विचार / लेख
-राजीव
मूल्यांकन का कोई न कोई तरीका खोजा जाना चाहिए था। बड़ी कक्षाओं की परीक्षाएं रद्द करना बहुत ही गलत निर्णय है। आप भले महामारी की आड़ ले लीजिए लेकिन रद्द हुई परीक्षाओं ने पूरी व्यवस्था की पोल खोल दी है। अभी जो विद्यार्थी कक्षा ग्यारहवीं जैसी महत्वपूर्ण कक्षा में दाखिल हुए हैं उनका स्कूली शिक्षा में अभी तक कोई वास्तविक मूल्यांकन हुआ ही नहीं है ।
देश ने पिछले दिनों देखा कि सरकारों में शिक्षा को लेकर कितनी गंभीरता है। स्कूली शिक्षा से जुड़ी सभी परीक्षाएं सारे देश में रद्द कर दी गई।
चुनाव, धार्मिक आयोजन इसके अलावा ऐसे कितने ही गैरजरूरी काम थे जो सरकारों ने अपनी उपलब्धि बताते हुए संपन्न करवाएं। सीना चौड़ा कर ऐसे सारे काम जो समय के हिसाब से गैरजरूरी थे, जिन्हें टाला जा सकता था और भावी संक्रमण से बचा जा सकता था लेकिन वह सारे काम हुए। सिर्फ बंद रही तो इन 15 महीनों में देश की स्कूली शिक्षा। स्कूल ही अकेली ऐसी संस्था है जिसे खोलने के लिए किसी भी सरकार ने कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखाई, कोई ऐसा नियम नहीं बनाया, कोई ऐसी अनूठी पहल नहीं की जिससे शिक्षा वापस अपने पुराने रूप को पा सके।
हवाला हमेशा यह दिया गया कि बच्चों को संक्रमण का खतरा है। तमाम तरह के लोक-लुभावने जुमले दिए गए कि बच्चे देश का भविष्य है जबकि भविष्य बचाने जैसा कोई काम किया ही नहीं किया। करोड़ों बच्चों में जो अवसाद पनप रहा है उसकी भी कहीं कोई गंभीर चर्चा नहीं है।
पिछले साल भी मार्च में जब पूरा देश बंद किया गया साथ ही स्कूल बंद हुए उसके बाद से कोई भी परीक्षा नहीं ली गई जबकि परीक्षा केन्द्रों पर जाकर बहुत सारी परीक्षाएं हुई जैसे जे.ई.ई., क्लैट, नीट इत्यादि जबकि यह सारी परीक्षाएं बारहवीं कक्षा पास करने वाले बच्चे ही देते हैं।
इस साल भी पढ़ाने के जो प्रयास थे उसे ऑनलाइन तक ही सीमित रखा गया और प्रत्यक्ष पढ़ाई बहुत ही कम प्रदेशों में शुरू हो पाई। पहली से आठवीं तक पूरे देश में लगभग स्कूल मार्च 2020 से बंद है और सरकारों के रवैया से यह इस साल भी खुलते नहीं दिख रहे। इस समय सबसे चिंताजनक बात यह है इस बारे में सोचा भी नहीं जा रहा।
मूल्यांकन की बात करें तो जब पिछले साल परीक्षाएं रद्द हुई और पूरे साल भर यही स्थिति थी। तमाम महामारी से जुड़े वैज्ञानिक, डॉक्टर और स्वयं सरकारें बोलती रहेगी स्थिति अभी कुछ दिन ऐसी ही रहेगी। ऐसे में पूरे देश का भारी-भरकम स्कूल शिक्षा विभाग क्या कर रहा था? क्यों उसने मूल्यांकन का कोई नया तरीका या नई विधा विकसित करने की नहीं सोची? परीक्षाएं रद्द कर देना एक तरीके है अपनी जिम्मेदारी से भागने का।
मूल्यांकन का कोई न कोई तरीका खोजा जाना चाहिए था। बड़ी कक्षाओं की परीक्षाएं रद्द करना बहुत ही गलत निर्णय है। आप भले महामारी की आड़ ले लीजिए लेकिन रद्द हुई परीक्षाओं ने पूरी व्यवस्था की पोल खोल दी है। अभी जो विद्यार्थी कक्षा ग्यारहवीं जैसी महत्वपूर्ण कक्षा में दाखिल हुए हैं उनका स्कूली शिक्षा में अभी तक कोई वास्तविक मूल्यांकन हुआ ही नहीं है ।
सी.बी.एस.ई. और राज्यों के शिक्षा बोर्ड यह कर सकते थे कि कम से कम कुछ ही महीने पहले जब उसने परीक्षा फॉर्म ऑनलाइन भरवाए थे तब परीक्षा फॉर्म भरने वाले विद्यार्थियों से उसकी आवश्यक जानकारी जैसे मोबाइल की उपलब्धता, इंटरनेट कनेक्शन आदि की स्थिति पूछकर मूल्यांकन को लेकर एक वास्तविक स्थिति जान सकता था।
सी.बी.एस.ई. बोर्ड में कक्षा दसवीं मैं इस साल 17 लाख से ऊपर विद्यार्थियों ने अपना पंजीयन कराया था तथा बारहवीं में यह संख्या चौदह लाख से ऊपर थी। सी.बी.एस.ई. अपने प्रत्येक वार्षिक परीक्षा का परीक्षा शुल्क लगभग पन्द्रह सौ रुपए लेता है।
अगर इन दोनों परीक्षाओं का शुल्क जोड़ा जाए तो वह पांच सौ करोड़ के आसपास होता है। इतने शुल्क लेने के बाद भी किसी तरह का कोई काम ना करना, क्या देश के बच्चों के साथ नाइंसाफी नहीं है? क्या देश की शिक्षा के साथ नाइंसाफी नहीं है?