संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पति पत्नी को थप्पड़ मारे तो जेल, और रेप करे तो कोई सजा नहीं !
27-Aug-2021 5:20 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पति पत्नी को थप्पड़ मारे तो जेल, और रेप करे तो कोई सजा नहीं !

देश की एक और अदालत ने शादीशुदा जोड़े के बीच बलात्कार के मामले में एक फैसला सुनाया है जिसमें उसने निचली अदालत द्वारा एक आदमी पर अपनी बीवी से बलात्कार करने का जुर्म दर्ज करके सुनवाई शुरू करने को खारिज किया है। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर हाई कोर्ट ने इस राज्य के एक मामले में शादीशुदा जोड़े के बीच बलात्कार पर मौजूदा कानून का हवाला देते हुए कहा है कि अगर यह सेक्स जोर जबरदस्ती से भी किया गया है, लेकिन पत्नी 18 वर्ष से अधिक उम्र की है, और साथ रहती है, तो इसे बलात्कार नहीं कहा जाएगा। भारत में बलात्कार के कानून के तहत बहुत से प्रदेशों में ऐसे फैसले आए हुए हैं, और महिला अधिकारों के आंदोलनकारी लगातार इस कानून के खिलाफ और अदालतों के ऐसे रुख के खिलाफ बोलते आए हैं, और यह मांग करते आए हैं कि हिंदुस्तान में शादीशुदा जोड़ों के बीच भी असहमति के बाद जबरदस्ती बनाए गए सेक्स संबंधों को बलात्कार गिना जाए। लेकिन आज कानून ऐसा नहीं है और हाई कोर्ट का यह फैसला मौजूदा बलात्कार कानून की तंग परिभाषाओं के भीतर ही लिखा गया है।


कुछ लोगों को यह शिकायत हो सकती है कि अगर हाई कोर्ट के जज चाहते तो वे मौजूदा कानूनों से अपनी असहमति जताते हुए या मौजूदा कानून की आलोचना करते हुए भी फैसला यही लिख सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। कानून के दायरे में कोई आदेश या फैसला लिखते हुए किसी जज पर यह बंदिश नहीं रहती कि वे उस कानून से अपनी असहमति को अनिवार्य रूप से दर्ज करें। दूसरी तरफ देश की बड़ी अदालतों के कई जज ऐसा करते भी आए हैं और उनके ऐसा करने से कानून बनाने वाली संसद और विधानसभाओं को कुछ सोचने का मौका भी मिलता है लेकिन यह अलग-अलग जज की अपनी अलग-अलग सोच पर निर्भर बात है कि वह कानून से परे अपनी राय कितनी देना चाहते हैं। फिलहाल क्योंकि मौजूदा कानून से देश के एक बड़े मुखर तबके की बड़ी कड़ी असहमति है, इसलिए इस पर चर्चा होनी चाहिए।

भारत में महिला अधिकारों के आंदोलनकारियों की इस बात को लेकर गहरी नाराजगी है कि इस देश में महिला को एक सामान की तरह देखा जाता है जिसका मालिक शादी के पहले उसका पिता होता है, और शादी के बाद उसका पति। महिला आंदोलनकारियों का यह भी कहना है कि भारत में बलात्कार को किसी महिला के शरीर पर हमले की तरह नहीं देखा जाता बल्कि उसके पिता या उसके पति के परिवार की इज्जत पर हमले की तरह देखा जाता है कि परिवार की इज्जत लुट गई या उस महिला की इज्जत लुट गई. यह नहीं देखा जाता कि उस महिला पर एक शारीरिक हमला भी हुआ है, इस हमले से उसका बड़ा नुकसान भी हुआ है जिसकी भरपाई हो सकता है कि बची पूरी जिंदगी पूरी ना हो. लेकिन हिंदुस्तान का पुरुष प्रधान नजरिया, मर्दाना नजरिया कानून को इस नजर से सोचने ही नहीं देता। आज दुनिया में कुल 36 ऐसे देश हैं जहां पर पति-पत्नी के बीच बलात्कार को बलात्कार नहीं गिना जाता। यह मान लिया जाता है कि पति-पत्नी के बीच में जो होता है, उसमें अगर असहमति भी है, तो भी वह जुर्म नहीं है। इस बात को लेकर भारत की महिलाओं में, और महिलाओं के हक की वकालत करने वाले पुरुषों में भी, बड़ी नाराजगी है और शादीशुदा जिंदगी के बलात्कार को एक जुर्म बनाने के लिए आंदोलन चल रहा है।

एक सांसद शशि थरूर ने 2018 में संसद में इस बारे में एक प्रस्ताव भी पेश किया था लेकिन किसी समर्थन के बिना वह विधेयक अपने-आप ही खत्म हो गया और उस पर कोई चर्चा भी नहीं हुई। आज इस बुनियादी बात पर संसद के भीतर और संसद के बाहर चर्चा की जरूरत है कि जब महिलाओं की दूसरे कई किस्म की हिंसा की शिकायत जुर्म के दायरे में आती हैं, और बिलासपुर हाईकोर्ट ने जिस मामले में इस रेप को जुर्म मानने से इनकार किया है, उस मामले में भी पत्नी के साथ पति द्वारा दूसरे किस्म की हिंसा के खिलाफ मामला चलाने की इजाजत दी है। अब सवाल यह उठता है कि एक शादीशुदा महिला से उसके पति द्वारा दूसरे किस्म की हिंसा तो जुर्म के दायरे में आ रही है लेकिन सेक्स की हिंसा को बाहर कर दिया गया है, और बलात्कार को भी सजा के लायक नहीं माना गया है। यह कानून भारत में चले आ रहे दूसरे सैकड़ों कानूनों की तरह पूरी तरह से नाजायज और खराब कानून हैं। आज पूरी दुनिया के सभी लोकतंत्रों में महिला के अधिकारों को लेकर जिस तरह की जागरूकता आई है, और जिस तरह से महिला अधिकारों के मुद्दे को उठाया जा रहा है उसे देखते हुए हिंदुस्तान को अपने इस कानून के बारे में फिर से सोचना चाहिए। एक महिला पर पति अगर हाथ हो उठा दे तो वह तो सजा के लायक है, जुर्म है, लेकिन अगर वह उसकी मर्जी के खिलाफ उससे बलपूर्वक बलात्कार करे, तो भी वह जुर्म नहीं है, यह बलात्कार की और शादीशुदा जोड़े के बीच हिंसा की एक बहुत ही खराब और बेइंसाफ परिभाषा है जिसे बदले जाने की जरूरत है. हिंदुस्तान में मर्दाना सोच इस तरह हावी है कि लोग यह मानते हैं कि शादीशुदा जोड़े के बीच अगर बलात्कार को सजा मान लिया जाएगा तो इससे शादीशुदा जिंदगी और विवाह नाम की संस्था खतरे में पड़ जाएंगे। लेकिन शादीशुदा जिंदगी और विवाह तो वैसे भी गैरसेक्स हिंसा के आधार पर खतरे में पड़ सकते हैं वे तलाक का भी पर्याप्त आधार बनते हैं, और सजा दिलाने के लायक भी हैं। ऐसे में यह सोचने की जरूरत है कि जब थप्पड़ मारना जुर्म के लायक है, तो बलात्कार को जुर्म के लायक न मानना एक बहुत ही घटिया किस्म की सोच का सबूत है।

कानून जिस वक्त बना होगा उस वक्त अंग्रेज या हिंदुस्तानी जो भी इसके लिए जिम्मेदार रहे होंगे, लेकिन आज संसद में इस कानून को बदलने की ताकत जिन लोगों के हाथ में है वे अगर इसे नहीं बदलते हैं, तो वे इस कानून के साथ हैं, वे इस हिंसा के साथ हैं, और वे ऐसे शादीशुदा बलात्कार के हिमायती हैं। हिंदुस्तान में शादीशुदा महिला के अधिकारों को दकियानूसी और गुफाकालीन सोच से बने हुए कानूनों से कुचलना ठीक नहीं है। इस कानून को बदलने के लिए न सिर्फ महिला अधिकारवादियों को, बल्कि देश के सभी मानवाधिकारवादियों को, लोकतंत्रवादियों को, और इंसाफपसंद लोगों को खुलकर आवाज उठानी चाहिए। जो बात हिंदुस्तान में आज फैशन में नहीं है, चलन में नहीं है वह भी शुरू होनी चाहिए कि अलग-अलग इलाकों के प्रतिनिधिमंडल जाकर अपने विधायकों और सांसदों से मिलें और उन्हें कानून में फेरबदल करने के लिए कहें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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