संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सिर्फ ओलिंपिक पर लगाया निशाना कभी सही न बैठेगा
07-Sep-2021 3:35 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  सिर्फ ओलिंपिक पर लगाया निशाना कभी सही न बैठेगा

हिंदुस्तान के केंद्रीय खेल मंत्री अनुराग ठाकुर ने अभी देश के खेल संघों से यह कहा है कि वे 2024 और 2028 के ओलंपिक खेलों को ध्यान में रखते हुए उनमें भारत की स्थिति बेहतर बनाने के लिए बड़ी योजनाएं बनाएं, बड़े प्रोजेक्ट बनाएं। वे बेंगलुरु में एक खेल कार्यक्रम में बोल रहे थे और उन्होंने कहा कि लोगों के बीच खेल को लेकर धारणा बदल चुकी है क्योंकि सरकार एथलेटिक्स को अलग से बढ़ावा दे रही है. पहले टोक्यो ओलंपिक में और उसके बाद अभी पैरालंपिक में भारत का प्रदर्शन पहले के मुकाबले बहुत अच्छा रहा है, उन्होंने कहा कि लोगों का रुख खेलों के लिए बदल गया है, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद खिलाडिय़ों की हौसला अफजाई कर रहे हैं।

यह बात सही है कि क्रिकेट के अंतरराष्ट्रीय मुकाबले हों, ओलंपिक हो, राष्ट्रमंडल खेल हों, या एशियाई खेल हों, इन सबमें खिलाडिय़ों की हिस्सेदारी पहले के मुकाबले अब अधिक खबरें बनने लगी हैं। टीवी पर जीवंत प्रसारण चलते रहता है, और बड़ी-बड़ी कंपनियां भी ऐसे अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में गए हुए खिलाडिय़ों को बढ़ावा देती हैं। ऐसे में देश में यह उम्मीद जागना जायज है कि हिंदुस्तान इस बार अधिक मेडल पाने के बाद अब अगली बार ओलंपिक और दूसरे अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों पर निशाना लगाकर तैयारी करेगा तो बहुत आगे बढ़ेगा। यह एक जनधारणा है जिसका सरकार भी समर्थन कर रही है और जिसे आगे बढ़ा रही है। लेकिन एक सवाल यह उठता है कि क्या भावनाओं से परे यह जनधारणा व्यावहारिक रूप से मुमकिन भी है? क्या अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में मैडल पाने की तैयारी से सचमुच हिंदुस्तान खेलों में बहुत आगे बढ़ सकेगा? हिंदुस्तान 140 करोड़ आबादी का देश है और अगर आबादी के अनुपात में मैडल देखें तो हिंदुस्तान दुनिया में कहीं भी नहीं टिकता। और अगर एक देश के रूप में देखें तो जहां 1-2 करोड़ आबादी वाले देश हैं, वह भी हिंदुस्तान से अधिक ओलंपिक मेडल पाते हुए दिखते हैं, इसलिए हिंदुस्तान का मुकाबला ऐसे देशों से मान लेना भी ज्यादती की बात होगी।  रियो के 2016 ओलिंपिक से एक लाख आबादी वाला देश ग्रेनाडा भी एक मैडल लेकर लौटा था, ढाई लाख से कम आबादी वाला जमैका 11 मैडल लेकर लौटा। हिंदुस्तान दुनिया में आबादी के अनुपात में सबसे कमजोर देश था, वह कुल दो मैडल लेकर लौटा था। टोक्यो ओलंपिक में हिंदुस्तान को 20 करोड़ आबादी पर एक मैडल मिला है, दूसरी तरफ इसी ओलंपिक को देखें तो नीदरलैंड्स को चार लाख 84 हजार आबादी पर एक मैडल मिला है, ग्रेनाडा को 1 लाख 12 हजार आबादी पर एक मैडल मिला है, और सान मारीनो को 11 हजार 313 आबादी पर एक मैडल मिला है।

खेल को अगर सिर्फ अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों पर केंद्रित रखकर उनकी तैयारी की जाएगी तो हिंदुस्तान कहीं नहीं पहुंच पाएगा, जिस तरह आज वह आबादी के अनुपात में मैडल में दुनिया में शायद सबसे पीछे है ऐसा ही सबसे पीछे बने रहेगा और हम छोटी-छोटी कामयाबी पर एक झूठा गौरव करने के शिकार बने रहेंगे। इसलिए यह समझने की जरूरत है कि हिंदुस्तान को किस किस्म की तैयारी करनी चाहिए जिसमें इस देश की विशाल आबादी की अधिक भागीदारी हो सके।

पहली बात तो यह कि हिंदुस्तानी समाज की सेहत की तरफ जब तक ध्यान नहीं दिया जाएगा जब तक बच्चों को कुपोषण से नहीं बचाया जाएगा जब तक उन्हें पेट भर खाना नसीब नहीं होगा तब तक उनकी पूरी फिक्र खाने पर ही लगी रहेगी, वह गांव की धूल भरी सडक़ों पर, या बिना अहाते के मैदानों में भी दौड़ भी नहीं सकेंगे क्योंकि उनके बदन में इतनी जान ही नहीं रहेगी। आज हिंदुस्तान में कुछ समझदार राज्य लगातार इस बात की तैयारी कर रहे हैं कि स्कूलों में दोपहर के भोजन के अलावा सुबह का नाश्ता भी दिया जाना चाहिए क्योंकि बहुत से बच्चे ऐसे रहते हैं, जिन्होंने पिछली शाम घर में खाना खाया रहता है, और अगला खाना उन्हें स्कूल में दोपहर को मिलता है। 15-16 या 17 घंटे की यह भूख किसी बच्चे को न तो कुछ सीखने के लायक, पढऩे के लायक छोड़ती है, और न ही कुछ खेलने के लायक। दूसरी बात यह भी है कि न तो स्कूलों में मैदान हैं, न मैदानों को समतल बनाकर रखने की गुंजाइश है. गांव-गांव के सरकारी स्कूल तो बिना  अहातों के हैं, और वहां मैदानों में कहीं जानवर बैठे रहते हैं, कहीं सरकारी सामान पड़े रहता है, इसलिए आम बच्चों को खेलने के लिए टाइम टेबल में एक पीरियड जरूर मिल जाता है, खेलने की सहूलियत कुछ नहीं मिलती। जो शहरी और महंगे स्कूलों के बच्चे हैं, उनको तो जरूर कहीं-कहीं पर खेलकूद की सहूलियत मिल जाती है लेकिन गांव-कस्बों के बच्चों के लिए मोटे तौर पर यह सहूलियत पहुंच से बाहर रहती हैं। ऐसे में एक अंदाज यह है कि 140 करोड़ की आबादी में से 130 करोड़ तो ऐसी है जिसे खेलना नसीब ही नहीं होता। तो ऐसे बच्चों का कोई ओलंपिक मैडल पाने की तैयारियों में, क्षमता में, क्या योगदान हो सकता है?

बच्चों का खानपान ठीक हो, बच्चे पढऩे और खेलने के वक्त पर भरे पेट रहें, या कम से कम भूख से परेशान न हों, और उन्हें कागज पर लिखे हुए खेल पीरियड से परे भी कुछ खेलना मिल सके तो हो सकता है कि हिंदुस्तान की तस्वीर एकदम से बदल जाए। कोई भी देश अंतरराष्ट्रीय खेलों में इस आधार पर आगे नहीं बढ़ सकता कि उसके कुछ दर्जन खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय पैमानों तक पहुंच पा रहे हैं, और ओलंपिक जैसे मुकाबले में उन्हें जगह मिल रही है। इस देश में जिन प्रदेशों में भुखमरी कम है, कुपोषण कम है, जहां सरकार ने स्कूल के स्तर पर सुविधाएं दी हैं, ऐसे प्रदेशों से, पंजाब, हरियाणा और केरल से, अधिक खिलाड़ी बाहर निकलते हैं क्योंकि वहां अधिक बच्चों के बीच ऐसी खेल प्रतिभाओं को तलाशने का मौका रहता है, गुंजाइश रहती है। इसलिए सिर्फ ओलंपिक मैडल को ध्यान में रखते हुए अगर खेल तैयारी की जाएगी तो उसे हिंदुस्तान खेलों में बहुत आगे कभी नहीं बढ़ पाएगा। पूरे के पूरे समाज का खानपान, सेहत के प्रति उसका चौकन्नापन, फिटनेस के प्रति उसकी एक से अधिक पीढिय़ों की जागरूकता और खेलों की बुनियादी सहूलियतें, इन सबके ऊपर अगर ध्यान दिया जाएगा तो कहीं जाकर ओलंपिक में या दूसरे अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में हिंदुस्तान आगे बढ़ सकता है।

आबादी बहुत है देश में जमीन भी बहुत है, बच्चे भी खूब हैं, वह इतनी बड़ी संख्या में पैदा होते हैं कि आबादी बढऩे पर रोक लगाने की कोशिशें चलते हुए आधी सदी से अधिक वक्त हो गया है। इसलिए इन सबके बीच में यह भी देखने की जरूरत है कि पिरामिड में सबसे नीचे का हिस्सा सबसे अधिक भागीदारी का हो और करोड़ों बच्चों को किसी न किसी तरह खेलों से जुडऩे का मौका मिले, वे खेलने की हालत में रहे और ऊपर के खेल मुकाबलों की तैयारी के लिए देश भर के तमाम बच्चों के बीच से बेहतर खिलाडिय़ों को छांटने की एक नौबत सरकार के पास रहे। यह सब किए बिना सिर्फ मैडल की तैयारी पर निशाना लगाना हिंदुस्तान को बहुत ही औसत दर्जे का देश बनाकर चलेगा जिसमें दो-चार मैडल पाकर ही यह देश फूले नहीं समाएगा। ओलंपिक मैडल लाने वाले खिलाडिय़ों पर देश भर से 10-10, 20-20 करोड़ रुपए की बारिश हो रही है, लेकिन छोटे-छोटे गांव के स्कूलों में बच्चों को एक फुटबॉल भी नसीब नहीं होता, उनके दौडऩे कि अगर कोई क्षमता है तो उसकी उसका कोई मूल्यांकन नहीं हो पाता। हिंदुस्तान के लोगों को चीन जैसे सबसे बड़े मैडल विजेता एक देश की तैयारियों को भी देखना चाहिए जहां चार-पांच साल की उम्र से ही प्रतिभा खोजने वाले लोग देशभर में घूम-घूमकर जिम्नास्टिक्स जैसे खेलों के लिए प्रतिभाएं ढूंढते हैं, और बच्चों को लाकर उसकी तैयारी शुरू करवा देते हैं। हिंदुस्तान को सबसे नीचे के स्तर से बच्चों को आगे बढऩे का एक रास्ता बनाना पड़ेगा तो ही हमारे प्रदेश और देश के स्तर की प्रतिभाएं अधिक बेहतर आ सकेंगी।
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