संपादकीय
भारत के ठीक पड़ोस का एक देश श्रीलंका इन दिनों आर्थिक इमरजेंसी से गुजर रहा है। देश की हालत यह हो गई है कि लोग दाने-दाने को मोहताज हो रहे हैं, दुकानों में सामान खाली हो चुका है, लोग खाली झोले लिए हुए दुकानों के सामने लंबी कतारों में हैं, सामानों के दाम आसमान पर पहुंच रहे हैं. जो सामान आयात किया जाता है उसके कारोबारी भी बुरी दिक्कतें झेल रहे हैं क्योंकि श्रीलंका के रुपए का दाम डॉलर के मुकाबले 200 तक पहुंच गया है, और सरकार ने चीजों के आयात या विदेशी मुद्रा के इस्तेमाल पर कई तरह की बहुत ही कड़ी रोक लगा दी है। देश में हालत कितनी खराब है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वहां की फौज के एक मेजर जनरल को खाने-पीने के सामानों के इंतजाम में लगाया गया है कि वह व्यापारियों की जमाखोरी पर नजर रखे जहां नियमों के खिलाफ सामान इक_े किए गए हैं उन्हें जप्त करे, और सरकारी ढांचे के तहत उन्हें उचित दामों पर ग्राहकों को बेचने का इंतजाम करें। श्रीलंका की सेना अब इस काम को देख रही है। लेकिन यह देखना बहुत दिलचस्प होगा कि श्रीलंका की इस नौबत के लिए कौन सी बातें जिम्मेदार हैं?
इस सिलसिले की शुरुआत कुछ जानकार लोगों के मुताबिक अप्रैल के महीने से होती है जब वहां के राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने यह फैसला लिया कि पूरे देश में रासायनिक खाद का इस्तेमाल पूरी तरह बंद किया जा रहा है। क्योंकि रासायनिक खाद पूरे का पूरा आयात होता था, इसलिए यह सरकार के हाथ में था कि खाद का आयात, और इस्तेमाल पूरी तरह बंद कर दिया जाए और देश को पूरी तरह जैविक खाद की तरफ ले जाया जाए। खबरें बताती हैं कि राष्ट्रपति राजपक्षे ने संयुक्त राष्ट्र में भाषण देते हुए अपने इस फैसले को ऐतिहासिक फैसला बताया था और दुनिया के भविष्य को बदलने वाला भी। राजपक्षे ने दुनिया के दूसरे देशों को भी यह नसीहत दी थी कि वे भी पूरी तरह रासायनिक खाद को बंद करके पूरी तरह जैविक खाद की तरफ जाएं। अब दिक्कत ये हुई है कि श्रीलंका की खेती जिसमें कई किस्म की फसल देशों से निर्यात होती थी, उनमें चाय पत्ती की फसल इस बार आधी ही रह जाने की आशंका चाय उगाने वाले संगठनों को है. कुछ ऐसा ही किसान संगठनों का मानना है कि देश में चावल की उपज इस साल आधी रह जाएगी। राष्ट्रपति के इस अतिमहत्वाकांक्षी या उन्मादी किस्म के फैसले का नतीजा यह निकला है कि देश में जैविक खाद का उत्पादन तो रातों-रात नहीं बढ़ पाया, लेकिन रासायनिक खाद आना बंद हो गया। श्रीलंका के बाहर के भी बहुत से कृषि वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इस किस्म का फैसला एक रसायन-विरोधी सोच या पसंद को बताने वाला तो हो सकता है, लेकिन इसका व्यावहारिकता से कोई लेना-देना नहीं है। वैज्ञानिक मानते, और जानते हैं कि दुनिया के किसी देश ने इस तरह रातों-रात रासायनिक खाद को छोडऩे में कामयाबी नहीं पाई, और न ही कोई देश पूरी तरह से जैविक खाद पर जा पाया है। यूरोप के जो सबसे संपन्न देश हैं, जिनकी अर्थव्यवस्था सबसे मजबूत है, वे देश भी पूरी तरह जैविक खाद पर नहीं जा पाए हैं।
दुनिया के वैज्ञानिक और अर्थशास्त्रियों का यह अंदाज है कि श्रीलंका के राष्ट्रपति का यह सनकी, मनमाना, और बिना किसी वैज्ञानिक आधार के लिया गया यह फैसला देश को तबाह करने जा रहा है, क्योंकि इसके पीछे न किसानी की समझ है, न अर्थशास्त्र की समझ है। यह केवल एक ऐसे शासक के तानाशाह दिमाग से निकला हुआ फैसला है, जो यह सोचता है कि वह कुछ भी कर सकता है। क्योंकि श्रीलंका की सरकार पूरी तरह से राजपक्षे कुनबे तले दबी हुई है, इसलिए कुनबे से भरा हुआ मंत्रिमंडल राष्ट्रपति के साथ है, और कोई वहां पर विरोध कर नहीं पा रहा है। राजपक्षे के छोटे भाई महिंदा राजपक्षे प्रधानमंत्री हैं, तीन और मंत्री घर के हैं. कहने के लिए तो देश में आज सिर्फ आर्थिक आपातकाल लगाया गया है लेकिन वहां के कानून के जानकार लोगों का कहना है कि यह पूरी तरह से पूरा-आपातकाल ही है, और इसमें नागरिकों पर वे सारे प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं, जो इसके पहले के आपातकाल में लगाए गए हैं। इसका मतलब यह है कि लोग वहां सरकार की किसी बात का विरोध नहीं कर पाएंगे, सरकार उन्हें बिना लंबी सुनवाई जेलों में बंद रख सकेगी, और देश की फसल गिरने की जो खतरनाक नौबत वहां आई हुई है, उसे छुपाए रखने के लिए, दबाए रखने के लिए मीडिया और आम लोगों को कुचला भी जा सकता है। श्रीलंका जो कि अभी कुछ अरसा पहले तक इस इलाके की एक अच्छी अर्थव्यवस्था माना जाता था, उसने अपने शासन प्रमुख के इस एक मनमाने फैसले के चलते दम तोड़ दिया है, और लोगों को खाने-पीने तक के सामान नसीब नहीं हो रहे हैं। यह किसी भी देश के लिए एक भयानक नौबत है कि वहां की सेना राशन का इंतजाम देख रही है।
जब कोई देश इस किस्म की भयानक हालत का शिकार रहता है, तो वह अंतरराष्ट्रीय शिकारियों के लिए एक शिकार भी बन जाता है। भारत के बहुत से लोग पिछले वर्षों की श्रीलंका की चीन नीति देखते हुए कुछ परेशान भी चल रहे थे कि श्रीलंका धीरे-धीरे चीन पर अधिक से अधिक निर्भर होते चल रहा है। अब आज हालत यह है कि श्रीलंका के इस आर्थिक आपातकाल के पहले के एक साल में चीन ने उसे बहुत बड़ा कर्ज दिया हुआ है। श्रीलंका की कोरोना की पहली लहर से जूझने की कई जगहों पर तारीफ हो रही है और इसके साथ ही यह याद रखना जरूरी है कि श्रीलंका को चीन से कोरोना की वैक्सीन मिली, भारत से नहीं मिली। श्रीलंका को चीन से कर्ज मिला, भारत से नहीं मिला। भारत के पिछले कर्ज की वापिसी के लिए श्रीलंका ने कुछ और समय मांगा है, उस पर भी भारत ने अब तक कोई फैसला नहीं लिया है। इसलिए आज चीन आज श्रीलंका के आड़े वक्त पर उसके साथ में खड़ा हुआ देश है, और भारत को यह सोचना चाहिए कि एक तरफ पाकिस्तान, कुछ दूरी पर अफगानिस्तान, और इधर श्रीलंका, क्या यह सब मिलकर भारत की एक चीनी घेराबंदी नहीं बन रहे हैं? दूसरी तरफ आज श्रीलंका जैसी मुसीबत से गुजर रहा है और उसे मदद की जितनी जरूरत है, उसमें हिंदुस्तान को अपनी विदेश नीति के तहत श्रीलंका के किस हद तक काम आना है, इसे तय किया जाना चाहिए। अगर सरकार यह तय करती है कि उसे कुछ भी नहीं करना है, तो यह एक फैसले के तहत होना चाहिए, न की कोई फैसला न लेने से ऐसी नौबत आनी चाहिए।
श्रीलंका दुनिया के तमाम देशों के लिए मनमाने आत्मघाती तानाशाह फैसले का शिकार एक देश बनकर बुरी हालत में सामने खड़ा है, देखें आगे से कौन-कौन से देश और कौन-कौन से शासन प्रमुख क्या-क्या सबक लेते हैं। श्रीलंका की नौबत से दुनिया के दूसरे देशों को चाहे जो सबक लेना हो वे लेते रहें, और शायद यह सबक सबको लेना चाहिए कि कोई शासन प्रमुख अपने बेबुनियाद और मनमाने फैसलों से देश को किस तरह गड्ढे में डाल सकते हैं, और किस तरह लोकतांत्रिक देशों को ऐसे फैसलों, और ऐसे शासकों से बचना चाहिए। श्रीलंका की भुखमरी की नौबत की तरफ जाने के खतरे को देखते हुए भारत सहित दूसरे देशों को मनमाने सरकारी फैसलों के बारे में दोबारा सोचना चाहिए। यह सोचना चाहिए कि वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों के हिस्से का काम मामूली पढ़े-लिखे नेताओं को नहीं करना चाहिए।
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