संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जब अहंकार की मालिश के लिए फरेब काफी हो...
10-Sep-2021 5:31 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जब अहंकार की मालिश के लिए फरेब काफी हो...

छोटी-छोटी झूठी या नामौजूद चीजों से खुशियां हासिल, जैसे रफाल से अब चीन और पाकिस्तान घुटनों पर आ गए हैं, या थाली पीटने से कोरोना भाग जाएगा, और डॉक्टर का हौसला बढ़ जाएगा। जब लोग फरेब से खुश होने लगते हैं, तो कुछ असली कामयाबी जरूरी नहीं रह जाती। हिन्दुस्तान में पिछले कई बरसों में लोगों को ऐसी कामयाबी का अहसास कराया गया है जो जमीन पर चाहे हो न हो, लोगों के मन में गुदगुदी करती है, और उनके अहंकार की अच्छी तरह मालिश कर देती है। उनमें देशप्रेम का एक ऐसा अहसास करा देती है जो हकीकत नहीं होता, और जिसकी कोई जरूरत भी नहीं होती। ऐसे देशप्रेम से उस देश का भी कोई भला नहीं होता जिसके लिए वह प्रेम दिखाया जा रहा है। ऐसे अहसास किसी देश की सरकार के कराए हुए ही हों, या किसी देश-प्रदेश की सत्तारूढ़ पार्टी के करवाए हुए ही होते हों, ऐसा भी नहीं है। किसी अखबार के मालक-चालक, यानी प्रकाशक-संपादक भी अपने आपके भीतर ऐसी खुशफहमी का शिकार हो सकते हैं। अगर वे लिखने में बहुत अच्छे हैं जिससे कि वाहवाही भी होती है, तो प्रकाशक की अपनी जिम्मेदारी में वे नाकामयाब भी हो सकते हैं। अपनी हसरतों को हकीकत मान लेने की यह चूक हर किस्म के लोगों में हो सकती है, इसके लिए किसी का सत्ता पर रहना जरूरी नहीं होता, और अपने मानने वालों की भीड़ को धोखा देना भी जरूरी नहीं होता। अमूमन भीड़ खुद ही धोखा खाने को तैयार रहती है, और अलग-अलग दौर में वह अलग-अलग किस्म के लोगों के लिए दीवानगी दिखाने को एक पैर पर खड़ी रहती है।

नामौजूद चीजों से फख्र और खुशी हासिल करना महज आज की किसी बात से हो, ऐसा भी जरूरी नहीं है। इतिहास इतना लंबा रहता है, और उसके भी पहले की पुराण कथाएं, बाइबिल की कहानियां, या कुछ दूसरे पुराने धर्मों की कहानियां इतनी पुरानी रहती हैं कि उन्हें सच मानकर लोग अपने स्वाभिमान नाम के अहंकार को पुष्पक पर चढ़ाकर हवाई सफर के लिए भी भेज सकते हैं। विज्ञान की हर खोज पर अपना दावा कर सकते हैं, वे गणेश के धड़ पर हाथी के सिर को प्लास्टिक सर्जरी की तकनीक मौजूद होने के सुबूत की तरह पेश कर सकते हैं, और कीर्तन में ढोल-मंजीरों की ताल के साथ सिर हिलाते हुए लोग उस सुबूत पर नासा का ठप्पा भी लगा देख लेते हैं। जब गर्व करने के लिए महज ऐसे अहसास काफी होते हैं, तो फिर जिंदगी में कुछ हासिल करना जरूरी कहां रह जाता है? जिस तरह टीवी के सामने बैठकर क्रिकेट में अपने देश की टीम को जीतते देखकर जिन लोगों को अपने खेलप्रेमी होने का अहसास रहता है, और वह बढ़ते-बढ़ते उन्हें खेल में अपनी दिलचस्पी लगने लगता है, और धीरे-धीरे वे अपने को खिलाड़ी भी महसूस करने लगते हैं, तो फिर खेलने की जरूरत कहां रह जाती है? इंसान का मिजाज ही कुछ ऐसा होता है कि वे अपने भीतर पहले से तय कर ली गईं धारणा को मजबूत करने के लिए कतरा-कतरा सुबूत जुटाने लगता है। उसकी पसंद और नापसंद इस पर आ टिकती है कि उसके निष्कर्ष को मजबूत बनाने के लिए कौन सी बातें काम आएंगी, तो फिर सुबूतों की वैज्ञानिक प्रक्रिया से गुजरने की जरूरत कहां रह जाती है?

सडक़ किनारे फुटपाथ पर तेल या ताबीज बेचने वाले लोग एक बड़े माहिर हुनर के साथ लोगों को पहले तो उस सामान की जरूरत का अहसास कराते हैं, और एक बार यह अहसास हो जाता है, तो फिर वे उसके इलाज की तरह एक सामान पेश कर देते हैं। कुछ-कुछ ऐसा ही राष्ट्रवाद के मामले में भी होता है। एक आक्रामक राष्ट्रवाद पहले तो एक नामौजूद दुश्मन का पुतला पेश करता है जो कि मुमकिन कद-काठी से अधिक बड़ा भी दिखता है। इसके साथ ही दुश्मन से खतरे का एक अहसास खड़ा किया जाता है, और इसके बाद फिर दुश्मनी के बीज बो देना, उसकी फसल को खाद दे देना बड़ा आसान हो जाता है। हिन्दुस्तान इन दिनों लगातार ऐसे अहसास का शिकार है। ऐसा अहसास कि पिछले 70 बरस में कुछ भी अच्छा नहीं हुआ था, और देश को जो कुछ हासिल हुआ है, यह महज पिछले 5-6 बरस की बात है। जब लोग एक नामौजूद नाकामयाबी पर भरोसा करने उतारू हों, तब उन्हें आज की नामौजूद कामयाबी पर भी भरोसा करवाना आसान हो जाता है। 70 बरस की ‘नाकामयाबी’ पर हीनभावना, और अफसोस पैदा कर दिए जाएं, तो फिर उस जमीन पर आज की ‘कामयाबी’ का बरगद तेजी से खड़ा किया जा सकता है। यह सिलसिला नेता की कामयाबी, और जनता की कमजोरी का सुबूत भी होता है कि उसके सामने कब्ज की दवा, जमालघोटा, को भरकर भी एक कटोरा पेश किया जाए, और वह इस बात को हकीकत मान चुकी हो कि यह पेट भरने का अच्छा सामान है, तो लोगों को कब्ज से छुटकारे के लिए काफी एक बीज की जगह एक कटोरा जमालघोटा भी खिलाया जा सकता है।

दुनिया के इतिहास में बहुत से ऐसे लोग रहे हैं जिनका पेशा कुछ और रहा है, जिसमें वे नाकामयाब रहे हैं, लेकिन वे अपने किसी दूसरे हुनर की वजह से अहमियत पाते रहते हैं। मिसाल के लिए किसी शहर में कोई ऐसे डॉक्टर या इंजीनियर हो सकते हैं, या वकील हो सकते हैं जो अपने पेशे में खासे कमजोर हों, लेकिन जिनका समाजसेवा का बहुत ही बड़ा और सच्चा इतिहास रहा हो। आम लोग ऐसे में उन्हें एक अच्छा इंसान और मामूली पेशेवर मानने के बजाय अच्छा पेशेवर भी मानने लगते हैं। सार्वजनिक जिंदगी में बहुत से ऐसे लोग रहते हैं जो कि अपनी ऐसी अप्रासंगिक और महत्वहीन खूबियों की वजह से महान मान लिए जाते हैं। जब लोगों को खालिस और जरूरी सच से परे की गैरजरूरी और अप्रासंगिक बातों के आर-पार देखने की ताकत हासिल न हो, या उनकी आंखों पर एक ऐसा चश्मा चढ़ा दिया जाए जिससे कि वे उसके रंग के अलावा और किसी रंग में दुनिया को देख ही न सकें, तो फिर उन्हें एक खास रंग में रंगी हुई दुनिया को ही सच मनवा देना आसान हो जाता है। लोकतंत्र में लोगों को हकीकत और अहसास में फर्क करना आना चाहिए। लोकतंत्र में लोगों को धर्म और राजनीति के दायरों को अलग-अलग देखना आना चाहिए। लोगों को किसी की निजी ईमानदारी से परे उसकी सार्वजनिक जवाबदेही में बेईमानी को भी अलग पहचानना आना चाहिए। लोगों को किसी धर्म के कपड़ों में लिपटे लोगों की हरकतों को उन धर्मों से अलग करके देखना भी आना चाहिए, वरना हिन्दुस्तान में सैकड़ों-हजारों ऐसे मां-बाप हैं जो कि अपने बच्चों को ले जाकर खुद ही बापू-बाबाओं को समर्पित करते आए हैं, क्योंकि वे उनके धर्म-आध्यात्म के चोगों से परे उनकी हरकतों का अंदाज नहीं लगा पाते हैं, उनकी आंखें बाबाओं के दिव्यप्रकाश से चौंधिया जाती हैं, और उन्हें हकीकत नहीं दिख पाती।

आज जब दुनिया चांद के बाद दूसरे ग्रहों पर पहुंच चुकी है, समंदर के अंदर तलहटी को तलाश रही है, उस वक्त लोग अगर फरेब से गुरेज नहीं करेंगे, और किसी की पेश की गई हसरतों को हकीकत मान लेंगे, तो ऐसे देश या ऐसे लोग कम से कम कुछ सदी पीछे तो पहुंच ही जाएंगे। जिस देश को आगे बढऩा है, वह किसी तस्वीर पर बनाई गई सुहानी सडक़ पर सफर करके उसका आनंद लेते हुए आगे नहीं बढ़ सकता। लोगों को कड़ी और खुरदरी सडक़ पर मेहनत से सफर करके ही आगे बढऩा होता है। सबको मालूम है पुष्पक की हकीकत लेकिन...
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