संपादकीय
पूरे हिंदुस्तान में कल से कांग्रेस पार्टी एक नए मखौल का सामान बन गई है। पंजाब में मुख्यमंत्री को जिस अंदाज में, अपमान के साथ हटाया गया है, और अभी कल ही भाजपा से आए हुए नवजोत सिंह सिद्धू को पहले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया, और फिर जिस तरह उनके हमलावर बयान आए कि उनके मर्जी से सब कुछ नहीं किया जाएगा तो वह सब कुछ तबाह कर देंगे, और मानो उनकी ही मर्जी से कांग्रेस के एक सबसे सीनियर नेता और मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को अपमानित करके कुर्सी से हटने के लिए मजबूर किया गया, उसने कांग्रेस पार्टी की पूरे देश में थू थू कर दी। खासकर तब, जब पिछले कुछ महीनों में एक के बाद दूसरे भाजपा मुख्यमंत्री बिना किसी हंगामे के, बिना किसी विरोध के हटा दिए गए, और मनचाहे मुख्यमंत्री बना दिए गए, पार्टी के बाहर किसी को कानों-कान कोई खबर नहीं हुई, ऐसे माहौल में कांग्रेस की यह हालत उसकी रही-सही साख को चौपट करने वाली है। यह बात इसलिए भी कांग्रेस के लिए अधिक फिक्र की है कि देश में उसके पास गिने-चुने राज्य रह गए हैं, और पंजाब के अलावा कम से कम दो और ऐसे राज्य हैं जहां कांग्रेस में मुख्यमंत्री को लेकर एक गंभीर स्थानीय चुनौती खड़ी हुई है। राजस्थान में पिछले एक दो बरस से सचिन पायलट की अगुवाई में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ एक अभियान चल ही रहा है। बीच में तो ऐसी नौबत थी कि राजस्थान के कांग्रेस विधायकों का एक हिस्सा कई दिन तक हरियाणा के किसी रिसॉर्ट में पड़े रहा, देश में ऐसी भी अफवाह रही कि कांग्रेस खुद ही अपने विधायकों को खरीदकर वापस ले गई और किसी तरह सरकार को बचाया। अब पंजाब की इस उथल-पुथल को देखें तो छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और उन्हें बेदखल करके मुख्यमंत्री बनने का दावा करने वाले टीएस सिंहदेव के बीच चले आ रहे तनाव को पंजाब के इस हालात से बढ़ावा ही मिलेगा। कांग्रेस के पास इन राज्यों को अगले चुनाव में खोने के बाद देश में कुछ भी नहीं बचेगा और उसके बाद हो सकता है कि यह पार्टी बिना किसी अध्यक्ष के भी जिंदा रह सके।
कांग्रेस की दिक्कतें कम नहीं है। पिछला लोकसभा चुनाव हारने के बाद राहुल गांधी ने जिस तरह पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ा और जिस तरह वे एक सार्वजनिक जिद पर अड़े रहे कि अगला अध्यक्ष सोनिया परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति को बनाया जाए, उन्होंने अपने-आपको अध्यक्ष पद से अलग कर दिया, लेकिन हालत यह है कि पार्टी के सारे मामले घूम-फिर कर उनके पास ही पहुंचते हैं। वे बंद कमरों में पार्टी के सबसे महत्वपूर्ण मामलों पर बैठक करते हैं। उनके बिना पार्टी का गुजारा नहीं है, लेकिन वे किसी ओहदे पर नहीं है और वे पार्टी संगठन के भीतर एक संविधानेतर सत्ता बने हुए हैं। जिम्मेदारी कुछ नहीं, अधिकार पूरे के पूरे। कांग्रेस और भाजपा के साथ यह एक बात दिलचस्प है कि भाजपा के फैसलों को लेकर कई बार यह चर्चा होती है कि यह संघ परिवार ने तय किया, और संघ परिवार ने करवाया, और संघ प्रमुख की मर्जी से ऐसा हुआ। जबकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने आप को एक गैरराजनीतिक संगठन कहता है, और यह भी कहता है कि उसका भाजपा से कोई लेना देना नहीं है। ठीक वैसे ही राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष पद से कोई लेना देना नहीं है, लेकिन कांग्रेस में जो कुछ और होता है वह उनकी मर्जी से होता है। अब इन दो संस्थाओं की संविधानेतर सत्ता की और तो कोई तुलना नहीं है सिवाय इसके कि ये दो पार्टियां मोटे तौर पर इनके फैसलों के मुताबिक ही चलती हैं, वरना एक सांस्कृतिक संगठन से एक राजनीतिक संगठन के संगठन मंत्री अनिवार्य रूप से क्यों इंपोर्ट किए जाते हैं?
कांग्रेस पार्टी के दिक्कत महज पंजाब को लेकर या राजस्थान और छत्तीसगढ़ को लेकर नहीं है, यह दिक्कत एक पार्टी संगठन की दिक्कत है जिसमें जो अध्यक्ष बनना नहीं चाहते उन्हीं को पार्टी के अधिकतर लोग अध्यक्ष बनाने पर आमादा हैं, ऐसे में पार्टी में जिम्मेदारी किसकी है, और अधिकार किसके पास हैं, इस पर धुंध छाई हुई है। कल पंजाब के मुख्यमंत्री रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कहा कि राहुल गांधी से पिछले 2 साल में उनकी मुलाकात नहीं हुई। अब सवाल यह है कि जिसकी मर्जी के बिना कांग्रेस में पत्ता नहीं हिल सकता, वह अपने पिता के वक्त से कांग्रेस का एक बड़ा नेता रहे हुए एक बुजुर्ग कांग्रेस मुख्यमंत्री से दो 2 बरस तक मिलना न चाहे, तो ऐसे में पार्टी का क्या हाल होगा? हमारा किसी प्रदेश के किसी एक नेता से कोई लेना देना नहीं है लेकिन अगर उनके प्रदेशों में कांग्रेस की सरकार है, तो यह तो होना चाहिए कि वहां के जलते-सुलगते मुद्दों को लेकर कांग्रेस पार्टी वक्त पर सोच-विचार कर ले और वक्त रहते फैसला कर ले।
कल हिंदुस्तान के राजनीतिक विश्लेषकों ने इस बात पर कांग्रेस की समझ पर बड़ा अफसोस जाहिर किया कि अब जब पंजाब में चुनाव को कुछ ही महीने बाकी रह गए हैं, तब जाकर मुख्यमंत्री को हटाया गया है। अगर हटाना ही था तो पहले हटा देना था। दूसरी बात जो कैप्टन अमरिंदर सिंह के मामले में तो सामने नहीं आई, लेकिन भाजपा के कुछ मुख्यमंत्रियों को हटाने के मामले में जरूर सामने आई कि वे अपने-अपने प्रदेशों में कुछ अधिक ताकतवर हो रहे थे, इसलिए भाजपा हाईकमान ने उन्हें हटाकर ऐसे लोगों को बिठाया जो कि हाईकमान के कहे, बनाए ही नेता बने हैं, जिनका अपना जनाधार कम है। कांग्रेस पार्टी दशकों से इस बात के लिए बदनाम रहते आई है कि वह अपने किसी क्षेत्रीय नेता को कभी इतना मजबूत नहीं होने देती कि वह हाईकमान के सामने रीढ़ की हड्डी सीधी करके खड़े हो सकें। कमोबेश वैसा ही हाल अब भाजपा में हो चला है क्योंकि भाजपा के ढेर सारे नेता कांग्रेस से वहां पहुंचे हैं और भाजपा को यह समझ आ गया है कि कांग्रेस को हराने के लिए कांग्रेस की संस्कृति को अपनाना, और कांग्रेस के लोगों को अपनाना, दोनों ही जरूरी है। इसलिए एक वक्त के नरेंद्र मोदी सरीखे मजबूत मुख्यमंत्री आज भाजपा में नहीं रहने दिए जा रहे हैं, क्योंकि पार्टी की केंद्रीय सत्ता ऐसे मजबूत मुख्यमंत्रियों को राजधर्म नहीं सिखा पाएगी। अब लोगों का अंदाज भी है कि भाजपा का निशाना उसके अपने किस अगले मुख्यमंत्री पर होगा।
कांग्रेस की बात पर लौटें, पार्टी अपनी बुनियाद होते जा रही है और नेहरू-गांधी की विरासत का नाम लेकर वह अब किसी वार्ड का चुनाव भी नहीं जीत सकती। देश में नरेंद्र मोदी ने एक नए दर्जे की राजनीति, और राजनीति में नई ऊंचाई की मेहनत को पेश कर दिया है। एक ओवरटाइम करने वाले प्रधानमंत्री के मुकाबले एक पार्ट टाइम पार्टी अध्यक्ष की कोई गुंजाइश भारत की चुनावी राजनीति में नहीं है। कांग्रेस जब अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष के स्तर का विवाद नहीं सुलझा पा रही है, राज्यों के मुख्यमंत्रियों का विवाद क्या सुलझा सकेगी। इसलिए कांग्रेस की यह शर्मनाक नौबत उसके केंद्रीय नेतृत्व की घोर असफलता से उपजी हुई है, उसके लिए तसल्ली की यही बात हो सकती है कि अब खोने को कुल दो-तीन प्रदेश ही बचे हैं। कांग्रेस के लोगों को यही राहत हो सकती है कि पार्टी लीडरशिप का यही हाल जारी रहा तो भी उसे दो तीन राज्यों से अधिक का नुकसान नहीं होगा। अब कांग्रेस का जो भी बदहाल हो वह भाजपा के राज्य तो खो नहीं सकती, और अपने राज्य उसके घरेलू कलह और हाईकमान की अनदेखी के शिकार हैं।
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