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बॉलीवुड में बेटे की चाह हुई कम पर गोरे रंग की तरफ़ अब भी आकर्षण
11-Jun-2021 9:51 AM
बॉलीवुड में बेटे की चाह हुई कम पर गोरे रंग की तरफ़ अब भी आकर्षण

-गीता पांडे

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के आधर पर बीते 70 सालों में सैकड़ों फ़िल्मों में इस्तेमाल हुए डायलॉग्स की एक स्टडी में इसका जवाब दिया- हां भी और ना भी.

2.1 अरब डॉलर की भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री में हर साल सैकड़ों फ़िल्में बनती हैं और देश-विदेश में फैले लाखों भारतीय इन फ़िल्मों को पसंद करते हैं.

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बॉलीवुड कलाकारों के फैन्स उन्हें पसंद करते हैं, उनकी अच्छी सेहत की कामना करते हैं, कहीं-कहीं तो उनके नाम के मंदिर बनाते हैं और फैन्स उनके नाम पर अपना ख़ून भी दान करते हैं.

लेकिन बीते सालों में प्रतिगामी विचारों, महिला विरोधी भावना, रंगभेद और महिलाओं के प्रति भेदभाव के लिए बॉलीवुड इंडस्ट्री की काफी आलोचना भी हुई है. लेकिन सामाजिक भेदभाव के पैमाने पर फ़िल्म इंडस्ट्री कैसी रही है इस पर कोई स्टडी नहीं हुई.

अमेरिका के कार्नेजी मेलन यूनिवर्सिटी के कुणाल खादिलकर और आशिक़ुर ख़ुदाबख़्श इसी बारे में शोध करना चाहते हैं. इसके लिए उन्होंने साल 1950 से 2020 के सात दशकों के दौरान हर एक दशक की सौ ऐसी फ़िल्मों का चुनाव किया है जो कमर्शियल रूप से हिट मानी गई हैं.

खादिलकर और ख़ुदाबख़्श मानते हैं कि वो "खुद पक्के बॉलीवुड फैन्स" हैं. उन्होंने इन फ़िल्मों के सबटाइटल्स को एक ऑटोमेटेड लैंग्वेज प्रोसेसिंग सॉफ्टवेयर में अपलोड किया ताकि वो ये जान सकें कि क्या इन सालों में बॉलीवुड के डायलॉग्स में किस तरह का बदलाव आया है.

ख़ुदाबख़्श ने पेन्सिल्वेनिया के पीट्सबर्ग से फ़ोन के ज़रिए बीबीसी को बताया, "फ़िल्में समाज में मौजूद भेदभाव को दिखाने वाला आईना होती हैं और हमारी ज़िंदगी पर इनका बड़ा असर होता है. इस स्टडी के मनोरंजन के चश्मे से समझने की कोशिश कर रहे हैं कि बीते सत्तर सालों में भारत में स्थिति कितनी बदली."

दूसरे देशों की फ़िल्म इंडस्ट्री के मुक़ाबले बॉलीवुड को समझने के लिए खादिलकर और ख़ुदाबख़्श ने भारतीय फ़िल्मों के साथ-साथ हॉलीवुड की 700 फ़िल्में और ऑस्कर्स में विदेशी फ़िल्मों की कैटेगरी में नामांकित की गई समीक्षकों की तारीफ़ बटोर चुकी 200 फ़िल्मों को अपनी स्टडी में शामिल किया.

इस स्टडी में नतीजे चौंकाने वाले रहे हैं. स्टडी में उन्होंने पाया कि बॉलीवुड में भेदभाव तो है ही, कम ही सही, लेकिन हॉलीवुड में भी भेदभाव है. हालांकि दोंनों की इंडस्ट्री में बीते सत्तर सालों में सामाजिक भेदभाव धीरे-धीरे कम होता गया है.

खादिलकर ने बीबीसी को बताया, "सत्तर सालों में हमने काफी लंबा रास्ता तय किया है, लेकिन इस दिशा में हमें अभी और भी आगे जाना है."

शोधकर्ताओं का सवाल था कि क्या बॉलीवुड में परिवार में लड़कों को प्राथमिकता देने वाली विचारधारा और दहेज जैसी सामाजिक कुरीति को लेकर कोई बदलाव आया है. इस सवाल के जवाब में वक्त के साथ बड़ी गिरावट देखी गई है.

ख़ुदाबख़्श बताते हैं, "1950 से 60 के दशक में फ़िल्मों में पैदा होने वाले 74 फीसदी बच्चे लड़के थे. साल 2000 में ये आंकड़ा 54 फीसदी तक हो गया था. हम मान सकते हैं कि इस दौरान लिंगानुपात विषम रहा लेकिन ये गिरावट काफी बड़ी है."

वो कहते हैं कि भारत में बेटों की चाहत, दहेज की इच्छा से अधिक है. दहेज प्रथा को साल 1961 में एक क़ानून बना कर ख़त्म कर दिया गया था. लेकिन अब भी दर दस शादियों में से नौ शादियां अरेंज्ड मैरिज होती हैं और इनमें उम्मीद की जाती है कि वधु पक्ष कैश, गहने और तोहफ़े की शक्ल में वर को दहेज देगा. दहेज के कारण हर साल भारत में बड़ी संख्या में बहुओं की हत्या होती है.

ख़ुदाबख़्श कहते हैं, "जब हमने डेटाबेस देखा तो हमने पाया कि पुरानी फ़िल्मों में दहेज के साथ-साथ पैसा, कर्ज़, गहने, फ़ीस और उधार जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है जो दहेज प्रथा से संबंधित था. लेकिन आधुनिक फ़िल्मों में हिम्मत और इनकार जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है. साथ ही इन फ़िल्मों में दहेज प्रथा का पालन न करने की सूरत में तलाक और परेशानी जैसे शब्दों का भी इस्तेमाल देखा गया है."

स्टडी में ये भी सामने आया है कि कुछ भेदभाव वक्त के साथ बदले ही नहीं, जैसे कि गोरे रंग के प्रति झुकाव का पुराना पूर्वाग्रह.

खादिलकर ने कहा इस संबंध में उन्होंने रिक्त स्थन भरो जैसे एक अभ्यास का इस्तेमाल किया था.

उन्होंने सवाल किया, "एक सुंदर महिला का रंग ...... होना चाहिए." सवाल के जवाब में अधिकतर जवाब मिला "गोरा." हॉलीवुड फ़िल्मों के सबटाइटल्स में भी ऐसे ही नतीजे थे लेकिन ये पूर्वाग्रह कम था.

वो कहते हैं, "स्टडी में सामने आया कि बॉलीवुड के लिए सुदंरता का सबसे क़रीबी मतलब हमेशा से गोरा रंग ही रहा है."

'पुराने ढर्रे को छोड़ने का डर'

स्टडी में ये भी पता चला है कि बॉलीवुड की फ़िल्मों जाति को लेकर भी एक तरह का भेदभाव है. स्टडी के अनुसार फ़िल्मों में डॉक्टर "अधिकतर ऊंची जाति के हिंदू होते हैं." लेकिन वक्त के साथ दूसरे धर्म के लोगों को भी इस भूमिका में दिखाया गया है. लेकिन देश के सबसे अधिक संख्या वाले अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को इस भूमिका में कम ही दिखाया गया है.

फ़िल्म समीक्षक और 'फ़िफ्टी फ़िल्म्स दैट चेंज्ड बॉलीवुड' की लेखिका शुभ्रा गुप्ता इसका कारण बताते हुए कहती हैं, "ऐसा इसलिए क्योंकि अधिकांश निर्माता ऊंची जाति, उच्च वर्ग और प्रभावशाली धर्म को अपने दर्शकों के तौर पर देखते हैं और ऐसे में इन भूमिकाओं में इन्ही वर्ग से जुड़े लोगों को देखते हैं."

शुभ्रा गुप्ता इंडियन एक्सप्रेस नाम के अख़बार में नियमित तौर पर लिखती हैं. वो "प्रतिगामी विचारों, महिला विरोधी भावना और पुरुषसत्तात्मक फ़िल्मों" के बारे में लिखती हैं.

वो कहती हैं कि बॉलीवुड फ़िल्मों में हीरो बड़ा किरदार होता है जिसके नाम को देखें तो वो अधिकांश मामलों में हिंदू नाम होता है. फ़िल्मों में मुलसमान कम ही दिखते हैं और दिखते भी हैं तो ये रूढ़िवाद से भरे किरदार होते हैं.

भारत में सिनेमा देखने जाने वाले अधिकतर लोग उसमें चोंकाने वाले दृश्य, नाच और गीत तलाशते हैं और इसलिए निर्माता भी इसी सांचे के अनुसार ही फ़िल्में बनाते हैं.

बीच-बीच में ऐसी फ़िल्में आती रहती हैं जो आपको सर्प्राइज़ कर देती हैं. लेकिन फिर ऐसी एक फ़िल्म के मुक़ाबले दस ऐसी फ़िल्में होती हैं जो पुराने ढर्रे पर बनी होती हैं.

शुभ्रा गुप्ता कहती हैं, "ये इंडस्ट्री जोखिम लेने से डरती है. फ़िल्म निर्माताओं का कहना है कि वो वही फ़िल्में बनाते हैं जो दर्शक पसंद करते हैं. उन्हें ये चिंता सताती है कि फैन्स से मुंह मोड़ लिया तो उन का क्या होगा?"

वो कहती हैं कि अगर हम कोरोना महामारी के दौरान ओटीटी प्लेटफॉर्म पर लोकप्रिय हो रही फ़िल्मों और सीरिज़ को देखें तो कहा जा सकता है कि "बदलाव लाना मुश्किल नहीं है."

वो कहती हैं, "महामारी ने ये बता दिया है कि दर्शक अब पारंपरिक रूढ़ियों से हट कर अलग चीज़ें देखने के लिए तैयार हैं. और जब दर्शक कहें कि उनके पास शक्ति है, वो अलग तरह के कंटेन्ट की मांग करें तो फ़िल्म निर्माताओं को बेहतर फ़िल्में बनानी होंगी. इसके बाद बॉलीवुड को भी बदलना ही होगा." (bbc.com)

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