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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : तालिबान अब एक हकीकत है, हिंदुस्तान संपर्क स्थापित करे
17-Aug-2021 5:09 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : तालिबान अब एक हकीकत है, हिंदुस्तान संपर्क स्थापित करे

अफगानिस्तान में हालात जिस तेजी से बदल रहे हैं, उसे देखते हुए अफगान जनता जिस तरह के खतरे से घिरी है, और वहां की किसी भी सरहद को पार करके पड़ोस के किसी भी देश चले जाना चाह रही है, कुछ वैसा ही असमंजस भारत सरकार के सामने भी आ खड़ा हुआ है। भारत अफगानिस्तान में आज काबिज तालिबान से बात करे या ना करे, और बात करें तो कैसे करे? तालिबानियों की सरकार को लेकर पूरी दुनिया में आज यह आशंका है कि उसमें इस्लामी कानूनों के नाम पर एक बार फिर महिलाओं के खिलाफ जुल्म का दौर शुरू होगा, धार्मिक कट्टरता हावी होगी, और ऐसे तालिबानियों की सरकार को मान्यता देकर दुनिया के बहुत से देश क्या अपनी नीतियों और अपने सिद्धांतों के खिलाफ नहीं चले जाएंगे?

भारत के साथ यह एक दिक्कत है कि वह अपने देश से इतने करीब के अफगानिस्तान की नई सरकार के साथ रिश्ते कैसे रखे? खासकर तब जब तालिबानियों को पाकिस्तान, चीन, रूस, इन सबने खुलकर अपना समर्थन घोषित किया है। भारत को रूस से तो कोई दिक्कत नहीं है लेकिन पाकिस्तान और चीन के साथ भारत के दुश्मनी के रिश्ते चले आ रहे हैं, और भारत की तमाम फौज भी इन्हीं दोनों देशों को ध्यान में रखते हुए तैयार की गई है। ऐसे में अगर पाकिस्तान और चीन तालिबान के सबसे बड़े हमदर्द बनकर उसे गले लगा रहे हैं, तो यह भारत के लिए विदेश नीति की एक चुनौती रहेगी। जानकार लोगों का यह कहना है कि भारत को तालिबानियों के आगे-पीछे बात तो करनी ही होगी क्योंकि उनकी घरेलू नीतियां चाहे जो रहें, दुनिया के अधिकतर देशों की नीतियां यह रहती हैं कि वे किसी देश में आज काबिज सरकार से बात करती ही हैं। भारत की सरकार एक वक्त इजराइल से परहेज करती थी क्योंकि उसका फिलिस्तीन पर ज्यादती का एक बड़ा लंबा इतिहास था। लेकिन वक्त बदला और कारोबारी दोस्तों ने भारत और इजरायल के रिश्ते बदल दिए।

जहां तक अफगानिस्तान में तालिबानियों की जोर-जबरदस्ती की बात है, तो कुछ उसी किस्म की जबरदस्ती सऊदी अरब में भी इस्लामी कानूनों के नाम पर महिलाओं के खिलाफ चलती आई है, और दुनिया भर के देशों ने सऊदी अरब से अपने रिश्ते रखे ही हैं। इसलिए अफगानिस्तान में आज तालिबानियों का राज एक ऐसी हकीकत है जिसे अनदेखा करके हिंदुस्तान चुप नहीं बैठे रह सकता, और उसे वक़्त आते ही इस ताकत से बातचीत का सिलसिला शुरू करना ही चाहिए। यह भी हो सकता है कि मानवाधिकार का जितना खात्मा तालिबान अफगानिस्तान में करने जा रहे हैं, बाहर के देश उससे संबंध रखके उसे एक बेहतर सरकार बनाने के लिए मजबूर भी कर सकते हैं। फिलहाल 20 वर्षों के अमेरिकी राज्य के बाद आज अफगानिस्तान अपने इतिहास के एक सबसे डांवाडोल दौर में पहुंचा हुआ है, और ऐसे में भारत उससे बातचीत न करके अपना ही नुकसान कर सकता है। यहां पर यह भी याद रखने की जरूरत है कि बीते दो दशक में भारत ने अफगानिस्तान की बहुत मदद की है और वहां की ढांचागत सुविधाओं को बनाने में भी अपना बहुत खर्च किया है। इसके अलावा भारत के फौजी हितों को देखते हुए भी उसे अफगानिस्तान की सरकार के साथ अच्छे रिश्ते रखने हैं क्योंकि चीन और पाकिस्तान दोनों अफगानिस्तान की आज की तालिबान सरकार के बड़े हिमायती होकर सामने आए हैं। लेकिन यह बात कहना आसान है और करना कुछ मुश्किल, क्योंकि इस्लामी कानूनों को लेकर तालिबान जिस किस्म की ज्यादतियां अफगानिस्तान में कर सकते हैं, उनके साथ अधिक दूरी तक चलना भारत की मौजूदा हिंदूवादी सरकार के लिए घरेलू दिक्कत का सामान भी हो सकता है। भारत में उदारवादी तबका भी तालिबानियों को लेकर खासे असमंजस में है कि वहां अमेरिका की पिट्ठू सरकार का खत्म होना जरूरी था, फिर तालिबानियों का वहां पर आना क्या उससे भी अधिक बड़ा खतरा रहेगा?

भारत के सामने ऐसी कई दिक्कतें हैं, और पिछले कुछ महीनों से ऐसी चर्चा चल भी रही थी कि अफगानिस्तान की निर्वाचित सरकार का साथ देते हुए भी भारत ने तालिबानियों से पर्दे के पीछे बातचीत का सिलसिला चला रखा था। यह भी याद रखने की जरूरत है कि पाकिस्तान ने कई महीनों से अफगानिस्तान की सरकार के खिलाफ भारी बगावती तेवर बना रखे थे और वह खुलकर तालिबानियों का साथ दे रही थी। यह बात भी याद रखने लायक है कि इसके बावजूद तालिबानियों ने कश्मीर को भारत का घरेलू मुद्दा माना था और दिल्ली सरकार के कश्मीर पर फैसलों के खिलाफ कुछ कहने से इंकार कर दिया था। आज जब अमेरिका अफगानिस्तान में अपना आखिरी पखवाड़ा गुजारते दिख रहा है, जिस तरह से वहां सरकार के नाम पर सिर्फ तालिबानी रह गए हैं, ऐसे में भारत सरकार को किसी न किसी स्तर पर तालिबानियों से बातचीत करनी होगी क्योंकि यह बिल्कुल पड़ोस का एक देश है. अमेरिका सहित पश्चिम के देशों ने तालिबानियों के राज को लेकर कई तरह के शक जाहिर किए हैं, और जाहिर है कि जो देश पिछले 20 बरस अफगानिस्तान में अमेरिकी कब्जे के हिमायती रहे हैं, एकाएक तालिबानियों से बातचीत भी शुरू नहीं कर सकते, लेकिन हिंदुस्तान की हालत उन देशों से अलग है और इस देश को अपने फौजी हितों को ध्यान में रखते हुए किसी न किसी स्तर पर तालिबान से बात करनी चाहिए। कम से कम रूस भारत का एक ऐसा दोस्त देश है जो कि इस मौके पर भारत के काम आ सकता है।
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