संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आबादी काबू में रखने वाले राज्य की संसद सीटें घटने का उसे मुआवजा क्यों न मिले-हाईकोर्ट
24-Aug-2021 3:43 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  आबादी काबू में रखने वाले राज्य की संसद सीटें घटने का उसे मुआवजा क्यों न मिले-हाईकोर्ट

तमिलनाडु के हाई कोर्ट से एक दिलचस्प सवाल निकलकर सामने आया है। मद्रास हाईकोर्ट की मदुरई पीठ ने एक जनहित याचिका पर केंद्र सरकार और राजनीतिक दलों को एक नोटिस जारी किया है, और उनसे पूछा है कि 1965 के बाद से तमिलनाडु में आबादी घटने की वजह से 2 लोकसभा सीटें कम कर दी गई थी, अदालत ने कहा है कि राज्य को इसका आर्थिक मुआवजा क्यों न दिया जाए? अदालत ने यह बुनियादी बात उठाई है कि तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश ने क्योंकि अपनी आबादी काबू में रखी और बाकी देश के मुकाबले कम की, इसलिए आबादी के अनुपात में लोकसभा की सीटें तय करते हुए इन दो राज्यों में 1967 के चुनाव से सीटें घटा दी गई थी। हाईकोर्ट ने यह सवाल उठाया है कि किसी राज्य को परिवार नियोजन और आबादी नियंत्रण को कामयाबी से लागू करने की वजह से क्या इस तरह की सजा दी जा सकती है कि लोकसभा में उसकी सीटें कम हो जाए? अदालत ने इस बात को भी याद दिलाया है कि किस तरह अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार एक वोट की वजह से गिर गई थी, तो ऐसे एक सांसद का महत्व कितना होता है यह उस समय सामने आ चुका है। अदालत ने कहा है कि एक सांसद का 5 वर्ष के कार्यकाल में राज्य के लिए 200 करोड़ का योगदान माना जाना चाहिए इस हिसाब से केंद्र सरकार तमिलनाडु को 14 चुनावों में 2-2 सांसद कम होने का मुआवजा 5600 करोड़ रुपए क्यों न दे?

यह बड़ा ही दिलचस्प मामला है और बहुत से लोगों को यह बात ठीक से याद भी नहीं होगी कि आबादी के अनुपात में लोकसभा क्षेत्र तय करने का मामला इमरजेंसी के दौरान एक  संविधान संशोधन करके रोक दिया गया था क्योंकि उत्तर भारत के बड़े-बड़े राज्य लगातार अपनी आबादी बढ़ाते चल रहे थे, और केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश जैसे दक्षिण भारतीय राज्य अपनी अधिक जागरूकता की वजह से आबादी घटा रहे थे और इस नाते उनकी सीटें भी कम होने जा रही थी। यह बुनियादी सवाल मदुरई हाई कोर्ट से परे भी पहले उठाया जा चुका है कि क्या किसी राज्य को उसकी जिम्मेदारी और जागरूकता के लिए सजा दिया जाना जायज है? लोगों को यह ठीक से याद नहीं होगा कि हिंदुस्तान में हर जनगणना के बाद लोकसभा सीटों में फेरबदल की एक नीति थी लेकिन बाद में जब यह पाया गया कि उत्तर और दक्षिण का एक बड़ा विभाजन इन राज्यों की जागरूकता और जिम्मेदारी को लेकर हो रहा है और अधिक जिम्मेदार राज्य को सजा मिल रही है तो फिर आपातकाल के दौरान 1976 में 42 वें संविधान संशोधन से लोकसभा सीटों में घट बढ़ की इस नीति को रोक दिया गया, और इसे 2001 तक न छेडऩा तय किया गया। लेकिन 2001 में भी यह पाया गया कि अभी भी उत्तर भारत और दक्षिण भारत के बीच एक बड़ी विसंगति जारी है और अगर आबादी के अनुपात में सीटें तय होंगी तो संसद में दक्षिण का प्रतिनिधित्व घटते चले जाएगा और भीड़ भरे उत्तर भारत का प्रतिनिधित्व बढ़ते चले जाएगा इसलिए 2001 में इसे फिर 25 बरस के लिए टाल दिया गया और अब 2026 तक सीटों तक ऐसा फेरबदल नहीं होना है। यह एक अलग बात है कि उत्तर और दक्षिण में आबादी का फर्क, आबादी में बढ़ोतरी का फर्क, अभी तक जारी है और 2026 में भी ऐसे कोई आसार नहीं हैं कि आबादी के अनुपात में लोकसभा सीटें तय की जाएं। ऐसा होने पर जिम्मेदार राज्यों के साथ बड़ी बेइंसाफी होगी और गैरजिम्मेदार राज्यों को संसद में अधिक सांसद मिलने लगेंगे।

यह पूरा सिलसिला प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के भी खिलाफ है इसलिए कि किसी व्यक्ति किसी इलाके प्रदेश या लोकसभा सीट को अधिक जिम्मेदार होने की वजह से सजा देना किसी भी कोने से जायज नहीं है। दूसरी तरफ आबादी घटाने के राष्ट्रीय कार्यक्रम और सामाजिक जरूरत के खिलाफ जाकर लगातार आबादी बढ़ाने वाले राज्यों का आर्थिक पिछड़ापन जारी है, लेकिन वे पुराने कानून के हिसाब से देखें तो संसद में अधिक सदस्य भेजने के हकदार हो सकते थे, इसलिए इस सिलसिले को रोक देना ही ठीक था। 1976 के बाद से अभी तक सीटों को बढ़ाने या घटाने का सिलसिला तो थमा हुआ है, लेकिन तमिलनाडु के इस हाईकोर्ट ने एक नया सवाल उठाया है कि क्या राज्य से छीने गए 2 सांसदों के एवज में आर्थिक भरपाई नहीं की जानी चाहिए?

इस पर चर्चा होनी चाहिए क्योंकि आज तो यह मामला 2026 तक थमा हुआ है, लेकिन 2026 तक न तो राज्यों के बीच आबादी का अनुपात बहुत नाटकीय अंदाज से बदलने वाला है, और न ही 2026 में ऐसी नीति देश में लागू करना मुमकिन हो पाएगा। ऐसा करने पर उत्तर और दक्षिण के बीच एक बगावत जैसी नौबत आ जाएगी और देश टूटने की तरह हो जाएगा, जिसमें जिम्मेदार दक्षिण को लगेगा कि उसे उसकी जागरूकता की सजा दी जा रही है। इसलिए 2026 का वक्त आने के पहले देश में इस पर चर्चा होनी चाहिए, लोगों को बात करना चाहिए, दूसरे देशों की मिसालें भी देखनी चाहिए। अमरीका में काम कर रहे एक हिंदुस्तानी पत्रकार ने अभी लिखा है-‘अमरीकी संसद के उच्च सदन सेनेट (राज्यसभा) में सौ सदस्य होते हैं। अमेरिका में पचास राज्य हैं। हर राज्य से दो सदस्य सेनेट में चुनकर आते हैं। भारत में राज्यसभा सदस्य चुनने के लिए राज्यों के विधायक भी वोट डालते हैं, जबकि अमेरिकी सेनेट के सदस्य हर राज्य की पूरी जनता चुनती है। हर राज्य से दो सेनेटर होने का नियम बहुत ही जबरदस्त है। चार करोड़ की आबादी वाले कैलिफोर्निया के भी दो सेनेटर हैं और पौने छह लाख की आबादी वाले वायोमिंग राज्य के भी दो ही हैं। भारत में ऐसा होता तो राज्यसभा में मणिपुर और यूपी के बराबर सदस्य होते। इस तरह अमेरिकी सेनेट में कोई भी राज्य किसी से ऊपर या नीचे नहीं है।’
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news