संपादकीय
फ्रांस की एक विख्यात कार्टून और व्यंग्य की पत्रिका है चार्ली एब्दो, जिसने दुनिया के मुस्लिमों को नाराज करते हुए मोहम्मद पर कुछ कार्टून बनाए थे, और वह मामला बढ़ते -बढ़ते इतना बढ़ गया था कि फ्रांस में उस पत्रिका के दफ्तर पर आतंकी हमला हुआ और शायद दर्जन भर से अधिक लोग मारे गए थे। लेकिन उस वक्त फ्रांस की सरकार और इस पत्रिका के लोग इस बात पर डटे रहे कि वे अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को किसी आतंक के सामने कमजोर नहीं होने देंगे। हालत यह है कि उन्हीं कार्टूनों को लेकर अभी कुछ हफ्ते पहले पाकिस्तान से फ्रांस के राजदूत को निकाल देना के बारे में एक प्रस्ताव पाकिस्तान की संसद में लाया गया, और इस तनाव के पीछे भी चार्ली एब्दो के वे कार्टून ही थे। उस वक्त हिंदुस्तान सहित दुनिया के मुस्लिम विरोधी लोगों ने खूब जश्न मनाया था और इस पत्रिका की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हिमायत की थी। हिंदुस्तान में तो कई लोगों के बीच इस पत्रिका के लिए हमदर्दी देखकर लग रहा था कि वे बिना फ्रेंच सीखे भी इसे खरीदना शुरू कर देंग। आज उस पत्रिका का एक कार्टून सामने आया है जिसमें हिंदुस्तान में ऑक्सीजन की कमी से मरते हिंदुस्तानी दिख रहे हैं और यह सवाल किया गया है कि जिस देश में 33 करोड़ देवी देवता हैं क्या उनमें से एक भी ऑक्सीजन पैदा करने की ताकत नहीं रखते? कार्टूनिस्ट ने 33 करोड़ की जगह 33 मिलियन लिख दिया है लेकिन उससे मुद्दे की बात पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
इन दिनों हिंदुस्तान में कार्टूनिस्टों से लेकर कॉमेडियन तक केंद्र सरकार पर जिस तरह से बोल रहे हैं उससे लगता है कि लोगों की धडक़ थोड़ी खुल रही है। कुछ एक टीवी चैनल अपनी बहसों में सत्तारूढ़ गठबंधन के प्रवक्ताओं से कुछ सवाल करने का हौसला सा कुछ दिखा रहे हैं, और लोगों को यह समझ नहीं आ रहा है कि यह सचमुच वापिस आया हुआ हौसले का कोई टुकड़ा है या कि सरकार अपनी साख खत्म हो जाने के बाद कम से कम उस मीडिया की साख बचने देना चाहती है, जो मीडिया आगे चलकर सरकार की साख बचाने का असर बचाकर रख सके। सोशल मीडिया की मेहरबानी से देश के चर्चित और गिने-चुने राजनीतिक विश्लेषकों की बंधी-बंधाई सोच और राय तक सीमित नहीं रहना पड़ता और बहुत से नए नए लोग बिल्कुल ताजा तर्कों के साथ सोशल मीडिया पर नई राय सामने रखते हैं। जो कार्टूनिस्ट कहीं नहीं भी छपते हैं, वे भी दमदार काम करके सोशल मीडिया पर इन दिनों पोस्ट कर रहे हैं। ऐसे में जब एक घनघोर और कट्टर मोदीभक्त फिल्म कलाकार अनुपम खेर मोदी सरकार को देश की आज की नाकामी के लिए जिम्मेदार मानते हुए उससे सवाल करने को जायज मान रहे हैं, तो इससे उन्हीं का एक पुराना टीवी कार्यक्रम याद पड़ता है जिसमें वह बार-बार कहते हैं कि कुछ भी हो सकता है, कार्यक्रम का नाम भी शायद वही था। ऐसा लगता है कि वह ‘कुछ भी’ अभी हो गया है, क्योंकि अभी एक पखवाड़ा ही हुआ है जब एक पत्रकार शेखर गुप्ता के एक ट्वीट के जवाब में देश में गिरती लाशों की चर्चा में अनुपम खेर ने बेमौके की बेतुकी बात ट्विटर पर पोस्ट की थी कि जीतेगा तो मोदी ही। खैर उसके लिए सोशल मीडिया पर उन्हें इतनी धिक्कार मिली कि उन्होंने उसकी कल्पना भी नहीं की होगी। और जो लोग सोशल मीडिया पर हर नौबत में जीतेगा तो मोदी ही पोस्ट करने के लिए रखे गए हैं, वे लोग भी अनुपम खेर के कुछ काम नहीं आ सके थे। ऐसे में आज जब अनुपम खेर कड़े शब्दों में मोदी सरकार की आलोचना कर रहे हैं, और उसे जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, तो इस सरकार के लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि ऐसा समर्पित कार्यकर्ता भी आज साथ नहीं रह गया है।
दरअसल हिंदुस्तान में पिछले वर्षों में मोदी सरकार ने विपक्ष को सुनना, आलोचकों को सुनना, और मीडिया के जिम्मेदार तबके को सुनना, जिस हद तक बंद और खत्म कर दिया था, वही वजह थी कि देश में नौबत बिगड़ती चली गई, और सरकार के लोगों ने यह मान लिया था कि आलोचना का तेवर रखने वाले विपक्षी नेता, सामाजिक कार्यकर्ता, मीडिया या दूसरे लेखक कलाकारों की कोई बात तो सुनना ही नहीं है, क्योंकि ये सारे ही लोग टुकड़ा-टुकड़ा गैंग हैं और देश के दुश्मन हैं, गद्दार हैं, पाकिस्तान भेज दिए जाने के लायक हैं। जब आप देश के इतने बड़े सोचने-विचारने वाले, जिम्मेदार, देशभक्त, और समाज में समरसता चाहने वाले तबके को गद्दार कहकर खारिज कर देते हैं और उसकी किसी भी बात को नहीं सुनते हैं, तो आपके सिर पर आसमान से जब बिजली गिरते रहती है तो भी इस तबके की कही गई सावधानी सुनाई नहीं पड़ती है।
दरअसल लोकतंत्र में तमाम लोगों को सुनना बंद कर देना अच्छी बात इसलिए नहीं है कि अगर संसदीय बाहुबल ऐसा करने की छूट भी देता है तो भी सरकार सबको अनसुना करके सिवाय गलतियां करने और सिवाय गड्ढे में गिरने के और कुछ नहीं कर पाती। इसी सरकार की यह बात नहीं है जो भी ऐसी सरकार हो जो कि आलोचना को बिल्कुल भी बर्दाश्त ना कर सके, वह अपनी मनमानी ताकत से मनमाने काम जरूर कर सकती है, लेकिन न मुसीबत से बच सकती है और न किसी खतरे से। भारत में आज नौबत यही है।
आज यही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि हिंदुस्तान में कोरोना के इस दूसरी लहर के पीछे इस देश में राजनीतिक और धार्मिक जमघट भी जिम्मेदार हैं जिनमें लोगों को बड़ी संख्या में संक्रमण फैला। अब देश का एक तबका ऐसा है जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की राय को भी एक विदेशी, भारत विरोधी संगठन करार देते हुए खारिज कर सकता है, लेकिन यह वही तबका होगा जो कल तक मोहम्मद पर बनाए गए कार्टूनों पर खुशी मना रहा था, और आज 33 करोड़ हिंदू देवी देवताओं की नाकामी पर बनाए गए इस कार्टून पर जिसके पास कहने को कुछ नहीं है। आज हम किसी एक मुद्दे पर बात नहीं कर रहे हैं बल्कि देश और दुनिया के अलग-अलग तबकों की कही हुई बातों को सुनने की सरकार की लोकतांत्रिक जिम्मेदारी पर बात करना चाहते हैं कि कितने भी बहुमत से चुनकर आई हुई कोई सरकार, लोगों के बहुत बड़े तबके की बातों को पूरी तरह अनसुना करके कहीं से लोकतांत्रिक काम नहीं कर सकती। उसे मनमाना सरकारी काम करने का जनादेश तो चुनाव में मिला है, लेकिन कोई चुनावी-जनादेश सरकार को लोकतंत्र के प्रति, जनता के प्रति, जवाबदेही खत्म करने का कोई अधिकार नहीं देता है। आज हिंदुस्तान में केंद्र सरकार को यह आत्ममंथन करना चाहिए कि आज जब उसके खुद के अनुपम खेर किस्म के घरेलू लोग हालात को इतना नकारात्मक बता रहे हैं, तो अब इस हालात को सकारात्मक दिखने की और कोशिश करना ठीक नहीं होगा। हम अनुपम खेर के शब्दों को ही दोहराना चाहेंगे जिसमें उन्होंने कहा है, सरकार के लिए अपनी छवि बचाने से ज्यादा जरूरी लोगों की जान बचाना होना चाहिए, उन्होंने कहा है कि इमेज बनाने के अलावा जिंदगी में और भी बहुत कुछ है, उन्होंने यह भी कहा है कि जिस काम के लिए चुना गया है वही काम करे सरकार। हम इन तीनों बातों को देश के तीन प्रमुख अखबारों की सुर्खियों से लेकर यहां लिख रहे हैं, भीतर की खबर में उन्होंने बहुत कुछ और कहा है, और क्योंकि यह एक टीवी इंटरव्यू में कहा है इसलिए इससे मुकरने का कोई खतरा हमें नहीं दिखता। अनुपम खेर की बात को सुनकर इस सरकार को अब वही करना चाहिए जो किसी एक घरेलू शुभचिंतक की कही हुई बात पर करना चाहिए। हमारे कम लिखे को सरकार अधिक पढ़े, और अनुपम खेर की कही बातों को बार-बार पढ़े।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)