संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट के हुक्म से भी इस कदर बेपरवाह सरकारें
हिंदुस्तान एक बड़ा अजीब सा लोकतंत्र हो गया है जहां पर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के दिए हुए आदेश भी अमल में लाने से सरकारें लंबे समय तक कतराती हैं। अभी दो-चार दिन पहले ही उत्तर प्रदेश सरकार के बारे में वहां के हाईकोर्ट ने यह कहा कि हम यह समझ नहीं पा रहे हैं कि सरकार हमारे आदेश पर अमल करने से कतराती क्यों हैं? और कल सुप्रीम कोर्ट के सामने यह मुद्दा आया कि सूचना तकनीक कानून की जिस विवादास्पद धारा 66-ए को उसने 2015 में ही निरस्त कर दिया था, उसी धारा के तहत देश भर में आज भी मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं। एक जनहित याचिका पर फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आईटी एक्ट के सेक्शन 66-ए को असंवैधानिक घोषित किया था, और तबसे अब तक पूरे देश में हजारों मामले इसी धारा के तहत दर्ज होते आ रहे हैं, अब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस देकर इस पर जवाब मांगा है। किसी लोकतंत्र में यह कल्पना आसान नहीं है कि देश की सबसे बड़ी अदालत किसी कानून की किसी धारा को असंवैधानिक घोषित कर दे और 6 साल बाद तक पूरे देश भर की पुलिस उसके तहत मुकदमे दर्ज करती रहे।
लोगों को यह मामला याद होगा कि आईटी एक्ट के तहत बहुत से लोगों पर इस बात को लेकर राज्यों की पुलिस कार्रवाई कर रही थी कि उन्होंने सोशल मीडिया पर या किसी को भेजे गए संदेश में किसी के लिए अपमानजनक मानी जाने वाली बात लिखी, या कोई आपत्तिजनक बात लिखी, या कोई झूठी सूचना भेज दी, या अपनी पहचान छुपाकर कुछ भेज दिया। ऐसे में पुलिस अंधाधुंध मामले दर्ज कर रही थी, और थाने के स्तर पर ही यह तय होने लगा था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहां लागू नहीं होती है। ऐसे में कानून की एक छात्रा ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी और उस छात्रा की व्याख्या के मुताबिक अदालत ने इस धारा को असंवैधानिक माना और खारिज कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कोई सामग्री या संदेश किसी एक के लिए आपत्तिजनक हो सकता है, और दूसरे के लिए नहीं। उस वक्त के जज जस्टिस जे चेलमेश्वर और जस्टिस रोहिंटन नरीमन की बेंच ने यह कहा था कि यह प्रावधान संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को प्रभावित करता है क्योंकि 66ए का दायरा बहुत बड़ा है और ऐसे में कोई भी व्यक्ति इंटरनेट पर कुछ भी पोस्ट करने से डरेंगे, इस तरह या धारा फ्रीडम आफ स्पीच के खिलाफ है, यह विचार अभिव्यक्ति के अधिकार को चुनौती देती है। ऐसा कहते हुए अदालत ने इस एक सेक्शन को असंवैधानिक करार दे दिया था।
अब सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर हैरानी जाहिर की है कि जब इस कानून के मूल ड्राफ्ट में भी 66ए के नीचे लिखा गया है कि सुप्रीम कोर्ट इसे निरस्त कर चुका है, तो पुलिस इसे क्यों नहीं देख पा रही है। अदालत ने हैरानी जाहिर करते हुए 2 हफ्ते में केंद्र सरकार से जवाब मांगा है और कहा है कि अदालत इस पर कुछ करेगी। इस बार की यह नई जनहित याचिका पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज पीयूसीएल ने लगाई थी और केंद्र सरकार को यह निर्देश देने की मांग की थी कि देश के तमाम थानों को एडवाइजरी जारी करें कि आईटी एक्ट की धारा 66ए में केस दर्ज न किया जाए। पीयूसीएल के वकील ने अदालत को बताया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के 6 बरस बाद भी देश में अभी हजारों केस इसी धारा के तहत दर्ज किए गए हैं।
दरअसल हिंदुस्तानी लोकतंत्र का मिजाज कुछ इस तरह का हो गया है कि सत्ता को जो बात नापसंद हो, उस बात को लेकर लगातार पुलिस का इस्तेमाल एक औजार और एक हथियार की शक्ल में किया जाता है और लोगों को परेशान करने की नीयत से उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज किए जाते हैं। हमारे हिसाब से तो सुप्रीम कोर्ट के 6 बरस पहले के बहुत साफ-साफ फैसले का जितना प्रचार-प्रसार हुआ था, उससे भी राज्यों के महाधिवक्ताओं की यह जिम्मेदारी हो गई थी कि वे अपनी सरकारों को इसकी जानकारी ठीक से दें और राज्य के सभी पुलिस अधिकारियों की यह जिम्मेदारी हो गई थी कि इस धारा के तहत कोई जुर्म दर्ज न किया जाए। ऐसे में यह देखने की जरूरत है कि जिन सरकारों की अदालत की तौहीन करते हुए ऐसी हिमाकत करने की सोच रही है, उन्हें कटघरे में क्यों न खड़ा किया जाए? इस बात में क्या बुराई है अगर जिम्मेदार आला अफसरों को सुप्रीम कोर्ट व्यक्तिगत रूप से कटघरे में दिनभर खड़ा रखें और उसके बाद इनको जो सजा देना ठीक लगे वह दे। कटघरे में गुजारा गया एक दिन राज्यों के बड़े बड़े अफसरों को, और केंद्र सरकार की भी पुलिस को, अपनी याददाश्त बेहतर बनाने में मदद करेगा।
अभी कुछ महीने पहले ही एक और मामला सामने आया था जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने याद दिलाया था कि राजद्रोह के नाम पर जो मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं उनके खिलाफ तो सुप्रीम कोर्ट का कई दशक पहले का एक फैसला ऐसा आया हुआ है जो बतलाता है कि किस तरह के मामलों में राजद्रोह का जुर्म नहीं बन सकता, लेकिन उसके दशकों बाद भी आज तक इस देश में बात-बात पर टुटपुँजिया मुद्दों को लेकर नौजवानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर, बूढ़े लोगों और विचारकों पर, लगातार राज्य द्रोह के मुकदमे दर्ज होते जा रहे हैं। कुछ महीने पहले जब सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया और उसमें यह बात लिखी तो उस वक्त भी हमें हैरानी हुई कि यह फैसला केंद्र और राज्य सरकारों को संबोधित करते हुए एक स्पष्ट आदेश क्यों नहीं दे रहा है, और क्यों यह कई दशक पहले के एक आदेश का हवाला भर देकर वहां रुक जा रहा है? अदालतों को केंद्र और राज्य सरकारों से निपटते हुए लोकतांत्रिक रुख अख्तियार करना होगा जिसके तहत सरकारों की जवाबदेही बढ़ानी होगी और अफसरों की या नेताओं की मनमानी को खत्म करना होगा। देश में लोकतंत्र की बुनियादी समझ तो हर किसी को रहना चाहिए और उसे बुरी तरह से कुचलते हुए जब लोग इस तरह कानून का बेजा इस्तेमाल करते हुए लोकतांत्रिक अधिकारों को खत्म कर रहे हैं तो सुप्रीम कोर्ट को लोगों को बचाने के लिए सामने आना चाहिए।
अभी 2 दिन पहले देश के एक सबसे बुजुर्ग सामाजिक कार्यकर्ता फादर स्टेन स्वामी के गुजरने पर एक बार फिर यह बात तल्खी के साथ याद आई कि कुछ महीने पहले जब उनकी तरफ से अदालत में यह अर्जी दी गयी कि 84 बरस की उम्र में गंभीर बीमारियों के शिकार रहते हुए उनके हाथ कांपते हैं और गिलास से पानी उन पर गिर जाता है, तो उन्हें पानी पीने का प्लास्टिक का पाइप दिया जाए, और किस तरह जांच एजेंसी ने इसका विरोध किया था और किस तरह अदालत ने उनकी इस मांग को जरूरी, या सही नहीं माना था। अदालतें सरकारों और जांच एजेंसियों की मनमानी के आगे बहुत नरमी बरत रही हैं, और जनता के अधिकारों को बचाने वाली और कोई संस्था तो देश में है नहीं। मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग, अनुसूचित जाति, जनजाति आयोग, या बाल कल्याण आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाएं सत्ता के मनोनीत और पसंदीदा लोगों से भरी रहती हैं, इसलिए वे भी जनता के अधिकारों को बचाने के लिए कुछ भी नहीं करतीं। जब पीयूसीएल जैसी संस्था बार-बार तरह-तरह की जनहित याचिकाएं लेकर अदालत में जाती है तब जनता के मुद्दों की सुनवाई होती है। सरकारों के खिलाफ जनहित याचिकाओं का यह सिलसिला एक जागरूक समाज की लोकतांत्रिक संस्थाओं का सबूत तो है, लेकिन यह उससे बड़ा सुबूत सरकारों के अलोकतांत्रिक हो जाने का भी है।