संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सौ बीमारी का एक इलाज, गर्व !
14-Aug-2021 1:35 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सौ बीमारी का एक इलाज, गर्व !

कीर्तिश भट्ट का कार्टून बीबीसी पर

हिंदुस्तान में गर्व करने के मौके बड़ी आसानी से आ जाते हैं। एक मौका टलता नहीं कि दूसरा खड़ा रहता है। अब जैसे कल आजादी की सालगिरह। जाहिर है कि किसी भी मुल्क को जब सैकड़ों बरस की गुलामी से आजादी मिली, एक के बाद दूसरे विदेशी हमलावर के कब्जे से छुटकारा मिला, तो मुल्क का अपने पर गर्व करना एक जायज हक की बात थी। यह एक अलग बात है कि करीब पौन सदी पहले जो आजादी मिली उस आजादी को खत्म करने में आज कोई कसर नहीं रखी गई है, और उस दिन 15 अगस्त 1947 को गर्व इस बात का था कि मुल्क आजाद हो रहा था, आज गर्व इस बात का है इस मुल्क के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जा रहे हैं, धर्म के नाम पर टुकड़े, जाति के नाम पर टुकड़े, पैसे के नाम पर टुकड़े, खानपान और पहनावे के नाम पर टुकड़े। और मजे की बात यह है कि इस पर भी गर्व है। पौन सदी पहले जो एक धर्मनिरपेक्ष देश बनाया गया था, उस देश में आज गर्व से यह कहने के लिए कि कोई एक तबका हिंदू है, लोगों को यही राष्ट्रीय गौरव हासिल हो गया है। दूसरे लोगों को मार-मारकर, सडक़ों पर भीड़ की शक्ल में पीटकर और मार डालकर भी अगर उनसे अपने ईश्वर का नाम लिवाया जा रहा है, तो अपनी इस आजादी पर, और दूसरों की उस बेबसी पर लोगों को गर्व है। और गर्व का यह सिलसिला थम नहीं रहा है। गर्व से कहो हम हिंदू हैं का यह गर्व बढ़ते-बढ़ते इतना खूनी हो गया है कि जिस ईश्वर को इस हिंदू धर्म का प्रतीक बना लिया गया है वह खुद ही शर्म से डूब रहा है कि यह किन लोगों के बीच वह फंस गया है। फिर भी उसे फंसाकर भी लोग गर्व से फूले नहीं समा रहे हैं और अपनी इस आजादी पर उन्हें खूब गर्व है। गर्व का यह सिलसिला अपनी आजादी का कम है और दूसरों की गुलामी पर कुछ अधिक है।

आज ऐसा नहीं कि लोगों की अपनी खुद की जिंदगी में तकलीफ कम है, लेकिन जब लोग देखते हैं कि जिन्हें उनका दुश्मन बताया जाता है, जिन्हें विधर्मी और विदेशी खून से उपजा हुआ बताया जाता है, वे जब अधिक तकलीफ में दिखते हैं, तो अपनी तकलीफ जाते रहती है। गर्व कुछ तो उनकी तकलीफ अधिक देखने का अधिक है। और फिर कुछ गर्व इन बातों का भी है कि अपना ईश्वर आज सब पर हावी है, अपना झंडा सबसे बड़े डंडे में लगा हुआ है। लोग गर्व करने के लिए दूसरों के खिलाफ नफरत को भी जोडऩे की एक बड़ी ताकत की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। नफरत ने लोगों को इतना जोड़ लिया है कि वह अपने इसी जोड़ पर फिदा है और दूसरों को सबक सिखाने पर आमादा है। यह कैसा गौरव है जिसे जिंदा रहने के लिए पड़ोस में कोई एक दुश्मन देश लगता है, क्योंकि दुश्मन के बिना यह गर्व जिंदा नहीं रह पाता। जिसे अपने देश के भीतर भी एक दुश्मन मजहब की जरूरत पड़ती है क्योंकि उसके बिना, उससे नफरत के बिना, अपना धर्म इतने बड़े गर्व का सामान नहीं बन पाता है, जितने बड़े गर्व की जरूरत लोगों को लग रही है। इसलिए एक दुश्मन देश और एक नापसंद धर्म, इन दो पर यह गर्व खड़े रह पाता है, लेकिन इनके बिना वह अदालत के कटघरे में एक मासूम गवाह की तरह फर्श पर बिछने लगता है।

यह सिलसिला देश के लोगों को अपनी तकलीफ भुलाने में मदद भी करता है। जब पेट्रोल-डीजल खरीदना अपने बस में नहीं रह गया, जब इलाज कराना और बच्चों को अच्छा पढ़ाना अपनी मर्जी में नहीं रह गया, अपने बस में नहीं रह गया, तो फिर वैसे में एक झूठा गर्व तमाम किस्म की तकलीफों पर मरहम की तरह लगाने के काम आता है। जब मन गर्व से भर जाता है तो उस फूलकर कुप्पा हुए जा रहे मन में किसी तकलीफ और मलाल की जगह ही नहीं रह जाती। गर्व ऐसे कई मौकों पर लोगों को तकलीफ भुलाने में मदद करता है, झूठी खुशी पाने में मदद करता है, दूसरों को नीचा दिखाने में मदद करता है, और अगर कोई दूसरी वजह ना रहे तो दूसरों के नीचे दिखने की वजह से अपने आपको ऊंचा पाने  के एहसास में भी मदद करता है।

लोगों को आज हिंदुस्तान की हालत को देखते हुए बहुत सी बातें समझ में नहीं आ रही है, लेकिन फिर भी उन्हें यह लग रहा है क्यों उन्हें गर्व के साथ जीना है। यह सिलसिला किसी देश के इतिहास में रहा हो, या ना रहा हो, वैसे काल्पनिक इतिहास को याद कर-करके, उस पर गर्व करते हुए जीना बड़ा आसान काम रहता है। लोगों को याद होगा कि जब नोटबंदी हुई थी, और उसमें गर्व के लायक कुछ नहीं मिल रहा था, तो एटीएम पर लगी कतारों को कारगिल के बर्फ में 6 महीने ड्यूटी करने वाले सैनिकों से जोडक़र एक गर्व का सामान जुटा लिया गया था। आज हिंदुस्तान का भाला फेंकने वाला एक नौजवान ओलंपिक से गोल्ड मेडल लेकर लौटता है, उस पर गर्व करना तो जायज है, लेकिन उसकी मेहनत में जब देश के खेल संगठनों ने, और देश की सरकार ने हाथ नहीं जुटाया था, तो उस जिम्मेदारी को उठाना तो भारी-भरकम काम होगा, तुरंत ही उसके भाले को इतिहास के महाराणा प्रताप के भाले से जोड़ देना एक आसान काम रहता है। और महाराणा प्रताप के उस भाले की तारीफ में किसी कविता की चार लाइनें और ढूंढकर उस पर भी गर्व किया जा सकता है। यह एक और बात है कि इतिहास के इस दौर में हिंदुस्तान के राजाओं की कहां-कहां शिकस्त हुई थी, और कैसे-कैसे हिंदुस्तान के राजा मुगलों की शरण में जाकर बचे थे, या जिन्होंने अंग्रेजों के पिट्ठू बनकर रहना मंजूर किया था, उसे याद करेंगे तो आज के गर्व का दूध फट जाएगा। इसलिए खटास की वैसी बातों को याद करना बेकार रहता है, और इतिहास के टुकड़ों में से कुछ चुनिंदा कतरे छांटकर उन पर गर्व कर लेना ठीक रहता है। आज नीरज चोपड़ा की तैयारी में भारत सरकार ने खानपान तक की मदद नहीं की थी यह सोचने से देश को गर्व करने में कुछ दिक्कत हो सकती है। लेकिन राणा प्रताप के भाले पर लिखी गई कविता को याद करना बेहतर है क्योंकि राणा प्रताप भारत सरकार से कोई खानपान का भत्ता भी तो नहीं मानते !

इसलिए हिंदुस्तान में आज ताकत का मनमानी इस्तेमाल करने की इजाजत रखने वाले तमाम तबकों को गर्व करने की बहुत सी वजह हैं, और जिन लोगों को 1947 में मिली आजादी को आज खो देना पड़ा है, ऐसे तबकों को यह मान लेने की काफी वजह हैं कि उन्हें हिंदुस्तान में किसी बात पर गर्व करने का भी कोई हक हासिल नहीं है।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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