संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : देश की सोच अब कोरोना माता के मंदिर बनाने की ही रह गई है
12-Jun-2021 5:39 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : देश की सोच अब कोरोना माता के मंदिर बनाने की ही रह गई है

उत्तर प्रदेश में एक गांव में कोरोना मौतें हुईं तो गांववालों ने वहां कोरोना माता का मंदिर बना लिया। बाद में प्रशासन को वहां पूजा के लिए जुटते हुए लोग दिखे तो वह मंदिर गिराया गया और उसका मलबा गांव के बाहर फिंकवाया गया। लेकिन उत्तर प्रदेश के इस गांव से परे भी देश में कुछ और जगहों से ऐसी खबरें आई हैं कि कोरोना का मंदिर बनाया गया है और उसकी पूजा शुरू हो गई है। अब हिंदुस्तान की आबादी के बड़े हिस्से की सोच अगर देखें तो उसमें बीमारियों को लेकर दैवीय प्रकोप की बात लंबे समय से चलती है। यह आदिवासी समाज में तो चलती ही है, शहरी समाज में भी चलती है, जहां चेचक जैसी संक्रामक बीमारी को माता की बीमारी नाम दिया गया था और दो अलग-अलग किस्म के संक्रमणों के लिए छोटी माता और बड़ी माता ऐसा आज भी बोलचाल में प्रचलन में है। जब लोग चेचक से किसी के चेहरे पर आए हुए दाग की चर्चा करते हैं तो वैसे लोगों को माता दाग वाले ही कहा जाता है। इसलिए संक्रामक रोगों को ईश्वर से जोडऩा या ईश्वर के प्रकोप से जोडऩा इस देश में बहुत लंबे समय से चले आ रहा है। देश में जो बीमारियां खत्म हो चुकी हैं उनके लिए भी बहुत से समाजों में महिलाएं साल में एक बार माता की पूजा करती हैं, और ठंडा खिलाती हैं, पहली रात को खाना बनाकर रख दिया जाता है और अगले दिन घर में कुछ गर्म पकाए बिना उस ठंडे को खाया जाता है। जिस तरह हर धार्मिक रीति रिवाज के पीछे लोग एक वैज्ञानिक आधार होने की बात करने लगते हैं, वैसे ही इस ठंडा खाने के पीछे भी वैज्ञानिक आधार बता दिया जाता है। यह एक अलग बात है कि इस खाने से किसी का नुकसान नहीं होता, और न किसी की बलि देनी पड़ती। इस तरह हिंदुस्तान में संक्रामक रोगों को देवी देवताओं से जोडक़र चलने का सिलसिला पुराना है और उसी की ताजा कड़ी की शक्ल में कोरोना माता का मंदिर है। 

लोगों को याद होगा कि भारत के हिंदू धर्म के परंपरागत देवी देवताओं से परे बीच-बीच में कुछ नए देवी देवताओं की लोकप्रियता भी बढ़ती है। जैसे आज से 50 बरस के करीब पहले एकाएक संतोषी माता का चलन बढ़ा, बहुत ही मान्यता फैली, और घर-घर में शुक्रवार को ना सिर्फ संतोषी माता की पूजा करके गुड़-चने का प्रसाद बांटा जाने लगा बल्कि उस दिन खट्टा खाने पर कट्टर मनाही लग गई थी क्योंकि संतोषी माता के बारे में कहा जाने लगा कि वे खट्टा पसंद नहीं करती हैं। हालत यह हुई कि संतोषी मां पर एक ऐसी फिल्म बनी जिसने उसके पहले के तमाम फिल्मों के रिकॉर्ड तोड़ दिए। उस फिल्म को देखना पूजा माना जाने लगा। हालत यह थी कि सिनेमा घर की टिकट खिडक़ी पर टिकट के साथ-साथ गुड़-चने का प्रसाद भी दिया जाता था। लोग धार्मिक भावना से भरे हुए इस फिल्म को देखने जाते थे, और वर्षों तक संतोषी माता की पूजा हिंदुओं के बीच होने वाली सबसे लोकप्रिय पूजा हो गई थी। बाद में धीरे-धीरे उस पूजा का चलन ही खत्म हो गया। 

इसलिए अब कोरोना महामारी के बाद अगर कोरोना माता की पूजा होने लगे, उसके मंदिर बनने लगें, तो लोगों को हैरान नहीं होना चाहिए क्योंकि आज आम हिंदुस्तानियों के अधिकतर तबके में सोच कुछ इसी किस्म की रह गई है। लोगों में वैज्ञानिक सोच को बुनियाद सहित उखाड़ दिया गया है, तमाम किस्म के धर्मांध टोटके खूँटे की तरह ठोक दिए गए हैं। कोरोना महामारी ने हिंदुस्तानियों की अवैज्ञानिक सोच का फायदा ना सिर्फ अभी इस पूजा-पाठ की शक्ल में उठाया है, बल्कि दवाओं से परहेज, वैक्सीन से परहेज की शक्ल में भी उठाया है। देश की आम सोच में वैज्ञानिक सोच कतरा-कतरा नहीं आ सकती, लोग किसी एक मामले में अंधविश्वासी और दूसरे मामले में वैज्ञानिक सोच वाले नहीं हो सकते। इसलिए आज देश की सोच पर एक अंधकार छाया हुआ है क्योंकि हाल के वर्षों में लगातार अवैज्ञानिक बातों को प्राचीन विज्ञान बताकर लोगों को गोबर और गोमूत्र के साथ उनके गले उतारा गया है। देखें आगे और कौन सी देवी की कथा शुरू होती है।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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