संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सवाल अब कांग्रेस छोडऩे का नहीं है, उसमें बने रहने का है
09-Jun-2021 5:12 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सवाल अब कांग्रेस छोडऩे का नहीं है, उसमें बने रहने का है

उत्तर प्रदेश से सांसद रहे और यूपीए सरकार में मंत्री रहे जतिन प्रसाद आज कांग्रेस छोडक़र भाजपा में चले गए। यह दलबदल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के खासे पहले हुआ है, इसलिए इसे चुनाव के समय लिया गया फैसला नहीं कहा जा सकता, और न ही यह बंगाल, असम, केरल के चुनावों के ठीक पहले लिया गया है जिसे कि पार्टी, चुनाव में नुकसान पहुंचाने की बात कहे। अब दलबदल कोई बड़ा मुद्दा नहीं रहा और खासकर दूसरी पार्टियां छोडक़र भाजपा में जाने वाले इतने अधिक हो गए हैं कि बहुत से लोग मजाक में कहते हैं कि देश तो कांग्रेसमुक्त होते चल रहा है लेकिन भाजपा उसी रफ्तार से कांग्रेसयुक्त होते चल रही है। भाजपा में दूसरी पार्टियों से इतने अधिक लोग शामिल हुए हैं कि उनके प्रभाव क्षेत्र में भाजपा के पुराने परंपरागत नेता और कार्यकर्ता निराश होकर किनारे भी बैठने लगे हैं। 

लेकिन दलबदल का एक दूसरा नजारा बंगाल में देखने मिल रहा है, जहां पर तृणमूल कांग्रेस छोडक़र भाजपा में जाने वाले लोग अब सत्ता पर लौटने वाली ममता बनर्जी के बिना जीना मुश्किल है कहते हुए घरवापिसी की कतार में लगे हुए हैं। कुछ नेताओं के तो ऐसे बयान आए हैं कि वे ममता बनर्जी बिना जिंदा नहीं रह सकेंगे। आज अगर ममता पार्टी के दरवाजे खोल दे तो भाजपा विधायक दल का एक बड़ा हिस्सा तृणमूल कांग्रेस में लौट सकता है। लेकिन अभी अगले बरस उत्तर प्रदेश सहित दूसरे कई राज्यों में चुनाव होने हैं और उन चुनावों को लोकसभा के अगले चुनावों के पहले का रुझान भी माना जाएगा इसलिए ऐसी उम्मीद है कि चुनावी प्रदेशों में बड़ी संख्या में दलबदल होगा। और फिर जिस उत्तर प्रदेश के लिए आज दलबदल हुआ है, उस उत्तर प्रदेश में तो मायावती ने बसपा से इतने लोगों को पार्टी से निकाल दिया है कि भाजपा उनका भी शिकार कर सकती है। 

कांग्रेस के लोग तो अपनी पार्टी से थक-हारकर और निराश होकर अगर भाजपा या किसी दूसरी पार्टी में जाते हैं, तो वह कोई हैरान करने वाली बात नहीं होगी। इस पार्टी ने अपने जो तौर तरीके बना लिए हैं, उनके चलते हुए बहुत से लोग इसे छोड़ सकते हैं फिर चाहे उन्हें भाजपा या किसी और पार्टी से कुछ मिलने की उम्मीद हो या ना हो। आज मुद्दा भाजपा के करवाए हुए दलबदल का नहीं है, आज मुद्दा है कि कांग्रेस पार्टी अपने लोगों को संभाल कर रखने लायक क्यों नहीं रह गई है? पार्टी के दो दर्जन बड़े नेताओं ने पिछले बरस पार्टी के नियमित अध्यक्ष बनाने की मांग के साथ-साथ पार्टी के तौर-तरीके सुधारने की मांग भी की थी, लेकिन पार्टी ने उसके बाद वक्त गँवाने, लोग और सीट-वोट खोने के अलावा कुछ नहीं किया। बंगाल विधानसभा में आज कांग्रेस का चुनाव चिन्ह हाथ भी सिर्फ दूसरे विधायकों के बदन के हिस्से की तरह रह गया है, एक भी पंजा छाप विधायक उस राज्य में नहीं रह गया जहां किसी वक्त कांग्रेस का राज हुआ करता था। 

कांग्रेस की बेहतरी चाहने वाले नेताओं की चिट्ठी को भी शायद साल भर होने आ रहा होगा या कुछ समय में साल पूरा हो जाएगा। पार्टी कितने विधानसभा चुनाव बिना किसी अध्यक्ष के, महज़ कार्यकारी अध्यक्ष के तहत लडक़र हार चुकी है। अभी भी पार्टी के अगले अध्यक्ष को चुनने का कोई ठिकाना नहीं दिख रहा है। पिछले महीने ऐसी खबर आई कि जून के अंत में पार्टी अध्यक्ष का चुनाव होगा और कुछ मिनटों में ही यह खबर आ गई कि कोरोना के चलते यह चुनाव नहीं होगा। यह पूरा सिलसिला कांग्रेस के बहुत से लोगों को निराश कर रहा है क्योंकि अगर पार्टी की लीडरशिप वाला परिवार ही देश के ऐसे नाजुक मौके पर अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी से कतरा रहा है, न खुद अध्यक्ष बन रहा है न किसी और को निर्वाचित होने दे रहा है, तो ऐसे में कांग्रेस के बहुत से नेता देश के हित में और अपने हित में अपनी राजनीति को तय करने पर मजबूर तो होंगे ही। 

दरअसल राजनीति में एक बार आने के बाद उससे संन्यास लेना शायद ही किसी से हो पाता है। इसलिए कांग्रेस अगर आज अपनी लीडरशिप का सवाल हल नहीं कर पा रही है, तो उसके बहुत से नेताओं को अपने भविष्य का सवाल हल करना पड़ेगा। जतिन प्रसाद अगले बरस के विधानसभा चुनावों के पहले के एक संकेत की तरह हैं। कांग्रेस पार्टी को अपने घर को सुधारना चाहिए क्योंकि आज उसकी जो हालत है उसमें उस पार्टी में बने रहने वाले लोगों को लेकर यह हैरानी हो सकती है कि वे अब भी किस उम्मीद से वहां पर हैं? आज सवाल भाजपा का किसी का शिकार करके ले जाने का नहीं है, आज तो सवाल यह है कि कांग्रेस में बचे हुए लोग किस उम्मीद से वहाँ बचे हुए हैं? और देश के लोकतंत्र की आज की इस नौबत में देश की यह ऐतिहासिक पार्टी अपनी जिम्मेदारी से क्यों कतरा रही है? कांग्रेस के अध्यक्ष रहे हुए राहुल गांधी के ही दोबारा अध्यक्ष बनने की चर्चा उनके इस्तीफे के समय से लगातार चल रही है, लेकिन राहुल अपना इरादा साफ ही नहीं कर रहे हैं। इस परिवार में तीन लोग हैं और अगर परिवार से ही लीडरशिप तय होनी है तो उसे घर बैठकर तय कर लेना चाहिए। इतने बड़े देश में इतने चुनावों के आते-जाते हुए भी अगर कांग्रेस पार्टी और यह परिवार इस तरह जिम्मेदारी से कतरा रहे हैं तो इससे लोकतंत्र का नुकसान अधिक बड़ा है, कांग्रेस के पास तो शायद अब नुकसान के लायक कुछ बचा नहीं है। देखें आगे क्या होता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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