संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : डिजिटल तकनीक की बंदिश बहुत गहरी और चौड़ी कर रही है डिजिटल डिवाइड की खाई
24-May-2021 5:56 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : डिजिटल तकनीक की बंदिश बहुत गहरी और चौड़ी कर रही है डिजिटल डिवाइड की खाई

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर हाईकोर्ट ने आज राज्य सरकार को एक आदेश दिया है जिसमें आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं द्वारा दायर की गई एक याचिका पर दो महीने के भीतर निपटारा करने कहा है। दरअसल छत्तीसगढ़ की आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को सरकार ने यह निर्देश दिए हैं कि वे अपने मोबाइल पर सरकार के कुछ एप्लीकेशन डाउनलोड करके रखें और उसके मार्फत डाटा भेजें। ऐसा न करने पर उनका मानदेय रोक भी दिया जाएगा। बहुत कम मानदेय पाने वाली आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और उनकी सहायिकाओं का कहना है कि न तो उनके लिए नया मोबाइल स्मार्टफोन खरीद नामुमकिन है, और न ही इंटरनेट के लिए मोबाइल का रिचार्ज कराना संभव है. उनका यह भी कहना है कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता बहुत दूर-दूर के गांवों में जाकर भी काम करती हैं, जहां पर नेटवर्क की समस्या रहती है। उन्होंने सरकार के इस आदेश को महिला विरोधी और अव्यवहारिक बताया है।

सरकार का यह अकेला आदेश या फैसला ऐसा नहीं है जो कि डिजिटल तकनीक पर जरूरत से अधिक भरोसा करने वाला, और अपने कर्मचारियों, छात्र-छात्राओं, और आम लोगों को डिजिटल तकनीक पर आश्रित करने वाला है। आज जब लॉकडाउन होता है, तो देश के बहुत सारे राज्य एक जिले से दूसरे जिले तक जाने के लिए ई-पास लागू कर रहे हैं, जिसके लिए स्मार्टफोन पर ही आवेदन करना है, अर्जी भेजना है, और स्मार्टफोन पर ही ई-पास आता है जिसे जिले की सरहद पर दिखाना है। अगर किसी को कोरोना हुआ है  और उसे घर पर आइसोलेट किया जा रहा है तो उसे स्मार्टफोन के एक एप्लीकेशन पर अपने को रजिस्टर करना है, उसमें दिन में 4 बार अपना तापमान भेजना है, अपनी ऑक्सीजन की रीडिंग भेजनी है, और जब आइसोलेशन और क्वॉरंटीन पूरा होता है तब उन्हें डिजिटल सर्टिफिकेट भी स्मार्ट फोन पर आता है। आज लोगों को छोटे-छोटे से काम के लिए निजी डिजिटल उपकरणों पर निर्भर कर दिया गया है, उनके पास ऐसे उपकरण भी होना चाहिए, और इंटरनेट वाला कनेक्शन भी होना चाहिए। जब किसी प्रदेश में एक महीने तक लगातार लॉकडाउन चल रहा है, तो लोग कहां से ऐसे फोन खरीद सकते हैं, कैसे उन फोन को चार्ज करवा सकते हैं, और कैसे इंटरनेट पैकेज खरीद सकते हैं यह सोचने की बात है? आज तो हालत यह है कि अगर आपके पास स्मार्टफोन और इंटरनेट नहीं है, तो आप कोरोना वैक्सीन की कतार में भी नहीं लग सकते। 

परिवारों में अगर एक स्मार्टफोन है, तो घर के कामकाजी व्यक्ति से उसका दफ्तर, या उसका मालिक, उम्मीद करता है कि वह व्हाट्सएप पर भेजे गए हुकुम देखे हैं और मानते चले। घर में अगर एक से अधिक बच्चे पढऩे वाले हैं तो उनकी ऑनलाइन क्लास चलती है, और अब तो ऑनलाइन पढ़ाई के साथ-साथ ऑनलाइन डांट-फटकार भी चलने लगी है। मामूली परिवारों के बच्चे इन सारी तकनीक की कमी से वैसे भी हीनभावना से घिरकर चल रहे हैं, और परिवार के भीतर एक तनाव भी खड़ा हो रहा है कि फोन कब किसके पास रहे। गरीब परिवारों के भीतर भी मोबाइल फोन को लेकर अलग-अलग सदस्यों के बीच एक निजता बनाए रखने की कोशिश होती है लेकिन वह भी फोन के ऐसे पारिवारिक या सामुदायिक इस्तेमाल से खत्म हुई जा रही है। अब विश्वविद्यालयों से लेकर कई परीक्षा बोर्ड तक इस चक्कर में लगे हैं कि कैसे ऑनलाइन परीक्षा ली जाए। जाहिर है कि ऐसे में जिन बच्चों के पास तेज रफ्तार इंटरनेट कनेक्शन नहीं है, जिनके पास खुद का कम्प्यूटर नहीं है, जिनके पास अपने लिखे हुए स्कैन करने की सहूलियत नहीं है, उनका बहुत अधिक समय बर्बाद होगा। और जिनके पास ये सारी सहूलियत हैं, उनका काम बेहतर होगा, जल्दी होगा। 

यह एक डिजिटल खाई इस देश में पहले से चले आ रहे संपन्न और विपन्न के बीच, संचित और वंचित के बीच, और बढ़ा दी गई है, स्मार्टफोन वाले लोग स्मार्ट साबित होंगे और जिनके पास स्मार्टफोन नहीं हैं वे शायद भोंदू गिने जाएंगे। जिनके पास तेज रफ्तार इंटरनेट कनेक्शन है वे बेहतर नंबर लाने की अधिक काबिलियत रखेंगे, जैसे कि राजस्थान के कोटा में जाकर दाखिला इम्तिहान की तैयारी करने वाले लोग हो गए हैं। सरकारों ने संक्रमण से बचने के लिए और लॉकडाउन के वक्त का इस्तेमाल करने के लिए पढ़ाई से लेकर जनता के दूसरे कामकाज तक और अपने खुद के अमले के भीतर के कामकाज तक स्मार्टफोन कम्प्यूटर और इंटरनेट का इस्तेमाल तो बढ़ा दिया है, लेकिन आज देश की आधी आबादी के पास न यह सहूलियत है, और न ही वह फटेहाली और भुखमरी के इस दौर में यह नई सहूलियत जुटा सकती। 

इसलिए आज सरकार में बैठे हुए बड़े-बड़े अफसर अपने मंत्रियों को यह समझाने में कामयाब हो जाते हैं कि डिजिटल तकनीक ऐसे बहुत से लोगों का भला होगा और उनका वक्त बर्बाद होने से बचेगा, तो जनता से जुड़े हुए मंत्रियों को कम से कम यह भी समझना चाहिए कि इससे आबादी के एक हिस्से का तो वक्त बचेगा, लेकिन आबादी के एक बड़े हिस्से का उससे इतना नुकसान होगा कि वह दूसरों के मुकाबले पिछड़ जाएगा। यह डिजिटल डिवाइड ऐसे देश में एक बड़ी चौड़ी और गहरी खाई पैदा कर रही है और सरकारें जब कभी स्कूल-कॉलेज के बच्चों को, आम लोगों को, और अपने छोटे कर्मचारियों को ऐसी डिजिटल तकनीक पर जाने को मजबूर करते हैं तो उनके पास की सहूलियतों के बारे में भी सोचना चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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