आजकल
पंजाब में 2022 में वहां के एक लोकप्रिय गायक सिद्धू मुसेवाला का एक गिरोह ने साजिश के साथ बड़ी तैयारी से कत्ल कर दिया था। सिद्धू अपने मां-बाप का इकलौता बेटा था। अब उसके बूढ़े मां-बाप ने उसकी याद में, और अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए कृत्रिम गर्भाधान तकनीक से एक बेटे को जन्म दिया है। सिद्धू के 60 बरस के पिता बलकौर सिंह ने सोशल मीडिया पर बेटे के साथ अपनी फोटो पोस्ट की है, और कहा है कि सब स्वस्थ हैं। पंजाब में बड़े-बड़े गिरोह काम करते हैं, और उनके सरगना तिहाड़ जैसी जेल में रहकर भी अपना गिरोह चलाते हैं, या विदेश में रहकर भी। लेकिन पंजाब के ऐसे संगठित अपराध पर चर्चा उतनी अहमियत नहीं रखती जितनी अहमियत यह बात रखती है कि बुजुर्ग हो चुकी एक महिला किस तरह 58 बरस की उम्र में अपने बेटे की याद में एक और बेटे को जन्म देती है। भारत में शायद कुछ कानूनी अड़चन के चलते ऐसा गर्भधारण करना मुमकिन नहीं था तो सिद्धू मुसेवाला की मां चरणकौर ने दूसरे देश में यह मेडिकल मदद ली। यह अपने किस्म का पहला मामला नहीं है जिसमें एक महिला इस उम्र में मां बने, लेकिन यह कुछ अनोखा मामला तो है ही क्योंकि दुनिया की साधारण समझबूझ यह सुझाती है कि इस उम्र में मां-बाप बनना उतनी समझदारी की बात नहीं है।
अपने बेटे की याद में कुछ करना अच्छी बात है, लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि इंसान के शरीर और उसकी जिंदगी की कुछ सीमाएं रहती हैं, और लोगों को उनका ख्याल इसलिए रखना चाहिए कि जिन बच्चों को मां-बाप अपनी भावनात्मक जरूरतों से पैदा करते हैं, उन्हें बड़े होकर अपने पैरों पर खड़े होने में खासा समय लगता है, और तब तक उनकी जिम्मेदारी निभाने के लिए मां-बाप की उम्र तो बची होनी चाहिए। वैसे तो बच्चों को जन्म देना हर किसी का मौलिक अधिकार होना चाहिए, लेकिन जब कोई देश एक जनकल्याणकारी राज्य की तरह काम करता है, तो वहां पर अजन्मे बच्चों के अधिकारों की भी फिक्र करनी चाहिए।
आज 60 बरस की उम्र में अगर कोई पिता बना है, और 58 बरस की उम्र में कोई मां बनी है, तो उनकी अपनी जिंदगी का कितना लंबा ठिकाना रहेगा? यह जरूर हो सकता है कि परिवार संपन्न होने पर बच्चे की देखरेख के लिए पैसों का इंतजाम तो पुख्ता हो सकता है, लेकिन मां-बाप दोनों की उम्र अगर बुढ़ापे में दाखिल हो चुकी है, तो उनके अभी हुए बच्चे की जिंदगी के पहले 20-25 बरस मां-बाप के साथ की कोई गारंटी नहीं दिखती है। यहां पर आकर अगर कोई देश कृत्रिम गर्भाधान तकनीक के इस्तेमाल के लिए कोई उम्र सीमा तय करते हैं, तो वह निजी मामलों में दखल नहीं मानी जानी चाहिए।
हिन्दुस्तान में हमने सरोगेसी का कानून आने के ठीक पहले तक कई फिल्मी सितारों को इस तकनीक से बच्चे पैदा करते देखा है, और कुछ तो ऐसे भी रहे जिनके पहले से पर्याप्त बच्चे थे, लेकिन उन्होंने इस तकनीक से और बच्चे हासिल किए। सरोगेसी जैसी तकनीक को लेकर पूरी दुनिया में कई तरह की सोच है, और कई तरह के कानून हैं। यह सिर्फ हिन्दुस्तान में नहीं हैं, बल्कि बहुत सी जगहों पर लोगों को दूसरे देशों में जाना पड़ता है, क्योंकि अपनी खुद की जमीन पर उन्हें इसकी इजाजत नहीं रहती है।
लेकिन इस मुद्दे पर चर्चा करते हुए एक सवाल यह सूझता है कि क्या अपनी गर्भ किराए पर देकर अगर कोई बहुत गरीब महिला नौ महीनों बाद अपने परिवार का बेहतर ख्याल रख सकती है, तो क्या उसकी इजाजत दी जानी चाहिए? यह एक समय बिकने वाली किडनी से कुछ अलग मामला है। बदन में किडनी सीमित रहती हैं, और एक किडनी जरूरतमंद मरीज को दे देने पर अपने खुद के बदन पर कई तरह के खतरे आ जाते हैं, और कई तरह की सीमाएं बाकी जिंदगी पर लागू हो जाती हैं। दूसरी तरफ किसी महिला का गर्भाधान उसके लिए उतना बड़ा खतरा नहीं रहता, और उसकी बाकी जिंदगी पर इसकी वजह से कोई बहुत बुरा असर नहीं पड़ता। फिर अपनी कोख किराए पर देना किसी तरहसे अंगदान जैसा नहीं है कि जिससे शरीर के किसी हिस्से को बेचने का काम हो जाए। आज जब देश में भुगतान की क्षमता वाले लोग हैं, और सबसे गरीब लोग पैसों की कमी से एक सामान्य जिंदगी नहीं जी पाते हैं, उनके बच्चे अभाव में बड़े होते हैं, किन्हीं अवसरों तक नहीं पहुंच पाते हैं। ऐसे में भारत के मौजूदा सरोगेसी कानून के तहत क्या ऐसी कोई ढील नहीं देनी चाहिए जिससे गरीब परिवारों की महिलाएं किसी बच्चे को जन्म देकर अपने खुद के बच्चों के लिए एक अच्छी रकम जुटा सकें? यह बात सुनने में अमानवीय लग सकती है कि हम कोख किराए पर देने की वकालत कर रहे हैं, लेकिन यह बात किसी महिला की अपनी और उसके परिवार की जिंदगी को बेहतर बनाने की बात भी है, साथ-साथ बिना बच्चों वाले लोगों के लिए एक मौका मुहैया कराने की बात भी है।
हिन्दुस्तान जैसे मुल्क की इस हकीकत को नहीं भूलना चाहिए कि इस देश में महिलाएं अपने बच्चों को कुपोषण से मरते देखती हैं, बिना इलाज बच्चे बड़े सब मर जाते हैं, छोटे-छोटे बच्चे सडक़ों पर कचरा बीनने और भीख मांगने जैसे रोजगार में लगने को मजबूर रहते हैं। और इससे भी अधिक कड़वी हकीकत यह भी है कि ह्यूमन राईट्स वॉच नामक संस्थान के एक अंदाज के मुताबिक हिन्दुस्तान में करीब डेढ़ करोड़ महिलाएं देह बेचने के धंधे में लगी हुई हैं। एशिया का सबसे बड़ा सेक्स बाजार मुम्बई है जहां पर एक लाख से अधिक वेश्याएं काम करती हैं। सरकारें इन आंकड़ों को न जानना चाहती हैं, न मानना चाहती हैं, लेकिन जब अपनी जिंदगी और परिवार को चलाने के लिए इस देश में डेढ़ करोड़ महिलाएं दुनिया में सबसे अधिक बीमारियों के खतरे वाला यह धंधा करती हैं, तो क्या इसके मुकाबले किसी के बच्चे की मां बन जाना अधिक बुरा काम होगा?
चूंकि वेश्यावृत्ति को कानूनी हक देने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी सरकार और संसद को इस बारे में कुछ नहीं करना पड़ा, इसलिए वे असुविधा से बचे हुए हैं। लेकिन चूंकि सरोगेसी को लेकर संसद को कानून बनाना पड़ा है इसलिए सरकार और संसद उस मामले में ऐसे दिखना नहीं चाहते कि वे बदन को किराए पर देने का समर्थन कर रहे हैं। जबकि शरीर को कुछ मिनटों या घंटों के सेक्स के लिए किराए पर देने का कारोबार सबकी जानकारी में है, और उसे मानते कोई भी नहीं हैं।
हमने बात तो सिद्धू मुसेवाला के मां-बाप के बच्चे के फैसले को लेकर शुरू की थी, लेकिन वह आगे बढक़र इस तकनीक पर आ गई है, और किस तरह इस तकनीक से कुछ कमाने की इजाजत लोगों को मिलनी चाहिए, क्योंकि वे अपने बदन के कई और अधिक बुरे इस्तेमाल कर ही रहे हैं। आज भी हिन्दुस्तान में किडनी ट्रांसप्लांट जैसे कारोबार में कानून को चकमा देकर किडनी की खरीद-बिक्री चलती ही है। संसद में पिछले बहुत समय से किसी कानून को लेकर सार्थक चर्चा और बहस का सिलसिला खत्म हो गया है, इसका नतीजा यह हुआ है कि कई ऐसे कानून भी बन जाते हैं जो कि जायज नहीं होते। सरोगेसी कानून का गरीबों के जिंदा रहने के लिए किस तरह इस्तेमाल हो सकता है इस पर बात होनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट अभी यह देखकर हक्का-बक्का रह गया कि राजस्थान में एक महिला के कत्ल के मामले में पुलिस ने उसकी नाबालिग बेटी को ही प्रताडि़त करके फंसाने की कोशिश की, और उसे ही हत्यारा बनाकर कोर्ट में पेश कर दिया। सुप्रीम कोर्ट बेंच ने राजस्थान के पुलिस प्रमुख को मामले की जांच करके रिपोर्ट देने कहा है कि एक बच्ची पर किस तरह गुनाह कबूलने को जुल्म करके उसे तैयार किया गया कि वह मां का कत्ल करना मान ले। चौदह बरस की इस बच्ची के साथ पुलिस के रवैये पर जज हैरान थे। और बच्ची को फंसाने का यह काम हत्यारे के साथ मिलकर पुलिस ने किया था। मामले के खुलासे को पढऩा दहशत पैदा करता है कि किस तरह लडक़ी को फंसाने के लिए पुलिस ने साजिश रची, और उसे मार-मारकर यह कबूलवाया कि उसी ने मां को गोली मारी थी।
दुनिया भर के सभ्य देशों में बच्चों को सिखाया जाता है कि वे खतरा देखें, या परेशानी में पड़ें, तो वे सीधे पुलिस के पास जाएं। बच्चों को भरोसा दिलाया जाता है कि पुलिस हर नौबत में हर तरह से उनकी मदद करेगी। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में जमीनी हकीकत देखते हुए बच्चों को यह ठीक ही समझाया जाता है कि वे समय पर सो जाएं, समय पर खाना खा लें, वरना पुलिस उन्हें उठाकर ले जाएगी। आज पुलिस के बीच से कुछ लोग अच्छा काम करते भी दिखते हैं, कहीं किसी भूखे को खिलाते हैं, तो कहीं किसी बुजुर्ग को सडक़ पार कराते हैं, लेकिन देश भर में पुलिस का आम हाल इतना खराब है कि लोग उससे दूर रहने में ही अपना भला मानते हैं। जाने कितने ही मामले ऐसे हुए हैं जिनमें अदालत के सामने पुलिस मुजरिम और गुंडा साबित हो चुकी है। असल जिंदगी में तो लोग देखते ही हैं कि संगठित अपराधों को इजाजत देने के लिए पुलिस खुद एक संगठित अपराधी की तरह काम करती है। भारत के अधिकतर प्रदेशों में पुलिस सत्ता के हाथ का हथियार बनी रहती है, और अगर सत्ता की दिलचस्पी पुलिस के बेजा इस्तेमाल में न भी हो, तो भी पुलिस अपने आपको हथियार की तरह पेश करती है। अभी कुछ ही दिन पहले साम्प्रदायिक हिंसा से गुजर रहे उत्तराखंड में एक मुस्लिम मोहल्ले में एक हिन्दू की लाश मिली, जिसकी तोहमत जाहिर तौर पर मुस्लिमों पर ही लगनी थी। लेकिन उसी प्रदेश की पुलिस ने जांच करने पर पाया कि वहीं के एक स्थानीय हिन्दू पुलिसवाले ने एक निजी रंजिश निकालने के लिए एक हिन्दू नौजवान का कत्ल किया, और उसकी लाश को मुस्लिम मोहल्ले में फेंक दिया था। सुबूत मिल जाने पर इस पुलिसवाले को गिरफ्तार किया गया है। ठीक ऐसा ही एक दूसरा मामला उत्तरप्रदेश में एक जगह सामने आया था जहां पर एक हिन्दू संगठन के लोगों ने अपने अवैध कारोबार को बेरोकटोक चलाने के लिए उस इलाके के पुलिस अफसर का तबादला करवाने की योजना बनाई, और इसके लिए गाय काटकर जगह-जगह उसके टुकड़े फेंके गए, उनके साथ एक बेकसूर मुस्लिम का नाम जोड़ा गया, उसका आईडी कार्ड साथ डाल दिया गया। बाद में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पुलिस ने ही हिन्दू संगठन की यह साजिश पकड़ी, और तमाम लोगों को गिरफ्तार किया, इसके बाद नाजायज गिरफ्तार बेकसूर मुस्लिम को रिहा किया गया।
पुलिस जगह-जगह सबसे परले दर्जे के संगठित मुजरिमों की तरह काम करने के लिए एक पैर पर तैयार खड़ी रहती है। और ऐसा करने वाले लोगों की गिनती अपवाद सरीखी नहीं है, पुलिस का एक खासा हिस्सा भ्रष्टाचार में तो डूबा रहता ही है, वह बेकसूरों को फंसाने, और मुजरिमों को बचाने में भी लगा रहता है। हमने मुम्बई के बड़े चर्चित एनकाउंटर स्पेशलिस्ट पुलिसवालों को देखा है कि वे किस तरह आगे चलकर भूमाफिया बन जाते हैं, और बंदूकबाज होने की अपनी शोहरत का इस्तेमाल करके मुजरिमों की सरगना बन जाते हैं। हिन्दुस्तानी कानून व्यवस्था में पुलिस को जुर्म दर्ज करने और गिरफ्तारी जैसी कार्रवाई के लिए अंधाधुंध अधिकार मिले हुए हैं, और यह उसका एकाधिकार सरीखा रहता है। इसलिए उससे बचना बड़ा मुश्किल रहता है। राजनीतिक ताकतें अपने बुरे लोगों को बचाना, और विरोधियों को झूठे मामलों में फंसाना इन्हीं पुलिसवालों के सहारे करती हैं। अधिकतर जिलों और थाना इलाकों में अवैध कमाई और उगाही का जमा जमाया कारोबार रहता है, और ऐसी कमाऊ कुर्सियों पर पहुंचने के लिए पुलिस अपने आपको औजार और हथियार की तरह पेश भी करती है, और मोटी पेशगी भी देती है।
ऐसे भ्रष्ट सिलसिले को तोडऩा जरूरी है। यह सिलसिला जारी रहे तो राजनेता इसके आदी भी हो जाते हैं, क्योंकि पेशेवर भ्रष्ट पुलिसवाले उन्हें यह भी समझा देते हैं कि वे कैसे विरोधियों को निपटा सकते हैं, कहां-कहां से कमा सकते हैं। ऐसी पुलिस कभी-कभी अदालत के सामने उजागर होती है, तो फंसती है, आमतौर पर निचली अदालतों का मिजाज ही ऐसा रहता है कि वहां पुलिस या सरकार जो मामला पेश करे, उन्हें अदालतें सच और सही मानकर चलती हैं। राजस्थान का यह मामला देश में पुलिस की बदनामी का न तो पहला मामला है, न आखिरी है। पंजाब में केपीएस गिल जैसे अफसर के मातहत जिस तरह सैकड़ों बेकसूर लोगों की पुलिस-हत्या के आरोप लगे थे, और बाद में दर्जनों पुलिसवालों को अदालत से सजा भी हुई थी, उसे भी नहीं भूलना चाहिए। अभी दो दिन पहले ही दिल्ली में एक नमाजी को पुलिस ने जिस तरह मारा है, उसे भी नहीं भूलना चाहिए। पुलिस सत्ता की चापलूस बनकर हर तरह के जुर्म करने को तैयार रहती है, और इसके सबसे बुरे शिकार सबसे कमजोर तबके होते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
ब्रिटेन की एक रिपोर्ट है कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड (यूपीएफ) से इंसान की सेहत पर दर्जनों किस्म के बुरे असर पड़ते हैं, और इससे हृदय रोग, डायबिटीज, कैंसर सहित कई दूसरी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। ब्रिटिश जनरल ऑफ मेडिसिन की एक रिपोर्ट बताती है कि यूपीएफ खाने से मौत का खतरा करीब डेढ़ गुना हो जाता है। यह अध्ययन बताता है कि इसके बाद मौत का खतरा 21 फीसदी तक बढ़ जाता है, और मोटापा, डायबिटीज जैसी बीमारियों की वजह से लोगों को बहुत इलाज की जरूरत पड़ती है। दिक्कत की एक बात यह भी है कि संपन्न तबके के खानपान में अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड जितना है, उसके मुकाबले गरीबों के खाने में भी यह कम नहीं है।
हम हिन्दुस्तान जैसे देश में देखते हैं कि गरीब और मजदूर भी अपने बच्चों को कामकाज की मजबूरियों के चलते पैकेटबंद नमकीन और मीठे सरीखे खानपान को देने पर मजबूर हो जाते हैं। छोटे-छोटे बच्चों को घर पर छोडक़र जाने वाले मजदूर मां-बाप खाना पकाने का समय न रहने पर ऐसे ही पैकेटबंद सामान छोड़ जाते हैं। और धीरे-धीरे इन बच्चों की आदत ही ऐसे सामान की पडऩे लगती है। दूसरी तरफ जो अंतरराष्ट्रीय ब्रांड दुनिया के बाकी देशों में वहां के सख्त कानूनों की वजह से अपने पैकेट पर सेहत की चेतावनी को साफ-साफ छापते हैं, नमक, शक्कर, और तेल को सीमित रखते हैं, वे हिन्दुस्तान में कमजोर सरकारी नियमों के चलते मनमानी करते हैं, और चेतावनी छापने से कई तरह से बचते रहते हैं। नतीजा यह होता है कि स्वाद को रिझाने वाले रसायनों के साथ बाजार उन चीजों से पटा हुआ है जिन्हें अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड कहा जाता है, और जो कि कई बीमारियों की जड़ है।
विकसित देशों में तो यह बात ठीक हो सकती थी, लेकिन गरीब देशों में भी कंपनियों के बनाए सामानों का यही हाल है। बहुत हमलावर अंदाज की मार्केटिंग बचपन से ही लोगों को तबाह कर रही है, और बुढ़ापे तक तो शायद पहुंचने ही नहीं दे रही है। ऐसा लगता है कि बाजारू पैकेटबंद खाना बनाने वाली कंपनियां अस्पतालों के लिए काम करती हैं, और अपने ग्राहक और अस्पतालों के लिए मरीज तैयार करती हैं। यह सिलसिला शहरीकरण, और भागदौड़ के साथ बढ़ते चल रहा है, क्योंकि लोगों के पास राह चलते, या सफर पर खाने के लिए यही चीजें सबसे सहूलियत से हासिल हैं। दूसरी तरफ जैसे-जैसे एयरपोर्ट, प्लेन, या निजीकरण में जा चुके रेलवे स्टेशन बढ़ते चल रहे हैं, वैसे-वैसे इन तमाम जगहों पर इसी नुकसानदेह दर्जे का खाना बढ़ते चल रहा है। आज किसी एयरपोर्ट पर सेहतमंद खाना हासिल ही नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसे ठेके पर लेने वाले लोग अधिक से अधिक चटपटा और महंगा खाना चेपने में लगे रहते हैं। आज जितने दिन लोग सफर में खाना खरीदकर खाते हैं, मानो वे अपनी जिंदगी से उतने दिन खो बैठते हैं, और जो बकाया दिन रहते भी हैं, उनमें भी बीमारियों का खतरा अधिक रहता है।
आज महंगी और निजी स्कूलों तक में हफ्ते में एक दिन जंक फूड का दिन कहा जाता है, और ऐसे दिन छोटे-छोटे बच्चे भी सेहत बर्बाद करने वाला पैकेटबंद खानपान लेकर जाते हैं। आज बच्चों की जितने तरह की दावतें होती हैं, वे इसी दर्जे का खाना खिलाती हैं, चटपटे स्वाद की वजह से बच्चे घर पर भी इसी किस्म की चीजें खाते हैं, और घर के बड़े भी यह ध्यान नहीं रखते कि घर पर इस तरह के सामान लाना बंद करके बच्चों को बचाया जा सकता है। हमने कई मौकों पर यह सुझाया है कि घर आए हुए मेहमानों को भी कारखानों से आए हुए, रेस्त्रां से बुलाए हुए अल्ट्रा प्रोसेस्ड सामान न परोसे जाएं, और ऐसा करके ही घर के बच्चों को भी इस खतरे से बचाया जा सकता है। लेकिन अतिथि सत्कार की भारतीय भावना ऐसी रहती है कि घर आए मेहमानों के सामने हर किस्म का जंक फूड परोसा जाता है, और घर के बच्चे बारीक नजर रखकर ऐसे मौकों का इस्तेमाल करते हैं।
हिन्दुस्तान में एक दिक्कत यह भी है कि यहां योग और ध्यान, आध्यात्म जैसी बातों का एक गौरव पाकर लोग उसे सेहतमंद जिंदगी के लिए काफी मान लेते हैं। जबकि इन पर अमल करने का तो फायदा हो सकता है, देश के इतिहास में इनकी जगह का कोई फायदा लोगों को तब तक नहीं हो सकता, जब तक वे इस राह पर न चलें। लोग जीवनशैली को सेहतमंद बनाने के बजाय भारतीयता पर गर्व करने को काफी समझ लेते हैं।
हिन्दुस्तान जिस तरह से दुनिया भर की बीमारियों का गढ़ बन चुका है, उसे देखते हुए सरकारों को खानपान के खतरों को उजागर करने वाले कानूनों को कड़ा बनाना चाहिए, और जनता के बीच ऐसे जागरूकता अभियान चलाने चाहिए जो कि कारखानों और बाजार के बनाए हुए खानपान के खतरे से लोगों को आगाह करे। एक बार लोगों की सेहत बिगड़ जाए, तो फिर केन्द्र और राज्य सरकारों के मुफ्त इलाज के कार्ड किसी काम के नहीं रहते। आज हालत यह है कि सरकारें अपनी न्यूनतम कानूनी जिम्मेदारी पूरी करने के बजाय भारी-भरकम खर्च करके इलाज की अधिकतम जिम्मेदारी को पूरा करने की कोशिश करती हैं, जो कि एक बहुत ही कमअक्ली का आर्थिक फैसला है। लोगों की सेहत को बचाना प्राथमिकता होना चाहिए, और अगर ऐसा होने लगा तो सरकारों को इलाज का बीमा भी कम लागत पर मिलने लगेगा, अस्पतालों पर सरकार का खर्च घटने लगेगा।
अब इसके साथ-साथ एक उम्मीद यह भी की जानी चाहिए कि लोग खुद होकर भी अपनी सेहत के प्रति जागरूक रहें, अपने खानपान को सुधारें, अपनी रोज की जिंदगी में सैर या कसरत को, योग और ध्यान को जगह दें, और बीमारी से बचने की भरसक कोशिश करें। यह भी समझने की जरूरत है कि आने वाली पीढिय़ों के लिए महज जमीन-जायदाद छोडक़र जाना काफी नहीं है, अपने ऐसे सेहतमंद जींस छोडक़र जाना भी जरूरी है जो कि अगली पीढिय़ों को बीमारियों से कुछ या अधिक हद तक दूर रखे। यह बात समझना चाहिए कि जो पीढ़ी खुद बीमारियों से बचती है, उसी के साथ यह संभावना अधिक रहती है कि उसकी अगली पीढ़ी भी सेहतमंद हो सके। लोगों को अटपटा लग सकता है कि हमने अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड की बात को यहां तक खींच लिया है, लेकिन इन बातों का एक-दूसरे से सीधा रिश्ता है। पैकेट का खाना खा-खाकर जो पीढ़ी अपना बदन बर्बाद करती है, वह ठीक वैसे ही जींस अगली पीढ़ी को देती है।
हिन्दुस्तान में कम्प्यूटर के सबसे बड़े कामकाज और कारोबार की वजह से जिस बेंगलुरू को सिलिकॉन वैली कहा जाता है, उस बेंगलुरू में गर्मी का मौसम आने के पहले ही पानी की ऐसी भयानक कमी हो गई है कि लोगों को जरूरतें कम करनी पड़ी हैं, और तकरीबन दोगुना दाम पर पानी खरीदना पड़ रहा है। देश का एक सबसे आधुनिक शहर इंसानी जिंदगी की सबसे बुनियादी जरूरत से इस कदर जूझ रहा है कि आने वाली गर्मी में डेढ़ करोड़ से कुछ कम आबादी वाले इस उपमहानगर का जाने क्या हाल होगा। शहर के लोग कह रहे हैं कि करीब दोगुने दाम पर भी टैंकर आसानी से नहीं मिल रहे, और लोगों ने पौधों में पानी डालना बंद कर दिया है, और कुछ लोगों का कहना है कि वो दो दिन में एक बार नहा रहे हैं। इसकी एक वजह यह बताई जा रही है कि शहर और आसपास मानसून कमजोर रहा, जिसकी वजह से कावेरी नदी में पानी घटा, आसपास के जलाशयों में भी पानी घटा, और भूजल स्तर में गिरावट आई है।
अब बेंगलुरू की इस बदहाली को बाकी देश के हिसाब से देखें, तो देश भर में हाल यह है कि पानी का इस्तेमाल बेकाबू है। जिस शहर में इसकी कमी नहीं है वहां लोग रोजाना कार धोते हैं, घर-दुकान के सामने पाईप की धार से फर्श और सडक़ धोते हैं, और बड़े-बड़े घास के मैदान सींचे जाते हैं। संपन्न कॉलोनियों में जाएं तो वहां लोगों के ड्राइवर कार धोने के मुकाबले में लगे रहते हैं, और चक्कों पर लगे मिट्टी-कीचड़ को भी पानी की धार से हटाया जाता है। दरअसल देशभर में शायद ही कहीं लोगों पर जमीन के नीचे से पानी निकालने पर कोई रोक हो। हर मकान बनने के पहले ट्यूबवेल खुदवा लिए जाते हैं, और सबमर्सिबल पम्प लगाकर जरूरत से कई गुना, मनचाही मात्रा में पानी निकाला जाता है। इस पर न कोई रोक है, न ही शायद किसी भी जगह इस पर कोई टैक्स लगाया जाता है। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान के जिन शहरों में पानी पर टैक्स लगाया गया है, वहां पर खपत भी घट गई है, और निजी सप्लायरों के बेहतर इंतजाम की वजह से पानी कुछ घंटे आने के बजाय चौबीस घंटे रहने लगा है।
हम किसी निजीकरण की वकालत नहीं कर रहे, लेकिन पानी जैसी सार्वजनिक संपत्ति को हिन्दुस्तान की देश-प्रदेश की सरकारें, और म्युनिसिपल जिस लापरवाही से अंधाधुंध इस्तेमाल होने दे रही हैं, उसका सबसे बड़ा फायदा सबसे संपन्न तबका उठा रहा है, और उसकी सबसे बुरी मार सबसे विपन्न तबके पर पड़ रही है, जिसकी गर्मियों की रात पानी के टैंकर के इंतजाम में हराम होती है, और कई जगहों पर गरीबों के काम के घंटे भी बर्बाद होते हैं। संपन्न तबका अपनी दानवाकार ताकत से अपने हर घर के लिए अंधाधुंध गहरे ट्यूबवेल खुदवा लेता है, उनमें ताकतवर पम्प लगा लेता है, और फिर पानी की मनचाही बर्बादी करता है। घास के बड़े-बड़े लॉन सींचे जाते हैं, छतों पर गार्डन लगाए जाते हैं, और कार और फर्श धोने का जिक्र तो हम शुरू में कर ही चुके हैं।
लेकिन हिन्दुस्तान में कानूनों पर अमल बहुत ढीलाढाला होने से हालत यह है कि अधिकतर कारखानों में नियमों के खिलाफ जाकर ट्यूबवेल से जमीन के नीचे से पानी निकाला जाता है, और उसका औद्योगिक इस्तेमाल किया जाता है। फिर देश भर में धान जैसी कुछ फसलों के समर्थन मूल्यों के चुनावी इस्तेमाल की वजह से अलग-अलग कई पार्टियां बहुत अधिक दाम पर खरीदी का वायदा करती हैं, और सत्ता में आने पर करती भी हैं। नतीजा यह हो रहा है कि मुफ्त की बिजली, या सौर ऊर्जा से चलने वाले पम्प सरकार से ही किसानों को मिल रहे हैं, वे धान जैसी प्यासी फसल पर तमाम भूजल को उलीच दे रहे हैं, और भूजल स्तर गिरते चल रहा है। पानी की अधिक जरूरत वाली फसलें पर्यावरण पर एक खतरा बनती चल रही हैं, और समर्थन मूल्य की राजनीति ऐसी हो गई है कि सरकारें किसान-तबके को जरा भी नाराज करना नहीं चाहती हैं। लेकिन इसका बुरा असर पानी पर पड़ रहा है, और उसकी कोई भरपाई जमीन के भीतर हो नहीं रही है।
एक तरफ कहने के लिए कई, या अधिकतर प्रदेशों में शहरों में नए निर्माण पर अंडरग्राउंड वाटर-रीचार्जिंग की शर्त लगाई जाती है, लेकिन स्थानीय संस्थाओं और म्युनिसिपल के भ्रष्टाचार की वजह से उस पर कहीं ईमानदार अमल नहीं होता। नतीजा यह है कि कांक्रीटीकरण बढ़ते चल रहा है, खुली जगह को सरकारी निर्माण में बड़ी कमीशनखोरी की वजह से तरह-तरह से ढांका जा रहा है, और बारिश का पानी अधिकतर जगहों पर बाढ़ के हालात पैदा करके नदियों के रास्ते समंदर पहुंचाया जा रहा है। कुल मिलाकर अंधाधुंध खपत, और तकरीबन जीरो बचत से धरती पर इस्तेमाल के लायक पानी लगातार घटते चल रहा है, और इंसानों को बिजली और गहराई तक काम करने वाले पम्पों पर जितना भरोसा है, उतना ही भरोसा सरकारों की नालायकी पर भी है कि वे पानी के इस्तेमाल पर कड़ाई से न रोक लगाएंगी, न ही टैक्स लगाएंगी। नतीजा यह है कि हिन्दुस्तान जैसे देश में पानी की जो आखिरी बाल्टी रहेगी, वह भी कार धोने के काम आएगी।
मध्यप्रदेश के मुरैना की खबर है कि एक गर्भवती महिला से तीन लोगों ने बलात्कार किया, और फिर उसे आग लगा दी। यह महिला एक ऐसी महिला से समझौते की बात करने उसके गांव गई थी जिसने इस गर्भवती महिला के पति पर बलात्कार का आरोप लगाया था। अब पुलिस का कहना है कि 80 फीसदी झुलसी इस महिला को अस्पताल में भर्ती किया गया है। बलात्कार की पहली शिकायत पर गिरफ्तार आदमी अभी जेल से जमानत पर छूटकर आया था, और उसे बचाने के लिए समझौता करने वाली उसकी पत्नी के साथ ऐसे सामूहिक बलात्कार की खबर है, और उस पहली महिला के परिवार के तीन मर्दों ने इस महिला के साथ मिलकर समझौता कराने आई महिला को जला भी डाला।
अब इस मामले को देखें तो लगता है कि पहले किसी ने एक महिला से बलात्कार किया, और फिर मानो उसका बदला चुकाने के लिए उसके परिवार के तीन मर्दों ने बलात्कार के आरोपी की पत्नी से बलात्कार किया। मामला घूम-फिरकर औरतों को बदले के सामान की तरह इस्तेमाल करने का है। चाहे कोई पत्नी को जुए के दांव पर लगा दे, या फिर उसे अपने साथियों को परोस दे, बेच दे, या अपने परिवार के दूसरे मर्दों के उपभोग के लिए मजबूर कर दे। यह सब तो निजी फैसले हैं, लेकिन दूसरी तरफ जंग के मैदान को देखें तो दुनिया भर में यह सैकड़ों-हजारों बरस से चलने में है कि जीतने वाली सेना हारने वाली सेना की औरतों और लड़कियों को उठाकर ले जाती हैं, या उनसे बलात्कार करके छोड़ देती हैं। अभी रूस और यूक्रेन के बीच जो जंग चल रही है उसमें संयुक्त राष्ट्र संघ की एक महिला अधिकारी ने यह बात सामने रखी थी कि रूसी सैनिकों की बीवीयों ने उन्हें यह छूट देकर भेजा है कि वे चाहें तो यूक्रेनी लड़कियों या महिलाओं से बलात्कार कर सकते हैं, वे बस सावधानी के लिए कंडोम का इस्तेमाल करें। ऐसा दुनिया के कई और जंग के दौरान भी सामने आया है जब दुश्मन देश को सबक सिखाने के लिए वहां बलात्कार करने की छूट महिलाएं अपने सैनिक पतियों को देती हैं।
लोगों को याद होगा कि करीब दो दशक तक चली अमरीका-वियतनाम जंग के दौरान भी ऐसे अनगिनत आरोप लगे थे, और खबरें थीं कि अमरीकी सैनिकों ने वहां की स्थानीय लड़कियों से बलात्कार किया, और बाद में अमरीकी लहू वाले वैसे बच्चों को लेकर वियतनामी युवतियां जगह-जगह मीडिया के सामने भी आती थीं, और इस जंग में शामिल अमरीकी सैनिक ऐसे युद्ध और यौन अपराधों को लेकर मानसिक बीमारियों से ग्रस्त भी हो गए थे। दुनिया के और कई देशों के जंग इसी तरह की हिंसा औरतों पर दर्ज कर चुके हैं।
औरत को बदला लेने का सामान, अपमान करने का सामान तो हमेशा से माना गया है। हिन्दुस्तान पर जब मुगलों का हमला हुआ, तो कितने ही हिन्दू राजाओं ने उनसे जंग करने के बजाय अपनी लड़कियों की शादी उनके साथ करवा दी थी, और मानो उसके एवज में वे अपने ही राज-पाठ पर अपना कब्जा बरकरार रख चले थे। मतलब यह कि न सिर्फ जंग के हासिल की शक्ल में, या दुश्मन का मनोबल तोडऩे के लिए उनकी लड़कियों और औरतों का इस्तेमाल होता है, बल्कि अपने राज-पाठ को कायम रखने के लिए भी लोग अपनी लड़कियों का ऐसा इस्तेमाल करते हैं, जो कि मुगलों के वक्त हिन्दुस्तान में बहुत से हिन्दू राजाओं ने किया था। दुनिया की जिस संस्कृति और सभ्यता में मर्दों का बोलबाला रहता है, वहां औरतें मोटेतौर पर सामान ही रहती हैं।
दुनिया का रिवाज यही है। आज भी सभ्य या असभ्य किसी भी तरह की, हर तरह की दुनिया में तमाम गालियां औरतों के नाम को लेकर ही बनती हैं। भाषा चाहे अलग-अलग हो, गालियों का हमला तो महिलाओं पर ही रहता है। बचपन से जो बच्चे स्कूली किताबों में लडक़े और लडक़ी में भेदभाव पढ़ते हैं, कमल किताब पढ़ता है, और कमला जल भरती है, तो ऐसे बच्चे बड़े होकर महिलाओं को दूसरे दर्जे का इंसान मान लेते हैं, और उसमें कुछ भी अटपटा नहीं रहता। ऐसे ही लोग बलात्कार के जवाब में बलात्कार पर उतारू हो सकते हैं, होते हैं।
महिलाओं और लड़कियों को हिंसा से बचाने के कोई शॉर्टकट नहीं हो सकते हैं। बचपन से परिवार और समाज में लडक़े महिलाओं के साथ जो सुलूक देखते हैं, मोटेतौर पर उसका असर उनकी पूरी जिंदगी पर बने रहता है। न सिर्फ लडक़ों के आदमी बनने पर उन पर यह असर कायम रहता है, बल्कि लड़कियों के औरत बन जाने पर भी यह असर उन पर रहता है, और वे खुद तो मर्दों की हिंसा बर्दाश्त करने को अपनी नियति मान ही लेती हैं, बल्कि वे परिवार की दूसरी महिलाओं को भी हिंसा का हकदार मानने से परहेज नहीं करती हैं। नतीजा यह निकलता है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी मर्द हिंसा की विरासत लेकर चलते हैं, और पीढ़ी-दर-पीढ़ी औरतें इसके लिए बर्दाश्त की विरासत लिए चलती हैं। ऐसी ही सोच लोगों को पहले बलात्कार करने का हौसला देती है, और फिर बलात्कार के बदले बलात्कार करने का भी।
दुनिया में महिलाओं के खिलाफ हिंसा का हर स्तर पर मुकाबला करना चाहिए। खासकर सोशल मीडिया पर महिलाओं के प्रति हिकारत की जो सोच बिखरी रहती है, और जो दूसरे लोगों को अपनी शक्ल में ढाल भी लेती है, वैसी सोच का हर पोस्ट पर विरोध होना चाहिए। धर्म और जाति के नाम पर महिलाओं से भेदभाव होता है, भारत जैसे देश में ग्रामीण सामाजिक ढांचे के तहत महिलाओं से हिंसा होती है, इन सबका जमकर विरोध करने की जरूरत है, तभी जाकर महिलाओं को थोड़ी-बहुत इज्जत हासिल हो सकेगी। यह हजारों बरस से चले आ रहा सिलसिला है, और सदियों तक जारी भी रहेगा, लेकिन इसका मुकाबला करने से ही इंसाफ कायम हो सकेगा, और अगली पीढिय़ां कुछ संवेदनशील बन सकेंगीं।
हिन्दुस्तान में परंपरागत मीडिया हो, या नया मीडिया, इन दोनों का इस्तेमाल करने वाले लोगों का रूख थोड़ा सा हैरान करता है। पहले सिर्फ अखबार हुआ करते थे, और रेडियो और टीवी के नाम पर आकाशवाणी और दूरदर्शन ही थे, जो कि सरकार के प्रचार का माध्यम थे। बाद में एक-एक करके सैकड़ों निजी चैनल जुटे, और फिर इंटरनेट के विस्फोट से लाखों वेबसाइटें आ गईं। अब सोशल मीडिया की मेहरबानी से लोगों को मुफ्त में फेसबुक, ट्विटर, और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म मिले, और इनके लिए किसी सरकारी इजाजत की जरूरत नहीं रह गई जैसी कि सौ कॉपी छपने वाली किसी सालाना पत्र-पत्रिका को भी लगती थी। एक डोमेन नेम, तकरीबन मुफ्त बन जाने वाली वेबसाइट, और एक मोबाइल फोन से ही उस पर समाचार-विचार या कुछ भी पोस्ट करने की अकल्पनीय और अराजक आजादी! किसने सोचा था कि एक दिन हर नागरिक पत्रकार हो सकते हैं, और अखबारों के संपादक के नाम पत्र कॉलम के लिए चिट्ठी भेजकर हफ्ते भर इंतजार करने के बजाय अपनी बात पल भर में सीधे-सीधे पोस्ट कर सकते हैं। परंपरागत अखबारी-मीडिया को एक बड़ी चुनौती ऐसे आजाद सोशल मीडिया से मिली है, और इन दिनों कोई अखबार ऐसे नहीं रहते जो कि सोशल मीडिया की निगरानी न करते हों, वहां से खबरें न पाते हों। एक किस्म से अखबारों को छुए बिना भी, टीवी चैनलों को देखे बिना भी लोग सोशल मीडिया पर अपने अकाऊंट चला सकते हैं, लेकिन कोई भी अखबार-चैनल बिना सोशल मीडिया की बारीक-निगरानी बिना अपना काम नहीं चला सकते।
यह एक बुनियादी फर्क पिछले कुछ दशकों में आया है, और लोकतंत्र के नजरिए से देखें तो यह बात साफ है कि जिसे अपने को मूलधारा का मीडिया कहने वाले लोग अराजक मानते हैं, वह एक अलग किस्म का लोकतंत्र है, और भारत जैसे एक वक्त के उदार लोकतंत्र ने भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के माध्यमों को जिस तरह नियम-कानून में जकडक़र रखा था, इंटरनेट की एक आजाद-तकनीक ने उन सब नियमों को चकमक पत्थर जितना पुराना और गैरजरूरी साबित कर दिया। और तो और, अभी आधी सदी के भीतर हिन्दुस्तान में प्रचलित हुए टीवी समाचार माध्यमों ने भी यह समझ लिया है कि इंटरनेट पर जो डिजिटल माध्यम चल रहे हैं, और जिनमें सबसे अधिक लोकप्रिय किसी अकेले व्यक्ति के चलाए जा रहे यूट्यूब सरीखे माध्यम है, उनका मुकाबला करना टीवी के भी बस का नहीं रह गया है। यह नौबत लोकतंत्र के लिए राहत की है जिसमें अभी चौथाई सदी पहले तक अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए अखबार या टीवी का एक महंगा कारोबार शुरू करना पड़ता था, आज वैसे तमाम कारोबार सफेद हाथी साबित हो रहे हैं, जो कि लागत के मुकाबले कोई मुनाफा नहीं दे पा रहे।
आज बिना किसी संपादक के, बिना किसी सरकारी रजिस्ट्रेशन के, और तो और बिना किसी सरकारी और कारोबारी इश्तहारों के जो यूट्यूब चैनल चल रहे हैं, वे हैरान करते हैं कि अभी कुछ अरसा पहले तक किसी ने उनकी ऐसी ताकत की कल्पना भी नहीं की थी। लेकिन अब लोकतंत्र में यह एक नया आयाम जुड़ा है, जो कि बहुत सी ताकतों को परेशान कर रहा है। जब तक सोशल मीडिया पर लिखने और बोलने वाले, दिखने और पोस्ट करने वाले लोग देश के किसी कानून को तोड़ नहीं रहे हैं, तब तक उन पर सरकार, बाजार, या कारोबार का किसी तरह का प्रत्यक्ष या परोक्ष काबू नहीं है।
हैरान करने वाली एक बात और भी है कि इंटरनेट जैसी तकनीक और बहुत मामूली से डिजिटल उपकरणों की वजह से जब यह माध्यम पश्चिम के विकसित देशों में खड़ा हुआ, तो तकरीबन उसी के साथ-साथ वह हिन्दुस्तान से लेकर पाकिस्तान और अफगानिस्तान तक हर किस्म के देशों में खड़ा हो गया। अब हर जगह सरकारें इन्हें लेकर बेचैन हैं क्योंकि ये सरकारी इश्तहारों पर जिंदा नहीं हैं, इसलिए कानून न तोडऩे पर सरकारें इनका टेंटुआ नहीं दबा सकती हैं। लेकिन अभी-अभी भारत सरकार, और बहुत सी प्रदेश सरकारों ने अखबार और चैनल से परे, समाचार और विचार वेबसाइटों से भी परे, खालिस सोशल मीडिया पर अधिक लोकप्रिय ब्रांड और लोग देखते हुए उन्हें सोशल मीडिया इन्फ्लुएंजर का दर्जा देते हुए उनके लिए भी कई तरह के महंगे-महंगे पैकेज देना शुरू किया है। मतलब यह है कि सरकारें अपनी पसंद और नापसंद के मुताबिक कुछ लोगों को बढ़ावा देकर, और कुछ लोगों को ऐसे फायदों से परे रखकर, वहां एक किस्म का गैरबराबरी का मुकाबला खड़ा कर रही हैं। ऐसी गैरबराबरी अखबारों और टीवी चैनलों में सरकारें हमेशा से करती आई हैं, लेकिन अब सोशल मीडिया पर भी इनकी ऐसी सीधी दखल हो सकता है कि सोशल मीडिया की आजादी को एक अलग तरह से प्रभावित करे।
यह सिलसिला अभी शुरू ही हुआ है, और यह बात भी ठीक से समझ नहीं पड़ रही है कि क्या सोशल मीडिया के हमलावर तेवरों, और उसके आजाद मिजाज पर इससे कुछ फर्क पड़ रहा है। अभी तो जो सबसे कामयाब यूट्यूबर हैं, या इंस्टाग्राम जैसे माध्यम पर हैं, उन्हें ये प्लेटफॉर्म ही भुगतान करते हैं, और सबसे कामयाब लोग बड़ी आसानी से एक बड़े कारोबारी की तरह सिर्फ दर्शक संख्या से मिल रहे भुगतान पर कामयाब हो सकते हैं। लेकिन दूसरी तरफ ऐसी सबसे अधिक कामयाबी पाने के लिए भारत में आज जो सबसे आसान रास्ता सूझ रहा है, वह सत्ता या विपक्ष के किसी एक खेमे का हिस्सा बन जाना है, और भाड़े के भोंपू की तरह उस पक्ष का प्रचार और गुणगान करना है। यह एक आसान तरीका दिख रहा है जो कि बहुत से यूट्यूब चैनलों की कामयाबी का एक खुला राज सरीखा है। इसी के साथ-साथ हिन्दुस्तान में आज जिस तरह का राष्ट्रवाद, जिस तरह का धर्मोन्माद बड़ा लोकप्रिय और लुभावना हो गया है, उसके एजेंडे पर चलते हुए दसियों लाख या करोड़ों दर्शकों तक पहुंच जाना भी बहुत आसान हो गया है। खेमेबाजी कामयाबी की एक आसान तरकीब हो गई है, और समाचार-विचार का, बहस का एक कीर्तन सरीखा चलता है, और उस संप्रदाय के भक्तजन मानो धार्मिक भावना से परिपूर्ण होकर वहां जुट जाते हैं।
अखबारों के पूरे इतिहास में विचारधारा, एजेंडा, या उसका प्रोपेगंडा कभी भी कारोबारी कामयाबी की इस ऊंचाई पर नहीं पहुंचा पाए थे। लेकिन आज तकरीबन हर हाथ में मौजूद मोबाइल फोन लोगों को बात की बात में अंतरिक्ष तक पहुंचा सकते हैं। वैचारिक प्रतिबद्धता कारोबारी सफलता नहीं हो पाती थी, लेकिन आज वह साफ-साफ दिख रही है। आज मोदी से मोहब्बत दिखाने वाले भी कामयाब हैं, और मोदी से नफरत रखने वाले भी। जो लोग राहुल को देश का भविष्य बताते हैं, वे भी शोहरत पाते हैं, और जो उन्हें पप्पू करार देकर उनकी खिल्ली उड़ाते हैं, उनके भी दसियों लाख दर्शक हैं। यह नौबत उन लोगों को बाजार से तकरीबन बाहर कर देने सरीखी है जो कि व्यक्तियों और विचारधारा की प्रतिबद्धता से परे, मुद्दों और इंसाफ की बात तक सीमित रहते हैं, और किसी किस्म का झंडा लेकर नहीं चलते। ऐसे लोगों के लिए आज कोई ग्राहक या बाजार नहीं है, कोई दर्शक या श्रोता नहीं है, एक वक्त ऐसे लोगों के लिए भी अखबार के पाठक जरूर थे, लेकिन अब वे भी शायद कम होते गए हैं। लोकतंत्र में विचारों की आजादी के मौके तो बढ़े हुए दिख रहे हैं, लेकिन ये विचार जिस जनता को प्रभावित करने चाहिए, जिसे प्रभावित करने के लिए इन्हें लिखा जाता है, वह जनता किसी के समर्थन और किसी के विरोध में अपना इतना पक्का मन पहले से बना चुकी है कि वह स्तुति और धिक्कार के बीच किसी चीज में दिलचस्पी नहीं रखती।
अब सवाल यह उठता है कि क्या यह नौबत इंटरनेट और सोशल मीडिया सरीखी लोकतांत्रिक और तकरीबन मुफ्त टेक्नॉलॉजी के माध्यम से लोकतंत्र को अधिक लोकतांत्रिक बना रही है, या इसके भीतर के खेमों के पूर्वाग्रहों को और अधिक मजबूत कर रही है?
भारत के टेनिस खिलाड़ी रोहन बोपन्ना लॉन टेनिस ओपन एरा के इतिहास के सबसे उम्रदराज ग्रैंड स्लैम चैंपियन हो गए हैं। उनकी खुशी देखते ही बन रही थी। वे दो दशक से इस खिताब की कोशिश में लगे हुए थे, और किसी भी खेल के मैदान पर इतना लंबा जीवन असाधारण होता है। वे तकरीबन 44 बरस के हो रहे हैं, और यह उम्र अधिकतर खिलाडिय़ों के लिए खेल से बाहर होने की होती है। यह मेंस डबल टूर्नामेंट उनके लिए बाद में खिताब लेकर आया, और वे इसके पहले 2017 में मिक्स्ड डबल्स का ग्रैंड स्लैम खिताब जीत चुके थे। आधी सफेद हो रही दाढ़ी के साथ जब वे ऑस्ट्रेलियन ओपन की यह ट्रॉफी लेकर अपने जोड़ीदार मैथ्यू एब्डेन के साथ खड़े हुए, तो वे संघर्ष और सब्र की एक बड़ी मिसाल दिख रहे थे।
मुझे खेलों की अधिक समझ नहीं है, और मैं ऐसे खिताबों को भी अधिक नहीं समझता, लेकिन मैं ऐसे संघर्ष को समझता हूं जो कि रोहन बोपन्ना ने इस खिताब के पहले दिखाया है। टेनिस की खबरों के आंकड़े बताते हैं कि 19 अलग-अलग जोड़ीदारों के साथ इतने बरसों में मैच खेलते हुए रोहन ने 61 कोशिशों के बाद यह खिताब पाया है। अब जब उन्होंने यह खिताब जीता है, तो वे इसे जीतने वाले सबसे उम्रदराज, सबसे अधिक कोशिशों वाले खिलाड़ी बने हैं।
अब खेलों से परे की बात करें तो जिंदगी के बाकी दायरों में भी यह बात लागू होती है कि आप अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए कितनी मेहनत करते हैं, इरादा कितना पक्का रखते हैं, और कितने अलग-अलग रास्ते ढूंढते हैं। इसे इंसानों से परे भी समझने के लिए चींटियों को देखा जा सकता है, जो किसी चीज को ढोते हुए सामूहिक मेहनत करती हैं, तरह-तरह के मुश्किल रास्तों से होकर गुजरती हैं, मंजिल तक पहुंचने के लिए कल्पनाशील होकर रास्ते निकालती हैं, और कामयाब होती हैं। दुनिया का सबसे बड़ा खेल मुकाबला आसान नहीं होता है, दुनिया की तमाम आबादी में से निकलकर आए चुनिंदा और शानदार खिलाड़ी वहां तक पहुंचते हैं, और उनके बीच मुकाबला सबसे ही मुश्किल होता है। अपने आपमें अच्छा खिलाड़ी होना काफी नहीं होता, बल्कि उस मुकाबले के हर मैच में दूसरे खिलाडिय़ों से बेहतर होना भी जरूरी होता है।
हम इस मिसाल पर आज इसलिए भी लिख रहे हैं कि लोग अपनी आसान जिंदगी में छोटी-छोटी मुश्किलों के आने पर भी हौसला छोडऩे लगते हैं। कहीं किसी कोचिंग संस्थान में इम्तिहान की तैयारी कर रहे बच्चे खुदकुशी कर लेते हैं, तो कहीं प्रेमसंबंधों या शादीशुदा जिंदगी में तनाव और नाकामयाबी मिलने पर लोग जान दे देते हैं। कुछ लोग बीमारी से तंग आकर खत्म हो जाते हैं, तो कुछ लोग आर्थिक तंगी का सामना नहीं कर पाते। इस एक आखिरी बात के लिए अमिताभ बच्चन की मिसाल देखनी चाहिए कि कुछ दशक पहले वे दसियों करोड़ के कर्जतले आ गए थे, और आज 80 बरस से अधिक की उम्र में वे हजारों करोड़ का ब्रांड बन चुके हैं। उनकी जिंदगी में जाने कितनी बार ऐसे हादसे हुए कि अस्पताल में उनके बचने की उम्मीद भी कम रह गई थी, लेकिन वे निकलकर आकर आसमान चीरकर शोहरत के अंतरिक्ष तक पहुंच गए। उनकी जिंदगी में शुरूआती बरसों में काम के लिए संघर्ष भी कम नहीं रहा, वे अपने वक्त के नायकों की बंधी-बंधाई छवि से भी बिल्कुल अलग थे, और उनकी भावनात्मक जिंदगी भी कहा जाता है कि कई किस्म के उतार-चढ़ाव से गुजरी है। लेकिन किसी भी पल जिंदगी के किसी भी मोर्चे पर उन्हें हिम्मत छोड़ते नहीं देखा गया, और यही वजह है कि आज वे हिन्दुस्तान की मनोरंजन की दुनिया में, इश्तहारों और मॉडलिंग में, ब्रांड प्रमोशन में बेताज बादशाह हैं।
बीच-बीच में केरल की कुछ खबरें आती हैं कि किस तरह वहां 80 या 85 बरस की किसी बुजुर्ग महिला ने 5वीं का इम्तिहान पास किया, और कहीं से ऐसी खबर आती है कि कुदाली-फावड़ा लेकर किसी एक आदमी ने पहाड़ के आर-पार अकेले ही एक सडक़ बना दी। कुछ ऐसी खबरें भी आती हैं कि कहीं किसी पति-पत्नी ने मिलकर 25-30 बरस में एक बंजर पहाड़ को पूरे का पूरा हरियाली से भर दिया, और हौसले की कई ऐसी खबरें हैं कि किस तरह कोई नेत्रहीन एवरेस्ट पर पहुंच चुके हैं, और किस तरह दोनों नकली पैरों के साथ कुछ दूसरे लोग एवरेस्ट जीत चुके हैं। फौलादी नकली अंग लगे हुए ऐसे लोग सर्द-बर्फीली हवाओं के बीच कई बार अपने कटे हुए अंगों को और जख्मी कर लेते हैं, लौटकर ऑपरेशन के बाद उनके अधूरे अंग और कुछ इंच छोटे हो जाते हैं, लेकिन वे हौसला नहीं छोड़ते। शायद ऐसे ही लोगों को देख-देखकर चींटियां कोशिश करना सीखती हैं।
जिंदगी में हमेशा अच्छा ही होता रहे यह जरूरी नहीं रहता, अगर खुद की जिंदगी में सब कुछ अच्छा है, तो भी आसपास के लोगों की जिंदगी में कुछ न कुछ गड़बड़ हो सकता है। और ऐसे में लोगों को चाहिए कि संघर्ष, हौसले, जीत की कहानियां जहां से मिल सकें, वहां से लेकर आसपास लोगों तक पहुंचाएं ताकि लोग अपनी निराशा में डूब रहे हों, तो भी वे उससे उबर सकें। इस बात की अहमियत को समझना चाहिए कि आज अगर आप किसी और के काम आते हैं, तो कल आपके डूब रहे हौसले को उबारने के लिए कुछ दूसरे भी काम आ सकते हैं। दुनिया एक-दूसरे के सहारे से तैर सकती है, और एक-दूसरे से मिली बोझिल निराशा से डूब भी सकती है।
रोहन बोपन्ना की इस खबर से आज मुझे ही न सिर्फ लिखने के लिए एक विषय मिला है, बल्कि अपनी असल जिंदगी की कोशिशों से न थकने की एक मिसाल भी मिली है। लोगों को जिस मंजिल को पाने की हसरत हो, उसके लिए खूब तैयारी करनी चाहिए, जमकर कोशिश करनी चाहिए, और फिर उसकी उम्मीद छोडऩी नहीं चाहिए। साथ-साथ यह भी समझना जरूरी है कि जिंदगी में जो पाने की संभावना बिल्कुल भी न हो, खुद की तैयारी वहां तक न पहुंचा सके, उनके लिए अंतहीन कोशिश भी नहीं करनी चाहिए। रोहन बोपन्ना की मिसाल तर्क और समझ से परे किसी अंधविश्वास के लिए नहीं है, बल्कि एक असल संभावना के लिए है, जिसे तौल लेना हर समझदार इंसान के लिए बेहतर बात होती है।
अयोध्या में कल रामलला के नए बने हुए मंदिर में रामलला की नई प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा होने जा रही है। देश के बहुत बड़े हिस्से में एक अभूतपूर्व और असाधारण हिन्दू धार्मिक आस्था का नजारा हो रहा है, और चूंकि अधिकतर हिन्दू संगठन भाजपा के साथ जुड़े हुए हैं, और अभी-अभी तीन राज्यों में भाजपा ने शानदार चुनावी कामयाबी हासिल की है, इसलिए भी उत्साह सामान्य से बहुत अधिक है। इसके अलावा कुछ महीनों के भीतर लोकसभा के चुनाव होने हैं, और उनमें सबसे अधिक चर्चित, कामयाब, और संभावनाओं वाले नेता नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री पद पर दस बरस भी पूरे होने को होंगे, इसलिए उनकी पार्टी की केन्द्र और राज्य सरकारों का भी बड़ा उत्साह 22 जनवरी की रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा को लेकर है। एक किस्म से यह भी माना जा सकता है कि कल मोदी के लोकसभा चुनाव प्रचार की शुरूआत होने जा रही है, और इसके बाद से वह लगातार अयोध्या से जुड़ी हुई बहुत से प्रतीकों को लेकर देश भर में फैलते चले जाएगा। चुनाव के पहले भाजपा और एनडीए के मुकाबले इंडिया नाम का जो गठबंधन खड़ा हुआ है, वह अपनी आंतरिक विसंगतियों से तो अनिश्चय और अनिश्चित भविष्य दोनों का शिकार है ही, अयोध्या के इस मौके पर इस गठबंधन में पार्टियों के बीच गहरी दरारें देखने मिली हैं, और इस मौके पर इंडिया-गठबंधन की पार्टियों में एक राय होना तो दूर रहा, इसकी मुखिया कांग्रेस पार्टी के भीतर भी इस पर एक राय नहीं है। पार्टी ने औपचारिक रूप से जिस तरह अयोध्या ट्रस्ट के भेजे हुए न्यौते को नामंजूर किया है, उससे पार्टी के ही बहुत से नेता हक्का-बक्का हैं कि कांग्रेस क्या सचमुच इस प्राण-प्रतिष्ठा के बाद, इसके न्यौते को नामंजूर करके चुनाव मैदान में बने रहने की उम्मीद करती है?
अयोध्या के राम मंदिर का मामला कभी भी विशुद्ध धार्मिक मामला नहीं रहा, और जब से लालकृष्ण अडवानी ने इसके लिए 90 के दशक में रथयात्रा निकाली थी, तब से लेकर अब तक यह धार्मिक के साथ-साथ राजनीतिक, और इन सबके भी ऊपर अदालती मामला बने रहा। जाने कितने दशक की कानूनी लड़ाई के बाद हिन्दू समाज के अलग-अलग बहुत से लोगों और संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट से एक सर्वसम्मत फैसला पाया, और उसी के नतीजे की शक्ल में यह मंदिर पूरा होने जा रहा है। चूंकि देश की सबसे बड़ी अदालत इस पर सर्वसम्मत फैसला दे चुकी है, इसलिए हम उसके पहले जाना नहीं चाहते, और कांग्रेस जैसी कई पार्टियां इस हकीकत तक पहुंचना नहीं चाहतीं कि हिन्दू संगठनों ने भाजपा के साथ मिलकर ही राम मंदिर की लड़ाई लड़ी थी, और अब जब मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा हो रही है, तो जाहिर तौर पर भाजपा ही मंदिर ट्रस्ट के दिल के करीब रहेगी। ऐसे में भाजपा के आज के सबसे बड़े नेता नरेन्द्र मोदी को अगर इस प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया गया है, और वे अपनी सहज शैली के मुताबिक इस मौके को कई दिनों के समारोह में तब्दील कर चुके हैं, प्राण-प्रतिष्ठा के पहले दक्षिण के कई मंदिरों में जाकर रामकथा में दर्ज इतिहास की जगहों पर घूम रहे हैं, तो इसमें न कुछ अनैतिक है, और न ही यह किसी कानून का बेजा इस्तेमाल है। लोकतंत्र में हर किसी पार्टी या संगठन को इस बात की आजादी है कि वे कानून के दायरे में अपनी पसंद के लोगों को जोड़ें, और चुनाव आचार संहिता से परे आयोजन करें। राम मंदिर ट्रस्ट ने देश की बहुत सी पार्टियों के बहुत से नेताओं को भी न्यौता भेजा है, और देश के बड़े-बड़े कामयाब और मशहूर लोगों को भी। अब यह इनका निजी फैसला रहेगा कि ये इस आयोजन में पहुंचते हैं या नहीं। कांग्रेस ने जब इस न्यौते को नामंजूर किया था, उस दिन भी हमने उसके इस रूख के खिलाफ कहा था। आज कई दिन गुजर जाने के बाद भी हमारी यही सोच कायम है कि जिस पार्टी को जनता के बीच जाकर वोट मांगने होते हैं, वह पार्टी एक सैद्धांतिक कट्टरता पर अड़ी नहीं रह सकती, सिद्धांत अपनी जगह बने रह सकते हैं, और देश की संस्कृति के हिसाब से व्यवहार में एक लचीलापन भी रह सकता है। कांग्रेस पार्टी ने बिना किसी वजह के वह लचीलापन खो दिया है, और एक गैरराजनीतिक ट्रस्ट को अदालत से मिले फैसले के बाद हो रहे इस आयोजन का न्यौता नामंजूर करके पार्टी ने जो अडिय़ल रूख दिखाया है, वह भला किसी का नहीं कर रहा, इस पार्टी का बुरा जरूर करने जा रहा है।
अयोध्या के इस राम मंदिर की बुनियाद में बड़ा लंबा इतिहास दफन है, उसमें आजादी के पहले का सैकड़ों बरस का इतिहास भी है, और आजादी के बाद का बाबरी मस्जिद गिराने से लेकर अदालती फैसले से राम मंदिर बनाने तक का ताजा इतिहास भी सामने है। इन 30 बरसों में देश, और अयोध्या वाले उत्तरप्रदेश में कई तरह की सोच की सरकारें रहीं, अयोध्या का मामला अदालतों में चलते हुए कई जज भी बदले, और जिला अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक इस पर जितनी लंबी सुनवाई हुई है, उससे अधिक कुछ भी एक लोकतंत्र की न्यायपालिका में मुमकिन नहीं था। इसलिए अब जब अदालती फैसले और जनता के पैसों से राम मंदिर बना है, तो उसे राजनीतिक मानना सही नहीं है। यूं तो लोकतंत्र के हर काम से राजनीति जुड़ी रहती है, लेकिन जहां इतनी लंबी अदालती प्रक्रिया ने, और दानदाताओं ने इस मंदिर को हकीकत बनाया है, तो फिर इसे महज राजनीति कह देना लोकतंत्र के बाकी दायरों और पहलुओं की अनदेखी करना है। अयोध्या में प्राण-प्रतिष्ठा का समारोह कोई मनाए या न मनाए, यह उनका अपना फैसला है, और प्रधानमंत्री की हैसियत से अगर नरेन्द्र मोदी को मंदिर ट्रस्ट ने मुख्य अतिथि बनाया है, तो यह ट्रस्ट और पीएम का आपसी फैसला है। इससे जिसको जो चुनावी नफा-नुकसान होना है, वे खुद उसके लिए जिम्मेदार हैं। जिन पार्टियों को चुनावी नुकसान झेलकर भी प्राण-प्रतिष्ठा के इस समारोह से परे रहना है, यह उनकी अपनी सोच, और उनकी अपनी आजादी है। भारतीय लोकतंत्र में यह बहुसंख्यक हिन्दू जनता के धार्मिक पुनर्जागरण का ऐतिहासिक मौका है, इसे इससे कम आंकना गलत होगा। देश के चारों शंकराचार्यों ने प्राण-प्रतिष्ठा समारोह का अलग-अलग कारणों से विरोध किया है, लेकिन सबके विरोध में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक निशाना हैं। इसे देखते हुए सोशल मीडिया पर किसी ने एक मजेदार बात लिखी है कि भारत में धर्म और राजनीति का मेल इतना गहरा हो गया है कि आज प्रधानमंत्री देश के सबसे बड़े धर्मगुरू दिख रहे हैं, और चारों सबसे बड़े धर्मगुरू विपक्षी नेता दिख रहे हैं!
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
न सिर्फ हिन्दुस्तान में बल्कि पूरी दुनिया में एक तो महिलाओं को आदमियों के मुकाबले दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता है, उन्हें हिकारत से देखा जाता है। पश्चिमी सभ्यता में सुनहरे बालों वाली गोरी महिलाओं को ब्लॉंड कहकर उनकी काल्पनिक बेवकूफियों के अंतहीन लतीफे बनाए जाते हैं। पूरी दुनिया में महिलाओं खराब ड्राइवर माना जाता है, यह माना जाता है कि उनकी व्यंग्य की समझ कम रहती है। सोशल मीडिया पर ऐसे लतीफे भरे रहते हैं जो कि शादीशुदा जिंदगी में मर्द की नर्क सरीखी जिंदगी, और उसके लिए जिम्मेदार उसकी बीवी की कहानी बताते हैं। यह सब कुछ इतना आम हो चुका है कि खुद महिलाएं ऐसे लतीफे बताते हुए हिचकती नहीं हैं।
लेकिन आम महिलाओं के मुकाबले जहां कोई महिला कामकाजी हो जाती है, राजनीति या सार्वजनिक जीवन में किसी ऊंचाई पर पहुंच जाती है, वहां उसके खिलाफ और हजार किस्म की बातें होने लगती हैं। महिला का घर की दहलीज के बाहर पांव रखना उसे कई किस्म की अप्रिय चर्चाओं का सामान बना देता है। इसके बाद जैसे-जैसे उसका काम का दायरा बढ़ता है, जैसे-जैसे उसे अधिक लोगों के साथ उठना-बैठना पड़ता है, काम के सिलसिले में कहीं-कहीं जाना पड़ता है, वैसे-वैसे वह अधिक निशाने पर आते चलती हैं। उसकी हर कामयाबी के लिए उससे ऊंची जगह पर बैठे हुए किसी मर्द की मेहरबानी को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है, और उस महिला की मानो आगे बढऩे, ऊपर पहुंचने, कामयाब होने की कोई क्षमता ही न हो। यहां पर भी किसी भी पेशे या कारोबार में कामयाब महिला के खिलाफ बोलने वालों में उससे कम कामयाब महिलाओं का बड़ा हिस्सा रहता है।
अगर कोई महिला जरा सी खूबसूरत हो गई, तो उसकी हर कामयाबी को उसके रूप-रंग से जोडक़र देखा जाता है, और यह ढूंढने की कोशिश होती है कि उसके ऊपर के किस मर्द को इस रूप-रंग की मेहरबानी से जोड़ा जा सके, ताकि महिला की तरक्की को इस काल्पनिक मेहरबानी से जोड़ा जा सके। किसी संस्थान में महिला को तरक्की मिली, तो बोलचाल की आम जुबान में कहा जाता है कि बॉस के साथ सोकर आई होगी। अंग्रेजी जानने वाले लोग इसे कार्पोरेट क्लाइंबर कहते हैं, और हर तरक्की के साथ महिला के चाल-चलन को और गंदा ठहराने का सिलसिला आगे बढ़ते रहता है। एक वक्त था जब लोग यह मानकर चलते थे कि महिला घर के बाहर निकल रही है, तो फिर अब उसका बचे रहना मुमकिन नहीं होगा।
दरअसल, किसी भी महिला का आसपास के पुरूषों से अधिक कामयाब होना तो दूर रहा, महज बराबरी का कामयाब हो जाना भी उसके चाल-चलन पर हमले का सामान बन जाता है। और तो और साहित्य जैसे पढ़े-लिखे दायरे में भी किसी लेखिका का महत्व पा जाना, या अधिक छप जाना संपादक के साथ उसके रिश्तों की सेक्सी-कल्पनाओं को पैदा कर देता है। किसी अखबार या टीवी चैनल में किसी लडक़ी या महिला को उसकी काबिलीयत से कोई मौका मिल जाना भी अपनी देह को सीढ़ी बनाकर उसके ऊपर चढऩे से जोड़ दिया जाता है, मानो उसके पास देह से अधिक कुछ न हो।
यह पूरा सिलसिला मर्दों की असुरक्षा की भावना से उपजा हुआ रहता है जो कि किसी भी कामयाब या काबिल लडक़ी या महिला को देखकर तुरंत ही हीनभावना के शिकार हो जाते हैं, क्योंकि उन्हें पीढिय़ों से यही सोच विरासत में मिली है कि लड़कियों और महिलाओं को मर्दों के मातहत ही काम करना चाहिए। मनुस्मृति ने यही सिखाया है कि किस तरह लडक़ी को पहले पिता, फिर पति, और फिर पुत्र का गुलाम रहना चाहिए। बचपन से स्कूली किताब में कमल घर चल, और कमला जल भर पढऩे वाले लडक़े जब मर्द बनते हैं, तो वे कमला को पढ़ते देखकर सहम जाते हैं, और जब कमला पढ़ाई में कमल से आगे निकल जाती है, तो उसके मुकाबले अधिक पढऩा तो बड़ा मुश्किल रहता है, लेकिन उसे बदनाम करना बड़ा आसान रहता है। इसलिए मर्दों की सोच अपने-अपने देश की मनुस्मृतियों की अलग-अलग किस्मों का शिकार रहती हैं, और दुनिया का कोई भी धर्म ऐसा नहीं है जो कि औरत को बराबरी का दर्जा देता हो। कोई महिला पोप नहीं बन सकती, न पादरी बन सकती, न मौलवी बन सकती, न शंकराचार्य बन सकती, न पुजारन बन सकती। और तो और देवी की प्रतिमाओं के कपड़े बदलते हुए बाहर पर्दा टांगकर भीतर यह काम पुरूष पुजारी ही करते हैं, ऐसे काम के लिए भी किसी महिला को मौका नहीं मिलता कि वह देवी के मंदिर में पुजारन हो जाए। इसलिए धर्म ने पूरी दुनिया में हजारों बरसों से औरतों को नीचा दिखाने का जो सिलसिला चला रखा है, तमाम पुरूष-सोच उसी का शिकार है, और आज भी लोगों को किसी भी दायरे में आगे बढ़ती महिला आंखों की किरकिरी सरीखी खटकती है।
मेरा देखा हुआ है कि किसी पेशे में काम करती हुई कोई महिला रोजाना दस-दस घंटे काम करे, और काम से लौटकर घर का पूरा काम करे, सामाजिकता निभाए, परिवार के आग्रह पर प्रवचन में भी जाकर बैठे, दोनों तरफ के परिवारों की तमाम जरूरी और गैरजरूरी जिम्मेदारियां उठाए, और इसके बाद भी हर तरफ से शिकायतें पाए, हर तरफ बदनामी झेले। ऐसी कई कामकाजी, और बहुत ईमानदारी से मेहनत करने वाली, होनहार महिलाओं के मामले मेरे देखे हुए हैं जिनकी सौ फीसदी जायज तरक्की भी उनके बदन से जोड़ दी जाती है। और ऐसे बहुत से मामलों में तोहमत लगाने वालों की एक और नीयत शामिल रहती है। कामकाजी महिला घर, दफ्तर, और दुनिया तीनों में बदनाम होती है। फिर चाहे वह हर मोर्चे पर कमरतोड़ काम करके, होनहार होने से, अपने हुनर से कामयाब हुई हो। जो हाथ उसे दबोच न पाएं, या जिन हाथों से वह छूट जाए, उनकी उंगलियां उसके खिलाफ सबसे पहले उठ जाती हैं, उसके खिलाफ सबसे पहले नुकीले पत्थर उठा लेती हैं।
इस आखिरी बात का आधा हिस्सा तो मैंने सोचा था, लेकिन इसे एक महिला दोस्त को भेजा तो उसने इसमें बाकी आधा हिस्सा जोड़ दिया। जाहिर है कि महिला के साथ होती बेइंसाफी की कल्पना कुछ हद तक तो मेरे लिए मुमकिन था, लेकिन बाकी हिस्सा एक भुगते हुए सच से निकला था, जो कि किसी महिला के लिए ही मुमकिन था।
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से बड़ी दिलचस्प खबर आई है, वहां भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए अभी धोती-कुर्ते में क्रिकेट मैच खेला गया, जिसकी कमेंटरी संस्कृत में की गई। तमाम टीमें अलग-अलग धार्मिक नामों वाली थीं, और आयोजकों का कहना था कि संस्कृत देवताओं की भाषा है, और इसी से दुनिया की सभी भाषाएं पैदा हुई हैं। यह टूर्नामेंट संस्कृति बचाओ मंच की तरफ से हो रहा है, और ये टीमें वैदिक विश्वविद्यालय के छात्रों की हैं जो कर्मकाण्ड की शिक्षा प्राप्त करते हैं। टूर्नामेंट जीतने वाली टीम को आयोजन समिति रामलला के दर्शन के लिए अयोध्या भेजने वाली है।
बड़ा ही दिलचस्प मामला है जिसमें भारतीय संस्कृति को बचाने के लिए, और संस्कृत भाषा के महत्व को स्थापित करने के लिए यह क्रिकेट मैच करवाया जा रहा है। इसके पीछे की धार्मिक और सांस्कृतिक भावनाओं के साथ-साथ यह समझना थोड़ा सा मुश्किल है कि भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए अंग्रेजों का खेल क्यों खेला जा रहा है। इसके बजाय चौसर, या तीरंदाजी, कुश्ती, या मल्लखंभ जैसे कोई मुकाबले करवाकर हिन्दुस्तानी संस्कृति को बेहतर तरीके से बचाया जा सकता था, और ऐसे खेलों की संस्कृत में कमेंटरी भी की जा सकती थी।
यह एक बड़ा अजीब सा घालमेल है जिसमें संस्कृति को धर्म से जोड़ दिया गया है, धर्म को एक भाषा से, और उस भाषा को देवताओं की भाषा बना दिया गया है, और दुनिया की तमाम भाषाओं के इसी संस्कृत से निकलने का दावा करते हुए उसी गर्व में डूबे रहने को काफी मान लिया गया है। यह सच्चे या झूठे इतिहास की छाया में चैन से सोकर वर्तमान को पार कर लेने की एक ऐसी कोशिश है, जो इस पीढ़ी को भविष्य में नहीं पहुंचा सकती। इंसानी बदन की उम्र तो हर पल भविष्य की तरफ बढ़ ही जाती है, लेकिन जब उसकी सोच आगे बढऩे से इंकार कर देती है, और अपने इतिहास की अपनी खुद की गढ़ी हुई कल्पना को आरामदेह मान लेती है, तो फिर बदन बूढ़ा हो जाता है, और दिल-दिमाग कई सदी पहले पहुंचे हुए रहते हैं।
हालत यह हो जाती है कि तथाकथित सांस्कृतिक इतिहास के गौरवगान में डूबे हुए लोगों को यह विरोधाभास भी समझ नहीं आता कि वे अपनी संस्कृति बचाने के लिए अंग्रेजों के खेल, क्रिकेट की पीठ पर सवार होकर चल रहे हैं, जो कि इस गुलाम देश में अंग्रेजों की दासता के इतिहास का एक प्रतीक भी है। हमलावर और विदेशी शासकों की छोड़ी हुई विरासत पर सवार होकर किस तरह कोई घरेलू संस्कृति जिंदा रह सकती है?
मध्यप्रदेश के इस वैदिक विश्वविद्यालय में जिस तरह के भी कर्मकाण्ड पढ़ाए जा रहे हैं, उन पर रोजी-रोटी चलने के लिए यह भी जरूरी है कि हिन्दू धर्म को मानने वाले हमेशा ही धर्मालु बने रहें, और कर्मकाण्डों पर उनका भरोसा कायम रहे। इसी उम्मीद में छात्रों की यह नौजवान पीढ़ी धर्म या संस्कृति के कर्मकाण्डों की यह पढ़ाई कर रही है कि उसे हमेशा ही जजमान हासिल रहेंगे। एक हुनर के रूप में तो यह पढ़ाई ठीक हो सकती है कि पूजा-पाठ करवाकर, या हवन-पूजन करवाकर ये लोग अपनी जिंदगी गुजार सकते हैं, लेकिन ऐसी पढ़ाई इस बात को अनदेखा करती है कि यह लोगों को धर्मालुओं पर परजीवी की तरह पलने के लिए तैयार कर रही है। जिन लोगों को भी ऐसा भविष्य सुहाता है, वे बेरोजगार रहने के बजाय पंडिताई करके दान-दक्षिणा से जिंदगी गुजारने का काम कर सकते हैं। और ऐसी ही पीढ़ी तैयार करने के लिए ये आयोजक संस्कृत कमेंटरी वाला क्रिकेट टूर्नामेंट करवा रहे हैं।
अगर ऐसे संस्थानों का सर्वे किया जाए तो कर्मकाण्ड का कोर्स कर रहे लोगों में से शायद ही कोई किसी नेता या अफसर, या किसी दौलतमंद के बच्चे निकलेंगे। ऐसे तबके अपने बच्चों को तो बेहतर पढ़ाई के लिए भेज देते हैं ताकि वे जिंदगी में अधिक कामयाब हो सकें, दूसरी तरफ वे धर्म और जाति के आधार पर छांटे गए गरीब बच्चों के लिए ऐसी कोर्स चलाते हैं जिनमें वे हमेशा ही धर्म पर पलने वाले बनकर रह जाएं। यह कुछ-कुछ उसी किस्म का है जिस तरह गरीब मुस्लिमों के लिए मदरसों में धर्म की पढ़ाई होती है। संपन्न मुस्लिम अपने बच्चों को पश्चिमी दुनिया में भेजते हैं, और गरीब मुस्लिमों के बच्चों के लिए मदरसे चलते हैं। यह भी देखा जाना चाहिए कि दुनिया के बाकी धर्मों में कमउम्र से ही धर्मशिक्षा देने का इंतजाम किस आय वर्ग के बच्चों के लिए किया जाता है।
पहले तो हिन्दी से प्रेम के नाम पर अंग्रेजी से परहेज ने कई पीढिय़ां बर्बाद कर दी हैं, और उनकी संभावनाएं सीमित कर दी हैं। भाषा को देशप्रेम से जोड़ दिया गया, उसे मातृभाषा और राष्ट्रभाषा का दर्जा दे दिया गया, और ऐसी भावनाओं के चलते दुनिया की विज्ञान और टेक्नॉलॉजी की भाषा का बहिष्कार भी किया गया। हिन्दुस्तान में बहुत से अंग्रेजी हटाओ आंदोलन देखे हैं, जिनका नुकसान हिन्दीभाषी इलाकों की कई पीढिय़ां झेल रही हैं। दूसरी तरफ दक्षिण के जिन राज्यों ने, या अहिन्दीभाषी दूसरे राज्यों में जिस तरह अंग्रेजी को भी अपनाया, उसी का नतीजा है कि उनकी आबादी दुनिया भर में पहुंची, और हिन्दी से परे भी रोजगार कमाने के लायक तैयार हुई। आज हिन्दी से भी और एक दर्जा जटिल और अलोकप्रिय संस्कृत को बढ़ावा देने के नाम पर जिस तरह गरीब बच्चों को उसमें झोंका जा रहा है, वह उन असहाय बच्चों के साथ बेइंसाफी है।
एक तरफ तो देश के कुछ भाजपा शासन वाले राज्यों में मदरसों की पढ़ाई को कम या खत्म करने की बात होती है, दूसरी तरफ धर्म और संस्कृत भाषा के साथ कर्मकाण्डों की पढ़ाई क्या एक संस्कृत मदरसा नहीं बना रही है?
इन दिनों सार्वजनिक जगहों पर बहुत से लोग इत्र की दुकान की तरह महकते हुए दिखते हैं। नौजवानों में मामूली आर्थिक हैसियत के बहुत से लडक़े-लड़कियां भी कुछ न कुछ सुगंध लगाए दिखते हैं। पसीने और बदन की बदबू को दबाने के नाम पर बहुत सी कंपनियां अपने डियो (डियोडोरेंट) की ऐसी आक्रामक मार्केटिंग करती हैं, और अनगिनत फिल्मी सितारे, या खिलाड़ी ऐसे स्प्रे के बाद ही अपने आत्मविश्वास के जागने का दावा करते हैं। ऐसी मॉडलिंग और ब्रांड प्रमोशन के बाद यह जाहिर है कि लोग अपने बदन की स्वाभाविक गंध को बदबू मान लेते होंगे, और किसी स्प्रे के सहारे के बिना वे अपने आपको आत्मविश्वास की बैसाखी के बिना चलने वाले महसूस करते होंगे।
दरअसल बाजार लोगों में हीनभावना और बेचैनी भरकर अपना कारोबार करता है। फैशन और मेकअप का बहुत बड़ा कारोबार अमरीकी सितारों से लेकर अमरीकी छरहरी गुडिय़ा, बार्बी डॉल के बदन के आकार के असर से चलता है। अभी अधिक वक्त नहीं हुआ जब दुनिया के सिगरेट और शराब के सबसे बड़े ब्रांड चर्चित चेहरों के कंधों पर सवार होकर ग्राहकों को लुभाने निकलते थे। हिन्दुस्तान में भी सिगरेट का एक बड़ा ब्रांड देश भर के जोड़ों को एक मुकाबले में बुलाता था, जिनमें सबसे अच्छा जोड़ा दिखने वाले पति-पत्नी को सिगरेट की मॉडलिंग के लिए छांटा जाता था। इस तरह नए कानून बनने के पहले तक बाजार लगातार बुरी आदतों को बढ़ाने के लिए भी हर किस्म के हथियारों वाले हमले इस्तेमाल करता था। आज भी हिन्दुस्तान में सिगरेट और शराब के इश्तहारों पर रोक रहने पर भी, उन्हीं नामों के दूसरे सामान बनाकर, उसी ब्रांड से बाजार में बेचने की धोखाधड़ी धड़ल्ले से चलती है, और कारोबार के दबाव में रहने वाली सरकारें इसे अनदेखा भी करते रहती हैं।
बाजार की तकनीक कुछ-कुछ राजनीतिक दलों सरीखी रहती है जो कि लोगों के मन में किसी तरह की दहशत, किसी तरह की नफरत, किसी तरह की धर्मान्धता, कट्टरता भरते हैं, फिर किसी काल्पनिक दुश्मन की गढ़ी गई तस्वीर दिखाकर खतरे बताते हैं, और वोटरों को यह सोचने को मजबूर करते हैं कि फलां नेता या राजनीतिक दल को वोट दिए बिना हिफाजत नहीं है।
बाजार ऐसा ही करता है। लोगों को उनके बदन के आकार से हीनभावना का शिकार बना देता है, उन्हें अपने रंग को लेकर इतना बेचैन कर देता है कि माइकल जैक्सन जैसे लोग दर्जनों बार की प्लास्टिक सर्जरी से अपना रंग बदलवाते रहे, नाक को धार लगवाते रहे, और बेचैनी में ही मर भी गए। हिन्दुस्तान में भी फेयरनेस क्रीम का कारोबार आसमान चीरकर आगे बढ़ते रॉकेट की तरह बढ़ते रहा, और वह पूरी तरह से हीनभावना पर जिंदा बाजार था, जिसे देश के सबसे चर्चित, शाहरूख खान सरीखे फिल्म अभिनेता बढ़ावा देते रहे।
देश के सबसे बड़े फिल्मी सितारे, सबसे बड़े क्रिकेट खिलाड़ी जब गैरजरूरी चीजों को बेचकर खुद अरबपति होते हैं, और वैसे ब्रांड के मालिकों को खरबपति बनाते चलते हैं, तो उस हमले के सामने साधारण सोच के जिंदा रह पाने की गुंजाइश नहीं रहती। देश के तीन-तीन, चार-चार सबसे बड़े सितारे जब कोई गुटखा बेचते हैं, तो नौजवानों को कैसे उसके इस्तेमाल से बचाया जा सकता है? जब देश की कुछ सबसे सुंदर चर्चित लड़कियां और महिलाएं हर कुछ महीनों में बदले जा रहे फैशन का बाजार खड़ा करने के लिए न सिर्फ इश्तहारों में, बल्कि मीडिया की दूसरी मासूम दिखती, लेकिन खरीदी गई जगहों पर भी छाई रहती हैं, तो देश की लड़कियां और महिलाएं उनके बिना अपने आपको समाज और अपने दायरे की दौड़ से बाहर पाती हैं।
बाजार के हमले का सामना कर पाना आसान नहीं है, क्योंकि इन हमलों और इसके हथियारों को, इनकी फौजी रणनीति को दुनिया के कुछ सबसे शातिर दिमाग तय करते हैं। ये दिमाग माताओं के दिमाग में यह भरने में कामयाब हो जाते हैं कि बच्चों को अगर जिराफ की तरह ऊंचा बनाना है, उनके बदन और दिमाग को तेजी से बढ़ाना है, तो उन्हें दूध में कौन सा पाउडर घोलकर पिलाना होगा। हालत यह है कि बच्चों के खानपान को लेकर उनकी माताओं के दिमाग में इतना कुछ भर दिया गया है कि वे बच्चों के डॉक्टरों का जीना हराम किए रहती हैं।
लोगों के मन में बेचैनी भरकर, उन्हें हीनभावना में डुबाकर, उन्हें बेहतरी के सपने दिखाकर इतना कुछ किया जाता है कि लोग बाजार की रणनीति के हिसाब से ही सोचने लगते हैं, और इंसान के बजाय ग्राहक बनकर वे अपने को अधिक महफूज महसूस करते हैं। जो सामान न हेलमेट हैं, न बुलेटप्रूफ जैकेट हैं, वे भी लोगों को हिफाजत का अहसास कराने लगते हैं। कुछ खास ब्रांड के टूथपेस्ट लोगों को यह बतलाने लगते हैं कि उनकी सांस से निकली हुई सनसनीखेज ताजगी किस तरह आसपास से गुजरती लड़कियों और महिलाओं को भी उनकी तरफ खींच देगी। लोगों के सेहतमंद खाने-पीने की एक मामूली सी समझ किनारे धरी रह जाती है, और वे ढेर-ढेर शक्कर वाले कोल्ड ड्रिंक, या एनर्जी ड्रिंक के बिना, किसी प्रोटीन ड्रिंक के बिना अपने को अधूरा पाते हैं।
जिस तरह अखबार और टीवी चैनल, या यूट्यूब और फेसबुक के रास्ते लोगों तक पहुंचने वाली सोच उन्हें बदल दे रही है, उसी तरह हमलावर मार्केटिंग से लोगों का खानपान, रहन-सहन, सब कुछ बदल जा रहा है। लोग हजारों बरस से सामाजिक प्राणी थे, लेकिन अब बाजार की रणनीति लोगों के अलग-अलग समाज बांट दे रही हैं, और लोग ग्राहकों की अलग-अलग किस्मों के समुदाय बनते जा रहे हैं। अधिकतर लोगों को यह समझ भी नहीं पड़ रहा है कि वे किस तरह बाजार के हाथों एक कठपुतली की तरह काम कर रहे हैं, और वे अपनी जरूरत से बिल्कुल ही परे जाकर ग्राहक बनते जा रहे हैं। लोगों के पास आज किसी मोबाइल या कार का एक मॉडल अपनी पूरी क्षमता से इस्तेमाल नहीं हो पाता है कि कुछ और क्षमताओं वाले नए मॉडल लोगों के भीतर बेचैनी भरने लगते हैं। आज लोगों को अपने दोस्तों और परिवार के दायरे में यह सोचना चाहिए कि क्या उन्हें सचमुच और अधिक की जरूरत है, और नए की जरूरत है, या मौजूदा काफी है? बाजार शायद लोगों को इतना तर्कसंगत रहने नहीं देगा, और लोग एक वफादार ग्राहक की तरह अपने ब्रांड से बंधे रह जाते हैं, काल्पनिक जरूरतों को जरूरी सच मानकर उन्हें हासिल करने में जुट जाते हैं। पता नहीं बाजार की यह साजिश इंसानों को गुलाम ग्राहकों से परे भी कुछ रहने देगी या नहीं।
अभी इस वक्त जब हम यह लिख रहे हैं, छत्तीसगढ़ में भाजपा के दिल्ली से भेजे गए पर्यवेक्षक पहुंचे हुए हैं, और जब तक यह लिखना पूरा होगा तब तक उनकी विधायकों के साथ बैठक शुरू हो चुकी होगी। विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस और भाजपा दोनों के बीच इस बात को लेकर आत्ममंथन चल रहा है कि कांग्रेस की ऐसी हार, और भाजपा की ऐसी जीत कैसे हुई? दोनों ही उम्मीद से अधिक रहीं, इसलिए यह चर्चा अखबारों के पन्नों पर भी बिखरी हुई है, और कैमरों के सामने भी। हम भी लगातार इस मुद्दे पर सोच रहे हैं, और लिख-बोल रहे हैं। लेकिन जिस तरह चुनाव के पहले छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी ने एक बड़ा जनधारणा प्रबंधन किया था, और तमाम ओपिनियन पोल से लेकर एक्जिट पोल तक एक ही चर्चा थी कि कांग्रेस बड़े वोटों से जीतकर आ रही है, उसी तरह आज ऐसा लगता है कि एक यह जनधारणा बन रही है, या बनाई जा रही है कि कांग्रेस की ऐसी बुरी हार पार्टी के भीतर नेताओं के एक-दूसरे को हराने की कोशिशों से हुई है। अभी यह साफ नहीं है कि ऐसी जनधारणा अगर सचमुच बनाई जा रही है, तो उसके पीछे क्या मकसद है? लेकिन ऐसा लगता है कि ये आरोप तो कांग्रेस के भीतर चल ही रहे थे, जब वोट भी नहीं डले थे, नतीजे निकलना तो दूर की बात थी, तब भी ये आरोप हवा में थे कि कुछ बड़े नेताओं के खिलाफ उनके विधानसभा क्षेत्र में उनके वोट खराब करने कुछ लोगों को खड़ा किया गया था, कुछ लोगों को अंधाधुंध बड़ी रकमें भेजी गई थीं। इसलिए इस शिकायत में कुछ नया नहीं है। और अगर आज भी ऐसी शिकायतों की खबरों को हवा दी जा रही है, तो यह सोचने का मौका है कि क्या यह किसी और मुद्दे की तरफ से ध्यान हटाने के लिए की जा रही सायास कोशिश है?
आज छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की ऐसी हार के पीछे एक बड़ी वजह भूपेश बघेल सरकार के तौर-तरीके थे। जिस अंदाज में वह सरकार चली, जिसे कि बोलचाल की जुबान में बैड गवर्नेंस कहते हैं, वह चर्चा से गायब दिख रही है। भ्रष्टाचार के कुछ मामलों की चर्चा भाजपा जरूर कर रही है कि कांग्रेस को इस वजह से भी खारिज किया है, लेकिन सरकार चलाने के गलत तौर-तरीकों पर बात नहीं हो रही है। पता नहीं कल दिल्ली में हुई कांग्रेस की समीक्षा बैठक में खरगे-राहुल जैसे लोगों ने हकीकत जानने की कोशिश की, या टकराव को टालने की, यह तो बाहर पता नहीं चल पाया है, लेकिन छत्तीसगढ़ में पांच बरस सरकार चलाने में जो गलत तौर-तरीके थे, उनकी बात की जानी चाहिए, लेकिन उस पर अखबारों और टीवी पर भी बात होते नहीं दिख रही है।
कल कोरबा के विधायक रहे, और भूपेश मंत्रिमंडल के एक सबसे मुखर मंत्री, जयसिंह अग्रवाल ने जरूर कैमरे के सामने इस बात को खुलकर कहा कि उनके जिले में कलेक्टर और एसपी जैसे अफसर जिस तरह के भेजे गए, और उन्होंने जिस तरह से सत्तारूढ़ पार्टी की संभावनाओं को खत्म किया, वह हार की अकेली वजह थी। उन्होंने यह भी कहा कि मंत्रियों को कोई अधिकार नहीं दिए गए थे, और सारे अधिकार एक जगह (जयसिंह ने सीएम का नाम लेने से परहेज किया, लेकिन उनकी बात का मतलब किसी भी कोने से छिपा हुआ नहीं था) एक जगह केन्द्रित हो गए थे। यह बात पांच बरस हर मंत्री बोलते रहे, सार्वजनिक रूप से तो कम लोगों ने कहा, लेकिन बंद कमरे की आपसी बातचीत में हर किसी का दुखड़ा यही था। तमाम लोगों का यही कहना था कि प्रदेश में हाऊस (मुख्यमंत्री निवास) ही हर फैसला लेता है, और प्रदेश के हर महत्वपूर्ण ओहदे पर बैठे हुए अफसर भी हर बात के लिए हाऊस की तरफ देखते थे। जब पूरी की पूरी सत्ता एक जगह केन्द्रित थी, तो सरकार के अच्छे कामों के लिए भी उसी को शोहरत मिलनी थी, और तमाम बुरे कामों के लिए भी बदनामी की वही अकेली हकदार थी। इस तरह प्रदेश की पूरी सरकार, शासन-प्रशासन के सारे काम, एक हाऊस में सीमित हो गए थे, और कलेक्टर-एसपी जैसे पुलिस-प्रशासन के जिला-मुखिया भी अपने प्रशासनिक अफसरों के प्रति जवाबदेह नहीं रह गए थे। आज जब हम जनता के फैसले को देखते हैं, तो लगता है कि मुख्य सचिव से लेकर पटवारी तक के बीच मजबूती से जमी हुई यह धारणा सरकारी अमले से निकलकर बाहर भी चारों तरफ फैली, सत्तारूढ़ विधायकों और मंत्रियों को भी एक मामूली अफसर के रहमोकरम पर रहना पड़ा, और यह बात शासन-प्रशासन और सत्तारूढ़ संगठन सभी का मनोबल तोडऩे के लिए काफी थी।
आज चूंकि इस पहलू से कांग्रेस की हार को जोडक़र नहीं देखा जा रहा है, इसलिए इस पर चर्चा जरूरी है। कांग्रेस पार्टी को अगर देश-प्रदेश में कहीं भी अपना कोई भविष्य बनाना है, और बनाना तो दूर रहा, बचाना है, तो उसे पार्टी से परे की किसी पेशेवर संस्था की सेवाएं लेनी चाहिए, और उसे गोपनीय तरीके से अपने हारे हुए इन तीन राज्यों में कुछ महीने अध्ययन करने भेजना चाहिए, और उनकी रिपोर्ट पर बंद कमरे में खुलकर विचार करना चाहिए। हमारा मानना है कि कोई गैरराजनीतिक संस्था ऐसे काम को बेहतर तरीके से कर सकती है कि सरकार कैसे-कैसे नहीं चलाई जानी चाहिए थी। कम से कम जो तीन राज्य कांग्रेस अभी बुरी तरह हारी है, उस पर ऐसी रिपोर्ट कांग्रेस को लोकसभा चुनाव के वक्त भी काम आ सकती है। इससे भी पार्टी सबक ले सकती है कि किसी भी प्रदेश में पार्टी और उसकी सरकार की लीडरशिप के एक व्यक्ति में ही सीमित हो जाने का क्या नुकसान हो सकता है, उसके क्या खतरे हो सकते हैं? छत्तीसगढ़ इसकी एक शानदार मिसाल है कि जब किसी राज्य को किसी एक व्यक्ति को लीज पर दे दिया जाता है, तो उससे पूरी सरकार, और पूरा पार्टी संगठन कैसे खत्म होता है। इस राज्य में कांग्रेस को दो बार ऐसा करने का मौका मिला, 2000 में उसने जोगी को इस राज्य का पट्टा लिख दिया था, और इस बार भूपेश बघेल को। ऐसे निर्बाध एकाधिकार का क्या नतीजा निकलता है, यह पार्टी के सामने है। उसके पास अब इन प्रदेशों में राज्य के स्तर पर खोने के लिए कुछ नहीं बचा है, लेकिन पूरे देश के स्तर पर यह सबक लेने का मौका अभी बाकी है कि उसे अपना संगठन कैसे नहीं चलाना चाहिए। किसी एक व्यक्ति को ही ईश्वरीय सत्ता सौंप देने पर पार्टी के बाकी लोग किस तरह हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाने को मजबूर रहते हैं, छत्तीसगढ़ अपनी दो कांग्रेस सरकारों में इसकी एक शानदार मिसाल रहा है, और दोनों ही मौकों पर कांग्रेस हाईकमान का रूख एक सरीखा रहा है, फिर चाहे वजहें अलग-अलग क्यों न रही हों। लेकिन नतीजा एक ही रहा जब तानाशाही के अंदाज में चली सरकारें लोगों के बीच में एक मुजरिम-गिरोह की तरह मानी गईं, और चुनावी हार से परे भी कांग्रेस साख की इस नुकसान से उबर नहीं पाई। जोगी के बाद कांग्रेस 15 बरस सत्ता के बाहर रही, और इस बार मंत्रालय से उसका वनवास कितना लंबा होगा, यह इस पर भी निर्भर करेगा कि वह अपनी पार्टी के लिए अब कौन सा तौर-तरीका तय करती है।
खुद कांग्रेस के भीतर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के लिए यह एक आत्ममंथन का मौका हो सकता है कि राजनीतिक और सरकारी फैसले लेने में जब लोगों की भागीदारी खत्म कर दी जाती है, और अपने इर्द-गिर्द हासिल अकेली राय पर प्रदेश चलाया जाता है, तो उसके क्या नुकसान होते हैं। कांग्रेस ने 2023 के विधानसभा चुनाव के पहले दसियों हजार करोड़ रूपए के वायदे मतदाताओं से किए थे, इनमें से बहुत सीधे-सीधे नगद फायदा पहुंचाने वाले कुछ वायदे तो ऐसे थे जिनसे तमाम दो करोड़ वोटर जुड़े हुए थे, लेकिन जिस अंदाज में उन्होंने कांग्रेस को खारिज किया है उससे कांग्रेस को बहुत कुछ समझना और सीखना चाहिए। यह पार्टी घर तो बैठने वाली नहीं है, लेकिन यह मौका पार्टी संगठन को एक बेहतर भागीदारी वाली संस्था बनाने का भी है। कोई भी व्यक्ति चाहे वे कितने ही काबिल और कितने ही जनकल्याणकारी क्यों न हों, लोकतंत्र कभी व्यक्तितंत्र नहीं हो सकता। जब कभी लोकतंत्र में भागीदारी खत्म की जाती है, वह उसे तानाशाही की तरफ ले जाती है। छत्तीसगढ़ में लोग यह कहने में कतरा जरूर रहे हैं, लेकिन कांग्रेस को इस प्रदेश में अपने घर की पड़ताल करवाना चाहिए कि हम सैद्धांतिक रूप से जो बात कह रहे हैं, क्या वह छत्तीसगढ़ में उसकी सरकार, और उसकी पार्टी पर लागू नहीं हो रही थी?
कांग्रेस को यह भी समझने की जरूरत है कि देश में अपना संगठन चलाने के लिए, प्रदेशों में चुनाव करवाने के लिए उसे जो रकम लगती है, क्या उसके एवज में किसी प्रदेश को किसी एक नेता को लीज या ठेके पर दे देना ठीक है?
इससे परे हम कांग्रेस के राष्ट्रीय संगठन को यह भी याद दिलाना चाहते हैं कि छत्तीसगढ़ में इन पांच बरसों में सत्ता और संगठन (अब इन दोनों को क्या अलग-अलग लिखा जाए) ने पार्टी के सबसे बुनियादी मूल्यों को किस तरह खत्म किया है। धर्मनिरपेक्षता गांधी के वक्त से कांग्रेस की रीढ़ की हड्डी बनी हुई थी, उसकी आत्मा बनी हुई थी, इस एक शब्द के बिना कांग्रेस की कोई शिनाख्त नहीं थी, और इसके बड़े-बड़े नेता दिल्ली में बैठकर यह देखते रहे कि किस तरह कांग्रेस ने हिन्दुत्व की ए टीम बनने के लिए छत्तीसगढ़ में पार्टी के तन-मन से रीढ़ की हड्डी और आत्मा को निकालकर बाहर कर दिया था, ताकि बहुसंख्यक हिन्दू आबादी के सामने यह साबित किया जा सके कि उसका अल्पसंख्यकों से कोई भी लेना-देना नहीं है। यह बात हम पिछले आधे बरस में दो दर्जन बार लिख और बोल चुके हैं, और इसका चुनावी नतीजों से कोई लेना-देना नहीं है। चुनावी नतीजों ने सरकार के बारे में वोटरों की सोच का नया पहलू जरूर सामने रखा है, लेकिन सरकार का घोड़े पर सवार हिन्दुत्व इन पांच बरस भगवा झंडा लेकर प्रदेश में दौड़ते रहा, और किनारे पड़े जख्मी अल्पसंख्यकों को झंडे के डंडे से किनारे करते भी रहा। ऐसा भी नहीं कि सोनिया-परिवार को यह दिख न रहा हो, और अगर बीते बरसों में यह न दिखा हो, तो अब प्रदेश भर के चुनावी नतीजों से तो दिख जाना चाहिए।
कांग्रेस को छत्तीसगढ़ के पिछले पांच बरस के मॉडल से यह सबक लेने की जरूरत है कि उसे अपना संगठन, और अपनी सरकार किस तरह नहीं चलानी चाहिए, उसे यह भी सबक लेने की जरूरत है कि कोई नेता चाहे कितने ही कामयाब न हों, वे पूरे संगठन के, तमाम नेताओं के अकेले विकल्प नहीं बन सकते। अगर ऐसा हो सकता तो फिर सोनिया परिवार के तीन लोगों से परे देश में किसी पार्टी संगठन की जरूरत ही क्या रहती? छत्तीसगढ़ में इस पार्टी ने पांच बरस जो किया है, जो देखा है, और नतीजे में जो पाया है, वह भी अगर इस पार्टी के लिए सबक नहीं बन सकेगा, तो इसके लिए फिर दुनिया में और कोई सबक नहीं है।
मुम्बई के आईआईटी में खानपान को लेकर एक विवाद चल रहा है। वहां हॉस्टल में रहने वाले और मेस में खाने वाले छात्र-छात्राओं में से शाकाहारियों को यह शिकायत थी कि मांसाहारियों के साथ बैठकर खाने में उन्हें असुविधा होती है। उनकी मांग को देखते हुए आईआईटी ने मेस में कुछ टेबिलों को सिर्फ शाकाहारियों के लिए आरक्षित कर दिया था कि जिन्हें मांसाहार देखने से दिक्कत होती है, वे वहां बैठकर खा सकते हैं, और बाकी टेबिलों पर सभी लोग बैठ सकते हैं। इसे लेकर वहां एक विवाद चल रहा है। लोगों का कहना है कि यह जाति व्यवस्था, और धर्म व्यवस्था से जुड़ी हुई दकियानूसी सोच है। और अभी वहां एक छात्र पर शाकाहारी टेबिल पर मांसाहार खाने पर 10 हजार रूपए जुर्माना लगाया गया है जिसके बाद वहां के प्राध्यापकों से लेकर दूसरे लोगों तक सभी लोग इस विवाद में कूद पड़े हैं। और जब बात निकलती है तो कुछ दूर तक जाती है। यह बहस बढ़ते-बढ़ते मुम्बई जैसे महानगर में उन रिहायशी इमारतों तक चली गई है जिनमें से कुछ में मांसाहारियों को फ्लैट खरीदने नहीं मिलते, या उन्हें किरायेदार बनकर आने भी नहीं मिलता। उनके खानपान को लेकर शाकाहारियों को दिक्कत होती है, और इसलिए वे रिहायशी इमारतों को सिर्फ शाकाहारियों के लिए जैसी शर्तें रखते हैं।
भारत में पिछले 10-15 बरस में कई प्रदेशों से होते हुए अब तकरीबन पूरे देश में खानपान को धर्म और जाति से जोड़ दिया गया है। उत्तर भारत के बहुत से ऐसे शहर हैं जहां पर जब कांवडिय़ा निकलते हैं, तो उतने दिन रास्ते की सभी मांसाहार की दुकानों को, रेस्त्रां को बंद करवा दिया जाता है। कई शहर ऐसे हैं जहां हिन्दू त्यौहारों पर जानवरों का काटना बंद रहता है, और मांस-मछली बेचना भी। धीरे-धीरे हिन्दू, सवर्ण शाकाहारियों, जैन समुदाय के लोगों के दबाव में प्रदेशों में ऐसे दिन बढ़ रहे हैं, और एक-एक करके कई त्यौहारों पर मांसाहार को बंद कर दिया गया है। जबकि भारत के शाकाहार-मांसाहार के नक्शे को देखें तो 30 फीसदी से कम हिन्दुस्तानी ही शाकाहारी हैं। जिस उत्तरप्रदेश को लेकर घटनाएं सबसे अधिक सामने आती हैं वहां पर आधे से कम, 47 फीसदी शाकाहारी हैं। छत्तीसगढ़ में 18 फीसदी, झारखंड में 3 फीसदी, ओडिशा में 2.6 फीसदी, और तेलंगाना में 1.3 फीसदी लोग ही शाकाहारी हैं।
खानपान में मांसाहार से और बड़ा मुद्दा गाय-भंैस के मांस, बीफ का है। देश के बहुत से राज्यों में बीफ पर रोक लगी हुई है, लेकिन कई राज्य ऐसे हैं जहां इसकी पूरी कानूनी इजाजत है। ऐसे में जहां इसे गैरकानूनी करार दिया गया है, वहां पर गाय को मारना इंसान को मारने से बड़ा मुद्दा रहता है, और बीफ के शक में भी इंसानों को मार डालना कई जगह हुआ है। ऐसे में खानपान को लेकर अगर आईआईटी के हॉस्टल में एक विवाद खड़ा हुआ है, तो उसे धार्मिक और सामाजिक पहलू से परे भी देखने की जरूरत है। आज आईआईटी के कुछ प्राध्यापकों सहित बहुत से लोग इसे एक सवर्ण पूर्वाग्रह का नतीजा बता रहे हैं, और इसे दलित-आदिवासी विरोधी करार दे रहे हैं, ओबीसी विरोधी करार दे रहे हैं जो कि मोटेतौर पर मांसाहारी समुदाय हैं।
यह बात जरूर है कि देश में एक तिहाई से कम लोग ही शाकाहारी हैं। इनमें से अधिकतर लोग अपनी धार्मिक मान्यताओं और जातिगत रीति-रिवाजों की वजह से शाकाहारी होंगे, और धीरे-धीरे इनकी भी अगली पीढिय़ां हो सकता है मांसाहारी होती जाएं। लेकिन शाकाहार को सिर्फ धर्म और जाति से जोडऩा क्या सचमुच जायज होगा? क्या धर्म और जाति से परे खानपान की कोई दूसरी वजहें नहीं हो सकतीं?
मैं अपने खुद के बारे में अगर लिखूं, तो मैं न धर्म को मानता हूं, न जाति को। पूरी जिंदगी में इन दोनों पर आधारित किसी संगठन का मेम्बर भी नहीं बना। इनमें से किसी के कार्यक्रम में भी नहीं गया। कोई रस्म-रिवाज नहीं मानी। पूरी तरह से नास्तिक हूं। लेकिन पूरी तरह से शाकाहारी भी हूं। हिन्दुस्तान से फिलीस्तीन तक सडक़ के लंबे सफर में महीने भर सिर्फ मुस्लिम देशों से गुजरते हुए भी किसी तरह हमारे शांति-कारवां में आधा दर्जन से अधिक लोग शाकाहारी थे, और किसी तरह हमारा गुजारा चल गया। दस फीसदी से कम लोग अपने खाने में मांसाहार से परे रहे, लेकिन किसी और के मांसाहार से कोई दिक्कत नहीं रही। मैं दुनिया के एक-दो दर्जन देशों में घूमा हूं, और सभी तरह के खानपान वाले लोगों के साथ बैठकर अपना शाकाहारी खाना खाया है। लेकिन दूसरों के खाने से कोई चिढ़ न रहते हुए भी मांसाहार को देखने में कभी-कभी असुविधा भी हुई।
अब मेरी तरह के धर्म और जाति से परे के शाकाहारी लोगों में से भी कुछ लोगों को ऐसी टेबिल पसंद आ सकती है जिस पर कोई मांसाहार न करे। आज भी हर दिन फेसबुक और ट्विटर पर मेरे कई मिनट मांसाहार की तस्वीरों को सामने से हटाने में गुजरते हैं क्योंकि मुझे उनके साथ किसी प्राणी को मारने की बात दिखती है। किसी जानवर, या पशु-पक्षी को खाने के पहले उसे मारना तो पड़ता ही है, और मैं ऐसी हिंसा के खिलाफ हूं। लेकिन मेरा ऐसी हिंसा से परहेज किसी और का विरोध नहीं है, जिन्हें यह ठीक लगता है, वह ऐसा करते रहें, मैं किसी को रोकने भी नहीं जाता, जिस तरह मैं सिगरेट या तम्बाकू के खिलाफ मुहिम चलाता हूं, वैसा कुछ भी मांसाहार के खिलाफ नहीं करता। वह लोगों की अपनी मर्जी की बात है। लेकिन अगर मुझे किसी हॉस्टल में रहना पड़े, और किसी मेस में खाना पड़े, और वहां पर बिना किसी के लिए असुविधा पैदा किए शाकाहारियों के लिए अलग टेबिल तय की जा सके, तो मुझे इसमें कोई बुराई नहीं लगती है। शाकाहारियों की वजह से मांसाहारियों को टेबिल न मिले, वह तो गलत बात होगी। लेकिन शाकाहारियों के लिए तय की गई टेबिल के अलावा अगर दूसरी टेबिल खाली हो, और मांसाहारी यह जिद करे कि वे शाकाहारियों की टेबिल पर ही बैठेंगे, तो उनकी ऐसी जिद मुझे हिंसक लगेगी।
खानपान को अगर धर्म और जाति के आधार पर ही मुद्दा बनाया जाता है, तो यह कुछ लोगों के हकों के खिलाफ बात हो सकती है, लेकिन अगर मेरी तरह के लोगों के खानपान के सिद्धांत की बात हो, तो किसी जगह संभावना होने पर अलग बैठने के इंतजाम में क्या दिक्कत है? क्या कोई किसी दूसरे को नापसंद खानपान लेकर उसके टेबिल पर बैठने की जिद करे, तो क्या यह कोई लोकतांत्रिक अधिकार है? अगर लोगों को अपने खानपान का हक पसंद है, तो उन्हें दूसरों की पसंद का भी ख्याल रखना चाहिए।
यह बात जरूर है कि किसी भी त्यौहार या किसी दूसरे दिन पर मांसाहार की दुकानों का बंद करना फिजूल की बात है, और कुछ धर्मों के लोगों को, कुछ महान लोगों के अनुयायियों को मांसाहार से अपने परहेज को दूसरों पर नहीं थोपना चाहिए।
जहां तक मुम्बई और गुजरात के कुछ शहरों में रिहायशी इमारतों में मांसाहारियों को मकान न बेचने, या किराये से न देने का मुद्दा एक अलग किस्म का मामला है जिसमें अलग किस्म के कानून जुड़े हुए हैं, और उस पर चर्चा हॉस्टल जैसे मामले से जोडक़र यहां नहीं हो सकती। फिलहाल जो लोग हॉस्टल की मेस में शाकाहारियों के लिए अलग तय की गई टेबिल के खिलाफ हैं, वे धर्म और जाति से परे खानपान की निजी पसंद के हक को भी खारिज कर रहे हैं, जैसी पसंद, और जैसे सिद्धांत पर मेरा शाकाहार टिका हुआ है।
शनिवार सुबह फिलीस्तीन की गाजापट्टी से इजराइल पर अचानक एक बड़ा और अभूतपूर्व हमला हुआ। फिलीस्तीन अलग-अलग टुकड़ों में बंटा हुआ देश है जो देशकों से इजराइली हमलों का शिकार है। वहां के लोगों को बेदखल करके इजराइल वहां फौजी ताकत से अपने लोगों को जबर्दस्ती बसा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ दर्जन भर बार इजराइली फौजी कार्रवाईयों के खिलाफ प्रस्ताव देख चुका है लेकिन इजराइली गुंडागर्दी के पक्के साथी अमरीका सरीखे देश के वीटो के चलते संयुक्त राष्ट्र कभी भी फिलीस्तीनियों को कोई इंसाफ नहीं दे पाया। बल्कि अमरीका के अंतरराष्ट्रीय दबदबे के चलते फिलीस्तीन-इजराइल के आसपास के दूसरे देश भी कमजोर फिलीस्तीनियों की मदद नहीं कर पाते, और इजराइल उन्हें बंदूक की नोंक पर बेदखल करते हुए अपने लोगों को वहां बसाते चल रहा है। इस बरस अब तक दो सौ से ज्यादा फिलीस्तीनियों को इजराइल मार चुका है, और यहां यह गिनाना भी जरूरी है कि जवाबी हमलों में 30 इजराइली भी मारे गए हैं। दुनिया को समझने के लिए यह जरूरी है कि यह लड़ाई दिए और तूफान की है, अमरीकी गिरोहबंदी के साथ इजराइल की ताकत दुनिया के एक सबसे बड़े हमलावर की है, और कल फिलीस्तीनी जमीन से वहां पर काबिज एक आतंकी संगठन हमास ने इजराइल पर जो हमला किया है, वह एक किस्म से आत्मघाती है क्योंकि इसके जवाब में कुछ घंटों के भीतर इजराइल ने जिस तरह से हवाई हमले किए हैं, उससे बचाव का कोई जरिया गाजापट्टी के बेकसूर लोगों के पास नहीं है, और वहां फिलीस्तीनी सरकार का नहीं, हमास नाम के आतंकी संगठन का राज है।
कल का हमला किसी ताजा घटना को लेकर नहीं था, दशकों से फिलीस्तीनियों पर जो इजराइली जुल्म किया जा रहा है, और जिससे उन्हें बचाने के लिए पूरी दुनिया में किसी के पास न कोई ताकत है, न कोई दिलचस्पी है। इस तरह लगातार पीढ़ी-दर-पीढ़ी बेमौत मरते हुए फिलीस्तीनियों को अब यह समझ आ चुका है कि वे सिर पर कफन बांधे बिना, और मौत की परवाह किए बिना अगर कोई हमला कर सकते हैं, तो इजराइल का नुकसान करने का वही एक जरिया है। फिलीस्तीन के अमन-पसंद लोगों से लेकर वहां के हमास सरीखे आतंकी संगठनों तक सबने यह मान लिया है कि दुनिया की कोई ताकत उन्हें इंसाफ नहीं दिला सकती क्योंकि अमरीका नाम का दुनिया का सबसे बड़ा गुंडा इजराइल के पीठ पर हाथ रखे खड़े रहता है। इसलिए अब निराश और हताश, हर किस्म के फिलीस्तीनी उम्मीदें छोड़ चुके हैं, और उनमें से अधिकतर लोग इजराइली फौजी ज्यादतियां झेलते रहते हैं, जिनकी रोज की जिंदगी भी इजराइली बंदूकों की नोंक पर है, जो अपने ही घर में बेघर कर दिए गए हैं। ऐसे में उनमें से एक तबका अगर आतंकी हमले को इंसाफ पाने का अकेला जरिया मान बैठा है, तो कल का हमला उन्हीं का किया हुआ, और उसी निराशा से उपजा हुआ हमला है। हमास ने इस हमले के साथ यह कहा कि अब बहुत हो चुका है, और अब और बर्दाश्त करने का कोई मतलब नहीं है। यहां पर यह लिखना भी प्रासंगिक होगा कि हमास ने इस हमले के बाद कहा है कि उसे ईरान का समर्थन हासिल है। और ईरान में जिस तरह जश्न मनाया जा रहा है, उससे लग रहा है कि ईरान खुलकर फिलीस्तीन और हमास का साथ दे रहा है। ईरान ने कहा है कि यह उत्पीडऩ झेल रहे फिलीस्तीनियों की मुहिम है जो उन्होंने अपने हक के लिए छेड़ी है। और ईरान ने इसे आत्मरक्षा बताते हुए मुस्लिम देशों से अपील की है कि वो फिलीस्तीनियों के हक का साथ दें। इस हमले के बाद फिलीस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास, जो कि हमास के खिलाफ हैं, उन्होंने कहा है कि फिलीस्तीनियों को यह हक है कि वे उनकी जमीन पर कब्जा करने वालों के खिलाफ अपना बचाव करें। हमास ने भी यही कहा है कि इस हमले का मकसद इजराइली कब्जे को रोकना है। हमास ने कहा कि वे लोग हमारे इलाकों पर रोज अपनी बस्तियां बना रहे हैं, हमारी जमीनें ले रहे हैं, हमारे लोगों को मार रहे हैं, लेकिन मिश्र, कतर, या संयुक्त राष्ट्र संघ की मध्यस्थता फिलीस्तीनियों के किसी काम नहीं आ रही है, और इजराइल को संदेश देने के लिए हमास ने यह हमला किया है। इजराइल जो कि पूरी दुनिया में जासूसी, खुफिया तकनीक, और हथियारों के लिए एक सबसे ताकतवर देश माना जाता है, जिसे आतंकविरोधी खुफिया कार्रवाई के लिए बदनाम देश समझा जाता है, उसे कल फिलीस्तीनी जमीन से हमास के लड़ाकों ने जिस तरह हाथ से बनाए रॉकेट चलाकर हवाई हमले से घेरा, और इजराइली चौकसी और सरहद को पार करते हुए जिस तरह समंदर और जमीन के रास्ते हमास के लड़ाके इजराइल में घुसे, वहां लोगों को मारा, हमले किए, और शायद दर्जनों लोगों का अपहरण करके लौटे हैं, वह इजराइल के लिए एक शर्मनाक कामयाबी भी है कि उसकी सारी विख्यात ताकत धरी रह गई। लेकिन जैसी कि उससे उम्मीद की जाती थी, अपने सैकड़ों लोगों को खोने के बाद उसने गाजापट्टी पर बड़े पैमाने पर हवाई हमले किए, और हमास को खत्म करने के नाम पर रिहायशी इलाकों को निशाना बनाया, और अभी तक के आंकड़े बतलाते हैं कि दोनों तरफ सैकड़ों लोग मारे गए हैं। इजराइल ने इसे अपने देश पर एक जंग करार दिया है, और उसका उसी तरह जवाब देने की बात कही है। दूसरी तरफ अमरीका और हिन्दुस्तान ने खुलकर इजराइल का साथ दिया है, और इसका एक मतलब यह भी है कि हमास के खिलाफ कार्रवाई के नाम पर इजराइल अगर आज फिलीस्तीनी रिहायशी बस्तियों पर बम गिरा रहा है, तो इजराइल के हिमायती तमाम देश बेकसूर नागरिकों की ऐसी मौतों को जायज मानकर उसकी अनदेखी करने वाले हैं।
दुनिया का यह छोटा सा हिस्सा बड़ी-बड़ी ताकतों की फौजी रणनीतियों का खिलौना भी बना हुआ है, और दुनिया के दो कट्टर धर्मों के लोगों के धार्मिक टकराव का मैदान भी। फिलीस्तीन पर महात्मा गांधी भी अपने वक्त काफी कुछ लिख गए थे, और उन्होंने बार-बार फिलीस्तीनियों के हक की वकालत की थी। हिन्दुस्तान में उदारीकरण के पहले तक सरकारें फिलीस्तीनियों के हक के साथ रहती थीं, और मनमोहन सिंह की सरकार के वक्त से भारत और इजराइल के कारोबारी रिश्तों ने भारत की विदेश नीति तय की थी। और मोदी सरकार के आने के बाद तो जाहिर है कि यह सरकार पूरी तरह इजराइल के साथ है।
आज जब इन दोनों देशों में संघर्ष चल ही रहा है, हजारों जख्मियों का इलाज या तो चल रहा है, या इलाज उन्हें नसीब नहीं है, ऐसे में दुनिया को एक बार यह भी सोचना है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के बार-बार के फैसले भी अगर फिलीस्तीनियों को हक नहीं दिला पा रहे हैं, और इजराइलियों की गुंडागर्दी को नहीं रोक पा रहे हैं, तो फिर क्या दुनिया का यह हिस्सा इजराइल के खिलाफ मुस्लिम देशों की कोई अभूतपूर्व एकजुटता देखेगा, या ईरान और इजराइल को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर देगा? जो भी हो आज संयुक्त राष्ट्र चिकित्सा विज्ञान में पेनेसिलिन की तरह बेअसर हो चुका है, और यह दुनिया के लिए एक खतरनाक नौबत है। लाठी के दम पर ही जर, जोरू, जमीन, को कब्जाने की वह पुरानी व्यवस्था अगर 21वीं सदी में जारी रहना है, तो फिर देशों को लोकतांत्रिक होने की खुशफहमी नहीं पालनी चाहिए। देशों को यह भी समझना चाहिए कि किसी एक देश, बिरादरी, या तबके को लगातार जुल्म का शिकार बनाने पर वह एक दिन दुनिया के सबसे अधिक लैस फौजी गुंडे पर भी हमला कर सकता है, और उसकी सारी ताकत को नाकामयाब साबित कर सकता है। इस बात से दुनिया के बाकी देशों और तबकों को भी सबक लेना चाहिए।
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दक्षिण अमरीकी देश उरुग्वे का दिल को छू लेने वाला एक समाचार है जहां मारिया नाम की 29 बरस की एक शिक्षिका अपने स्कूली बच्चों को पढ़ाने के लिए हर दिन दो सौ किलोमीटर से ज्यादा का सफर करती है। और यह सफर कार से करना आसान नहीं है क्योंकि वह बहुत महंगा पड़ेगा, दुपहिया से आना-जाना आसान नहीं है क्योंकि वह खतरनाक होगा, गांवों के इलाकों में सडक़ें बहुत खराब हैं। वह आती-जाती गाडिय़ों से लिफ्ट लेकर आती-जाती है। अपने घर से 108 किलोमीटर दूर इस स्कूल आने-जाने के लिए उसे कई गाडिय़ां बदलनी पड़ती हैं, सडक़ किनारे रूककर अगली गाड़ी का रास्ता देखना पड़ता है, उनसे अपील करनी पड़ती है, और कुछ लोग मददगार निकलते हैं तो वह स्कूल पहुंच पाती है। उसके पास कार है भी नहीं, और होती तो भी वह उसके ईंधन का खर्च नहीं उठा पातीं। स्कूल पहुंचने पर उसे कुल दो बच्चे पढ़ाने होते हैं क्योंकि वहां वे ही दो बच्चे हैं। चार बरस की जूलियाना, और 9 बरस का बेंजामिन। ये दोनों बच्चे ग्रामीण मजदूरों के बच्चे हैं, और अगर मारिया उन्हें पढ़ाने नहीं पहुंचेगी तो उनकी पढ़ाई का और कोई जरिया नहीं होगा। हर दिन टुकड़े-टुकड़े में उसका सफर जाते हुए दो घंटे, और आते हुए दो घंटे का होता है, और बाकी वक्त स्कूल में पढ़ाना।
इसे देखकर कुछ दिन पहले छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक शिक्षिका की सोशल मीडिया पर आई तस्वीर याद पड़ती है। बस्तर के पत्रकार तामेश्वर सिन्हा ने लक्ष्मी नेताम नाम की एक सहायक शिक्षक की फोटो ट्विटर पर पोस्ट की थी जो पिछले 15 बरस से एक खतरनाक नदी को पार करके, कमर से ऊपर तक भीगकर अपनी प्राइमरी स्कूल पहुंचती हैं, और बच्चों को पढ़ाती हैं।
ऐसे कुछ और लोग भी अलग-अलग विभागों में होंगे, अलग-अलग देशों या प्रदेशों में होंगे, जो कि अपने काम को ही किसी धार्मिक रस्म रिवाज, या मान्यता की तरह पूरा करते होंगे, लगातार समर्पित रहते होंगे। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान जैसे देश में सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों का एक बहुत बड़ा हिस्सा कामचोरी और भ्रष्टाचार के लिए जाना जाता है, और थोड़ा-बहुत जो काम होता भी है, वह उसी घटिया क्वालिटी का होता है जिस घटिया क्वालिटी का सामान सरकारें खरीदती हैं। हमारे आसपास हर दिन ऐसी अनगिनत खबरें छपती हैं, जिनमें करोड़ों रूपए लगाकर सरकारों और म्युनिसिपलों ने गैरजरूरी काम करवाए, फिजूल के सामान खरीदे, और बिना एक दिन भी इस्तेमाल हुए वे पड़े-पड़े खराब हो गए, खत्म हो गए। सरकारों में मानो किसी की कोई जवाबदेही ही नहीं रह गई है, और कितनी बातों को लेकर कोई अदालत जा सकते हैं? और अदालतें सरकार तो चला नहीं सकतीं, इनको चलाने का जिम्मा और उसका हक तो निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को ही है जो कि सरकारी अफसर-कर्मचारी के साथ मिलकर गब्बर का गिरोह चलाए जैसे काम कर रहे हैं।
ऐसे में लगता है कि उरुग्वे की वह टीचर, या बस्तर की यह शिक्षिका, इनकी मेहनत करने, अपनी जिंदगी को जिम्मेदारी के लिए समर्पित कर देने की प्रेरणा आती कहां से है? जब चारों तरफ भ्रष्टाचार और नालायकी का अंधेरा छाया हुआ हो, तब कोई इंसान इतनी समर्पित भावना से काम कैसे करते रह सकते हैं? यह बात हैरान भी करती है, और परेशान भी करती है।
आज ही सुबह की एक दूसरी खबर है कि झारखंड में स्कूली बच्चों के मां-बाप स्कूल में शिक्षकों की मांग को लेकर जगह-जगह प्रदर्शन कर रहे हैं। खुद सरकार के आंकड़े बताते हैं कि एक तिहाई सरकारी स्कूलें ऐसी हैं जहां पर कुल एक शिक्षक है। मां-बाप का कहना है कि पांचवीं में पढऩे वाले बच्चे भी लिख-पढ़ नहीं पाते हैं, ऐसे में वे ऐसी स्कूलों से पढक़र निकलने के बाद भी मजदूरी करने के अलावा किसी काम के नहीं रहेंगे। अब इसे क्या कहा जाए? यह तो खुद झारखंड के ही आदिवासी नेताओं की चलाई जा रही सरकार है जिन पर सैकड़ों करोड़ के भ्रष्टाचार के मामले भी चल रहे हैं। जाहिर है कि अगर इतने बड़े भ्रष्टाचार किए गए हैं, तो उन्हें करने में भी सरकार चला रहे लोगों का वक्त लगा होगा, और फिर काली कमाई को बचाने और ठिकाने लगाने में भी मेहनत करनी पड़ती होगी। ऐसे में सरकारी काम करने के लिए अगर वक्त और ताकत नहीं बच रहे हैं, तो इसमें भी हैरानी की कोई बात नहीं है।
छोटे-छोटे शिक्षकों, किसी गांव-देहात में काम कर रहे समर्पित सरकारी डॉक्टर, और ऐसे ही इक्का-दुक्का दूसरे लोगों को देखकर लगता है कि दुनिया इन्हीं, और ऐसे ही लोगों के कंधों पर चल रही है, बाकी बड़े-बड़े लोगों के कंधे अपनी काली कमाई के बोरों को लादे हुए चल रहे हैं, और वे जनता का बोझ ढोने के लिए खाली नहीं हैं। भारत के किसी भी औसत प्रदेश में अधिकतर जगहों पर सरकार और म्युनिसिपल, पंचायत और दूसरे दफ्तरों का हाल इतना खराब है कि कहीं भी लोग ईमानदारी की उम्मीद भी नहीं करते हैं। सबको मालूम है कि कितने सरकारी बजट में कितना हिस्सा लूटपाट में जाएगा। पटवारी से लेकर कलेक्टर तक के दफ्तर पहुंचने वाले लोगों को यह मालूम रहता है कि किस काम के लिए उन्हें कितनी रिश्वत का इंतजाम करके जाना है।
ऐसे में अपना दिल बहलाने के लिए हम उरुग्वे और बस्तर की इन शिक्षिकाओं की कहानियों को दूसरे ग्रह से आए हुए लोगों की कहानियों की तरह पढ़ते हैं, सुनते हैं, और सुनाते हैं। इनका कम से कम हिन्दुस्तान जैसे देश के सरकारी इंतजाम से कोसों दूर का भी कोई रिश्ता नहीं है। और लोग जिस उत्सुकता और दिलचस्पी से दूसरे ग्रह के प्राणियों और उडऩ तश्तरियों के बारे में पढ़ते हैं, उसी दिलचस्पी से गांधी सरीखे ईमानदार इन छोटे-छोटे कर्मचारियों के बारे में पढऩा चाहिए, और उन्हें प्रणाम करना चाहिए।
सनातन धर्म पर टिप्पणी को लेकर विवादों में घिरे तमिलनाडु से एक अच्छी खबर है जिससे पूरा हिन्दुस्तान कुछ सीख सकता है। वहां पर सरकार ने तय किया है कि अंगदान करने वालों को अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ होगा। वहां के मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन ने कहा कि तमिलनाडु को अंग प्रत्यारोपण के लिए सर्वश्रेष्ठ राज्य का सम्मान मिला है। उन्होंने आंकड़े भी गिनाए कि किस तरह हजारों लोगों को अंगदान और अंग प्रत्यारोपण से बचाया गया है। तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई दक्षिण भारत में इस तरह के ऑपरेशनों के लिए एक बड़ा केन्द्र है। दूसरी तरफ एक तकलीफदेह बात यह भी है कि इसी चेन्नई का यह इतिहास रहा है कि वहां पर किडनी बेचने वाले लोगों की एक पूरी बस्ती रही है जिसके हर घर में किडनी बेचने वाले बदन पर चीरा लगे हुए लोग रहते थे। अब कानून कुछ कड़ा हो गया है, और शरीर के अंग खरीदना-बेचना, उन्हें लगाना उतना आसान नहीं रह गया है, और इस कारोबार में लगे हुए बहुत से डॉक्टरों और दलालों को अलग-अलग वक्त पर गिरफ्तार भी किया गया है।
लेकिन तमिलनाडु सरकार के इस फैसले को हम इस मायने में महत्वपूर्ण मान रहे हैं कि वह समाज के लोगों को बढ़ावा देने के लिए सरकार की ताकत का एक बहुत ही इज्जतदार इस्तेमाल कर रही है। इससे एक तो धर्म और जाति से परे लोगों के अंग लेने-देने से समाज में एकता आएगी, बहुत सी जिंदगियां बचेंगी, और राज्य के कारोबारी हित में यह भी है कि अस्पतालों को ऐसा कारोबार मिलेगा। इसमें से कोई भी बात अनदेखी करने लायक नहीं है। अगर देश के धर्म और आध्यात्म से जुड़े हुए चर्चित लोग आम जनता के बीच यह अपील करेंगे कि वे चिकित्सा-विज्ञान के लिए अपनी जिंदगी खत्म होने के वक्त अंगदान करें तो उसका कुछ असर हो सकता है। उनसे परे कुछ फिल्मी सितारे, कुछ क्रिकेट सितारे भी ऐसा कर सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरीखे नेता भी ऐसी अपील कर सकते हैं जिनके भक्त पांच सौ रूपए लीटर में भी पेट्रोल खरीदने के लिए तैयार खड़े हैं। वे अगर दिल से ऐसी अपील करेंगे, तो हो सकता है कि देश में मानव अंगों की जरूरत वाले मरीजों का काम एक दिन में ही पूरा हो जाए, देश में उनको मानने और चाहने वाले दसियों करोड़ लोग होने का दावा लोग करते हैं। और यह बात सिर्फ मोदी पर लागू नहीं होती है, दूसरी पार्टियों के लोग भी अपने-अपने समर्थकों, और अपने-अपने प्रभावक्षेत्र में ऐसा काम कर सकते हैं।
आज जब लोग जिंदा रहने के लिए पूरी तरह से चिकित्सा-विज्ञान पर निर्भर करते हैं, जब आधुनिक चिकित्सा-विज्ञान गालियां बकने वाला रामदेव भी खुद की जान बचाने के लिए आधुनिक चिकित्सा के पास ही जाता है, तब यह बात समझने की जरूरत है कि मरीजों का ब्रेन-डेड हो जाने के बाद भी उनके अंगदान न करके, अंतिम संस्कार के लिए इंतजार करके, और फिर जलाकर या दफन करके किसी का भला नहीं किया जाता। चिकित्सा-विज्ञान इस बात को बिना शक के साफ कर देता है कि कब किसी मरीज के दुबारा पूरी तरह जिंदा होने की गुंजाइश खत्म हो चुकी है, और कब उसके अंग दूसरों को लगा दिए जाने चाहिए। अभी-अभी छत्तीसगढ़ के रायपुर के एम्स की एक नर्स ने गुजरते हुए अपने अंगदान कर दिए थे जो कि आधा दर्जन अलग-अलग मरीजों को लगे। दुनिया में बहुत सी जगहों पर लोग अपने दिल के टुकड़े, अपने बच्चों के गुजर जाने के तकलीफदेह मौकों पर उनके अंग दान कर देते हैं, और उनके बच्चे आधा दर्जन तक मरीजों में 25-50 बरस, जाने कब तक जिंदा रहते हैं। आप जिन्हें सबसे ज्यादा चाहते हैं, उनके न रहने पर भी उनके इस तरह से रहने का करिश्मा चिकित्सा-विज्ञान करता है, जो कि ईश्वर भी नहीं करता। इसलिए लोगों को इस बारे में सोचना चाहिए। और तमिलनाडु सरकार की इस बात को अहमियत इसलिए देनी चाहिए कि वह सरकार को मिले हुए अधिकार का इस तरह सामाजिक उपयोग कर रही है।
आज देश में शायद कुछ ऐसे प्रदेश भी हैं जिन्होंने अंग प्रत्यारोपण के लिए नियम-कायदे बनाने का काम भी पूरा नहीं किया है। नतीजा यह है ऐसे प्रदेशों में अंग प्रत्यारोपण हो नहीं सकता। वहां परिवार के लोग भी घर के मरीजों को दान नहीं दे सकते, या उसकी कानूनी जरूरत पूरी करना आसान नहीं रह गया है। ऐसे देश और ऐसे प्रदेशों को पड़ोस के श्रीलंका से सबक लेना चाहिए जहां पर बौद्ध धर्म की नसीहतों के चलते लोगों में मृत शरीर के लिए मोह कम रह गया है, लोग खूब अंगदान करते हैं, और नतीजा यह है कि लोग श्रीलंका के समुद्र तटों को घूमने के नाम पर वहां जाते हैं, और किडनी बदलवाकर आते हैं। एक वक्त की खबर हमें याद है कि श्रीलंका में इतने नेत्रदान होते थे कि वहां से देश के बाहर कई देशों के मरीजों की जरूरत भी पूरी होती थी। वहां 1958 में एक चिकित्सा छात्र देशबंधु डॉ. हडसन सिल्वा ने नेत्रदान (कॉर्निया दान) का अभियान छेड़ा था, और पत्नी के साथ मिलकर उन्होंने 1964 तक दुनिया के दूसरे देशों को कॉर्निया भेजना शुरू कर दिया था। अब तक वे 57 देशों में 60 हजार कॉर्निया भेज चुके हैं, और 9 लाख से अधिक लोगों ने उनकी संस्था के माध्यम से मृत्यु के बाद नेत्रदान का घोषणा पत्र भरा है। हर बरस उनकी संस्था तीन हजार के करीब नेत्रदान पाती है, जिसमें से दो हजार से अधिक विदेशों को भेज दिए जाते हैं। वहां से सबसे अधिक नेत्र पाने वाला देश पाकिस्तान है क्योंकि इस्लाम की मान्यताओं के मुताबिक बदन को पूरा का पूरा दफनाया जाना चाहिए। ऐसी धार्मिक मान्यता के चलते भी इस धर्म को मानने वाले लोग अंगदान नहीं करते हैं। श्रीलंका में बौद्ध मान्यताओं के चलते शरीर का कोई महत्व नहीं रहता, और वहां पर आंखों की जरूरत वाले किसी भी मरीज की कोई कतार नहीं रह गई है। श्रीलंका का आई बैंक, और मानव-टीश्यू बैंक दुनिया का ऐसा सबसे बड़ा बैंक है। बौद्ध धर्म की दान की सोच इसकी कामयाबी में मदद करती है, और देश के कई जाने-माने लोगों ने, जैसे वहां के गुजरे हुए राष्ट्रपति जे.आर.जयवर्धने ने अपनी आंखें मरने पर दान की थी, जो कि दो जापानी लोगों को लगाई गई थीं।
हिन्दुस्तान में रक्तदान, नेत्रदान, और अंगदान को बढ़ावा देने की जरूरत है, और केन्द्र और राज्य सरकारें इसे सामाजिक आंदोलन के रूप में अगर बढ़ाएं, तो दुनिया के इस सबसे अधिक आबादी वाले देश में लोगों को जरूरत पडऩे पर हर अंग मिल सकता है, और इससे भारत में एक अंतरराष्ट्रीय चिकित्सा-कारोबार भी बढ़ सकता है। जब लोग अंगदान करेंगे, तो देश की जरूरतें पूरी होने के बाद उन्हें विदेशियों को भी लगाया जा सकेगा, और उससे भी भारतीय चिकित्सा-विज्ञान को तजुर्बा भी मिलेगा, और कारोबार भी। वरना एक इंसान के गुजरने के बाद उसके शरीर को या तो जलाने में लकडिय़ां बर्बाद होती हैं, या दफन करने पर जमीन घिरती है। दोनों ही बातें पर्यावरण के लिए खतरनाक हैं, और देहदान या अंगदान से धरती पर यह बोझ भी घट सकता है। इस बारे में सामाजिक स्तर पर अधिक मेहनत की जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अभी चूंकि तमिलनाडु से सनातन धर्म को लेकर एक नया विवाद उठ खड़ा हुआ है, इसलिए सनातन धर्म को लेकर बहुत सी अलग-अलग बातें उठ रही हैं। आज 17 सितंबर को ही तमिलनाडु के एक सबसे बड़े समाज सुधारक रामास्वामी पेरियार का जन्मदिन पड़ता है, और इस मौके पर लिखने वालों ने उन्हें जाति व्यवस्था के खिलाफ देश का एक सबसे बड़ा क्रांतिकारी करार दिया है। हालांकि पेरियार की कुछ बातें लोकतंत्र के साथ मेल नहीं भी खाती हैं, और दलितों के लिए एक अलग राष्ट्र की उनकी मांग को अतिवादी भी लिखा गया है, लेकिन जाति, धर्म, और नस्ल के भेदभाव और उनके आधार पर शोषण को उन्होंने करीब से देखा था, भुगता था, और इसीलिए वे सामाजिक संघर्ष की उस ऊंचाई तक ले जा पाए थे। उन्होंने हिन्दू धर्म के पाखंड के खिलाफ इसे छोड़ा, और एक नास्तिक की तरह धर्म, जाति, लिंग, प्रजाति और भाषा इन सबके भेदभाव के खिलाफ एक लड़ाई छेड़ी, जो कि उनके जाने के दशकों बाद भी आज भी जारी है। तमिलनाडु में दलितों और महिलाओं की हालत सुधारने में उनसे बड़ा योगदान किसी का नहीं रहा।
उनकी सोच पर चलने वाली आज की डीएमके सरकार के लोगों ने जिस तरह सनातन धर्म को बीमारी के बराबर बताते हुए उसके उन्मूलन की बात कही है, उस धर्म को उसकी हिंसक बुराइयों के साथ समझने की जरूरत है। जब इस पर बहस हम देखते हैं, तो एक धार्मिक कट्टरता के साथ सनातन पर टिके रहने की जिद वाले बहुत से सवर्ण हिन्दू दिखते हैं, लेकिन इनमें दलित-आदिवासी हिन्दू बिल्कुल भी नहीं दिखते। जाहिर है कि हिन्दुओं के बीच सनातनी व्यवस्था से निकली हुई जो मनुवादी जाति व्यवस्था है, वह हिन्दू समाज को एक तबके की तरह नहीं रखती है, और यह जाति व्यवस्था एक वजह है कि हिन्दू कहे जाने वाले अलग-अलग जातियों के तबके सनातन शब्द और मनुवादी व्यवस्था को एक नजरिए से नहीं देख सकते। जूते का तल्ला, और उसके तले कुचले जाने वाला नंगा पैर, इन दोनों का नजरिया जूते के बारे में एक सरीखा नहीं हो सकता है। इसलिए जूते के ऊपर के बदन पर सिर चढ़ा जातीय अहंकार एक अलग सोच रखता है, और जूते के तल्ले के नीचे रखे जाने वाले दलित एक अलग सोच रखते हैं।
ऐसे में कुछ लोगों ने याद दिलाया है कि इसी बरस बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ने एक नया शोध कार्य शुरू किया है जिसका नाम है- आधुनिक भारतीय समाज में मनुस्मृति को लागू करने की प्रासंगिकता/प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी)। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के धर्मशास्त्र-मीमांसा विभाग ने इसी साल फरवरी में एक इश्तहार जारी करके ऐसी रिसर्च के लिए लोगों से अर्जियां बुलवाई थीं। और इसे लेकर लोगों के मन में हैरानी भी हुई थी कि डॉ.बी.आर. अंबेडकर द्वारा मनुस्मृति जलाने के करीब सौ बरस बाद अब उसे लागू करने की संभावनाओं पर शोध करवाया जा रहा है! लोगों को याद होगा कि हिन्दुस्तान के सनातनी लोगों के बीच हिन्दू धर्म के भीतर सवर्णों की पसंद की जो मनुवादी जाति व्यवस्था है, उसके तहत शूद्रों को पूरी जिंदगी सवर्णों की सेवा करनी है, अनपढ़ रहना है। इसके साथ-साथ यह मनुस्मृति महिलाओं के खिलाफ भयानक हिंसा की वकालत करती है।
हिन्दुस्तान आज एक लोकतंत्र हो चुका है, उसके चाहे जिस किसी धार्मिक या सामाजिक ग्रंथ में अलोकतांत्रिक बातें लिखी गई हैं, उन्हें अब इतिहास का एक दस्तावेज मानकर लाइब्रेरी में रख देना चाहिए ताकि इस देश, धर्म, और समाज की हिंसा के इतिहास को आने वाली पीढिय़ां भी जान सकें, और ऐसी हिंसा के मुआवजे के रूप में लागू की गई आरक्षण की व्यवस्था को भी समझ सकें। लेकिन इतिहास के पन्ने से परे ऐसी हिंसा का कोई भविष्य न आज है, और न ही आने वाले कल में हैं। और तो और, अब तो आरएसएस के मौजूदा मुखिया मोहन भागवत ने भी खुलकर यह कहा है कि दो हजार बरस जिनके साथ बेइंसाफी हुई है, उन्हें अगर दो सौ बरस आरक्षण मिल जाए, तो उसमें बुराई क्या है, लोगों को उन्हें ऐसा हक देने में आपत्ति क्यों होनी चाहिए?
अब जिन लोगों को सनातन शब्द की हिफाजत करना जरूरी लग रहा है, उन्हें सनातन या हिन्दू शब्द के साथ जुड़ी हुई बाकी व्यवस्थाओं की संवैधानिकता को भी देखना चाहिए कि आज उनमें से क्या-क्या कानूनी है। लोगों को यह भी याद रखना चाहिए कि किस तरह मुस्लिम समाज की चली आ रही धार्मिक व्यवस्थाओं को देश की मौजूदा मोदी सरकार ने बदला है, और उसे मंजूर भी कर लिया गया है। संवैधानिक लोकतंत्र एक बड़ी साफ-साफ व्यवस्था है जिसमें कानून से टकराव होने पर जातीय या धार्मिक व्यवस्था को किनारे होना पड़ेगा। कल तक शूद्रों के साथ जो बर्ताव किया जाता था, आज वह जारी भले हो, लेकिन अगर वह अदालत में साबित किया जा सकता है, तो फिर शूद्रों पर हिंसा करने वालों को कड़ी सजा मिलना ही मिलना है। इसलिए देश में संविधान लागू होने के बाद सनातन हो, हिन्दू हो, मुस्लिम हो, या कोई और धार्मिक व्यवस्था, सामाजिक रिवाज, इनको कानून के मुताबिक ही चलना होगा। आज किसी महिला के तथाकथित चाहने पर भी उसे सती नहीं बनाया जा सकता, वरना वहां मौजूद तमाम भीड़ के लिए जेल की कैद तय है। लोग अपने पुराने रीति-रिवाज का हवाला देकर बच्चों के बाल विवाह नहीं करवा सकते, वरना उसमें गिरफ्तारी तय है।
ऐसे में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय या बीएचयू का यह शोधकार्य भयानक है, और यह मानो उसी किस्म का है कि कोई विश्वविद्यालय शोध करवाए कि भारतीय समाज में सतीप्रथा की क्या संभावनाएं हैं। मनुस्मृति एक इतिहास के पन्ने से परे अगर आज लागू करने की बात होती है, तो वह एक जुर्म रहेगी। इसे एक विश्वविद्यालय इस तरह बढ़ावा दे, यह उस विश्वविद्यालय के लिए शर्मिंदगी की बात है, और इस कलंक के कागज पर संबंधित विभाग के मुखिया प्रो.शंकर कुमार मिश्रा के दस्तखत हैं। अगर इस विश्वविद्यालय में सामाजिक न्याय की सोच होती, तो वहां से इस तरह के शोध के लिए अर्जियां न बुलवाई गई होतीं।
अब जो लोग आजादी की पौन सदी पूरी होने पर भारी जोर-शोर से इसे हिन्दू धर्म से निकले एक शब्द, अमृत नाम से आजादी का अमृत महोत्सव करार दे रहे हैं, वे लोग मनुस्मृति को एक बार फिर महिमामंडित करके उस आजादी को खत्म करने का काम भी कर रहे हैं। शूद्रों को गुलामी की जंजीरों से बांधे हुए रखने की जो वकालत मनुस्मृति करती है, उसके महिमामंडन के साथ किसी आजादी का अमृत महोत्सव नहीं मनाया जा सकता। अगर इन दोनों को साथ-साथ चलना है तो यह भारत की आजादी के खिलाफ मनुवादी सवर्णों की हिंसक आजादी की जीत होगी। सिर्फ नारों से लोकतंत्र और संविधान को स्थापित नहीं किया जा सकता। इतिहास के अन्याय को मानने, और उसे खारिज किए बिना किसी संवैधानिक व्यवस्था की बात नहीं हो सकती। इसलिए तमिलनाडु में अभी उठ खड़े हुए एक विवाद को इस बरस की शुरूआत में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के इस शोधकार्य से जोडक़र देखने की जरूरत है और चूंकि देश भर में सनातन धर्म या हिन्दू धर्म पर एक हमला साबित करने की कोशिश हो रही है, इसलिए इन विवादों के हर पहलुओं पर खुलकर सामाजिक चर्चा होनी चाहिए। इसी चर्चा से लोगों के छुपे हुए दांत और छुपे हुए नाखून सामने आ पाएंगे, और उनकी शिनाख्त हो सकेगी।
मजहबी आतंक और गृहयुद्ध से गुजरते हुए एक अरब देश यमन फौजी-आतंकी जंग में मलबा भी बना हुआ है, और पहले से गरीब चले आ रहा यह देश अब कुपोषण और भुखमरी के चलते दम तोड़ रहा है। यहां के लोग जिंदा रहने को तरस रहे हैं, और पिछले कई बरसों में कुपोषण के शिकार बच्चों की दुनिया की सबसे भयानक तस्वीरें यमन से ही आई हैं। सरकार और आतंकियों के बीच बुरा टकराव चल रहा है, और इंसानों तक अंतरराष्ट्रीय राहत भी नहीं पहुंच पा रही है। यमन दुनिया के एक सबसे कम विकसित देशों में से है, और संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक यहां की तीन चौथाई आबादी को तुरंत ही मानवीय मदद की जरूरत है। इसे दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा भूखा देश करार दिया गया है, और ऐसे देश से कोई खुश करने वाली खबर आ सकती है, यह सोचना भी थोड़ा मुश्किल है।
बीबीसी हर हफ्ते एक हैप्पी पॉड ब्रॉडकास्ट करता है जिसमें दुनिया भर की अच्छी खबरें रहती हैं। आज सुबह ऐसी ही एक अच्छी खबर यमन से निकलकर आई थी जहां पर एक स्कूली छात्र ने अपनी स्कूल की शक्ल बदलने का काम किया है। अहमद नाम के 11 बरस के इस बच्चे पर बीबीसी ने दो बरस पहले भी एक रिपोर्ट की थी, और अब फिर वह रिपोर्टर सरकारी इजाजतों को जुटाते-जुटाते किसी तरह इस बच्चे तक पहुंची जो कि टीचर के न रहने पर अपनी क्लास को पढ़ाता भी है। उसे हर चीज में खूब दिलचस्पी है, वह खूब होशियार है, वह हर चीज याद रखता है, और एक छोटी सी दिक्कत भी है कि वह पूरी तरह से अंधा है। उसका स्कूल फौजी लड़ाई से मलबा बना हुआ दिखता है, और वैसे मलबे के बीच ही इस गरीब देश के बच्चे पढ़ रहे हैं, और अहमद उन्हें पढ़ा रहा है।
बीबीसी ने पहली बार जब उस पर रिपोर्ट तैयार की, वह 9 बरस का था, और आज 11 बरस का होने के बाद भी वह उसी उत्साह से हर काम में जुटा हुआ है, उसकी बड़ी हसरतें भी हैं, वह खुद टीचर, ड्राइवर, डॉक्टर, इंजीनियर, और पायलट भी बनना चाहता है, और बड़ा होकर एक खूबसूरत लडक़ी से शादी भी करना चाहता है। लेकिन इन सबसे ऊपर वह अपने स्कूल में ब्लैकबोर्ड चाहता है, दीवारें और खिड़कियां चाहता है। पिछली रिपोर्ट देखने के बाद दुनिया के लोगों ने इस स्कूल की मदद करने के लिए हाथ बढ़ाया, और अब दो बरस बाद दान से स्कूल में एक नया बिल्डिंग-ब्लॉक बन गया है जिसमें अहमद के साथ घूमते हुए बीबीसी रिपोर्टर ने उसकी बाकी हसरतें सुनीं। उससे पूछा गया कि क्या वह अपनी तमाम हसरतें पूरी करने की उम्मीद रखता है, तो उसने हॅंसते हुए कहा- बिल्कुल, मैं इनमें से सब कुछ करूंगा, और मैं शहर की एक खूबसूरत लडक़ी से शादी करूंगा, और वह मेरे लिए बिस्किट बनाएगी। उसका कहना है कि गांव की लड़कियां अच्छे बिस्किट बनाना नहीं जानती हैं।
जब अहमद से पूछा गया कि उसने आखिरी बार कब लड़ाई के धमाके सुने थे तो वह हॅंसते हुए कहता है बीती रात-बीती रात। जन्म से अंधे अहमद का घर हथियारबंद टकराव के मोर्चे के एकदम करीब है। उसका कहना है कि गोलियों की आवाज से उन सबको डर लगता है। जब लड़ाई शुरू होती है तो अहमद को तो कुछ दिखता भी नहीं रहता है।
बहुत से लोगों को अपनी मौजूदा जिंदगी दुनिया में बड़ी खराब लगती है। लेकिन जब अशांत देशों की विपरीत परिस्थितियों में कुदरत की ऐसी मार का शिकार ऐसा बच्चा पूरे उत्साह से अपने आसपास के सब कुछ को सुधारने में लगा दिखता है, तो लगता है कि दुनिया को हौसला उसी से सीखना चाहिए। स्कूल के मलबे के बीच साथी बच्चों को पढ़ाते हुए अहमद ने जिस तरह दुनिया का ध्यान खींचा, और अपनी स्कूल को एक नई इमारत ही दिलवा दी, वह दुनिया के तमाम लोगों इससे बहुत कुछ सीखने मिल सकता है।
दुनिया भर के बच्चों और बड़ों को दुनिया के खतरे में पड़े हुए देशों, वहां की खराब हालत के बारे में भी बताने की जरूरत है ताकि वे अपनी तकलीफों को ही सब कुछ न समझें, और एक विश्व-जिम्मेदारी निभाने के बारे में भी सोचें। आज दुनिया के बहुत से देश अतिसंपन्नता के ऐसे शिकार हैं कि वहां अंधाधुंध प्रदूषण हो रहा है, सामानों की जरूरत से कई गुना खपत हो रही है, और धरती के साधन इस्तेमाल किए जा रहे हैं। ऐसे लोगों को भी दुनिया के जरूरतमंद देशों और लोगों के बारे में कुछ अधिक बताने की जरूरत है, और उनके बीच यह जिम्मेदारी पैदा करने की जरूरत है कि दुनिया के संपन्न और विपन्न लोगों के बीच फासला इतना बड़ा नहीं होना चाहिए।
ऐसे हैप्पी पॉड पर बीबीसी हर हफ्ते बहुत सी सकारात्मक खबरें सामने रखता है, और उनसे बहुत कुछ सीखने की, खुशी पाने की गुंजाइश रहती है। भूख और कुपोषण के बीच, विस्फोटों से मलबा बन चुकी स्कूल में एक छोटा बच्चा किस तरह हौसले के साथ खुश रहता है, खुशियां बिखेरता है, अपनी जिम्मेदारी से बहुत आगे बढक़र काम करता है, यह सब कुछ देखने लायक है।
पिछले चौबीस घंटों में दसियों करोड़ लोगों के दिमाग में यह बात कील की तरह ठुक गई है कि राजस्थान और मणिपुर में कोई फर्क नहीं है। किसी समाचार एजेंसी की यह सोची-समझी मक्कारी किस तरह देश के अलग-अलग हजारों मीडिया संस्थानों के लोगों ने हाथोंहाथ ले ली है, यह देखते ही बनता है।
मणिपुर की खबरें फिर भयानक हो चली हैं। ऐसा भी नहीं कि वहां की हालत पिछले सौ-सवा सौ दिनों में सुधरी हो, लेकिन वहां हो रही हत्याएं कुछ थमी थीं, क्योंकि दसियों हजार सरकारी बंदूकें वहां तैनात थीं, दो जातियों के लोगों को दो अलग-अलग इलाकों में बांट दिया गया था, और सामान्य जिंदगी को सस्पेंड करके टकराव और हिंसा के मौके ही खत्म कर दिए गए थे। इसके बावजूद पिछले चार दिनों में बारह और लोगों का कत्ल किया गया है। ओलंपिक मैडल पाने वाली बॉक्सर मैरी कॉम ने केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह को अपना गांव बचाने के लिए चिट्ठी लिखी है कि वह जल रहा है, उसकी जनजाति को बचाया जाए। लेकिन ऐसी अपील बहुत सारे और लोग करते आए हैं, और अब तो पिछले कुछ हफ्तों से सुप्रीम कोर्ट की बनाई हुई कमेटी इसकी जांच कर रही है, जो सीधे-सीधे सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट कर रही है। जांच के मोर्चे पर इससे अधिक क्या हो सकता है कि दूसरे राज्यों के रिटायर्ड आईपीएस, और दूसरे हाईकोर्ट के रिटायर्ड जजों को लेकर खुद सुप्रीम कोर्ट जांच करवा रहा है। इस मामले को केन्द्री की मोदी सरकार शर्मिंदगी की नौबत मानती है या नहीं, यह उसका अपना विवेक है, और वह अपनी ही पार्टी के मणिपुर-मुख्यमंत्री बीरेन सिंह को राजधर्म याद दिलाती है या नहीं, यह उसके अपने राजधर्म पर निर्भर करता है। हम आज यहां कुछ दूसरे पहलुओं पर बात करना चाहते हैं जिसके पहले मणिपुर की आज तक की इस जमीनी हकीकत की चर्चा कर लेना जरूरी था।
चार महीनों से मणिपुर नस्लीय हिंसा की आग में झुलस रहा है, और शहरी-संपन्न मैतेई गैरआदिवासी, समुदाय को अपने मुख्यमंत्री की हिफाजत हासिल है, और उसका टकराव सीधे-सीधे वहां के आदिवासी और ईसाई, पहाड़ों पर रहने वाले कुकी समुदाय से है, उसका सीधा हमला इन पर है।
कल की खबर यह है कि मणिपुर की राजधानी इम्फाल, जो कि मैतेई समुदाय की आबादी का इलाका है, वहां बच गए गिने-चुने कुकी परिवारों के 24 लोगों को सुरक्षाबलों ने आधी रात उनके घरों से उठाया, उन्हें कोई सामान भी नहीं लेने दिया गया, और वहां से ले जाकर उन्हें पहाड़ों पर कुकी इलाकों में छोड़ दिया गया। इन लोगों का कहना है कि यह उन्हें बचाकर ले जाने के बजाय उनका अगवा करके उन्हें ले जाने की कार्रवाई लग रही थी।
अब आज की एक खबर पर लगे हाथों और गौर कर लेना चाहिए। देश के संपादकों की संस्था, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने मणिपुर में मीडिया की रिपोर्टिंग को पक्षपातपूर्ण बताया है, और राज्य सरकार की भूमिका को भी। उसने लिखा है कि राजधानी इम्फाल के मीडिया संस्थानों ने तथ्यों को गलत तरीके से पेश किया, और एक समुदाय के खिलाफ कमजोर और भडक़ाने वाली रिपोर्टिंग की जिससे हिंसा बढ़ी। राज्य सरकार ने भी कुकी आदिवासी समुदाय को अवैध घुसपैठ करने वाले विदेशी करार दिया। इन सबसे राज्य में तनाव और हिंसा पैदा हुए, और उनमें बढ़ोत्तरी हुई।
अब अकेले मणिपुर के मीडिया को तोहमत क्यों दी जाए। लोगों को याद रखना चाहिए कि पिछले संसद सत्र की सुबह जब सुप्रीम कोर्ट से केन्द्र सरकार को मणिपुर को लेकर एक कड़ा नोटिस जारी हो रहा था, और सरकारी वकील को एक दिन पहले की अदालती पूछताछ से उसका अंदाज था, तो संसद में घुसने के पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 75 से अधिक दिनों के बाद पहली बार मणिपुर शब्द का उच्चारण किया था, और उन्होंने मणिपुर की हालत पर देश के सारे 140 करोड़ लोगों को शर्मिंदगी का हकदार बना दिया था। ऐसा करने पर खुद प्रधानमंत्री पर मणिपुर की जिम्मेदारी एक बटा 140 करोड़ रह गई थी। इसके साथ-साथ उन्होंने मणिपुर के साथ जोडक़र कहा था- घटना चाहे राजस्थान की हो, छत्तीसगढ़ की हो, या फिर मणिपुर की हो, कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए।
हमने कुछ घंटों के भीतर ही मोदी के बयान के इस पूरी तरह नाजायज जिक्र के बारे में लिखा था, और बाद में जाकर कांग्रेस पार्टी ने भी इस पर विरोध किया था। क्योंकि छत्तीसगढ़ और राजस्थान में नस्लीय हिंसा की ऐसी कोई घटना नहीं हुई थी, और न ही जाति के आधार पर किसी महिला को नंगा करके उसका जुलूस निकाला गया था, उसके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था, उसका कत्ल हुआ था। इसलिए अपनी पार्टी के राज वाले मणिपुर की तुलना के लिए कांग्रेस शासन वाले छत्तीसगढ़ और राजस्थान का यह जिक्र पूरी तरह नाजायज था।
अब पिछले दो दिनों से देश में एक अलग हवा बांधी जा रही है। राजस्थान में एक महिला के साथ बड़ी हिंसा की एक घटना हुई है। वहां एक आदिवासी महिला के कपड़े उतारकर उसे गांव में घुमाया गया, और जब उसका वीडियो चारों तरफ फैला तो हंगामा खड़ा हुआ, राजस्थान पुलिस ने उस महिला के पति सहित दस लोगों को गिरफ्तार किया। इस महिला के पति ने अपने साथियों के साथ मिलकर उसके कपड़े उतारे, और उसे गांव में घुमाया। गांव में तमाशबीन भीड़ में दूसरी महिलाएं भी थीं, लेकिन किसी ने इसे रोका नहीं। ऐसा पता लगा है कि यह पति को छोडक़र किसी और के साथ रहने के उस महिला के फैसले से उपजा तनाव है।
अब कल सुबह से देश भर के मीडिया में जो खबरें इस घटना की आ रही हैं, उनमें एक जैसी हैडिंग है। शायद समाचार एजेंसियों ने ऐसी ही हैडिंग बनाई होगी, और अखबारों, वेबसाइटों, और टीवी चैनलों पर अब मौलिकता का इस्तेमाल घट गया है, इसलिए सबने वही हैडिंग लगाई है। राजस्थान में मणिपुर जैसी घटना, राजस्थान के प्रतापगढ़ में मणिपुर जैसी घटना, राजस्थान में मणिपुर जैसी हैवानियत, प्रतापगढ़ में मणिपुर जैसी शर्मनाक घटना, यह राजस्थान है मणिपुर नहीं। इंटरनेट पर ऐसी दर्जनों सुर्खियां मौजूद हैं जो दसियों करोड़ पाठकों और दर्शकों तक पहुंचकर उनके दिमाग में इस बात को पुख्ता तरीके से बैठा चुकी होंगी कि जो मणिपुर में हो रहा है, वह तो कांग्रेस के चुनावी राज्य राजस्थान में भी हो रहा है। तकरीबन तमाम लोगों की अक्ल अखबार या टीवी सरीखी सुर्खियों की कैदी रहती हैं,
और वे उससे परे अपनी समझ का इस्तेमाल नहीं करतीं। चारों तरफ मीडिया में काम करने वाले, और कुछ अधिक अक्ल और समझ रखने का झांसा देने वाले लोगों को खुद को भी ऐसी हैडिंग में कुछ अटपटा नहीं लगा कि राजस्थान के एक पारिवारिक झगड़े में परिवार के मर्दों द्वारा परिवार की ही महिला पर की गई इस हिंसा से मणिपुर की क्या बराबरी है जहां पर दो जातियों के बीच संघर्ष चल रहा है, और राज्य सरकार के संरक्षण में एक जाति के लोग दूसरी धर्म-जाति की महिलाओं को नंगा करके उनका जुलूस निकाल रहे हैं, वीडियो-कैमरों के सामने उसके बदन से खिलवाड़ कर रहे हैं, फिर उनके साथ सामूहिक बलात्कार करके उनका कत्ल कर दिया जा रहा है। उस नस्लीय हिंसा की मिसाल राजस्थान की पारिवारिक हिंसा पर थोपकर मणिपुर की गंभीरता को ठीक उसी तरह खत्म किया जा रहा है जिस तरह पिछले दिनों अभिनेता वरूण धवन की एक फिल्म में हिटलर के यातना शिविरों के हल्के-फुल्के जिक्र से हिटलर की गंभीरता को खत्म किया गया था, जिसका कि इजराइल से लेकर दुनिया के कई देशों ने विरोध किया था, और हिन्दुस्तान में भी भाजपा से जुड़े कई नेताओं ने हिटलर की मिसाल के खिलाफ सार्वजनिक रूप से लिखा था।
जब ऐतिहासिक जुर्मों की गंभीरता को खत्म करना हो, तो आज के किसी अलग किस्म के छोटे जुर्म से उसकी तुलना करना एक तरीका होता है। पिछले चौबीस घंटों में दसियों करोड़ लोगों के दिमाग में यह बात कील की तरह ठुक गई है कि राजस्थान और मणिपुर में कोई फर्क नहीं है। किसी समाचार एजेंसी की यह सोची-समझी मक्कारी किस तरह देश के अलग-अलग हजारों मीडिया संस्थानों के लोगों ने हाथोंहाथ ले ली है, यह देखते ही बनता है। और इसके साथ ही यह बात भी समझ आती है कि एक समाचार एजेंसी तो किसी सरकारी या राजनीतिक साजिश के तहत ऐसी हैडिंग बनाकर खबर भेज सकती है, लेकिन दसियों हजार पत्रकारों में से जब किसी को भी ऐसी हैडिंग खटकती नहीं है, तो यह साफ है कि देश के पत्रकारों के किसी नाम भर के हिस्से में मणिपुर को लेकर समझ रह गई हो, तो रह गई हो, बाकी को राजस्थान की एक पारिवारिक हिंसा मणिपुर की नस्लीय हिंसा के बराबर मानने में कोई दिक्कत नहीं है।
फेसबुक पर समझदार लोगों के लिए इन दिनों थकाने वाला सिलसिला चल रहा है। अनगिनत लोग लगातार यह पोस्ट कर रहे हैं कि उन्होंने फेसबुक को अपनी तस्वीरों या अपनी पोस्ट के इस्तेमाल का कोई हक नहीं दिया है। एक बना-बनाया ड्राफ्ट है जिसे सारे लोग एक-दूसरे के पेज से लेकर पोस्ट किए चले जा रहे हैं, और बहुत से जानकार और समझदार लोग इसे बता रहे हैं कि यह सिर्फ अफवाह है, इससे फेसबुक के साथ उनका कानूनी संबंध नहीं बदलता। लेकिन लोग हैं कि ऐसा एक नोटिस पोस्ट करके वे मान ले रहे हैं कि फेसबुक उनकी नीजता में कोई दखल नहीं दे सकता। इस पोस्ट में फेसबुक को लोगों के फोटो, वीडियो, नाम, और मोबाइल नंबर से इस्तेमाल करने से रोका जा रहा है। हड़बड़ी की एक वजह यह भी है कि झूठ फैलाने वाले ने यह भी लिखा है कि कल से फेसबुक का एक नया नियम चालू हो रहा है, इसलिए तुरंत ही ऐसा नोटिस पोस्ट करना जरूरी है।
यह सिलसिला कई साल पहले भी चला था, और उस वक्त भी लोगों ने यह बताया था कि यह झूठ है, इससे फेसबुक के कोई भी नियम नहीं बदलते। कई साल पहले भी ऐसे नोटिस फेसबुक पर आते रहे हैं, और 2012 से ही यह सिलसिला चल रहा है। फेसबुक का मालिकाना हक अब एक बड़ी कंपनी मेटा के तहत आ गया है, लेकिन उससे भी उसके नियम नहीं बदले हैं। दस बरस से चले आ रहे इस फर्जी नोटिस को हिन्दुस्तान के लोग हिन्दी और अंग्रेजी में लगातार पोस्ट किए जा रहे हैं, और बाकी भाषाओं में भी अगर यही हो रहा होगा तो हम उन्हें पढ़ नहीं सकते हैं।
यह सिलसिला लोगों के धोखा खाने की क्षमता को साबित करता है। ठीक उसी तरह जिस तरह कि 1995 में गणेश प्रतिमाओं के दूध पीने की अफवाह उड़ी थी, और हिन्दुस्तान के कम से कम हिन्दीभाषी इलाकों में 21 सितंबर 1995 को तमाम हिन्दू लोग लोटा-गिलास में दूध लेकर गणेश प्रतिमाओं तक पहुंचने लगे थे, और चम्मच से उन्हें दूध पिला रहे थे। कुछ दिनों के भीतर सबको यह समझ में आ गया था कि गणेश दूध नहीं पी रहे थे। लेकिन देश के लोगों की धोखा खाने की अपार क्षमता का वह एक टेस्ट था, और जनता उस पर सौ फीसदी खरी उतरी थी। हालत यह हो गई थी कि उस दिन दोपहर-शाम तक विश्व हिन्दू परिषद ने भी इस करिश्मे की घोषणा कर दी थी, और नेपाल, संयुक्त अरब अमीरात, कनाडा, ब्रिटेन, जहां-जहां हिन्दू बसे हुए थे, वे सब गणेश प्रतिमा को दूध पिलाने पर आमादा हो गए थे। कई शहरों में मंदिरों के सामने ट्रैफिक जाम हो गया था, और देश की दुकानों से दूध खत्म हो गया था। ऐसे में यह सोच पाना आसान हो गया था कि धर्म के करिश्मे के नाम पर देश को किस तरह झोंका जा सकता है। अब अगर इसे किसी साजिश में इस्तेमाल किया जाए, तो हिन्दुस्तान के बहुत बड़े हिस्से की हिन्दू आबादी मंदिरों में पहुंची हुई थीं, और वहां से कोई अफवाह उड़ाना भी आसान हो जाता, या किसी किस्म की बीमारी का वायरस भी फैलाया जा सकता था।
अब अगर किसी अपराधकथा के नजरिए से इस नौबत को देखा जाए तो गणेश को दूध पिलाने पर अड़े हुए लोगों की अंधविश्वासी भीड़ को जाति या धर्म की किसी दूसरी अवैज्ञानिक बात में भी उलझाया जा सकता था। कोई साम्प्रदायिक अफवाह फैलाई जा सकती थी, इतनी भीड़ के बीच कोई आतंकी हमला भी किया जा सकता था। हिन्दुस्तान में होली के मौके पर बहुत से लोग केंवाच नाम के एक पौधे की फल्लियों को कहीं बिखरा देते हैं, और उनके संपर्क में आने वाले लोगों के बदन में अंधाधुंध खुजली होने लगती है जो कि आसानी से खत्म नहीं होती। अब यह कल्पना की जाए कि दूध पिलाने वाली भीड़ पर ऐसा कोई हमला करवा दिया जाए, और उसकी तोहमत किसी दूसरे धर्म के लोगों पर जड़ दी जाए तो क्या होगा?
फेसबुक पर ऐसे झूठ को आगे बढ़ाने वाले लोग भी हो सकता है कि किसी ऑनलाईन सर्वे का सामान बन गए हों, जिनसे कोई अंतरराष्ट्रीय एजेंसी यह नतीजा निकाल रही हो कि अफवाहों पर आसानी से कौन भरोसा करते हैं, कौन लोग अपनी तर्कशक्ति का इस्तेमाल नहीं करते हैं, और फिर ऐसे लोगों को ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मदद से अलग-अलग तबकों मेें बांटकर उसका इस्तेमाल किया जा सकता है।
इसे इस तरह समझने की जरूरत है कि जो लोग फेसबुक के नाम पर फैलाए गए एक झूठ को आसानी से मान रहे हैं, वे लोग किसी राजनीतिक या साम्प्रदायिक झूठ पर भी जल्दी भरोसा कर सकते हैं। ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस उनकी पोस्ट देखकर उन्हें, जाति, धर्म, संस्कृति, राजनीति जैसे कई तबकों में बांट सकता है, और फिर जब कोई नफरत फैलानी हो, लोगों को किसी साजिश में झोंकना हो, तो फिर सीधे ऐसे ही लोगों को एक झूठ भेजकर उन्हें सीधे जोड़ा जा सकता है क्योंकि यह बात तो दिख चुकी है कि ऐसे लोग झूठ पर भरोसा भी कर लेते हैं, और सोचे-समझे उसे आगे भी बढ़ा देते हैं।
आज पूरी दुनिया में ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा माना जा रहा है, क्योंकि यह सोशल मीडिया पर लोगों की सोच का अध्ययन करके उनके अलग-अलग समूह बना सकता है, और उनकी राजनीतिक सोच को प्रभावित कर सकता है, चुनाव में किसी पार्टी या उम्मीदवार के पक्ष में लोगों को बड़ी संख्या में मोड़ सकता है। कई देशों में इतने असर से चुनावी जीत-हार में जमीन-आसमान का फर्क पड़ सकता है। यह लिखते हुए हमारी जानकारी इस बारे में नहीं है, लेकिन यह बिल्कुल मुमकिन हो सकता है कि अमरीका और भारत जैसे बड़े देश जहां पर दसियों करोड़ लोग सोशल मीडिया पर हैं, वहां पर जनमत प्रभावित करने की ऐसी साजिशें तैयार हो चुकी हों, और उन पर अमल भी हो रहा हो। और हो सकता है कि फेसबुक को लेकर यह ताजा अफवाह वेबकूफों की शिनाख्त करने के लिए गढ़ी गई हो, और अब ऐसे लोग आगे जनमत प्रभावित करने की साजिशों में इस्तेमाल किए जाएंगे।
ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और सोशल मीडिया के अकल्पनीय असर के इस दौर में लोगों को सावधान रहना अगर मुमकिन न भी हो तो भी उन्हें ऐसी साजिशों के बारे में मालूम होना चाहिए। इसके बिना वे एक ऐसी सरकार पा सकते हैं जो कि वे सामान्य रूप से न चाहते रहे हों। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता से घिरे हुए हरियाणा की सरकार ने अभी बहुत से अफसरों के ट्रांसफर किए, और इन्हें प्रशासनिक आधार पर किया हुआ बताया। कोई भी सरकार चाहे किसी भी नीयत से तबादले करे, उन्हें प्रशासनिक आधार पर किया हुआ बताना उसका विशेषाधिकार रहता है, और वह इसका बेजा इस्तेमाल करने से कभी पीछे नहीं हटती। ऐसे में तनावग्रस्त रेवाड़ी जिले के एक डिप्टी कमिश्नर मोहम्मद इमरान रज़ा को भी हटाया गया है जिन्होंने जिले की उन बहुत सी पंचायतों को नोटिस जारी किया था जहां मुस्लिमों के दाखिले का प्रस्ताव पारित किया गया था। देश के कुछ प्रमुख अखबारों में ऐसे गांवों के पोस्टर-बैनर भी सामने आए थे जिनमें मुस्लिमों को भीतर न घुसने की चेतावनी दी गई थी। इस मुस्लिम डिप्टी कमिश्नर सहित और बहुत से तबादले प्रशासनिक आधार पर किए हुए हो सकते हैं, लेकिन सदमा पहुंचाने वाली बात यह है कि रज़ा ने इस जिले में काम अप्रैल के महीने में ही सम्हाला था, और चार महीनों के भीतर ही उन्हें यहां से हटाया गया। पता नहीं कि पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में साम्प्रदायिक हिंसा की जो सुनवाई चल रही है, उसमें सरकार से यह पूछना जायज होगा या नहीं कि चार महीने में इस अफसर को हटाने की कौन सी नौबत आई है?
हरियाणा में साम्प्रदायिक तनाव के बीच जगह-जगह ग्राम पंचायतें प्रस्ताव पारित कर रही हैं कि सामाजिक सुरक्षा व शांतिप्रिय माहौल बनाए रखने के लिए मुस्लिम समुदाय के किसी भी व्यक्ति को उनके गांव में कोई बिक्री नहीं करने दी जाएगी। लोकतंत्र में जिन पंचायतों से देश की संसदीय शासन प्रणाली शुरू होना है, उन्हीं जड़ों में यह जहर घोला जा रहा है, और सरकार की इसमें मौन सहमति दिखाई पड़ रही है। मुख्यमंत्री और मंत्रियों के बयान यह बताने को काफी हैं कि वे किस धर्म के साथ हैं, किस धर्म के खिलाफ हैं, और किस तरह वे इस मुद्दे पर एक ध्रुवीकरण करने के लिए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से भी काफी हद तक टकराव लेने का इरादा रखते हैं। सजा की नौबत आए उसके पहले तक हरियाणा लोकतंत्र और अदालत की बर्दाश्त तौल रहा है, और यह सिलसिला अकेले हरियाणा में नहीं है, देश के बहुत से राज्यों में कानून और जनता दोनों का बर्दाश्त कसौटी पर कसा जा रहा है कि वह और कितना दबाव झेल सकता है।
अब ऐसा लगने लगा है कि क्या हिन्दुस्तान में सचमुच ही तबादलों का सारा हक राज्य सरकारों के हाथ दिया जा सकता है, या अदालतों को इसके लिए साफ-साफ कोई फैसला देने की जरूरत है। आज केन्द्र सरकार की कुछ चुनिंदा कुर्सियों और राज्यों के पुलिस-मुखिया के लिए सुप्रीम कोर्ट में दो बरस के कार्यकाल का एक नियम बना रखा है, और उसे भी राज्य सरकारें तोडऩे-मरोडऩे में लगी रहती हैं। अब ऐसा लगता है कि जिस अंदाज में राज्यों में तबादले होते हैं, वे सीधे-सीधे लोकतंत्र को खत्म करने की नीयत से, साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता को बढ़ाने की नीयत से, और सरकारी अमले के हौसले और आत्मसम्मान को तोडऩे के लिए किए जाते हैं। अभी यूपी में बवाल कर रहे कावडिय़ों पर लाठीचार्ज करवाने वाले एसएसपी को योगी सरकार ने कुछ घंटों के भीतर ही हटा दिया, और उस वक्त यह खबर सामने आई कि इस ईमानदार और कडक़ समझे जाने वाले आईपीए को तेरह बरस की नौकरी में डेढ़ दर्जन से ज्यादा तबादले झेलने पड़े हैं। ऐसा ही अफसर समझे जाने वाले आईएएस अशोक खेमका को भी हरियाणा में पूरी नौकरी में इसी तरह तकरीबन हर बरस तबादला झेलना पड़ा।
दूसरी तरफ अफसरों का एक बड़ा तबका ऐसा हो गया है जो सत्ता हांकने वाले नेताओं के साथ गिरोहबंदी करके भागीदारी में हर किस्म के भ्रष्टाचार में लगे रहता है, और किसी पार्टी के एक कार्यकाल में वह पूरी जिंदगी की तनख्वाह से सैकड़ों गुना अधिक की कमाई कर लेता है। तो ऐसा लगता है कि कानून को लागू करने वाले अफसरों को पूरी नौकरी सजा ही भुगतनी होती है क्योंकि तबादले को सजा नहीं गिना जाता। सरकार बड़ी आसानी से ऐसी हर सजा को प्रशासनिक आधार पर किया गया तबादला कह देती है। अब सवाल यह उठता है कि किसी अफसर के कुछ-कुछ महीने में अगर तबादले होते हैं, तो उसका परिवार कितनी जगह बदल सकता है, बच्चे कितने स्कूल-कॉलेज बदल सकते हैं, क्या दो-दो जगह घर-परिवार चलाना मुमकिन हो सकता है?
बहुत से प्रदेश ऐसे हैं जहां तबादले बारहमासी रहते हैं, होते ही रहते हैं। एक वक्त था जब स्कूल-कॉलेज शुरू होने के महीने-दो महीने पहले तबादले हो जाते थे ताकि लोग परिवार सहित शहर बदल सकें। अब शायद सरकारें यह मानकर चलती हैं कि उनके अमले की ऊपरी कमाई इतनी तो रहती ही है कि वह जब चाहे तब शहर बदल सके, नया घर बसा सके। चूंकि तमाम किस्म के राज्यों में यह एक लगातार का ढर्रा हो गया है, इसलिए क्या अब अदालतों को ऐसे प्रशासनिक आयोग बनाने चाहिए जो कि सरकार से परे के हों, उसके काबू में न हों, और दो बरस से पहले किसी का तबादला करना हो तो उस आयोग के सामने सरकार यह साबित करे कि यह तबादला करना जरूरी क्यों है। जब कभी सरकार प्रशासनिक आधार पर किसी का तबादला करती है, तो उस पर सरकार का बहुत सा खर्च भी होता है, यह एक अलग बात है कि बहुत से अफसरों की ऊपरी कमाई इतनी रहती है कि शायद वे सरकार से तबादले का खर्च वसूल भी न करते हों, लेकिन भ्रष्टाचार की कमाई को पैमाना बनाकर चलना सरकार के लिए ठीक नहीं है, और भ्रष्टाचार से सौ गुना अधिक नुकसान जनता के खजाने का, जनता की संपत्ति का होता है, यह तय है।
हरियाणा का मामला जिसे लेकर आज यहां लिखा जा रहा है, वह और अधिक खतरनाक इसलिए है कि वह साम्प्रदायिकता के बीच, साम्प्रदायिकता के खिलाफ सरकारी आदेश, देश के संविधान के मुताबिक कार्रवाई करने वाले एक अल्पसंख्यक अफसर को कुछ महीनों के भीतर हटाने का मामला है। हमारा मानना है कि यह अफसर सरकार से टकराए या न टकराए, हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट को खुद होकर हरियाणा सरकार से इस पर जवाब-तलब करना चाहिए, और हो सकता है कि इससे देश में एक ऐसी नजीर पेश हो सके जिससे कि बाकी प्रदेशों के सामने भी राजनीतिक-मनमानी के खिलाफ मिसाल बनी रहे। कोई देश-प्रदेश अपनी मनमानी करने के लिए अफसरों का मनोबल तोड़ तो सकते हैं, लेकिन टूटे मनोबल वाला सरकारी अमला देश को आगे नहीं बढ़ा सकता, सत्ता के भ्रष्टाचार में भागीदार जरूर हो सकता है। हिन्दुस्तान को ऐसी नौबत से बचाना आज अकेले सुप्रीम कोर्ट के हाथ में दिख रहा है।
सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने राहुल गांधी को निचली अदालत से दी गई सजा, और हाईकोर्ट से खारिज की गई उनकी अपील के खिलाफ राहत देते हुए सजा पर रोक लगा दी है, जिसका एक मतलब यह निकाला जा रहा है कि उनकी संसद सदस्यता बहाल हो गई है, और अब सिर्फ औपचारिकता बाकी है। कुछ लोगों को यह भी आशंका है कि लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला खेल को इतना आसान नहीं रहने देंगे, और अविश्वास प्रस्ताव पर बहस खत्म हो जाने के बाद ही शायद लोकसभा सचिवालय की कागजी कार्रवाई पूरी हो सके। राहुल को संसद से निकालने की कार्रवाई जंगल में हिरण की छलांग की रफ्तार से हुई थी, लेकिन हो सकता है कि उनकी वापिसी की कार्रवाई घोंघे की रफ्तार से हो। खैर, हम उस पर नहीं जा रहे, और आज का हमारा मुद्दा कुछ अलग है जिससे बहुत भटकना भी ठीक नहीं है। राहुल की अपील पर सुनवाई के दौरान तीन जजों की बेंच की अगुवाई कर रहे जस्टिस बी.आर.गवई ने राहुल की अपील खारिज करने वाले गुजरात हाईकोर्ट के फैसले को आड़े हाथों लिया। उन्होंने सुनवाई के दौरान ही अदालत में तल्ख बातें कहीं, और कहा कि हाईकोर्ट की सिंगल जज बेंच ने फैसले लिखने में तो सैकड़ों पेज खर्च कर दिए, एक सांसद की भूमिका पर तमाम टिप्पणियां कर डाली, लेकिन एक बार भी नहीं लिखा कि राहुल को दो साल की सजा देना किस हिसाब से जायज है। जस्टिस गवई ने कहा कि अदालत को अधिकतम सजा देने की वजह साफ करने चाहिए थी, लेकिन गुजरात हाईकोर्ट के जज को निचली अदालत की खामी नजर नहीं आई। उन्होंने कहा कि इसके उल्टे हाईकोर्ट जज पूरे फैसले में बताते रहे कि सांसद किस तरह से आम आदमी हैं, और नेता को किस तरह से मर्यादा में रहकर बयान देना चाहिए। जस्टिस गवई ने कहा कि जज को राहुल की सजा की वजह को साफ करना चाहिए था। उन्होंने एक दूसरे केस का भी जिक्र किया, और कहा कि तीस्ता सीतलवाड़ केस में भी उन्हें गुजरात हाईकोर्ट का फैसला बहुत अखरा था। तीस्ता को बेल क्यों नहीं मिलनी चाहिए ये बताने के बजाय हाईकोर्ट ने दूसरी बातों पर सैकड़ों पेज लिख डाले, जज दूसरी ही चर्चा मेें मशगूल हो गए, लेकिन इस मामले से संबंधित कानूनी नुक्तों का जवाब नहीं ढूंढा, जबकि अदालत का काम होना चाहिए कि वो सजा देते समय उसके कारण पर सबसे ज्यादा फोकस करे।
जस्टिस गवई ने भारत सरकार के सबसे बड़े वकील, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता पर एक किस्म से तंज कसते हुए कहा कि यह उन्हीं के प्रदेश के हाईकोर्ट की बात है। उल्लेखनीय है कि तुषार मेहता गुजरात के हैं, और पहले गुजरात हाईकोर्ट में ही वकालत करते थे। उन्होंने जस्टिस गवई का रूख देखते हुए कहा कि उनकी हाथ जोडक़र विनती है कि सुप्रीम कोर्ट कोई ऐसी टिप्पणी न करे जो हाईकोर्ट का मनोबल तोड़ दे। उन्होंने कहा कि कुछ मामलों में हो सकता है कि हाईकोर्ट दिशा से भटका हो, लेकिन सुप्रीम कोर्ट मेहरबानी करके इसे नजरअंदाज करे।
कुछ दिनों के फासले से ही सुप्रीम कोर्ट पहुंचे इन दो मामलों की ऐसी चर्चा गुजरात हाईकोर्ट के लिए सोचने लायक है, और भारत सरकार के वकील के लिए भी। हम बड़ी अदालतों के जजों की हर टिप्पणी से सहमत नहीं रहते, और राहुल के मामले में गुजरात जिला अदालत के एक मजिस्ट्रेट के 168 पेज के पूरे फैसले की व्याख्या भी करना हम नहीं चाहते, दूसरी तरफ इस फैसले से सहमति जताते हुए गुजरात हाईकोर्ट के जज के जिन सैकड़ों पेज की चर्चा जस्टिस गवई ने की है, हमने उसे भी पूरा नहीं पढ़ा है, लेकिन इन दोनों को हम जस्टिस गवई की नजरों से देख रहे हैं। यह बात कुछ हैरान, और अधिक परेशान करती है कि किस तरह एक प्रदेश की एक के ऊपर एक, दो अदालतें अपने सैकड़ों पेज के फैसलों में, असल मुद्दे की बात छोडक़र दीगर तमाम बातें करने में लग जाती है। ऐसा सिर्फ जजों के साथ होता है यह भी नहीं, हमारे जैसे लोग जो अखबारों में लिखते है, वे भी चाहें तो किसी मुद्दे की बुनियाद, या उसकी रीढ़ की हड्डी को छोडक़र महज उसकी महत्वहीन खाल की चर्चा करते हुए पूरी बात खत्म कर सकते हैं, बहुत से लोग ऐसा करते भी हैं, और लोगों को यह भी लगता है कि इतना लंबा पढ़ते-पढ़ते लोग मुद्दों की बात भूल जाएंगे, और लिखी हुई तर्कपूर्ण, लेकिन प्रसंगहीन बातों से प्रभावित होकर उसे एक अच्छा फैसला, अच्छा लेख, अच्छा भाषण मान लेंगे।
अच्छा लिखा या अच्छा बोला कई पैमानों पर कसा जाना चाहिए, उसे तर्कपूर्ण तो होना चाहिए, लेकिन उसे प्रासंगिक और न्यायपूर्ण भी होना चाहिए। कई लोगों के पास जब न्याय के पक्ष में कहने को कुछ नहीं रहता है, तो वे इर्द-गिर्द के मुद्दों पर कई किस्म के वजनदार तर्क देकर लोगों को गुमराह करने की कोशिश करते हैं। अंग्रेजी में कहा जाता है कि जब आप किसी को कनविंस न कर सकें, उसे कन्फ्यूज कर दें, और जब अदालतें सैकड़ों पेज लिख डालती हैं, तो वे लोगों को इतना कन्फ्यूज तो कर ही सकती हैं कि वे यह नहीं समझ पाएं कि इसमें मुद्दे की बात तो है नहीं। यह कुछ उसी किस्म का है कि एक घंटे के भाषण में आप इतने किस्म की कहानियां सुना दें, कि लोगों को यह बात भूल ही जाए कि आपने आज के सबसे जलते-सुलगते मुद्दे पर कुछ भी नहीं कहा है, उससे साफ-साफ कन्नी काट गए हैं, उससे बचकर निकल गए हैं, अनदेखा करके निकल गए हैं।
लोगों को याद होगा कि हिन्दीभाषी प्रदेशों में भी गुजरात से निकले हुए कथाकारों और प्रवचनकारों की बड़ी लोकप्रियता है। एक-एक प्रवचनकर्ता वहां से आकर हिन्दी में प्रवचन करते हैं, दसियों हजार लोग जुटते हैं, और करोड़ों का चढ़ावा भी आता है। इससे भी बड़ी बात यह होती है कि धर्म के नाम पर चुनिंदा मिसालों वाली कहानियां, और उनकी एक खास किस्म की व्याख्या से सुनने वालों के दिमागों को सरकार और कारोबार की ताकत का गुलाम बना देते हैं। लोग किसी किस्म के संघर्ष की बात सोचना भी भूल जाते हैं, क्योंकि उन्हें इस लोक में अपने हक का दावा करने के बजाय अगले लोक को सुधारने की अपनी जिम्मेदारी बेहतर लगने लगती है, उस लोक को जिसे कि किसी ने देखा नहीं है। कुछ अदालतों के फैसले भी ऐसे हो सकते हैं जिनमें किसी सांसद या जनप्रतिनिधि की जिम्मेदारियों पर इतना लंबा और इतना असरदार निबंध पढऩे मिले, कि लोग अधिकतम सजा के कानूनी नुक्ते के बारे में सोचना ही भूल जाएं। आज अधिकतर लोग तो अदालत की खबर के तथ्यों की व्याख्या करने या समझने लायक भी नहीं रहते, क्योंकि उनके दिल-दिमाग बिना मेहनत समझ आने वाले धार्मिक और साम्प्रदायिक भडक़ावों को समझने, और सोख लेने के आदी हो चुके रहते हैं। ऐसे में दिल-दिमाग की चर्बी को कसरत क्यों कराई जाए? अपने को मिलने वाले समाचार-विचार को न्यायसंगत, तर्कसंगत, प्रासंगिक जैसे पैमानों पर क्यों कसा जाए जिससे कि दिल-दिमाग की बेचैनी बढ़े, और उन्हें कुछ सोचना पड़े जो कि हो सकता है कि बहुत सहूलियत का न हो। इतनी देर में दिल-दिमाग और जुबान हिंसक और उन्मादी नारों को दुहरा सकते हैं जिनसे कि रगों में एक आसान उत्तेजना दौडऩे लगती है, और हवा में नामौजूद दुश्मन दिखने लगते हैं, बांहें फडक़ने लगती हैं, और मन आत्मसंतुष्टि से भर जाता है कि अपने धर्म और अपने देश के लिए कुछ करना हो गया। ऐसी जनता के बीच अदालती फैसलों की बुनियादी कमजोरी की चर्चा करना भी आसान नहीं है, क्योंकि वह उनकी सोच पर जोर डालने वाली होगी, और बहुसंख्यक लोगों की हसरत के खिलाफ भी होगी। लेकिन हम इसे अपनी जिम्मेदारी मानते हैं कि जब लोग मुद्दों से भटकाने की नीयत से दूसरों के सामने प्रसंगहीन बातों का एक गुलदस्ता रख देते हैं, तो उसकी कमी लोगों को बता सकें। भारत सरकार के सबसे बड़े वकील ने गुजरात हाईकोर्ट को बचाने के लिए नाहक ही तो हाथ जोडक़र रहम नहीं मांगी होगी।
गुजरात के एक मजिस्ट्रेट, और एक हाईकोर्ट जज के फैसलों पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से एक पुराना शेर याद पड़ता है- तू इधर-उधर की बात न कर, ये बता कि काफिला क्यों लुटा...
हिन्दुस्तान में खानपान को लेकर बहस कभी खत्म ही नहीं हो पाती। सोशल मीडिया पर एक लतीफा हर कुछ हफ्तों में घूम-फिरकर सामने आता है कि इस देश में कितने किस्म के मांसाहारी हैं। लोग गिनाते हैं कि कुछ लोग बाहर खाते हैं, पर घर पर नहीं, कुछ लोग हफ्ते के बाकी दिन खाते हैं, पर मंगल और शनि को नहीं, कुछ लोग सावन में नहीं खाते, कुछ लोग एकादशी पर नहीं खाते, और कुछ लोग बीफ या पोर्क नहीं खाते, कुछ लोग झटका नहीं खाते, कुछ लोग हलाल नहीं खाते, और कुछ लोग टुकड़े नहीं खाते, लेकिन शोरबा खा लेते हैं। अभी दो-चार दिन पहले ही किसी ने फेसबुक पर यह लिखा कि एक तरफ तो ईश्वर को अंतरयामी मानते हो, और दूसरी तरफ उसकी पूजा के दिन पर नॉनवेज न खाकर उसे धोखा भी देते हो कि मानो उसे दिख नहीं रहा हो।
यह सब बहस तो चल ही रही थी, कि इंफोसिस के मुखिया, संस्थापक और सबसे बड़े शेयर होल्डर नारायण मूर्ति की पत्नी सुधा मूर्ति का एक बयान सामने आया कि वे किसी दूसरे देश जाने पर अपना खानपान लेकर जाती हैं क्योंकि वहां मांसाहार के चम्मच को इस्तेमाल करना भी उन्हें अटपटा लगता है। बहुत से लोग उनके समर्थन में उतर आए, और कई लोगों ने इसे एक ब्राम्हणवादी-शुद्धतावादी रवैया बताया जो कि देश में आज खानपान पर चल रही बहस की आग में ईंधन डालने वाला दिखता है। सुधा मूर्ति खुद को विशुद्ध शाकाहारी भी बताती हैं कि वे अंडा भी नहीं खातीं। उनके बयान से एक गलतफहमी यह पैदा होती है कि वे खाना खाने के चम्मच की बात कर रही हैं, जबकि वे रसोई के कड़छुल की बात करते अधिक दिख रही हैं कि वहां पर शाकाहारी और मांसाहारी दोनों किस्म के खाने में उसका इस्तेमाल न हुआ हो। वे इसलिए या तो पूरी शाकाहारी रेस्त्रां ढूंढती हैं, या फिर पूरा बैग भरकर खाना ले जाती हैं।
इस पर सोशल मीडिया पर बहस ऐसी छिड़ी कि कुछ लोगों ने यह गिनाना शुरू किया कि यह जातीय शुद्धता से उपजी हुई बात है, और कुछ लोगों ने याद दिलाया कि भारत के अलग-अलग हिस्सों में ब्राम्हण भी परंपरागत रूप से मांस खाते थे, और अभी भी खाते हैं। कुछ लोगों ने यह मुद्दा भी उठाया कि क्या बिना चर्बी साबुन बन सकता है, या पशुओं के कुछ हिस्सों से बनने वाली लाल बिंदी वाली दवाओं का इस्तेमाल भी ऐसे शाकाहारी लोग नहीं करते।
हिन्दुस्तान के अधिकतर लोगों पर लागू होने वाली जातिवादी व्यवस्था लोगों के खानपान की बुनियाद हो सकती है, लेकिन इससे परे की सोच भी खानपान पर हो सकती है। मैं अपनी खुद की बात यहां पर रखना चाहूंगा कि मैं धर्म और जाति से परे हूं, लेकिन खानपान की मेरी अपनी पसंद है। मैं आसपास के लोगों पर अपनी खानपान की पसंद थोपता नहीं, लेकिन मांसाहार से अपनी नापसंद मैं अपने घर के लोगों के सामने उजागर कर चुका हूं। इससे परे, इससे आगे बढक़र मैं किसी पर अपनी कोई पसंद नहीं थोपता। लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि मांसाहारी खाने के साथ पकाया गया शाकाहारी खाना मेरे गले आसानी से उतर जाता हो। मेरी कोशिश होती है कि ऐसी नौबत न आए, लेकिन जहां ऐसा बिल्कुल मुमकिन नहीं रहता, मैं रसोई की कल्पना किए बिना चुपचाप अपना शाकाहारी खाना खा लेता हूं। दस-बारह बरस पहले हिन्दुस्तान से एक अमन कारवां में फिलीस्तीन तक जाने का करीब महीने भर का सफर ऐसी बहुत सी नौबतों से भरा हुआ था। ईरान, टर्की, सीरिया, इजिप्ट और फिलीस्तीन जैसे देशों में हर जगह शाकाहारी खाना मिलना आसान नहीं था, लेकिन कारवां के करीब पौन दर्जन लोग खालिस शाकाहारी थे, और जो कुछ जुट जाता था, उसमें खुश रहते थे।
धर्म और जाति से परे, मेरी निजी आस्था हर प्राणी के जिंदा रहने के हक पर है। इसलिए मैं किसी दूसरे प्राणी को मारकर खाने के खिलाफ हूं, और अपने से परे मैं किसी और पर इस बात को नहीं थोपता। इसलिए खानपान की मेरी कट्टरता धर्मान्ध न होकर अहिंसक है, मैं किसी भी प्राणी पर हिंसा के खिलाफ हूं। अब इसे कोई ब्राम्हणवादी कहना चाहे, तो वह बात नाजायज होगी क्योंकि हिन्दुस्तान में तो दर्जन भर प्रदेशों में ब्राम्हण परंपरागत रूप से मांसाहारी हैं, और मैं तो किसी ब्राम्हण परिवार में भी जन्मा नहीं हूं।
आज हिन्दुस्तान में खानपान के भेदभाव को लेकर जिस तरह की हिंसा की जा रही है, उसके बीच अपने शाकाहारी होने की चर्चा भी कुछ लोगों को किसी किस्म की हिंसा को बढ़ावा देने की लग सकती है, लेकिन मंै धर्म और जाति की विविधता का सम्मान करने के लिए इस हद तक कुख्यात हूं, कि मेरे बारे में ऐसा कोई धोखा होना भी आसान नहीं हो सकता। लेकिन हिन्दुस्तान के आज के हमलावर तेवरों के पीछे उसके सवर्ण लोगों का भी एक बड़ा छोटा तबका ही है, जो कि कट्टरतावादी, और शुद्धतावादी सोच को दूसरों पर थोपने को अपना हक समझता है। इस देश के सबसे पुराने लोग, यहां के आदिवासी परंपरागत रूप से मांसाहारी रहे हैं, और अगर किसी को इस देश की सबसे पुरानी संस्कृति को लागू करना है, तो वह सबको मांसाहारी बनाने की ही हो सकती है। इसलिए शाकाहारियों को हिन्दुस्तान को शाकाहारी बनाने की जिद नहीं पालनी चाहिए, वरना अगर भारत के मूल निवासी, यहां के आदिवासी अपनी संस्कृति सब पर लादने पर हावी हो जाएंगे, तो फिर शाकाहारियों के लिए दिक्कत खड़ी हो जाएगी!
सुधा मूर्ति की बातों से, खासकर उनके शब्दों से कोई गलतफहमी शुरू हुई दिखती है, उनके जो शब्द पढऩे में आ रहे हैं, उनमें खाने के चम्मच की जगह, पकाने के चम्मच का आशय अधिक दिख रहा है। लोगों को उनकी आलोचना के पहले इस फर्क को भी समझ लेना चाहिए। अभी तक उनकी कोई ऐसी बात पढऩे में नहीं आई है जो दूसरों को शाकाहारी बनाने की जिद की हो। जब तक ऐसा नहीं है, तब तक लोगों को खानपान की अपनी पसंद को अहिंसक तरीके से, अहिंसक संदर्भ में सामने रखने का हक होना चाहिए, क्योंकि मांसाहारी लोग भी खाने की अपनी प्लेट या थाली की तस्वीरें पोस्ट करने का कोई भी मौका तो चूकते नहीं हैं, यह आजादी सबको होनी चाहिए।
मणिपुर के जिन वीडियो ने दुनिया का दिल दहला दिया है, उनमें आदिवासी महिलाओं को नंगा करके उनका जुलूस निकालने और उससे परे कुछ आदिवासी महिलाओं से गैंगरेप की चर्चा है। जिस तरह वहां गैरआदिवासी हिन्दू-मैतेई समुदाय के दिखते सैकड़ों लोगों ने कुकी-आदिवासी-ईसाई महिलाओं के साथ यह सुलूक किया, कहा जाता है कि ऐसी तमाम हिंसा के दौरान मैतेई समुदाय की महिलाएं अपने पुरूषों का हौसला बढ़ा रही थीं। अब वीडियो बहुत धुंधले आ रहे हैं, इसलिए इस बात के कोई सुबूत हम यहां नहीं रख सकते, लेकिन भरोसेमंद रिपोर्टर ऐसी बात लिख रहे हैं। और यह बहुत अनहोनी भी नहीं है। अगर महिलाएं हिंसा का साथ न दें, तो बहुत सी महिलाएं हिंसा का शिकार होने से बच सकती हैं।
मणिपुर के कुकी समुदाय की 18 बरस की एक लडक़ी का अपहरण करके उसके साथ गैंगरेप किया गया, और उसने पुलिस में अपने बयान में लिखाया है कि उसे मैतेई महिलाओं के एक समूह ने, जिन्हें मदर्स ऑफ मणिपुर भी कहा जाता है, उसने पकड़ा, और अपने हथियारबंद मर्दों की टोली के हवाले कर दिया, इसके बाद उसके साथ गैंगरेप हुआ, इस लडक़ी को गंभीर हालत में पड़ोस के नागालैंड में अस्पताल में भर्ती किया गया था, और अब उसकी रिपोर्ट हुई है।
अभी एक दूसरे मामले में महिलाओं पर होने वाली हिंसा के अलावा महिलाओं द्वारा की जाने वाली हिंसा पर कुछ लिखने या बोलने वाला था, तो एक अलग नजरिया समझने के लिए मैंने सामाजिक मोर्चे पर समर्पित एक महिला वकील से फोन पर लंबी बात की थी। मैंने उनसे पूछा था कि आज महिलाएं कई किस्म की हिंसा में शामिल दिखती हैं, क्या इसकी एक वजह उन महिलाओं का आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और अधिक आत्मविश्वासी हो जाना भी है? इस पर उनका कहना था कि महिला पर हिंसा में महिलाओं का शामिल होना बहुत नई बात नहीं है। जब दहेज हत्याएं अधिक होती थीं, तो परिवार में सास, जेठानी, देवरानी या ननद तो उसमें शामिल रहती ही थीं। अब कानून के अधिक कड़े होने से यह सिलसिला कम हुआ है, वरना नापसंद बहू को जलाकर मारना बहुत होता था।
उनकी इस बात से मुझे याद आया कि एक वक्त जब कानून की निगरानी इतनी नहीं थी, तब मां के पेट में लडक़ा है या लडक़ी, इसकी जांच आसान रहती थी, और इसके बाद पेट में लडक़ी होने से गर्भपात करवा दिया जाता था। ऐसे तमाम फैसलों में परिवार की महिला-मुखिया, सास या जेठानी, या ननद का हाथ तो रहता ही था, उनके दबाव में ऐसी जांच होती थी, और फिर बेटे की चाहत में गर्भपात करवाने के पीछे भी परिवार की दूसरी महिलाओं का हाथ रहता था। इस तरह महिला पर हिंसा में महिला बहुत पीछे नहीं रहती।
लोगों को याद होगा कि चकलाघर चलाने वाली महिलाएं ही रहती थीं, या अभी भी हैं, कॉलगर्ल एजेंसी या मसाज पार्लर के नाम से सेक्स सेंटर चलाने वालों में महिलाएं रहती हैं, गरीब आदिवासी इलाकों से लड़कियों की तस्करी करना और उन्हें महानगरों में बेच देना, इस काम में भी महिलाएं हमेशा ही भागीदार मिली हैं। चाहे ऐसी महिलाओं के पीछे कोई दूसरे मर्द क्यों न हों, लेकिन ऐसे बहुत से जुर्म में ये महिलाएं अपनी मर्जी से भी शामिल होती हैं।
अभी एक ताजा मिसाल रूस से आई है जहां यूक्रेन जा रहे रूसी सैनिकों की बीबियों ने उन्हें यह इजाजत देकर भेजा है कि वे यूक्रेनी लड़कियों और महिलाओं से बलात्कार कर सकते हैं, बस इतना ख्याल रखें कि कंडोम लगाकर ही रेप करें, ताकि कोई बीमारी लेकर घर न लौटें। और यह आरोप किसी यूक्रेनी प्रोपेगेंडा का हिस्सा नहीं है, यह संयुक्त राष्ट्र संघ की एक सीनियर महिला अधिकारी ने औपचारिक रूप से बताया है।
जो आज मणिपुर में हो रहा है, कुछ उसी किस्म की बात यूक्रेन में भी हो रही है कि दुश्मन से हिसाब चुकता करने के लिए उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार किया जाए, और वैसा ही अभी के ताजा वीडियो में दिख रहा है जिन्हें फैलने से सरकार रोक रही है, और पिछले ढाई महीने से मणिपुर में बंद चल रहे इंटरनेट की वजह से ऐसे बाकी मामले सामने नहीं आए हैं, लेकिन खुद वहां के मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने कहा है कि ऐसी सैकड़ों घटनाएं हुई हैं। जब मुख्यमंत्री कह रहे हैं तो उसमें गलत होने की कोई वजह नहीं दिखती है, और यह कल्पना की जा सकती है कि अगर ऐसे सैकड़ों मामले हुए हैं तो उनके पीछे किसी न किसी तबके की हजारों महिलाओं की सहमति भी रही होगी।
हम ऐसे उकसावे और भडक़ावे से परे जब देश की प्रमुख महिला नेताओं के बयान देखते हैं, तो वे भी महिलाओं के खिलाफ हिंसा से भरे हुए दिखते हैं। अभी कल से मणिपुर के मुकाबले पश्चिम बंगाल में भी एक-दो महिलाओं से वैसे ही सुलूक के कुछ धुंधले वीडियो सामने आ रहे हैं और उनके साथ भाजपा की महिला नेताओं के ये बयान भी हैं कि मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी मणिपुर में हिंसा का तो विरोध कर रही हैं, लेकिन खुद के बंगाल में इस पर कोई काबू नहीं कर रही हैं। एक-दो दिनों में बंगाल के ऐसे वीडियो की हकीकत भी स्थापित हो जाएगी, लेकिन एक महिला मुख्यमंत्री को अपने राज में महिलाओं से हो रहे ऐसे सुलूक के आरोपों पर भी जो संवेदनशीलता दिखानी थी वह अभी तक नहीं दिख रही है।
यह लिखते-लिखते जो नई खबरें दिख रही हैं, वे बता रही हैं कि जिस दिन के वीडियो मणिपुर के सामने आए हैं, उसी दिन वहां और लड़कियों से भी गैंगरेप हुआ, उनकी हत्या कर दी गई, लेकिन 80 दिन बाद भी उनकी लाशों की खबर नहीं है।
दुनिया में बहुत किस्म की जंग ऐसी रही हैं जिनमें कोई फौज सामने वाली फौज से हिसाब चुकता करने के लिए उनके नागरिकों के साथ भी बलात्कार करते आई है, ऐसा ही कुछ देशों और भारत के प्रदेशों में राजनीतिक कार्यकर्ता भी करते आए हैं, अलग-अलग धर्मों के लोग भी कई मौकों पर हिंसक हमलों के लिए ऐसे बलात्कार हथियार की तरह इस्तेमाल करते देखे गए हैं। कुल मिलाकर यह बात समझ आती है कि दुनिया में पर्यटन का उद्योग हो, पारिवारिक ढांचा हो, जंग हो या किसी जगह का सामाजिक संघर्ष हो, उसमें महिलाओं से बलात्कार को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है, और जब ऐसा किया जाता है तब बलात्कारी देशों या तबकों की महिलाएं तालियां बजाते हुए अपने मर्दों की हौसला अफजाई करती हैं। अब इन नतीजों से लोगों को महिलाओं के बारे में जो सोचना हो सोचें, हम किसी एक देश या तबके की महिलाओं के बारे में तुरंत कुछ कहना नहीं चाहते, लेकिन खुद महिलाओं को इस बारे में सोचना जरूर चाहिए।
सरकारी नौकरियां हिन्दुस्तान में लोगों के लिए जिंदगी की सबसे अधिक अहमियत वाली एक चीज रहती हैं। गरीब और मध्यम वर्ग के लोग बरस-दर-बरस कोई न कोई इम्तिहान देकर सरकारी नौकरियों की कोशिश करते हैं, और तभी हार मानते हैं जब उनकी उम्र निकल जाती है। ऐसे में बहुत से प्रदेशों में बड़ा-बड़ा भर्ती घोटाला होता है। मध्यप्रदेश में तो व्यापमं घोटाला इतना बड़ा था कि उसमें मंत्री भी गिरफ्तार हुए थे, एक राज्यपाल का नाम भी आया था, और कार्यकाल खत्म होने के बाद राज्यपाल कटघरे में लाए जा सकते, उसके पहले वे पंचतत्व में विलीन हो गए। लेकिन यह घोटाला इतना बड़ा था कि इसमें दर्जनों लोग जेल पहुंचे, और इसके दर्जनों गवाहों को रहस्यमय तरीके से हादसा-मौत हासिल हुई, जिसे कि आसानी से समझा जा सकता है। इन दिनों छत्तीसगढ़ भर्ती घोटाले की खबरों से पटा हुआ है, और हाल के महीनों में सत्तारूढ़ कांग्रेस के खिलाफ भाजपा के हाथ यह सबसे बड़ा मुद्दा लगा है।
अभी मध्यप्रदेश की ताजा खबरें बताती हैं कि वहां पटवारी भर्ती परीक्षा में ग्वालियर के एक कॉलेज में जो लोग बैठे, उनमें से अधिकांश पास हो गए, और प्रदेश के टॉप-10 में से 7 इसी कॉलेज के हैं। अब मुरैना के 16 ऐसे चुने गए उम्मीदवार सामने आए हैं जो एक ही जाति के हैं, सबके सब दिव्यांग हैं, और इनमें से अधिकतर कानों से दिव्यांग हैं, यानी न सुन पाने वाले। यह लिस्ट अपने आपमें बताती है कि त्यागी सरनेम वाले ये सोलह के सोलह लोग किस तरह पटवारी बनने जा रहे हैं। नतीजा यह होता है कि जब ये पटवारी कहीं तैनात होते हैं तो वे तेजी से करोड़पति बनकर अपने पूंजीनिवेश की भरपाई करते हैं, और आगे की एक जमींदार सरीखी जिंदगी बना लेते हैं। जमीनों की अफरा-तफरी, जमीनों के रिकॉर्ड में हेराफेरी, इस किस्म के अनगिनत कामों की गुंजाइश पटवारी के काम में रहती है, और वे अपने से कई दर्जा ऊपर के अफसरों के मुकाबले भी अधिक ताकतवर माने जाते हैं।
जब सरकारी नौकरी में कोई उम्मीदवार भ्रष्टाचार से आते हैं, तो उनके भ्रष्टाचार से परे भी एक दूसरी बात का नुकसान सरकार और जनता को होता है। चूंकि वे रिश्वत देकर नौकरी पाते हैं, इसलिए यह जाहिर है कि उनके मुकाबले बेहतर उम्मीदवार किनारे बैठे रह जाते हैं क्योंकि उनके पास इतनी रिश्वत का पैसा नहीं होता। मतलब यह कि सरकार को काबिल और अच्छे कर्मचारी नहीं मिल पाते, बिना काबिलीयत वाले लोग नौकरियों पर काबिज हो जाते हैं, और उन पर जल्द से जल्द अधिक से अधिक भ्रष्टाचार करके कमाई करने का एक दबाव रहता ही है। फिर उनके पास भ्रष्टाचार करने के लिए यह नैतिक अधिकार भी रहता है कि उन्हें यह नौकरी कौन सी मुफ्त में मिली हुई है, और वे तो खुद ही लाखों रूपए देकर कुर्सी पर आए हैं।
दूसरी तरफ जो बेरोजगार इन तमाम किस्सों को देखते रहते हैं कि किस तरह उनसे कम काबिल लोग रिश्वत के दम पर नौकरी पा लेते हैं, और उनकी उम्र ही सरकारी नौकरी की कोशिश में निकल जाती है, वे फिर लोकतंत्र और इंसानियत दोनों के लिए सम्मान खो देते हैं। उनके मन में एक हिकारत भर जाती है, और फिर उन्हें आगे किसी भी तरह की टैक्स चोरी, सार्वजनिक सम्पत्ति को किसी भी तरह से नुकसान पहुंचाना खराब नहीं लगता। उनके तेवर उसी तरह बागी हो जाते हैं, जिस तरह बलात्कार की शिकार फूलनदेवी बागी हो गई थी, और डकैत बन गई थी।
लेकिन सरकारों को अगर देखें तो उनमें नौकरियों को लेकर भ्रष्टाचार का एक बड़ा आकर्षण रहता है। बहुत से लोग इसे मोटी कमाई का जरिया बना लेते हैं, कुछ लोग इसे अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं के परिवारों को चलाने का एक तरीका बना देते हैं। ऐसा सुनाई पड़ता है कि वामपंथी पार्टियों के राज वाले प्रदेशों में भी पार्टी कार्यकर्ताओं के परिवार के लोगों को प्राथमिकता से नौकरी दिलाने की कोशिश की जाती है। बाकी पार्टियां तो कमाई और कार्यकर्ताओं को खुश करने के लिए यह काम करती ही हैं। दिक्कत यह होती है कि ऐसे मामले बरसों तक अदालतों में चलते रहते हैं, लेकिन वहां कोई फैसले नहीं हो पाते। जिस मध्यप्रदेश व्यापमं घोटाले की चर्चा हमने ऊपर की है वह 2013 में सामने आया था, अभी दस बरस हो चुके हैं, लेकिन दो हजार लोगों की गिरफ्तारी के बाद भी मामले का फैसला नहीं हो पाया है। इस दौरान जांच एजेंसियों के रिकॉर्ड के मुताबिक इस मामले से जुड़े हुए तीन दर्जन से अधिक लोग अस्वाभाविक मौत मरे हैं। 2017 में सुप्रीम कोर्ट का एक लंबा फैसला आया जिसमें 634 डॉक्टरों की डिग्रियां रद्द की गईं जिन्होंने इस व्यापमं घोटाले के रास्ते मेडिकल कॉलेज में दाखिला पाया था। लेकिन उस फैसले से परे मामले के बाकी पहलुओं पर अभी मुकदमा चल ही रहा है। सीबीआई ने अभी साल भर पहले 160 और लोगों के खिलाफ चालान पेश किया है।
लेकिन इस अकेले मामले की चर्चा करना आज का मकसद नहीं है, आज यह देखना है कि सरकारी नौकरियों और सरकारी कॉलेजों में दाखिलों में जो बेईमानी होती है वह किस तरह बहुत बड़े गरीब और काबिल तबके का मनोबल तोडक़र रख देती है। पूरी की पूरी व्यवस्था इतनी बेरहम हो गई है कि वह काबिल छात्र-छात्राओं और बेरोजगारों के हक को कुचलते हुए इसे कमाई का एक जरिया बनाकर चलती है।