विचार / लेख

क्या भव्य मंदिरों, इबादतगाहों में सच में ईश्वर महसूस होते हैं?
16-Jun-2021 2:17 PM
क्या भव्य मंदिरों, इबादतगाहों में सच में ईश्वर महसूस होते हैं?

-कनुप्रिया

मुझे तो ईश्वर कहीं न मिले, न जयपुर के बिड़ला मंदिर में मिले, न नाथद्वारा में, न सोमनाथ में, न द्वारिका में, न जगन्नाथपुरी में, न अमरकंटक में, न अजमेर की दरगाह में, न लद्दाख लाहौल स्पीती के बौद्ध मठों में, न यूरोप के चर्चों में मिले, न वैटिकन सिटी में। सब जगहें दर्शनीय थीं, सबका अपना स्थापत्य, अपनी कलात्मक खूबसूरती, सबके अपने कर्मकांड, दर्शन की रेलमपेल, प्रसाद चढ़ावों का बाजार, ईश्वर मिले तो मन में मिल जाए। वरना कहीं न मिले। 

हाँ भारत में मंदिरों के भक्ति बाजारों के आसपास इतनी गंदगी जरूर मिली कि वो अच्छे पर्यटक स्थल भी न बन पाएँ। 
 
स्वर्ण मंदिर गुरुद्वारा मुझे पसंद आया था, मगर उसका कारण वहाँ की सामुदायिकता की भावना थी, बुजुर्गों का वहाँ कुछ काम, कुछ आराम करते हुए दिन बिताना, सबका मिलजुलकर लंगर में योगदान देना और बिना जाति धार्मिक भेदभाव के साथ बैठकर खाना। मुझे लगता है कि धार्मिक स्थलों का यदि समाज में कोई योगदान है और हो सकता है तो वह बेसहारा लोगों के आश्रय, खाने-पीने, बुजुर्गों के समय बिताने और सामूहिकता की भावना के लिये ही। मगर वही धार्मिक स्थल अगर किसी मुसलमान बच्चे को पानी पीने भर के लिए पीट-पीटकर अधमरा कर दें तो ईश्वर का उन मन्दिरों में रहना शर्मनाक है, वो फिर पूजने लायक तो बिल्कुल नहीं है। और इसीलिये कभी-कभी इबादतगाहों और पूजाघरों से वितृष्णा सी होने लगती है, जगन्नाथपुरी लिखता है यहाँ हिंदुओं के सिवा कोई नहीं घुसेगा, कितनी ही मस्जिदों में स्त्रियाँ स्वीकार नहीं हैं, कितने ही मंदिरों में भी, दलितों के लिये तो उनके दरवाजे बहुत बाद में खुले, ईश्वर के घरों में इतना भेदभाव? 

ऊपर से जब सुनते हैं कि फलाँ बौद्ध मठों को उजाडक़र मंदिर बनाए गए, फलाँ मंदिर को तोडक़र या फलाँ चर्च को खरीदकर मस्जिद बनाई गई, बाबरी मस्जिद को तोडक़र मंदिर बनाया तो समझ नहीं आता कि यह मासूम आस्था है जो जरा-जरा बातों पर आहत हो जाती है, या धर्म आस्था के खुले मैदान में अपनी धार्मिक सत्ता का झंडा लहराना है। 

क्या पूरी दुनिया में आपको जमीन नहीं मिली जो आपने दूसरों के आस्था केंद्रों को तोड़ा, खरीदा, कब्जा किया, ढहाया? 

कितने ही दंगे करवाकर, न्याय व्यवस्था को ताक पर रखकर, लोगों से जबरन चंदे उगहाकर,  राम के नाम पर आतंक मचाकर, और अब घोटाले तक करके जो ये राम मंदिर बन रहा है, राम होते तो पूछती क्या वाकई यहाँ रहोगे और पूजा भी करवाओगे अपनी? मन करेगा? या आत्मा धिक्कारेगी।  जो सियाराम लोगों के दिलों में बसते थे, उन्हें वहाँ से निकलकर, जिस शत्रुनाशक श्री राम को इन धर्म के ठेकेदारों ने अपनी सत्ता का द्वारपाल बनाया है वो इनका ईश्वर है कि इनका कैदी, ये तो राम ही बता सकते हैं। कुल मिलाकर अयोध्या वाली गत अगर काशी-मथुरा की भी होने वाली है तब धर्म अपने सबसे विकृत रूप में इस देश में रहने वाला है।

इंसानियत से मुँह मोडक़र धर्म अपने अस्तित्व के लिए अगर सत्तामुखी हो जाएँ तो अस्तित्व की यह कवायद समझिये इस भौतिक जगत तक ही सीमित है, ऐसे धर्मों का किसी अभौतिक ईश्वर से फिर भला क्या लेना-देना है?

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