संपादकीय
अमेरिका में 20 बरस पहले दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा आतंकी हमला हुआ था, और वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की दो इमारतों को ओसामा बिन लादेन के विमानों ने जाकर ध्वस्त कर दिया था, जिसमें 3000 से अधिक लोग मारे गए थे, तब से लेकर अब तक इन 20 वर्षों में अमेरिका ने अफगानिस्तान, इराक के कई जगहों पर आतंक को खत्म करने के नाम पर लाखों लोगों को मारा लेकिन आतंकी हमले खत्म नहीं हुए। दुनिया के अलग-अलग बहुत से इलाकों में आतंकियों ने अमरीकियों पर हमले किए, कहीं उन होटलों को बम का निशाना बनाया जहां पर अमेरिकी ठहरे हुए थे, तो कहीं ऐसे नाइट क्लब में धमाका किया जहां दर्जनों अमेरिकी मारे गए। लेकिन दुनिया का हिंसा का हर बड़ा मामला आतंकवाद से जुड़ा हुआ हो यह भी जरूरी नहीं है, और वह धार्मिक आतंकवाद से जुड़ा हुआ हो यह भी जरूरी नहीं है। लोग जहां जिनके हाथ में जितने गैरजरूरी और जरूरत से अधिक ताकतवर हथियार आ जाते हैं वहां उनके दिमाग में हिंसा शुरू हो जाने का एक खतरा रहता ही है। आज जब चारों तरफ तालिबान की खबरें फैली हुई हैं और हिंदुस्तान जैसा देश इस बात को लेकर फिक्रमंद है कि क्या कश्मीर में तालिबान की अगुवाई में, या उसकी मदद से बाहर से आतंकी आ सकते हैं, तो भारत अमेरिका और रूस जैसे दूसरे देशों से इस बारे में बात भी कर रहा है। उसने तालिबान से भी कहा है कि अफगानिस्तान को आतंकियों की पनाहगाह नहीं बनना चाहिए। यह एक और बात है कि तालिबान खुद ही दुनिया के सबसे बड़े आतंकी माने जाते हैं, और वे क्या करेंगे इसके बारे में किसी को कोई अंदाज है नहीं।
अब सोचने और समझने की बात यह है कि क्या हर हमला रोकने लायक होता है? न सिर्फ पाकिस्तान या हिंदुस्तान में, बल्कि दुनिया के सबसे अधिक चौकस और तैयार देशों में भी हमले होते हैं, और अमरीका जैसे सबसे अधिक तैयार देश में तो बिना किसी मजहबी आतंक वाले हमले भी हर बरस दर्जन भर तो हो ही जाते हैं, और कोई एक अकेला बंदूकबाज ही जाकर स्कूल-कॉलेज के बहुत से बच्चों को मार डालता है। इसलिए इस दुनिया में कोई अगर यह सोचे कि पुलिस और फौज की बंदूकों से हर जगह पर महफूज किया जा सकता है, तो वह निहायत ही नासमझी की बात होगी। दुनिया का बड़े से बड़ा इंतजाम भी किसी देश को आत्मघाती हमलों से नहीं बचा सकता। जब कोई आतंकी या किसी दूसरी किस्म का हमलावर यह तय कर ले कि उसे अपने-आपको उड़ाकर भी दूसरों को मारना है, तो भीड़ भरी जगहों पर कहीं पर भी लोगों को बड़ी संख्या में मारा जा सकता है। जब हम अपनी साधारण समझ-बूझ से ऐसे हमलों की गुंजाइश के बारे में सोचते हैं, तो लगता है कि दुनिया की आबादी के अधिकतर लोग आज इसीलिए जिंदा हैं, कि किसी ने उनको मारना अब तक तय नहीं किया है। अगर सरकारी इंतजाम से किसी के जिंदा रहने की बात करें, तो हिंदुस्तान जैसे सवा करोड़ से अधिक आबादी के देश में दो-चार करोड़ से अधिक लोगों को बचा पाना मुमकिन नहीं होगा।
इसलिए आज न सिर्फ पाकिस्तान या भारत, बल्कि दुनिया के तमाम देशों को यह सोचना होगा कि किस तरह इंसान और इंसान के बीच गैरबराबरी खत्म की जाए, किसी गरीब के हक छीनना कैसे खत्म किया जाए, किसी जाति या धर्म, किसी नस्ल या नागरिकता के लोगों को मारना किस तरह रोका जाए, ताकि बदले में जवाबी हमले में दूसरे लोग न मारे जाएं। कुल मिलाकर बात यह है कि जब तक दुनिया में आर्थिक और सामाजिक, धार्मिक और नस्लवादी भेदभाव खत्म नहीं होंगे, जब तक सामाजिक न्याय का सम्मान नहीं होगा, तब तक आतंक और हिंसा को खत्म करना मुमकिन भी नहीं होगा। और कल भी हमने इसी जगह भारत के उन लोगों को सावधान किया था जो कि आज यहां धार्मिक और सामाजिक उन्माद खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं, जो कि लोकतंत्र से ऊपर जाकर इस देश में कुछ तबकों के धार्मिक अधिकार खत्म करने की बात कर रहे हैं, कुछ लोग जो कि लोकतंत्र को खत्म करके एक धार्मिक-राज लाने की कोशिश कर रहे हैं। उनको यह समझ लेना चाहिए कि जब हिंसा और बेइंसाफी बढ़ते हैं, तो फिर बेकाबू मौतें भी होती हैं। और अगर हिंदुस्तान या किसी दूसरे देश को जिंदा रहना है तो उन्हें सामाजिक न्याय की तरफ बढऩा होगा।
धर्म से परे भी समाज में आर्थिक न्याय जहां-जहां नहीं हुआ, भारत ऐसे तमाम इलाकों में आज नक्सल हिंसा से जूझ रहा है। इन इलाकों में सरकार के भ्रष्ट लोगों में गरीब आदिवासियों का जितना हक खाया होगा, आज सरकार नक्सल मोर्चे पर उससे हजार गुना गंवा रही है। हमारा हमेशा से यह मानना है कि सामाजिक न्याय देना, आतंक से जूझने के मुकाबले सस्ता पड़ता है, आसान रहता है, और जिंदगियां भी इसी तरह से बच सकती हैं। आज भारत में जिस तरह से एक सामाजिक अन्याय का माहौल खड़ा किया जा रहा है, उस बारे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का अपने सांसदों को महज सुझाव देना काफी नहीं है। देश में एक न्यायपूर्ण वातावरण लाने की जरूरत है वरना सरहद पार एक मिसाल सामने है कि लोकतंत्र कमजोर और खत्म होने पर क्या हाल करता है। अफग़़ानिस्तान में अमरीका की बीस बरस की ज्यादती का नतीजा है कि वहां तालिबान कामयाब हुए हैं। हिंदुस्तान के भी देश-प्रदेश की सरकारों को ज्यादती से बचना चाहिए।
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