संपादकीय
ऑस्ट्रेलिया में अभी वहां की सबसे बड़ी अदालत ने एक फैसला दिया है जिसमें उसने मीडिया कंपनियों को सोशल मीडिया पर उनकी पोस्ट के नीचे लोगों के किए गए कमेंट के लिए भी जिम्मेदार माना है. मानहानि के एक मामले में निचली अदालत से चलते हुए यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था, और मीडिया कंपनियों का यह कहना था कि ये टिप्पणियां सोशल मीडिया पर दूसरे लोग करते हैं जिसके लिए उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन अदालत ने यह माना है कि जब मीडिया कंपनियां अपने समाचार या दूसरी सामग्री सोशल मीडिया पर पोस्ट करती हैं, तो उसका मतलब यही होता है कि वह लोगों को वहां पर टिप्पणी करने के लिए आमंत्रित कर रही हैं, या उनका उत्साह बढ़ा रही हैं। इसलिए उनकी टिप्पणियां मीडिया कंपनियों की जिम्मेदारी रहती है। मीडिया और सोशल मीडिया के संगम को लेकर यह एक दिलचस्प फैसला है और दिलचस्प इसलिए भी है कि ऑस्ट्रेलिया एक परिपच् लोकतांत्रिक देश है, और वहां की अदालत का यह फैसला मिसाल के तौर पर दुनिया के दूसरे कई देशों में भी इस्तेमाल किया जा सकेगा जहां की अदालतों के सामने मीडिया कंपनियों के लिए यह एक चुनौती रहेगी कि वे ऐसे तर्क को खारिज करने के लिए कोई दूसरे तर्क दें। फिलहाल ऑस्ट्रेलिया के सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया कंपनियों के इस तर्क को पूरी तरह से खारिज कर दिया है, और इस पर अंतिम फैसला दे दिया है कि एक सार्वजनिक फेसबुक पेज बनाने और उस पर समाचार सामग्री साझा करने से मीडिया कंपनियां प्रकाशक हो जाती हैं, क्योंकि उन्होंने पाठकों को टिप्पणियां करने के लिए मंच उपलब्ध कराया, और उन्हें टिप्पणियां करने के लिए प्रोत्साहित किया।
अब हिंदुस्तान में इससे मिलती-जुलती नौबत के बारे में अगर देखें तो सोशल मीडिया और इंटरनेट के आने के पहले से अखबारों में पाठकों के पत्र नाम का एक कॉलम बड़ा लोकप्रिय हुआ करता था और अखबार अपने पाठकों का उत्साह बढ़ाते थे कि वे चि_ियां लिखें, और उनमें से चुनिंदा चि_ियां प्रकाशित की जाती थीं। धीरे-धीरे जब लोगों में कानूनी जागरूकता बढ़ी और कुछ मामले मुकदमे होने लगे तो अखबार उसके नीचे यह लाइन लिखने लगे कि पाठकों की राय से संपादक की सहमति अनिवार्य नहीं है। हालांकि उस बात का कोई कानूनी वजन नहीं था, क्योंकि विचार से सहमति हो या असहमति, जब अखबार में छपा है तो उसे तो उसके छपने का फैसला तो संपादक ने ही लिया है. पाठकों के विचारों से संपादक असहमत हो सकते हैं, लेकिन जब छपा है तो संपादक की सहमति छपने में तो थी ही। किसी मामले-मुकदमे में ऐसी नौबत आई या नहीं, ऐसा तो अभी याद नहीं पड़ता है, लेकिन हाल के वर्षों में हिंदुस्तानी मीडिया में एक चलन और बढ़ गया है। अखबारों में या पत्रिकाओं में, या फिर इंटरनेट पर वेब साइटों में भी, लोगों के लिखे गए लेख के नीचे छापा या पोस्ट किया जाता है कि यह लेखक की निजी राय है। यह लाइन अपने आपमें बड़ी हास्यास्पद इसलिए है कि लेखक की अगर निजी राय नहीं होती और वह किसी और की राय को लिखते, तो जाहिर है कि उसे दूसरे के नाम के साथ लिखते। यह फिर अखबार या दूसरे किस्म का मीडिया अपनी जिम्मेदारी से कतराने की कोशिश करते हुए दिख रहा है ताकि किसी कानूनी बखेड़े के खड़े होने पर यह कहा जा सके कि हमने तो पहले ही लिख दिया था कि यह विचार लेखक के अपने हैं। लेखक का तो जो होना है वो होगा, लेकिन मीडिया के प्रकाशक अपनी जिम्मेदारी से कहीं बरी नहीं हो सकते।
ऑस्ट्रेलिया के इस मामले को लेकर यह समझने की जरूरत है कि सोशल मीडिया या वेबसाइटों पर किसी मीडिया कंपनी की सामग्री के नीचे लोग जब अपनी प्रतिक्रिया लिखते हैं, तो उस पेज के प्रबंधक को यह अधिकार रहता है कि वे अवांछित या नाजायज टिप्पणियों को हटा सकें। जो कंपनियां कुछ पोस्ट करती हैं, उन कंपनियों पर यह जिम्मेदारी सही है कि अगर वहां मानहानि या भडक़ाने की बातें लिखी जा रही हैं, तो उन्हें हटाना भी इन कंपनियों की जिम्मेदारी है, और वे अगर इसे नहीं हटाती हैं तो इसे उनकी सहमति या अनुमति माना जाना चाहिए। सोशल मीडिया का तो कहना मुश्किल होगा लेकिन बहुत सी वेबसाइटों पर लोगों की लिखी गई टिप्पणियां तुरंत ही पोस्ट नहीं हो जाती उन्हें वेबसाइट संचालक या उसके मालिक जब देख लेते हैं, और उससे सहमत रहते हैं तभी वे पोस्ट होती हैं।
ऑस्ट्रेलिया के सुप्रीम कोर्ट का फैसला चाहे हिंदुस्तान पर लागू न होता हो लेकिन आगे-पीछे क्योंकि इंटरनेट और सोशल मीडिया की विश्वव्यापी मौजूदगी है, इसलिए दुनिया की अदालतों में एक दूसरे की मिसालें दी जाती रहेंगी। इसलिए इस बात से हम सहमत हैं कि पेशेवर मीडिया कंपनियों की पोस्ट की हुई सोशल मीडिया सामग्री पर जो टिप्पणियां होती हैं उनकी जिम्मेदारी से वे कंपनियां बरी नहीं हो सकतीं। कुछ ऐसा ही मामला राजनीतिक दलों के सोशल मीडिया पेज पर भी होना चाहिए जिन पर लोग हिंदुस्तान में तो तरह-तरह की धमकियां देते हैं, और चरित्र हनन करते हुए लांछन लगाते हैं. ऐसे लोगों की लिखी गई बातों को अनदेखा करने के लिए इन राजनीतिक दलों को जिम्मेदार ठहराना चाहिए जिनके वेबपेज हैं। या तो वे ऐसी तरकीब निकालें कि उन पर पोस्ट होने के पहले उसे देख लें, या उसे पोस्ट होने के बाद हटाने के लिए एक नियमित इंतजाम करके रखें। मीडिया कंपनियों और राजनीतिक दलों को ऐसी रियायत नहीं दी जा सकती कि वे किसी मकान के मालिक की तरह दीवार बनाकर भीतर रहे लेकिन बाहर दीवार पर अगर कोई गालियां लिख जाए तो वे उसके लिए जिम्मेदार करार नहीं दिए जाएं। कारोबारी कंपनियों और पेशेवर राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी आम लोगों के मुकाबले अधिक होनी चाहिए क्योंकि वे अपने धंधे के नफे के लिए ऐसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करते हैं।
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