संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आज एक छोटी सी, लेकिन बहुत जरूरी बात पर चर्चा
21-Jun-2021 5:56 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय  : आज एक छोटी सी, लेकिन  बहुत जरूरी बात पर चर्चा

हिंदुस्तान के अधिकतर हिस्सों में बोलचाल में गालियों का खूब चलन है। और यह बात महज बड़े लोगों के बीच नहीं हैं, बल्कि छोटे-छोटे बच्चे भी सडक़ों पर गालियां देते दिखते हैं और मां-बहन की गंभीर गालियां देते हैं। इतने छोटे बच्चे एक दूसरे की मां-बहन को लेकर सेक्स की गंदी गालियां देते हैं जिसका शायद वह मतलब भी ठीक से नहीं समझ पाते होंगे। लेकिन इनका मतलब यही है कि इन बच्चों के आसपास कोई बड़े लोग इस तरह की गालियां देते ही हैं और उन्हीं से सीखी हुई गालियां कुछ बच्चे शुरू करते हैं, और बाद में बाकी बच्चे उन्हें आगे बढ़ाते हैं। दिक्कत महज इन गालियों की नहीं है जिन्हें सुनते हुए आसपास भले लोगों को, या महिलाओं को और लड़कियों को वहां से गुजरना भी मुश्किल पड़ता हो, या वहां खड़े रहना मुश्किल पड़ता है, दिक्कत इससे आगे की है। जो हमलावर हरकत और सेक्स की गालियां छोटे-छोटे बच्चे देते हैं, वे उनके दिल दिमाग में बैठी रहती हैं। इसका असर यह होता है कि जब भी वे बड़े होते हैं और किसी लडक़ी के साथ छेडख़ानी या अधिक गंभीर सेक्स अपराध करने की कोशिश करते हैं, तो उनके दिमाग में लड़कियों और महिलाओं के साथ बलात्कार करने को लेकर कोई झिझक नहीं रहती। वह बरसों से, अपनी कम उम्र से, किसी दूसरे की मां बहन को लेकर सेक्स की गालियां इतनी दे चुके रहते हैं कि उनके लिए किसी के साथ सेक्स की ज्यादती करने में कोई झिझक नहीं रह जाती। इसलिए गालियों को महज गालियां मान लेना और उन्हें बदजुबान मान लेना काफी नहीं है। समाज में जब वह बच्चे गालियों से शुरुआत करते हैं और जाहिर तौर पर एक दूसरे की मां बहन को लेकर गालियां देते हैं, या खेल खेल में बिना किसी की मां-बहन को संबोधित किए हुए हवा में गालियां निकालते रहते हैं, क्रिकेट की गेंद को मां-बहन की गाली देते हैं, किसी स्कूटर या कार को मां-बहन की गाली देते हैं तो उसका नतीजा यही होता है कि किसी महिला के साथ सेक्स को लेकर संवेदनशीलता पूरी तरह से खत्म हो जाती है और वह उन्हें अपने अधिकार की बात लगने लगती है।

हिंदुस्तान कहने को अपनी संस्कृति पर बहुत गर्व करने वाला देश है लेकिन आज उसकी आम संस्कृति यह है कि सार्वजनिक जगहों पर लोग खूब गंदी-गंदी गालियां देते हैं, और कल परसों छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में जिस तरह एक कांग्रेस नेता ने सडक़ पर एक ट्रैफिक सिपाही को पेट भर कर मां की गालियां दी हैं, अपनी बीवी की मौजूदगी में गालियां दी हैं, वही हिंदुस्तान की असल संस्कृति रह गई है। जो लोग अधिक समझदार और जिम्मेदार हैं वे सार्वजनिक रूप से गालियां नहीं देते लेकिन आपसी बातचीत में वह मौजूदा लोगों को देखकर जहां गुंजाइश रहती है वहां गालियां देकर अपनी भड़ास निकालते हैं। जो लोग बंद कारों में अकेले चलते हैं वह भी ट्रैफिक की दिक्कतों को लेकर बंद शीशों के भीतर किसी न किसी मां-बहन को गालियां देते रहते हैं, बड़बड़ाते रहते हैं। यह सिलसिला कम से कम सार्वजनिक जगहों पर पूरी तरह खत्म होना चाहिए क्योंकि हिंदुस्तान में ऐसे काम के लिए सजा का इंतजाम किया गया है। दिक्कत यह है कि कुछ लोगों की ऐसी गालियों के खिलाफ अगर पुलिस को बुलाया जाए, तो वह लाठी से हांकते हुए इससे भी बुरी गालियां देने लगती है। नतीजा यह होता है कि सार्वजनिक जगह पर गंदी जुबान को रोकने का मकसद ही हार जाता है।

कुछ लोगों को यह बात अटपटी लग सकती है कि मां-बहन की गालियां देने वाले क्या सचमुच ही बलात्कारी हो सकते हैं, लेकिन यह बात समझना चाहिए कि भाषा लोगों के दिल-दिमाग पर गहरा असर करती है। जिन परिवारों में और जिन समुदायों में बच्चों की भाषा को ठीक रखने की कोशिश की जाती है वहां बच्चों की हरकतें भी अपने आप ठीक होने लगती हैं। यह सिलसिला लंबा चलता है, लेकिन समाज की बेहतरी कोई छोटा काम नहीं है जो कि तेजी से करके जल्दी निपटाया जा सके। लोगों को यह ध्यान रखना चाहिए कि उनकी खुद की जुबान ठीक रहे और आसपास अगर वे किसी को गंदी जुबान इस्तेमाल करते देखें तो टोकने से ना चूकें। बहुत से लोग बीच में पडऩे से परहेज करते हैं कि कौन उलझे, लेकिन लोगों को यह याद रखना चाहिए कि सार्वजनिक जगहों पर अगर इतनी गंदी भाषा इस्तेमाल हो रही है कि वहां से लड़कियां और महिलाएं निकलने में भी हिचकें  तो यह समाज की एक सामूहिक हार रहती है और लोगों को अपनी सामूहिक जिम्मेदारी, सामाजिक जिम्मेदारी से मुंह नहीं चुराना चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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