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छत्तीसगढ़ एक खोज : इक्कीसवीं कड़ी : माधव राव सप्रे
12-Jun-2021 1:37 PM
छत्तीसगढ़ एक खोज : इक्कीसवीं कड़ी : माधव राव सप्रे

-रमेश अनुपम
यह मेरे लिए एक अत्यंत सुखद और दुर्लभ संयोग ही है कि जब मैं माधव राव सप्रे पर केंद्रित इक्कीसवीं कड़ी का शुभारंभ करने जा रहा हूं, इसके ठीक छ: दिन बाद ही 19 जून को उनकी एक सौ पचासवीं जयंती पूरे देश भर में मनाई जाएगी।

निश्चित ही छत्तीसगढ़ प्रदेश भी इस अवसर पर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करेगा क्योंकि उसके इस सपूत ने इस प्रदेश का नाम पूरे देश में रौशन किया है।

माखन लाल चतुर्वेदी, द्वारका प्रसाद मिश्र, सेठ गोविंद दास, महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसी विभूतियां जिनसे अनुप्रेरित होने में अपना सौभाग्य मानती रही हैं, ठाकुर जगमोहन सिंह, जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’ जैसे लेखक जिसकी मित्रता पर गर्वित होते रहे हों, ऐसे महामानव माधव राव सप्रे को एक सौ पचासवीं जयंती के अवसर पर नमन करना हम सबका परम कर्तव्य बनता है।

मात्र चार वर्ष की उम्र से ही अपने पिता तुल्य भाई बाबूराव की उंगली थामकर छत्तीसगढ़ की भूमि पर पांव धरने वाले माधव राव सप्रे आजीवन छत्तीसगढ़ के होकर ही रह गए। छत्तीसगढ़ उनकी सांसों में धडक़ता था, रायपुर उनके हृदय में बसता था।

माधव राव सप्रे विलक्षण व्यक्तित्व के धनी थे। वे कोई साधारण मानव नहीं, अपितु एक महामानव थे, जिन्होंने इस देश के लिए अपना तन-मन-धन सब कुछ न्यौछावर कर दिया। 

जिन्होंने कभी अपने लिए फूलों भरे पथ की चाह नहीं की, बल्कि कांटों भरे मार्ग का चुनाव किया। उन्हेें  कांटों भरे मार्ग पर चलना ही जीवनपर्यंत प्रिय रहा।

‘एकला चलो रे’ जैसे उनके जीवन का सबसे प्रिय मंत्र था। यही कारण है कि वे जीवन भर अपने मार्ग पर एकाकी चलते रहे, उन्होंने कभी अपने लाभ या हानि की परवाह नहीं की, कभी अपने व्यक्तिगत सुख को महत्व नहीं दिया।

छत्तीसगढ़ के एक छोटे से कस्बे पेंड्रा रोड से सन् 1900 में 

‘छत्तीसगढ़ मित्र’ जैसा एक मासिक पत्र निकालने का दुस्साहस केवल माधव राव सप्रे  ही कर सकते थे। सन् 1900 में पेंड्रा रोड से किसी मासिक पत्र का प्रकाशन ही अपने आप में किसी असाधारण घटना से कम नहीं है।

‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन हिंदी पत्रकारिता के इतिहास का आज एक स्वर्णिम अध्याय बन चुका है। 

एक परतंत्र देश में स्वतंत्रता का अलख जगाने के उद्देश्य से किए गए इस महान कार्य को शब्दों में बयान करना किसी के लिए भी संभव नहीं है।

सन् 1900 से लेकर सन् 1902 तक पेंड्रा रोड से लगातार तीन वर्षों तक एक मासिक पत्र का प्रकाशन केवल एक व्यक्ति की जिद और जुनून का ही परिणाम था और वह व्यक्ति थे माधव राव सप्रे।

‘छत्तीसगढ़ मित्र’  में पंडित रामराव चिंचोलकर के साथ संपादक के रूप में माधव राव सप्रे बी.ए. का नाम प्रकाशित होता था पर सच कहा जाए तो संपादक का भार अकेले माधव राव सप्रे के कंधों पर ही टिका हुआ था। 

प्रोप्राइटर के रूप में वामन बलि राव लाखे बी.ए.का नाम जाता था। इस पत्रिका का वार्षिक मूल्य डेढ़ रुपया रखा गया था। पहले वर्ष के मुद्रक थे कय्यूमी प्रेस रायपुर।

आज ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ अपने आप में एक इतिहास बन चुका है। पेंड्रा रोड को पूरे देश में इसी मासिक पत्र के चलते ही जाना जाता है। 

माधव राव सप्रे पेंड्रा रोड कैसे पहुंचे ? इसकी भी अपनी एक अलग कहानी है।

पेंड्रा रोड के राजकुमार को अंग्रेजी सीखने के लिए एक अच्छे शिक्षक की जरूरत थी। जिन दिनों राजकुमार रायपुर के राजकुमार कॉलेज में पढ़ रहे थे उस समय माधव राव सप्रे उनके हिंदी ट्यूटर हुआ करते थे, इस तरह वे पूर्व से ही एक दूसरे से भली-भांति परिचित थे। पचास रुपए मासिक पर माधव राव सप्रे ने यह कार्य स्वीकार कर लिया और पेंड्रा रोड जाकर राजकुमार को अंग्रेजी सीखाने का मन बना लिया।

माधव राव सप्रे का उद्देश्य था इस पैसे से एक मासिक पत्र का प्रकाशन कर देश को जगाने का। माधव राव सप्रे जैसे मनीषी यह जानते थे कि हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से अंग्रेजों की बेडिय़ों में जकड़े हुए इस महादेश को जगाया जा सकता है। इस तरह ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के प्रकाशन का मार्ग प्रशस्त हुआ।

तीन वर्षों तक वे इस मासिक पत्र का नियमित प्रकाशन करते रहे। ‘छत्तीसगढ़ मित्र’  के इन छत्तीस अंकों के माध्यम से माधव राव सप्रे ने छत्तीसगढ़ सहित सम्पूर्ण देश को जिस तरह से जागृत करने का प्रयास किया, उसे यह देश कभी भूला नहीं सकता है।

( एक डेढ़ वर्ष पहले मैं अपने मित्र संजीव बख्शी के साथ पेंड्रा रोड स्थित राजकुमार की वह हवेली जहां माधव राव सप्रे पढ़ाने जाया करते थे, देख आया हूं। उस जगह को भी जहां माधव राव सप्रे निवास करते थे। पेंड्रा रोड स्थित  हवेली की तस्वीर यहां दी जा रही है। )

पेंड्रा रोड जाने से पहले ही माधव राव सप्रे का विवाह रायपुर के एक्स्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर लक्ष्मी राव शेवडे की सुपुत्री से सन 1889 में संपन्न हो चुका था। माधव राव सप्रे के ससुर ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर अपने दामाद के लिए नायब तहसीलदार की सरकारी नौकरी का प्रबंध भी  कर लिया था। 

वे चाहते थे कि उनका दामाद भी उनकी तरह ही सरकारी नौकरी में आ जाए। पर माधव राव सप्रे अंग्रेजों की चाकरी करने के लिए नहीं बने थे। उनकी मंजिल  अलग थी और रास्ते भी अलग थे।

देश के लिए कुछ कर गुजरने का जुनून जिसके भीतर अंगड़ाई ले रहा हो, उस नवयुवक को सरकारी नौकरी का प्रलोभन भला कैसे डिगा सकता था। उन्होंने इस सरकारी नौकरी के लिए अपने ससुर को साफ-साफ मना कर दिया।

सन् 1898 में माधव राव सप्रे की पत्नी का निधन हो गया। माधव राव सप्रे अपनी पत्नी के निधन के पश्चात अकेले रह गए थे। पत्नी के निधन के आघात को झेलते हुए भी उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और हिसलाप कॉलेज नागपुर से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।

पिता तुल्य भाई बाबूराव के दबाव के चलते सन 1899 में माधव राव सप्रे को भंडारा के पंडित  गोविंद राव भाटवडेकर की सुपुत्री पार्वती से विवाह करने के लिए बाध्य होना पड़ा।

पेंड्रा रोड जाने से पहले वे पुन: विवाह सूत्र में बंध चुके थे।

सन् 1902 के पश्चात ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन
सन् 1902 के पश्चात ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन बंद हो जाने से माधव राव सप्रे बहुत आहत हुए पर उन्होंने थक कर चुपचाप बैठ जाना कभी स्वीकार नहीं किया। उनके जीवन का मिशन तो पत्रकारिता के माध्यम से देश को जागृत करना था।

सो सन् 1905 में माधव राव सप्रे नागपुर चले गए। वहां जाकर उन्होंने हिंदी ग्रंथ प्रकाशन मंडली की स्थापना की। सन् 1906 से ‘हिंदी ग्रंथ माला’ मासिक पत्रिका के रूप में नागपुर से प्रकाशित होने लगा। ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ की जगह अब  ‘हिंदी ग्रंथ माला’ ने ले लिया था।
(शेष अगले हफ्ते)

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