकार से लैस कुर्सी की इज्जत का ख्याल भी नहीं रहता, बस उससे चिपके रहकर, तरह-तरह के जुर्म करके कमाने या मजा लेने की ही सूझती है।
मैं लंबे समय से राज्यपाल की व्यवस्था के ही खिलाफ लिखते आ रहा हूं। मेरा मानना है कि राजभवन की व्यवस्था पूरी तरह गैरजरूरी, अलोकतांत्रिक, राजनीतिक-साजिश की, और खर्चीली है। दुनिया के बहुत से लोकतंत्र बिना ऐसे राज्यपाल के चलते हैं, और उनका कोई भी काम नहीं रूकता। हिन्दुस्तान में तो राजभवनों को राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने, विधायकों की खरीद-फरोख्त की मंडी चलाने, भ्रष्टाचार करने, और निर्वाचित लोकतांत्रिक ताकतों को कमजोर करने के लिए नियमित रूप से इस्तेमाल किया जाता है। जाने कितने ही राज्यपालों को सुप्रीम कोर्ट समय-समय पर झिडक़ चुका है, और महाराष्ट्र सरीखे राज्य में तो एक वक्त राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष इन दोनों के बीच यह मुकाबला चल रहा था कि केन्द्र सरकार को अधिक खुश कौन कर सकता है। अब जब राज्यों में निर्वाचित विधायकों की चुनी गई सरकार बिल्कुल साफ-साफ चलनी चाहिए, तो उसमें केन्द्र सरकार की राजनीतिक एजेंट की तरह राज्यपाल साजिश में जुट जाएं, यह लोकतंत्र को कमजोर और खोखला करने के अलावा और कुछ नहीं है। फिर अलग-अलग समय पर अलग-अलग प्रदेशों के राज्यपाल भ्रष्टाचार में भी फंसे रहे, निर्वाचित सरकार के काम में अड़ंगे लगाते रहे, और कुछ राजभवन तो सेक्स के मजे का अड्डा भी बने रहे। लोगों को शायद होगा कि किस तरह एक बहुत बुजुर्ग हो चुके राज्यपाल के सेक्स-वीडियो हैदराबाद के राजभवन से निकलकर चारों तरफ फैले थे, और एक उच्च-सवर्ण बुजुर्ग की रवानगी का सामान बने थे। भारत में ऊंचे संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोगों के जुर्म करने पर धर्म या जाति की कोई व्यवस्था आड़े नहीं आती, बल्कि मुजरिमों का एक जातिविहीन, सर्वधर्म समाज अलग ही नजर आता है।
सुप्रीम कोर्ट शायद राज्यपाल की संवैधानिक व्यवस्था पर सुनवाई करने का हकदार नहीं है, लेकिन राज्यपाल को किसी भी जुर्म के मामले में मिले हुए संरक्षण के खिलाफ सुनवाई का हक तो उसे है ही। लोकतंत्र में ऐसी कोई भी रियायत किसी को नहीं मिलनी चाहिए। जिस वक्त ऐसी रियायत का इंतजाम संविधान में किया गया होगा, उस वक्त लोगों को पता नहीं होगा कि एक दिन ऐसा आएगा, जब राज्यपाल अपनी आल-औलाद सहित राज्य की नौकरियों को बेचने का धंधा करेंगे, कॉलेजों की सीट बेचेंगे, महिला कर्मचारियों को दबोचेंगे, और उनके सेक्स के वीडियो लोगों का वयस्क मनोरंजन करेंगे। अब जब लोकतंत्र की इतनी दुर्गति हो चुकी है, और राज्यपाल बहुत से राज्यों में केन्द्र से सुपारी लेकर लोकतांत्रिक-संवैधानिक व्यवस्था की हत्या के लिए भाड़े के हत्यारे की तरह काम करने लगे हैं, तो ऐसे मुजरिमों को पूरे कार्यकाल तक मुकदमे से रियायत क्यों दी जाए? ममता बैनर्जी चाहे राज्यपाल के खिलाफ ही क्यों न रहती आई हो, क्या उस वजह से राजभवन की महिला कर्मचारी को अपने देहशोषण के खिलाफ आवाज उठाने का हक गंवाना पड़ेगा? और जब यह बेशर्म राज्यपाल मीडिया के सौ चुनिंदा लोगों को इकट्ठा करके राजभवन के सीसीटीवी कैमरों की चुनिंदा रिकॉर्डिंग दिखाकर, उनमें उस महिला को दिखाकर अपने को बेकसूर साबित करने का काम कर सकता है, तो यही काम वह अदालत के कटघरे से करे। इस देश में ऊंचे ओहदे पर बैठे एक आदमी का ऐसा हक कैसे हो सकता है कि उसके जुल्म के खिलाफ एक आम नागरिक को इंसाफ पाने का हक न रह जाए? अगर किसी वक्त मासूमियत और नासमझी से ऐसी संवैधानिक व्यवस्था की भी गई थी, तो राज्यपालों के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए यह व्यवस्था खत्म करनी चाहिए। हो सकता है कि यह संवैधानिक-हिफाजत खत्म होने से बहुत से राज्यपालों का जुर्म करना कम हो जाएगा। आज तो यह हिफाजत राज्यपालों को मुजरिम बनने का एक असाधारण हौसला देती है, यह लोकतंत्र की किस भावना का सम्मान है? देश के राजभवनों में महिलाओं की हिफाजत के लिए भी यह जरूरी है कि राज्यपालों के खूनी पंजों को भी हथकड़ी के दायरे में लाया जाए।
हर कुछ महीनों में यह दिखाई देता है कि कहां कौन सा नया तालाब सरकारी अवैध कब्जे और अवैध निर्माण का शिकार हो रहा है। देश भर में तालाबों के किनारे गरीबों के अवैध कब्जे तो होते ही रहते हैं क्योंकि उन्हें बसने के लिए जगह की हमेशा कमी रहती है, लेकिन जब स्थानीय म्युनिसिपल या राज्य शासन या बड़े कारोबारी तालाबों के किनारे अवैध कब्जा और अवैध निर्माण करते हैं तो वह जिंदगी गुजारने के लिए मजबूरी का कोई काम नहीं रहता, वह कमाई करने के लिए किया जा रहा गैरकानूनी काम रहता है।
छत्तीसगढ़ में लगातार यह छपते ही रहता है कि किस जगह नगर निगम तालाब के किनारे पाल बनाने के नाम पर, रास्ता बनाने के नाम पर तालाब के कुछ हिस्से को पाटने पर आमादा है, और सौंदर्यीकरण के नाम पर अंधाधुंध पैसा भी झोंका जा रहा है, और पानी की जगह कम की जा रही है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक के अनगिनत फैसले सामने हैं जो कहते हैं कि किसी भी तरह की पानी की कोई सार्वजनिक जगह, कोई सार्वजनिक मैदान या उद्यान, या कोई चारागाह खत्म न किया जाए। सुप्रीम कोर्ट के ऐसे भी फैसले हैं कि अगर इनमें से किसी जगह पर कोई पक्का निर्माण हो भी चुका है, तो भी उसे हटाकर उसे उसके मूल सार्वजनिक स्वरूप में वापिस लाया जाए, यानी अगर तालाब के किसी हिस्से को पाटकर वहां किसी तरह का निर्माण किया गया है, तो उसे तोडक़र फिर से तालाब बनाया जाए, या चारागाह अगर निर्माण में खत्म हो रहा है, तो ऐसे निर्माण तोड़े जाएं।
हम छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर को एक मिसाल के तौर पर लेते हैं क्योंकि यहां की खबरों को कुछ अधिक करीब से देखते हैं। मौजूदा और पुराने शहर रायपुर से लेकर नए बसे हुए कॉलोनीनुमा शहर नया रायपुर तक अनगिनत तालाब ऐसे हैं जिन्हें खूबसूरत बनाने के नाम पर म्युनिसिपल से लेकर पर्यटन विभाग तक, और स्मार्टसिटी प्रोजेक्ट तक के करोड़ों रूपए झोंके जा रहे हैं, और उनकी पानी की जगह सिमटती जा रही है। कुछ ऐसा ही शहर के बगीचों के साथ हो रहा है, और खेल के मैदानों के साथ तो हो ही चुका है। इन सबके पीछे सबसे बड़ी नीयत कंस्ट्रक्शन में होने वाली मोटी काली कमाई की रहती है, अगर कंस्ट्रक्शन नहीं होगा, तो वह पैसा कैसे मिलेगा? इसलिए हर खुली जगह पर कुछ न कुछ बनाने की एक हिंसक कार्रवाई चलती रहती है। हमने अनगिनत तालाबों, बगीचों, और मैदानों को इसी तरह सिमटते देखा है। जब कभी ऐसे किसी निर्माण या तथाकथित सौंदर्यीकरण को लेकर हल्ला उठता है, तो एकाएक म्युनिसिपल, स्मार्टसिटी, या पर्यटन विभाग किसी छोटे मासूम बच्चे की तरह अनजान बन जाते हैं, और इस काम की जिम्मेदारी एक-दूसरे पर डालने लगते हैं। हालत तो यहां तक बिगड़ी हुई है कि शहर के बीचों-बीच किसी डिवाइडर को मोटी रकम लगाकर फाइबर के पैनलों से ढांका जा रहा था, और जब यह विवाद उठा कि इसका तो टेंडर ही नहीं हुआ है, तो म्युनिसिपल ने यह कह दिया कि वह इस काम को करवा ही नहीं रहा है, और इसका जिम्मा किसी व्यापारी संगठन पर डाल दिया गया, मानो व्यापारी संगठन सडक़ पर अपनी मर्जी से इतना बड़ा कोई काम कर सकता है, और म्युनिसिपल उससे अनजान रह सकता है।
यह समझने की जरूरत है कि सरकारी संस्थाओं की अतिसंपन्नता कुदरत को खत्म करने की सुपारी उठा चुकी है। छत्तीसगढ़ में शहरों पर खर्च करने के लिए सरकार के पास इतना अधिक पैसा है कि किसी अच्छे-भले फुटपाथ को उखाडक़र उसे दुबारा बनाया जाता है, जिस पर न पहले कोई चलते थे, और न दुबारा बनाने के बाद कोई चलेंगे। सरकार के जितने भी किस्म के विभाग और दफ्तर हो सकते हैं, वे बहुत तेजी से बजट और दूसरे किस्म की रकम को खर्च करने की हड़बड़ी में रहते हैं, और ऐसा लगता है कि उन्होंने कम से कम समय में अधिक से अधिक खर्च करने की कोई शर्त लगाई हुई है। हमें सरकारी या म्युनिसिपल निर्माण के भ्रष्टाचार की उतनी फिक्र नहीं है जितनी फिक्र तालाबों पर गैरजरूरी निर्माण करके पानी के इलाके को घटाने की हरकत से है। यह सिलसिला बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए, अफसरों और नेताओं को अलग कोई जमीन आबंटित कर देनी चाहिए जहां पर वे तरह-तरह के फर्जी निर्माण करवा सकें, और उसमें कमाई कर सकें।
जनता के बीच का भी कोई जागरूक तबका रहता, तो वह तालाब जैसी जरूरी और जीवन-रक्षक सार्वजनिक-धरोहर को बचाने के लिए अदालत तक गया रहता, लेकिन अभी तो हमें इस प्रदेश में ऐसे लोग दिखते नहीं हैं, जबकि ऐसे नाजायज निर्माण की खबरें लगातार छपती हैं। अब तो यही लगता है कि प्रदेश के हाईकोर्ट को अपने ऐसे न्याय-मित्र नियुक्त करने चाहिए जो कि प्रदेश भर की खबरों को लेकर रोजाना ही अदालत के सामने नियमों को तोडऩे की लिस्ट पेश कर सके, और फिर अदालत के कहे मुताबिक इनमें से छांटे गए मामलों की जानकारी सरकार से मंगा सके, और जरूरत लगे तो अदालत इन पर खुद होकर मुकदमा शुरू कर सके। इससे कम में हमें तालाब बचते नहीं दिखते हैं। हाईकोर्ट को भी तालाबों को बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले की तारीख के बाद के तमाम मामलों को देखना चाहिए क्योंकि धरती पर तालाब सिर्फ देखने के लिए नहीं है, उनसे जमीन के नीचे का पानी भी जुड़ा हुआ है, और अगर तालाब घटते चले गए, तो भूजल का स्तर गिरते चले जाएगा। अब तो हालत यह हो गई है कि कोई बड़ा बिल्डर किसी इलाके में अपना कोई बड़ा प्रोजेक्ट लाता है, तो आसपास के तालाबों को सौंदर्यीकरण के नाम पर सरकारी खर्च से पटवाना भी शुरू कर देता है, कहीं वह गैरजरूरी चौड़ी सडक़ बनवा देता है, ताकि उसके प्रोजेक्ट का बाजारू महत्व बढ़े, तो कहीं वह तालाबों के आसपास लोगों के टहलने के नाम पर उसे चारों तरफ से पटवाता है ताकि उसके अपने प्रोजेक्ट के खरीददार वहां घूम सकें। यह सिलसिला हाईकोर्ट की दखल के बिना रूकते नहीं दिखता है।
अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव में बाकी तमाम मुद्दों के साथ-साथ एक मुद्दा यह भी बना हुआ है कि मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन को क्या इस बढ़ती हुई उम्र में एक बार फिर उम्मीदवार बनना चाहिए? चार बरस के मौजूदा कार्यकाल में बाइडन की उम्र और उनकी सेहत कई बार अमरीका की फिक्र का सामान बन चुकी है। वे बहुत सी बातों को भूल जाते हैं, कई मौकों पर वे लडख़ड़ाते नजर आते हैं, और अभी जब भूतपूर्व राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के साथ उनकी एक बहस का जीवंत प्रसारण हो रहा था, उस वक्त वे स्टेज पर तकरीबन सोए हुए से थे, और ट्रंप के अंतहीन हमलों के मुकाबले बाइडन का हाल इतना खराब था कि अब सुनने में आ रहा है कि उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी को चंदा देने वाले लोग उनको मनाने में लग गए हैं कि वे चुनाव न लड़ें। वैसे भी जितने किस्म के पोल अमरीका में हुए हैं, उनमें बाइडन खासे पिछड़े हुए हैं, और इस ताजा बहस के प्रसारण के बाद माना जा रहा है कि उनके लिए इससे हुए नुकसान से उबरना मुमकिन नहीं होगा।
सवाल यह उठता है कि बहुत जिम्मेदारी का कोई ओहदा संभालने वाले लोग उम्र या फिटनेस के किसी पैमाने पर कितने खरे उतरने चाहिए? कहने के लिए तो डोनल्ड ट्रंप भी 78 बरस के हैं, और बाइडन 81 बरस के। दोनों की उम्र में बहुत बड़ा फर्क नहीं है, लेकिन ट्रंप बेहतर सेहत में दिखते हैं, और अभी तक वे औरतों को दबोचने के तरीके बताते हुए दर्ज होते रहते हैं, और उनका हमलावर मिजाज अपने ओछे औजारों के साथ और कम उम्र का लगता है। दूसरी तरफ बाइडन की उम्र और सेहत दोनों को मिलाकर देखें, तो लगता है कि अभी तो राष्ट्रपति चुनाव में कुछ महीने बाकी हैं, तब तक उनकी सेहत और कमजोर हो सकती है, और अगर वे जीतते हैं तो राष्ट्रपति का चार बरस का अगला कार्यकाल पार होने तक तो वे खासे बूढ़े हो चुके रहेंगे। आज की दुनिया में अमरीका को जितनी जायज और नाजायज दखल रखनी पड़ती है, क्या वह सब बाइडन के लिए बढ़ती उम्र और गिरती सेहत के साथ मुमकिन हो सकेगा?
लेकिन इस बारे में अमरीका के स्वास्थ्य विशेषज्ञों और राजनीतिक पर्यवेक्षकों से बात करें तो यह समझ पड़ता है कि ट्रंप की तरह सांड जैसी ताकत से काम चाहे बाइडन न कर सके, लेकिन वे जितने बरसों से अमरीकी राजनीति में हैं उससे उन्हें एक अनोखा तजुर्बा हासिल है, और 1972 से अमरीकी संसद में पहुंचकर उन्होंने आधी सदी से अधिक देश और दुनिया को संसद और सरकार के भीतर से जिस तरह देखा है, वैसा तजुर्बा किसी सांड सरीखी सेहत वाले नेता को भी नहीं हो सकता। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि बाइडन का यह असाधारण लंबा अनुभव उन्हें शारीरिक कमजोरी के बावजूद राष्ट्रपति पद का शानदार दावेदार बनाता है। मजबूत सेहत तो हर नौजवान या बुजुर्ग को हासिल हो सकती है, लेकिन आधी सदी का संसदीय तजुर्बा भला कितनों को हासिल हो सकता है, शायद किसी और को नहीं।
लेकिन इन खूबियों के बावजूद जो बाइडन की डेमोक्रेटिक पार्टी के बहुत से लोग सार्वजनिक रूप से उन्हें सुझा रहे हैं कि राष्ट्रपति चुनाव लडऩे के अपने फैसले पर उन्हें फिर से विचार करना चाहिए। बाइडन ने एक सवाल के जवाब में कहा है कि पिछले हफ्ते ट्रंप से बहस के दौरान वे बहुत बुरे जुकाम के शिकार थे, और उसकी वजह से थके हुए थे। उन्होंने कहा कि अगर ईश्वर ही नीचे आकर कहे कि वे इस मुकाबले से बाहर निकल जाएं, तो ही वे पीछे हटेंगे। ट्रंप के तमाम उकसावे के बावजूद वे लगातार अपना काबू कायम रखे हुए हैं, और अपनी जीत को लेकर भरोसेमंद हैं।
ट्रंप की शक्ल में दुनिया के इस सबसे ताकतवर और असरदार मुल्क से उठ रहे सवाल दुनिया में कई और जगहों पर भी लोगों को परेशान कर सकते हैं, जहां 80 बरस के बुजुर्ग सत्ता की घोड़ी चढऩे के लिए दूल्हे बनकर तैयार खड़े हों। हिन्दुस्तान में कम से कम भाजपा में एक बात को बार-बार कहा गया है कि 75 बरस उम्र होने पर नेताओं को सत्ता से परे हो जाना चाहिए, हालांकि इस तर्क का इस्तेमाल अडवानी, मुरली मनोहर जोशी को किनारे करने के लिए किया गया, लेकिन कर्नाटक में येदियुरप्पा को 75 बरस का हो जाने के बाद भाजपा ने मुख्यमंत्री बनाया। इसलिए ऐसा लगता है कि भाजपा में भी 75 बरस की सीमा को कुछ लोगों को किनारे करने की सहूलियत के लिए इस्तेमाल किया गया है।
उम्र और सेहत हर किसी की एक सरीखी नहीं रहती, इसलिए कई लोग जवान होते हुए भी मेहनत से दूर रह सकते हैं, और कई बुजुर्ग उम्र के लोग भी उनसे अधिक काम कर सकते हंै। अमरीका में एक संवैधानिक इंतजाम किया गया है कि अगर राष्ट्रपति ओहदे पर रहते हुए गुजर जाते हैं तो उपराष्ट्रपति को तुरंत ही राष्ट्रपति बना दिया जाता है। अगर जो बाइडन के सामने ऐसी कोई नौबत आती है, या फिर वे सेहत की किसी वजह से कोमा में चले जाते हैं, तो भी उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति बनाया जाता है, तो कमला हैरिस या कोई और उपराष्ट्रपति अमरीका को हमेशा ही मुसीबत में हासिल रहेंगे।
इसलिए ट्रंप जैसे बदचलन, अहंकारी, अनैतिक, सनकी, और भ्रष्ट व्यक्ति को राष्ट्रपति बनने देने से बेहतर यही होगा कि उसके मुकाबले डेमोक्रेटिक पार्टी के जो बाइडन, या किसी भी दूसरे उम्मीदवार को चुना जाए। जो बाइडन का जितना लंबा तजुर्बा है, और उन्होंने अमरीका को जिस तरह से एक बेहतर अर्थव्यवस्था मुहैया कराई है, जिस तरह डेढ़ करोड़ नौकरियां पैदा की हैं, 50 लाख अमरीकियों का पढ़ाई का लोन खत्म कर दिया है, वह असाधारण उपलब्धियां हैं। ट्रंप ने अपने चार साल के कार्यकाल में सिवाय नंगई के और कुछ नहीं किया था। इसलिए जो बाइडन उम्मीदवार बनने लायक हैं, और यह डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर की बात है कि वह किसे अपना उम्मीदवार बनाती है।
अगली चौथाई सदी में, 2050 तक हिन्दुस्तानियों की औसत उम्र 70 बरस से बढक़र 77 बरस पहुंच जाएगी, और एक प्रतिष्ठित और विश्वसनीय मेडिकल अध्ययन के मुकाबले हिन्दुस्तानियों में पुरूषों के मुकाबले महिलाओं की उम्र कुछ अधिक ही बढ़ेगी जो कि 75 बरस के आदमी के मुकाबले 80 बरस की हिन्दुस्तानी औरत की रहेगी। एक प्रमुख वैज्ञानिक पत्रिका, द लैंसेट जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन के मुकाबले योरप के बहुत से देशों में 2050 तक लोग साढ़े 85 बरस औसत उम्र के हो सकते हैं, और इसकी एक वजह उनका बेहतर और समझदारी का खानपान है, और दूसरी वजह पैदल चलना, या साइकिल चलाना है जो कि योरप में बहुत अधिक प्रचलित है।
अब हिन्दुस्तान तो एक गाने पर अधिक भरोसा करता है, तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार..., अब ऐसी कामना के बाद बहुत अधिक मेहनत करने की किसी को जरूरत नहीं रहती है, इसलिए हिन्दुस्तान के अधिकतर समाजों में खानपान लोगों की आर्थिक क्षमता के अनुपात में खासा गरिष्ठ रहता है। यहां तक कि जो धार्मिक उपवास होते हैं, उनमें भी खानपान बहुत ही भयानक दर्जे का रहता है जिससे सेहत का नुकसान छोड़ और कुछ नहीं हो सकता। फिर संपन्नता बढऩे के साथ-साथ हिन्दुस्तान के अधिकतर लोग अपने घर के आसपास तक जाने के लिए भी कार या स्कूटर, मोटरसाइकिल इस्तेमाल करते हैं, ताकि बदन पर किसी तरह का जोर न पड़े। कसरत और खेलकूद की फैशन भी गिने-चुने लोगों के बीच रहती है। इन्हीं सब वजहों से हिन्दुस्तानियों की औसत उम्र योरप की अधिकतम औसत उम्र से 8-10 बरस पीछे रहने जा रही है।
लेकिन औसत उम्र का बढ़ जाना, लोगों का अधिक समय तक जिंदा रहना, यह एक-दूसरे को शुभकामना देने की हद तक तो ठीक है कि लोग शतायु हों। लेकिन शुभकामना से परे शतायु होने वाले लोगों की जिंदगी का आखिरी एक चौथाई हिस्सा कैसा गुजरेगा, इसकी कल्पना भी भयानक है। जो लोग आर्थिक रूप से सक्षम हैं, उन्हें भी 75 बरस की उम्र के बाद खराब हालत में ही देखा जाता है। शायद पूरी उम्र में वे सेहत का ध्यान नहीं रखते हैं, और बदन आखिरी के बरसों में पूरा हिसाब चुकता करता है। महंगे और बड़े अस्पतालों तक जिनकी पहुंच है, वे भी बुढ़ापा तकलीफदेह ही झेलते हैं। इसलिए आज जब दुनिया बढ़ती हुई औसत उम्र की भविष्यवाणी को लोगों की बेहतरी का एक पैमाना मानती है तो मुझे उसमें यह भी लगता है कि क्या यह बढ़ी हुई औसत उम्र, यानी आखिरी का बढ़ा हुआ हिस्सा पूरा का पूरा अधिक तकलीफ वाला हिस्सा नहीं रह जाएगा?
अभी इसी हफ्ते छत्तीसगढ़ में ही एक दिन में दो जगहों पर दो जवान बेटों ने अपने-अपने बाप निपटा दिए। अब ऐसा कत्ल होने पर तो इसकी खबर बनी, और हमारी नजर पड़ी, लेकिन खबर बनने के पहले तक परिवारों के भीतर जो तनाव रहता है, और जो खासकर घर के बूढ़ों के साथ चलता है, क्या वह सचमुच ही लंबा जीने लायक जिंदगी रहेगी? कुछ श्रवण कुमार किस्म के लोग भी होंगे जिन्हें यह चर्चा काफी कड़वी लगेगी कि हर घर में तो परिवार के बुजुर्गों का अपमान होता नहीं है, लेकिन हकीकत यह है कि अपमान से नीचे का दर्जा भी उपेक्षा का होता है जो चलने-फिरने में मजबूर बुजुर्गों को आहत करते रहता है। ऐसे में हिन्दुस्तान हो या योरप, जहां कहीं भी लोगों की औसत उम्र बढ़ेगी, और उसके चलते बुढ़ापा और लंबा हो जाएगा, वहां पर उन बुजुर्गों के साथ कई किस्म की भावनात्मक समस्याएं भी होंगी। आज भी बहुत से बुजुर्ग वृद्धाश्रमों को आल-औलाद के घर से बेहतर पाते हैं, क्योंकि वहां न तो किसी से उनकी कोई अपेक्षा रहती, और न ही कोई उपेक्षा उन्हें चोट पहुंचाती जो कि आल-औलाद के हाथों तकलीफ की बात रहती है।
इंसान अमर बनने की हसरत रखते हैं, दुनिया के तानाशाह, बड़े-बड़े नेता, बड़े कारोबारी, भला कौन ऐसे नहीं हैं जो कि मरना ही नहीं चाहते। कई लोगों के बारे में ऐसी कहानियां प्रचलन में रहती हैं वे कौन-कौन से इलाज कराकर, नौजवान लोगों का खून लेकर, खानपान में कुछ चुनिंदा और बहुत महंगी चीजें जुटाकर जिंदगी को जारी रखना चाहते हैं। सावधानी एक अच्छी बात है, और रोजाना के कामकाज से या कसतर से बदन को चुस्त-दुरूस्त रखना भी बड़ी अच्छी बात है क्योंकि उससे उम्र लंबी हो या न हो, जब तक जिंदगी है तब तक बदन फिट बने रहता है। सावधान लोग ये तमाम कोशिशें भी करते हैं, लेकिन इससे परे एक सबसे बड़ी वजह जिंदगी को लंबा और बेहतर बनाने में काम आती है, वह है लोगों का तनावमुक्त रहना।
यह बात कहना अधिक आसान है, इस पर अमल मुश्किल रहता है। आज जब हम अपने आसपास परिवारों के भीतर इतना तनाव देख रहे हैं कि लोग एक-दूसरे को मार डाल रहे हैं, या जरा-जरा सी बात पर जान दे दे रहे हैं, तो फिर यह बात बड़ी जाहिर है कि ऐसे परिवारों में तनावमुक्त रहना मुमकिन नहीं है, और तनाव के साथ लंबा जीना मुमकिन नहीं है। फिर एक बात यह भी है कि जिंदगी में अगर इतना तनाव है, तो उसे ढोते हुए इतना लंबा सफर करने का भी क्या फायदा?
फिलहाल आज इस मुद्दे पर मैं इसलिए चर्चा कर रहा हूं कि लोगों की हसरत बनी हुई है, वे मरते हुए भी एक और पीढ़ी देखकर जाना चाहते हैं, एक और पीढ़ी की शादी देखकर जाना चाहते हैं। ऐसी उम्मीदें बहुत अच्छी हैं, लेकिन इनके साथ-साथ लोगों को सेहतमंद और तनावमुक्त भी बने रहना होगा, तभी उनकी हसरतें मुमकिन हो पाएंगी। भारत की आबादी को लेकर 77.5 बरस की औसत उम्र एक नजरिए से देखने पर दहशत भी पैदा करती है, खासकर महिला को देखकर कि अगर उसकी औसत उम्र 80 बरस तक पहुंच जाएगी, और परिवार-समाज में उसकी आज जैसी दुर्गति बनी रहेगी, तो फिर वह उतना लंबा जीकर भी क्या करेगी?
इस कॉलम को पढऩे वाले अधिकतर लोगों के पास अपने-अपने परिवार की वजहें हैं, उनकी कहानियां हैं, और पिछली पीढ़ी के बुजुर्गों का भोगा हुआ सुख और दुख भी है। आज लोगों को यह सोचना चाहिए कि 2050 तक अगर औसत उम्र खासी बढऩे वाली है, तो क्या उसके लिए लोग तैयार हो रहे हैं, तन और मन को, और धन को भी तैयार रख रहे हैं? इन तमाम मुद्दों पर परिवार के भीतर सोचने की जरूरत है, और हो सकता है कि आज सोची गई बात का ऐसा असर हो कि जिंदगी के आखिरी के बढ़े हुए बरस जीना कुछ आसानदेह और सुखभरा हो जाए।
मेरे करीब के एक कस्बे की खबर है कि एक आदमी ने देर रात अपनी पत्नी का कत्ल कर दिया। 75 बरस के पति ने 72 साल की पत्नी से देर रात सेक्स की फरमाईश की, पत्नी ने मना कर दिया, तो उसने फावड़े से कई वार करके पत्नी को वहीं मार डाला। गिरफ्तार पति से ही यह बात पुलिस को पता लगी। 75 और 72 बरस की उम्र में सेक्स को लेकर अलग-अलग दर्जे की जरूरतें रहने की बात तो बिल्कुल नई सरीखी है, लेकिन काफी कम उम्र में ही अधेड़ हो जाने पर ही भारत में बहुत से जोड़ों के बीच यह दिक्कत होने लगती है। अधिक जगहों से यह सुनाई पड़ता है कि पत्नी की दिलचस्पी सेक्स में पहले खत्म हो गई है, और पति की जरूरत बाकी है, और इसलिए वह बाहर मुंह मारने लगा है। जितने जोड़े, उतने किस्म की बातें।
अब अगर जमीनी हकीकत को देखें तो भारत में परिवारों का ढांचा, समाज की सोच, और धर्म का प्रभाव, इन सबका नतीजा यह होता है कि शादीशुदा जोड़ों के बीच भी देहसंबंध की गुंजाइश या तो घटने लगती है, या फिर जोड़ों के बीच के तनाव ऐसे रहते हैं कि मन तन को पास आने नहीं देता। आम हिन्दुस्तानी आदमी इतने किस्म की थकान लेकर, या मानसिक तनाव लेकर बिस्तर पर पहुंचते हैं कि वहां बीवी के साथ अधिक कुछ होने या करने की गुंजाइश नहीं रहती है। दूसरी तरफ घर के काम के बोझ से लदी हुई, अब घर-घर में बन गए शौचालयों के लिए मीलों से पानी ढोकर लाने वाले टूटते हुए बदन वाली औरत को बिस्तर पर नींद और आराम से जरूरी और कुछ नहीं लगता। इसलिए बहुत से जोड़े ऐसे हैं जो एक ही कमरे में परिवार के और लोगों के साथ रहने की मजबूरी के चलते, या बगल के कमरे तक आवाज जाने की आशंका में जीते हुए किसी सेक्स के लायक बचते भी नहीं हैं।
भारत के संयुक्त परिवारों में घर की महिला से बिल्कुल सुबह से लेकर देर रात तक लगातार काम की उम्मीद की जाती है, और उससे कुछ पाने वालों की लिस्ट में उसके पति का नाम सबसे आखिर में रहता है। परिवार के बाकी बच्चे-बूढ़े, जवान या अधेड़ जोड़े की जरूरत को समझ भी नहीं पाते, या समझना ही नहीं चाहते। नतीजा यह होता है कि संयुक्त परिवार बहू की गोद तो हमेशा भरी देखना चाहता है, लेकिन बहू को उसके पति संग अलग से समय मिल सके, इसमें उसकी खास दिलचस्पी नहीं रहती।
अब इतनी बातों के बाद धर्म का दखल शुरू होता है, जो कि सामान्य और स्वाभाविक शारीरिक जरूरतों वाले जोड़ों में भी सेक्स के खिलाफ एक नापसंदगी पैदा करते रहता है। देह की जरूरतों को काम-वासना जैसे अपमानजनक नाम दिए जाते हैं, और लोगों के दिमाग में लगातार यह भरा जाता है कि उन्हें सेक्स जैसी चीज में नहीं उलझना चाहिए, ईश्वर की आराधना करनी चाहिए जिससे मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा। अब अगर स्वर्ग में भी सेक्स से ऐसा ही परहेज सिखाया जाएगा, तो बिना सेक्स वाली वह जगह भला कैसे स्वर्ग कही जा सकेगी? धर्म से जुड़े हुए भारत के एक आध्यात्मिक कहे जाने वाले संगठन की तो नसीहत यही है कि पति-पत्नी को भाई-बहन की तरह रहना चाहिए। अब अगर वे भाई-बहन की तरह रहेंगे, तो देहसंबंध किससे बनाएंगे? अगर जीवनसाथी को ही भाई-बहन मानना है, तो फिर देह की जरूरत के लिए चारों तरफ अनैतिक कहे जाने वाले काम करने होंगे। लेकिन धर्म और आध्यात्म लोगों को स्वाभाविक सेक्स से दूर धकेलते रहते हैं, फिर चाहे देश के एक सबसे बड़े प्रवचनकर्ता और स्वघोषित संत आसाराम अपनी सेक्स की जरूरतों के लिए नाबालिग से बलात्कार ही क्यों न करता रहे। हिन्दुस्तान के जो लोग धर्म और आध्यात्म के अधिक झांसे में रहते हैं, उनका सेक्स-जीवन बर्बाद होने का बड़ा खतरा मंडराते रहता है।
धर्म और समाज, परिवार और पारंपरिक सामाजिक शिक्षा के चलते हुए भारत के लोगों में सेक्स को लेकर हिचक और झिझक भर जाती है। नतीजा यह होता है कि जोडिय़ों में से किसी एक की जरूरत पूरी नहीं होती, दूसरे को परवाह नहीं रह जाती। ऐसे में विवाहेत्तर संबंध बनने लगते हैं, और कई जगहों पर आगे जाकर प्रेमिका की हत्या, या प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या जैसी बातें होने लगती हैं। जोड़ों के बीच की हिंसा लगातार बढ़ती चल रही है, इसकी एक वजह भारतीय समाज में सेक्स की जरूरत को कम आंकना है, और लोगों को धर्म की तरफ धकेलना है। इससे लोग भी इस झांसे में आ जाते हैं कि दो-दो बच्चे हो जाने के बाद सेक्स की क्या जरूरत है। जबकि यह पूरी तरह धर्मान्ध सोच है कि मनचाही संख्या में बच्चे हो जाने के बाद लोगों को मन भजन-पूजन में लगाना चाहिए। कई परिवारों में जीवनसाथियों के बीच इस बात को लेकर झड़प भी रहती है कि क्या अब इन बातों की उम्र रह गई है? धर्म सेक्स को लेकर लोगों के मन में एक बड़ा अपराधबोध पैदा कर देता है कि बच्चे हो जाने के बाद भी उनका मन इसी काम-वासना में लगा हुआ है।
ऑस्ट्रेलिया और अमरीका के एक सबसे बड़े मीडिया कारोबारी रूपर्ट मर्डोक ने अभी 93 बरस की उम्र में 5वीं शादी की है, और इस बार यह शादी 67 बरस की एक रूसी मालिक्यूलर बायोलॉजिस्ट से हुई है। लोगों की तन और मन की जरूरत कब तक जारी रहती है, इसके लिए कोई एक पैमाना बनाना जायज नहीं है। लोगों को धर्म और समाज, आध्यात्म और परिवार की नसीहतों से परे अपनी शादीशुदा जिंदगी की जरूरतों पर खुद फैसले लेना चाहिए।
छत्तीसगढ़ में 46 डिग्री तापमान पर एक धार्मिक प्रवचन चल रहा है, और कुछ दिन पहले इसकी तैयारी में हजारों महिलाओं ने सिर पर कलश रखकर नंगे पैर शोभायात्रा भी निकाली थी। अभी भी जिस जगह यह प्रवचन चल रहा है, वहां लाखों लोगों की आवाजाही है, और कई किलोमीटर तक ट्रैफिक जाम रहता है। सत्तारूढ़ भाजपा के एक नेता ने कल ही ट्विटर पर यह लिखा है कि इतनी गर्मी में कथावाचक प्रदीप मिश्रा के कार्यक्रम में 8 साल की बच्ची ने दम तोड़ दिया। स्थानीय नागरिकों का दावा है कि अब तक 6 मौतें हो चुकी हैं। तत्काल इस आयोजन पर रोक लगे, प्रशासन इस पर ध्यान दें। और लोगों ने भी इस पर लिखा है कि कथावाचकों को अप्रैल, मई, और जून के महीनों में कार्यक्रम नहीं रखने चाहिए। किसी ने लिखा है कि इस महाराज को खुद ही यह कार्यक्रम रखना नहीं था, या अब बंद कर देना चाहिए, किसी के कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। एक और ने लिखा है कि महाराज को पैसा कमाने से फुर्सत मिले, तो आम नागरिकों की सोचें। इतनी गर्मी में कोई ऐसा आयोजन करता है, जबकि गर्मी का रेड अलर्ट जारी हुआ है। एक व्यक्ति ने तंज कसते हुए कहा है कि दो सौ बेलपत्र चढ़ाने बोलिए, ठीक हो जाएगा। किसी और ने याद दिलाया है कि इसी प्रवचनकर्ता के मध्यप्रदेश में भी रूद्राक्ष वितरण के दौरान बहुत से मौतें देखने मिली थी। कुछ लोगों ने यह याद दिलाया है कि लोगों को अपने घर से ही कथा सुननी चाहिए। एक ने ट्वीट करने वाले भाजपा नेता को याद दिलाया कि इतनी भरी गर्मी में यह जानलेवा आयोजन करने की अनुमति भाजपा सरकार ने ही दी है। एक ने लिखा है कि चलिए बहुत जल्द जाग गए, फिलहाल कथा समाप्त हो चुकी है। एक ने सवाल उठाया है कि 6 मौतों की जिम्मेदार किसे ठहराया जाए। एक व्यक्ति ने लिखा है कि महाराज को होश नहीं है क्या, इसी भीषण गर्मी में अपने प्रवचन रद्द करना चाहिए, मरने वालों को दस-दस लाख मुआवजा देना चाहिए।
अभी कल की ही एक खबर थी कि डेढ़ बरस पहले राजस्थान से निकले पति-पत्नी 665 किलोमीटर की दंडवत यात्रा करके उज्जैन पहुंचे हैं। इसका वीडियो देखना भी भयानक था जब चारों तरफ तपती सडक़ पर नंगे पैर यह बुजुर्ग जोड़ा चल रहा है, और ये सडक़ों पर लेट-लेटकर आगे बढ़ रहे हैं। 55 बरस उम्र का आदमी एक दिन में करीब डेढ़ किलोमीटर की यात्रा इस तरह कदम-कदम पर दंडवत लेटकर इंच-इंच आगे बढ़ते दिखता है, और पत्नी भी झोले में थोड़ा सा सामान लेकर साथ चल रही है। रास्ते में कभी वे कुछ खरीदकर खा लेते हैं, कभी लोग कुछ खिला देते हैं। अब आज जब सरकार लोगों को गर्मी में घर से बाहर न निकलने की सलाह दे रही है, देश भर में सैकड़ों लोग एक-एक दिन में लू से मर रहे हैं, तब यह बुजुर्ग जोड़ा डेढ़ साल के इस कठिन, तकलीफदेह, और जानलेवा तीर्थयात्रा पर है। नवतपा के बीच सफर इसी तरह जारी है।
आस्था लोगों की तर्कशक्ति को पूरी तरह खत्म कर देती है। अब इस जोड़े ने डेढ़ बरस का वक्त ऐसी यात्रा पर लगा दिया है, जिससे उनकी निजी आस्था जरूर पूरी हो रही है, कोई मन्नत भी पूरी हो रही है, लेकिन इससे समाज का भला क्या भला हो रहा है? और जहां तक ईश्वर की बात है, तो पत्थर की प्रतिमाओं, लकड़ी के सलीब, या अमूर्त ईश्वरों, धार्मिक ग्रंथों की उपासना और आराधना से किसी ईश्वर का भला होते तो किसी ने देखा नहीं है। बहुत से लोग तरह-तरह के कठिन इरादे तय कर लेते हैं, और फिर बरसों तक उसे पूरा करने में लगे रहते हैं। अगर सचमुच ही कहीं कोई ईश्वर है, तो उसे क्यों ऐसी बातों को बढ़ावा देना चाहिए? अभी कुछ दिन पहले ही हमने अपने पास ही एक व्यक्ति को अपनी जीभ काटकर किसी देवता को चढ़ाते हुए देखा है, और कहीं पर किसी देवता को खुश करने के लिए एक इंसान ने अपने चार बरस के बेटे की बलि दे दी। भला कौन सा ऐसा ईश्वर हो सकता है जो एक नन्हें बच्चे की बलि पाकर खुश हो, और अगर सचमुच ही ऐसा कोई ईश्वर है, तो वह पूजा-उपासना के लायक तो हो भी नहीं सकता।
इस तरह के अंधविश्वासी आस्थावान लोगों को वह मिसाल दिखाने की जरूरत है जिसमें किसी एक व्यक्ति ने पहाड़ पर से आने-जाने का रास्ता बनाना तय किया, और कई बरस हर दिन खुदाई करके उसने अकेले सडक़ ही बना दी। कई ऐसे लोगों की असल जिंदगी की कहानियां सामने है जिन्होंने किसी बंजर पहाड़ पर पौधे लगाने शुरू किए, और आज 25-30 बरस बाद उस रूखे-सूखे पहाड़ की एक-एक इंच जमीन हरियाली से पट गई है। अकेले अपने दम पर अभियान छेडऩे वाले बहुत से लोग हैं, मुम्बई में एक विख्यात कार्टूनिस्ट आबिद सुरती हैं जो किसी प्लंबर को लेकर घर-घर जाकर दरवाजा खटखटाते हैं, और पूछते हैं कि उनके घर कोई नल तो नहीं टपकता? अपने पैसों पर अपनी मेहनत से कभी प्लंबर ले जाकर, तो कभी खुद औजार चलाकर वे पानी की बर्बादी वाली टोटियों को सुधारने का अभियान चला रहे हैं, और पूरी तरह अकेले चला रहे हैं। कुछ और लोग भी हैं जो जरूरतमंद मरीजों के लिए रक्तदाता जुटाने का काम करते हैं, और हमारे आसपास ही ऐसे कुछ लोग हुए हैं जिन्होंने पूरी जिंदगी अपना भी खून दिया, और दूसरे दानदाता भी जुटाए।
हमारा ख्याल है कि मन्नत तो किसी भी तरह की मानी जाती है, और लोगों की यह निजी आजादी है। लेकिन अगर इस मन्नत का धरती पर कोई इस्तेमाल भी हो, तो भी वह काम की हो सकती है। डेढ़ बरस का वक्त सिर्फ तकलीफ पाकर एक सफर में गुजार देना, इससे न तो उज्जैन के महाकाल को कुछ हासिल होना है, न ही समाज को इससे कोई फायदा हुआ। इसके बजाय यह जोड़ा अगर 665 दिन अपने शहर के अस्पताल जाकर रोज 8-10 घंटे मरीजों की मदद करता, कहीं व्हीलचेयर धकेलता, कहीं मरीजों के स्ट्रेचर ले जाने में मदद करता, तो उससे समाज का भी भला होता। अलग-अलग बहुत से धर्मों के लोग महीने में या हफ्ते में एक दिन कई घंटे उपासना-आराधना में गुजारते हैं, अगर उन्हें अपने ईश्वर की बनाई हुई इस दुनिया में लोगों के दुख-तकलीफ को दूर करने की बात सूझती, तो उससे उनका ईश्वर भी, अगर कहीं होता तो, खुश हो सकता था। किसी दिन कुछ खाना नहीं, किसी दिन कुछ पीना नहीं, किसी दिन किसी रंग के कपड़े पहनना, किसी दिन उपासना स्थल जाना, इससे किसी को क्या हासिल होता है? यह अपने आपको बेवकूफ बनाने के तरीके रहते हैं। अगर सचमुच ही लोगों को लगता है कि दुनिया उनके ईश्वर की बनाई हुई है, तो उन्हें इस दुनिया के जरूरतमंद लोगों की सेवा करना चाहिए, धरती की बर्बादी रोकना चाहिए। मजे की बात यह है कि कोई भी धर्मगुरू लोगों को ऐसा रास्ता सुझाते नहीं दिखते। भला अपनी दुकान बंद करवाना कौन चाहेंगे? यह तो कुछ वैसा ही होगा कि फास्ट फूड बेचने वाले लोग यह पर्चा छपवाकर आने वालों को थमाते रहें कि फास्ट फूड से सेहत का कितना नुकसान होता है। अब अगर प्रवचनकर्ता या मुल्ला, पुजारी, और पादरी लोगों को ईश्वर की आराधना के लिए कचरा साफ करने, गरीबों की मदद करने, अस्पताल जाकर काम करने की नसीहत देंगे, तो खुद का धंधा बंद ही हो जाएगा। इसलिए धर्म प्रायश्चित, दान, और पाप-मुक्ति के बड़े कामयाब फॉर्मूले पर काम करता है जो कि हिट हिन्दी फिल्में बनाने के फॉर्मूलों सरीखा है। इसलिए ऐसे धर्म को 665 किलोमीटर की दंडवत तीर्थयात्रा को बढ़ावा देना ठीक लगता है, बजाय इतने दिनों के किसी सार्थक उपयोग के।
ब्रिटिश सरकार ने स्कूली बच्चों को यौन शिक्षा देने की मौजूदा नीति को बदलते हुए 9 बरस उम्र तक के बच्चों को किसी भी तरह की यौन शिक्षा देने पर रोक लगा दी है। सरकार की नीति के बारे में ब्रिटिश मीडिया में बड़ी बहस छिड़ी हुई है, और अब तक स्कूलों में यह शिक्षा देने वाले शिक्षक इस नई सीमा के खिलाफ हैं। इस नीति में बच्चों को सेक्स और रिश्तों के बारे में पढ़ाया जाता है, अब तक 9 बरस से छोटे बच्चों को भी काफी कुछ बताया जाता था, लेकिन सरकार अब इस पर रोक लगा रही है। शिक्षकों का मानना है कि बच्चों के मन में जिस उम्र से जिज्ञासा आने लगती है, उस उम्र से अगर उन्हें उनके जवाब नहीं मिलेंगे, तो फिर वे गलत जगहों से वे जवाब तलाशने लगेंगे जो कि पोर्नोग्राफी की वेबसाइटें भी हो सकती हैं, और इसके अलावा वे आसपास गलत लोगों के शिकार भी हो सकते हैं। ब्रिटिश शिक्षकों का यह मानना है कि चार बरस की उम्र से ही बच्चों को अच्छे और बुरे स्पर्श की जानकारी समझाना शुरू हो जाना चाहिए ताकि वे अपने यौन शोषण से बच सकें। ऐसा न होने पर वे कुछ लोगों के नाजायज छूने का मतलब नहीं निकाल पाएंगे। इस शिक्षा के तहत स्कूली बच्चों को ट्रांसजेंडर और दूसरे एलजीबीटीक्यूआई समुदाय के लोगों के बारे में भी बताया जाता है, उनके अपने शरीर के बारे में बताया जाता है, और गर्भधारण जैसी चीजों को भी समझाया जाता है। ब्रिटेन कम उम्र में गर्भवती होने वाली स्कूली छात्राओं की समस्या भी झेल रहा है, और यह माना जाता है कि छात्राओं को यौन शिक्षा मिलने से वे गर्भवती होने से, या सेक्स-बीमारियों से बचेंगी।
ब्रिटिश अखबार गॉर्डियन के एक इंटरव्यू में ऐसी एक जानकार शिक्षा शास्त्री ने यह कहा कि अब बच्चों के तन, मन, और उनकी समझ, ये सब कुछ पहले के मुकाबले कम उम्र में विकसित हो रहे हैं। इसलिए उनके मन में जिज्ञासाएं कम उम्र में पैदा हो रही हैं। ब्रिटेन में अभी सत्तारूढ़ संकीर्णतावादी कंजरवेटिव पार्टी का शासन है जिसके कई सांसद इस बात को लेकर नाखुश हैं कि बच्चों को स्कूलों में कम उम्र से ही शरीर, सेक्स, और यौन संबंधों के बारे में जरूरत से अधिक पढ़ाया जा रहा है। एक किस्म से मौजूदा सरकार जो कि चुनाव की घोषणा कर चुकी है, और दो महीने की भी मेहमान नहीं है, वह एक बड़ा फैसला ले रही है जिससे वहां के सारे लोग सहमत भी नहीं हैं।
मैं ब्रिटेन के इस ताजा घटनाक्रम को हिन्दुस्तान के अपने इलाके से जोडक़र देखना चाहता हूं जहां पर हर दिन एक से अधिक पुलिस रिपोर्ट या गिरफ्तारी ऐसे मामले में हो रही है जिसमें नाबालिग को बहला-फुसलाकर किसी बालिग ने उससे सेक्स किया, ऐसा कहा जाता है कि शादी का झांसा दिया, और फिर शादी नहीं की तो इस सेक्स को बलात्कार कहकर उस आदमी को गिरफ्तार कर लिया गया। अदालत से ऐसे गिरफ्तार व्यक्ति को चाहे जो सजा हो जाए, यह बात समझने की जरूरत है कि ऐसे देहसंबंधों से, और बाद में मामले के अदालत तक पहुंचने से खुद लडक़ी का भी बड़ा नुकसान होता है। उसे नाबालिग रहते हुए ऐसे देहसंबंधों के तमाम खतरों से वाकिफ तो रहना चाहिए था।
आज देश भर में हर दिन कई जगहों पर नवजात शिशु नालों या घूरों पर फेंके हुए मिलते हैं। हो सकता है इनमें से कुछ ऐसी कम उम्र नाबालिग लड़कियों के बच्चे भी हों जो कि भारत की क्रूर समाज व्यवस्था के चलते इन्हें जन्म देने का हौसला न कर पाती हों। अभी सुप्रीम कोर्ट तक ऐसे मामले पहुंचे हुए जिनमें बलात्कार या किसी दूसरे तरह से गर्भवती हुई नाबालिग लडक़ी की ओर से मेडिकल समय सीमा पार हो जाने के बाद भी गर्भपात की इजाजत मांगी जा रही है, और सुप्रीम कोर्ट ने अजन्मे बच्चे के अधिकार को अधिक बड़ा मानते हुए 7वेें-8वें महीने के ऐसे बच्चे के गर्भपात की इजाजत नहीं दी। अब नाबालिग बच्चे हिन्दुस्तान में जगह-जगह दूसरे नाबालिगों से बलात्कार करते पकड़ा रहे हैं, लड़कियां जगह-जगह गर्भवती हो रही हैं, और सेक्स से फैलने वाली बीमारियों के तो कोई पुलिस-आंकड़े होते नहीं हैं। इसलिए अपने बदन, सेक्स, और रिश्तों की जो पढ़ाई ब्रिटेन में होती है, और जिसकी उम्र अब बढ़ाकर 9 बरस की जा रही है, वैसी कोई पढ़ाई हिन्दुस्तान में किशोरावस्था में पहुंचने पर भी नहीं होती। नतीजा यह होता है कि लडक़े-लड़कियां मां-बाप बनने के लिए शारीरिक रूप से तैयार हो जाते हैं, सेक्स उनकी एक स्वाभाविक जरूरत बन जाता है, लेकिन उन्हें इसकी जानकारी जरा भी नहीं रहती। नतीजा यह होता है बहुत से लोग असुरक्षित सेक्स में फंस जाते हैं, बहुत से नाबालिग सेक्स-वीडियो में फंस जाते हैं, और फिर ब्लैकमेलिंग से लेकर तमाम दूसरे किस्म के जुर्म के शिकार हो जाते हैं।
ऐसी हालत रहने पर भी हिन्दुस्तान में आज बच्चों और किशोरों को, छात्र-छात्राओं को, किसी को भी देह की शिक्षा देने पर समाज का एक दकियानूसी तबका झंडे-डंडे लेकर उठ खड़ा होता है। यह तबका हिन्दुस्तान की एक इतिहास में कभी न रही हुई ऐसी संस्कृति का हवाला देता है जिसमें मानो सेक्स रहा ही न हो। इनके तेवरों का नतीजा यह होता है कि नई पीढ़ी के बदन सेक्स के लायक हो जाते हैं, वे सेक्स में उलझ जाते हैं, लेकिन उन्हें इसके बारे में कोई वैज्ञानिक और सामाजिक समझ नहीं दी जाती। जिन नाबालिग बच्चों को सेक्स में नहीं उलझना चाहिए था, उनके सामने भी सीखने का अकेला जरिया पोर्नोग्राफी रह जाता है, आसपास के ऐसे मुजरिम रह जाते हैं जिनकी कि बच्चों से सेक्स में दिलचस्पी रहती है, आसपास के अपने से उम्र में कुछ बड़े लोग रह जाते हैं जो कि आसानी से बरगलाकर अपने से छोटे लोगों को सेक्स की तरफ धकेल देते हैं या खींच लेते हैं।
किसी भी देश या समाज को पाखंड में जीना छोड़ देना चाहिए। लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि आज की पीढ़ी कौन से युग में जी रही है, उस पर कौन से प्रभाव हैं, प्रकृति ने नई पीढ़ी के बदन में किस उम्र से कैसी जरूरतें पैदा करना शुरू कर दिया है। इसके साथ-साथ आज इंटरनेट की मेहरबानी से पूरी दुनिया एक गांव की तरह होकर रह गई है, और सोशल मीडिया के तरह-तरह के प्लेटफॉर्म तमाम बच्चों को बाकी दुनिया से रूबरू करवा देते हैं। नतीजा यह होता है कि एक देश के टीनएजर्स दूसरे देश के किशोर-किशोरियों के सामने सांस्कृतिक चुनौतियां पेश करते हैं, और कहीं जवाबी रील बनने लगती हैं, तो कहीं जवाबी टिकटॉक।
ऐसे में बच्चों को उनके बदन और दूसरे के साथ संबंधों की बुनियादी शिक्षा से बचाकर इस पीढ़ी को एक खतरे के अलावा और कुछ नहीं दिया जा रहा। बच्चों के तन और मन तो अपने वक्त पर जवान हो जाएंगे, लेकिन तब तक उनकी समझ अगर समाज की कोशिश से अनजान बनाकर रखी जाएगी, तो वे बदन और रिश्तों के खतरों को भी नहीं समझ पाएंगे, और हिन्दुस्तान में आज यह बात बहुत बड़े पैमाने पर नुकसान कर रही है।
दकियानूसी राजनीतिक विचारधारा को जहां मौका लगता है, वह समाज से प्रगतिशील समझ की चीजों को पीछे धकेलने लगती है। ब्रिटिश सरकार की इस ताजा नीति की जमकर आलोचना भी हो रही है, और यह बात भी साफ है आज वहां जिस उम्र के बच्चों को इस शिक्षा की जरूरत है, उससे कम से कम 50 बरस अधिक बड़े सांसद अपनी सरकार पर दबाव डालकर यौन शिक्षा को 9 बरस की उम्र तक रोक रहे हैं। यह बात तय है कि आधी सदी पहले की तन-मन की सामाजिक जरूरतें अलग थीं, आज कम्प्यूटर-मोबाइल, और सोशल मीडिया के युग में ये जरूरतें एक अलग ही दर्जे की हो गई हैं। राजनेता हर मामले में फैसले लेने के लिए सबसे काबिल नहीं रहते हैं। खासकर शिक्षा नीति से तो नेताओं को अपने आपको दूर रखना चाहिए क्योंकि यह सिर्फ विशेषज्ञों की समझ की बात है, और उन्हीं के फैसलों पर इन्हें छोडऩा चाहिए। राजनेताओं को जिंदगी के हर दायरे के विशेषज्ञ मान लेने से ऐसे तमाम दायरों का कुछ या काफी हद तक नुकसान होगा, उससे बचना चाहिए, और आने वाली पीढ़ी को समझदार और सावधान बनने से रोकना नहीं चाहिए।
अमरीका की समाचार पत्रिका, टाईम, ने वहां के कई शोधकर्ताओं और विशेषज्ञों से बात कर यह नतीजा निकाला है कि वहां अल्पसंख्यक कहे जाने वाली नस्लों, रंगों, और राष्ट्रीयता की महिलाओं पर परिवार नियोजन के लिए दबाव अधिक रहता है। अमरीका में आबादी कोई बड़ी दिक्कत नहीं है, और वहां कागजों पर संवैधानिक अधिकार पूरी तरह बराबर हैं, लेकिन फिर भी जगह-जगह से नस्लीय भेदभाव की शिकायतें आती हैं, और काले लोग, या लैटिन, मैक्सिकन, दूसरे अश्वेत समुदाय भेदभाव अधिक झेलते हैं। योरप के एक देश ग्रीनलैंड के बर्फीले इलाके में रहने वाले एक समुदाय की आबादी बढऩे से रोकने के लिए दूर राजधानी से अफसरों ने यह तय किया था कि इस इलाके की छोटी-छोटी स्कूली लड़कियों के बदन में भी गर्भनिरोधक फीट कर दिए जाएं। 1960 और 70 के दशक में एक समुदाय की आबादी को रोकने के लिए अफसरों और डॉक्टरों ने यह तय किया था, और छोटी-छोटी नाबालिग लड़कियों के मां-बाप की जानकारी के बिना, इन लड़कियों को कुछ समझाए बिना, उनके बदन में गर्भनिरोधक फीट कर दिए गए थे। अब बीते कुछ बरसों में जबसे इस शादी का भांडाफोड़ हुआ है, वहां की सरकार इस मामले की जांच करा रही है। दूनिया के कुछ और देशों में भी आदिवासी, मूलनिवासी, या दूसरे कमजोर तबकों के साथ ताकतवर, शहरी, शिक्षित तबके ऐसा ही करते आए हैं। अब अमरीका से आई यह खबर इसलिए कुछ चौंकाती है कि वहां की भाषा में जो लोग अल्पसंख्यक हैं, उनके खिलाफ अगर वहां की गोरी और ताकतवर आबादी इस तरह के भेदभाव की हिंसा करते आई है, तो वह अमरीका के अपने मानवाधिकार के दावों के खिलाफ जाने वाली बात है।
लेकिन जरा सी देर के लिए यह सोचें कि डॉक्टर तबका ऐसा करता क्यों होगा? क्या इसके पीछे डॉक्टरों की यह सामाजिक जागरूकता और जवाबदेही भी हो सकती है कि कैसे उनके पास आने वाली महिलाएं अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति के बावजूद और बच्चे पैदा करने पर रोक नहीं लगा रही हैं? डॉक्टरों में हर कोई नस्लवादी या गैरजिम्मेदार हों ऐसा भी जरूरी नहीं है। दूसरी तरफ हर डॉक्टर को अपने देश के अल्पसंख्यक तबकों के साथ ऐसा बर्ताव करने से कोई फायदा होता हो यह भी जरूरी नहीं है। इसलिए हो सकता है कि कुछ डॉक्टर अपने मरीज के भले के लिए, उसके पारिवारिक और सामाजिक भले के लिए भी उसे गर्भनिरोधकों के इस्तेमाल के लिए प्रेरित करते हों। जिस अमरीका से यह शोध निष्कर्ष सामने आया है, उस अमरीका में भी यही तमाम तबके अधिक गरीबी के शिकार हैं। ऐसे में उन्हें कम बच्चे की सलाह देने के पीछे कोई डॉक्टरी विशेषज्ञता होना जरूरी नहीं रहता, सामान्य समझबूझ और सद्भावना से भी ऐसी सलाह दी जा सकती है।
अब हिन्दुस्तान में शाहरूख खान जैसे लोग सरोगेसी से तीसरा बच्चा पाते हैं, लेकिन उसे पालने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं है। दूसरी तरफ किसी गरीब परिवार में तीसरे बच्चे उस परिवार पर बहुत बड़ा बोझ रहते हंै, तब तक जब तक कि वे पढ़-लिखकर या कोई हुनर सीखकर किसी काम-धंधे में न लग जाएं। लेकिन हिन्दुस्तान के आम मुस्लिम परिवार की गरीबी तीसरे बच्चे की वकालत नहीं कर सकती। और चूंकि देश में दलित, आदिवासी, मुस्लिम ऐसे तबके हैं जिनमें गरीबी अधिक है, तो यह बात जाहिर है कि ऐसे तबकों को परिवार नियोजन की, नसबंदी या गर्भनिरोधकों की जरूरत आर्थिक और सामाजिक कारणों से भी अधिक है। यह बात पूरे देश पर आबादी के बोझ से कहीं अधिक इन परिवारों के अपने बोझ से जुड़ी हुई अधिक है कि क्या ये सचमुच एक और बच्चे का खर्च उठा सकते हैं? क्या ये इतने बच्चों के खानपान, पढ़ाई-लिखाई, इलाज, और व्यक्तित्व विकास का खर्च ढो सकते हैं ?
अमरीका की पूरी शोध को देखे बिना हम इस बात को लिख रहे हैं, इसलिए इसे अमरीका के इस निष्कर्ष से जोडक़र न देखा जाए। इसे दुनिया के उन तमाम देशों पर लागू करके देखा जाए जहां पर गरीबी हैं, या जिस धर्म और जाति के लोग, रंग और नस्ल के लोग अधिक गरीब हैं, उनसे जोडक़र देखा जाए। हमारा ख्याल है कि डॉक्टर भी अपने मरीज के बदन के साथ-साथ उसकी पारिवारिक और सामाजिक स्थिति को भी देखते हैं। हम अपने आसपास ही ऐसे डॉक्टर देखते हैं जो मरीज की आर्थिक स्थिति देखते हुए कई बार कम दाम की दवाईयां लिखते हैं, कम खर्चीले इलाज बताते हैं। अब ऐसे गरीब मरीजों के धर्म और उनकी जाति को लेकर एक निष्कर्ष यह भी निकल सकता है कि वे दलित-आदिवासी, या धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव कर रहे हैं। लेकिन अगर उनकी फिक्र मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए तो है, जैन अल्पसंख्यकों के लिए नहीं है, तो इसकी एक वजह यह हो सकती है कि जैन समाज आमतौर पर संपन्न रहता है, उसे परिवार को छोटा रखने की नसीहत देना उतना जरूरी नहीं रहता, जितना कि एक गरीब परिवार को देना रहता है।
आज हिन्दुस्तान जैसे देश में कुछ लोग मुस्लिमों की आबादी बढऩे के आंकड़ों को लेकर एक भयानक तस्वीर दिखाने की कोशिश करते हैं। आंकड़े अपने आपमें कुछ नहीं बोलते, उन्हें अलग-अलग तरीकों से इस्तेमाल करके उनसे कई तरह के मतलब निकाले जाते हैं। इनमें से एक भारत में मुस्लिम आबादी की दहशत पैदा करने का भी है। अब ऐसी किसी मुस्लिम-विरोधी नीयत के बिना भी अगर कोई आमतौर पर, अमूमन गरीब मुस्लिम समाज को कम बच्चों की सलाह दे, तो वह साम्प्रदायिक मानने के बजाय उस समुदाय के भले की सलाह मानना बेहतर होगा क्योंकि कम बच्चों का ख्याल मुस्लिम परिवार बेहतर तरीके से रख सकेंगे, उन्हें अधिक दूर तक आगे बढ़ा सकेंगे। दूसरी तरफ मुस्लिम आबादी का मुकाबला करने के लिए जो हिन्दू नेता हर हिन्दू परिवार को चार, छह, या दस तक बच्चे पैदा करने का फतवा देते हैं, वे हिन्दुओं के दुश्मन के अलावा और कुछ नहीं है क्योंकि आज बहुत संपन्न परिवार भी दस बच्चों का खर्च नहीं उठा सकते, और आम परिवार में दस बच्चों का मतलब हर बच्चे का कुपोषण का शिकार होना, और अधिक से अधिक एक मजदूर बनने जितना काबिल बनना हो जाएगा।
जो लोग आबादी बढ़ाने की बात करते हैं, या बढ़ाते हैं, वो खुद अपना नुकसान सबसे अधिक करते हैं। अमरीका में भी जो समुदाय आज गोरों के मुकाबले गरीब हैं, उनमें अधिक बच्चे पैदा करने से उनका कुछ भला नहीं होता है। अब वहां के डॉक्टर अगर किसी साम्प्रदायिक आधार पर इन नस्लों की आबादी बढऩे देने के खिलाफ हैं, तो वह एक अलग जांच और कार्रवाई का मुद्दा है। हम इस खबर की बड़ी सीमित जानकारी के आधार पर आज सिर्फ इतना कहना चाहेंगे कि जो तबके कमजोर हैं, उन्हें बहुत अधिक बच्चे पैदा करने के खिलाफ समझाना उन तबकों का नुकसान करना नहीं है, उनका फायदा करना ही है। अब ऐसे फायदे के साथ-साथ अगर कोई साम्प्रदायिक या नस्लभेदी नजरिया है, तो वह एक अलग बात है, लेकिन हम आमतौर पर आर्थिक रूप से कमजोर किसी भी समाज में बच्चों की सीमित संख्या के हिमायती हैं, और इसे उस समुदाय के खिलाफ साजिश मानना गलत होगा।
दुनिया में अगर अपनी ही खरीदी हुई किताबों से ज्ञान हासिल करना रहता, उन्हें पढऩा रहता, तो लोग बहुत जरा सा पढ़ पाते। सबसे गरीब से लेकर सबसे संपन्न देशों तक अधिकतर लोगों का किताब पढऩा लाइब्रेरी पर निर्भर करता है। सार्वजनिक लाइब्रेरी जैसे-जैसे घट रही हैं, वैसे-वैसे लोगों की पढऩे की आदत कम हो रही है। और अब तो दुनिया के कम सभ्य और कम समझदार देशों में लाइब्रेरी की जरूरत ही नहीं समझी जा रही है। फिर भी कुछ घंटों या दिनों के लिए किताबें लेकर पढऩा, एक-दूसरे से उधार लेकर पढऩा अभी भी दुनिया में बड़े पैमाने पर चलन में है, और इसी निजी मालिक की किताब के मुकाबले लाइब्रेरी की किताब शायद सौ-सौ गुना इस्तेमाल होती है।
ऐसा इसलिए भी होता है कि जिस किताब की जरूरत रहती है, लाइब्रेरी से उस वक्त उसे ही लिया जाता है। अब पश्चिम में एक नया चलन शुरू हो रहा है अपनी जरूरत के किसी भी सामान को सीमित समय के लिए किराए पर लेना। यह एक किस्म से सामानों की लाइब्रेरी है। अभी ब्रिटिश अखबार द गार्डियन ने वहां की एक रिपोर्ट छापी है जिसमें बच्चों के जूते-कपड़ों से लेकर मशीनी औजारों तक, और रसोई के उपकरणों तक तमाम किस्म की चीजें किराए पर मिल रही हैं, और लोग उनका भरपूर इस्तेमाल भी कर रहे हैं। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि कुछ लोग अगर घूमने के लिए अपनी जगह से बहुत अधिक ठंडी या गर्म जगह पर जा रहे हैं, तो उसके लिए अलग तरह के कपड़े, जूते, और बाकी तमाम चीजों की जरूरत पड़ती है। अब इन्हें अगर खरीद लिया जाए तो हफ्ते-दस दिन के बाद उनका कोई इस्तेमाल नहीं रह जाता, और वे सामान बोझ बनकर रह जाते हैं। उपकरणों का इस्तेमाल तो बहुत ही कम होता है, और उन्हें भाड़े पर लाकर काम चलाना एक समझदारी की बात होती है। यह कुछ उसी किस्म का है कि अपनी डिजिटल सामग्री को रखने के लिए हार्डडिस्क खरीदने के बजाय इंटरनेट पर क्लाउड-स्पेस किराए पर ले लिया जाए, और जितनी सामग्री, जितने समय तक वहां रखी जाए, उसके किराए का ही भुगतान किया जाए। यह कुछ वैसा ही है जैसा कोल्ड स्टोरेज में आलू-प्याज, या दूसरी सब्जियां रखने वाले लोगों के साथ होता है, अपने कुछ हफ्तों या महीनों के लिए गोदाम बनाने के बजाय कोल्ड स्टोरेज किराए पर लेते हैं।
मैंने कुछ बरस पहले अपने इसी कॉलम में ‘दस का दम’ नाम की एक कल्पना लिखी थी, लेकिन उस पर आगे कोई काम नहीं हो पाया। सोच यह थी कि लोग अपने आसपास के दस परिवारों का जिम्मा लें कि उनके घरों पर बिना जरूरत रह गए सामानों को दान पर देने की प्रेरणा उन्हें दें, उन सामानों को लेकर किसी एक जगह इकट्ठा करें, और फिर उन्हें जरूरतमंद लोगों को बांट दें। हर परिवार में बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक के इस्तेमाल के ऐसे बहुत से सामान रहते हैं, जो कि आगे जाकर बेकार रह जाते हैं। दूसरी तरफ समाज के बहुत से जरूरतमंद लोगों को इन चीजों की जरूरत रहती है। ऐसे में एक औपचारिक या अनौपचारिक संगठन की शक्ल में अगर लोग महीने में कुछ घंटे अपने परिचित दस-दस परिवारों से ऐसे सामान जुटाकर उन्हें एक साथ कहीं रखकर जरूरतमंद लोगों को दे सकें, तो गरीबों की बहुत सी जरूरत भी पूरी होगी, और धरती पर नए सामानों का बोझ भी बढऩा थमेगा। मेरी कल्पना यह थी कि दस-दस लोगों के ऐसे समूह बनते जाएं, आगे बढ़ते जाएं, और जिस तरह आज मार्केटिंग नेटवर्क के सामानों को खपाने के लिए लोगों की एक चेन बनाई जाती है, वैसी चेन नेक काम के लिए भी बनाई जा सकती है।
एक बार अगर कोई भरोसेमंद संस्था ऐसा करके दिखा दे, तो बहुत से लोग ऐसे मिलेंगे जो कि अपने गैरजरूरी सामान लाकर छोडऩे भी लगेंगे। संस्था और संगठन का फायदा यह होता है कि जरूरतमंद लोगों की शिनाख्त आसानी से, और बेहतर तरीके से हो सकती है। यह सिलसिला शुरू करने के लिए बस दस उत्साही लोगों की जरूरत है, जो कि अपने आसपास के दस, या अधिक परिवारों को सहमत कराकर उनसे उनके लिए गैरजरूरी हो चुकी चीजें ले सकें। धीरे-धीरे इनमें से हर कोई अपने नीचे की, दस-दस लोगों की एक लाईन तैयार कर सकते हैं, और जिस तरह नेटवर्क मार्केटिंग के लोग बढ़ावा देते हैं, वैसे ही अधिक समर्पित समाजसेवी ऐसा ही बढ़ावा दे सकते हैं।
आज धरती पर सामानों की बढ़ती खपत, धरती पर कार्बन का बोझ बढ़ा रही है। नया सामान बनने में चीजें भी लगती हैं, और ऊर्जा भी लगती है, प्रदूषण भी होता है। दूसरी तरफ पुराना सामान कचरे या घूरे में जाकर धरती पर बोझ बनता है। समझदारी इसी में है कि किसी सामान का अधिक से अधिक बार इस्तेमाल कैसे किया जाए? ऐसे में एक तरफ तो हमारा सुझाया जा रहा ‘दस का दम’ जैसा एक खयाल है, दूसरी तरफ ब्रिटेन की आई हुई यह खबर है जिसमें सामानों की लाइब्रेरी की बढ़ती हुई लोकप्रियता बताई गई है। आज भी हिन्दुस्तान में स्कूलों के फैंसी ड्रेस के लिए बच्चों के तरह-तरह के कपड़े बाजार में किराए पर मिलते हैं, और दावतों में जाने के लिए बड़ों के महंग कपड़े भी। धरती पर सामानों का बोझ सीमित रखने के लिए यह एक बड़ा योगदान हो सकता है कि लोग कुछ देर की जरूरत के लिए खरीदने पर मजबूर न हों। क्योंकि एक बार के इस्तेमाल के लिए खरीदे गए सामान बाद में रखने की भी दिक्कत रहती है, जगह भी लगती है, पड़े-पड़े सामान खराब भी होते हैं, और फैशन के सामानों के साथ तो यह भी रहता है कि उनकी फैशन बदल जाती है। इसलिए किसी एक सामान के बनाए जाने के बाद उसका अधिक से अधिक बार इस्तेमाल किस तरह हो सकता है, इसकी योजना लोगों को बनानी चाहिए, चाहे यह समाजसेवा के नजरिए से चीजों को दान में जुटाकर जरूरतमंदों में बांटकर की जाए, या फिर किराए पर मुहैया कराकर। जहां तक धरती और पर्यावरण की बात है उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता कि इन दोनों में से किस तरीके से नए सामान बनना थम रहे हैं, और पुराने सामानों का घूरे पर जाना थम रहा है।
जिन लोगों के पास कुछ खाली वक्त हो, दोस्तों में से किसी एक के पास एक-दो खाली कमरे हों, या कि कोई गोदाम हो, तो अपने-अपने स्तर पर वे सामान जुटाकर, उसका अधिक इस्तेमाल सुनिश्चित करके धरती का, मतलब है कि अपना खुद का भला कर सकते हैं। धरती का क्या है वह तो तमाम इंसानों के चले जाने के बाद भी बनी रहेगी, और पर्यावरण बर्बाद होने से इंसान खत्म होंगे, धरती तो बची रहेगी।
मेरे एक पुराने अखबारनवीस सहयोगी ने हमारे बड़े लंबे साथ की वजह से सम्मान जताते हुए एक बार एक बात कही थी। उन्होंने कहा था कि जब किसी खबर को लेकर मन में बहुत बड़ी दुविधा रहती है कि क्या किया जाए, क्या करना चाहिए, तो वे यह कल्पना करते हैं कि वैसी दुविधा अगर मेरे सामने होती, तो मैंने क्या किया होता? और कुछ पल में उन्हें सही राह दिख जाती है। अब यह बात एक बहुत ऊंचे दर्जे के सम्मान की है, जिसे पचाना भी मेरे लिए आसान नहीं है। और वैसे तो आज इस जिक्र का भी कोई खास मकसद नहीं है, सिवाय एक बात के कि जब मेरे सामने लिखने को किसी मुद्दे की कमी रहती है, और पिछले एक बरस से यूट्यूब के लिए कैमरे के सामने बोलने को जब कोई मुद्दा नहीं सूझता है, तो मैं सुप्रीम कोर्ट की तरफ देखता हूं। सुप्रीम कोर्ट से जजों के किसी फैसले से ही मुद्दा नहीं सूझता, बल्कि वहां पहुंचे हुए मामलों से, दोनों तरफ के वकीलों के तर्कों से, कई चीजों से कोई विषय सूझता है। आज इस कॉलम को लिखने के लिए कुछ ऐसा ही हुआ है। बीच में कई हफ्ते यह कॉलम लिखना नहीं हो पाता, क्योंकि सोचने-विचारने की कोई बात नहीं सूझती।
सुप्रीम कोर्ट में अभी एक मामला पहुंचा है जिसमें निचली अदालत, और हाईकोर्ट, दोनों का फैसला एक सरीखा था, और उसके खिलाफ मुकदमा हारने वाले ने सुप्रीम कोर्ट का रूख किया। पति-पत्नी के बीच झगड़े और घरेलू हिंसा की बात है, और पत्नी ने पुलिस में शिकायत की, निचली अदालत में मामला चला, वहां से पति को एक बड़ा जुर्माना सुनाया गया, और यह जुर्माना हर्जाने-मुआवजे की शक्ल में पत्नी को मिलना था। लेकिन पति के वकीलों का तर्क था कि यह जुर्माना पति की आर्थिक हैसियत के आधार पर नहीं लगना चाहिए, यह घरेलू हिंसा किस दर्जे की थी, उस आधार पर लगना चाहिए। न तो निचली अदालत ने यह तर्क माना, और न हाईकोर्ट ने, अब सुप्रीम कोर्ट के दो जज इस मामले को सुन रहे हैं, और यह तय होगा कि शादीशुदा जोड़े में जो हिंसक साथी है, उसकी आर्थिक क्षमता के आधार पर फैसला दिया जाए, या हिंसा की शिकार साथी को हुए नुकसान के आधार पर?
मैं बरसों से इस बात को लिखते चले आ रहा हूं कि किसी भी जुर्म में सजा या जुर्माना तय करते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि मुजरिम, और जुर्म के शिकार के बीच दर्जे का क्या फर्क है। हिन्दुस्तान जैसी स्थितियों में देखें तो यह दर्जा औरत और मर्द के फर्क का सबसे पहले होता है जो कि इस मामले में भी दिख रहा है। शादीशुदा जोड़ों में आमतौर पर महिला हिंसा की शिकार होती है, और समाज और परिवार में अपनी कमजोर स्थिति की वजह से, शारीरिक रूप से पुरूष से कमजोर होने की वजह से वह मार खाती ही है, महिला पुरूष को मारे, ऐसा कम ही होता है। इसलिए औरत और मर्द एक पैमाना है दर्जे के फर्क का। दर्जे के फर्क का दूसरा पैमाना भारत में जाति व्यवस्था है, सवर्ण कही जाने वाली जातियां, दलित-आदिवासी समुदायों पर जुल्म करने की अधिक ताकत रखती हैं, और इसीलिए देश में एक बड़ा जायज कानून बनाया गया है जिससे एससी-एसटी समुदाय पर गैर एससी-एसटी के जुल्म होने पर अधिक कड़ी सजा का प्रावधान है। आज के भारत को देखें तो धार्मिक अल्पसंख्यक लोग भी धार्मिक बहुसंख्यक लोगों की हिंसा के शिकार होने का खतरा उठाते हैं, और जगह-जगह जहां भी भीड़त्या होती है, उनमें दलित-आदिवासी, या अल्पसंख्यक ही आमतौर पर शिकार होते हैं। अब भेदभाव के एक और बड़े पैमाने की चर्चा कर ली जाए, संपन्न और विपन्न के बीच ताकत का बहुत बड़ा फासला रहता है। एक दौलतमंद जब किसी गरीब पर जुल्म करते हैं, तो गरीब को इंसाफ मिलने की गुंजाइश बड़ी कम रहती है।
हमने बार-बार इस बात को लिखा है, और इस कॉलम में भी मैंने कई बार यह लिखा है कि पैसेवाले किसी गरीब के खिलाफ कोई जुर्म करें, जुल्म करें, या ऊंचे ओहदे पर बैठे हुए लोग किसी कमजोर के खिलाफ कुछ करें, तो उसके लिए अलग से कड़ी सजा का इंतजाम होना चाहिए, अलग से मोटे जुर्माने का भी। अभी इसी हफ्ते हमने अपने अखबार या यूट्यूब चैनल पर इस बात को दोहराया भी है कि बलात्कार की शिकार अगर कोई गरीब लडक़ी या महिला रहती है, तो उसमें बलात्कारी की दौलत का एक हिस्सा उसे मिलना चाहिए, जो कि बलात्कारी की बीवी, या उसके बच्चों के हिस्से के बराबर का रहे। ऐसा होने पर ही उस बलात्कारी को अपने परिवार के भीतर भी सजा मिलेगी, जब पारिवारिक सदस्यों के संभावित हिस्से से कुछ दौलत कम हो जाएगी। और ऐसा पर्याप्त मुआवजा बलात्कार की शिकार को मिलने से उसकी कुछ हद तक आर्थिक भरपाई हो सकेगी।
हमारा यह ख्याल है कि विदेश में बसा हुआ यह पति अपनी बड़ी दौलत के दम पर सुप्रीम कोर्ट गया जरूर है, लेकिन वहां भी उसकी हार होगी। घरेलू हिंसा में हिंसा कितनी हुई है, इसके साथ-साथ यह बात अनिवार्य रूप से मायने रखती है कि हिंसा करने वाले व्यक्ति की मुआवजा देने और भरपाई करने की ताकत कितनी है। ऐसे में किसी व्यक्ति पर लगाए जाने वाले जुर्माने की रकम अगर कानून में तय कर ली जाएगी, तो वह बड़ा ही नाजायज होगा। किसी के ओहदे, उसकी ताकत, और उसकी आर्थिक संपन्नता, इन सभी चीजों को देखकर इसके हिसाब से ही उस पर जुर्माना लगाया जा सकता है। एक मजदूर अपनी बीवी को पीटने पर शायद कुछ हजार रूपए जुर्माने को भुगते, लेकिन एक करोड़पति अपनी बीवी को पीटने पर कुछ हजार देने लायक नहीं रहता, उस पर जुर्माना उसकी संपन्नता के अनुपात में रहना चाहिए। इसी तरह हमने पहले भी कई बार इस बात पर लिखा है कि अगर कोई अरबपति भूमाफिया किसी गरीब दलित की जमीन पर कब्जा करे, तो भारत की जाति व्यवस्था के हिसाब से भी जुर्माना तय होना चाहिए, और संपन्नता के फासले के आधार पर भी। बहुत संपन्न के खिलाफ तो किसी मामले के खड़े होने की गुंजाइश भी भारतीय लोकतंत्र में कम रहती है, इसलिए किसी तरह अगर मामला अदालती फैसले तक पहुंचे, तो उस पर जुर्माना तगड़ा लगना चाहिए, करोड़पति-अरबपति को सस्ते में छोडऩा उनकी शान के भी खिलाफ होगा, इसलिए गरीब को इंसाफ दिलाने के लिए न सही, दौलतमंद की सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए जुर्माना तो मोटा ही लगना चाहिए।
देखते हैं अदालत में इस मामले पर क्या फैसला होता है, प्राकृतिक न्याय की हमारी साधारण समझ हिंसा के दर्जे से ऊपर, संपन्नता के आधार पर जुर्माने की वकालत करती है।
पश्चिमी मीडिया की खबरें इस बात से पटी हुई हैं कि किस तरह अमरीका इजराइली हमले के शिकार फिलीस्तीन के गाजा पर पैराशूट से खाना गिरा रहा है। अमरीकी एयरफोर्स की ली गई ऐसी तस्वीरें फैलाई जा रही हैं, और यह भी बताया जा रहा है कि गाजा के किनारे अस्थाई बंदरगाह बनाकर अमरीका वहां से भी मानवीय मदद भेजने की कोशिश कर रहा है। पिछले दो हफ्ते ऐसी खबरों से भरे हुए हैं कि अमरीका इजराइल से इस बात को लेकर खफा है कि वह फिलीस्तीन में मानवीय मदद जाने नहीं दे रहा है, और संयुक्त राष्ट्र संघ की एजेंसियों का कहना है कि फिलीस्तीन में लोग अब भूख से मरने की कगार पर हैं, और कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का कहना है कि अनगिनत फिलीस्तीनी बच्चे गाजा में भूख से मर चुके हैं। ऐसे में इजराइल रफा नाम के उस सरहदी शहर पर फौजी कार्रवाई करने पर अड़ा हुआ है जहां पर गाजा के दस लाख से अधिक लोग शरणार्थी बनकर तम्बुओं में पड़े हुए हैं।
अमरीका एक तरफ तो इजराइल के साथ अपनी नाराजगी दिखा रहा है, उससे असहमति दिखा रहा है, और ये खबरें आ रही हैं कि गाजा से हजार मील दूर कतार के एयरफोर्स अड्डे पर अमरीकी वायुसेना के मालवाहक विमानों में भूखे गाजा पर बरसाने के लिए खाने को लादा जा रहा है जिसके बक्से पैराशूट से वहां गिराए जा रहे हैं। इसे कुछ दूसरे पश्चिमी देशों के साथ मिलकर एक बहुराष्ट्रीय वायुसेना-अभियान की तरह चलाया जा रहा है, और अमरीका यह भी गिना रहा है कि वह गाजा के मलबे पर 40 हजार लोगों के लिए खाने को तैयार पैकेट गिरा रहा है। भूख का हाल यह है कि इसी हफ्ते पानी में गिर गए खाने के बक्सों को निकालते हुए गाजा में 12 लोग डूबकर मर गए, और 6 लोग खाने पर झपटती हुई भीड़ के पैरोंतले कुचलकर मारे गए। ऐसे में इजराइल रफा के शरणार्थी शिविर पर फौजी कार्रवाई के लिए अड़ा हुआ है, जबकि अमरीका इसे गलत करार दे रहा है।
अब तक की इन बातों से लोगों को ऐसा धोखा हो सकता है कि अमरीका में एकाएक तथाकथित इंसानियत आ गई है, और अब वह समंदर के रास्ते, हवाई जहाजों से फिलीस्तीन में खाना भेज रहा है। लेकिन इस गलतफहमी या खुशफहमी को खत्म होने में अधिक वक्ता नहीं लगा। दो दिन पहले 29 मार्च को यह खबर आई कि अमरीका ने इजराइल को नई फौजी मदद मंजूर की है, और दो-दो हजार पौंड के 18 सौ बम, और पांच सौ पौंड के 5 सौ बम इजराइल के लिए और मंजूर किए हैं। इजराइल की सारी गुंडागर्दी सिर्फ अमरीकी मदद पर चलती है, और एक तरफ अमरीका भूख से मरते गाजा पर खाना बरसाने का नाटक कर रहा है, और दूसरी तरफ फिलीस्तीन पर बरसाने के लिए इजराइल को और बम दिए जा रहा है। मतलब यह कि दो-दो हजार पौंड के 18 सौ बम गाजा का जो हाल करेंगे, उसके बाद अमरीका को वहां खाना बरसाने की जरूरत भी नहीं रहेगी, क्योंकि वहां इंसान भी नहीं बचेंगे।
दो-तीन हफ्ते पहले ही मैंने फेसबुक पर लिखा था कि अमरीका एक तरफ इजराइल को 10 लाख छुरे भेज रहा है, और फिलीस्तीन को मरहम की एक हजार ट्यूब। और पिछले हफ्ते-दस दिन में यह बात सही साबित हुई कि भूखों के लिए खाना पहुंचाने के नाटक से अपने लिए शोहरत और हमदर्दी, साख और वाहवाही जुटाने वाले अमरीका ने इजराइल के हाथ इतने मजबूत कर दिए हैं कि वह गाजा की बाकी बची तमाम इमारतों को जमीन से मिला सकता है। आज अमरीका की हालत यह है कि राष्ट्रपति जो बाइडन के इस फैसले का विरोध अमरीका के बहुत से इंसाफपसंद लोग कर रहे हैं, और तो और खुद बाइडन की डेमोक्रेटिक पार्टी के बहुत से नेता और सांसद इसके खिलाफ हैं कि अमरीका इस दर्जे की जारी इजराइली गुंडागर्दी में उसके हाथ मजबूत करने के लिए बम भेजे। दरअसल अमरीका के साथ-साथ बाकी दुनिया में भी अमनपसंद लोग इस बात पर हक्का-बक्का हैं कि पिछले बरस 7 अक्टूबर को एक फिलीस्तीनी आतंकी संगठन हमास के फौजी हमले में सैकड़ों इजराइलियों के कत्ल के बाद जवाब में इजराइल ने अब तक गाजा में 32 हजार से अधिक लोगों को मार डाला है, और पूरे गाजा शहर को मलबे में तब्दील कर दिया है। आधी से अधिक आबादी शरणार्थी शिविरों में पड़ी हुई है, और संयुक्त राष्ट्र संघ की युद्धविराम की दर्जन भर अपील भी इजराइल के खूनी हमलों को धीमा भी नहीं कर पा रही है।
अमरीका इन दिनों दो अलग-अलग मोर्चों पर उजागर हो रहा है। फिलीस्तीन पर इजराइली फौजी हमले में वह इजराइल को बम और फिलीस्तीनियों को फूड पैकेट देकर दुनिया में जाने किसको बेवकूफ बनाने की कोशिश कर रहा है। दूसरी तरफ रूस और यूक्रेन के मोर्चे को देखें, तो अमरीकी अगुवाई में पश्चिमी देशों के फौजी संगठन, नाटो की तरफ से जितनी फौजी और बाकी किस्म की रसद यूक्रेन को दी जा रही है, वह उसे रूस के हमलों के सामने डटाए रखने के ही काम आ रही है, बचाए रखने के काम नहीं आ रही। अमरीका और योरप के बाकी देश जिस अंदाज में यूक्रेन का साथ दे रहे हैं, उससे एक बात जाहिर है कि वे यूक्रेन को बचाना नहीं चाह रहे, वे रूस को खोखला करना चाह रहे हैं, और अपने इस मकसद के लिए वे कितने भी यूक्रेनी सैनिकों और नागरिकों की मौत देख रहे हैं, पूरे यूक्रेन को मलबे में तब्दील होते देख रहे हैं, और एक गैरबराबरी की जंग में नापतौल कर यूक्रेन की उतनी ही मदद कर रहे हैं जितने से वह मोर्चे पर डटे रहे। नतीजा यह है कि यूक्रेन के कंधों पर बंदूक रखकर पश्चिमी देश रूस पर हमला कर रहे हैं, और रूसी हमले को झेलने के लिए यूक्रेनी सीनों को सामने कर दे रहे हैं।
इस खतरनाक खेल को समझना चाहिए। अमरीका जिस तरह जानलेवा जख्म देने के लिए छुरे सप्लाई कर रहा है, और उसके बाद दुनिया के दिखावे के लिए मरहम भी भेज रहा है, उससे दुनिया के इतिहास में अच्छी तरह दर्ज इजराइल-समर्थक अमरीकी-वीटो मिट नहीं जाएगा। यह भी लगता है कि अमरीका के पास कुछ ऐसा खाना बचा हुआ होगा, जो सडऩे वाला होगा, और उसे गाजा पर बरसाकर अमरीका अपने घूरों का बोझ बढ़ाने से बच रहा होगा। अमरीका की सारी हमदर्दी को, चाहे वह गाजा हो, चाहे यूक्रेन, इस हिसाब से ही समझने की जरूरत है। इजराइल की सारी गुंडागर्दी दुनिया के नक्शे पर बाकी देशों के बीच उसकी मौजूदगी की वजह से मिलने वाली अमरीकी मदद और उकसावे से चलती है, और उसमें ताजा इजाफा करने के लिए अमरीका ने बमों के साथ-साथ फाइटर जेट भी दिए हैं। अभी-अभी का यह ताजा फैसला बमों के साथ-साथ फाइटर जेट भी इजराइल भेज रहा है, और अमरीका को तो चाहिए कि बेघर हो चुके, मां-बाप खो चुके फिलीस्तीनी बच्चों के लिए वह खिलौने के फाइटर प्लेन भी भेज दे, ताकि वह दुनिया के इतिहास में गिना सके कि उसने इजराइल को कम, और फिलीस्तीन को अधिक फाइटर प्लेन दिए थे। इस पूंजीवादी, विस्तारवादी, फौजी-आतंकी साजिश को न समझने वाले अमरीका को मदर टेरेसा भी मान सकते हैं जो कि बिना मां-बाप के रह गए, हाथ-पैर खो चुके फिलीस्तीनी बच्चों की सेवा के लिए फूड पैकेट लेकर गाजा में है।
(शीर्षक: दुष्यंत कुमार का लिखा हुआ)
पिछले कुछ हफ्तों के सुप्रीम कोर्ट को देखें तो लगता है कि केन्द्र और कई राज्य सरकारें अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में संविधान और कानून से लगातार टकरा रही हैं। राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार के जाने कितने ही फैसलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट को इन सरकारों को याद दिलाना पड़ रहा है कि वे कानून के खिलाफ काम कर रही हैं। ऐसा भी नहीं कि इन्हें अपने दायरे मालूम न हों, क्योंकि निर्वाचित नेता तो नासमझ और बदनीयत हो सकते हैं, लेकिन लगातार काम करने वाले नौकरशाह और बड़े-बड़े सरकारी वकील तो कानून को जानते हैं, और वे पहले से बता सकते हैं कि कौन से फैसले अदालती कटघरे में खड़े नहीं हो सकेंगे। इसके बावजूद अगर सरकारें ऐसे फैसले लेती हैं, ऐसे काम करती हैं, तो यह जाहिर है कि वे अदालत से इन कामों के रद्द या खारिज होने के पहले तक के वक्त का इस्तेमाल करती हैं। चुनावी बॉंड का मामला ऐसा ही रहा, और कई राज्यों की सरकारों के बहुत से फैसले ऐसे ही रहे जिनके बारे में अदालत से खारिज होना तय था, लेकिन उसके पहले तक उनका बेजा इस्तेमाल ही पूरा मकसद था।
अब ऐसा लगता है कि भारतीय लोकतंत्र में कार्यपालिका, विधायिका, और न्यायपालिका नाम के जो तीन स्तंभ अलग-अलग बनाए गए थे, उनमें से कार्यपालिका किसी बिफरे हुए सांड की तरह नथुनों से फुंफकारते हुए, सींगों से हमला करते हुए जनहित को कुचल देने के लिए टूटी पड़ी है, और सुप्रीम कोर्ट है कि अपने काम के बाकी बोझ को किनारे रखकर इस सांड को सींगों से थामकर काबू में करने में लगा हुआ है। और तो और, चुनाव आयोग से लेकर राष्ट्रपति तक, राज्यपालों से लेकर विधानसभाध्यक्षों तक जो स्वतंत्र और स्वायत्त संस्थाएं होनी चाहिए, वे सारी की सारी सरकार के मातहत विभागों की तरह काम कर रही हैं। नौबत इतनी खराब हो गई है कि जनता को अब सिर्फ एक संस्था, अदालत की तरफ देखना पड़ रहा है, लेकिन यह लोकतंत्र इस नौबत के लिए बनाया नहीं गया था कि बाकी तमाम संस्थाएं गैरजिम्मेदारी करें, गलत करें, और सिर्फ अदालत उसे सुधारने का काम करे।
देश और प्रदेशों को देखें तो यह साफ है कि सरकारें ऐसे बहुत से फैसले ले रही हैं जिनके बारे में हम उसी वक्त से यह लिखते आए हैं कि वे अदालती सवालों को नहीं झेल पाएंगे, लेकिन सरकारें हैं कि बेझिझक और बेधडक़ होकर ऐसा ही काम करती जा रही है। कहीं आतंक के कानून का ऐसा इस्तेमाल किसी खास तबके की गिरफ्तारी के लिए किया जा रहा है, तो कहीं केन्द्र और राज्य सरकारों की जांच एजेंसियों का काम सत्ता को नापसंद लोगों की गिरफ्तारी तक सीमित रह गया है। राज्यों में भी छांट-छांटकर राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ मामले-मुकदमे दर्ज करने का काम चल रहा है। और सरकारें इस बेशर्मी के साथ ऐसे काम कर रही हैं कि यह भी लगता है कि क्या सरकारों को सचमुच ही कोई अधिकार होना चाहिए?
देश के कानून एकदम साफ हैं, और सरकारों को उनकी सीमाएं मालूम हैं, लेकिन सौ फीसदी गलत तरीके से काम करना जारी है, और सिर्फ निर्वाचित सरकारें नहीं, राज्यपाल और विधानसभाध्यक्ष भी ऐसे खराब और घटिया फैसले ले रहे हैं, कि उन्हें मालूम है कि अदालत उन्हें पलट देगी। लेकिन इसमें कुछ हफ्तों या महीनों का समय लगेगा, और उस वक्त का इस्तेमाल तोडफ़ोड़ करने, सत्ता पलटाने, दलबदल करवाने में किया जाता है। अदालती फैसलों से सरकारें कुछ भी नहीं सीख रही हैं, वे इस बात पर पूरी तरह अड़ी हुई हैं कि उन्हें अदालतों से टकराव लेना है, और मनमानी करनी है। सरकारें तो सरकारें, स्टेट बैंक जैसे सार्वजनिक संस्थान भी सुप्रीम कोर्ट के सामने बेशर्मी से हुक्मउदूली कर रहे हैं, और इसके चेयरमैन तक को अदालत का कोई डर नहीं है।
चुनावी बॉंड से लेकर पीएम केयर्स तक बहुत से ऐसे फंड हैं जिन्हें सरकार जनता की नजरों से दूर रखने पर अड़ी हुई है। छत्तीसगढ़ में तो सरकार ने एक जाति सर्वे करवाया, और उस रिपोर्ट को दो-दो राज्यपाल मानते रह गए, लेकिन किसी को दिया नहीं गया। जनता के पैसों और उन पैसों से किए गए काम का हिसाब भी देना नेता और पार्टियां नहीं चाहते। लोकतंत्र में जनता एकदम ही खारिज कर दी गई है, और जनहित, जनभावना, जनसरोकार जैसे शब्द मानो 21वीं सदी के भारत के इस तथाकथित अमृतकाल के शब्दकोश से निकाल ही दिए गए हैं। ये तमाम बातें लोगों के मन में सवाल खड़े करती, लेकिन ये मन धर्म और जाति की भावनाओं में घिरे हुए हैं, और उनकी बाकी समझ धीमी पड़ चुकी हैं।
जिस रफ्तार से दलबदल चल रहे हैं, और लोग थोक में दलबदल करके सदस्यता खोने से भी बच जा रहे हैं, इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अभी चार दिन पहले ही बड़ी हैरानी जाहिर की थी, देखना है कि अदालती जुबानी जमाखर्च किसी फैसले की शक्ल में पहुंच पाएगा या नहीं। इन दिनों देश में जो कुछ अच्छा होते दिख रहा है, वह सुप्रीम कोर्ट की मेहरबानी से चल रहा है, क्योंकि कई हाईकोर्ट तो पत्थरयुग और गुफाकाल के अंदाज में काम कर रहे हैं।
भारतीय लोकतंत्र को कुछ थमकर इस पर सोचने की जरूरत है जो कि एक फिल्म के गाने में पूछा गया था- ये कहां...., आ गए हम...
पंजाब में 2022 में वहां के एक लोकप्रिय गायक सिद्धू मुसेवाला का एक गिरोह ने साजिश के साथ बड़ी तैयारी से कत्ल कर दिया था। सिद्धू अपने मां-बाप का इकलौता बेटा था। अब उसके बूढ़े मां-बाप ने उसकी याद में, और अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए कृत्रिम गर्भाधान तकनीक से एक बेटे को जन्म दिया है। सिद्धू के 60 बरस के पिता बलकौर सिंह ने सोशल मीडिया पर बेटे के साथ अपनी फोटो पोस्ट की है, और कहा है कि सब स्वस्थ हैं। पंजाब में बड़े-बड़े गिरोह काम करते हैं, और उनके सरगना तिहाड़ जैसी जेल में रहकर भी अपना गिरोह चलाते हैं, या विदेश में रहकर भी। लेकिन पंजाब के ऐसे संगठित अपराध पर चर्चा उतनी अहमियत नहीं रखती जितनी अहमियत यह बात रखती है कि बुजुर्ग हो चुकी एक महिला किस तरह 58 बरस की उम्र में अपने बेटे की याद में एक और बेटे को जन्म देती है। भारत में शायद कुछ कानूनी अड़चन के चलते ऐसा गर्भधारण करना मुमकिन नहीं था तो सिद्धू मुसेवाला की मां चरणकौर ने दूसरे देश में यह मेडिकल मदद ली। यह अपने किस्म का पहला मामला नहीं है जिसमें एक महिला इस उम्र में मां बने, लेकिन यह कुछ अनोखा मामला तो है ही क्योंकि दुनिया की साधारण समझबूझ यह सुझाती है कि इस उम्र में मां-बाप बनना उतनी समझदारी की बात नहीं है।
अपने बेटे की याद में कुछ करना अच्छी बात है, लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि इंसान के शरीर और उसकी जिंदगी की कुछ सीमाएं रहती हैं, और लोगों को उनका ख्याल इसलिए रखना चाहिए कि जिन बच्चों को मां-बाप अपनी भावनात्मक जरूरतों से पैदा करते हैं, उन्हें बड़े होकर अपने पैरों पर खड़े होने में खासा समय लगता है, और तब तक उनकी जिम्मेदारी निभाने के लिए मां-बाप की उम्र तो बची होनी चाहिए। वैसे तो बच्चों को जन्म देना हर किसी का मौलिक अधिकार होना चाहिए, लेकिन जब कोई देश एक जनकल्याणकारी राज्य की तरह काम करता है, तो वहां पर अजन्मे बच्चों के अधिकारों की भी फिक्र करनी चाहिए।
आज 60 बरस की उम्र में अगर कोई पिता बना है, और 58 बरस की उम्र में कोई मां बनी है, तो उनकी अपनी जिंदगी का कितना लंबा ठिकाना रहेगा? यह जरूर हो सकता है कि परिवार संपन्न होने पर बच्चे की देखरेख के लिए पैसों का इंतजाम तो पुख्ता हो सकता है, लेकिन मां-बाप दोनों की उम्र अगर बुढ़ापे में दाखिल हो चुकी है, तो उनके अभी हुए बच्चे की जिंदगी के पहले 20-25 बरस मां-बाप के साथ की कोई गारंटी नहीं दिखती है। यहां पर आकर अगर कोई देश कृत्रिम गर्भाधान तकनीक के इस्तेमाल के लिए कोई उम्र सीमा तय करते हैं, तो वह निजी मामलों में दखल नहीं मानी जानी चाहिए।
हिन्दुस्तान में हमने सरोगेसी का कानून आने के ठीक पहले तक कई फिल्मी सितारों को इस तकनीक से बच्चे पैदा करते देखा है, और कुछ तो ऐसे भी रहे जिनके पहले से पर्याप्त बच्चे थे, लेकिन उन्होंने इस तकनीक से और बच्चे हासिल किए। सरोगेसी जैसी तकनीक को लेकर पूरी दुनिया में कई तरह की सोच है, और कई तरह के कानून हैं। यह सिर्फ हिन्दुस्तान में नहीं हैं, बल्कि बहुत सी जगहों पर लोगों को दूसरे देशों में जाना पड़ता है, क्योंकि अपनी खुद की जमीन पर उन्हें इसकी इजाजत नहीं रहती है।
लेकिन इस मुद्दे पर चर्चा करते हुए एक सवाल यह सूझता है कि क्या अपनी गर्भ किराए पर देकर अगर कोई बहुत गरीब महिला नौ महीनों बाद अपने परिवार का बेहतर ख्याल रख सकती है, तो क्या उसकी इजाजत दी जानी चाहिए? यह एक समय बिकने वाली किडनी से कुछ अलग मामला है। बदन में किडनी सीमित रहती हैं, और एक किडनी जरूरतमंद मरीज को दे देने पर अपने खुद के बदन पर कई तरह के खतरे आ जाते हैं, और कई तरह की सीमाएं बाकी जिंदगी पर लागू हो जाती हैं। दूसरी तरफ किसी महिला का गर्भाधान उसके लिए उतना बड़ा खतरा नहीं रहता, और उसकी बाकी जिंदगी पर इसकी वजह से कोई बहुत बुरा असर नहीं पड़ता। फिर अपनी कोख किराए पर देना किसी तरहसे अंगदान जैसा नहीं है कि जिससे शरीर के किसी हिस्से को बेचने का काम हो जाए। आज जब देश में भुगतान की क्षमता वाले लोग हैं, और सबसे गरीब लोग पैसों की कमी से एक सामान्य जिंदगी नहीं जी पाते हैं, उनके बच्चे अभाव में बड़े होते हैं, किन्हीं अवसरों तक नहीं पहुंच पाते हैं। ऐसे में भारत के मौजूदा सरोगेसी कानून के तहत क्या ऐसी कोई ढील नहीं देनी चाहिए जिससे गरीब परिवारों की महिलाएं किसी बच्चे को जन्म देकर अपने खुद के बच्चों के लिए एक अच्छी रकम जुटा सकें? यह बात सुनने में अमानवीय लग सकती है कि हम कोख किराए पर देने की वकालत कर रहे हैं, लेकिन यह बात किसी महिला की अपनी और उसके परिवार की जिंदगी को बेहतर बनाने की बात भी है, साथ-साथ बिना बच्चों वाले लोगों के लिए एक मौका मुहैया कराने की बात भी है।
हिन्दुस्तान जैसे मुल्क की इस हकीकत को नहीं भूलना चाहिए कि इस देश में महिलाएं अपने बच्चों को कुपोषण से मरते देखती हैं, बिना इलाज बच्चे बड़े सब मर जाते हैं, छोटे-छोटे बच्चे सडक़ों पर कचरा बीनने और भीख मांगने जैसे रोजगार में लगने को मजबूर रहते हैं। और इससे भी अधिक कड़वी हकीकत यह भी है कि ह्यूमन राईट्स वॉच नामक संस्थान के एक अंदाज के मुताबिक हिन्दुस्तान में करीब डेढ़ करोड़ महिलाएं देह बेचने के धंधे में लगी हुई हैं। एशिया का सबसे बड़ा सेक्स बाजार मुम्बई है जहां पर एक लाख से अधिक वेश्याएं काम करती हैं। सरकारें इन आंकड़ों को न जानना चाहती हैं, न मानना चाहती हैं, लेकिन जब अपनी जिंदगी और परिवार को चलाने के लिए इस देश में डेढ़ करोड़ महिलाएं दुनिया में सबसे अधिक बीमारियों के खतरे वाला यह धंधा करती हैं, तो क्या इसके मुकाबले किसी के बच्चे की मां बन जाना अधिक बुरा काम होगा?
चूंकि वेश्यावृत्ति को कानूनी हक देने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी सरकार और संसद को इस बारे में कुछ नहीं करना पड़ा, इसलिए वे असुविधा से बचे हुए हैं। लेकिन चूंकि सरोगेसी को लेकर संसद को कानून बनाना पड़ा है इसलिए सरकार और संसद उस मामले में ऐसे दिखना नहीं चाहते कि वे बदन को किराए पर देने का समर्थन कर रहे हैं। जबकि शरीर को कुछ मिनटों या घंटों के सेक्स के लिए किराए पर देने का कारोबार सबकी जानकारी में है, और उसे मानते कोई भी नहीं हैं।
हमने बात तो सिद्धू मुसेवाला के मां-बाप के बच्चे के फैसले को लेकर शुरू की थी, लेकिन वह आगे बढक़र इस तकनीक पर आ गई है, और किस तरह इस तकनीक से कुछ कमाने की इजाजत लोगों को मिलनी चाहिए, क्योंकि वे अपने बदन के कई और अधिक बुरे इस्तेमाल कर ही रहे हैं। आज भी हिन्दुस्तान में किडनी ट्रांसप्लांट जैसे कारोबार में कानून को चकमा देकर किडनी की खरीद-बिक्री चलती ही है। संसद में पिछले बहुत समय से किसी कानून को लेकर सार्थक चर्चा और बहस का सिलसिला खत्म हो गया है, इसका नतीजा यह हुआ है कि कई ऐसे कानून भी बन जाते हैं जो कि जायज नहीं होते। सरोगेसी कानून का गरीबों के जिंदा रहने के लिए किस तरह इस्तेमाल हो सकता है इस पर बात होनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट अभी यह देखकर हक्का-बक्का रह गया कि राजस्थान में एक महिला के कत्ल के मामले में पुलिस ने उसकी नाबालिग बेटी को ही प्रताडि़त करके फंसाने की कोशिश की, और उसे ही हत्यारा बनाकर कोर्ट में पेश कर दिया। सुप्रीम कोर्ट बेंच ने राजस्थान के पुलिस प्रमुख को मामले की जांच करके रिपोर्ट देने कहा है कि एक बच्ची पर किस तरह गुनाह कबूलने को जुल्म करके उसे तैयार किया गया कि वह मां का कत्ल करना मान ले। चौदह बरस की इस बच्ची के साथ पुलिस के रवैये पर जज हैरान थे। और बच्ची को फंसाने का यह काम हत्यारे के साथ मिलकर पुलिस ने किया था। मामले के खुलासे को पढऩा दहशत पैदा करता है कि किस तरह लडक़ी को फंसाने के लिए पुलिस ने साजिश रची, और उसे मार-मारकर यह कबूलवाया कि उसी ने मां को गोली मारी थी।
दुनिया भर के सभ्य देशों में बच्चों को सिखाया जाता है कि वे खतरा देखें, या परेशानी में पड़ें, तो वे सीधे पुलिस के पास जाएं। बच्चों को भरोसा दिलाया जाता है कि पुलिस हर नौबत में हर तरह से उनकी मदद करेगी। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में जमीनी हकीकत देखते हुए बच्चों को यह ठीक ही समझाया जाता है कि वे समय पर सो जाएं, समय पर खाना खा लें, वरना पुलिस उन्हें उठाकर ले जाएगी। आज पुलिस के बीच से कुछ लोग अच्छा काम करते भी दिखते हैं, कहीं किसी भूखे को खिलाते हैं, तो कहीं किसी बुजुर्ग को सडक़ पार कराते हैं, लेकिन देश भर में पुलिस का आम हाल इतना खराब है कि लोग उससे दूर रहने में ही अपना भला मानते हैं। जाने कितने ही मामले ऐसे हुए हैं जिनमें अदालत के सामने पुलिस मुजरिम और गुंडा साबित हो चुकी है। असल जिंदगी में तो लोग देखते ही हैं कि संगठित अपराधों को इजाजत देने के लिए पुलिस खुद एक संगठित अपराधी की तरह काम करती है। भारत के अधिकतर प्रदेशों में पुलिस सत्ता के हाथ का हथियार बनी रहती है, और अगर सत्ता की दिलचस्पी पुलिस के बेजा इस्तेमाल में न भी हो, तो भी पुलिस अपने आपको हथियार की तरह पेश करती है। अभी कुछ ही दिन पहले साम्प्रदायिक हिंसा से गुजर रहे उत्तराखंड में एक मुस्लिम मोहल्ले में एक हिन्दू की लाश मिली, जिसकी तोहमत जाहिर तौर पर मुस्लिमों पर ही लगनी थी। लेकिन उसी प्रदेश की पुलिस ने जांच करने पर पाया कि वहीं के एक स्थानीय हिन्दू पुलिसवाले ने एक निजी रंजिश निकालने के लिए एक हिन्दू नौजवान का कत्ल किया, और उसकी लाश को मुस्लिम मोहल्ले में फेंक दिया था। सुबूत मिल जाने पर इस पुलिसवाले को गिरफ्तार किया गया है। ठीक ऐसा ही एक दूसरा मामला उत्तरप्रदेश में एक जगह सामने आया था जहां पर एक हिन्दू संगठन के लोगों ने अपने अवैध कारोबार को बेरोकटोक चलाने के लिए उस इलाके के पुलिस अफसर का तबादला करवाने की योजना बनाई, और इसके लिए गाय काटकर जगह-जगह उसके टुकड़े फेंके गए, उनके साथ एक बेकसूर मुस्लिम का नाम जोड़ा गया, उसका आईडी कार्ड साथ डाल दिया गया। बाद में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पुलिस ने ही हिन्दू संगठन की यह साजिश पकड़ी, और तमाम लोगों को गिरफ्तार किया, इसके बाद नाजायज गिरफ्तार बेकसूर मुस्लिम को रिहा किया गया।
पुलिस जगह-जगह सबसे परले दर्जे के संगठित मुजरिमों की तरह काम करने के लिए एक पैर पर तैयार खड़ी रहती है। और ऐसा करने वाले लोगों की गिनती अपवाद सरीखी नहीं है, पुलिस का एक खासा हिस्सा भ्रष्टाचार में तो डूबा रहता ही है, वह बेकसूरों को फंसाने, और मुजरिमों को बचाने में भी लगा रहता है। हमने मुम्बई के बड़े चर्चित एनकाउंटर स्पेशलिस्ट पुलिसवालों को देखा है कि वे किस तरह आगे चलकर भूमाफिया बन जाते हैं, और बंदूकबाज होने की अपनी शोहरत का इस्तेमाल करके मुजरिमों की सरगना बन जाते हैं। हिन्दुस्तानी कानून व्यवस्था में पुलिस को जुर्म दर्ज करने और गिरफ्तारी जैसी कार्रवाई के लिए अंधाधुंध अधिकार मिले हुए हैं, और यह उसका एकाधिकार सरीखा रहता है। इसलिए उससे बचना बड़ा मुश्किल रहता है। राजनीतिक ताकतें अपने बुरे लोगों को बचाना, और विरोधियों को झूठे मामलों में फंसाना इन्हीं पुलिसवालों के सहारे करती हैं। अधिकतर जिलों और थाना इलाकों में अवैध कमाई और उगाही का जमा जमाया कारोबार रहता है, और ऐसी कमाऊ कुर्सियों पर पहुंचने के लिए पुलिस अपने आपको औजार और हथियार की तरह पेश भी करती है, और मोटी पेशगी भी देती है।
ऐसे भ्रष्ट सिलसिले को तोडऩा जरूरी है। यह सिलसिला जारी रहे तो राजनेता इसके आदी भी हो जाते हैं, क्योंकि पेशेवर भ्रष्ट पुलिसवाले उन्हें यह भी समझा देते हैं कि वे कैसे विरोधियों को निपटा सकते हैं, कहां-कहां से कमा सकते हैं। ऐसी पुलिस कभी-कभी अदालत के सामने उजागर होती है, तो फंसती है, आमतौर पर निचली अदालतों का मिजाज ही ऐसा रहता है कि वहां पुलिस या सरकार जो मामला पेश करे, उन्हें अदालतें सच और सही मानकर चलती हैं। राजस्थान का यह मामला देश में पुलिस की बदनामी का न तो पहला मामला है, न आखिरी है। पंजाब में केपीएस गिल जैसे अफसर के मातहत जिस तरह सैकड़ों बेकसूर लोगों की पुलिस-हत्या के आरोप लगे थे, और बाद में दर्जनों पुलिसवालों को अदालत से सजा भी हुई थी, उसे भी नहीं भूलना चाहिए। अभी दो दिन पहले ही दिल्ली में एक नमाजी को पुलिस ने जिस तरह मारा है, उसे भी नहीं भूलना चाहिए। पुलिस सत्ता की चापलूस बनकर हर तरह के जुर्म करने को तैयार रहती है, और इसके सबसे बुरे शिकार सबसे कमजोर तबके होते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
ब्रिटेन की एक रिपोर्ट है कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड (यूपीएफ) से इंसान की सेहत पर दर्जनों किस्म के बुरे असर पड़ते हैं, और इससे हृदय रोग, डायबिटीज, कैंसर सहित कई दूसरी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। ब्रिटिश जनरल ऑफ मेडिसिन की एक रिपोर्ट बताती है कि यूपीएफ खाने से मौत का खतरा करीब डेढ़ गुना हो जाता है। यह अध्ययन बताता है कि इसके बाद मौत का खतरा 21 फीसदी तक बढ़ जाता है, और मोटापा, डायबिटीज जैसी बीमारियों की वजह से लोगों को बहुत इलाज की जरूरत पड़ती है। दिक्कत की एक बात यह भी है कि संपन्न तबके के खानपान में अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड जितना है, उसके मुकाबले गरीबों के खाने में भी यह कम नहीं है।
हम हिन्दुस्तान जैसे देश में देखते हैं कि गरीब और मजदूर भी अपने बच्चों को कामकाज की मजबूरियों के चलते पैकेटबंद नमकीन और मीठे सरीखे खानपान को देने पर मजबूर हो जाते हैं। छोटे-छोटे बच्चों को घर पर छोडक़र जाने वाले मजदूर मां-बाप खाना पकाने का समय न रहने पर ऐसे ही पैकेटबंद सामान छोड़ जाते हैं। और धीरे-धीरे इन बच्चों की आदत ही ऐसे सामान की पडऩे लगती है। दूसरी तरफ जो अंतरराष्ट्रीय ब्रांड दुनिया के बाकी देशों में वहां के सख्त कानूनों की वजह से अपने पैकेट पर सेहत की चेतावनी को साफ-साफ छापते हैं, नमक, शक्कर, और तेल को सीमित रखते हैं, वे हिन्दुस्तान में कमजोर सरकारी नियमों के चलते मनमानी करते हैं, और चेतावनी छापने से कई तरह से बचते रहते हैं। नतीजा यह होता है कि स्वाद को रिझाने वाले रसायनों के साथ बाजार उन चीजों से पटा हुआ है जिन्हें अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड कहा जाता है, और जो कि कई बीमारियों की जड़ है।
विकसित देशों में तो यह बात ठीक हो सकती थी, लेकिन गरीब देशों में भी कंपनियों के बनाए सामानों का यही हाल है। बहुत हमलावर अंदाज की मार्केटिंग बचपन से ही लोगों को तबाह कर रही है, और बुढ़ापे तक तो शायद पहुंचने ही नहीं दे रही है। ऐसा लगता है कि बाजारू पैकेटबंद खाना बनाने वाली कंपनियां अस्पतालों के लिए काम करती हैं, और अपने ग्राहक और अस्पतालों के लिए मरीज तैयार करती हैं। यह सिलसिला शहरीकरण, और भागदौड़ के साथ बढ़ते चल रहा है, क्योंकि लोगों के पास राह चलते, या सफर पर खाने के लिए यही चीजें सबसे सहूलियत से हासिल हैं। दूसरी तरफ जैसे-जैसे एयरपोर्ट, प्लेन, या निजीकरण में जा चुके रेलवे स्टेशन बढ़ते चल रहे हैं, वैसे-वैसे इन तमाम जगहों पर इसी नुकसानदेह दर्जे का खाना बढ़ते चल रहा है। आज किसी एयरपोर्ट पर सेहतमंद खाना हासिल ही नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसे ठेके पर लेने वाले लोग अधिक से अधिक चटपटा और महंगा खाना चेपने में लगे रहते हैं। आज जितने दिन लोग सफर में खाना खरीदकर खाते हैं, मानो वे अपनी जिंदगी से उतने दिन खो बैठते हैं, और जो बकाया दिन रहते भी हैं, उनमें भी बीमारियों का खतरा अधिक रहता है।
आज महंगी और निजी स्कूलों तक में हफ्ते में एक दिन जंक फूड का दिन कहा जाता है, और ऐसे दिन छोटे-छोटे बच्चे भी सेहत बर्बाद करने वाला पैकेटबंद खानपान लेकर जाते हैं। आज बच्चों की जितने तरह की दावतें होती हैं, वे इसी दर्जे का खाना खिलाती हैं, चटपटे स्वाद की वजह से बच्चे घर पर भी इसी किस्म की चीजें खाते हैं, और घर के बड़े भी यह ध्यान नहीं रखते कि घर पर इस तरह के सामान लाना बंद करके बच्चों को बचाया जा सकता है। हमने कई मौकों पर यह सुझाया है कि घर आए हुए मेहमानों को भी कारखानों से आए हुए, रेस्त्रां से बुलाए हुए अल्ट्रा प्रोसेस्ड सामान न परोसे जाएं, और ऐसा करके ही घर के बच्चों को भी इस खतरे से बचाया जा सकता है। लेकिन अतिथि सत्कार की भारतीय भावना ऐसी रहती है कि घर आए मेहमानों के सामने हर किस्म का जंक फूड परोसा जाता है, और घर के बच्चे बारीक नजर रखकर ऐसे मौकों का इस्तेमाल करते हैं।
हिन्दुस्तान में एक दिक्कत यह भी है कि यहां योग और ध्यान, आध्यात्म जैसी बातों का एक गौरव पाकर लोग उसे सेहतमंद जिंदगी के लिए काफी मान लेते हैं। जबकि इन पर अमल करने का तो फायदा हो सकता है, देश के इतिहास में इनकी जगह का कोई फायदा लोगों को तब तक नहीं हो सकता, जब तक वे इस राह पर न चलें। लोग जीवनशैली को सेहतमंद बनाने के बजाय भारतीयता पर गर्व करने को काफी समझ लेते हैं।
हिन्दुस्तान जिस तरह से दुनिया भर की बीमारियों का गढ़ बन चुका है, उसे देखते हुए सरकारों को खानपान के खतरों को उजागर करने वाले कानूनों को कड़ा बनाना चाहिए, और जनता के बीच ऐसे जागरूकता अभियान चलाने चाहिए जो कि कारखानों और बाजार के बनाए हुए खानपान के खतरे से लोगों को आगाह करे। एक बार लोगों की सेहत बिगड़ जाए, तो फिर केन्द्र और राज्य सरकारों के मुफ्त इलाज के कार्ड किसी काम के नहीं रहते। आज हालत यह है कि सरकारें अपनी न्यूनतम कानूनी जिम्मेदारी पूरी करने के बजाय भारी-भरकम खर्च करके इलाज की अधिकतम जिम्मेदारी को पूरा करने की कोशिश करती हैं, जो कि एक बहुत ही कमअक्ली का आर्थिक फैसला है। लोगों की सेहत को बचाना प्राथमिकता होना चाहिए, और अगर ऐसा होने लगा तो सरकारों को इलाज का बीमा भी कम लागत पर मिलने लगेगा, अस्पतालों पर सरकार का खर्च घटने लगेगा।
अब इसके साथ-साथ एक उम्मीद यह भी की जानी चाहिए कि लोग खुद होकर भी अपनी सेहत के प्रति जागरूक रहें, अपने खानपान को सुधारें, अपनी रोज की जिंदगी में सैर या कसरत को, योग और ध्यान को जगह दें, और बीमारी से बचने की भरसक कोशिश करें। यह भी समझने की जरूरत है कि आने वाली पीढिय़ों के लिए महज जमीन-जायदाद छोडक़र जाना काफी नहीं है, अपने ऐसे सेहतमंद जींस छोडक़र जाना भी जरूरी है जो कि अगली पीढिय़ों को बीमारियों से कुछ या अधिक हद तक दूर रखे। यह बात समझना चाहिए कि जो पीढ़ी खुद बीमारियों से बचती है, उसी के साथ यह संभावना अधिक रहती है कि उसकी अगली पीढ़ी भी सेहतमंद हो सके। लोगों को अटपटा लग सकता है कि हमने अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड की बात को यहां तक खींच लिया है, लेकिन इन बातों का एक-दूसरे से सीधा रिश्ता है। पैकेट का खाना खा-खाकर जो पीढ़ी अपना बदन बर्बाद करती है, वह ठीक वैसे ही जींस अगली पीढ़ी को देती है।
हिन्दुस्तान में कम्प्यूटर के सबसे बड़े कामकाज और कारोबार की वजह से जिस बेंगलुरू को सिलिकॉन वैली कहा जाता है, उस बेंगलुरू में गर्मी का मौसम आने के पहले ही पानी की ऐसी भयानक कमी हो गई है कि लोगों को जरूरतें कम करनी पड़ी हैं, और तकरीबन दोगुना दाम पर पानी खरीदना पड़ रहा है। देश का एक सबसे आधुनिक शहर इंसानी जिंदगी की सबसे बुनियादी जरूरत से इस कदर जूझ रहा है कि आने वाली गर्मी में डेढ़ करोड़ से कुछ कम आबादी वाले इस उपमहानगर का जाने क्या हाल होगा। शहर के लोग कह रहे हैं कि करीब दोगुने दाम पर भी टैंकर आसानी से नहीं मिल रहे, और लोगों ने पौधों में पानी डालना बंद कर दिया है, और कुछ लोगों का कहना है कि वो दो दिन में एक बार नहा रहे हैं। इसकी एक वजह यह बताई जा रही है कि शहर और आसपास मानसून कमजोर रहा, जिसकी वजह से कावेरी नदी में पानी घटा, आसपास के जलाशयों में भी पानी घटा, और भूजल स्तर में गिरावट आई है।
अब बेंगलुरू की इस बदहाली को बाकी देश के हिसाब से देखें, तो देश भर में हाल यह है कि पानी का इस्तेमाल बेकाबू है। जिस शहर में इसकी कमी नहीं है वहां लोग रोजाना कार धोते हैं, घर-दुकान के सामने पाईप की धार से फर्श और सडक़ धोते हैं, और बड़े-बड़े घास के मैदान सींचे जाते हैं। संपन्न कॉलोनियों में जाएं तो वहां लोगों के ड्राइवर कार धोने के मुकाबले में लगे रहते हैं, और चक्कों पर लगे मिट्टी-कीचड़ को भी पानी की धार से हटाया जाता है। दरअसल देशभर में शायद ही कहीं लोगों पर जमीन के नीचे से पानी निकालने पर कोई रोक हो। हर मकान बनने के पहले ट्यूबवेल खुदवा लिए जाते हैं, और सबमर्सिबल पम्प लगाकर जरूरत से कई गुना, मनचाही मात्रा में पानी निकाला जाता है। इस पर न कोई रोक है, न ही शायद किसी भी जगह इस पर कोई टैक्स लगाया जाता है। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान के जिन शहरों में पानी पर टैक्स लगाया गया है, वहां पर खपत भी घट गई है, और निजी सप्लायरों के बेहतर इंतजाम की वजह से पानी कुछ घंटे आने के बजाय चौबीस घंटे रहने लगा है।
हम किसी निजीकरण की वकालत नहीं कर रहे, लेकिन पानी जैसी सार्वजनिक संपत्ति को हिन्दुस्तान की देश-प्रदेश की सरकारें, और म्युनिसिपल जिस लापरवाही से अंधाधुंध इस्तेमाल होने दे रही हैं, उसका सबसे बड़ा फायदा सबसे संपन्न तबका उठा रहा है, और उसकी सबसे बुरी मार सबसे विपन्न तबके पर पड़ रही है, जिसकी गर्मियों की रात पानी के टैंकर के इंतजाम में हराम होती है, और कई जगहों पर गरीबों के काम के घंटे भी बर्बाद होते हैं। संपन्न तबका अपनी दानवाकार ताकत से अपने हर घर के लिए अंधाधुंध गहरे ट्यूबवेल खुदवा लेता है, उनमें ताकतवर पम्प लगा लेता है, और फिर पानी की मनचाही बर्बादी करता है। घास के बड़े-बड़े लॉन सींचे जाते हैं, छतों पर गार्डन लगाए जाते हैं, और कार और फर्श धोने का जिक्र तो हम शुरू में कर ही चुके हैं।
लेकिन हिन्दुस्तान में कानूनों पर अमल बहुत ढीलाढाला होने से हालत यह है कि अधिकतर कारखानों में नियमों के खिलाफ जाकर ट्यूबवेल से जमीन के नीचे से पानी निकाला जाता है, और उसका औद्योगिक इस्तेमाल किया जाता है। फिर देश भर में धान जैसी कुछ फसलों के समर्थन मूल्यों के चुनावी इस्तेमाल की वजह से अलग-अलग कई पार्टियां बहुत अधिक दाम पर खरीदी का वायदा करती हैं, और सत्ता में आने पर करती भी हैं। नतीजा यह हो रहा है कि मुफ्त की बिजली, या सौर ऊर्जा से चलने वाले पम्प सरकार से ही किसानों को मिल रहे हैं, वे धान जैसी प्यासी फसल पर तमाम भूजल को उलीच दे रहे हैं, और भूजल स्तर गिरते चल रहा है। पानी की अधिक जरूरत वाली फसलें पर्यावरण पर एक खतरा बनती चल रही हैं, और समर्थन मूल्य की राजनीति ऐसी हो गई है कि सरकारें किसान-तबके को जरा भी नाराज करना नहीं चाहती हैं। लेकिन इसका बुरा असर पानी पर पड़ रहा है, और उसकी कोई भरपाई जमीन के भीतर हो नहीं रही है।
एक तरफ कहने के लिए कई, या अधिकतर प्रदेशों में शहरों में नए निर्माण पर अंडरग्राउंड वाटर-रीचार्जिंग की शर्त लगाई जाती है, लेकिन स्थानीय संस्थाओं और म्युनिसिपल के भ्रष्टाचार की वजह से उस पर कहीं ईमानदार अमल नहीं होता। नतीजा यह है कि कांक्रीटीकरण बढ़ते चल रहा है, खुली जगह को सरकारी निर्माण में बड़ी कमीशनखोरी की वजह से तरह-तरह से ढांका जा रहा है, और बारिश का पानी अधिकतर जगहों पर बाढ़ के हालात पैदा करके नदियों के रास्ते समंदर पहुंचाया जा रहा है। कुल मिलाकर अंधाधुंध खपत, और तकरीबन जीरो बचत से धरती पर इस्तेमाल के लायक पानी लगातार घटते चल रहा है, और इंसानों को बिजली और गहराई तक काम करने वाले पम्पों पर जितना भरोसा है, उतना ही भरोसा सरकारों की नालायकी पर भी है कि वे पानी के इस्तेमाल पर कड़ाई से न रोक लगाएंगी, न ही टैक्स लगाएंगी। नतीजा यह है कि हिन्दुस्तान जैसे देश में पानी की जो आखिरी बाल्टी रहेगी, वह भी कार धोने के काम आएगी।
मध्यप्रदेश के मुरैना की खबर है कि एक गर्भवती महिला से तीन लोगों ने बलात्कार किया, और फिर उसे आग लगा दी। यह महिला एक ऐसी महिला से समझौते की बात करने उसके गांव गई थी जिसने इस गर्भवती महिला के पति पर बलात्कार का आरोप लगाया था। अब पुलिस का कहना है कि 80 फीसदी झुलसी इस महिला को अस्पताल में भर्ती किया गया है। बलात्कार की पहली शिकायत पर गिरफ्तार आदमी अभी जेल से जमानत पर छूटकर आया था, और उसे बचाने के लिए समझौता करने वाली उसकी पत्नी के साथ ऐसे सामूहिक बलात्कार की खबर है, और उस पहली महिला के परिवार के तीन मर्दों ने इस महिला के साथ मिलकर समझौता कराने आई महिला को जला भी डाला।
अब इस मामले को देखें तो लगता है कि पहले किसी ने एक महिला से बलात्कार किया, और फिर मानो उसका बदला चुकाने के लिए उसके परिवार के तीन मर्दों ने बलात्कार के आरोपी की पत्नी से बलात्कार किया। मामला घूम-फिरकर औरतों को बदले के सामान की तरह इस्तेमाल करने का है। चाहे कोई पत्नी को जुए के दांव पर लगा दे, या फिर उसे अपने साथियों को परोस दे, बेच दे, या अपने परिवार के दूसरे मर्दों के उपभोग के लिए मजबूर कर दे। यह सब तो निजी फैसले हैं, लेकिन दूसरी तरफ जंग के मैदान को देखें तो दुनिया भर में यह सैकड़ों-हजारों बरस से चलने में है कि जीतने वाली सेना हारने वाली सेना की औरतों और लड़कियों को उठाकर ले जाती हैं, या उनसे बलात्कार करके छोड़ देती हैं। अभी रूस और यूक्रेन के बीच जो जंग चल रही है उसमें संयुक्त राष्ट्र संघ की एक महिला अधिकारी ने यह बात सामने रखी थी कि रूसी सैनिकों की बीवीयों ने उन्हें यह छूट देकर भेजा है कि वे चाहें तो यूक्रेनी लड़कियों या महिलाओं से बलात्कार कर सकते हैं, वे बस सावधानी के लिए कंडोम का इस्तेमाल करें। ऐसा दुनिया के कई और जंग के दौरान भी सामने आया है जब दुश्मन देश को सबक सिखाने के लिए वहां बलात्कार करने की छूट महिलाएं अपने सैनिक पतियों को देती हैं।
लोगों को याद होगा कि करीब दो दशक तक चली अमरीका-वियतनाम जंग के दौरान भी ऐसे अनगिनत आरोप लगे थे, और खबरें थीं कि अमरीकी सैनिकों ने वहां की स्थानीय लड़कियों से बलात्कार किया, और बाद में अमरीकी लहू वाले वैसे बच्चों को लेकर वियतनामी युवतियां जगह-जगह मीडिया के सामने भी आती थीं, और इस जंग में शामिल अमरीकी सैनिक ऐसे युद्ध और यौन अपराधों को लेकर मानसिक बीमारियों से ग्रस्त भी हो गए थे। दुनिया के और कई देशों के जंग इसी तरह की हिंसा औरतों पर दर्ज कर चुके हैं।
औरत को बदला लेने का सामान, अपमान करने का सामान तो हमेशा से माना गया है। हिन्दुस्तान पर जब मुगलों का हमला हुआ, तो कितने ही हिन्दू राजाओं ने उनसे जंग करने के बजाय अपनी लड़कियों की शादी उनके साथ करवा दी थी, और मानो उसके एवज में वे अपने ही राज-पाठ पर अपना कब्जा बरकरार रख चले थे। मतलब यह कि न सिर्फ जंग के हासिल की शक्ल में, या दुश्मन का मनोबल तोडऩे के लिए उनकी लड़कियों और औरतों का इस्तेमाल होता है, बल्कि अपने राज-पाठ को कायम रखने के लिए भी लोग अपनी लड़कियों का ऐसा इस्तेमाल करते हैं, जो कि मुगलों के वक्त हिन्दुस्तान में बहुत से हिन्दू राजाओं ने किया था। दुनिया की जिस संस्कृति और सभ्यता में मर्दों का बोलबाला रहता है, वहां औरतें मोटेतौर पर सामान ही रहती हैं।
दुनिया का रिवाज यही है। आज भी सभ्य या असभ्य किसी भी तरह की, हर तरह की दुनिया में तमाम गालियां औरतों के नाम को लेकर ही बनती हैं। भाषा चाहे अलग-अलग हो, गालियों का हमला तो महिलाओं पर ही रहता है। बचपन से जो बच्चे स्कूली किताबों में लडक़े और लडक़ी में भेदभाव पढ़ते हैं, कमल किताब पढ़ता है, और कमला जल भरती है, तो ऐसे बच्चे बड़े होकर महिलाओं को दूसरे दर्जे का इंसान मान लेते हैं, और उसमें कुछ भी अटपटा नहीं रहता। ऐसे ही लोग बलात्कार के जवाब में बलात्कार पर उतारू हो सकते हैं, होते हैं।
महिलाओं और लड़कियों को हिंसा से बचाने के कोई शॉर्टकट नहीं हो सकते हैं। बचपन से परिवार और समाज में लडक़े महिलाओं के साथ जो सुलूक देखते हैं, मोटेतौर पर उसका असर उनकी पूरी जिंदगी पर बने रहता है। न सिर्फ लडक़ों के आदमी बनने पर उन पर यह असर कायम रहता है, बल्कि लड़कियों के औरत बन जाने पर भी यह असर उन पर रहता है, और वे खुद तो मर्दों की हिंसा बर्दाश्त करने को अपनी नियति मान ही लेती हैं, बल्कि वे परिवार की दूसरी महिलाओं को भी हिंसा का हकदार मानने से परहेज नहीं करती हैं। नतीजा यह निकलता है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी मर्द हिंसा की विरासत लेकर चलते हैं, और पीढ़ी-दर-पीढ़ी औरतें इसके लिए बर्दाश्त की विरासत लिए चलती हैं। ऐसी ही सोच लोगों को पहले बलात्कार करने का हौसला देती है, और फिर बलात्कार के बदले बलात्कार करने का भी।
दुनिया में महिलाओं के खिलाफ हिंसा का हर स्तर पर मुकाबला करना चाहिए। खासकर सोशल मीडिया पर महिलाओं के प्रति हिकारत की जो सोच बिखरी रहती है, और जो दूसरे लोगों को अपनी शक्ल में ढाल भी लेती है, वैसी सोच का हर पोस्ट पर विरोध होना चाहिए। धर्म और जाति के नाम पर महिलाओं से भेदभाव होता है, भारत जैसे देश में ग्रामीण सामाजिक ढांचे के तहत महिलाओं से हिंसा होती है, इन सबका जमकर विरोध करने की जरूरत है, तभी जाकर महिलाओं को थोड़ी-बहुत इज्जत हासिल हो सकेगी। यह हजारों बरस से चले आ रहा सिलसिला है, और सदियों तक जारी भी रहेगा, लेकिन इसका मुकाबला करने से ही इंसाफ कायम हो सकेगा, और अगली पीढिय़ां कुछ संवेदनशील बन सकेंगीं।
हिन्दुस्तान में परंपरागत मीडिया हो, या नया मीडिया, इन दोनों का इस्तेमाल करने वाले लोगों का रूख थोड़ा सा हैरान करता है। पहले सिर्फ अखबार हुआ करते थे, और रेडियो और टीवी के नाम पर आकाशवाणी और दूरदर्शन ही थे, जो कि सरकार के प्रचार का माध्यम थे। बाद में एक-एक करके सैकड़ों निजी चैनल जुटे, और फिर इंटरनेट के विस्फोट से लाखों वेबसाइटें आ गईं। अब सोशल मीडिया की मेहरबानी से लोगों को मुफ्त में फेसबुक, ट्विटर, और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म मिले, और इनके लिए किसी सरकारी इजाजत की जरूरत नहीं रह गई जैसी कि सौ कॉपी छपने वाली किसी सालाना पत्र-पत्रिका को भी लगती थी। एक डोमेन नेम, तकरीबन मुफ्त बन जाने वाली वेबसाइट, और एक मोबाइल फोन से ही उस पर समाचार-विचार या कुछ भी पोस्ट करने की अकल्पनीय और अराजक आजादी! किसने सोचा था कि एक दिन हर नागरिक पत्रकार हो सकते हैं, और अखबारों के संपादक के नाम पत्र कॉलम के लिए चिट्ठी भेजकर हफ्ते भर इंतजार करने के बजाय अपनी बात पल भर में सीधे-सीधे पोस्ट कर सकते हैं। परंपरागत अखबारी-मीडिया को एक बड़ी चुनौती ऐसे आजाद सोशल मीडिया से मिली है, और इन दिनों कोई अखबार ऐसे नहीं रहते जो कि सोशल मीडिया की निगरानी न करते हों, वहां से खबरें न पाते हों। एक किस्म से अखबारों को छुए बिना भी, टीवी चैनलों को देखे बिना भी लोग सोशल मीडिया पर अपने अकाऊंट चला सकते हैं, लेकिन कोई भी अखबार-चैनल बिना सोशल मीडिया की बारीक-निगरानी बिना अपना काम नहीं चला सकते।
यह एक बुनियादी फर्क पिछले कुछ दशकों में आया है, और लोकतंत्र के नजरिए से देखें तो यह बात साफ है कि जिसे अपने को मूलधारा का मीडिया कहने वाले लोग अराजक मानते हैं, वह एक अलग किस्म का लोकतंत्र है, और भारत जैसे एक वक्त के उदार लोकतंत्र ने भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के माध्यमों को जिस तरह नियम-कानून में जकडक़र रखा था, इंटरनेट की एक आजाद-तकनीक ने उन सब नियमों को चकमक पत्थर जितना पुराना और गैरजरूरी साबित कर दिया। और तो और, अभी आधी सदी के भीतर हिन्दुस्तान में प्रचलित हुए टीवी समाचार माध्यमों ने भी यह समझ लिया है कि इंटरनेट पर जो डिजिटल माध्यम चल रहे हैं, और जिनमें सबसे अधिक लोकप्रिय किसी अकेले व्यक्ति के चलाए जा रहे यूट्यूब सरीखे माध्यम है, उनका मुकाबला करना टीवी के भी बस का नहीं रह गया है। यह नौबत लोकतंत्र के लिए राहत की है जिसमें अभी चौथाई सदी पहले तक अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए अखबार या टीवी का एक महंगा कारोबार शुरू करना पड़ता था, आज वैसे तमाम कारोबार सफेद हाथी साबित हो रहे हैं, जो कि लागत के मुकाबले कोई मुनाफा नहीं दे पा रहे।
आज बिना किसी संपादक के, बिना किसी सरकारी रजिस्ट्रेशन के, और तो और बिना किसी सरकारी और कारोबारी इश्तहारों के जो यूट्यूब चैनल चल रहे हैं, वे हैरान करते हैं कि अभी कुछ अरसा पहले तक किसी ने उनकी ऐसी ताकत की कल्पना भी नहीं की थी। लेकिन अब लोकतंत्र में यह एक नया आयाम जुड़ा है, जो कि बहुत सी ताकतों को परेशान कर रहा है। जब तक सोशल मीडिया पर लिखने और बोलने वाले, दिखने और पोस्ट करने वाले लोग देश के किसी कानून को तोड़ नहीं रहे हैं, तब तक उन पर सरकार, बाजार, या कारोबार का किसी तरह का प्रत्यक्ष या परोक्ष काबू नहीं है।
हैरान करने वाली एक बात और भी है कि इंटरनेट जैसी तकनीक और बहुत मामूली से डिजिटल उपकरणों की वजह से जब यह माध्यम पश्चिम के विकसित देशों में खड़ा हुआ, तो तकरीबन उसी के साथ-साथ वह हिन्दुस्तान से लेकर पाकिस्तान और अफगानिस्तान तक हर किस्म के देशों में खड़ा हो गया। अब हर जगह सरकारें इन्हें लेकर बेचैन हैं क्योंकि ये सरकारी इश्तहारों पर जिंदा नहीं हैं, इसलिए कानून न तोडऩे पर सरकारें इनका टेंटुआ नहीं दबा सकती हैं। लेकिन अभी-अभी भारत सरकार, और बहुत सी प्रदेश सरकारों ने अखबार और चैनल से परे, समाचार और विचार वेबसाइटों से भी परे, खालिस सोशल मीडिया पर अधिक लोकप्रिय ब्रांड और लोग देखते हुए उन्हें सोशल मीडिया इन्फ्लुएंजर का दर्जा देते हुए उनके लिए भी कई तरह के महंगे-महंगे पैकेज देना शुरू किया है। मतलब यह है कि सरकारें अपनी पसंद और नापसंद के मुताबिक कुछ लोगों को बढ़ावा देकर, और कुछ लोगों को ऐसे फायदों से परे रखकर, वहां एक किस्म का गैरबराबरी का मुकाबला खड़ा कर रही हैं। ऐसी गैरबराबरी अखबारों और टीवी चैनलों में सरकारें हमेशा से करती आई हैं, लेकिन अब सोशल मीडिया पर भी इनकी ऐसी सीधी दखल हो सकता है कि सोशल मीडिया की आजादी को एक अलग तरह से प्रभावित करे।
यह सिलसिला अभी शुरू ही हुआ है, और यह बात भी ठीक से समझ नहीं पड़ रही है कि क्या सोशल मीडिया के हमलावर तेवरों, और उसके आजाद मिजाज पर इससे कुछ फर्क पड़ रहा है। अभी तो जो सबसे कामयाब यूट्यूबर हैं, या इंस्टाग्राम जैसे माध्यम पर हैं, उन्हें ये प्लेटफॉर्म ही भुगतान करते हैं, और सबसे कामयाब लोग बड़ी आसानी से एक बड़े कारोबारी की तरह सिर्फ दर्शक संख्या से मिल रहे भुगतान पर कामयाब हो सकते हैं। लेकिन दूसरी तरफ ऐसी सबसे अधिक कामयाबी पाने के लिए भारत में आज जो सबसे आसान रास्ता सूझ रहा है, वह सत्ता या विपक्ष के किसी एक खेमे का हिस्सा बन जाना है, और भाड़े के भोंपू की तरह उस पक्ष का प्रचार और गुणगान करना है। यह एक आसान तरीका दिख रहा है जो कि बहुत से यूट्यूब चैनलों की कामयाबी का एक खुला राज सरीखा है। इसी के साथ-साथ हिन्दुस्तान में आज जिस तरह का राष्ट्रवाद, जिस तरह का धर्मोन्माद बड़ा लोकप्रिय और लुभावना हो गया है, उसके एजेंडे पर चलते हुए दसियों लाख या करोड़ों दर्शकों तक पहुंच जाना भी बहुत आसान हो गया है। खेमेबाजी कामयाबी की एक आसान तरकीब हो गई है, और समाचार-विचार का, बहस का एक कीर्तन सरीखा चलता है, और उस संप्रदाय के भक्तजन मानो धार्मिक भावना से परिपूर्ण होकर वहां जुट जाते हैं।
अखबारों के पूरे इतिहास में विचारधारा, एजेंडा, या उसका प्रोपेगंडा कभी भी कारोबारी कामयाबी की इस ऊंचाई पर नहीं पहुंचा पाए थे। लेकिन आज तकरीबन हर हाथ में मौजूद मोबाइल फोन लोगों को बात की बात में अंतरिक्ष तक पहुंचा सकते हैं। वैचारिक प्रतिबद्धता कारोबारी सफलता नहीं हो पाती थी, लेकिन आज वह साफ-साफ दिख रही है। आज मोदी से मोहब्बत दिखाने वाले भी कामयाब हैं, और मोदी से नफरत रखने वाले भी। जो लोग राहुल को देश का भविष्य बताते हैं, वे भी शोहरत पाते हैं, और जो उन्हें पप्पू करार देकर उनकी खिल्ली उड़ाते हैं, उनके भी दसियों लाख दर्शक हैं। यह नौबत उन लोगों को बाजार से तकरीबन बाहर कर देने सरीखी है जो कि व्यक्तियों और विचारधारा की प्रतिबद्धता से परे, मुद्दों और इंसाफ की बात तक सीमित रहते हैं, और किसी किस्म का झंडा लेकर नहीं चलते। ऐसे लोगों के लिए आज कोई ग्राहक या बाजार नहीं है, कोई दर्शक या श्रोता नहीं है, एक वक्त ऐसे लोगों के लिए भी अखबार के पाठक जरूर थे, लेकिन अब वे भी शायद कम होते गए हैं। लोकतंत्र में विचारों की आजादी के मौके तो बढ़े हुए दिख रहे हैं, लेकिन ये विचार जिस जनता को प्रभावित करने चाहिए, जिसे प्रभावित करने के लिए इन्हें लिखा जाता है, वह जनता किसी के समर्थन और किसी के विरोध में अपना इतना पक्का मन पहले से बना चुकी है कि वह स्तुति और धिक्कार के बीच किसी चीज में दिलचस्पी नहीं रखती।
अब सवाल यह उठता है कि क्या यह नौबत इंटरनेट और सोशल मीडिया सरीखी लोकतांत्रिक और तकरीबन मुफ्त टेक्नॉलॉजी के माध्यम से लोकतंत्र को अधिक लोकतांत्रिक बना रही है, या इसके भीतर के खेमों के पूर्वाग्रहों को और अधिक मजबूत कर रही है?
भारत के टेनिस खिलाड़ी रोहन बोपन्ना लॉन टेनिस ओपन एरा के इतिहास के सबसे उम्रदराज ग्रैंड स्लैम चैंपियन हो गए हैं। उनकी खुशी देखते ही बन रही थी। वे दो दशक से इस खिताब की कोशिश में लगे हुए थे, और किसी भी खेल के मैदान पर इतना लंबा जीवन असाधारण होता है। वे तकरीबन 44 बरस के हो रहे हैं, और यह उम्र अधिकतर खिलाडिय़ों के लिए खेल से बाहर होने की होती है। यह मेंस डबल टूर्नामेंट उनके लिए बाद में खिताब लेकर आया, और वे इसके पहले 2017 में मिक्स्ड डबल्स का ग्रैंड स्लैम खिताब जीत चुके थे। आधी सफेद हो रही दाढ़ी के साथ जब वे ऑस्ट्रेलियन ओपन की यह ट्रॉफी लेकर अपने जोड़ीदार मैथ्यू एब्डेन के साथ खड़े हुए, तो वे संघर्ष और सब्र की एक बड़ी मिसाल दिख रहे थे।
मुझे खेलों की अधिक समझ नहीं है, और मैं ऐसे खिताबों को भी अधिक नहीं समझता, लेकिन मैं ऐसे संघर्ष को समझता हूं जो कि रोहन बोपन्ना ने इस खिताब के पहले दिखाया है। टेनिस की खबरों के आंकड़े बताते हैं कि 19 अलग-अलग जोड़ीदारों के साथ इतने बरसों में मैच खेलते हुए रोहन ने 61 कोशिशों के बाद यह खिताब पाया है। अब जब उन्होंने यह खिताब जीता है, तो वे इसे जीतने वाले सबसे उम्रदराज, सबसे अधिक कोशिशों वाले खिलाड़ी बने हैं।
अब खेलों से परे की बात करें तो जिंदगी के बाकी दायरों में भी यह बात लागू होती है कि आप अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए कितनी मेहनत करते हैं, इरादा कितना पक्का रखते हैं, और कितने अलग-अलग रास्ते ढूंढते हैं। इसे इंसानों से परे भी समझने के लिए चींटियों को देखा जा सकता है, जो किसी चीज को ढोते हुए सामूहिक मेहनत करती हैं, तरह-तरह के मुश्किल रास्तों से होकर गुजरती हैं, मंजिल तक पहुंचने के लिए कल्पनाशील होकर रास्ते निकालती हैं, और कामयाब होती हैं। दुनिया का सबसे बड़ा खेल मुकाबला आसान नहीं होता है, दुनिया की तमाम आबादी में से निकलकर आए चुनिंदा और शानदार खिलाड़ी वहां तक पहुंचते हैं, और उनके बीच मुकाबला सबसे ही मुश्किल होता है। अपने आपमें अच्छा खिलाड़ी होना काफी नहीं होता, बल्कि उस मुकाबले के हर मैच में दूसरे खिलाडिय़ों से बेहतर होना भी जरूरी होता है।
हम इस मिसाल पर आज इसलिए भी लिख रहे हैं कि लोग अपनी आसान जिंदगी में छोटी-छोटी मुश्किलों के आने पर भी हौसला छोडऩे लगते हैं। कहीं किसी कोचिंग संस्थान में इम्तिहान की तैयारी कर रहे बच्चे खुदकुशी कर लेते हैं, तो कहीं प्रेमसंबंधों या शादीशुदा जिंदगी में तनाव और नाकामयाबी मिलने पर लोग जान दे देते हैं। कुछ लोग बीमारी से तंग आकर खत्म हो जाते हैं, तो कुछ लोग आर्थिक तंगी का सामना नहीं कर पाते। इस एक आखिरी बात के लिए अमिताभ बच्चन की मिसाल देखनी चाहिए कि कुछ दशक पहले वे दसियों करोड़ के कर्जतले आ गए थे, और आज 80 बरस से अधिक की उम्र में वे हजारों करोड़ का ब्रांड बन चुके हैं। उनकी जिंदगी में जाने कितनी बार ऐसे हादसे हुए कि अस्पताल में उनके बचने की उम्मीद भी कम रह गई थी, लेकिन वे निकलकर आकर आसमान चीरकर शोहरत के अंतरिक्ष तक पहुंच गए। उनकी जिंदगी में शुरूआती बरसों में काम के लिए संघर्ष भी कम नहीं रहा, वे अपने वक्त के नायकों की बंधी-बंधाई छवि से भी बिल्कुल अलग थे, और उनकी भावनात्मक जिंदगी भी कहा जाता है कि कई किस्म के उतार-चढ़ाव से गुजरी है। लेकिन किसी भी पल जिंदगी के किसी भी मोर्चे पर उन्हें हिम्मत छोड़ते नहीं देखा गया, और यही वजह है कि आज वे हिन्दुस्तान की मनोरंजन की दुनिया में, इश्तहारों और मॉडलिंग में, ब्रांड प्रमोशन में बेताज बादशाह हैं।
बीच-बीच में केरल की कुछ खबरें आती हैं कि किस तरह वहां 80 या 85 बरस की किसी बुजुर्ग महिला ने 5वीं का इम्तिहान पास किया, और कहीं से ऐसी खबर आती है कि कुदाली-फावड़ा लेकर किसी एक आदमी ने पहाड़ के आर-पार अकेले ही एक सडक़ बना दी। कुछ ऐसी खबरें भी आती हैं कि कहीं किसी पति-पत्नी ने मिलकर 25-30 बरस में एक बंजर पहाड़ को पूरे का पूरा हरियाली से भर दिया, और हौसले की कई ऐसी खबरें हैं कि किस तरह कोई नेत्रहीन एवरेस्ट पर पहुंच चुके हैं, और किस तरह दोनों नकली पैरों के साथ कुछ दूसरे लोग एवरेस्ट जीत चुके हैं। फौलादी नकली अंग लगे हुए ऐसे लोग सर्द-बर्फीली हवाओं के बीच कई बार अपने कटे हुए अंगों को और जख्मी कर लेते हैं, लौटकर ऑपरेशन के बाद उनके अधूरे अंग और कुछ इंच छोटे हो जाते हैं, लेकिन वे हौसला नहीं छोड़ते। शायद ऐसे ही लोगों को देख-देखकर चींटियां कोशिश करना सीखती हैं।
जिंदगी में हमेशा अच्छा ही होता रहे यह जरूरी नहीं रहता, अगर खुद की जिंदगी में सब कुछ अच्छा है, तो भी आसपास के लोगों की जिंदगी में कुछ न कुछ गड़बड़ हो सकता है। और ऐसे में लोगों को चाहिए कि संघर्ष, हौसले, जीत की कहानियां जहां से मिल सकें, वहां से लेकर आसपास लोगों तक पहुंचाएं ताकि लोग अपनी निराशा में डूब रहे हों, तो भी वे उससे उबर सकें। इस बात की अहमियत को समझना चाहिए कि आज अगर आप किसी और के काम आते हैं, तो कल आपके डूब रहे हौसले को उबारने के लिए कुछ दूसरे भी काम आ सकते हैं। दुनिया एक-दूसरे के सहारे से तैर सकती है, और एक-दूसरे से मिली बोझिल निराशा से डूब भी सकती है।
रोहन बोपन्ना की इस खबर से आज मुझे ही न सिर्फ लिखने के लिए एक विषय मिला है, बल्कि अपनी असल जिंदगी की कोशिशों से न थकने की एक मिसाल भी मिली है। लोगों को जिस मंजिल को पाने की हसरत हो, उसके लिए खूब तैयारी करनी चाहिए, जमकर कोशिश करनी चाहिए, और फिर उसकी उम्मीद छोडऩी नहीं चाहिए। साथ-साथ यह भी समझना जरूरी है कि जिंदगी में जो पाने की संभावना बिल्कुल भी न हो, खुद की तैयारी वहां तक न पहुंचा सके, उनके लिए अंतहीन कोशिश भी नहीं करनी चाहिए। रोहन बोपन्ना की मिसाल तर्क और समझ से परे किसी अंधविश्वास के लिए नहीं है, बल्कि एक असल संभावना के लिए है, जिसे तौल लेना हर समझदार इंसान के लिए बेहतर बात होती है।
अयोध्या में कल रामलला के नए बने हुए मंदिर में रामलला की नई प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा होने जा रही है। देश के बहुत बड़े हिस्से में एक अभूतपूर्व और असाधारण हिन्दू धार्मिक आस्था का नजारा हो रहा है, और चूंकि अधिकतर हिन्दू संगठन भाजपा के साथ जुड़े हुए हैं, और अभी-अभी तीन राज्यों में भाजपा ने शानदार चुनावी कामयाबी हासिल की है, इसलिए भी उत्साह सामान्य से बहुत अधिक है। इसके अलावा कुछ महीनों के भीतर लोकसभा के चुनाव होने हैं, और उनमें सबसे अधिक चर्चित, कामयाब, और संभावनाओं वाले नेता नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री पद पर दस बरस भी पूरे होने को होंगे, इसलिए उनकी पार्टी की केन्द्र और राज्य सरकारों का भी बड़ा उत्साह 22 जनवरी की रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा को लेकर है। एक किस्म से यह भी माना जा सकता है कि कल मोदी के लोकसभा चुनाव प्रचार की शुरूआत होने जा रही है, और इसके बाद से वह लगातार अयोध्या से जुड़ी हुई बहुत से प्रतीकों को लेकर देश भर में फैलते चले जाएगा। चुनाव के पहले भाजपा और एनडीए के मुकाबले इंडिया नाम का जो गठबंधन खड़ा हुआ है, वह अपनी आंतरिक विसंगतियों से तो अनिश्चय और अनिश्चित भविष्य दोनों का शिकार है ही, अयोध्या के इस मौके पर इस गठबंधन में पार्टियों के बीच गहरी दरारें देखने मिली हैं, और इस मौके पर इंडिया-गठबंधन की पार्टियों में एक राय होना तो दूर रहा, इसकी मुखिया कांग्रेस पार्टी के भीतर भी इस पर एक राय नहीं है। पार्टी ने औपचारिक रूप से जिस तरह अयोध्या ट्रस्ट के भेजे हुए न्यौते को नामंजूर किया है, उससे पार्टी के ही बहुत से नेता हक्का-बक्का हैं कि कांग्रेस क्या सचमुच इस प्राण-प्रतिष्ठा के बाद, इसके न्यौते को नामंजूर करके चुनाव मैदान में बने रहने की उम्मीद करती है?
अयोध्या के राम मंदिर का मामला कभी भी विशुद्ध धार्मिक मामला नहीं रहा, और जब से लालकृष्ण अडवानी ने इसके लिए 90 के दशक में रथयात्रा निकाली थी, तब से लेकर अब तक यह धार्मिक के साथ-साथ राजनीतिक, और इन सबके भी ऊपर अदालती मामला बने रहा। जाने कितने दशक की कानूनी लड़ाई के बाद हिन्दू समाज के अलग-अलग बहुत से लोगों और संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट से एक सर्वसम्मत फैसला पाया, और उसी के नतीजे की शक्ल में यह मंदिर पूरा होने जा रहा है। चूंकि देश की सबसे बड़ी अदालत इस पर सर्वसम्मत फैसला दे चुकी है, इसलिए हम उसके पहले जाना नहीं चाहते, और कांग्रेस जैसी कई पार्टियां इस हकीकत तक पहुंचना नहीं चाहतीं कि हिन्दू संगठनों ने भाजपा के साथ मिलकर ही राम मंदिर की लड़ाई लड़ी थी, और अब जब मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा हो रही है, तो जाहिर तौर पर भाजपा ही मंदिर ट्रस्ट के दिल के करीब रहेगी। ऐसे में भाजपा के आज के सबसे बड़े नेता नरेन्द्र मोदी को अगर इस प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया गया है, और वे अपनी सहज शैली के मुताबिक इस मौके को कई दिनों के समारोह में तब्दील कर चुके हैं, प्राण-प्रतिष्ठा के पहले दक्षिण के कई मंदिरों में जाकर रामकथा में दर्ज इतिहास की जगहों पर घूम रहे हैं, तो इसमें न कुछ अनैतिक है, और न ही यह किसी कानून का बेजा इस्तेमाल है। लोकतंत्र में हर किसी पार्टी या संगठन को इस बात की आजादी है कि वे कानून के दायरे में अपनी पसंद के लोगों को जोड़ें, और चुनाव आचार संहिता से परे आयोजन करें। राम मंदिर ट्रस्ट ने देश की बहुत सी पार्टियों के बहुत से नेताओं को भी न्यौता भेजा है, और देश के बड़े-बड़े कामयाब और मशहूर लोगों को भी। अब यह इनका निजी फैसला रहेगा कि ये इस आयोजन में पहुंचते हैं या नहीं। कांग्रेस ने जब इस न्यौते को नामंजूर किया था, उस दिन भी हमने उसके इस रूख के खिलाफ कहा था। आज कई दिन गुजर जाने के बाद भी हमारी यही सोच कायम है कि जिस पार्टी को जनता के बीच जाकर वोट मांगने होते हैं, वह पार्टी एक सैद्धांतिक कट्टरता पर अड़ी नहीं रह सकती, सिद्धांत अपनी जगह बने रह सकते हैं, और देश की संस्कृति के हिसाब से व्यवहार में एक लचीलापन भी रह सकता है। कांग्रेस पार्टी ने बिना किसी वजह के वह लचीलापन खो दिया है, और एक गैरराजनीतिक ट्रस्ट को अदालत से मिले फैसले के बाद हो रहे इस आयोजन का न्यौता नामंजूर करके पार्टी ने जो अडिय़ल रूख दिखाया है, वह भला किसी का नहीं कर रहा, इस पार्टी का बुरा जरूर करने जा रहा है।
अयोध्या के इस राम मंदिर की बुनियाद में बड़ा लंबा इतिहास दफन है, उसमें आजादी के पहले का सैकड़ों बरस का इतिहास भी है, और आजादी के बाद का बाबरी मस्जिद गिराने से लेकर अदालती फैसले से राम मंदिर बनाने तक का ताजा इतिहास भी सामने है। इन 30 बरसों में देश, और अयोध्या वाले उत्तरप्रदेश में कई तरह की सोच की सरकारें रहीं, अयोध्या का मामला अदालतों में चलते हुए कई जज भी बदले, और जिला अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक इस पर जितनी लंबी सुनवाई हुई है, उससे अधिक कुछ भी एक लोकतंत्र की न्यायपालिका में मुमकिन नहीं था। इसलिए अब जब अदालती फैसले और जनता के पैसों से राम मंदिर बना है, तो उसे राजनीतिक मानना सही नहीं है। यूं तो लोकतंत्र के हर काम से राजनीति जुड़ी रहती है, लेकिन जहां इतनी लंबी अदालती प्रक्रिया ने, और दानदाताओं ने इस मंदिर को हकीकत बनाया है, तो फिर इसे महज राजनीति कह देना लोकतंत्र के बाकी दायरों और पहलुओं की अनदेखी करना है। अयोध्या में प्राण-प्रतिष्ठा का समारोह कोई मनाए या न मनाए, यह उनका अपना फैसला है, और प्रधानमंत्री की हैसियत से अगर नरेन्द्र मोदी को मंदिर ट्रस्ट ने मुख्य अतिथि बनाया है, तो यह ट्रस्ट और पीएम का आपसी फैसला है। इससे जिसको जो चुनावी नफा-नुकसान होना है, वे खुद उसके लिए जिम्मेदार हैं। जिन पार्टियों को चुनावी नुकसान झेलकर भी प्राण-प्रतिष्ठा के इस समारोह से परे रहना है, यह उनकी अपनी सोच, और उनकी अपनी आजादी है। भारतीय लोकतंत्र में यह बहुसंख्यक हिन्दू जनता के धार्मिक पुनर्जागरण का ऐतिहासिक मौका है, इसे इससे कम आंकना गलत होगा। देश के चारों शंकराचार्यों ने प्राण-प्रतिष्ठा समारोह का अलग-अलग कारणों से विरोध किया है, लेकिन सबके विरोध में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक निशाना हैं। इसे देखते हुए सोशल मीडिया पर किसी ने एक मजेदार बात लिखी है कि भारत में धर्म और राजनीति का मेल इतना गहरा हो गया है कि आज प्रधानमंत्री देश के सबसे बड़े धर्मगुरू दिख रहे हैं, और चारों सबसे बड़े धर्मगुरू विपक्षी नेता दिख रहे हैं!
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न सिर्फ हिन्दुस्तान में बल्कि पूरी दुनिया में एक तो महिलाओं को आदमियों के मुकाबले दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता है, उन्हें हिकारत से देखा जाता है। पश्चिमी सभ्यता में सुनहरे बालों वाली गोरी महिलाओं को ब्लॉंड कहकर उनकी काल्पनिक बेवकूफियों के अंतहीन लतीफे बनाए जाते हैं। पूरी दुनिया में महिलाओं खराब ड्राइवर माना जाता है, यह माना जाता है कि उनकी व्यंग्य की समझ कम रहती है। सोशल मीडिया पर ऐसे लतीफे भरे रहते हैं जो कि शादीशुदा जिंदगी में मर्द की नर्क सरीखी जिंदगी, और उसके लिए जिम्मेदार उसकी बीवी की कहानी बताते हैं। यह सब कुछ इतना आम हो चुका है कि खुद महिलाएं ऐसे लतीफे बताते हुए हिचकती नहीं हैं।
लेकिन आम महिलाओं के मुकाबले जहां कोई महिला कामकाजी हो जाती है, राजनीति या सार्वजनिक जीवन में किसी ऊंचाई पर पहुंच जाती है, वहां उसके खिलाफ और हजार किस्म की बातें होने लगती हैं। महिला का घर की दहलीज के बाहर पांव रखना उसे कई किस्म की अप्रिय चर्चाओं का सामान बना देता है। इसके बाद जैसे-जैसे उसका काम का दायरा बढ़ता है, जैसे-जैसे उसे अधिक लोगों के साथ उठना-बैठना पड़ता है, काम के सिलसिले में कहीं-कहीं जाना पड़ता है, वैसे-वैसे वह अधिक निशाने पर आते चलती हैं। उसकी हर कामयाबी के लिए उससे ऊंची जगह पर बैठे हुए किसी मर्द की मेहरबानी को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है, और उस महिला की मानो आगे बढऩे, ऊपर पहुंचने, कामयाब होने की कोई क्षमता ही न हो। यहां पर भी किसी भी पेशे या कारोबार में कामयाब महिला के खिलाफ बोलने वालों में उससे कम कामयाब महिलाओं का बड़ा हिस्सा रहता है।
अगर कोई महिला जरा सी खूबसूरत हो गई, तो उसकी हर कामयाबी को उसके रूप-रंग से जोडक़र देखा जाता है, और यह ढूंढने की कोशिश होती है कि उसके ऊपर के किस मर्द को इस रूप-रंग की मेहरबानी से जोड़ा जा सके, ताकि महिला की तरक्की को इस काल्पनिक मेहरबानी से जोड़ा जा सके। किसी संस्थान में महिला को तरक्की मिली, तो बोलचाल की आम जुबान में कहा जाता है कि बॉस के साथ सोकर आई होगी। अंग्रेजी जानने वाले लोग इसे कार्पोरेट क्लाइंबर कहते हैं, और हर तरक्की के साथ महिला के चाल-चलन को और गंदा ठहराने का सिलसिला आगे बढ़ते रहता है। एक वक्त था जब लोग यह मानकर चलते थे कि महिला घर के बाहर निकल रही है, तो फिर अब उसका बचे रहना मुमकिन नहीं होगा।
दरअसल, किसी भी महिला का आसपास के पुरूषों से अधिक कामयाब होना तो दूर रहा, महज बराबरी का कामयाब हो जाना भी उसके चाल-चलन पर हमले का सामान बन जाता है। और तो और साहित्य जैसे पढ़े-लिखे दायरे में भी किसी लेखिका का महत्व पा जाना, या अधिक छप जाना संपादक के साथ उसके रिश्तों की सेक्सी-कल्पनाओं को पैदा कर देता है। किसी अखबार या टीवी चैनल में किसी लडक़ी या महिला को उसकी काबिलीयत से कोई मौका मिल जाना भी अपनी देह को सीढ़ी बनाकर उसके ऊपर चढऩे से जोड़ दिया जाता है, मानो उसके पास देह से अधिक कुछ न हो।
यह पूरा सिलसिला मर्दों की असुरक्षा की भावना से उपजा हुआ रहता है जो कि किसी भी कामयाब या काबिल लडक़ी या महिला को देखकर तुरंत ही हीनभावना के शिकार हो जाते हैं, क्योंकि उन्हें पीढिय़ों से यही सोच विरासत में मिली है कि लड़कियों और महिलाओं को मर्दों के मातहत ही काम करना चाहिए। मनुस्मृति ने यही सिखाया है कि किस तरह लडक़ी को पहले पिता, फिर पति, और फिर पुत्र का गुलाम रहना चाहिए। बचपन से स्कूली किताब में कमल घर चल, और कमला जल भर पढऩे वाले लडक़े जब मर्द बनते हैं, तो वे कमला को पढ़ते देखकर सहम जाते हैं, और जब कमला पढ़ाई में कमल से आगे निकल जाती है, तो उसके मुकाबले अधिक पढऩा तो बड़ा मुश्किल रहता है, लेकिन उसे बदनाम करना बड़ा आसान रहता है। इसलिए मर्दों की सोच अपने-अपने देश की मनुस्मृतियों की अलग-अलग किस्मों का शिकार रहती हैं, और दुनिया का कोई भी धर्म ऐसा नहीं है जो कि औरत को बराबरी का दर्जा देता हो। कोई महिला पोप नहीं बन सकती, न पादरी बन सकती, न मौलवी बन सकती, न शंकराचार्य बन सकती, न पुजारन बन सकती। और तो और देवी की प्रतिमाओं के कपड़े बदलते हुए बाहर पर्दा टांगकर भीतर यह काम पुरूष पुजारी ही करते हैं, ऐसे काम के लिए भी किसी महिला को मौका नहीं मिलता कि वह देवी के मंदिर में पुजारन हो जाए। इसलिए धर्म ने पूरी दुनिया में हजारों बरसों से औरतों को नीचा दिखाने का जो सिलसिला चला रखा है, तमाम पुरूष-सोच उसी का शिकार है, और आज भी लोगों को किसी भी दायरे में आगे बढ़ती महिला आंखों की किरकिरी सरीखी खटकती है।
मेरा देखा हुआ है कि किसी पेशे में काम करती हुई कोई महिला रोजाना दस-दस घंटे काम करे, और काम से लौटकर घर का पूरा काम करे, सामाजिकता निभाए, परिवार के आग्रह पर प्रवचन में भी जाकर बैठे, दोनों तरफ के परिवारों की तमाम जरूरी और गैरजरूरी जिम्मेदारियां उठाए, और इसके बाद भी हर तरफ से शिकायतें पाए, हर तरफ बदनामी झेले। ऐसी कई कामकाजी, और बहुत ईमानदारी से मेहनत करने वाली, होनहार महिलाओं के मामले मेरे देखे हुए हैं जिनकी सौ फीसदी जायज तरक्की भी उनके बदन से जोड़ दी जाती है। और ऐसे बहुत से मामलों में तोहमत लगाने वालों की एक और नीयत शामिल रहती है। कामकाजी महिला घर, दफ्तर, और दुनिया तीनों में बदनाम होती है। फिर चाहे वह हर मोर्चे पर कमरतोड़ काम करके, होनहार होने से, अपने हुनर से कामयाब हुई हो। जो हाथ उसे दबोच न पाएं, या जिन हाथों से वह छूट जाए, उनकी उंगलियां उसके खिलाफ सबसे पहले उठ जाती हैं, उसके खिलाफ सबसे पहले नुकीले पत्थर उठा लेती हैं।
इस आखिरी बात का आधा हिस्सा तो मैंने सोचा था, लेकिन इसे एक महिला दोस्त को भेजा तो उसने इसमें बाकी आधा हिस्सा जोड़ दिया। जाहिर है कि महिला के साथ होती बेइंसाफी की कल्पना कुछ हद तक तो मेरे लिए मुमकिन था, लेकिन बाकी हिस्सा एक भुगते हुए सच से निकला था, जो कि किसी महिला के लिए ही मुमकिन था।
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से बड़ी दिलचस्प खबर आई है, वहां भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए अभी धोती-कुर्ते में क्रिकेट मैच खेला गया, जिसकी कमेंटरी संस्कृत में की गई। तमाम टीमें अलग-अलग धार्मिक नामों वाली थीं, और आयोजकों का कहना था कि संस्कृत देवताओं की भाषा है, और इसी से दुनिया की सभी भाषाएं पैदा हुई हैं। यह टूर्नामेंट संस्कृति बचाओ मंच की तरफ से हो रहा है, और ये टीमें वैदिक विश्वविद्यालय के छात्रों की हैं जो कर्मकाण्ड की शिक्षा प्राप्त करते हैं। टूर्नामेंट जीतने वाली टीम को आयोजन समिति रामलला के दर्शन के लिए अयोध्या भेजने वाली है।
बड़ा ही दिलचस्प मामला है जिसमें भारतीय संस्कृति को बचाने के लिए, और संस्कृत भाषा के महत्व को स्थापित करने के लिए यह क्रिकेट मैच करवाया जा रहा है। इसके पीछे की धार्मिक और सांस्कृतिक भावनाओं के साथ-साथ यह समझना थोड़ा सा मुश्किल है कि भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए अंग्रेजों का खेल क्यों खेला जा रहा है। इसके बजाय चौसर, या तीरंदाजी, कुश्ती, या मल्लखंभ जैसे कोई मुकाबले करवाकर हिन्दुस्तानी संस्कृति को बेहतर तरीके से बचाया जा सकता था, और ऐसे खेलों की संस्कृत में कमेंटरी भी की जा सकती थी।
यह एक बड़ा अजीब सा घालमेल है जिसमें संस्कृति को धर्म से जोड़ दिया गया है, धर्म को एक भाषा से, और उस भाषा को देवताओं की भाषा बना दिया गया है, और दुनिया की तमाम भाषाओं के इसी संस्कृत से निकलने का दावा करते हुए उसी गर्व में डूबे रहने को काफी मान लिया गया है। यह सच्चे या झूठे इतिहास की छाया में चैन से सोकर वर्तमान को पार कर लेने की एक ऐसी कोशिश है, जो इस पीढ़ी को भविष्य में नहीं पहुंचा सकती। इंसानी बदन की उम्र तो हर पल भविष्य की तरफ बढ़ ही जाती है, लेकिन जब उसकी सोच आगे बढऩे से इंकार कर देती है, और अपने इतिहास की अपनी खुद की गढ़ी हुई कल्पना को आरामदेह मान लेती है, तो फिर बदन बूढ़ा हो जाता है, और दिल-दिमाग कई सदी पहले पहुंचे हुए रहते हैं।
हालत यह हो जाती है कि तथाकथित सांस्कृतिक इतिहास के गौरवगान में डूबे हुए लोगों को यह विरोधाभास भी समझ नहीं आता कि वे अपनी संस्कृति बचाने के लिए अंग्रेजों के खेल, क्रिकेट की पीठ पर सवार होकर चल रहे हैं, जो कि इस गुलाम देश में अंग्रेजों की दासता के इतिहास का एक प्रतीक भी है। हमलावर और विदेशी शासकों की छोड़ी हुई विरासत पर सवार होकर किस तरह कोई घरेलू संस्कृति जिंदा रह सकती है?
मध्यप्रदेश के इस वैदिक विश्वविद्यालय में जिस तरह के भी कर्मकाण्ड पढ़ाए जा रहे हैं, उन पर रोजी-रोटी चलने के लिए यह भी जरूरी है कि हिन्दू धर्म को मानने वाले हमेशा ही धर्मालु बने रहें, और कर्मकाण्डों पर उनका भरोसा कायम रहे। इसी उम्मीद में छात्रों की यह नौजवान पीढ़ी धर्म या संस्कृति के कर्मकाण्डों की यह पढ़ाई कर रही है कि उसे हमेशा ही जजमान हासिल रहेंगे। एक हुनर के रूप में तो यह पढ़ाई ठीक हो सकती है कि पूजा-पाठ करवाकर, या हवन-पूजन करवाकर ये लोग अपनी जिंदगी गुजार सकते हैं, लेकिन ऐसी पढ़ाई इस बात को अनदेखा करती है कि यह लोगों को धर्मालुओं पर परजीवी की तरह पलने के लिए तैयार कर रही है। जिन लोगों को भी ऐसा भविष्य सुहाता है, वे बेरोजगार रहने के बजाय पंडिताई करके दान-दक्षिणा से जिंदगी गुजारने का काम कर सकते हैं। और ऐसी ही पीढ़ी तैयार करने के लिए ये आयोजक संस्कृत कमेंटरी वाला क्रिकेट टूर्नामेंट करवा रहे हैं।
अगर ऐसे संस्थानों का सर्वे किया जाए तो कर्मकाण्ड का कोर्स कर रहे लोगों में से शायद ही कोई किसी नेता या अफसर, या किसी दौलतमंद के बच्चे निकलेंगे। ऐसे तबके अपने बच्चों को तो बेहतर पढ़ाई के लिए भेज देते हैं ताकि वे जिंदगी में अधिक कामयाब हो सकें, दूसरी तरफ वे धर्म और जाति के आधार पर छांटे गए गरीब बच्चों के लिए ऐसी कोर्स चलाते हैं जिनमें वे हमेशा ही धर्म पर पलने वाले बनकर रह जाएं। यह कुछ-कुछ उसी किस्म का है जिस तरह गरीब मुस्लिमों के लिए मदरसों में धर्म की पढ़ाई होती है। संपन्न मुस्लिम अपने बच्चों को पश्चिमी दुनिया में भेजते हैं, और गरीब मुस्लिमों के बच्चों के लिए मदरसे चलते हैं। यह भी देखा जाना चाहिए कि दुनिया के बाकी धर्मों में कमउम्र से ही धर्मशिक्षा देने का इंतजाम किस आय वर्ग के बच्चों के लिए किया जाता है।
पहले तो हिन्दी से प्रेम के नाम पर अंग्रेजी से परहेज ने कई पीढिय़ां बर्बाद कर दी हैं, और उनकी संभावनाएं सीमित कर दी हैं। भाषा को देशप्रेम से जोड़ दिया गया, उसे मातृभाषा और राष्ट्रभाषा का दर्जा दे दिया गया, और ऐसी भावनाओं के चलते दुनिया की विज्ञान और टेक्नॉलॉजी की भाषा का बहिष्कार भी किया गया। हिन्दुस्तान में बहुत से अंग्रेजी हटाओ आंदोलन देखे हैं, जिनका नुकसान हिन्दीभाषी इलाकों की कई पीढिय़ां झेल रही हैं। दूसरी तरफ दक्षिण के जिन राज्यों ने, या अहिन्दीभाषी दूसरे राज्यों में जिस तरह अंग्रेजी को भी अपनाया, उसी का नतीजा है कि उनकी आबादी दुनिया भर में पहुंची, और हिन्दी से परे भी रोजगार कमाने के लायक तैयार हुई। आज हिन्दी से भी और एक दर्जा जटिल और अलोकप्रिय संस्कृत को बढ़ावा देने के नाम पर जिस तरह गरीब बच्चों को उसमें झोंका जा रहा है, वह उन असहाय बच्चों के साथ बेइंसाफी है।
एक तरफ तो देश के कुछ भाजपा शासन वाले राज्यों में मदरसों की पढ़ाई को कम या खत्म करने की बात होती है, दूसरी तरफ धर्म और संस्कृत भाषा के साथ कर्मकाण्डों की पढ़ाई क्या एक संस्कृत मदरसा नहीं बना रही है?
इन दिनों सार्वजनिक जगहों पर बहुत से लोग इत्र की दुकान की तरह महकते हुए दिखते हैं। नौजवानों में मामूली आर्थिक हैसियत के बहुत से लडक़े-लड़कियां भी कुछ न कुछ सुगंध लगाए दिखते हैं। पसीने और बदन की बदबू को दबाने के नाम पर बहुत सी कंपनियां अपने डियो (डियोडोरेंट) की ऐसी आक्रामक मार्केटिंग करती हैं, और अनगिनत फिल्मी सितारे, या खिलाड़ी ऐसे स्प्रे के बाद ही अपने आत्मविश्वास के जागने का दावा करते हैं। ऐसी मॉडलिंग और ब्रांड प्रमोशन के बाद यह जाहिर है कि लोग अपने बदन की स्वाभाविक गंध को बदबू मान लेते होंगे, और किसी स्प्रे के सहारे के बिना वे अपने आपको आत्मविश्वास की बैसाखी के बिना चलने वाले महसूस करते होंगे।
दरअसल बाजार लोगों में हीनभावना और बेचैनी भरकर अपना कारोबार करता है। फैशन और मेकअप का बहुत बड़ा कारोबार अमरीकी सितारों से लेकर अमरीकी छरहरी गुडिय़ा, बार्बी डॉल के बदन के आकार के असर से चलता है। अभी अधिक वक्त नहीं हुआ जब दुनिया के सिगरेट और शराब के सबसे बड़े ब्रांड चर्चित चेहरों के कंधों पर सवार होकर ग्राहकों को लुभाने निकलते थे। हिन्दुस्तान में भी सिगरेट का एक बड़ा ब्रांड देश भर के जोड़ों को एक मुकाबले में बुलाता था, जिनमें सबसे अच्छा जोड़ा दिखने वाले पति-पत्नी को सिगरेट की मॉडलिंग के लिए छांटा जाता था। इस तरह नए कानून बनने के पहले तक बाजार लगातार बुरी आदतों को बढ़ाने के लिए भी हर किस्म के हथियारों वाले हमले इस्तेमाल करता था। आज भी हिन्दुस्तान में सिगरेट और शराब के इश्तहारों पर रोक रहने पर भी, उन्हीं नामों के दूसरे सामान बनाकर, उसी ब्रांड से बाजार में बेचने की धोखाधड़ी धड़ल्ले से चलती है, और कारोबार के दबाव में रहने वाली सरकारें इसे अनदेखा भी करते रहती हैं।
बाजार की तकनीक कुछ-कुछ राजनीतिक दलों सरीखी रहती है जो कि लोगों के मन में किसी तरह की दहशत, किसी तरह की नफरत, किसी तरह की धर्मान्धता, कट्टरता भरते हैं, फिर किसी काल्पनिक दुश्मन की गढ़ी गई तस्वीर दिखाकर खतरे बताते हैं, और वोटरों को यह सोचने को मजबूर करते हैं कि फलां नेता या राजनीतिक दल को वोट दिए बिना हिफाजत नहीं है।
बाजार ऐसा ही करता है। लोगों को उनके बदन के आकार से हीनभावना का शिकार बना देता है, उन्हें अपने रंग को लेकर इतना बेचैन कर देता है कि माइकल जैक्सन जैसे लोग दर्जनों बार की प्लास्टिक सर्जरी से अपना रंग बदलवाते रहे, नाक को धार लगवाते रहे, और बेचैनी में ही मर भी गए। हिन्दुस्तान में भी फेयरनेस क्रीम का कारोबार आसमान चीरकर आगे बढ़ते रॉकेट की तरह बढ़ते रहा, और वह पूरी तरह से हीनभावना पर जिंदा बाजार था, जिसे देश के सबसे चर्चित, शाहरूख खान सरीखे फिल्म अभिनेता बढ़ावा देते रहे।
देश के सबसे बड़े फिल्मी सितारे, सबसे बड़े क्रिकेट खिलाड़ी जब गैरजरूरी चीजों को बेचकर खुद अरबपति होते हैं, और वैसे ब्रांड के मालिकों को खरबपति बनाते चलते हैं, तो उस हमले के सामने साधारण सोच के जिंदा रह पाने की गुंजाइश नहीं रहती। देश के तीन-तीन, चार-चार सबसे बड़े सितारे जब कोई गुटखा बेचते हैं, तो नौजवानों को कैसे उसके इस्तेमाल से बचाया जा सकता है? जब देश की कुछ सबसे सुंदर चर्चित लड़कियां और महिलाएं हर कुछ महीनों में बदले जा रहे फैशन का बाजार खड़ा करने के लिए न सिर्फ इश्तहारों में, बल्कि मीडिया की दूसरी मासूम दिखती, लेकिन खरीदी गई जगहों पर भी छाई रहती हैं, तो देश की लड़कियां और महिलाएं उनके बिना अपने आपको समाज और अपने दायरे की दौड़ से बाहर पाती हैं।
बाजार के हमले का सामना कर पाना आसान नहीं है, क्योंकि इन हमलों और इसके हथियारों को, इनकी फौजी रणनीति को दुनिया के कुछ सबसे शातिर दिमाग तय करते हैं। ये दिमाग माताओं के दिमाग में यह भरने में कामयाब हो जाते हैं कि बच्चों को अगर जिराफ की तरह ऊंचा बनाना है, उनके बदन और दिमाग को तेजी से बढ़ाना है, तो उन्हें दूध में कौन सा पाउडर घोलकर पिलाना होगा। हालत यह है कि बच्चों के खानपान को लेकर उनकी माताओं के दिमाग में इतना कुछ भर दिया गया है कि वे बच्चों के डॉक्टरों का जीना हराम किए रहती हैं।
लोगों के मन में बेचैनी भरकर, उन्हें हीनभावना में डुबाकर, उन्हें बेहतरी के सपने दिखाकर इतना कुछ किया जाता है कि लोग बाजार की रणनीति के हिसाब से ही सोचने लगते हैं, और इंसान के बजाय ग्राहक बनकर वे अपने को अधिक महफूज महसूस करते हैं। जो सामान न हेलमेट हैं, न बुलेटप्रूफ जैकेट हैं, वे भी लोगों को हिफाजत का अहसास कराने लगते हैं। कुछ खास ब्रांड के टूथपेस्ट लोगों को यह बतलाने लगते हैं कि उनकी सांस से निकली हुई सनसनीखेज ताजगी किस तरह आसपास से गुजरती लड़कियों और महिलाओं को भी उनकी तरफ खींच देगी। लोगों के सेहतमंद खाने-पीने की एक मामूली सी समझ किनारे धरी रह जाती है, और वे ढेर-ढेर शक्कर वाले कोल्ड ड्रिंक, या एनर्जी ड्रिंक के बिना, किसी प्रोटीन ड्रिंक के बिना अपने को अधूरा पाते हैं।
जिस तरह अखबार और टीवी चैनल, या यूट्यूब और फेसबुक के रास्ते लोगों तक पहुंचने वाली सोच उन्हें बदल दे रही है, उसी तरह हमलावर मार्केटिंग से लोगों का खानपान, रहन-सहन, सब कुछ बदल जा रहा है। लोग हजारों बरस से सामाजिक प्राणी थे, लेकिन अब बाजार की रणनीति लोगों के अलग-अलग समाज बांट दे रही हैं, और लोग ग्राहकों की अलग-अलग किस्मों के समुदाय बनते जा रहे हैं। अधिकतर लोगों को यह समझ भी नहीं पड़ रहा है कि वे किस तरह बाजार के हाथों एक कठपुतली की तरह काम कर रहे हैं, और वे अपनी जरूरत से बिल्कुल ही परे जाकर ग्राहक बनते जा रहे हैं। लोगों के पास आज किसी मोबाइल या कार का एक मॉडल अपनी पूरी क्षमता से इस्तेमाल नहीं हो पाता है कि कुछ और क्षमताओं वाले नए मॉडल लोगों के भीतर बेचैनी भरने लगते हैं। आज लोगों को अपने दोस्तों और परिवार के दायरे में यह सोचना चाहिए कि क्या उन्हें सचमुच और अधिक की जरूरत है, और नए की जरूरत है, या मौजूदा काफी है? बाजार शायद लोगों को इतना तर्कसंगत रहने नहीं देगा, और लोग एक वफादार ग्राहक की तरह अपने ब्रांड से बंधे रह जाते हैं, काल्पनिक जरूरतों को जरूरी सच मानकर उन्हें हासिल करने में जुट जाते हैं। पता नहीं बाजार की यह साजिश इंसानों को गुलाम ग्राहकों से परे भी कुछ रहने देगी या नहीं।
अभी इस वक्त जब हम यह लिख रहे हैं, छत्तीसगढ़ में भाजपा के दिल्ली से भेजे गए पर्यवेक्षक पहुंचे हुए हैं, और जब तक यह लिखना पूरा होगा तब तक उनकी विधायकों के साथ बैठक शुरू हो चुकी होगी। विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस और भाजपा दोनों के बीच इस बात को लेकर आत्ममंथन चल रहा है कि कांग्रेस की ऐसी हार, और भाजपा की ऐसी जीत कैसे हुई? दोनों ही उम्मीद से अधिक रहीं, इसलिए यह चर्चा अखबारों के पन्नों पर भी बिखरी हुई है, और कैमरों के सामने भी। हम भी लगातार इस मुद्दे पर सोच रहे हैं, और लिख-बोल रहे हैं। लेकिन जिस तरह चुनाव के पहले छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी ने एक बड़ा जनधारणा प्रबंधन किया था, और तमाम ओपिनियन पोल से लेकर एक्जिट पोल तक एक ही चर्चा थी कि कांग्रेस बड़े वोटों से जीतकर आ रही है, उसी तरह आज ऐसा लगता है कि एक यह जनधारणा बन रही है, या बनाई जा रही है कि कांग्रेस की ऐसी बुरी हार पार्टी के भीतर नेताओं के एक-दूसरे को हराने की कोशिशों से हुई है। अभी यह साफ नहीं है कि ऐसी जनधारणा अगर सचमुच बनाई जा रही है, तो उसके पीछे क्या मकसद है? लेकिन ऐसा लगता है कि ये आरोप तो कांग्रेस के भीतर चल ही रहे थे, जब वोट भी नहीं डले थे, नतीजे निकलना तो दूर की बात थी, तब भी ये आरोप हवा में थे कि कुछ बड़े नेताओं के खिलाफ उनके विधानसभा क्षेत्र में उनके वोट खराब करने कुछ लोगों को खड़ा किया गया था, कुछ लोगों को अंधाधुंध बड़ी रकमें भेजी गई थीं। इसलिए इस शिकायत में कुछ नया नहीं है। और अगर आज भी ऐसी शिकायतों की खबरों को हवा दी जा रही है, तो यह सोचने का मौका है कि क्या यह किसी और मुद्दे की तरफ से ध्यान हटाने के लिए की जा रही सायास कोशिश है?
आज छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की ऐसी हार के पीछे एक बड़ी वजह भूपेश बघेल सरकार के तौर-तरीके थे। जिस अंदाज में वह सरकार चली, जिसे कि बोलचाल की जुबान में बैड गवर्नेंस कहते हैं, वह चर्चा से गायब दिख रही है। भ्रष्टाचार के कुछ मामलों की चर्चा भाजपा जरूर कर रही है कि कांग्रेस को इस वजह से भी खारिज किया है, लेकिन सरकार चलाने के गलत तौर-तरीकों पर बात नहीं हो रही है। पता नहीं कल दिल्ली में हुई कांग्रेस की समीक्षा बैठक में खरगे-राहुल जैसे लोगों ने हकीकत जानने की कोशिश की, या टकराव को टालने की, यह तो बाहर पता नहीं चल पाया है, लेकिन छत्तीसगढ़ में पांच बरस सरकार चलाने में जो गलत तौर-तरीके थे, उनकी बात की जानी चाहिए, लेकिन उस पर अखबारों और टीवी पर भी बात होते नहीं दिख रही है।
कल कोरबा के विधायक रहे, और भूपेश मंत्रिमंडल के एक सबसे मुखर मंत्री, जयसिंह अग्रवाल ने जरूर कैमरे के सामने इस बात को खुलकर कहा कि उनके जिले में कलेक्टर और एसपी जैसे अफसर जिस तरह के भेजे गए, और उन्होंने जिस तरह से सत्तारूढ़ पार्टी की संभावनाओं को खत्म किया, वह हार की अकेली वजह थी। उन्होंने यह भी कहा कि मंत्रियों को कोई अधिकार नहीं दिए गए थे, और सारे अधिकार एक जगह (जयसिंह ने सीएम का नाम लेने से परहेज किया, लेकिन उनकी बात का मतलब किसी भी कोने से छिपा हुआ नहीं था) एक जगह केन्द्रित हो गए थे। यह बात पांच बरस हर मंत्री बोलते रहे, सार्वजनिक रूप से तो कम लोगों ने कहा, लेकिन बंद कमरे की आपसी बातचीत में हर किसी का दुखड़ा यही था। तमाम लोगों का यही कहना था कि प्रदेश में हाऊस (मुख्यमंत्री निवास) ही हर फैसला लेता है, और प्रदेश के हर महत्वपूर्ण ओहदे पर बैठे हुए अफसर भी हर बात के लिए हाऊस की तरफ देखते थे। जब पूरी की पूरी सत्ता एक जगह केन्द्रित थी, तो सरकार के अच्छे कामों के लिए भी उसी को शोहरत मिलनी थी, और तमाम बुरे कामों के लिए भी बदनामी की वही अकेली हकदार थी। इस तरह प्रदेश की पूरी सरकार, शासन-प्रशासन के सारे काम, एक हाऊस में सीमित हो गए थे, और कलेक्टर-एसपी जैसे पुलिस-प्रशासन के जिला-मुखिया भी अपने प्रशासनिक अफसरों के प्रति जवाबदेह नहीं रह गए थे। आज जब हम जनता के फैसले को देखते हैं, तो लगता है कि मुख्य सचिव से लेकर पटवारी तक के बीच मजबूती से जमी हुई यह धारणा सरकारी अमले से निकलकर बाहर भी चारों तरफ फैली, सत्तारूढ़ विधायकों और मंत्रियों को भी एक मामूली अफसर के रहमोकरम पर रहना पड़ा, और यह बात शासन-प्रशासन और सत्तारूढ़ संगठन सभी का मनोबल तोडऩे के लिए काफी थी।
आज चूंकि इस पहलू से कांग्रेस की हार को जोडक़र नहीं देखा जा रहा है, इसलिए इस पर चर्चा जरूरी है। कांग्रेस पार्टी को अगर देश-प्रदेश में कहीं भी अपना कोई भविष्य बनाना है, और बनाना तो दूर रहा, बचाना है, तो उसे पार्टी से परे की किसी पेशेवर संस्था की सेवाएं लेनी चाहिए, और उसे गोपनीय तरीके से अपने हारे हुए इन तीन राज्यों में कुछ महीने अध्ययन करने भेजना चाहिए, और उनकी रिपोर्ट पर बंद कमरे में खुलकर विचार करना चाहिए। हमारा मानना है कि कोई गैरराजनीतिक संस्था ऐसे काम को बेहतर तरीके से कर सकती है कि सरकार कैसे-कैसे नहीं चलाई जानी चाहिए थी। कम से कम जो तीन राज्य कांग्रेस अभी बुरी तरह हारी है, उस पर ऐसी रिपोर्ट कांग्रेस को लोकसभा चुनाव के वक्त भी काम आ सकती है। इससे भी पार्टी सबक ले सकती है कि किसी भी प्रदेश में पार्टी और उसकी सरकार की लीडरशिप के एक व्यक्ति में ही सीमित हो जाने का क्या नुकसान हो सकता है, उसके क्या खतरे हो सकते हैं? छत्तीसगढ़ इसकी एक शानदार मिसाल है कि जब किसी राज्य को किसी एक व्यक्ति को लीज पर दे दिया जाता है, तो उससे पूरी सरकार, और पूरा पार्टी संगठन कैसे खत्म होता है। इस राज्य में कांग्रेस को दो बार ऐसा करने का मौका मिला, 2000 में उसने जोगी को इस राज्य का पट्टा लिख दिया था, और इस बार भूपेश बघेल को। ऐसे निर्बाध एकाधिकार का क्या नतीजा निकलता है, यह पार्टी के सामने है। उसके पास अब इन प्रदेशों में राज्य के स्तर पर खोने के लिए कुछ नहीं बचा है, लेकिन पूरे देश के स्तर पर यह सबक लेने का मौका अभी बाकी है कि उसे अपना संगठन कैसे नहीं चलाना चाहिए। किसी एक व्यक्ति को ही ईश्वरीय सत्ता सौंप देने पर पार्टी के बाकी लोग किस तरह हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाने को मजबूर रहते हैं, छत्तीसगढ़ अपनी दो कांग्रेस सरकारों में इसकी एक शानदार मिसाल रहा है, और दोनों ही मौकों पर कांग्रेस हाईकमान का रूख एक सरीखा रहा है, फिर चाहे वजहें अलग-अलग क्यों न रही हों। लेकिन नतीजा एक ही रहा जब तानाशाही के अंदाज में चली सरकारें लोगों के बीच में एक मुजरिम-गिरोह की तरह मानी गईं, और चुनावी हार से परे भी कांग्रेस साख की इस नुकसान से उबर नहीं पाई। जोगी के बाद कांग्रेस 15 बरस सत्ता के बाहर रही, और इस बार मंत्रालय से उसका वनवास कितना लंबा होगा, यह इस पर भी निर्भर करेगा कि वह अपनी पार्टी के लिए अब कौन सा तौर-तरीका तय करती है।
खुद कांग्रेस के भीतर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के लिए यह एक आत्ममंथन का मौका हो सकता है कि राजनीतिक और सरकारी फैसले लेने में जब लोगों की भागीदारी खत्म कर दी जाती है, और अपने इर्द-गिर्द हासिल अकेली राय पर प्रदेश चलाया जाता है, तो उसके क्या नुकसान होते हैं। कांग्रेस ने 2023 के विधानसभा चुनाव के पहले दसियों हजार करोड़ रूपए के वायदे मतदाताओं से किए थे, इनमें से बहुत सीधे-सीधे नगद फायदा पहुंचाने वाले कुछ वायदे तो ऐसे थे जिनसे तमाम दो करोड़ वोटर जुड़े हुए थे, लेकिन जिस अंदाज में उन्होंने कांग्रेस को खारिज किया है उससे कांग्रेस को बहुत कुछ समझना और सीखना चाहिए। यह पार्टी घर तो बैठने वाली नहीं है, लेकिन यह मौका पार्टी संगठन को एक बेहतर भागीदारी वाली संस्था बनाने का भी है। कोई भी व्यक्ति चाहे वे कितने ही काबिल और कितने ही जनकल्याणकारी क्यों न हों, लोकतंत्र कभी व्यक्तितंत्र नहीं हो सकता। जब कभी लोकतंत्र में भागीदारी खत्म की जाती है, वह उसे तानाशाही की तरफ ले जाती है। छत्तीसगढ़ में लोग यह कहने में कतरा जरूर रहे हैं, लेकिन कांग्रेस को इस प्रदेश में अपने घर की पड़ताल करवाना चाहिए कि हम सैद्धांतिक रूप से जो बात कह रहे हैं, क्या वह छत्तीसगढ़ में उसकी सरकार, और उसकी पार्टी पर लागू नहीं हो रही थी?
कांग्रेस को यह भी समझने की जरूरत है कि देश में अपना संगठन चलाने के लिए, प्रदेशों में चुनाव करवाने के लिए उसे जो रकम लगती है, क्या उसके एवज में किसी प्रदेश को किसी एक नेता को लीज या ठेके पर दे देना ठीक है?
इससे परे हम कांग्रेस के राष्ट्रीय संगठन को यह भी याद दिलाना चाहते हैं कि छत्तीसगढ़ में इन पांच बरसों में सत्ता और संगठन (अब इन दोनों को क्या अलग-अलग लिखा जाए) ने पार्टी के सबसे बुनियादी मूल्यों को किस तरह खत्म किया है। धर्मनिरपेक्षता गांधी के वक्त से कांग्रेस की रीढ़ की हड्डी बनी हुई थी, उसकी आत्मा बनी हुई थी, इस एक शब्द के बिना कांग्रेस की कोई शिनाख्त नहीं थी, और इसके बड़े-बड़े नेता दिल्ली में बैठकर यह देखते रहे कि किस तरह कांग्रेस ने हिन्दुत्व की ए टीम बनने के लिए छत्तीसगढ़ में पार्टी के तन-मन से रीढ़ की हड्डी और आत्मा को निकालकर बाहर कर दिया था, ताकि बहुसंख्यक हिन्दू आबादी के सामने यह साबित किया जा सके कि उसका अल्पसंख्यकों से कोई भी लेना-देना नहीं है। यह बात हम पिछले आधे बरस में दो दर्जन बार लिख और बोल चुके हैं, और इसका चुनावी नतीजों से कोई लेना-देना नहीं है। चुनावी नतीजों ने सरकार के बारे में वोटरों की सोच का नया पहलू जरूर सामने रखा है, लेकिन सरकार का घोड़े पर सवार हिन्दुत्व इन पांच बरस भगवा झंडा लेकर प्रदेश में दौड़ते रहा, और किनारे पड़े जख्मी अल्पसंख्यकों को झंडे के डंडे से किनारे करते भी रहा। ऐसा भी नहीं कि सोनिया-परिवार को यह दिख न रहा हो, और अगर बीते बरसों में यह न दिखा हो, तो अब प्रदेश भर के चुनावी नतीजों से तो दिख जाना चाहिए।
कांग्रेस को छत्तीसगढ़ के पिछले पांच बरस के मॉडल से यह सबक लेने की जरूरत है कि उसे अपना संगठन, और अपनी सरकार किस तरह नहीं चलानी चाहिए, उसे यह भी सबक लेने की जरूरत है कि कोई नेता चाहे कितने ही कामयाब न हों, वे पूरे संगठन के, तमाम नेताओं के अकेले विकल्प नहीं बन सकते। अगर ऐसा हो सकता तो फिर सोनिया परिवार के तीन लोगों से परे देश में किसी पार्टी संगठन की जरूरत ही क्या रहती? छत्तीसगढ़ में इस पार्टी ने पांच बरस जो किया है, जो देखा है, और नतीजे में जो पाया है, वह भी अगर इस पार्टी के लिए सबक नहीं बन सकेगा, तो इसके लिए फिर दुनिया में और कोई सबक नहीं है।
मुम्बई के आईआईटी में खानपान को लेकर एक विवाद चल रहा है। वहां हॉस्टल में रहने वाले और मेस में खाने वाले छात्र-छात्राओं में से शाकाहारियों को यह शिकायत थी कि मांसाहारियों के साथ बैठकर खाने में उन्हें असुविधा होती है। उनकी मांग को देखते हुए आईआईटी ने मेस में कुछ टेबिलों को सिर्फ शाकाहारियों के लिए आरक्षित कर दिया था कि जिन्हें मांसाहार देखने से दिक्कत होती है, वे वहां बैठकर खा सकते हैं, और बाकी टेबिलों पर सभी लोग बैठ सकते हैं। इसे लेकर वहां एक विवाद चल रहा है। लोगों का कहना है कि यह जाति व्यवस्था, और धर्म व्यवस्था से जुड़ी हुई दकियानूसी सोच है। और अभी वहां एक छात्र पर शाकाहारी टेबिल पर मांसाहार खाने पर 10 हजार रूपए जुर्माना लगाया गया है जिसके बाद वहां के प्राध्यापकों से लेकर दूसरे लोगों तक सभी लोग इस विवाद में कूद पड़े हैं। और जब बात निकलती है तो कुछ दूर तक जाती है। यह बहस बढ़ते-बढ़ते मुम्बई जैसे महानगर में उन रिहायशी इमारतों तक चली गई है जिनमें से कुछ में मांसाहारियों को फ्लैट खरीदने नहीं मिलते, या उन्हें किरायेदार बनकर आने भी नहीं मिलता। उनके खानपान को लेकर शाकाहारियों को दिक्कत होती है, और इसलिए वे रिहायशी इमारतों को सिर्फ शाकाहारियों के लिए जैसी शर्तें रखते हैं।
भारत में पिछले 10-15 बरस में कई प्रदेशों से होते हुए अब तकरीबन पूरे देश में खानपान को धर्म और जाति से जोड़ दिया गया है। उत्तर भारत के बहुत से ऐसे शहर हैं जहां पर जब कांवडिय़ा निकलते हैं, तो उतने दिन रास्ते की सभी मांसाहार की दुकानों को, रेस्त्रां को बंद करवा दिया जाता है। कई शहर ऐसे हैं जहां हिन्दू त्यौहारों पर जानवरों का काटना बंद रहता है, और मांस-मछली बेचना भी। धीरे-धीरे हिन्दू, सवर्ण शाकाहारियों, जैन समुदाय के लोगों के दबाव में प्रदेशों में ऐसे दिन बढ़ रहे हैं, और एक-एक करके कई त्यौहारों पर मांसाहार को बंद कर दिया गया है। जबकि भारत के शाकाहार-मांसाहार के नक्शे को देखें तो 30 फीसदी से कम हिन्दुस्तानी ही शाकाहारी हैं। जिस उत्तरप्रदेश को लेकर घटनाएं सबसे अधिक सामने आती हैं वहां पर आधे से कम, 47 फीसदी शाकाहारी हैं। छत्तीसगढ़ में 18 फीसदी, झारखंड में 3 फीसदी, ओडिशा में 2.6 फीसदी, और तेलंगाना में 1.3 फीसदी लोग ही शाकाहारी हैं।
खानपान में मांसाहार से और बड़ा मुद्दा गाय-भंैस के मांस, बीफ का है। देश के बहुत से राज्यों में बीफ पर रोक लगी हुई है, लेकिन कई राज्य ऐसे हैं जहां इसकी पूरी कानूनी इजाजत है। ऐसे में जहां इसे गैरकानूनी करार दिया गया है, वहां पर गाय को मारना इंसान को मारने से बड़ा मुद्दा रहता है, और बीफ के शक में भी इंसानों को मार डालना कई जगह हुआ है। ऐसे में खानपान को लेकर अगर आईआईटी के हॉस्टल में एक विवाद खड़ा हुआ है, तो उसे धार्मिक और सामाजिक पहलू से परे भी देखने की जरूरत है। आज आईआईटी के कुछ प्राध्यापकों सहित बहुत से लोग इसे एक सवर्ण पूर्वाग्रह का नतीजा बता रहे हैं, और इसे दलित-आदिवासी विरोधी करार दे रहे हैं, ओबीसी विरोधी करार दे रहे हैं जो कि मोटेतौर पर मांसाहारी समुदाय हैं।
यह बात जरूर है कि देश में एक तिहाई से कम लोग ही शाकाहारी हैं। इनमें से अधिकतर लोग अपनी धार्मिक मान्यताओं और जातिगत रीति-रिवाजों की वजह से शाकाहारी होंगे, और धीरे-धीरे इनकी भी अगली पीढिय़ां हो सकता है मांसाहारी होती जाएं। लेकिन शाकाहार को सिर्फ धर्म और जाति से जोडऩा क्या सचमुच जायज होगा? क्या धर्म और जाति से परे खानपान की कोई दूसरी वजहें नहीं हो सकतीं?
मैं अपने खुद के बारे में अगर लिखूं, तो मैं न धर्म को मानता हूं, न जाति को। पूरी जिंदगी में इन दोनों पर आधारित किसी संगठन का मेम्बर भी नहीं बना। इनमें से किसी के कार्यक्रम में भी नहीं गया। कोई रस्म-रिवाज नहीं मानी। पूरी तरह से नास्तिक हूं। लेकिन पूरी तरह से शाकाहारी भी हूं। हिन्दुस्तान से फिलीस्तीन तक सडक़ के लंबे सफर में महीने भर सिर्फ मुस्लिम देशों से गुजरते हुए भी किसी तरह हमारे शांति-कारवां में आधा दर्जन से अधिक लोग शाकाहारी थे, और किसी तरह हमारा गुजारा चल गया। दस फीसदी से कम लोग अपने खाने में मांसाहार से परे रहे, लेकिन किसी और के मांसाहार से कोई दिक्कत नहीं रही। मैं दुनिया के एक-दो दर्जन देशों में घूमा हूं, और सभी तरह के खानपान वाले लोगों के साथ बैठकर अपना शाकाहारी खाना खाया है। लेकिन दूसरों के खाने से कोई चिढ़ न रहते हुए भी मांसाहार को देखने में कभी-कभी असुविधा भी हुई।
अब मेरी तरह के धर्म और जाति से परे के शाकाहारी लोगों में से भी कुछ लोगों को ऐसी टेबिल पसंद आ सकती है जिस पर कोई मांसाहार न करे। आज भी हर दिन फेसबुक और ट्विटर पर मेरे कई मिनट मांसाहार की तस्वीरों को सामने से हटाने में गुजरते हैं क्योंकि मुझे उनके साथ किसी प्राणी को मारने की बात दिखती है। किसी जानवर, या पशु-पक्षी को खाने के पहले उसे मारना तो पड़ता ही है, और मैं ऐसी हिंसा के खिलाफ हूं। लेकिन मेरा ऐसी हिंसा से परहेज किसी और का विरोध नहीं है, जिन्हें यह ठीक लगता है, वह ऐसा करते रहें, मैं किसी को रोकने भी नहीं जाता, जिस तरह मैं सिगरेट या तम्बाकू के खिलाफ मुहिम चलाता हूं, वैसा कुछ भी मांसाहार के खिलाफ नहीं करता। वह लोगों की अपनी मर्जी की बात है। लेकिन अगर मुझे किसी हॉस्टल में रहना पड़े, और किसी मेस में खाना पड़े, और वहां पर बिना किसी के लिए असुविधा पैदा किए शाकाहारियों के लिए अलग टेबिल तय की जा सके, तो मुझे इसमें कोई बुराई नहीं लगती है। शाकाहारियों की वजह से मांसाहारियों को टेबिल न मिले, वह तो गलत बात होगी। लेकिन शाकाहारियों के लिए तय की गई टेबिल के अलावा अगर दूसरी टेबिल खाली हो, और मांसाहारी यह जिद करे कि वे शाकाहारियों की टेबिल पर ही बैठेंगे, तो उनकी ऐसी जिद मुझे हिंसक लगेगी।
खानपान को अगर धर्म और जाति के आधार पर ही मुद्दा बनाया जाता है, तो यह कुछ लोगों के हकों के खिलाफ बात हो सकती है, लेकिन अगर मेरी तरह के लोगों के खानपान के सिद्धांत की बात हो, तो किसी जगह संभावना होने पर अलग बैठने के इंतजाम में क्या दिक्कत है? क्या कोई किसी दूसरे को नापसंद खानपान लेकर उसके टेबिल पर बैठने की जिद करे, तो क्या यह कोई लोकतांत्रिक अधिकार है? अगर लोगों को अपने खानपान का हक पसंद है, तो उन्हें दूसरों की पसंद का भी ख्याल रखना चाहिए।
यह बात जरूर है कि किसी भी त्यौहार या किसी दूसरे दिन पर मांसाहार की दुकानों का बंद करना फिजूल की बात है, और कुछ धर्मों के लोगों को, कुछ महान लोगों के अनुयायियों को मांसाहार से अपने परहेज को दूसरों पर नहीं थोपना चाहिए।
जहां तक मुम्बई और गुजरात के कुछ शहरों में रिहायशी इमारतों में मांसाहारियों को मकान न बेचने, या किराये से न देने का मुद्दा एक अलग किस्म का मामला है जिसमें अलग किस्म के कानून जुड़े हुए हैं, और उस पर चर्चा हॉस्टल जैसे मामले से जोडक़र यहां नहीं हो सकती। फिलहाल जो लोग हॉस्टल की मेस में शाकाहारियों के लिए अलग तय की गई टेबिल के खिलाफ हैं, वे धर्म और जाति से परे खानपान की निजी पसंद के हक को भी खारिज कर रहे हैं, जैसी पसंद, और जैसे सिद्धांत पर मेरा शाकाहार टिका हुआ है।