संपादकीय
जिस केरल में सत्तारूढ़ वाम मोर्चे का चुनाव जीतकर वापस आना एक हैरान करने वाली बात थी, क्योंकि वहां 5 बरस बाद सत्ता पलट देने का मिजाज लोगों का रहा है। लोगों का नतीजों को देखकर यह अंदाजा था कि पिछले 1 बरस में वहां की स्वास्थ्य मंत्री शैलजा टीचर ने जिस खूबी और मेहनत के साथ कोरोना के मोर्चे पर इंतजाम किए थे और महामारी से निपटने में जुटी हुई थी, वह एक बड़ी वजह थी कि सत्तारूढ़ गठबंधन जीतकर, लौटकर आया। लेकिन नए मंत्रिमंडल के नाम आए तो लोग यह देखकर हैरान रह गए कि उसी स्वास्थ्य मंत्री शैलजा टीचर का नाम लिस्ट में नहीं था। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने इस मुद्दे से अपना हाथ धो लिया है और अधिकृत बयान जारी किया है कि मंत्रियों के नाम राज्य के पार्टी संगठन ने तय किए हैं, और उसे ही यह अधिकार था। राष्ट्रीय संगठन ने यह साफ कह दिया है कि इस बारे में जो सवाल करने हैं वे प्रदेश संगठन से किए जाएं। इस बयान के रुख से ऐसा लगता है कि सीपीएम का राष्ट्रीय संगठन भी प्रदेश के इस फैसले से इत्तेफाक नहीं रखता है कि दुनिया भर में जिस स्वास्थ्य मंत्री के काम को वाहवाही मिली, उसे महामारी के इस दौर में हटा दिया जाए या कि दोबारा न लिया जाए। दूसरी बात यह कि अगर तमाम मंत्रियों को हटा देने की बात थी, तो फिर मुख्यमंत्री बने क्यों रह गए? इस पैमाने पर तो मुख्यमंत्री को भी बदल दिया जाना चाहिए था। पार्टी ने अपने अखबार में यह लिखा था यह जीत किसी एक व्यक्ति की जीत नहीं है यह व्यक्तिगत और सामूहिक सभी किस्म की मेहनत की मिली जुली जीत है। ऐसा लगता है कि पार्टी के राष्ट्रीय संगठन और उसके केरल के स्थानीय संगठन के बीच तालमेल की कोई कमी है या कोई वैचारिक असहमति है।
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लेकिन सीपीएम के आंतरिक फैसले को लेकर भी उसके मित्र संगठनों के बीच और हमख्याल पार्टियों के बीच एक नाराजगी खड़ी हुई है और आम लोगों के बीच भी एक निराशा पैदा हुई है कि आज 21वीं सदी में आकर भी अगर कोई पार्टी अपनी सरकार में सबसे अच्छा काम करने वाली महिला मंत्री को जारी नहीं रख सकती है, तो वह महिलाओं को क्या बढ़ावा दे सकेगी? और यह बात उस वक्त और बड़ी निराशा की हो जाती है जब मुख्यमंत्री अपने दामाद को मंत्रिमंडल में शामिल करते हैं और सीपीएम के राज्य सचिव अपनी बीवी को। इस किस्म की घरेलू कैबिनेट बनाकर और प्रदेश की एक सबसे काबिल साबित हुई मंत्री को हटाकर केरल की वाममोर्चा सरकार जाने कौन सा पैमाना साबित कर रही है। हमें केरल की अंदरूनी राजनीति से अधिक लेना-देना नहीं है, और न ही सीपीएम अपना घर कैसे चलाता है इससे हमें कोई फर्क पड़ता, लेकिन आज देश के सामने कोरोना के लेकर जो चुनौती है, उसके बीच में अगर किसी एक महिला मंत्री ने लाजवाब काम किया था, तो उसे हटाकर मुख्यमंत्री या वहां का सत्तारूढ़ संगठन एक अहंकार साबित कर रहा है, और एक ऐसे पैमाने को थोपने की कोशिश कर रहा है जो सिवाय एक बड़ी बेइंसाफी के और कुछ नहीं है। अगर केरल में मंत्रिमंडल के लिए कोई पैमाना बनना था तो पहला पैमाना तो यही बनना था कि वहां के बड़े नेताओं के घरों के लोग कैबिनेट में ना लिए जाएं।
यह चर्चा करते हुए छत्तीसगढ़ का पिछला लोकसभा चुनाव याद पड़ता है। विधानसभा चुनाव में जब छत्तीसगढ़ में भाजपा मटियामेट हो गई थी, और सत्तारूढ़ पार्टी के 15 बरस के बाद वह 15 सीटों पर सिमट गई थी, तब उस वक्त के भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने भरी नाराजगी के साथ एक पैमाना तय किया था कि छत्तीसगढ़ की 11 लोकसभा सीटों में से किसी पर भी किसी पुराने व्यक्ति को दोबारा खड़ा नहीं किया जाएगा, न पहले के जीते हुए को, न पहले के हारे हुए को, और न ही किसी भी नेता के रिश्तेदार को टिकट दी जाएगी। और इसका नतीजा यह निकला था कि 11 में से 9 सीटें भाजपा ने जीती थी। तो पैमाने तो इस तरह के होते हैं, ना कि इस तरह के कि प्रदेश की सबसे काबिल मंत्री को निकाल दिया जाए, और दो रिश्तेदारों को मंत्री बना दिया जाए। केरल का यह मुद्दा है तो सीपीएम के अपने घर का मामला, लेकिन वामपंथियों के साथ एक बात है कि वे अपने साथी संगठनों के घरेलू मामलों पर भी सार्वजनिक रूप से अपनी राय रखते हैं। सीपीआईएमएल के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य और सीपीआईएमएल की पोलित ब्यूरो मेंबर कविता कृष्णन ने केरल के इस फैसले पर असहमति और हैरानी दोनों जाहिर की हैं, और सार्वजनिक रूप से इस पर लिखा है।
यह भी याद रखने की जरूरत है कि पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजों में जब वाममोर्चा बंगाल के नक्शे से ही साफ हो गया, उस वक्त भी नतीजों के बाद दीपंकर और कविता कृष्णन ने बयान जारी करके बंगाल के चुनाव की स्थितियों का खुलासा किया था और यह लिखा था कि बहुत से प्रगतिशील संगठनों ने वहां पर मतदाताओं का यह आव्हान किया था कि जो कोई भी भाजपा को हराने की हालत में है उसे वोट देकर जिताएं। यह मामला वामपंथी पार्टियों का एक दूसरे के साथ साथ ना देने जैसा था, लेकिन वामपंथी विचारधारा के व्यापक हित में सीपीआईएमएल ने बंगाल में यह किया और उसने वहां के वाममोर्चा की बाकी पार्टियों की एक किस्म से आलोचना भी की। बंगाल में पूरी तरह खत्म हो जाने के बाद भी जो वाममोर्चा केरल की सत्ता में दोबारा जीत कर आया है उसकी ऐसी मनमानी बहुत निराश करने वाली है, और यह भारत की राजनीति में महिला के हक को मारने वाली भी है। एक सबसे काबिल महिला को इस महामारी के बीच में भी उसके काम से हटाकर मुख्यमंत्री ने या कि पार्टी संगठन ने एक बददिमागी दिखाई है। सीपीएम को यह समझ लेना चाहिए कि आज उसके पास सिर्फ एक ही राज्य की सत्ता में भागीदारी बची है, और नेता, या विचारधारा या संगठन का ऐसा अहंकार उसे यहां से भी खत्म कर देगा तो कोई हैरानी नहीं होगी। सीपीएम के राज्य संगठन की नजरों में शैलजा टीचर का कोई महत्व हो या ना हो, पूरी-पूरी दुनिया में उनके काम के महत्व को सराहा गया है, और सीपीएम अपनी बददिमागी के चलते एक नुकसान झेलेगी।